चीन की बड़ी प्रसिद्ध कहानी है। एक महिला ने एक फकीर की जीवन भर सेवा की, तीस वर्षों तक। जब वह मरने को थी तो उसने एक बड़ी अजीब बात की। उसने गांव की सुंदरतम वेश्या को बुलाया और कहा कि मैंने इस फकीर की सेवा करते-करते तीस वर्ष व्यतीत किए हैं, अब मैं मरने के करीब हूं, मैं यह जानना चाहती हूं कि यह सच में ही अनासक्त हुआ है या अभी भी विरक्त ही है। करीब हूं, मैं यह जानना चाहती हूं कि यह सच में ही अनासक्त हुआ है या अभी भी विरक्त ही है।
वेश्या ने भी पूछा कि अनासक्ति और विरक्ति में क्या भेद है?
उस स्त्री ने कहा, विरक्ति का अर्थ यह है कि अभी भी आसक्ति है और आसक्ति का डर है और आसक्ति से बचने की चेष्टा है। और अनासक्ति का अर्थ होता है–न आसक्ति रही, न विरक्ति रही; न डर रहा, न लोभ रहा; दोनों का अतिक्रमण; द्वंद्व का अतिक्रमण।
तो तू एक काम कर–उसने वेश्या को कहा–कि जो तुझे लेना हो उतने पैसे मैं दूंगी। तू आधी रात आज चली जा। वह फकीर आधी रात को ध्यान करता है। तीस साल से कर रहा है, अभी तक हुआ ध्यान या नहीं, यह मैं जानना चाहती हूं। मरने के पहले यह पक्का कर लेना चाहती हूं कि जिसकी सेवा की, व्यर्थ ही तो नहीं की। तो तू चली जाना भीतर। उसकी झोंपड़ी का द्वार अटका ही रहता है, क्योंकि कोई कभी जाता ही नहीं। तू द्वार खोल लेना। और वह कुछ भी कहे, एक-एक बात का खयाल रखना, मुझे तुझे बताना पड़ेगा। और जाकर एकदम उसका आलिंगन कर लेना। वह क्या कहता है, क्या करता है, बस तू लौट कर मुझे बता देना। मरने के पहले मै यह जान लेना चाहती हूं।
वह वेश्या गई। उसने दरवाजा खोला। दरवाजा खोला तो साधु एकदम घबड़ाया। उसने आंख खोल कर देखा साधु ने। ध्यान करने बैठा था, एकदम चिल्लाया कि अरी दुष्ट स्त्री! तू यहां क्यों? बाहर निकल! आधी रात को तुझे यहां आने की क्या जरूरत?
लेकिन उनकी जबान लड़खड़ा गई। उसके शरीर में कंपन हो गया। लेकिन वह स्त्री तो पैसा लेकर आई थी, वह तो चलती ही आई। वह चिल्लाया कि दूर रह! पास क्यों आ रही है? वह इतने जोर से चिल्लाया कि पास-पड़ोस के लोग सुन लें। लेकिन उस स्त्री को तो अपना काम पूरा करना था, वह तो आकर उसको गले लगाने लगी। तो वह भागा, उछल कर एकदम दरवाजे के बाहर हो गया और चिल्लाया कि मुहल्ले के लोगों, इस वेश्या को पकड़ो! यह मुझे भ्रष्ट करने आई है।
वह वेश्या लौट कर आई। उसने बुढ़िया को सारी बात कही।
बुढ़िया ने कहा, तो मैंने तीस साल व्यर्थ ही गंवाए। मैं इस मूढ़ की सेवा करती रही। यह विरक्त ही है अभी, अनासक्त नहीं।
ओशो