“जनेऊ”
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जनेऊ क्यों पहनते हैं, जानिए-
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
1) जनेऊ क्या है? :
आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएँ कांधे से दाएँ बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएँ कंधे के ऊपर रहे।
2) तीन सूत्र क्यों? : जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं। ये तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। ये तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं। ये तीन सूत्र सत्व, रज एवं तम के प्रतीक हैं। ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक हैं। ये तीन सूत्र तीन आश्रमों का प्रतीक हैं। सन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
3) ब्रह्मसूत्र क्या है? :
जनेऊ (यज्ञोपवीत) को ब्रह्मसूत्र, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध और बलबन्ध भी कहते हैं। वेदों में भी जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं। ‘उपनयन’ का अर्थ है, पास या निकट ले जाना। जनेऊ धारण करने वाला व्यक्ति ब्रह्मा (रचियता) के प्रति समर्पित हो जाता है। जनेऊ धारण करने के बाद व्यक्ति को विशेष नियम आचरणों का पालन करना पड़ता है।
4) नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आँख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। हम मुख से अच्छा बोलें और सात्विक खाएँ, आँखों से अच्छा देखें और कानों से अच्छा सुनें।
5) पाँच गांठ :
यज्ञोपवीत में पाँच गांठ लगाई जाती हैं जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष की प्रतीक हैं। ये पाँच यज्ञों, पाँच ज्ञानेद्रियों और पंचकर्मों का प्रतीक भी हैं।
6) जनेऊ की लंबाई :
यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएँ होती हैं। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।
7) जनेऊ धारण वस्त्र :
जनेऊ धारण करते वक्त बालक के हाथ में एक दंड होता है। वह बगैर सिला एक ही वस्त्र पहनता है। गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन करके उसके शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है। मेखला और कोपीन पहनी जाती है।
8) कब पहनें जनेऊ? :
१/ जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन संस्कार किया जाता है।
२/ जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होती है, लेकिन आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है। लेकिन वह सिर्फ रस्म अदायिगी से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं।
३/ “यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत”
अर्थात : अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएँ कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ-पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे उतारें।
४/ किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है।
५/ विवाह तबतक नहीं होता जबतक कि जनेऊ धारण नहीं किया जाता है।
6/ जब जितनी बार भी मूत्र या शौच विसर्जन करना हो, करते वक्त जनेऊ धारण किया जाता है।
9) जनेऊ संस्कार का समय : माघ से लेकर अगले छ: मास, उपनयन के लिए उपयुक्त हैं। प्रथम, चौथी, सातवीं, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियाँ बहुधा छोड़ दी जाती हैं। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं। रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं।
१/ मुहूर्त :
नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रवती अच्छे माने जाते हैं। एक नियम यह है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शततारका को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्र सबके लिए अच्छे हैं।
२/ पुनश्च: : पूर्वाषाढ, अश्विनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, ज्येष्ठा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, पुष्य, रेवती। तीनों उत्तरा नक्षत्र।द्वितीया, तृतीया, पंचमी, दशमी, एकादशी, तथा द्वादशी तिथियाँ। रवि, शुक्र, गुरु और सोमवार दिन। शुक्ल पक्ष, सिंह, धनु, वृष, कन्या और मिथुन राशियाँ। उत्तरायण में सूर्य के समय में उपनयन (यज्ञोपवीत/जनेऊ) संस्कार शुभ होता है।
10) जनेऊ के नियम :
१/ यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊँचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।
२/ यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित प्रतिमा शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।
३/ जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है। जिनके गोद में छोटे बच्चे नहीं हैं, वे महिलाएँ भी यज्ञोपवीत सँभाल सकती हैं; किन्तु उन्हें हर मास मासिक धर्म के बाद उसे बदलना है।
४/ यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमा-घुमा कर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।
५/ देव प्रतिमा की मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बाँधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएँ, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।
11) जनेऊ का वैज्ञानिक महत्व :
वैज्ञानिक दृष्टि से जनेऊ पहनना बहुत ही लाभदायक है। यह केवल धर्माज्ञा ही नहीं, बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अत: इसको सदैव धारण करना चाहिए।
१/ चिकित्सकों के अनुसार ‘जनेऊ’ हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।
२/ जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति नियमों में बँधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दाँत, मुँह और पेट को कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।
३/ मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसें, जिनका सँबंध पेट की आँतों से होता है। ये लपेटन आँतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती हैं, जिससे मल-विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडिटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय के रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
४/ चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएँ कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएँ कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
५/ वैज्ञानिकों के अनुसार बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
६/ कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जागरण होता है।
७/ कान पर जनेऊ लपेटने से पेट सँबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।
८/ माना जाता है कि शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह काम करती है। यह रेखा दाएँ कंधे से लेकर कमर तक स्थित होती है। जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।
9) जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से दूर रहने लगता है।
१०/ विद्यालयों में बच्चों के कान खींचने के मूल में एक यह भी तथ्य छिपा हुआ है कि उससे कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है। इसलिए भी यज्ञोपवीत को दाएँ कान पर धारण करने का उद्देश्य बताया गया है।
प्रणाम।