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🐚🐚 कितने राम ? 🐚🐚
एक दिन राम सिंहासन पर विराजमान थे तभी उनकी अंगूठी गिर गई। गिरते ही वह भूमि के एक छेद में चली गई। हनुमान ने यह देखा तो उन्होंने लघु रूप धरा और उस छेद में से अंगूठी निकालने के लिए घुस गए। हनुमान तो ऐसे हैं कि वे किसी भी छिद्र में घुस सकते हैं, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो।

छेद में चलते गए, लेकिन उसका कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा था तभी अचानक वे पाताल लोक में गिर पड़े। पाताल लोक की कई स्त्रियां कोलाहल करने लगीं- ‘अरे, देखो-देखो, ऊपर से एक छोटा-सा बंदर गिरा है।’ उन्होंने हनुमान को पकड़ा और एक थाली में सजा दिया।

पाताल लोक में रहने वाले भूतों के राजा को जीव-जंतु खाना पसंद था इसलिए छोटे-से हनुमानजी को बंदर समझकर उनके भोजन की थाली में सजा दिया। थाली पर बैठे हनुमान पसोपेश में थे कि अब क्या करें।
उधर, रामजी हनुमानजी के छिद्र से बाहर निकलने का इंतजार कर रहे थे। तभी महर्षि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा उनसे मिलने आए। उन्होंने राम से कहा- ‘हम आपसे एकांत में वार्ता करना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई हमारी बात सुने या उसमें बाधा डाले। क्या आपको यह स्वीकार है?’

प्रभु श्रीराम ने कहा- ‘स्वीकार है।’
इस पर ब्रह्माजी बोले, ‘तो फिर एक नियम बनाएं। अगर हमारी वार्ता के समय कोई यहां आएगा तो उसका शिरोच्छेद कर दिया जाएगा।’

प्रभु श्रीराम ने कहा- ‘जैसी आपकी इच्छा।’

अब सवाल यह था कि सबसे विश्वसनीय द्वारपाल कौन होगा, जो किसी को भीतर न आने दे? हनुमानजी तो अंगूठी लेने गए थे। ऐसे में राम ने लक्ष्मण को बुलाया और कहा कि तुम जाओ और किसी को भी भीतर मत आने देना। लक्ष्मणजी को भली-भांति समझाकर राम ने द्वारपाल बना दिया।
लक्ष्मण द्वार पर खड़े थे, तभी महर्षि विश्वामित्र वहां आए और कहने लगे- ‘मुझे राम से शीघ्र मिलना अत्यावश्यक है। बताओ, वे कहां हैं?’

लक्ष्मण ने कहा- ‘आदरणीय ऋषिवर अभी अंदर न जाएं। वे कुछ और लोगों के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण वार्ता कर रहे हैं।’

विश्‍वामित्र ने कहा- ‘ऐसी कौन-सी बात है, जो राम मुझसे छुपाएं?’
विश्वामित्र ने पुन: कहा- ‘मुझे अभी, बिलकुल अभी अंदर जाना है।’

लक्ष्मण ने कहा- ‘आपको अंदर जाने देने से पहले मुझे उनकी अनुमति लेनी होगी।’

विश्वामित्र ने कहा- ‘तो जाओ और पूछो।’

तब लक्ष्मण ने कहा- ‘मैं तब तक अंदर नहीं जा सकता, जब तक कि राम बाहर नहीं आते। आपको प्रतीक्षा करनी होगी।’
विश्वामित्र क्रोधित हो गए और कहने लगे- ‘अगर तुम अंदर जाकर मेरी उपस्थिति की सूचना नहीं देते हो, तो मैं अपने अभिशाप से अभी पूरी अयोध्या को भस्मीभूत कर दूंगा।’

लक्ष्मण के समक्ष धर्मसंकट उपस्थित हो गया। वे सोचने लगे कि अगर अभी अंदर जाता हूं तो मैं मरूंगा और अगर नहीं जाता हूं ‍तो यह ऋषि अपने कोप में पूरे राज्य को भस्म कर डालेंगे। फिर लक्ष्मण ने सोचा कि ऐसे में बेहतर है कि मैं ही अकेला मरूं इसलिए वे अंदर चले गए।

राम ने पूछा- ‘क्या बात है?’

लक्ष्मण ने कहा- ‘महर्षि विश्वामित्र आए हैं।’

राम ने कहा- ‘अंदर भेज दो।’

विश्वामित्र अंदर गए। एकांत वार्ता तब तक समाप्त हो चुकी थी। ब्रह्मा और वशिष्ठ राम से मिलकर यह कहने आए थे कि ‘मृत्युलोक में आपका कार्य संपन्न हो चुका है। अब आप अपने राम अवतार रूप को त्यागकर यह शरीर छोड़ दें और पुनः ईश्वर रूप धारण करें।’ ब्रह्मा और ‍वशिष्ठ ऋषि को यही कुल मिलाकर उन्हें कहना था।
लेकिन लक्ष्मण ने राम से कहा- ‘भ्राताश्री, आपको मेरा शिरोच्छेद कर देना चाहिए।’

राम ने कहा- ‘क्यों? अब हमें कोई और बात नहीं करनी थी, तो मैं तुम्हारा शिरोच्छेद क्यों करूं?’

लक्ष्मण ने कहा- ‘नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते। आप मुझे सिर्फ इसलिए छोड़ नहीं सकते कि मैं आपका भाई हूं। यह राम के नाम पर एक कलंक होगा। मुझे दंड मिलना चाहिए, क्योंकि मैंने आपके एकांत वार्तालाप में विघ्न डाला है। यदि आप दंड नहीं देंगे तो मैं प्राण त्याग दूंगा।’
लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे जिन पर विष्णु शयन करते हैं। उनका भी समय पूरा हो चुका था। वे सीधे सरयू नदी तक गए और उसके प्रवाह में विलुप्त हो गए। जब लक्ष्मण ने अपना शरीर त्याग दिया तो राम ने अपने सभी अनुयायियों, विभीषण, सुग्रीव और दूसरों को बुलाया और अपने जुड़वां पुत्रों लव और कुश के राज्याभिषेक की व्यवस्था की। इसके बाद राम भी सरयू नदी में प्रवेश कर गए।
उधर, इस दौरान हनुमान पाताललोक में थे। उन्हें अंततः भूतों के राजा के पास ले जाया गया। उस समय वे लगातार राम का नाम दुहरा रहे थे, ‘राम…, राम…, राम…।’

भूतों के राजा ने पूछा- ‘तुम कौन हो?’

हनुमानजी ने कहा- ‘मैं हनुमान।’

भूतराज ने पूछा, ‘हनुमान? यहां क्यों आए हो?’
हनुमानजी ने कहा- ‘श्रीराम की अंगूठी एक छिद्र में गिर गई थी। मैं उसे निकालने आया हूं।’

भूतों के राजा हंसने लगे और फिर उन्होंने इधर-उधर देखा और हनुमानजी को अंगूठियों से भरी एक थाली दिखाई। थाली दिखाते हुए कहा- ‘तुम अपने राम की अंगूठी उठा लो। मैं नहीं जानता कि कौन-सी अंगूठी तुम्हारे राम की है।’
हनुमान ने सभी अंगूठियों को गौर से देखा और सिर को डुलाते हुए बोले- ‘मैं भी नहीं जानता कि इनमें से कौन-सी राम की अंगूठी है, सारी अंगूठियां एक जैसी दिखाई दे रही हैं।’

भूतों के राजा ने कहा कि इस थाली में जितनी भी अंगूठियां हैं सभी राम की ही हैं, लेकिन तुम्हारे राम की इनमें से कौन-सी है, यह तो तुम्हें ही जानना होगा। इस थाली में जितनी अंगूठियां हैं, उतने ही राम अब तक हो गए हैं।
और सुनो हनुमान, जब तुम धरती पर लौटोगे तो राम नहीं मिलेंगे। राम का यह अवतार अपनी अवधि पूरी कर चुका है। जब भी राम के किसी अवतार की अवधि पूरी होने वाली होती है, उनकी अंगूठी गिर जाती है। मैं उन्हें उठाकर रख लेता हूं। अब तुम जा सकते हो।’

हनुमान आश्चर्यचकित होकर वापस लौट गए।
🌹नमो नारायण मंगल प्रभात🌹
🐚जय 👣श्रीराम 🐚
🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे ,


बहुत शिक्षाप्रद कहानी है हम सबके जीवन से जुड़ी। पढ़े

एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे , एक दिन उनके पास एक निर्धन आदमी आया और बोला की मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये ,मैं उसमे खेती करूँगा और खेती करके कमाई करूँगा।

वह अतिश्रेष्ठ व्यक्ति बहुत दयालु थे। उन्होंने उस निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया और साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये और कहा की इन पांच किसानों को साथ में लेकर खेती करो, खेती करने में आसानी होगी, इस से तुम और अच्छीफसल की खेती करके कमाई कर पाओगे।

वो निर्धन आदमी ये देख के बहुत खुश हुआ की उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये।

लेकिन वो आदमी अपनी इस ख़ुशी में बहुत खो गया, और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे और वह निर्धन आदमी अपनी ख़ुशी में डूबा रहा, और जब फसल काटने का समय आया तो देखा की फसल बहुत ही ख़राब हुई थी , उन पांच किसानो ने खेत का उपयोग अच्छे से नहीं किया था, न ही अच्छे बीज डाले जिससे फसल अच्छी नही हुयी।

जब वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस माँगा तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला की मैं बर्बाद हो गया , मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका।

अब यहाँ ध्यान दीजियेगा….

वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति हैं ‘भगवान’

निर्धन व्यक्ति हैं “हम”

खेत है -“हमारा शरीर”

पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां-आँख,कान,नाक,जीभ और मन।

प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल (कर्म) करने को दिया है और हमें इन पांच किसानो को अर्थात इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहिये, जिससे जब वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब करें तो हमें रोना न पड़े।

एक रानी अपने गले का हीरों का हार निकाल कर खूंटी पर टांगने वाली ही थी कि एक बाज आया और झपटा मारकर हार ले उड़ा..चमकते हीरे देखकर बाज ने सोचा कि खाने की कोई चीज हो. वह एक पेड़ पर जा बैठा और खाने की कोशिश करने लगा..हीरे तो कठोर होते हैं।

उसने चोंच मारा तो दर्द से कराह उठा. उसे समझ में आ गया कि यह उसके काम की चीज नहीं. वह हार को उसी पेड़ पर लटकता छोड़ उड़ गया..रानी को वह हार प्राणों सा प्यारा था।

उसने राजा से कह दिया कि हार का तुरंत पता लगवाइए वरना वह खाना-पीना छोड़ देगी। राजा ने कहा कि दूसरा हार बनवा देगा लेकिन उसने जिद पकड़ ली कि उसे वही हार चाहिए..सब ढूंढने लगे पर किसी को हार मिला ही नहीं. रानी तो कोप भवन में चली गई थी।

हार कर राजा ने यहां तक कह दिया कि जो भी वह हार खोज निकालेगा उसे वह आधे राज्य का अधिकारी बना देगा..अब तो होड़ लग गई. राजा के अधिकारी और प्रजा सब आधे राज्य के लालच में हार ढूंढने लगे..अचानक वह हार किसी को एक गंदे नाले में दिखा।

हार दिखाई दे रहा था, पर उसमें से बदबू आ रही थी लेकिन राज्य के लोभ में एकसिपाही कूद गया..बहुत हाथ-पांव मारा, पर हार नहीं मिला. फिर सेनापति ने देखा और वह भी कूद गया. दोनों को देख कुछ उत्साही प्रजा जन भी कूदगए।

फिर मंत्री कूदा..इस तरह जितने नाले से बाहर थे उससे ज्यादा नाले के भीतर खड़े उसका मंथन कर रहे थे. लोग आते रहे और कूदते रहे लेकिन हार मिला किसी को नहीं..जैसे ही कोई नाले में कूदता वह हार दिखना बंद हो जाता।

थककर वह बाहर आकर दूसरी तरफ खड़ा हो जाता..आधे राज्य का लालच ऐसा कि बड़े-बड़े ज्ञानी, राजा के प्रधानमंत्री सब कूदने को तैयार बैठे थे. सब लड़ रहे थे कि पहले मैंनाले में कूदूंगा तो पहले मैं. अजीब सी होड़ थी..इतने में राजा को खबर लगी।

राजा को भय हुआ कि आधा राज्य हाथ से निकल जाए, क्यों न मैं ही कूद जाऊं उसमें ? राजा भी कूद गया..एक संत गुजरे उधर से. उन्होंने राजा, प्रजा, मंत्री, सिपाही सबको कीचड़ में सना देखा तो चकित हुए..वह पूछ बैठे क्या इस राज्य में नाले में कूदने की कोई परंपरा है ?

लोगों ने सारी बात कह सुनाई..संत हंसने लगे, भाई ! किसी ने ऊपर भी देखा ? ऊपर देखो, वह टहनी पर लटका हुआ है. नीचे जो तुम देख रहे हो, वह तो उसकी परछाई है. राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ.हम सब भी उस राज्य के लोगों की तरह बर्ताव कर रहे हैं।

हम जिस सांसारिक चीज में सुख-शांति और आनंद देखते हैं दरअसल वह उसी हार की तरह है जो क्षणिक सुखों के रूप में परछाई की तरह दिखाई देता है..हम भ्रम में रहते हैं कि यदि अमुक चीज मिल जाए तो जीवन बदल जाए, सब अच्छा हो जाएगा।

लेकिन यह सिलसिला तो अंतहीन है..सांसारिक चीजें संपूर्ण सुख दे ही नहीं सकतीं. सुख शांति हीरों का हार तो है लेकिन वह परमात्मा में लीन होने से मिलेगा. बाकी तो सब उसकी परछाई है।

प्रस्तुतीकरण।
पंडित कृष्ण दत्त शर्मा दिल्ली।

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क्या आपने ऐसी माँ और पत्नी कहीं देखी सुनी है?


क्या आपने ऐसी माँ और पत्नी कहीं देखी सुनी है?

बात उस समय की है जब भगवान् श्री रामजी वनवास को जा रहे है, तब लक्ष्मणजी भी जाने को तैयार हुए, तब प्रभु रामजी ने लक्ष्मणजी को माता सुमित्राजी से आज्ञा लेने के लिये भेजते है, उस समय माता के भावों को दर्शाने की कोशिश करूँगा, साथ ही उर्मिलाजी जैसे नारी शक्ति के शौर्य के दर्शन भी कराऊँगा, आप सभी इस पोस्ट को ध्यान से पूरा पढ़े, और भारतीय नारी शक्ति की महानता के दर्शन करें।

  • हरषित हृदयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए॥
    जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥

लक्ष्मण जी हर्षित हृदय से माता सुमित्राजी के पास आए, मानो अंधा फिर से नेत्र पा गया हो। उन्होंने जाकर माता के चरणों में मस्तक नवाया, किन्तु उनका मन रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामजी और जानकीजी के साथ था।

लक्ष्मणजी माँ से वनवास में भगवान् के साथ जाने की आज्ञा मांगते है तब माता सुमीत्राजी ने कहा, लखन बेटा! मैं तो तेरी धरोहर की माँ हूँ, केवल गर्भ धारण करने के लिये भगवान् ने मुझे माँ के लिये निमित्त बनाया है, “तात तुम्हारी मातु बैदेही, पिता राम सब भाँति सनेही” सुमित्राजी ने असली माँ का दर्शन करा दिया।

अयोध्या कहाँ हैं? अयोध्या वहाँ है जहाँ रामजी है, और सुनो लखन “जौं पै सीय राम बन जाहीं अवध तुम्हार काज कछु नाहीं” अयोध्या में तुम्हारा कोई काम नहीं है, तुम्हारा जन्म ही रामजी की सेवा के लिये हुआ है और शायद तुमको यह भ्रम होगा कि भगवान् माँ कैकयी के कारण से वन को जा रहे हैं, इस भूल में मत रहना, लक्ष्मणजी ने पूछा फिर जा क्यो रहे हैं, माँ क्या बोली?

तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं ।
दूसर हेतु तात कछु नाहीं ।।

दूसरा कोई कारण नहीं है, आश्चर्य से लक्ष्मणजी ने कहा, माँ मेरे कारण क्यो वन जा रहे हैं? माँ ने कहा, तू जानता नहीं है अपने को, मैं तुझे जानतीं हूँ, तू शेषनाग का अवतार है, धरती तेरे शीश पर है और धरती पर पाप का भार इतना बढ गया है कि तू उसे सम्भाल नहीं पा रहा है, इसलिये राम तेरे सर के भार को कम कर रहे हैं “दूसर हेतु तात कछु नाहीं” और कोई दूसरा कोई कारण नहीं है।

जब भगवान् केवल तेरे कारण जा रहे हैं तो तुझे मेरे दूध की सौगंध है कि चौदह वर्ष की सेवा में स्वपन में भी तेरे मन में कोई विकार नहीं आना चाहियें, लक्ष्मणजी ने कहा माँ अगर ऐसी बात है तो सुनो जब आप स्वप्न की शर्त दे रही हो तो मै चौदह वर्ष तक सोऊँगा ही नहीं और जब सोऊँगा ही नहीं तो कोई विकार ही नहीं आयेगा।

मित्रो ध्यान दिजिये जब जगत का अद्वितीय भाई लक्ष्मणजी जैसा है जो भैया और भाभी की सेवा के लिये चौदह वर्ष जागरण का संकल्प लें रहा है, अगर छोटा भाई बडे भाई की सेवा के लिए चौदह वर्ष का संकल्प लेता है तो बडा भाई पिता माना जाता है, उन्हें भी पिता का भाव चाहिये, जैसे पिता अपने पुत्र की चिंता रखता है, ऐसे ही बडा भाई अपने छोटे भाई की पुत्रवत चिंता करें, लेकिन भगवान् श्री रामजी तो जगत के पिता हैं।

ऐसी सुमित्राजी जैसी माताओं के कारण ऐसे भक्त पुत्र पैदा हुयें, सेवक पैदा हुए, महापुरूष पैदा हुए, कल्पना कीजिये “अवध तुम्हार काज कछु नाहीं” जाओ भगवान् की सेवा में, यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है और अब हम अपने ऊपर विचार करे, अनुभव क्या कहता है? लडका अगर शराबी हो जाए परिवार में चल सकता है, लडका अगर दुराचारी हो जाए तो भी चलेगा, जुआरी हो जाये तो भी चलेगा, बुरे से बुरा बन जाये तो भी चलेगा।

लेकिन लडका साधु हो जाये, संन्यासी हो जाये, समाजसेवक बन जाये, तो नहीं चलेगा, अपना-अपना ह्रदय टटोलो कैसा लगता है? सारे रिश्तेदारों को इकट्ठा कर लेते हैं कि भैया इसे समझाओ, सज्जनों! हम चाहते तो है कि इस देश में महापुरुष पैदा हो, हम चाहते तो है कि राणा और शिवाजी इस देश में बार-बार जन्म लें लेकिन मैरे घर में नहीं पडौसी के घर में।

क्या इससे धर्म बच सकता है? क्या इससे देश बच सकता है? कितनी माँओं ने अपने दुधमुंहे बच्चों को इस देश की रक्षा के लिए दुश्मनों के बंदुक की गोलियाँ खाकर मरते हुयें अपनी आखों के सामने देखा है, आप कल्पना कर सकते हो कि माँ के ऊपर क्या बीती होगी? तेरह साल का बालक माँ के सामने सिर कटाता है, माँ ने आँखें बंद कर लीं, कोई बात नहीं जीवन तो आना और जाना है, देह आती है और जाती है, धर्म की रक्षा होनी चाहिये।

जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उनकी रक्षा करता है, “धर्मो रक्षति रक्षितः” इस देश की रक्षा के लिए कितनी माताओं की गोद सूनी हुई, कितनी माताओं के सुहाग मिटे, कितनों की माथे की बिंदी व सिन्दूर मिट गयें, कितनो के घर के दीपक बुझे, कितने बालक अनाथ हुये, कितनो की राखी व दूज के त्यौहार मिटे, ये देश, धर्म, संस्कृति तब बची है, ये नेताओं के नारो से नहीं बची, ये माताओं के बलिदान से बची, इस देश की माताओं ने बलिदान किया।

सज्जनों! हमने संतो के श्रीमुख से सुना है जब लक्ष्मणजी सुमित्रामाताजी के भवन से बाहर आ रहे हैं और रास्ते में सोचते आ रहे हैं कि उर्मिला से कैसे मिलुं इस चिन्ता में डूबे थे कि उर्मिला को बोल कर न गये तो वह रो-रो कर प्राण त्याग देगी, और बोल कर अनुमति लेकर जाएंगे तो शायद जाने भी न दे और मेरे साथ चलने की जिद्द करेगी, रोयेंगी और कहेंगी कि जब जानकीजी अपने पति के साथ जा सकती है तो मैं क्यों नहीं जा सकती?

लक्ष्मणजी स्वय धर्म है लेकिन आज धर्म ही द्वंन्द में फँस गया, उर्मिलाजी को साथ लेकर जाया नहीं जा सकता और बिना बतायें जाये तो जाये कैसे? रोती हुई पत्नी को छोड कर जा भी तो नहीं सकते, दोस्तों! नारी के आँसू को ठोकर मारना किसी पुरुष के बस की बात नहीं, पत्थर दिल ह्रदय, पत्थर ह्रदय पुरूष भी बडे से बडे पहाड को ठुकरा सकता है लेकिन रोती हुई पत्नी को ठुकरा कर चले जाना किसी पुरुष के बस की बात नहीं है।

लक्ष्मणजी चिंता में डूबे हैं अगर रोई तो उन्हें छोडा नहीं जा सकता और साथ लेकर जाया नहीं जा सकता करे तो करे क्या? इस चिन्ता में डूबे थे कि उर्मिलाजी का भवन आ गया, इधर उर्मिलाजी को घटना की पहले ही जानकारी हो चुकी है और इतने आनन्द में डूबी है कि मैरे प्रभु, मैरे पति, मैरे सुहाग का इतना बडा सौभाग्य कि उन्हें प्रभु की चरणों की सेवा का अवसर मिला है।

पति की सोच में डूबी श्रंगार किए बैठी है, वो वेष धारण किया जो विवाह के समय किया था, कंचन का थाल सजाया, आरती का दीप सजाकर प्रतीक्षा करती है, विश्वास है कि आयेंगे अवश्य, बिना मिले तो जा नहीं सकते? भय में डूबे लक्ष्मणजी आज कांप रहे है, सज्जनों! आप तो जानते ही है कि लक्ष्मणजी शेषनाग के अवतार हैं और नाग को काल भी कहते हैं।

आप कल्पना कीजिये, इस देश की माताओं के सामने काल हमेशा कांपता है, संकोच में डूबे लक्ष्मणजी ने धीरे से कुण्डी खटखटाई, देवी द्वार खोलो, जैसे ही उर्मिलाजी ने द्वार खोला तो लक्ष्मणजी ने आँखें बंद कर लीं, निगाह से निगाह मिलाने का साहस नहीं, उनको भय लगता है, आँसू आ गयें, उर्मिलाजी समझ गई कि मैरे कारण मेरे पतिदेव असमंजस में आ गये हैं।

उर्मिलाजी ने दोनों हाथों से कंधा पकड लिया और कहा आर्यपुत्र घबराओ नहीं, धीरज धरो, मैं सब जानती हूंँ कि आप भगवान् के साथ वनवास जा रहे हैं, मैं आपको बिल्कुल नहीं रोकूँगी बल्कि मुझे खुशी है कि आपको भ्राता और भाभी की सेवा करने का मौका मिल रहा है, आप निश्चिंत होकर जाइये, मैं माँ सुमित्राजी का पूरा ध्यान रखूंगी।

संजय गुप्ता

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जब श्रीकृष्ण दौड़े चले आए – आध्यात्मिक कथा!!!!!

अर्जुन ने अपने-आपको श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था| अर्जुन होता हुआ भी, नहीं था, इसलिए कि उसने जो कुछ किया, अर्जुन के रूप में नहीं, श्रीकृष्ण के सेवक के रूप में किया| सेवक की चिंता स्वामी की चिंता बन जाती है।

अर्जुन का युद्ध अपने ही पुत्र बब्रुवाहन के साथ हो गया, जिसने अर्जुन का सिर धड़ से अलग कर दिया… और कृष्ण दौड़े चले आए… उनके प्रिय सखा और भक्त के प्राण जो संकट में पड़ गए थे।

अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बब्रुवाहन ने पकड़ लिया और घोड़े की देखभाल की जिम्मेदारी अर्जुन पर थी| बब्रुवाहन ने अपनी मां चित्रांगदा को वचन दिया था कि मैं अर्जुन को युद्ध में परास्त करूंगा, क्योंकि अर्जुन चित्रांगदा से विवाह करने के बाद लौटकर नहीं आया था।

और इसी बीच चित्रांगदा ने बब्रुवाहन को जन्म दिया था| चित्रांगदा अर्जुन से नाराज थी और उसने अपने पुत्र को यह तो कह दिया था कि तुमने अर्जुन को परास्त करना है लेकिन यह नहीं बताया था कि अर्जुन ही तुम्हारा पिता है… और बब्रुवाहन मन में अर्जुन को परास्त करने का संकल्प लिए ही बड़ा हुआ| शस्त्र विद्या सीखी, कामाख्या देवी से दिव्य बाण भी प्राप्त किया, अर्जुन के वध के लिए।

और अब बब्रुवाहन ने अश्वमेध के अश्व को पकड़ लिया तो अर्जुन से युद्ध अश्वयंभावी हो गया| भीम को बब्रुवाहन ने मूर्छित कर दिया| और फिर अर्जुन और बब्रुवाहन का भीषण संग्राम हुआ| अर्जुन को परास्त कर पाना जब असंभव लगा तो बब्रुवाहन ने कामाख्या देवी से प्राप्त हुए दिव्य बाण का उपयोग कर अर्जुन का सिर धड़ से अलग कर दिया।

श्रीकृष्ण को पता था कि क्या होने वाला है, और जो कृष्ण को पता था, वही हो गया| वे द्वारिका से भागे-भागे चले आए| दाऊ को कह दिया, “देर हो गई, तो बहुत देर हो जाएगी, जा रहा हूं|”

कुंती विलाप करने लगी… भाई विलाप करने लगे… अर्जुन पांडवों का बल था| आधार था, लेकिन जब अर्जुन ही न रहा तो जीने का क्या लाभ।

मां ने कहा, “बेटा, तुमने बीच मझदार में यह धोखा क्यों दिया? मां बच्चों के कंधों पर इस संसार से जाती है और तुम मुझसे पहले ही चले गए| यह हुआ कैसे? यह हुआ क्यों? जिसके सखा श्रीकृष्ण हों, जिसके सारथी श्रीकृष्ण हो, वह यों, निष्प्राण धरती पर नहीं लेट सकता… पर यह हो कैसे गया?”

देवी गंगा आई, कुंती को कहा, “रोने से क्या फायदा, अर्जुन को उसके कर्म का फल मिला है| जानती हो, अर्जुन ने मेरे पुत्र भीष्म का वध किया था, धोखे से| वह तो अर्जुन को अपना पुत्र मानता था, पुत्र का ही प्यार देता था| लेकिन अर्जुन ने शिखंडी की आड़ लेकर, मेरे पुत्र को बाणों की शैया पर सुला दिया था| क्यों? भीष्म ने तो अपने हथियार नीचे रख दिए थे।

वह शिखंडी पर बाण नहीं चला सकता था| वह प्रतिज्ञाबद्ध था, लेकिन अर्जुन ने तब भी मेरे पुत्र की छाती को बाणों से छलनी किया| तुम्हें शायद याद नहीं, लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है… तब मैं भी बहुत रोई थी| अब अर्जुन का सिर धड़ से अलग है| बब्रुवाहन ने जिस बाण से अर्जुन का सिर धड़ से अलग किया है, वह कामाख्या देवी माध्यम से मैंने ही दिया था।

अर्जुन को परास्त कर पाना बब्रुवाहन के लिए कठिन था, आखिर उसने मेरे ही बाण का प्रयोग किया और मैंने अपना प्रतिशोध ले लिया| अब क्यों रोती हो कुंती? अर्जुन ने मेरे पुत्र का वध किया था और अब उसी के पुत्र ने उसका वध किया है, अब रोने से क्या लाभ? जैसा उसने किया वैसा ही पाया| मैंने अपना प्रतिशोध ले लिया।”

और प्रतिशोध शब्द भगवान श्रीकृष्ण ने सुन लिया… हैरान हुए… अर्जुन का सिर धड़ से अलग था| और गंगा मैया, भीष्म की मां अर्जुन का सिर धड़ से अलग किए जाने को अपने प्रतिशोध की पूर्ति बता रही हैं… श्रीकृष्ण सहन नहीं कर सके… एक नजर भर, अर्जुन के शरीर को, बुआ कुंती को, पांडु पुत्रों को देखा… बब्रुवाहन और चित्रांगदा को भी देखा… कहा, “गंगा मैया, आप किससे किससे प्रतिशोध की बात कर रही हैं? बुआ कुंती से… अर्जुन से, या फिर एक मां से? मां कभी मां से प्रतिशोध नहीं ले सकती।

मां का हृदय एक समान होता है, अर्जुन की मां का हो या भीष्म की मां का… आपने किस मां प्रतिशोध लिया है?” गंगा ने कहा, “वासुदेव ! अर्जुन ने मेरे पुत्र का उस समय वध किया था, जब वह निहत्था था, क्या यह उचित था? मैंने भी अर्जुन का वध करा दिया उसी के पुत्र से… क्या मैंने गलत किया? मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ… यह एक मां का प्रतिशोध है।”

श्रीकृष्ण ने समझाया, “अर्जुन ने जिस स्थिति में भीष्म का वध किया, वह स्थिति भी तो पितामह ने ही अर्जुन को बताई थी, क्योंकि पितामह युद्ध में होते, तो अर्जुन की जीत असंभव थी… और युद्ध से हटने का मार्ग स्वयं पितामह ने ही बताया था, लेकिन यहां तो स्थिति और है।

अर्जुन ने तो बब्रुवाहन के प्रहारों को रोका ही है, स्वयं प्रहार तो नहीं किया, उसे काटा तो नहीं, और यदि अर्जुन यह चाहता तो क्या ऐसा हो नहीं सकता था… अर्जुन ने तो आपका मान बढ़ाया है, कामाख्या देवी द्वारा दिए गए आपके ही बाण का… प्रतिशोध लेकर आपने पितामह का, अपने पुत्र का भी भला नहीं किया।”

गंगा दुविधा में पड़ गई| श्रीकृष्ण के तर्कों का उसके पास जवान नहीं था| पूछा, “क्या करना चाहिए, जो होना था सो हो गया| आप ही मार्ग सुझाएं।”

श्रीकृष्ण ने कहा, “आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई, उपाय तो किया ही जा सकता है, कोई रास्ता तो होता ही है| जो प्रतिज्ञा आपने की, वह पूरी हो गई| जो प्रतिज्ञा पूरी हो गई तो अब उसे वापस भी लिया जा सकता है, यदि आप चाहें तो क्या नहीं हो सकता? कोई रास्ता तो निकाला ही जा सकता है।”

गंगा की समझ में बात आ गई और मां गंगा ने अर्जुन का सिर धड़ से जोड़ने का मार्ग सुझा दिया| यह कृष्ण के तर्कों का कमाल था| जिस पर श्रीकृष्ण की कृपा हो, जिसने अपने आपको श्रीकृष्ण को सौंप रखा हो, अपनी चिंताएं सौंप दी हों, अपना जीवन सौंप दिया हो, अपना सर्वस्व सौंप दिया हो, उसकी रक्षा के लिए श्रीकृष्ण बिना बुलाए चले आते हैं।

द्वारिका से चलने पर दाऊ ने कहा था, ‘कान्हा, अब अर्जुन और उसके पुत्र के बीच युद्ध है, कौरवों के साथ नहीं, फिर क्यों जा रहे हो?’ तो कृष्ण ने कहा था, ‘दाऊ, अर्जुन को पता नहीं कि वह जिससे युद्ध कर रहा है, वह उसका पुत्र है| इसलिए अनर्थ हो जाएगा।

और मैं अर्जुन को अकेला नहीं छोड़ सकता|’ भगवान और भक्त का नाता ही ऐसा है| दोनों में दूरी नहीं होती| और जब भक्त के प्राण संकट में हों, तो भगवान चुप नहीं बैठ सकते।

अर्जुन का सारा भाव हो, और कृष्ण दूर रहें, यह हो ही नहीं सकता| याद रखें, जिसे श्रीकृष्ण मारना चाहें, कोई बचा नहीं सकता और जिसे वह बचाना चाहें, उसे कोई मार नहीं सकता| अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं ही एक… नर और नारायण।

संजय गुप्ता

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कैसे हुयी नागों की उत्पत्ति?

हमारे धर्म ग्रंथो में शेषनाग, वासुकि नाग, तक्षक नाग, कर्कोटक नाग, धृतराष्ट्र नाग, कालिया नाग आदि नागो का वर्णन मिलता है। आज हम आपको इस लेख में इन सभी नागो के बारे में विस्तार से बताएंगे। लेकिन सबसे पहले हम आपको इन पराकर्मी नागों के पृथ्वी पर जन्म लेने से सम्बंधित पौराणिक कहानी सुनाते है।

इन नागो से सम्बंधित यह कथा पृथ्वी के आदि काल से सम्बंधित है। इसका वर्णन वेदव्यास जी ने भी महाभारत के आदि पर्व में किया है। महाभारत के आदि पर्व में इसका वर्णन होने के कारण लोग इसे महाभारत काल की घटना समझते है, लेकिन ऐसा नहीं है। महाभारत के आदि काल में कई ऐसी घटनाओं का वर्णन है जो की महाभारत काल से बहुत पहले घटी थी लेकिन उन घटनाओ का संबंध किसी न किसी तरीके से महाभारत से जुड़ता है, इसलिए उनका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में किया गया है।

नागो की उत्पत्ति :- कद्रू और विनता दक्ष प्रजापति की पुत्रियाँ थीं और दोनों कश्यप ऋषि को ब्याही थीं। एक बार कश्यप मुनि ने प्रसन्न होकर अपनी दोनों पत्नियों से वरदान माँगने को कहा। कद्रू ने एक सहस्र पराक्रमी सर्पों की माँ बनने की प्रार्थना की और विनता ने केवल दो पुत्रों की किन्तु दोनों पुत्र कद्रू के पुत्रों से अधिक शक्तिशाली पराक्रमी और सुन्दर हों। कद्रू ने 1000 अंडे दिए और विनता ने दो। समय आने पर कद्रू के अंडों से 1000 सर्पों का जन्म हुआ।

पुराणों में कई नागो खासकर वासुकी, शेष, पद्म, कंबल, कार कोटक, नागेश्वर, धृतराष्ट्र, शंख पाल, कालाख्य, तक्षक, पिंगल, महा नाग आदि का काफी वर्णन मिलता है।

शेषनाग :- कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेषनाग थे। इनका एक नाम अनन्त भी है। शेषनाग ने जब देखा कि उनकी माता व भाइयों ने मिलकर विनता के साथ छल किया है तो उन्होंने अपनी मां और भाइयों का साथ छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करनी आरंभ की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें वरदान दिया कि तुम्हारी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं होगी।

ब्रह्मा ने शेषनाग को यह भी कहा कि यह पृथ्वी निरंतर हिलती-डुलती रहती है, अत: तुम इसे अपने फन पर इस प्रकार धारण करो कि यह स्थिर हो जाए। इस प्रकार शेषनाग ने संपूर्ण पृथ्वी को अपने फन पर धारण कर लिया। क्षीरसागर में भगवान विष्णु शेषनाग के आसन पर ही विराजित होते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण व श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम शेषनाग के ही अवतार थे।

वासुकि नाग :- धर्म ग्रंथों में वासुकि को नागों का राजा बताया गया है। ये भी महर्षि कश्यप व कद्रू की संतान थे। इनकी पत्नी का नाम शतशीर्षा है। इनकी बुद्धि भी भगवान भक्ति में लगी रहती है। जब माता कद्रू ने नागों को सर्प यज्ञ में भस्म होने का श्राप दिया तब नाग जाति को बचाने के लिए वासुकि बहुत चिंतित हुए। तब एलापत्र नामक नाग ने इन्हें बताया कि आपकी बहन जरत्कारु से उत्पन्न पुत्र ही सर्प यज्ञ रोक पाएगा।

तब नागराज वासुकि ने अपनी बहन जरत्कारु का विवाह ऋषि जरत्कारु से करवा दिया। समय आने पर जरत्कारु ने आस्तीक नामक विद्वान पुत्र को जन्म दिया। आस्तीक ने ही प्रिय वचन कह कर राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ को बंद करवाया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार समुद्रमंथन के समय नागराज वासुकी की नेती बनाई गई थी। त्रिपुरदाह के समय वासुकि शिव धनुष की डोर बने थे।

तक्षक नाग:- धर्म ग्रंथों के अनुसार तक्षक पातालवासी आठ नागों में से एक है। तक्षक के संदर्भ में महाभारत में वर्णन मिलता है। उसके अनुसार श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक ने राजा परीक्षित को डसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। तक्षक से बदला लेने के उद्देश्य से राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया था। इस यज्ञ में अनेक सर्प आ-आकर गिरने लगे। यह देखकर तक्षक देवराज इंद्र की शरण में गया।

जैसे ही ऋत्विजों (यज्ञ करने वाले ब्राह्मण) ने तक्षक का नाम लेकर यज्ञ में आहुति डाली, तक्षक देवलोक से यज्ञ कुंड में गिरने लगा। तभी आस्तीक ऋषि ने अपने मंत्रों से उन्हें आकाश में ही स्थिर कर दिया। उसी समय आस्तीक मुनि के कहने पर जनमेजय ने सर्प यज्ञ रोक दिया और तक्षक के प्राण बच गए। ग्रंथों के अनुसार तक्षक ही भगवान शिव के गले में लिपटा रहता है।

कर्कोटक नाग :- कर्कोटक शिव के एक गण हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार सर्पों की मां कद्रू ने जब नागों को सर्प यज्ञ में भस्म होने का श्राप दिया तब भयभीत होकर कंबल नाग ब्रह्माजी के लोक में, शंखचूड़ मणिपुर राज्य में, कालिया नाग यमुना में, धृतराष्ट्र नाग प्रयाग में, एलापत्र ब्रह्मलोक में और अन्य कुरुक्षेत्र में तप करने चले गए।

ब्रह्माजी के कहने पर कर्कोटक नाग ने महाकाल वन में महामाया के सामने स्थित लिंग की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि- जो नाग धर्म का आचरण करते हैं, उनका विनाश नहीं होगा। इसके उपरांत कर्कोटक नाग उसी शिवलिंग में प्रविष्ट हो गया। तब से उस लिंग को कर्कोटेश्वर कहते हैं। मान्यता है कि जो लोग पंचमी, चतुर्दशी और रविवार के दिन कर्कोटेश्वर शिवलिंग की पूजा करते हैं उन्हें सर्प पीड़ा नहीं होती।

धृतराष्ट्र नाग:- धर्म ग्रंथों के अनुसार धृतराष्ट्र नाग को वासुकि का पुत्र बताया गया है। महाभारत के युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया तब अर्जुन व उसके पुत्र ब्रभुवाहन (चित्रांगदा नामक पत्नी से उत्पन्न) के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में ब्रभुवाहन ने अर्जुन का वध कर दिया। ब्रभुवाहन को जब पता चला कि संजीवन मणि से उसके पिता पुन: जीवित हो जाएंगे तो वह उस मणि के खोज में निकला।

वह मणि शेषनाग के पास थी। उसकी रक्षा का भार उन्होंने धृतराष्ट्र नाग को सौंप था। ब्रभुवाहन ने जब धृतराष्ट्र से वह मणि मागी तो उसने देने से इंकार कर दिया। तब धृतराष्ट्र एवं ब्रभुवाहन के बीच भयंकर युद्ध हुआ और ब्रभुवाहन ने धृतराष्ट्र से वह मणि छीन ली। इस मणि के उपयोग से अर्जुन पुनर्जीवित हो गए।

कालिया नाग:- श्रीमद्भागवत के अनुसार कालिया नाग यमुना नदी में अपनी पत्नियों के साथ निवास करता था। उसके जहर से यमुना नदी का पानी भी जहरीला हो गया था। श्रीकृष्ण ने जब यह देखा तो वे लीलावश यमुना नदी में कूद गए। यहां कालिया नाग व भगवान श्रीकृष्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंत में श्रीकृष्ण ने कालिया नाग को पराजित कर दिया। तब कालिया नाग की पत्नियों ने श्रीकृष्ण से कालिया नाग को छोडऩे के लिए प्रार्थना की। तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि तुम सब यमुना नदी को छोड़कर कहीं ओर निवास करो। श्रीकृष्ण के कहने पर कालिया नाग परिवार सहित यमुना नदी छोड़कर कहीं ओर चला गया।

संजय गुप्ता

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भगवान की प्लानिंग


भगवान की प्लानिंग
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
एक बार भगवान से उनका सेवक कहता है,
भगवान-
आप एक जगह खड़े-खड़े थक गये होंगे,
.
एक दिन के लिए मैं आपकी जगह मूर्ति बन
कर
खड़ा हो जाता हूं, आप मेरा रूप धारण कर
घूम
आओ l
.
भगवान मान जाते हैं, लेकिन शर्त रखते हैं
कि
जो
भी लोग प्रार्थना करने आयें, तुम बस
उनकी
प्रार्थना सुन लेना कुछ बोलना नहीं,
.
मैंने उन सभी के लिए प्लानिंग कर रखी है,
सेवक
मान जाता है l
.
सबसे पहले मंदिर में बिजनेस मैन आता है और
कहता है, भगवान मैंने एक नयी फैक्ट्री
डाली
है,
उसे खूब सफल करना l
.
वह माथा टेकता है, तो उसका पर्स नीचे
गिर
जाता
है l वह बिना पर्स लिये ही चला जाता
है l
.
सेवक बेचैन हो जाता है. वह सोचता है
कि रोक
कर
उसे बताये कि पर्स गिर गया, लेकिन शर्त
की
वजह से वह नहीं कह पाता l
.
इसके बाद एक गरीब आदमी आता है और
भगवान
को कहता है कि घर में खाने को कुछ नहीं.
भगवान
मदद करो l
.
तभी उसकी नजर पर्स पर पड़ती है. वह
भगवान
का शुक्रिया अदा करता है और पर्स लेकर
चला
जाता है l
.
अब तीसरा व्यक्ति आता है, वह नाविक
होता
है l
.
वह भगवान से कहता है कि मैं 15 दिनों के
लिए
जहाज लेकर समुद्र की यात्रा पर जा
रहा हूं,
यात्रा में कोई अड़चन न आये भगवान..
.
तभी पीछे से बिजनेस मैन पुलिस के साथ
आता है
और कहता है कि मेरे बाद ये नाविक आया
है l
.
इसी ने मेरा पर्स चुरा लिया है,पुलिस
नाविक
को ले
जा रही होती है तभी सेवक बोल पड़ता
है l
.
अब पुलिस सेवक के कहने पर उस गरीब आदमी
को पकड़ कर जेल में बंद कर देती है.
.
रात को भगवान आते हैं, तो सेवक खुशी
खुशी
पूरा
किस्सा बताता है l
.
भगवान कहते हैं, तुमने किसी का काम
बनाया
नहीं,
बल्कि बिगाड़ा है l
.
वह व्यापारी गलत धंधे करता है,अगर
उसका
पर्स
गिर भी गया, तो उसे फर्क नहीं पड़ता
था l
.
इससे उसके पाप ही कम होते, क्योंकि वह
पर्स
गरीब इंसान को मिला था. पर्स
मिलने पर
उसके
बच्चे भूखों नहीं मरते.
.
रही बात नाविक की, तो वह जिस
यात्रा पर
जा रहा
था, वहां तूफान आनेवाला था,
.
अगर वह जेल में रहता, तो जान बच जाती.
उसकी
पत्नी विधवा होने से बच जाती. तुमने
सब
गड़बड़
कर दी l
.
कई बार हमारी लाइफ में भी ऐसी
प्रॉब्लम
आती है,
जब हमें लगता है कि ये मेरे साथ ही
क्यों हुआ l
.
लेकिन इसके पीछे भगवान की प्लानिंग
होती
है l
.
जब भी कोई प्रॉब्लमन आये. उदास मत
होना l
.
इस कहानी को याद करना और सोचना
कि जो
भी
होता है,i अच्छे के लिए होता है l
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸

देव शर्मा

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चट्टे बट्टे


बोध कथा – चट्टे बट्टे

एक देहात के बाजार में चार सब्जी वाले बैठते थे। दो महिलाएं और दो पुरुष। बाजार की सड़क उत्तर से दक्षिण की तरफ जाती थी। अब होता यह था कि उत्तर से आने वाले ग्राहक को सबसे पहले महिला का ठेला मिलता। मान लिया वह आलू 20 रुपये किलो दे रही है तो उसके बाद वाला पुरुष वही आलू 21 रुपये किलो बताता और अगली महिला के ठेले पर आलू 22 रुपये किलो बिक रहे होते। और एकदम दक्षिणी सिरे पर बैठा ठेले वाला वही आलू 23 रुपये किलो बताता।
अब कोई व्यक्ति दक्षिण की तरफ से आ रहा होता तो उसके सामने पड़ने वाला वही सब्जी वाला आलू 20 रुपये किलो बताता और इस तरह उल्टी दिशा में दाम बढ़ते जाते।
दोनों तरफ से आने वाले ग्राहक हमेशा परेशान रहते कि वापस जाकर 20 रुपये किलो खरीदें या यहीं पर 21 या 22 या 23 रुपये किलो खरीदें। मजे की बात चारों में से कोई भी एक पैसा कम न करता। ग्राहक को किसी न किसी से तो सौदा करना ही पड़ता। कभी सही दाम पर और कहीं ज्यादा दाम पर।
एक बार एक भले आदमी ने बुजुर्ग से दिखने वाले सब्जी वाले से पूछ ही लिया- क्या चक्कर है। उत्तर से दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए दाम बढ़ते हैं और दक्षिण की तरफ से आने वाले ग्राहक को उत्तर की ओर आते हुए ज्यादा पैसे देने पड़ते हैं। दुकानदार ने समझाया – बाबूजी यह बाजार है और बाजार में हमेशा कंपीटीशन होता है। सच तो यह है कि हम सब एक ही परिवार के सदस्य हैं। मियां , बीवी , बेटा और बहू। आप किसी से भी खरीदें पैसे हमारे ही घर में आने हैं। मामला ये है कि अगर हम चारों आपको आलू 20 रुपये किलो बतायें तो आप उसके लिए 18 या 19 रुपये देने को तैयार होंगे लेकिन जब हम 20 से 23 के बीच में आलू बेच रहे हैं तो आपको लगता है कि जहां सस्ते मिल रहे हैं वहीं से ले लो।
यही हमारी राजनीति में हो रहा है। सामान वही है। लूटने के तरीके भी वही हैं और लूटने वाले भी वही हैं। सब एक ही कुनबे के। हमें पता नहीं चलता कि हम किस से नाता जोड़ कर कम लुट रहे हैं और किससे नाता बनाकर ज्यादा लुट रहे हैं। यह राजनीति का बाजार है।

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राजा विक्रमादित्य की कुल देवी हरसिद्धि माता की कथा


राजा विक्रमादित्य की कुल देवी हरसिद्धि माता की कथा
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उज्जयिन्यां कूर्परं व मांगल्य कपिलाम्बरः।
भैरवः सिद्धिदः साक्षात् देवी मंगल चण्डिका।

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार माता सती के पिता दक्षराज ने विराट यज्ञ का भव्य आयोजन किया था जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवता व गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया । परन्तु उन्होंने माता सती व भगवान शिवजी को नहीं बुलाया । फिर भी माता सती उस यज्ञ उत्सव में उपस्थित हुईं । वहां माता सती ने देखा कि दक्षराज उनके पति देवाधिदेव महादेव का अपमान कर रहे थे । यह देख वे क्रोधित हो अग्निकुंड में कूद पड़ीं । यह जानकर शिव शंभू अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने माता सती का शव लेकर सम्पूर्ण विश्व का भ्रमण शुरू कर दिया । शिवजी की ऐसी दशा देखकर सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मच गया । देवी-देवता व्याकुल होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और संकट के निवारण हेतु प्रार्थना करने लगे । तब शिवजी का सती के शव से मोहभंग करने के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र चलाया था । चक्र से माँ सती के शव के कई टुकड़े हो गए । उनमें से १३वा टुकड़ा माँ सती की कोहनी के रूप में उज्जैन के इस स्थान पर गिरा । तब से माँ यहां हरसिद्धि मंदिर के रूप में स्थापित हुईं ।

इतिहास के पन्नों से यह ज्ञात होता है कि माँ हरसिद्धेश्वरी सम्राट विक्रमादित्य की आराध्य देवी थी जिन्हें प्राचीन काल में ‘मांगलचाण्डिकी’के नाम से जाना जाता था । राजा विक्रमादित्य इन्हीं देवी की आराधना करते थे एवं उन्होंने ग्यारह बार अपने शीश को काटकर माँ के चरणों में समर्पित कर दिया पर आश्चर्यवाहिनी माँ पुनः उन्हें जीवित व स्वस्थ कर देती थी । यही राजा विक्रमादित्य उज्जैन के सम्राट थे जो अपनी बुद्धि, पराक्रम और उदारता के लिए जाने जाते थे । इन्हीं राजा विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत सन की शुरुआत हुई ।

उज्जैन में हरसिद्धि देवी की आराधना करने से शिव और शक्ति दोनों की पूजा हो जाती है। ऐसा इसलिए कि यह ऐसा स्थान है, जहां महाकाल और मां हरसिद्धि के दरबार हैं।

कहते हैं कि प्राचीन मंदिर रुद्र सरोवर के तट पर स्थित था तथा सरोवर सदैव कमलपुष्पों से परिपूर्ण रहता था। इसके पश्चिमी तट पर ‘देवी हरसिद्धि’ का तथा पूर्वी तट पर ‘महाकालेश्वर’ का मंदिर था। 18वींशताब्दी में इन मंदिरों का पुनर्निर्माण हुआ। वर्तमान हरसिद्धि मंदिर चहार दीवारी से घिरा है।
देवी प्रतिमा

मंदिर के मुख्य पीठ पर प्रतिमा के स्थान पर ‘श्रीयंत्र’ है। इस पर सिंदूर चढ़ाया जाता है, अन्य प्रतिमाओं पर नहीं और उसके पीछे भगवती अन्नपूर्णा की प्रतिमा है। गर्भगृह में हरसिद्धि देवी की प्रतिमा की पूजा होती है। मंदिर में महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर के पूर्वी द्वार पर बावड़ी है, जिसके बीच में एक स्तंभ है, जिस पर संवत 1447 अंकित है तथा पास ही में सप्तसागर सरोवर है।

मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते ही सामने मां हरसिद्धि के वाहन सिंह की विशाल प्रतिमा है। द्वार के दाईं ओर दो बड़े-बड़े नगाड़े रखे हैं, जो प्रातः सायं आरती के समय बजाए जाते हैं। मंदिर के सामने दो बड़े दीप स्तंभ हैं। इनमें से एक का नाम ‘शिव’ है, जिसमें 501 दीपमालाएँ हैं, दूसरे स्तंभ का नाम पार्वती है जिसमें 500 दीपमालाएँ हैं तथा दोनों दीप स्तंभों पर दीपकजलाए जाते हैं। कुल मिलाकर इन 1001 दीपकों को जलाने में एक समय में लगभग 45 लीटर तेल लग जाता है

श्री हरसिद्धि मंदिर के गर्भगृह के सामने सभाग्रह में श्री यन्त्र निर्मित है । कहा जाता है कि यह सिद्ध श्री यन्त्र है और इस महान यन्त्र के दर्शन मात्र से ही पुण्य का लाभ होता है । शुभफल प्रदायिनी इस मंदिर के प्रांगण में शिवजी का कर्कोटकेश्वर महादेव मंदिर भी है जो कि चौरासी महादेव में से एक है जहां कालसर्प दोष का निवारण होता है ऐसा लोगों का विश्वास है । मंदिर प्रांगण के बीचोंबीच दो अखंड ज्योति प्रज्वलित रहती है जिनका दर्शन भक्तों के लिए शांतिदायक रहता है । प्रांगण के चारों दिशाओं में चार प्रवेश द्वार है एवं मुख्य प्रवेश द्वार के भीतर हरसिद्धि सभाग्रह के सामने दो दीपमालाएँ बनी हुई है जिनके आकाश की और मुख किये हुए काले स्तम्भ प्रांगण के भीतर रहस्यमयी वैभव का वातावरण स्थापित करते हैं । यह दीपमालिकाएं मराठाकालीन हैं । ज्योतिषियों के अनुसार इसका शक्तिपीठ नामकरण किया गया है । ये नामकरण इस प्रकार है- स्थान का नाम १३ उज्जैन, शक्ति का नाम मांगलचाण्डिकी और भैरव का नाम कपिलाम्बर है । इस प्राचीन मंदिर के केंद्र में हल्दी और सिन्दूर कि परत चढ़ा हुआ पवित्र पत्थर है जो कि लोगों कि आस्था का केंद्र है ।
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Dev Sharma

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यह कथा बहुत पुरानी है।

एक बार शीतला माता ने सोचा कि चलो आज देखु कि धरती पर मेरी पूजा कौन करता है, कौन मुझे मानता है। यही सोचकर शीतला माता धरती पर राजस्थान के डुंगरी गाँव में आई और देखा कि इस गाँव में मेरा मंदिर भी नही है, ना मेरी पुजा है।

माता शीतला गाँव कि गलियो में घूम रही थी, तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी (मांड) निचे फेका। वह उबलता पानी शीतला माता के ऊपर गिरा जिससे शीतला माता के शरीर में (छाले) फफोले पड गये। शीतला माता के पुरे शरीर में जलन होने लगी।

शीतला माता गाँव में इधर उधर भाग भाग के चिल्लाने लगी अरे में जल गई, मेरा शरीर तप रहा है, जल रहा हे। कोई मेरी मदद करो। लेकिन उस गाँव में किसी ने शीतला माता कि मदद नही करी। वही अपने घर के बहार एक कुम्हारन (महिला) बेठी थी। उस कुम्हारन ने देखा कि अरे यह बूढी माई तो बहुत जल गई है। इसके पुरे शरीर में तपन है। इसके पुरे शरीर में (छाले) फफोले पड़ गये है। यह तपन सहन नही कर पा रही है।

तब उस कुम्हारन ने कहा है माँ तू यहाँ आकार बैठ जा, मैं तेरे शरीर के ऊपर ठंडा पानी डालती हूँ। कुम्हारन ने उस बूढी माई पर खुब ठंडा पानी डाला और बोली है माँ मेरे घर में रात कि बनी हुई राबड़ी रखी है थोड़ा दही भी है। तू दही-राबड़ी खा लें। जब बूढी माई ने ठंडी (जुवार) के आटे कि राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठंडक मिली।

तब उस कुम्हारन ने कहा आ माँ बेठ जा तेरे सिर के बाल बिखरे हे ला में तेरी चोटी गुथ देती हु और कुम्हारन माई कि चोटी गूथने हेतु (कंगी) कागसी बालो में करती रही। अचानक कुम्हारन कि नजर उस बुडी माई के सिर के पिछे पड़ी तो कुम्हारन ने देखा कि एक आँख वालो के अंदर छुपी हैं। यह देखकर वह कुम्हारन डर के मारे घबराकर भागने लगी तभी उसबूढी माई ने कहा रुक जा बेटी तु डर मत। मैं कोई भुत प्रेत नही हूँ। मैं शीतला देवी हूँ। मैं तो इस घरती पर देखने आई थी कि मुझे कौन मानता है। कौन मेरी पुजा करता है। इतना कह माता चारभुजा वाली हीरे जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये अपने असली रुप में प्रगट हो गई।

माता के दर्शन कर कुम्हारन सोचने लगी कि अब में गरीब इस माता को कहा बिठाऊ। तब माता बोली है बेटी तु किस सोच मे पड गई। तब उस कुम्हारन ने हाथ जोड़कर आँखो में आसु बहते हुए कहा- है माँ मेरे घर में तो चारो तरफ दरिद्रता है बिखरी हुई हे में आपको कहा बिठाऊ। मेरे घर में ना तो चौकी है, ना बैठने का आसन। तब शीतला माता प्रसन्न होकर उस कुम्हारन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ कर एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर कि दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फेक दिया और उस कुम्हारन से कहा है बेटी में तेरी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हु अब तुझे जो भी चाहिये मुझसे वरदान मांग ले।

कुम्हारन ने हाथ जोड़ कर कहा है माता मेरी इक्छा है अब आप इसी (डुंगरी) गाँव मे स्थापित होकर यही रहो और जिस प्रकार आपने आपने मेरे घर कि दरिद्रता को अपनी झाड़ू से साफ़ कर दूर किया ऐसे ही आपको जो भी होली के बाद कि सप्तमी को भक्ति भाव से पुजा कर आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन चढ़ाये उसके घर कि दरिद्रता को साफ़ करना और आपकी पुजा करने वाली नारि जाति (महिला) का अखंड सुहाग रखना। उसकी गोद हमेशा भरी रखना। साथ ही जो पुरुष शीतला सप्तमी को नाई के यहा बाल ना कटवाये धोबी को पकड़े धुलने ना दे और पुरुष भी आप पर ठंडा जल चढ़कर, नरियल फूल चढ़ाकर परिवार सहित ठंडा बासी भोजन करे उसके काम धंधे व्यापार में कभी दरिद्रता ना आये।

तब माता बोली तथाअस्तु है बेटी जो तुने वरदान मांगे में सब तुझे देती हु । है बेटी तुझे आर्शिवाद देती हूँ कि मेरी पुजा का मुख्य अधिकार इस धरती पर सिर्फ कुम्हार जाति का ही होगा। तभी उसी दिन से डुंगरी गाँव में शीतला माता स्थापित हो गई और उस गाँव का नाम हो गया शील कि डुंगरी। शील कि डुंगरी भारत का एक मात्र मुख्य मंदिर है। शीतला सप्तमी वहाँ बहुत विशाल मेला भरता है। इस कथा को पड़ने से घर कि दरिद्रता का नाश होने के साथ सभी मनोकामना पुरी होती है।

Sanjay Gupta

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शमशान मे एक समाधी पर अपना बस्ता फेक एक बच्चा समाधी


शमशान मे एक समाधी पर अपना बस्ता फेक एक बच्चा समाधी के पास बैठ कर शिकायत करने लगा। उठो ना पापा, टीचर ने कहा है कि फ़ीस लेकर आना नही तो अपने पापा को लेकर आना !!
ये सुनकर बराबर की समाधी पर, एक आदमी फ़ोन पर किसी फूलवाले से हज़ारो रुपयों की फूलों की चादर लेने के लिए बात करते-करते कुछ सोचकर फ़ोन पर बोला कि ऑर्डर कैंसल कर दो; नही चाहिए भाई। फूल इधर ही मिल गए है।
उसने वो पैसे बच्चे के हाथ मे रख कर बोला…बेटा ये लो तुम्हारे पापा ने भेजे है।कल स्कूल जाना.
जीना इसी का नाम है..?…..