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गीता के उपदेश


मित्रो आज हम आपको बताएंगे कि ,क्या हैं वो गीता के उपदेश जो इंसान के भीतरी मन की उठापटक को शांत कर उसे सफल जीवन व्यतीत करने में सहायता देते हैं। निवेदन है, प्रस्तुति पूरी पढ़े,,,,,

आज हम भगवद्गीता के उपदेशों के बारे में चिन्तन करेंगे जो हमारे जीवन के उद्देश्य से जुड़ा है, मुझे भगवद्गीता का लेखन का सौभाग्य मिला जो मेरे जीवन का उद्देश्य था, मैंने पाया कि गीता में जीवन के सभी प्रश्नों का उत्तर है, मुझे कुछ श्लोक इतने सटीक लगें और अनुभव हुआ कि कुछ संदेश आपके साथ सांझा करूँ।

वैसे तो गीता अध्यात्म जीवन का दर्पण है, भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, जो अपने आप में अद्भुत है, सज्जनों! गीता दुनिया के उन चंद ग्रंथों में शुमार है, जो आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जा रहे हैं और जीवन के हर पहलू को गीता से जोड़कर व्याख्या की जा रही है।

इसके अठारह अध्यायों के करीब सात सौ श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर इंसान के जीवन में काम आता हैं, आज हम आपको इस आर्टिकल के माध्यम से गीता के कुछ चुनिंदा सूत्रों से रूबरू करवा रहे हैं, जो मानव जीवन के हर प्रकार से बहुत उपयोगी और जरूरी है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।

अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! कर्म करने में तेरा अधिकार है, उसके फलों के विषय में मत सोच, इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत बन और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर, इसका अर्थ क्या है?

भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन से कहना चाहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिये, यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो आप पूर्ण निष्ठा से साथ वह कर्म नहीं कर पाओगे।

निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है, इसलिये बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना कार्य करते रहो, फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है, आज मानव थोड़ा सा रूतबा या सम्मान कमा लेता है तो वह भगवान् की तरह बर्ताव करता है, क्या मानव में इतना सामर्थ्य है?

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

हे धनंजय (अर्जुन) कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योग युक्त होकर, कर्म कर, क्योंकि? समत्व को ही योग कहते हैं, यानी धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य, धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं, हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है।

भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिये, बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिये, इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा, मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा।

सज्जनों! आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है, उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।

योग रहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती, ऐसे भावना रहित पुरुष को कभी शान्ति नहीं मिलती और जिसे शान्ति नहीं, उसे सुख कहाँ से मिलेगा, यानी हम सभी मनुष्य की इच्छा होती है कि हमें सुख प्राप्त हो, इसके लिये हम भटकते रहते है, लेकिन सुख का मूल तो अपने मन में स्थित होता है।

जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, भोग आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना नहीं होती, और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भी प्रकार का आत्मज्ञान नहीं होगा, और बिना आत्मज्ञान के शान्ति कैसे मिल सकती है? जिसके मन में शांति न हो, उसे सुख कहाँ से प्राप्त होगा, अत: सुख प्राप्त करने के लिये मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है।

विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।

जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शान्ति प्राप्त होती है, यहां भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं अपने मुखारविन्द से कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती, इसलिये शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा।

हम जो भी कर्म करते हैं उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं, अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है, वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशान्त हो जाता है, मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा, तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।

कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं, प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है, दोस्तों! बुरे परिणामों के डर से अगर हम सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे तो ये हमारी मूर्खता है, खाली बैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समय की हानि के रूप में मिलता है।

सारे जीव प्रकृति यानी परमात्मा के अधीन हैं, वो हमसे अपने अनुसार कर्म करवा ही लेगी, और उसका परिणाम भी मिलन ही है इसलिये व्यक्ति को कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिये, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरन्तर कर्म करते रहना चाहियें।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

भगवान् अर्जुन को बता रहे हैं कि तुम शास्त्रों में बताये गये अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा, यानी श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से मनुष्यों को समझाते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिये।

जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक का कर्म है देश की रक्षा करना, मास्टर का कर्म है विधार्थीयों को पढ़ाना, जो लोग कर्म नहीं करते उनसे श्रेष्ठ वे लोग होते हैं जो अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि बिना कर्म किये तो शरीर का पालन-पोषण करना भी संभव नहीं है, जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वो पूरा करना ही चाहिये, वो ही उसका धर्म हैं।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं सामान्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं, श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर अन्य लोग उसका अनुसरण करते हैं, सज्जनों, मैं सत्तर ग्रूपों में गीता का पाठ लिखता हूंँ और प्रत्येक ग्रूप के संचालक से यह कहता हूंँ, कि अगर वे पोस्ट पढ़ेंगे और अपनी राय प्रेषित करेंगे तो सामान्य सदस्य भी प्रोत्साहित होकर उस पोस्ट को जरूर पढ़ेंगे, यह मानव की प्रवृत्ति हैं।

यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने बताया है कि श्रेष्ठ पुरुष को सदैव अपने पद व गरिमा के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिये, क्योंकि? वह जिस प्रकार का व्यवहार करेगा, सामान्य मनुष्य भी उसी की नकल करेंगे, जो कार्य श्रेष्ठ पुरुष करेगा, सामान्यजन उसी को अपना आदर्श मानेंगे।

उदाहरण के तौर पर अगर किसी संस्थान में उच्च अधिकार पूरी मेहनत और निष्ठा से काम करते हैं तो वहां के दूसरे कर्मचारी भी वैसे ही काम करेंगे, लेकिन अगर उच्च अधिकारी काम को टालने लगेंगे तो कर्मचारी उनसे भी ज्यादा आलसी हो जायेंगे, इसलिये गीता हमें संदेश देती है कि सफल व्यक्ति को समाज में आदर्श प्रस्तुत करना चाहिये, ताकि समाज में दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करें।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।

ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करायें, इसका मतलब क्या? सज्जनों! ये प्रतिस्पर्धा का दौर है, यहां हर कोई एक दूसरे से आगे निकलना चाहता है।

ऐसे में अक्सर संस्थानों में ये होता है कि कुछ चतुर लोग अपना काम तो पूरा कर लेते हैं, लेकिन अपने साथी को उसी काम को टालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, या काम के प्रति उसके मन में लापरवाही का भाव भर देते हैं, श्रेष्ठ व्यक्ति वही होता है जो अपने काम से दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनता है, संस्थान में उसी का भविष्य सबसे ज्यादा उज्जवल भी होता है।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
म वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।

हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूंँ, सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं, दोस्तों! इस श्लोक के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं।

उदाहरण के तौर पर जो लोग भगवान का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है, जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं, उनकी वह इच्छायें भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है, कंस ने सदैव भगवान को मृत्यु के रूप में स्मरण किया, इसलिये भगवान् ने उसे मृत्यु प्रदान की, हमें परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिये, जिस रुप में हम उसे पाना चाहते हैं।

वैसे तो भगवद्गीता के प्रत्येक श्लोक में जीवन के अनमोल संदेश छुपे है, और मेरी प्रतिज्ञा है कि सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से प्रत्येक श्लोक का विस्तार से वर्णन कर आपको अध्यात्म से परिपूर्ण करूँ।

मैं चाहता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़े, मैं अपने पूरे सामर्थ्य और पूर्व विवेक के साथ, ग्रन्थों और शास्त्रों के पूर्ण गरिमा के साथ आप तक पहुँचाने या पढ़वाने के लिये पूर्ण संकल्पित हूँ, और आप सभी पढ़े यह अपेक्षा है, भगवद्गीता में सभी वेद-पुराणों एवम् सभी शास्त्रों का निचोड़ है, आप सभी पढ़ेंगे और ज्यादा से ज्यादा को पढ़ने के लिये प्रोत्साहित करेंगे।

संजय गुप्ता

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बद्रीनाथ धाम कथा
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एक बार श्री हरि (विष्णु) के मन में एक घोर तपस्या
करने की इच्छा जाग्रत हुई | वे उचित जगह की तलाश
में इधर उधर भटकने लगे |
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खोजते खोजते उन्हें एक जगह तप के लिए सबसे अच्छी
लगी जो केदार भूमि के समीप नीलकंठ पर्वत के
करीब थी | यह जगह उन्हें शांत , अनुकूल और अति
प्रिय लगी |
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वे जानते थे की यह जगह शिव स्थली है अत: उनकी
आज्ञा ली जाये और यह आज्ञा एक रोता हुआ
बालक ले तो भोले बाबा तनिक भी माना नहीं कर
सकते है |
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उन्होंने बालक के रूप में इस धरा पर अवतरण लिए और
रोने लगे | उनकी यह दशा माँ पार्वती से देखी नही
गयी और वे शिवजी के साथ उस बालक के समक्ष
उपस्थित होकर उनके रोने का कारण पूछने लगे |
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बालक विष्णु ने बताया की उन्हें तप करना है और
इसलिए उन्हें यह जगह चाहिए | भगवान शिव और
पार्वती ने उन्हें वो जगह दे दी और बालक घोर
तपस्या में लीन हो गया |
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तपस्या करते करते कई साल बीतने लगे और भारी
हिमपात होने से बालक विष्णु बर्फ से पूरी तरह ढक
चुके थे , पर उन्हें इस बात का कुछ भी पता नहीं था |
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बैकुंठ धाम से माँ लक्ष्मी से अपने पति की यह हालत
देखी नही जा रही थी | उनका मन पीड़ा से दर्वित
हो गया था |
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अपने पति की मुश्किलो को कम करने के लिए वे स्वयं
उनके करीब आकर एक बेर (बद्री) का पेड़ बनकर उनकी
हिमपात से सहायता करने लगी | फिर कई वर्ष गुजर
गये अब तो बद्री का वो पेड़ भी हिमपात से पूरा
सफ़ेद हो चुका था |
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कई वर्षों बाद जब भगवान् विष्णु ने अपना तप पूर्ण
किया तब खुद के साथ उस पेड़ को भी बर्फ से ढका
पाया | क्षण भर में वो समझ गये की माँ लक्ष्मी ने
उनकी सहायता हेतू यह तप उनके साथ किया है |
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भगवान विष्णु ने लक्ष्मी से कहा की हे देवी , मेरे
साथ तुमने भी यह घोर तप इस जगह किया है अत इस
जगह मेरे साथ तुम्हारी भी पूजा की जाएगी | तुमने
बद्री का पेड़ बनकर मेरी रक्षा की है अत: यह धाम
बद्रीनाथ कहलायेगा
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भगवान विष्णु की इस मंदिर में मूर्ति
शालग्रामशिला से बनी हुई है जिसके चार भुजाये है |
कहते है की देवताओ ने इसे नारदकुंड से निकाल कर
स्थापित किया था |
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यहाँ अखंड ज्योति दीपक जलता रहता है और नर
नारायण की भी पूजा होती है | साथ ही गंगा की
12 धाराओ में से एक धार अलकनन्दा के दर्शन का
भी फल मिलता है |
जय जय श्री राध

ज्योति अग्रवाल

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राजा उपरिचर एक महान प्रतापी राजा था| वह बड़ा धर्मात्मा और बड़ा सत्यव्रती था| उसने अपने तप से देवराज इंद्र को प्रसन्न करके एक विमान और न सूखने वाली सुंदर माला प्राप्त की थी| वह माला धारण करके, विमान पर बैठकर आकाश में परिभ्रमण किया करता था| उसे आखेट का बड़ा चाव था| वह प्राय: वनों में आखेट के लिए जाया करता था|

उपरिचर की रानी का नाम गिरिका था| गिरिका भी बड़ी सुंदर और पवित्र हृदया थी| वह अपने पति को प्रेम तो करती ही थी, ईश्वर के प्रति भी बड़ी आस्थालु थी| निरंतर भजन और चिंतन में लगी रहती थी|

एक बार गिरिका ऋतुमती हुई| तीन दिनों के पश्चात जब वह शुद्ध हुई, तो उपरिचर उसके साथ रमण करने से पूर्व ही वन में आखेट के लिए चला गया| राजा आखेट के लिए चला तो गया, किंतु उसका ध्यान रानी के साथ रमण करने की ओर ही लगा रहा|

दोपहर का समय था| राजा वन में एक अशोक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था| शीतल और सुगंधित हवा चल रही थी| मृदुल स्वरों में पक्षी गान कर रहे थे| राजा का ध्यान रानी की ओर चला गया| वह रमण के संबंध में मन ही मन सोचने लगा| राजा कामातुर हो उठा और उसका वीर्य स्खलित हो गया|

राजा ने सोचा, उसका वीर्य व्यर्थ नहीं जा सकता| अत: उसने अपने वीर्य को एक दोने में रखकर विमान में बैठे हुए बाज पक्षी को बुलाकर उससे कहा, “तुम इस दोने को ले जाकर मेरी रानी को दे दो| वह इसे अपने गर्भ में धारण कर लेगी|”

बाज दोने को मुख में दबाकर राजा के भवन की ओर उड़ चला| वह यमुना नदी के ऊपर से उड़ता हुआ चला जा रहा था| सहसा एक दूसरे बाज की दृष्टि उस पर पड़ी| इसने सोचा, यह अपने मुख में खाने की कोई वस्तु दबाए हुए है| अत: उसने उस बाज पर आक्रमण कर दिया|

दोनों बाजों में घमासन युद्ध करने लगा| परिणाम यह हुआ कि पहले बाज के मुख से दोना छूटकर, यमुना के जल में गिर पड़ा| दोने में रखा वीर्य पानी में मिल गया| एक मछली की वीर्य पर दृष्टि पड़ी| उसने सोचा यह खाने की वस्तु है| अत: वह उसको पानी के साथ निगल गई|

फलत: मछली गर्भवती हो गई| दासराज नामक मल्लाह को वह मछली शिकार में मिली| जब उसने मछली के पेट को बीचो बीच से काटा तो उसके पेट से एक बालक और एक बालिका निकली| दासराज ने दोनों को उपरिचर को भेंट कर दिया| उपरिचर ने बालक को तो अपने पास रख लिया, पर बालिका को दासराज को लौटा दिया| दासराज उस बालिका को अपने घर ले जाकर उसका पालन-पोषण करने लगा| दासराज ने बालिका का नाम सत्यवती रखा| वह मछली के पेट से उत्पन्न थी, इसलिए उसके शरीर से मछली की सी गंध निकला करती थी| अत: लोग उसे मत्स्यगंधा भी कहा करते थे| मत्स्यगंधा धीरे-धीरे बड़ी हुई| वह बड़ी रूपवती थी| वह रात्रियों को अपनी नाव पर बैठाकर इस पार से उस पार पहुंचाया करती थी| एक दिन दोपहर के समय महर्षि पराशर वहां जा पहुंचे| वे मत्स्यगंधा को देखकर उस पर मुग्ध हो गए| उन्होंने उससे कहा, “सुंदरी, तुम्हें अपूर्व सुख मिलेगा| मैं तुम्हारे साथ रमण करना चाहता हूं|” मत्स्यगंधा ने उत्तर दिया, “महर्षे, आप यह कैसी बातें कर रहे हैं ? दोपहर का समय है| आसपास लोग बैठे हुए हैं, मैं आपके साथ रमण कैसे कर सकती हूं ?” पराशर जी ने योगशक्ति से चारों ओर कुहरा पैदा करदिया| और बोले, “अब हमें कोई नहीं देख सकेगा| तू निश्चिंत होकर मेरे प्रस्ताव को स्वीकार कर ले|” मत्स्यगंधा पुन: बोल उठी, “महर्षे, मैं कुमारी हूं| पिता की आज्ञा के अधीन हूं| आपके साथ रमण करने से मेरा कौमार्य नष्ट हो जाएगा| मैं समाज में लांछित बन जाऊंगी|” पराशर जी ने उत्तर दिया, “तुम चिंता मत करो| मुझसे रमण करने के पश्चात भी तुम्हारा कौमार्य बना रहेगा| गर्भवती होने पर भी गर्भ का चिह्न प्रकट नहीं होगा|” मत्स्यगंधा फिर बोली, “एक बात और, मेरे शरीर से मछली की सी गंध निकलती है| आप मुझे वरदान दें कि वह गंध के रूप में बदल जाए और चार कोस तक फैली रहे|” पराशर जी ने तथास्तु कह दिया| फलत: मत्स्यगंधा के शरीर से कस्तूरी की सी गंध निकलने लगी| वह गंध चार कोस तक फैली रहती थी| अत: अब वह योजनगंधा भी कही जाने लगी| पराशर जी ने मत्स्यगंधा के साथ रमण किया| उनके साथ रमण के फलस्वरूप वह गर्भवती हुई| समय पर यमुना के द्वीप में एक बालक ने उसके गर्भ से जन्म लिया| वह बालक जन्म लेते ही बड़ा हो गया, वह तप करने के लिए वन में चला गया| वही बालक जगत में वेदव्यास जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ| वेदव्यास जी का पूरा नाम कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास था| वे श्याम वर्ण के थे, इसलिए उनका नाम कृष्ण पड़ा| वे दो द्वीपों के बीच में पैदा हुए थे, इसलिए द्वैपायन कहे जाते थे| वेदों के पंडित होने से वेदव्यास कहे जाते थे| वेदव्यास जी अमर हैं, वे आज भी धरती पर विद्यमान हैं और किसी-किसी को दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं|

ज्योति अग्रवाल

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(((((((((( भक्त की खिचड़ी ))))))))))
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श्री कृष्ण की परम उपासक कर्मा बाई जी भगवान को बाल भाव से भजती थीं. बाल रूप ठाकुर जी से वह रोज ऐसे बातें करतीं जैसे बिहारी जी उनके पुत्र हों और उनके घर में ही वास करते हैं.
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एक दिन उनकी इच्छा हुई कि बिहारी जी को फल-मेवे की जगह अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाउं. उन्होंने प्रभु से अपनी इच्छा से बता दी.
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भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा प्रस्तुत हैं. गोपाल बोले- जो भी बनाया हो वही खिला दो. भूख लगी है.
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कर्मा बाई जी ने खिचड़ी बनाई थी. ठाकुर जी को खिचड़ी दी और उन्होंने बड़े चाव से खाया. कर्मा बाई जी पंखा झलने लगीं कि कहीं गरम खिचड़ी से ठाकुर जी के मुंह न जल जाएं.
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संसार को अपने मुख में समाने वाले भगवान को भक्त एक माता की तरह पंखा कर रही हैं. भगवान भक्त की भावना में विभोर हो गए.
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भक्त वत्सल भगवान ने कहा- मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी. मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करो. मैं तो यही खाउंगा.
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कर्मा बाई जी रोज सुबह उठतीं और सबसे पहले खिचड़ी बनातीं. बिहारी जी भी सुबह-सबेरे दौड़े आते. आते ही कहते माता जल्दी से मेरी प्रिय खिचड़ी लाओ.
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प्रतिदिन का यही क्रम बन गया. भगवान सुबह-सुबह आते, भोग लगाते और फिर चले जाते. एक बार एक साधु कर्मा बाई जी के पास आया.
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उसने सुबह-सुबह सबसे पहले खिचड़ी बनाते देखा तो नाराज होकर कहा-सर्व प्रथम नहा धोकर पूजा-पाठ करनी चाहिए लेकिन आपको तो पेट की चिंता सताने लगती है.
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कर्मा बाई जी बोलीं- क्यां करूं, संसार जिस भगवान की पूजा-अर्चना कर रही होती है, वही सुबह-सुबह भूखे आ जाते हैं. उनके लिए ही तो खिचड़ी बनाती हूं.
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साधु ने सोचा कि शायद कर्मा बाई की बुद्धि फिर गई है. जैसे भगवान इसकी बनाई खिचड़ी के लिए भूखे रह जाते हैं.
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उसने कहा कि तुम भगवान को अशुद्ध कर रही हो. सुबह स्नान के बाद पहले रसोई की सफाई करो. फिर भगवान के लिए भोग बनाओ.
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अगले दिन कर्मा बाई जी ने ऐसा ही किया. जैसे ही सुबह हुई भगवान आये और बोले माँ में आ गया, खिचड़ी लाओ.
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कर्मा बाई जी ने कहा- अभी में स्नान कर रही हूँ, थोडा रुको ! थोड़ी देर बाद भगवान ने आवाज लगाई, जल्दी कर माँ, मेरे मंदिर के पट खुल जायेगे मुझे जाना है.
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वह फिर बोलीं – अभी में सफाई कर रही हूँ, भगवान ने सोचा आज माँ को क्या हो गया. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ.
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भगवान ने झटपट जल्दी-जल्दी खिचड़ी खायी, आज खिचड़ी में भी भाव का वह स्वाद नहीं आया. जल्दी-जल्दी में भगवान बिना पानी पिए ही भागे. बाहर संत को देखा तो समझ गये जरुर इसी ने कुछ सिखाया है.
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ठाकुर जी के मंदिर के पुजारी ने जैसे ही पट खोले तो देखा भगवान के मुख से खिचड़ी लगी थी. वे बोले- प्रभु ! ये खिचड़ी कैसे आप के मुख में लग गयी.
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भगवान ने कहा- पुजारी जी आप उस संत के पास जाओ और उसे समझाओ, मेरी माँ को कैसी पट्टी पढाई.
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पुजारी ने संत से सारी बात कही. संत घबराए और तुरंत कर्मा बाई जी के पास जाकर कहा- ये नियम धरम तो हम संतो के लिये है आप तो जैसे बनाती हो वैसे ही बनाएँ. ठाकुर जी खिचड़ी खाते रहे.
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भगवान अपनी बनाई व्यवस्था को कभी बदलते नहीं. सो एक दिन कर्मा बाई जी के भी प्राण छूटे. उस दिन भगवान बहुत रोए. पुजारी ने पट खोला तो देखा भगवान रो रहे थे.
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पुजारी ने रोने का कारण पूछा तो भगवान बोले- आज मेरी माँ इस लोक को छोड़कर मेरे लोक को विदा हो गई. अब मुझे कौन खिचड़ी बनाकर खिलाएगा.
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पुजारी ने कहा- प्रभु आप की माता की कमी महसूस न होने दी जाएगी. आज से सबसे पहले रोज खिचड़ी का भोग लगेगा
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इस तरह आज भी जगन्नाथ भगवान को खिचड़ी का भोग लगता है.
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ये दंत कथाएं हैं. भक्तों की भगवान के प्रति आस्था और बदले में भगवान का भक्तों के प्रति कई गुणा ज्यादा स्नेह को बताने के लिए ये कथाएं अस्तित्व में आईं.
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इनमें आप भक्ति का रस चखने की कोशिश करें तो आनंद आएगा. ईश्वर की शक्ति के आगे तर्क शीलता भी नतमस्तक होती है. तभी तो चिकित्सा विज्ञान के लोग भी कहते हैं- दवा से ज्यादा दुआ काम आएगी.

(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))

देव शर्मा

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

जिसके लिए सूर्य मात्र एक फल था :- और सौ योजन समुद्र एक तालाब
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एक भक्त का अपने इष्टदेव के साथ याद किया जाना किसी भी सच्चे भक्त के लिए सबसे बडा वरदान है ! शायद इस सुची मे सबसे उपर राम भक्त हनुमान आते है ! जितना भगवान राम का नाम माता सीता के साथ लिया जाता है उतना ही हनुमान जी भी श्री राम के साथ याद किए जाते है !

हमारे पौराणीक ग्रंथो मे ऐसे न जाने कितने किस्से है जो हनुमान जी की बेहद ही नटखट और
लुभावने व्यवहार की बाते करते है !

तो आइये आज हम आपको सुनाते है हनुमान जी की बाल्यावस्था की वो कहानी जब उन्होने सूरज को एक फल समझ कर खाना चाहा था !

कथा :–

” बाल समय रवि भक्ष लियो तव तिनो ही लोक भयो अंधियारो ”

एक समय की बात है जब हनुमान जी अपनी बाल्यावस्था मे थे, ये एक ऐसा काल था जब हनुमान जी का अपनी शक्तियो पर वश नही था ! वो बहुत ही उत्पाति बालको की श्रेणी मे आते थे ! उनकी माता अंजना उनके इस व्यवहार से रोज परेशान रहती थी !

एक बार माता अंजना किसी कार्य से महल के बाहर थी, काफी समय से बाहर होने की वजह से हनुमान जी को किसी ने खाना नही खिलाया ! भुख से व्याकुल हनुमान बेचैन होकर अपनी अटारी पर आ जाते है ! वहां से सूर्य को आकाश मे चमकते देखते है, उन्हे वो एक फल जैसा लगता है ! वो तुरन्त ही उड पडते सूर्य को निगलने के लिए ! हनुमान को उडते देख वायुदेव और तेजी से बहने लगते है, ताकी हनुमान जी जल्दी से जल्दी सूर्य तक पहुंचे !
हनुमान को अपने पास आते देख सूर्यदेव अपने तेज को कम कर लेते है, ताकी हनुमान जी जलें ना !

जिस समय हनुमान सूर्य को निगलने के लिए बढ रहे थे, उसी समय राहु भी सूर्य देव पर ग्रहण लगाने के लिए बढ रहां था ! हनुमान ने सूर्यदेव को निगल लिया ! ये देखते ही राहु भयभीत होकर इंद्र के पास गया , उसने इंद्र को सारी बात बताई !

भगवान इंद्र गुस्से मे आये और उन्होने हनुमान जी की ठुड्डी पर बज्र से प्रहार किया ! प्रहार के फलस्वरुप सूर्यदेव हनुमान जी के मुख से मुक्त हो गये, पर हनुमान जी मुर्छित होकर पर्वत पर जा गिरें !

ये देखकर वायुदेव को क्रोध आ गया, उन्होने धरती पर अपना प्रवाह ही रोक दिया ! इस वजह से धरती पर सभी को सांस लेने मे परेशानी होने लगी ! तब भगवान इंद्रदेव ने वायुदेव से विनती की और ब्राह्मा जी ने हनुमान जी को वापस होश मे लाने मे मदद की ! ये देखकर वायुदेव शांत हुए, और पुनः अपने पुराने वेग मे बहने लगे !

तब इंद्र ने हनुमान जी को वरदान दिये की इस बालक का शरीर वज्र जितना मजबुत हो जायेगा ! और इसके शरीर को कोई भी अस्त्र भेद नही पायेगा !

ऊँ श्री हनुमते नमः
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देव शर्मा

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जब भगवानकृष्ण ने भूतभावन भोलेनाथ की नगरी काशी को जलाकर कर दिया था भस्म?

यह कथा द्वापरयुग की है जब भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र ने काशी को जलाकर राख कर दिया था। बाद में यह वाराणसी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह कथा इस प्रकार हैः

मगध का राजा जरासंध बहुत शक्तिशाली और क्रूर था। उसके पास अनगिनत सैनिक और दिव्य अस्त्र-शस्त्र थे। यही कारण था कि आस-पास के सभी राजा उसके प्रति मित्रता का भाव रखते थे। जरासंध की अस्ति और प्रस्ति नामक दो पुत्रियाँ थीं। उनका विवाह मथुरा के राजा कंस के साथ हुआ था।

कंस अत्यंत पापी और दुष्ट राजा था। प्रजा को उसके अत्याचारों से बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। दामाद की मृत्यु की खबर सुनकर जरासंध क्रोधित हो उठा। प्रतिशोध की ज्वाला में जलते जरासंध ने कई बार मथुरा पर आक्रमण किया। किंतु हर बार श्रीकृष्ण उसे पराजित कर जीवित छोड़ देते थे।

एक बार उसने कलिंगराज पौंड्रक और काशीराज के साथ मिलकर मथुरा पर आक्रमण किया। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भी पराजित कर दिया। जरासंध तो भाग निकला किंतु पौंड्रक और काशीराज भगवान के हाथों मारे गए।

काशीराज के बाद उसका पुत्र काशीराज बना और श्रीकृष्ण से बदला लेने का निश्चय किया। वह श्रीकृष्ण की शक्ति जानता था। इसलिए उसने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और उन्हें समाप्त करने का वर माँगा। भगवान शिव ने उसे कोई अन्य वर माँगने को कहा। किंतु वह अपनी माँग पर अड़ा रहा।

तब शिव ने मंत्रों से एक भयंकर कृत्या बनाई और उसे देते हुए बोले-“वत्स! तुम इसे जिस दिशा में जाने का आदेश दोगे यह उसी दिशा में स्थित राज्य को जलाकर राख कर देगी। लेकिन ध्यान रखना, इसका प्रयोग किसी ब्राह्मण भक्त पर मत करना। वरना इसका प्रभाव निष्फल हो जाएगा।” यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।

इधर, दुष्ट कालयवन का वध करने के बाद श्रीकृष्ण सभी मथुरावासियों को लेकर द्वारिका आ गए थे। काशीराज ने श्रीकृष्ण का वध करने के लिए कृत्या को द्वारिका की ओर भेजा। काशीराज को यह ज्ञान नहीं था कि भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण भक्त हैं। इसलिए द्वारिका पहुँचकर भी कृत्या उनका कुछ अहित न कर पाई। उल्टे श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र उसकी ओर चला दिया। सुदर्शन भयंकर अग्नि उगलते हुए कृत्या की ओर झपटा। प्राण संकट में देख कृत्या भयभीत होकर काशी की ओर भागी।

सुदर्शन चक्र भी उसका पीछा करने लगा। काशी पहुँचकर सुदर्शन ने कृत्या को भस्म कर दिया। किंतु फिर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ और उसने काशी को भस्म कर दिया।

कालान्तर में वारा और असि नामक दो नदियों के मध्य यह नगर पुनः बसा। वारा और असि नदियों के मध्य बसे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ गया। इस प्रकार काशी का वाराणसी के रूप में पुनर्जन्म हुआ।

Sanjay Gupta

Posted in संस्कृत साहित्य

दस महाविद्याओं


दस महाविद्याओं की अलौकिक शक्ति
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1👉 शक्ति का स्वरूप
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शक्ति की उपासना कर सिद्धि को ग्रहण करने के इच्छुक तो बहुत लोग हैं, लेकिन पूरे समर्पण और श्रद्धा के साथ तप कर सिद्धि को प्राप्त करने का साहस सभी के पास नहीं होता। शक्ति के विभिन्न स्वरूपों की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए अघोरी, साधु और भौतिकवाद से दूर हो चुके लोग भी अपना संपूर्ण जीवन झोंक देते हैं।

2👉 अघोरपंथ
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अघोरपंथ में विभिन्न प्रकार की सिद्धियों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें ज्ञान और शक्ति प्राप्त करने के लिए हासिल किया जाता है। प्रमुख रूप से 10 सिद्धियों को जाना गया है, जिनमें से 4 को काली कुल और छ: को श्रीकुल में रखा गया है।

3👉 तन्मयता की जरूरत
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इन सिद्धियों को कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इसमें जाति, वर्ण, लिंग, उम्र आदि का कुछ भी लेना-देना नहीं है। अपनी तन्मयता और समर्पण भाव के साथ शक्ति को प्रसन्न कर सिद्धियों को प्राप्त किया जाता है, लेकिन इसके लिए जिस मार्ग पर चलना होता है वह बेहद कठिन है।

4👉 सिद्धियों को प्राप्त करने की प्रकिया
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सिद्धियों को प्राप्त करने की शुरुआत करने से पूर्व व्यक्ति को अपनी देह को शुद्ध करना होता है। पवित्र मंत्रों के जाप के दौरान स्नान कर देह का शुद्धिकरण संपन्न होता है। इसके पश्चात जिस स्थान पर बैठकर पूजा करनी है उस स्थान का भी शोधन होता है। इसके बाद शक्ति के जिस स्वरूप को प्राप्त करने के लिए सिद्धि करनी है, उस स्वरूप का पूरी एकाग्रता और तन्मयता के साथ ध्यान किया जाता है।

5👉 मुख्य सिद्धियां
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चलिए आपको बताते हैं कि मुख्य दस सिद्धियां कौन सी हैं और उन्हें हासिल करने से क्या-क्या प्रभाव पड़ता है।

6👉 काली
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देवी कालिका की काले हकीक की माला से 9,11,21 बार जाप करना चाहिए। कालिका की आराधना असाध्य बीमारी से मुक्ति, दुष्ट आत्माओं या क्रूर ग्रहों से बचाव के लिए की जाती है। इसके अलावा अकाल मृत्यु से बचाव और वाक सिद्धि प्राप्त करने के लिए काली की आराधना की जाती है। काली की आराधना करने का मंत्र है “ॐ क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं स्वाहा:”।

7👉 तारा
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तारा, जिसे श्मशान तारा के नाम से भी जाना जाता है, की सिद्धि जिसे प्राप्त हो जाती है, वह व्यक्ति मां तारा की गोद में एक बच्चे की तरह रहता है। जिसे श्मशान तारा की कृपा प्राप्त हो जाती है उसका जीवन खुशियों से भर जाता है, श्मशान तारा की सिद्धि प्राप्त करने वाले व्यक्ति को वाक सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।

8👉 शत्रुओं की समाप्ति
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इसके अलावा श्मशान तारा की कृपा से उसे तीव्र बुद्धि और रचनात्मकता भी हासिल होती है। श्मशान तारा सिद्धि प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपने शत्रुओं को जड़ से खत्म कर सकता है। श्मशान तारा की आराधना करने के लिए मूंगा, स्फटिक या काले हकीक की माला का प्रयोग करना चाहिए। तारा सिद्धि प्राप्त करने का मंत्र है “ॐ हीं स्त्रीं हुं फट”।

9👉 त्रिपुर सुंदरी
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संसार का कोई भी कार्य संपन्न करने के लिए त्रिपुर सुंदरी की आराधना की जानी चाहिए। जिस कार्य को करने में देवता भी सफल नहीं हो पाते, उसे त्रिपुर सुंदरी संपन्न करती है। त्रिपुर सुंदरी के अलावा इस संसार में ऐसी कोई भी साधना नहीं है जो भोग और मोक्ष एक साथ प्रदान करे। त्रिपुर सुंदरी साधना करने के लिए रुद्राक्ष की माला से दस बार जाप किया जाना चाहिए। त्रिपुर सुंदरी सिद्धि प्राप्त करने का मंत्र है “ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम:”।

10👉 भुवनेश्वरी
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सुख में वृद्धि करने और किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति करने के लिए भुवनेश्वरी मां की साधना करनी चाहिए। भुवनेश्वरी मां को प्रसन्न करना बेहद आसान है, वह अपने भक्त से बहुत ही जल्द प्रसन्न हो जाती हैं। भुवनेश्वरी मां की आराधना करने के लिए स्फटिक की माला से कम से कम 11 या 21 बार जाप करना चाहिए। भुवनेश्वरी मां की आराधना करने का मंत्र है “ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नम:”।

11👉 छिन्नमस्ता
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देवी छिन्नमस्ता बहुत ही जल्द शत्रुओं का विनाश कर सकती हैं। इसके अलावा अवाक सिद्धि, रोजगार में अचूक सफलता, नौकरी में पदोन्नति और कोर्ट केस में सफलता भी हासिल होती है। इसके अलावा पति या पत्नी को अपने वश में रखने के लिए भी देवी छिन्नमस्ता की आराधना की जाती है। छिन्नमस्ता देवी की आराधना रुद्राक्ष या स्फटीक की माला से 11 या 20 बार जाप करना चाहिए। देवी को प्रसन्न करने का मंत्र है “श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाह”।

12👉 त्रिपुर भैरवी
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किसी भी प्रकार के तांत्रिक समाधान के लिए त्रिपुर भैरवी साधना की जाती है। यह साधना प्रेत आत्माओं के लिए काफी खतरनाक है। इसके अलावा ऐसे व्यक्ति जो आकर्षक जीवनसाथी की ख्वाहिश रखते हैं उनके लिए यह साधना फायदेमंद है। किसी भी बुरे तांत्रिक प्रभाव से मुक्ति और शीघ्र विवाह के लिए भी इस सिद्धि को प्राप्त किया जाता है। मूंगे की माला से त्रिपुर भैरवी की आराधना की जानी चाहिए, इस सिद्धि को प्राप्त करने का मंत्र है “ॐ ह्रीं भैरवी कलौंह्रीं स्वाहा:”।

13👉 धूमावती
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बुरी नजर और दरिद्रता से मुक्ति, तंत्र-मंत्र, जादू-टोने, भूत-प्रेत के डर से मुक्ति पाने के लिए धूमावती मां की सिद्धि प्राप्त की जाती है। धूमावती देवी, जीवन की हर मुश्किल का समाधान करती है। धूमावती मां की आराधना करने के लिए मोती या काले हकीक की माला से कम से कम नौ बार जाप करना चाहिए। धूमावती मां की आराधना करने का मंत्र है “ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:”।

14👉 बगलामुखी
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हर प्रकार की समस्या का समाधान और किसी भी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के लिए बगलामुखी साधना की जाती है। सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए, शत्रुओं का विनाश करने और कोर्ट कचहरी के मसलों में विजय होने के लिए बगलामुखी साधना की जाती है। हल्दी की माला से 8,16 या 21 बार बगलामुखी साधना की जाती है। बगलामुखी साधना का मंत्र है “ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ॐ नम:”।

15👉 मातंगी
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घर-गृहस्थी के मामलों में आने वाली बाधाओं से मुक्ति पाने के लिए मातंगी आराधना की जाती है। पुत्र प्राप्ति, विवाह में आने वाली परेशानियों के समाधान के लिए मातंगी मां की आराधना की जाती है। मातंगी मां की सिद्धि प्राप्त करने के बाद स्त्री सहयोग जल्दी और आसानी से मिलने लगता है। मातंगी मां की आराधना स्फटिक की माला द्वारा प्रतिदिन 12 बार किया जाना चाहिए। मातंगी आराधना का मंत्र है “ॐ ह्रीं ऐं भगवती मतंगेश्वरी ह्रीं स्वाहा:”।

16👉 कमला
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अखंड धन-दौलत की स्वामिनी देवी कमला की आराधना करने के बाद ही इन्द्र ने अब तक स्वर्ग का शासन संभालकर रखा हुआ है। संसार की सारी खूबसूरती देवी कमला की ही कृपा मानी जाती है। इनकी आराधना करने के लिए कमलगट्टे की माला से कम से कम दस या इक्कीस बार जाप किया जाना चाहिए। देवी कमला की आराधना करने का मंत्र है “ॐ हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा।
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देव शर्मा