आज का सारा दिन इतना बुरा गुज़रा था कि बस दिल कर रहा था, सिर फोड़ लूँ अपना। अकेलेपन से बचने के लिए एक दोस्त को फोन किया, तो उसने मुम्बई का एक पता देकर वहाँ पहुँचने के लिए कहा। बस, बेहतर यही लगा मुझे।
उसके दिए पते के सातवें माले (तल/फ्लोर) पर जाने के लिए लिफ्ट का बटन दबा ही रहा था कि दस-ग्यारह साल का एक बच्चा जो सीढ़ियों की तरफ जा रहा था, बोला—
“अंकल, लिफ्ट खराब है,” और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
“अंकल! अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई!” मैंने कोफ्त से कहा।
वह हँस दिया। मेरे बुरे दिन का असर कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब सीढ़ियाँ भी चढ़नी पड़ रही थीं। तीसरे माले पर प्यानो की एक मद्धम सी धुन सुनी जो ऊपर से आ रही थी। ऊपर बढ़ते हुए वह तेज होती गई और मेरे दिल की धड़कन भी। सालों बाद सुनी थी यह धुन। एक बहुत पुराने गीत की धुन जो आजकल कहीं सुनाई नहीं देती क्योंकि कोई बजाना पसंद नहीं करता। मेरी कुछ मधुर यादें जुड़ी थीं इस धुन से।
“ये प्यानो कौन बजा रहा है, दोस्त?”
“मनीषा दीदी,” वह बोला और नाम सुन कर ही ग़श सा आ गया मुझे।
“क्या हुआ अंकल? वह अंधी होते हुए भी बहुत अच्छा सिखाती हैं”।
“अंधी?” मेरे कदम वहीं थम गये। मनीषा की आँखें कितनी प्यारी थीं। ये जरूर कोई और होगी। लेकिन धुन? क्या यह भी संयोग मात्र है?
“क्या यही हैं, मनीषा दीदी?” मैंने जेब से पर्स निकाला।
बच्चे ने हैरानी से मनीषा की तस्वीर देखी और ‘हाँ’ में सिर हिलाया। चौथे माले पर उसने एक दरवाजे की ओर संकेत किया। प्यानो की आवाज़ अब नहीं आ रही थी। मेरे डोर-बैल पुश करने से पहले ही उस बच्चे ने दरवाजा खोल दिया। अंदर प्यानो के पास बैठी थी मनीषा और तीन-चार बच्चे, जो अपने की-बोर्ड्स पर वही धुन बजा रहे थे।
“दीदी कोई आया है,” एक बच्चा बोला।
“कोई बात नहीं, मैं इंतज़ार कर लूँगा,” मैंने तेज धड़कते दिल को संभाला तो मनीषा मेरी आवाज़ सुन कर बेतरह चौंकी।
“बच्चे तो जाने ही वाले हैं,” मनीषा बोली तो बच्चे उठ खड़े हुए। वह अपने हाथों से टटोलने लगी, और प्यानो पर रखा काला चश्मा ढूँढ कर पहन लिया उसने। मैं बस अपलक उसे निहारे जा रहा था। उस सादे, घरेलू लिबास में कितनी बदली हुई लग रही थी, वह। उसे हमेशा स्मार्ट लिबास में ही देखा था मैंने।
“आप कौन हैं? क्या आपके बच्चे को प्यानो सीखना है? आप बैठिए न!” उसने एक ओर पड़े सोफे की ओर इशारा किया। मेरी आँखों में उसे यूँ इस हाल में देख कर आँसू थे, पर वह तो देख नहीं सकती थी न!
“मैं रितेश हूँ, मनीषा!” मेरी भर्राई आवाज़ सुन कर उसके चेहरे पर हैरानी कम, खुशी के भाव अधिक प्रदर्शित हुए।
“मैं तो आवाज़ से एकदम पहचान गई थी, लेकिन तुम्हारे यहाँ होने की कोई संभावना नहीं थी, तो बस लगा कोई और होगा, तुम्हारे जैसी आवाज़ वाला। लेकिन, तुम यहाँ कैसे?”
“मैं मुंबई में ही जॉब करता हूँ, तुम्हारी शादी के बाद यहीं चला आया था। क्या यह तुम्हारी ससुराल है? और तुम्हारी प्यारी आँखें?”
“उफ्फ… लंबी कहानी है। शादी के दो महीने बाद ही हमारा कार-एक्सीडेंट हो गया था जिसमें पति की मौत हो गई थी और मैं अंधी। ये मेरी आंटी का घर है, पति की मौत के बाद अंधी बहू को मनहूस बताते हुए ससुराल वालों ने दरकिनार कर दिया। इतना बड़ा दुख माँ सहन न कर पाई, वह गुज़र गई तो पापा टूट गए और फिर छह महीने में वह भी…” मनीषा इतना कह कर रोने लगी, और उसके साथ मैं भी। सिर्फ दो साल में दुनियां ही बदल गई थी।
तभी कमरे में उसकी आंटी आईं। उन्होंने वह दृश्य देखा तो स्त्रियोचित-गुण से बहुत कुछ समझ गईं—
“मनीषा ने शादी कर ली थी, तो तुमने शादी क्यों नहीं की?”
“जब मनीषा ने परिवार के लिए अपने प्यार की कुर्बानी दे दी, तो मैं मर जाना चाहता था। लेकिन बस परिवार के लिए मुझे भी जीना पड़ा”।
“मुझे माफ कर दो रितेश, मैं तुम्हारी ग़ुनहगार हूँ,” मनीषा व्यथित हो उठी।
“तुम ग़ुनहगार नहीं, मेरा प्यार हो, और हमेशा रहोगी,” मैंने उठ कर मनीषा के हाथ पकड़ लिए।
आंटी की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। उन्हें महसूस हो गया कि मनीषा को मेरे प्रेम की दृष्टि मिल गई थीं।
कहते हैं गुज़रा वक्त लौटता नहीं
मिलना है तेरा, झुठला रहा इसे।