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पूर्णिमा के उपाय | पूर्णिमा के टोटके
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कल 30 अप्रेल को बुध पूर्णिमा है। पूर्णिमा या पूनम के दिन चंद्रमा अपने पूर्ण आकर में होते है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन चंद्रमा का विशेष प्रभाव होता हैं। साथ ही यह दिन माता लक्ष्मी को भी विशेष प्रिय होता है। पूर्णिमा के दिन किये गए उपायों का विशेष और शीघ्र प्रभाव होता है। शास्त्रों में पूर्णिमा को करने योगय बहुत से उपाय और टोटके बताये गए हैं। आइये जानते है कुछ ऐसे ही उपाय –

  1. शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक पूर्णिमा के दिन सुबह-सुबह पीपल के वृक्ष पर मां लक्ष्मी का आगमन होता है। इसलिए यदि आप धन की इच्छा रखते हैं तो तो इस दिन सुबह उठकर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर पीपल के पेड़ के नीचे मां लक्ष्मी का पूजन करें और लक्ष्मी को घर पर निवास करने के लिए आमंत्रित करें। इससे लक्ष्मी की कृपा आप पर सदा बनी रहेगी।
  2. पूर्णिमा की रात में घर में महालक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु की पूजा करें। पूजा किसी ब्राह्मण से करवाएंगे तो ज्यादा बेहतर रहेगा।

  3. प्रत्येक पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा के उदय होने के बाद साबूदाने की खीर मिश्री डालकर बनाकर माँ लक्ष्मी जी का भोग लगाकर उसे प्रसाद के रूप में वितरित करने से धन के आगमन के मार्ग खुल जाते है।

  4. जो भी इंसान धन संबंधी परेशानियों से जूझ रहा है, उसे पूर्णिमा के दिन चंद्र उदय होने पर चंद्रमा को कच्चे दूध में चीनी और चावल मिलाकर अर्घ्य देना चाहिए। अर्घ्य देते समय ‘ओम स्त्रां स्त्रीं स्त्रों स: चंद्रमसे नम:’ या फिर ‘ओम ऐं क्लीं सोमाय नम:’ मंत्र का जप करना चाहिए। ऐसा करने से आर्थिक परेशानियां धीरे-धीरे कम होने लगती हैं।

  5. प्रत्येक पूर्णिमा के दिन मां श्री लक्ष्मी के चित्र या फोटो पर 11 कौड़ियां चढ़ाकर उन पर हल्दी से तिलक करें उसके बाद अगले दिन सुबह इन कौड़ियों को लाल कपड़े में बांधकर अपनी तिजोरी में रखें लें। इस उपाय से घर में धन की कमी नही रहती है। पर एक बात का ध्यान रखें की प्रत्येक पूर्णिमा के दिन इन कौड़ियों को अपनी तिजोरी से निकाल कर माता के सम्मुख रखकर उन पर पुन: हल्दी से तिलक करें फिर अगले दिन उन्हें लाल कपड़े में बांध कर अपनी तिजोरी में रखे ले।

  6. पूर्णिमा के दिन किसी हनुमान मंदिर में हनुमानजी के सामने चमेली के तेल का दीपक जलाएं और हनुमान चालीसा का पाठ करें।

  7. यदि आप अपने दाम्पत्य जीवन को प्रेम पूर्वक लम्बे समय के लिए रखना चाहते है तो कभी भी भूलवश पूर्णिमा और अमावस्या के दिन शारीरिक सम्बन्ध या सम्भोग नही करना चाहिए।

  8. प्रत्येक पूर्णिमा की रात में 15 से 20 मिनट तक चन्द्रमा के ऊपर त्राटक ( लगातार देखना ) विधि करने से जातक की नेत्रों की ज्योति बढ़ती है।

  9. प्रत्येक पूर्णिमा के दिन सुबह के समय घर के मुख्य दरवाज़े पर आम के ताजे पत्तों से बना तोरण बाँधने से घर के वातावरण में शुभता आती है।

  10. यदि कोई भी जातक मानसिक तनाव या मानसिक परेशानी में रहता है तो प्रत्येक पूर्णिमा के दिन अपने हाथ से खीर बनाकर गरीब बच्चे या लोंगो को खिलने से जातक की मानसिक तनाव या मानसिक परेशानी दूर हो जाती है।

  11. पूर्णिमा के दिन शिवलिंग पर शहद, कच्चादूध, बेलपत्र और फल चढाने से भगवान शिव की प्रसन्न होते हैं। इसके साथ घिसे हुए सफेद चंदन में केसर मिलाकर भगवान शंकर को अर्पित करने से घर से कलह और अशांति दूर होती है और सुख-संपत्ति का घर में आगमन होता है।

  12. पूर्णिमा के दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन जुए, शराब आदि नशे और क्रोध एवं हिंसा से भी दूर रहना चाहिए।इस दिन बड़े बुजुर्ग अथवा किसी भी स्त्री से भूलकर भी अपशब्द ना बोलें।

  13. आयुर्वेद के अनुसार पूर्णिमा की रात में चन्द्रमा की चाँदनी सब मनुष्यों के लिए अत्यंत लाभदायक रहती है। यदि पूर्णिमा की रात में चन्द्रमा के प्रकाश की किरणे गर्भवती महिला की नाभि पर पड़े तो उस महिला का गर्भ पुष्ट हो जाता है ! इसलिए गर्भवती स्त्रियों को तो विशेष रूप से कुछ समय के लिए पूर्णिमा की रात चन्द्रमा की चाँदनी में रहना चाहिए।

  14. हर पूर्णिमा के दिन सुबह के समय हल्दी में थोडा पानी डालकर घर के मुख्य दरवाज़े / प्रवेश द्वार पर ॐ और स्वातिक बनाना चाहिए !

  15. पूर्णिमा के दिन किसी शिव मंदिर में रात को शिवलिंग के पास दीपक जलाएं और ॐ रुद्राय नमः मंत्र का जप करें।

👉कापी
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स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी पूंजी है
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एक बार की बात है एक गॉव में एक धनी व्यक्ति रहता था| उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी लेकिन वह बहुत ज़्यादा आलसी था| अपने सारे काम नौकरों से ही करता था और खुद सारे दिन सोता रहता या अययाशी करता था

वह धीरे धीरे बिल्कुल निकम्मा हो गया था| उसे ऐसा लगता जैसे मैं सबका स्वामी हूँ क्यूंकी मेरे पास बहुत धन है मैं तो कुछ भी खरीद सकता हूँ| यही सोचकर वह दिन रात सोता रहता था|

लेकिन कहा जाता है की बुरी सोच का बुरा नतीज़ा होता है| बस यही उस व्यक्ति के साथ हुआ| कुछ सालों उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसका शरीर पहले से शिथिल होता जा रहा है उसे हाथ पैर हिलाने में भी तकलीफ़ होने लगी यह देखकर वह व्यक्ति बहुत परेशान हुआ| उसके पास बहुत पैसा था उसने शहर से बड़े बड़े डॉक्टर को बुलाया और खूब पैसा खर्च किया लेकिन उसका शरीर ठीक नहीं हो पाया| वह बहुत दुखी रहने लगा|

एक बार उस गॉव से एक साधु गुजर रहे थे उन्होने उस व्यक्ति की बीमारी के बारे मे सुना| सो उन्होनें सेठ के नौकर से कहा कि वह उसकी बीमारी का इलाज़ कर सकते हैं| यह सुनकर नौकर सेठ के पास गया और साधु के बारे में सब कुछ बताया| अब सेठ ने तुरंत साधु को अपने यहाँ बुलवाया लेकिन साधु ने कहा क़ि वह सेठ के पास नहीं आएँगे अगर सेठ को ठीक होना है तो वह स्वयं यहाँ चलकर आए|

सेठ बहुत परेशान हो गया क्यूंकी वो असहाय था और चल फिर नहीं पता था| लेकिन जब साधु आने को तैयार नहीं हुए तो हिम्मत करके बड़ी मुश्किल से साधु से मिलने पहुचें| पर साधु वहाँ थे ही नहीं| सेठ दुखी मन से वापिस आ गया अब तो रोजाना का यही नियम हो गया साधु रोज उसे बुलाते लेकिन जब सेठ आता तो कोई मिलता ही नहीं था| ऐसे करते करते 3 महीने गुजर गये| अब सेठ को लगने लगा जैसे वह ठीक होता जा रहा है उसके हाथ पैर धीरे धीरे कम करने लगे हैं| अब सेठ की समझ में सारी बात आ गयी की साधु रोज उससे क्यूँ नहीं मिलते थे| लगातार 3 महीने चलने से उसका शरीर काफ़ी ठीक हो गया था|

तब साधु ने सेठ को बताया की बेटा जीवन में कितना भी धन कमा लो लेकिन स्वस्थ शरीर से बड़ा कोई धन नहीं होता|

तो मित्रों, यही बात हमारे दैनिक जीवन पर भी लागू होती है पैसा कितना भी कमा लो लेकिन स्वस्थ शरीर से बढ़कर कोई पूंजी नहीं होती
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प्रताप राज

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सुजाता की खीर

वैशाखी पूर्णिमा की बात है। सुजाता भगवान बुद्ध के समकालीन उरुवेला प्रदेश के सेनानी ग्राम में रहने वाली एक स्त्री थी, जिसने बुद्ध को खीर खिलाई थी। इसकी दासी का नाम पूर्णा था, जिसने भगवान बुद्ध को एक बरगद के वृक्ष के नीचे बैठे देखा था।

सम्बोधि-प्राप्ति के पूर्व बुद्धों का किसी न किसी महिला के हाथों खीर का ग्रहण करना कोई अनोखी घटना नहीं थी। उस वृक्ष के नीचे एक बार उसवेला के निकटवर्ती सेनानी नाम के गाँव के एक गृहस्थ की पुत्री सुजाता ने प्रतिज्ञा की थी के पुत्र-रत्न प्रप्ति के बाद वह उस वृक्ष के देव को खीर अर्पण करेगी। जब पुत्र-प्राप्ति की उसकी अभिलाषा पूर्ण हुई, तब उसने अपनी दासी पूर्णा को उस वृक्ष के पास की जगह साफ करने को भेजा, जहाँ उसे खीरार्पण करना था। जगह साफ करते समय पूर्णा ने जब गौतम बुद्ध को उस पेड़ के नीचे बैठे देखा तो उन्हें ही उस पेड़ का देवता समझा और वह भागती हुई अपनी स्वामिनी को बुलाने गयी। देव की उपस्थिति के समाचार से प्रसन्न सुजाता भी तत्काल वहाँ मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुंची और बुद्ध को खीर अर्पण किया। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ बुद्ध ने उस कटोरी को ग्रहण कर पहले सुप्पतित्थ नदी में स्नान किया। तत्पश्चात उन्होंने उस खीर का सेवन कर अपने ४९ दिनों का उपवास तोड़ा। उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ, तभी से वे ‘बुद्ध’ कहलाए। जिस वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध प्राप्त हुआ, उसका नाम है बोधिवृक्ष।

संजय गुप्ता

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चुण्डावत मांगी सैनानी सिर काट दे दियो क्षत्राणी

राजस्थान के इतिहास की वह घटना जब एक राजपूत रानी विवाह के सिर्फ सात दिन बाद आपने शीश अपने हाथो से काट कर युद्ध में जाने को तैयार अपने को भिजवा दिया ताकि उनका पति नयी नवेली पत्नी की खूबसूरती में उलझ कर अपना कर्तव्य न भूले

हाड़ी रानी जिसने युद्ध में जाते अपने पति को निशानी मांगने पर अपना सिर काट कर भिजवा दिया था | यह रानी बूंदी के हाडा शासक की बेटी थी और उदयपुर (मेवाड़) के सलुम्बर ठिकाने के सरदार राव रतन सिंह चुण्डावत की रानी थी | जिनकी शादी का गठ्जोडा खुलने से पहले ही उसके पति रावत चुण्डावत को मेवाड़ के महाराणा राज सिंह (1653-1681) का औरंगजेब के खिलाफ मेवाड़ की रक्षार्थ युद्ध का फरमान मिला |

शादी को महज एक सप्ताह हुआ था। न हाथों की मेहंदी छूटी थी और न ही पैरों का आलता। सुबह का समय था। हाड़ा सरदार गहरी नींद में थे। रानी सज धजकर राजा को जगाने आई। उनकी आखों में नींद की खुमारी साफ झलक रही थी। रानी ने हंसी ठिठोली से उन्हें जगाना चाहा। इस बीच दरबान आकर वहां खड़ा हो गया। राजा का ध्यान न जाने पर रानी ने कहा, महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा है। वह ठाकुर से तुरंत मिलना चाहते हैं। आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना जरूरी है।असमय में दूत के आगमन का समाचार। ठाकुर हक्का बक्का रह गया। वे सोचने लगे कि अवश्य कोई विशेष बात होगी। राणा को पता है कि वह अभी ही ब्याह कर के लौटे हैं। आपात की घड़ी ही हो सकती है। उसने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा, दूत का तुरंत लाकर बिठाओ। मैं नित्यकर्म से शीघ्र ही निपटकर आता हूं, हाड़ा सरदार ने दरबान से कहा। सरदार जल्दी जल्दी में निवृत्त होकर बाहर आया। सहसा बैठक में बैठे राणा के दूत पर उसकी निगाह जा पड़ी। औपचारिकता के बाद ठाकुर ने दूत से कहा, अरे शार्दूल आप। इतनी सुबह कैसे? क्या भाभी ने घर से खदेड़ दिया है? सारा मजा फिर किरकिरा कर दिया। सरदार ने फिर दूत से कहा, तेरी नई भाभी अवश्य तुम पर नाराज होकर अंदर गई होगी। नई नई है न। इसलिए बेचारी कुछ नहीं बोली। ऐसी क्या आफत आ पड़ी थी। दो दिन तो चैन की बंसी बजा लेने देते। मियां बीवी के बीच में क्यों कबाब में हड्डी बनकर आ बैठे। अच्छा बोलो राणा ने मुझे क्यों याद किया है? वह ठहाका मारकर हंस पड़ा। दोनों में गहरी दोस्ती थी। सामान्य दिन अगर होते तो वह भी हंसी में जवाब देता। शार्दूल खुद भी बड़ा हंसोड़ था। वह हंसी मजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह सकता था, लेकिन वह बड़ा गंभीर था। दोस्त हंसी छोड़ो। सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई है। मुझे भी तुरंत वापस लौटना है। यह कहकर सहसा वह चुप हो गया। अपने इस मित्र के विवाह में बाराती बनकर गया था। उसके चेहरे पर छाई गंभीरता की रेखाओं को देखकर हाड़ा सरदार का मन आशंकित हो उठा। सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयीं है। दूत संकोच रहा था कि इस समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं। हाड़ा सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश लेकर वह लाया था। उसे मित्र के शब्द स्मरण हो रहे थे। हाड़ा के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थे। नव विवाहित हाड़ी रानी के हाथों की मेंहदी भी तो अभी सूखी न होगी। पति पत्नी ने एक दूसरे को ठीक से देखा पहचाना नही होगा। कितना दुखदायी होगा उनका बिछोह? यह स्मरण करते ही वह सिहर उठा। पता नहीं युद्ध में क्या हो? वैसे तो राजपूत मृत्यु को खिलौना ही समझता हैं। अंत में जी कड़ा करके उसने हाड़ा सरदार के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया। राणा का उसके लिए संदेश था।

महाराणा राज सिंह का पत्र
वीरवर। अविलंब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब की सेना को रोको। मुसलमान सेना उसकी सहायता को आगे बढ़ रही है। इस समय औरंगजेब को मैं घेरे हुए हूं। उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझाकर रखना है ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके तब तक मैं पूरा काम निपट लेता हूं। तुम इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर सकते हो। यद्यपि यह बड़ा खतरनाक है। जान की बाजी भी लगानी पड़ सकती है। मुझे तुम पर भरोसा है। हाड़ा सरदार के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। एक ओर मुगलों की विपुल सेना और उसकी सैनिक टुकड़ी अति अल्प है। राणा राजसिंह ने मेवाड़ के छीने हुए क्षेत्रों को मुगलों के चंगुल से मुक्त करा लिया था। औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी एडी चोटी की ताकत लगा दी थी। वह चुप होकर बैठ गया था। अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी। राणा से चारुमती के विवाह ने उसकी द्वेष भावना को और भी भड़का दिया था। इसी बीच में एक बात और हो गयीं थी जिसने राजसिंह और औरंगजेब को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया था। यह संपूर्ण हिन्दू जाति का अपमान था। इस्लाम को कुबूल करो या हिन्दू बने रहने का दंड भरो। यही कह कर हिन्दुओं पर उसने जजिया कर लगाया था।राणा राजसिंह ने इसका विरोध किया था। उनका मन भी इसे सहन नहीं कर रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कई अन्य हिन्दू राजाओं ने उसे अपने यहां लागू करने में आनाकानी की। उनका साहस बढ़ गया था। गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मंद पड़ गयीं थी फिर से प्रज्ज्वलित हो गई थी। दक्षिण में शिवाजी, बुंदेलखंड में छत्रसाल, पंजाब में गुरु गोविंद सिंह, मारवाड़ में राठौड़ वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। यहां तक कि आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह और मारवाड़ के जसवंत सिंह जो मुगल सल्तनत के दो प्रमुख स्तंभ थे। उनमें भी स्वतंत्रता प्रेमियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गई थी। मुगल बादशाह ने एक बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था। राणा राजसिंह ने सेना के तीन भाग किए थे। मुगल सेना के अरावली में न घुसने देने का दायित्व अपने बेटे जयसिंह को सौपा था। अजमेर की ओर से बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का काम दूसरे बेटे भीम सिंह का था। वे स्वयं दुर्गादास राठौड़ के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े थे। सभी मोर्चों पर उन्हें विजय प्राप्त हुई थी। बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय कॉकेशियन बेगम बंदी बना ली गयीं थी। बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण बचाकर निकल सका था। मेवाड़ के महाराणा की यह जीत ऐसी थी कि उनके जीवन काल में फिर कभी औरंगजेब उनके विरुद्ध सिर न उठा सका था।

लेकिन क्या इस विजय का श्रेय केवल राणा को था या किसी और को? हाड़ा रानी और हाड़ा सरदार को किसी भी प्रकार से गम नहीं था। मुगल बादशाह जब चारों ओर राजपूतों से घिर गए। उसकी जान के भी लाले पड़े थे। उसका बचकर निकलना मुश्किल हो गया था तब उसने दिल्ली से अपनी सहायता के लिए अतिरिक्त सेना बुलवाई थी। राणा को यह पहले ही ज्ञात हो चुका था। उन्होंने मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करन के लिए हाड़ा सरदार को पत्र लिखा था। वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह मित्र के पास पहुंचा था। एक क्षण का भी विलंब न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा था।

केसरिया बाना पहने युद्ध वेष में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी वह अचंभित थी। कहां चले स्वामी? इतनी जल्दी। अभी तो आप कह रहे थे कि चार छह महीनों के लिए युद्ध से फुरसत मिली है आराम से कटेगी यह क्या? आश्चर्य मिश्रित शब्दों में हाड़ी रानी पति से बोली। प्रिय। पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती है। वह शुभ घड़ी अभी ही आ गई। देश के शत्रुओं से दो दो हाथ होने का अवसर मिला है। मुझे यहां से अविलंब निकलना है। हंसते-हंसते विदा दो। पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो हाड़ा सरदार ने मुस्करा कर पत्नी से कहा। हाड़ा सरदार का मन आशंकित था। सचमुच ही यदि न लौटा तो। मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा ? एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह। इसी अन्तर्द्वंद में उसका मन फंसा था। उसने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बता दी थी। विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है यह हाड़ी राजी की तेज आंखों से छिपा न रह सका। यद्यपि हाड़ा सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की। हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है। उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर। पति विजयश्री प्राप्त करें इसके लिए उसने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी। वह पति से बोली स्वामी जरा ठहरिए। मैं अभी आई। वह दौड़ी-दौड़ी अंदर गयीं। आरती का थाल सजाया। पति के मस्तक पर टीका लगाया, उसकी आरती उतारी। वह पति से बोली। मैं धन्य हो गयीं, ऐसा वीर पति पाकर। हमारा आपका तो जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं आप जाएं स्वामी। मैं विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी। उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था। पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी। चलते चलते पति उससे बोला प्रिय। मैं तुमको कोई सुख न दे सका, बस इसका ही दुख है मुझे भूल तो नहीं जाओगी ? यदि मैं न रहा तो …………। उसके वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके मुख पर हथेली रख दी। न न स्वामी। ऐसी अशुभ बातें न बोलों। मैं वीर राजपूतनी हूं, फिर वीर की पत्नी भी हूं। अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निश्चित होकर प्रस्थान करें। देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें। यही मेरी प्रार्थना है। हाड़ा सरदार ने घोड़े को ऐड़ लगायी। रानी उसे एकटक निहारती रहीं जब तक वह आंखे से ओझल न हो गया। उसके मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने बरबस रोक रखा था वह आंखों से बह निकला। हाड़ा सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बाते करता उड़ा जा रहा था। किन्तु उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि कही सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दें? वह मन को समझाता पर उसक ध्यान उधर ही चला जाता। अंत में उससे रहा न गया। उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों के रानी के पास भेजा। उसकों फिर से स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत। मैं जरूर लौटूंगा। संदेश वाहक को आश्वस्त कर रानी ने लौटाया। दूसर दिन एक और वाहक आया। फिर वही बात। तीसरे दिन फिर एक आया। इस बार वह पत्नी के नाम सरदार का पत्र लाया था। प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं। अंगद के समान पैर जमारक उनको रोक दिया है। मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं। यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है। पर तुम्हारे बड़ी याद आ रही है। पत्र वाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज देना। उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करुंगा। हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयीं। युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे। विजय श्री का वरण कैसे करेंगे? उसके मन में एक विचार कौंधा। वह सैनिक से बोली वीर ? मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं। इसे ले जाकर उन्हें दे देना। थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना। किन्तु इसे कोई और न देखे। वे ही खोल कर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना। हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था प्रिय। मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफ्रिक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली… स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी। पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल, एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया। वह धरती पर लुढ़क पड़ा। वह धरती पर लुढ़क पड़ा। सिपाही के नेत्रो से अश्रुधारा बह निकली। कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका। भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा। उसको देखकर हाड़ा सरदार स्तब्ध रह गया उसे समझ में न आया कि उसके नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? धीरे से वह बोला क्यों यदुसिंह। रानी की निशानी ले आए? यदु ने कांपते हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया। हाड़ा सरदार फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया। उसके मुख से केवल इतना निकला उफ्‌ हाय रानी। तुमने यह क्या कर डाला। संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली खैर। मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।

हाड़ा सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। वह शत्रु पर टूट पड़ा। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है। जीवन की आखिरी सांस तक वह लंड़ता रहा। औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नहीं ही बढऩे दिया, जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था। इस विजय को श्रेय किसको? राणा राजसिंहि को या हाड़ा सरदार को। हाड़ी रानी को अथवा उसकी इस अनोखी निशानी को?

संजय गुप्ता

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खुद में रा़स्ता ढूढ़े

एक बार स्वामी विवेकानन्द के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था। वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि महाराज मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूँ मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ , काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ ।स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा सा पालतू कुत्ता था , उन्होंने उस व्यक्ति से कहा– तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा। आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा।

काफी देर तक अच्छी खासी सैर करा कर जब वो व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहुँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था जबकि कुत्ता हाँफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था। स्वामी जी ने व्यक्ति से कहा– कि ये कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी साफ सुथरे और बिना थके दिख रहे हो तो व्यक्ति ने कहा कि मैं तो सीधा साधा अपने रास्ते पर चल रहा था लेकिन ये कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसीलिए ये थक गया है। स्वामी जी ने मुस्कुरा कर कहा- यही तुम्हारे सभी प्रश्नों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आस पास ही है वो ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।

संजय गुप्ता

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राधे राधे….🌸💐👏🏼

एक बार वृन्दावन के मंदिर में एक संत अक्षय तृतीया के दिन श्री बांके बिहारी के चरणों का दर्शन कर रहे थे। दर्शन करने के साथ साथ एक भाव भी गुनगुना रहे थे कि

श्री बिहारी जी के चरण कमल में नयन हमारे अटके।
नयन हमारे अटके नयन हमारे अटके।

एक व्यक्ति वहीँ पर खड़ा खड़ा ये भाव सुन रहा था। उसे ये भाव पसंद आया। और इस भाव को गुनगुनाते हुए अपने घर पहुंचा। उसकी आँखे बंद है श्री बिहारी के चरण ह्रदय में है और बड़े भाव से गाये जा रहा है। लेकिन उस व्यक्ति से एक गलती हो गई। भाव था कि श्री बिहारी जी के 👣 चरण कमल में नयन हमारे अटके।

लेकिन उसने गुनगुनाया श्री बिहारी जी के नयन कमल में 👣 चरण हमारे अटके। थोड़ा उल्टा हो गया। लेकिन ये व्यक्ति बड़ा मगन होकर गाने लगा। श्री बिहारी जी के नयन कमल में 👣 चरण हमारे अटके।

अब थोड़ा सोचिये हमारे नयन श्री बिहारी जी के 👣 चरणों में अटकने चाहिए। हमारा ध्यान श्री बिहारी जी के 👣 चरणों में होना चाहिए। क्योंकि भगवान के चरण कमल बहुत ही प्यारे हैं।

लेकिन उस व्यक्ति ने इतना मगन होकर गया कि भगवान बांके बिहारी आज सब कुछ भूल गए और श्री बिहारी जी उसके सामने प्रकट हो गए।

बांके बिहारी ने उससे मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा – अरे भईया! मेरे एक से बढ़कर एक बड़ा भक्त है लेकिन तुझ जैसा निराला भक्त मुझे मिलना बड़ा मुश्किल है।

लोगो के नयन तो हमारे चरणों के अटक जाते है पर तुमने तो हमारे ही नयन अपने 👣 चरणों में अटका दिये।

वो व्यक्ति समझ ही नहीं पाया कि क्या हो रहा है। आज भगवान ने उसे साक्षात् दर्शन दे दिए। फिर अपनी भूल का एहसास भी हुआ कि मैंने भगवान के नयनों को अपने 👣 चरणों में अटकने के लिए कहा। लेकिन फिर उसे समझ आया कि भगवान तो केवल भाव के भूखें है। अगर मुझसे कोई गलती होती तो भगवान मुझे दर्शन देने ही नहीं आते। मेरे भाव पे आज भगवान रीझ गए। ऐसा सोचकर वह भगवान के प्रेम में खूब रोया उसने साक्षात् भगवान को और भगवान की कृपा को बरसते हुए देखा। धन्य हैं ऐसे भक्त और भगवान।

भगवान के 👣 चरणों का बहुत ही महत्व है। आप भगवान के 👣 चरणों में मन को लगा दें बस। क्योंकि भगवान के 👣 चरण दुखों का हरण कर लेते हैं।

श्री हरी चरण – दुःख हरण।…🌸👏🏼

सूरदास जी, जो भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे उन्होंने भगवान के चरणों की खूब सुंदर वंदना गाई है।

चरन कमल बंदौ हरि राई ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई ॥

अर्थ – 🌸
जिस पर श्री हरि ( भगवान ) की कृपा हो जाती है उसके लिये कुछ भी असंभव नहीं रहता है। असंभव भी संभव हो जाता है। भगवान की कृपा होने लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ लेता है, अन्धे को सबकुछ दिखाई देने लगता है। बहरा व्यक्ति सुनने लगता है, गूंगा बोलने लगता है, और गरीब व्यक्ति भी अमीर हो जाता है। ऐसे करूणामय,ऐसे दयालु प्रभु की चरण वन्दना कौन अभागा न करेगा।

ये एक संत के वचन हैं जो कभी भी झूठे नहीं हो सकते हैं। भगवान के चरणों की जो वंदना ना कर सके, भगवान के 👣 चरणों का जो दर्शन ना कर सके वो तो जग में अभागा ही रह जाता है।…☺👏🏼

बोलो श्री बांके बिहारी लाल की जय !!
🌸🙌🏼🌸🙌🏼🌸🙌🏼🌸🙌🏼🌸🙌🏼🌸

🌸 !! जय जय श्री राधे !! 🌸
🌸 !! जय जय श्री राधे !! 🌸
🌸 !! जय जय श्री राधे !! 🌸

संजय गुप्ता

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🌈
पिता बेटे को डॉक्टर बनाना चाहता था।

बेटा इतना मेधावी नहीं था कि NEET क्लियर कर लेता।

इसलिए प्राइवेट स्कूलों के दलालों से MBBS की सीट खरीदने का जुगाड़ किया ।

ज़मीन, जायदाद, ज़ेवर सब गिरवी रख के 35 लाख रूपये दलालों को दिए, लेकिन अफसोस वहाँ धोखा हो गया।

अब क्या करें…?

लड़के को तो डॉक्टर बनाना है कैसे भी…!!

फिर किसी तरह विदेश में लड़के का एडमीशन कराया गया, वहाँ लड़का चल नहीं पाया।

फेल होने लगा..
डिप्रेशन में रहने लगा।

रक्षाबंधन पर घर आया और घर में ही फांसी लगा ली।
सारे अरमान धराशायी…. रेत के महल की तरह ढह गए….

20 दिन बाद माँ-बाप और बहन ने भी कीटनाशक खा कर आत्म-हत्या कर ली।

अपने बेटे को डॉक्टर बनाने की झूठी महत्वाकांक्षा ने पूरा परिवार लील लिया।
माँ बाप अपने सपने, अपनी महत्वाकांक्षा अपने बच्चों से पूरी करना चाहते हैं …

मैंने देखा कि कुछ माँ बाप अपने बच्चों को Topper बनाने के लिए इतना ज़्यादा अनर्गल दबाव डालते हैं
कि बच्चे का स्वाभाविक विकास ही रुक जाता है।

आधुनिक स्कूली शिक्षा बच्चे की Evaluation और Gradening ऐसे करती है, जैसे सेब के बाग़ में सेब की खेती की जाती है।
पूरे देश के करोड़ों बच्चों को एक ही Syllabus पढ़ाया जा रहा है ..

For Example –

जंगल में सभी पशुओं को एकत्र कर सबका इम्तिहान लिया जा रहा है और पेड़ पर चढ़ने की क्षमता देख कर Rank निकाली जा रही है।

यह शिक्षा व्यवस्था, ये भूल जाती है कि इस प्रश्नपत्र में तो बेचारा हाथी का बच्चा फेल हो जाएगा और बन्दर First आ जाएगा।

अब पूरे जंगल में ये बात फैल गयी कि कामयाब वो है जो झट से पेड़ पर चढ़ जाए।

बाकी सबका जीवन व्यर्थ है।

इसलिए उन सब जानवरों के, जिनके बच्चे कूद के झटपट पेड़ पर न चढ़ पाए, उनके लिए कोचिंग Institute खुल गए, वहां पर बच्चों को पेड़ पर चढ़ना सिखाया जाता है।

चल पड़े हाथी, जिराफ, शेर और सांड़, भैंसे और समंदर की सब मछलियाँ चल पड़ीं अपने बच्चों के साथ, Coaching institute की ओर ……..

हमारा बिटवा भी पेड़ पर चढ़ेगा और हमारा नाम रोशन करेगा।

हाथी के घर लड़का हुआ …….
तो उसने उसे गोद में ले के कहा- “हमरी जिन्दगी का एक ही मक़सद है कि हमार बिटवा पेड़ पर चढ़ेगा।”

और जब बिटवा पेड़ पर नहीं चढ़ पाया, तो हाथी ने सपरिवार ख़ुदकुशी कर ली।

अपने बच्चे को पहचानिए।
वो क्या है, ये जानिये।

हाथी है या शेर ,चीता, लकडबग्घा , जिराफ ऊँट है
या मछली , या फिर हंस , मोर या कोयल ?
क्या पता वो चींटी ही हो ?

और यदि चींटी है आपका बच्चा, तो हताश निराश न हों।
चींटी धरती का सबसे परिश्रमी जीव है और अपने खुद के वज़न की तुलना में एक हज़ार गुना ज्यादा वजन उठा सकती है।

इसलिए अपने बच्चों की क्षमता को परखें और जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें…. ना कि भेड़ चाल चलाते हुए उसे हतोत्साहित करें ……

SAVE HUMAN BEHAVIOR FIRST…

Parents love your kids as they are🙏🏻

“क्योंकि किसी को शहनाई बजाने पर भी भारत रत्न से नवाज़ा गया है”

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પ્રથમ શાહ વાણિયા, બીજા શાહ સુલતાન

ગુજરાતી હિંદુઓમાં શાહ અટક માત્ર વણિક કોમમાં જ જોવા મળે છે. શાહ એટલે વાણિયો એવી માન્યતા રૃઢ થઈ ગઈ છે. વહાણે ચડીને વિદેશો સાથે વેપાર કરનાર ‘વહાણિયા’ પરથી વાણિયા અટક આવી હોવાનું કહેવાય છે. આપણે ત્યાં વાણિયાના નામની આગળ શાહ ઉપનામ ઘણું કરીને લગાડવામાં આવે છે. જો તેની બીજી કોઈ અટક હોય તો તેના નામને અંતે મૂકાય છે. વાણિયાના નામની મોખરે શાહ શબ્દ મુકાવો જ જોઈએ એવી પ્રથા છે એમ શ્રી રતિલાલ નાયક નોંધે છે. તેઓ કહે છે કે આ શાહ અટક શા ઉપરથી પડી તે સંબંધી અનેક તર્કવિતર્કો થયા છે. મુસલમાન લોકોમાં પણ શાહ અટક છે.વણિકોમાં શાહ અટક ક્યારથી અને કેવી રીતે આવી એની વાત ‘મિરાતે-સિકંદરી’ના કર્તા આ પ્રમાણે નોંધે છે.

૧૫મી સદીના ઉત્તરાર્ધમાં અહમદશાહ પછીના સુલતાનોમાં મહમૂદશાહ ‘બેગડો’ થઈ ગયો. એણે જૂનાગઢ અને પાવાગઢ એમ બે ગઢ જીતી લીધા હોવાથી બેગડો કહેવાયો. એ કાળે ચાંપાનેરની ભારે જાહોજલાલી હતી. એવામાં કારમો દુષ્કાળ પડયો. લોકો મુઠ્ઠી ધાન માટે ટળવળવા લાગ્યા. ત્યારે બેગડાએ ચાંપાનેરમાં આવી મહાજન શ્રેષ્ઠિઓને બોલાવીને કહ્યું કે ‘તમે વણિકો ધનાઢ્ય છો એટલે ચાંપાનેરનું મહાજન ભેગું થઈને રાજની પ્રજાને દુકાળ તરાવી દ્યો. નહીંતર ‘શાહ’ અટક લખવાનું છોડી દ્યો. એક માસની મહેતલ આપું છું.’

મોહંમદ બેગડાએ જીતેલો ચાંપાનેરનો કિલ્લો
પાવાગઢનો કિલ્લો

મહાજનના મોવડી ચાંપશી મહેતાએ પડકાર ઝીલી લીધો, ચાંપાનેરના મહાજને દુષ્કાળના ખરડામાં ચાર મહિનાનું ખર્ચ લખાવ્યું. અડખે પડખેના વાણિયાઓએ બીજા ૨ માસ લખાવ્યા. પછી મહાજન બાકીના છ મહિનાના ખર્ચ માટે ટીપ-ફાળો કરવા નિકળ્યું. તેઓ ઘોડા લઈને ધોળકા થઈને ધંધુકા જવા નીકળ્યા. રસ્તામાં હડાળા ગામ આવ્યું. ત્યાંનો એક લઘરવઘર વણિક મહાજનને પોતાના ઘેર લઈ ગયો. આગતા સ્વાગતા કરી. સૌને રંગેચંગે જમાડયા પછી બે હાથ જોડીને બોલ્યો ઃ ‘શેઠિયાઓ, આજથી દુકાળ તરવાની ટીપ બંધ કરો. રાજની પ્રજાને દુકાળ તરવા જે જોઈશે ઈ તમામ ખર્ચ, દાણોદુણી, ઘાસચારો હું પુરા પાડીશ. ચિંતામુક્ત બની ચાંપાનેર પાછા જાવ. પધારો અને બેગડાને કહો દુકાળની કોઈ ચિંતા ન કરે.’ એ પછી ભાલ પંથકના હડાળા ગામના ખેમા દેદરાણીએ પોતાના ભર્યા ભંડાર ખુલ્લા મૂકી દીધા.

આ વાતની જાણ થયા પછી મહંમદ બેગડાએ ખેમા દેદરાણી અને એના તપસી બુઢ્ઢા બાપને ચાંપાનેર તેડાવ્યા. દરબાર ભરીને બેગડાએ ચાંપસી મહેતા, મહાજનના શ્રેષ્ઠિઓ, ખેમો દેદરાણી, અને એના બાપુનું દબદબાપૂર્ણ રીતે સન્માન કરીને મહંમદ બેગડાએ એટલું જ કહ્યું ઃ

‘ગુજરાતમાં આજથી પ્રથમ ‘શાહ’ વાણિયા ને બીજો શાહ સુલતાન બેગડો.

ત્યારથી પ્રજા અને મૂગાં ઢોરઢાંખરનો જીવ બચાવનાર જૈન વણિકોને ‘શાહ’ શબ્દનો શિરપાળ મળ્યો. આ પૂર્વે માત્ર રાજદરબારમાં ‘શાહ’ શબ્દ રાજ્યના અધિકારી કે સુલતાનને માટે જ વપરાતો. આ દિવસથી ‘શાહ’ શબ્દ સમગ્ર વણિકોની નાત માટે વપરાતો થઈ ગયો. લોકજીભે એની કહેવત રમતી થઈ :
પ્રથમ શાહ વાણિયા બીજા શાહ સુલતાન

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ખેતલીની  વાર્તા

[બાળવાર્તા: 2://સંપાદક: ગિજુભાઈ//સંસ્કાર]

  એક હતો વાણિયો ને એક હતી વાણિયણ. . વાણિયણ ખાઉકડ અને વાણિયો કંજુસ.

   પણ વાણિયણ હતી પાકી . પોતાનો ધણી ઘરમાં હોય ત્યારે થોડું ખાય અને બહાર જાય ત્યારે પાછળથી પોતે સારુંસારું  કરીને ઉડાવે.

   એક દિવસ વાણિયાના મનમાં વહેમ પડ્યો. તે કહે: ‘આટલું આટલું  ઘરમાં લાવુ છું ને એકદમ ખૂટી કેમ જાય છે ? લાવ ને જોઉ તો ખરો કે ઘરનું માણસ તો ખાઇ નથી જંતુ?’

    વાણિયાને કહ્યું : ‘સાંભળ્યું કે? મારે પાંચ સાત દિવસના ગામતરે જવું છે. મને ભાતું કરી આપ.’

    વાણિયણ તો રાજીનારેડ થઇ ગઇ. ઝટ ઝટ ભાતું કરી દીધું ને વાણિયાને વળાવ્યો.

    વાણિયો તો પોતાના ભાઇબંધને ત્યાં જઇને આખો દિવસ રહ્યો. સાંજે વાણિયણ દહેરે ગઇ ત્યાં વાણિયો છાનોમાનો ઘરમાં પેસી ગયો. અને ઘરની એક મોટી કોઠીમાં સંતાઇને બેઠો.

     રાત પડી . વાણિયણનો હરખ ક્યાંઇ માતો ન હતો. તે કહે : ‘હાશ ! હવે પાંચ દહાડા મીઠું મીઠું ધરાઇને ખાઈશ.’

     વાણિયણ પોતાની પાસે સૂવા માટે પાડોશીની એક છોકરીને બોલાવી આવી. એનું નામ હતું ખેતલી.

    વાળુ કરી બન્ને જણી સૂતી

    અરધી રાત થઇ ત્યાં વાણિયણ જાગી ખેતલીને કહે:

                 ‘ખેતલી  ખેતલી!

                 રાત કેટલી  ? ‘

    ખેતલી કહે: ‘ બા! હજુ તો બાર જ વાગ્યા છે.’

    વાણિયણ કહે : ‘ મને તો બહુ જ ભૂખ લાગી છે.

પેલા ખૂણામાં શેરડીના રસાત સાંઠા પડ્યા છે તે લાવ; ખાઇએ.’   

   પછી વાણિયણે અને ખેતલીએ સાંઠા ધરાઇને ખાધા  ને પછી સૂઇ ગઇ.

   વાણિયો બેઠો બેઠો કોઠીના કાણામાંથી બધુંય જોતો હતો. તે કહે: ‘ માળું! આ તોભારે લુચ્ચી લાગે છે!’

   વળી જ્યાં બે વાગ્યા ત્યાં વાણિયણ ઊઠીને ખેતલીને કહે:

             ‘ખેતલી   ખેતલી!

              રાત  કેટલી?’

    ખેતલી કહે: ‘ બા હજુ તો બે જ વાગ્યા છે .’

    વાણિયણ કહે:’ પણ મને તો બહુ જ ભૂખ લાગી છે . છ સાત સુંવાળી કરી નાખ, તો આપણે નિરાંતે ખાઇએ.’

     કોઠીમાં બેઠેલો વાણિયો વળી મનમાં ને મનમાં બબડ્યો. :’ ઓય રાંડ ! આ તો  ભારે લુચ્ચી!’

     ખેતલી એ તો સુંવાળી કરી . સુંવાળી બંને જણીએ ખાધી ને પાછી સૂઇ ગઇ.

     જ્યાં ચાર વાગ્યા ત્યાં વળી પાછી વાણિયણ જાગીને બોલી :

                ‘ખેતલી  ખેતલી!

                 રાત કેટલી  ?’

     ખેતલી કહે: ‘ બા ! હજુ તો ચાર જ વાગ્યા છે.’

     વાણિયણ કહે : ‘ બહેન! મને તો બહુ જ ભૂખ લાગી છે . થોડો શીરો હલાવી નાખ ને ?’

     છોડીએ તો થોડોક શીરો કર્યો. અંદર ઘી ખૂબ નાખ્યું હતું.

     પછી બન્ને જણીએ શીરો ખાધો ને વળી પાછી સૂઇ ગઇ.

      કોઠીમાં બેઠો બેઠો વાણિયો તો દાંત ભીંસવા લાગ્યો.

      વળી જ્યાં છ વાગ્યા, ત્યાં વાણિયણ પાછી  જાગી, ને કહે:    

                  ‘ખેતલી  ખેતલી!

                  રાત  કેટલી ?’   

       ખેતલી કહે: ‘બા ! છ વાગ્યા છે.’

      વાણિયણ કહે : ‘ હજુ હું તો ભૂખી જ છું. થોડી ધાણી ફોડ જોઇએ? આપણે થોડીક ધાણી ખાઇએ ને પાણી પીએ.’

      ખેતલીએ તો ધાણી  ફોડી ને બન્ને જણીએ ખાધી

      કોઠીમાં બેઠેલો વાણિયો મનમાં કહે:’ સવારે વાત છે આ વાણિયણની!’

       પછી ખેતલી પોતાને ઘેર ગઇ અને વાણિયણ પાણી ભરવા ગઇ.

     પાછળથી વાણિયો કોઠીમાંથી બહાર નીકળી ગામમાં ગયો ને થોડીક વાર પછી પોટકું લઇ પાછો આવ્યો.

      વાણિયણ તો ઝાંખી પડી ગઇ . એના મનમાં થયું કે ગમે તેમ હોય પણ વાણિયો વાત જાણી ગયો છે. વાણિયણે પૂછ્યું: ‘ તમે તો ચાર પાંચ દિવસને ગામતરે ગયા હતા ને આમ પાછ કેમ આવ્યા ?’

    વાણિયો કહે :’ મને તો અપશુકન થયા એટલે પાછો આવ્યો.’

    વાણિયણ કહે : ‘ કહો તો ખરા, એવા તે શા અપશુકન થયા?’

    વાણિયો કહે :’ રસ્તામાં એક મોટો સાપ આડો ઊતર્યો.’

    વાણિયણ કહે : ‘ હાય હાય! મોટો સાપ તે કેવડો હશે?’

    વાણિયો કહે : ‘કેવડો તે કેમ ? શેરડીના સાત સાંઠા જેવડો!’

    વાણિયણ કહે : ‘પણ એની ફેણ કેવડી હતી ?’

      વાણિયો કહે: ‘ફેણ તો મોટી બધી સાત સુંવાળી જેવડી હતી.’

     વાણિયણ કહે : ‘ તે ઇ સાપ ચાલતો’ તો કેમ કરીને ?’

     વાણિયો કહે: ‘કહું? શીરામાં જેમ ઘી ચાલે તેમ ચાલતો હતો.’

    વાણિયણ કહે : ‘ સાપ ઊડતો’ તો કે નહી ?’

   વાણીયો કહે :’ હા , હા, તવીમાં જેમ ધાણી ઊડે એમ ઊડતો હતો !’

   વાણિયણને ખાતરી થઇ ગઇ કે જરૂર વાણિયો બધી વાત જાણી ગયો છે . પોતે ઢીલી પડી ગઇ ને વાણિયાને પગે પડીને માફી માગવા લાગી.

     વાણિયે તેને તે દિવસે જવા દીધી પછી બંને સમજી ગયાં . વાણિયો લોભી મટી ગયો ને વાણિયણ ખાઉકડ મટી ગઇ.

                      સમાપ્ત

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દાદાજીની વાતો
અજબ ચોર
ઝવેરચંદ મેઘાણી

ક હતો ચોર. એને એવું નીમ કે એક વરસમાં એક જ વાર ચોરી કરવી, બીજી વાર નહિ.

એક દિવસે એ ચાલ્યો ચોરી કરવા. રસ્તામાં એક નદી આવી ત્યાં એ બેઠો. એટલામાં એક વાણિયો નીકળ્યો. વાણિયાને બહુ તરસ લાગેલી. ખોબો ભરીને જ્યાં પાણી પીવા જાય ત્યાં તો ચોરને જોયો. વાણિયાના પેટમાં ફાળ પડી. પાણી પૂરું પીધા વિના એ ઊઠ્યો.

ચોર કહે : ‘શેઠજી, પૂરું પાણી તો પી લ્યો !’

વાણિયો કહે : ‘બસ ભાઈ, મારે વધારે નથી પીવું.’

ચોર કહે : ‘શેઠ, તમે ભડકો મા. હું તમને નથી લૂંટવાનો. વિશ્વાસ રાખો, ને પાણી પી લ્યો. મારે તો મોટી ચોરી કરવાની છે.’

વાણિયે પાણી પીધું. ચોર કહે : ‘શેઠ ! તમારી પાસે આ લાકડી છે, તે મને આપો. પૈસા દઉં.’

વાણિયાના મોઢા ઉપરથી લોહી ઊડી ગયું. એ બોલ્યો : ‘ભાઈ, મારાથી લાકડી વિના હલાય નહિ. લાકડીને ટેકેટેકે તો હું હાલું છું. આંહીં વગડામાં બીજી લાકડી ક્યાંથી કાઢું ?’

ચોરે લાકડી ઝૂંટવી લીધી, અને એને ચીરી ત્યાં તો માંહેથી ચાર રત્નો નીકળ્યાં.

દાંત કાઢીને ચોર કહે : ‘શેઠજી, તમને મેં અભયવચન દીધેલું, તો યે તમે મારી પાસે ખોટું બોલ્યા ! લ્યો તમારાં રત્ન. મારે એ ખપે નહિ, તમે ક્યે ગામ જાઓ છો ?

શેઠ કહે : ‘ઉજેણી નગરી.’

ચોર કહે : ‘ઉજેણીના રાજા વીર વિક્રમને એટલું કહેજો કે આજે રાતે હું ચોરી કરવા આવીશ, માટે હુશિયાર રહે.’

વાણિયાએ જઈને વીર વિક્રમને ખબર દીધા.

રાજા વીર વિક્રમ તો વિચારવા લાગ્યા કે ઓહો ! આવો બહાદુર ચોર કોણ હશે ? આ ચોર તો સામેથી સમાચાર મોકલાવે છે !

રાજાએ હુકમ કર્યો કે ‘આજ રાતે હું એકલો આખા નગરની ચોકી કરવાનો છું, માટે બધા સિપાઈને રાતે રજા આપવી. કોઈએ આજ રાતે જાગવાનું નથી. નગરના માણસોને પણ કહેજો કે નિરાંતે સૂઈ જાય.’

રાજાજી તો દેવતાઈ પુરુષ હતા. એના વચન ઉપર બધાને વિશ્વાસ. રાત પડી. ચોકીદાર બધા પોતપોતાને ઘેર ગયા. ગામનાં માણસો પણ સૂઈ ગયાં. નગરના ગઢના દરવાજા દેખાઈ ગયા.

રાજાજી એકલા ચોરનો વેશ લઈને નગરની અંદર ગઢની રાંગે રાંગે ફરવા લાગ્યા. ફરતાં ફરતાં એક જગ્યાએ ઊભા રહ્યા. એને લાગ્યું કે આંહીંથી ચોર ઊતરશે. ત્યાં તો બહારથી પેલો ચોર ગઢ ઉપર આવ્યો. ચોરે જોયું કે અંદર એક આદમી ઊભો છે. એટલે તે પાછો ઊતરવા મંડ્યો. ત્યાં તો રાજાએ સિસોટી મારી. ચોર એકબીજાને જોઈને સિસોટી મારે તેવી જ હતી આ સિસોટી.

ચોર સમજ્યો કે આ કોઈ મારો જ ભાઈબંધ લાગે છે. એટલે એ અંદર આવ્યો. વિક્રમ રાજા કહે કે, ‘ચાલ દોસ્ત, હું આ ગામનો ભોમિયો છું, તને સારાં ઠેકાણાં બતાવું.’

બન્ને જણા ચાલ્યા. ચાલતાં ચાલતાં એક શાહુકારનું ઘર આવ્યું. રાજાએ અંદર જવાનો રસ્તો બતાવ્યો. ચોર અંદર જાય, ત્યાં શેઠ-શેઠાણી ભર ઊંઘમાં સૂતેલાં. ચોર થોડી વાર ઊભો ત્યાં ઊંઘમાં ને ઊંઘમાં શેઠાણી બોલ્યાં કે : ‘કોણ એ, ભાઈ !’

આ સાંભળીને તરત ચોર બહાર નીકળ્યો. રાજાને કહે કે ‘ચાલો, બીજે ઘેર. આંહી ખાતર નથી પાડવું.’

રાજા કહે : ‘કાં ?’

ચોર બોલ્યો : ‘શેઠાણીએ મને ‘ભાઈ’ કહ્યો. બહેનને તો કાંઈક દેવાય.’ એમ કહી પાછો અંદર ગયો. પોતાની પાસે સોનાનો એક વેઢ હતો તે શેઠાણીની પથારીમાં મૂકી આવ્યો.

પછી બેઉ જણા બીજે ઠેકાણે પહોંચ્યા.

ચોર અંદર જાય ત્યાં શેઠાણી સૂતેલાં. ચોરનો હાથ એક મીઠાની ગુણ ઉપર પડ્યો. એના મનમાં એમ થયું કે આ શુકનની સાકર છે. એક એક ગાંગડો લઈને મોઢામાં મૂકે ત્યાં તો મીઠું. ચોર તરત બહાર નીકળ્યો.

રાજા કહે : ‘કેમ થયું ?’

ચોર બોલ્યો : ‘ભાઈ, આ ઘરનું લૂણ (મીઠું) મારા પેટમાં પડ્યું. મારાથી લૂણહરામ થવાય નહિ. ચાલો, બીજે ઘેર !’

રાજાને થયું કે ‘આ તે ચોર કે સંત !’

ત્રીજે ઘેર ગયા; રાજાએ રસ્તો દેખાડ્યો. ચોર અંદર જઈને અંધારામાં હાથ ફેરવે ત્યાં એક જુવારના કોથળામાં એનો હાથ પડ્યો. ચોર બહાર નીકળ્યો ને રાજાને કહ્યું કે, ‘ભાઈ, શુકન તો સારાં થયાં. જાર હાથમાં આવી. પણ જે ઘરમાં શુકન થયાં તે ઘરને કાંઈ લૂંટાય ? એ શુકન તો હવે ફળવાનાં. ચાલો, બીજે ઘેર.’

રાજા કહે : ‘ચાલ ત્યારે રાજમહેલ ફાડીએ.’

બેઉ જણા ચાલ્યા રાજમહેલમાં. રાજમહેલની અંદર દાખલ થયા; ત્યાં એક પણ ચોકીદાર ન જોયો.

ચોર પૂછે છે : ‘ભાઈ ! આ તે શું ? ગામમાં કોઈ ચોકીદાર જ નહિ ! દરબારગઢમાં યે કોઈ માણસ નહિ. રાજા વીર વિક્રમનો બંદોબસ્ત તો બહુ વખણાય છે ને !’

રાજા કહે : ‘અરે ભાઈ ! એ બહાર મોટી મોટી વાતો સંભળાતી હશે. આંહીં તો આવું જ અંધેર ચાલે છે. રાજા કશું ધ્યાન નથી દેતાં.’

મહેલમાં રાણીજી હીંડોળાખાટ ઉપર સૂતેલાં. રાજા ચોરને કહે કે ‘આ ખાટના પાયા સોનાના છે. પાયા લઈ લઈએ. એટલે છોકરાંના છોકરાં બેઠાં બેઠાં ખાય.’

પણ ખાટ શી રીતે કાઢવી ! રાણીજી જાગી જશે તો !

પછી ચોર એ ખાટ હેઠળ ઉપરાઉપરી ગાદલાં ખડકવા મંડ્યો. ખાટને અડે એટલો મોટો ખડકલો કર્યો. પછી છરી લઈને ચારે તરફથી ખાટની પાટી કાપી નાંખી. એટલે રાણીજીનું શરીર, નીચે ગાદલાં હતાં તેના ઉપર રહી ગયું.

પછી ચોરે દાંત ભરાવીને ખાટને આંકડિયામાંથી ખેંચી લીધી. એને વીંખીને ચાર પાયા જુદા કાઢ્યા, અને ચારેય પાયા લઈને બન્ને જણા પાછા ગઢની રાંગે પહોંચ્યા.

પેલો ચોર કહે : ‘લે ભાઈ ! આ બે પાયા તારા ને બે મારા. સરખો ભાગ.’

રાજા કહે : ‘હું એક જ પાયો લઈશ. મહેનત તો તારી છે.

ચોર કહે : ‘ના, તેં જ મને ઠેકાણું બતાવ્યું. તારી મહેનત પણ ઘણી છે.’

ત્યાં તો ઝાડ ઉપરથી એક ચીબરી બોલી

તરત ચોરે રાજાને કહ્યું : ‘ઓળખ્યા તમને. શાબાશ છે, રાજા ! માથે રહીને ચોરી કરાવી કે ?’

રાજા હસી પડ્યા અને પૂછ્યું : ‘તેં શી રીતે જાણ્યું કે હું રાજા છું ?’

ચોરે કહ્યું : ‘રાજાજી ! હું પંખીની બોલી પણ સમજું છું. આ જે ચીબરી બોલી એનો અર્થ એમ થાય છે કે આ ચોરીના માલનો માલિક તો આંહીં જ ઊભો છે !’

રાજાએ શાબાશી આપી. ચોરને પોતાના મહેલે લઈ ગયા. બીજે દિવસે મોટી કચેરી ભરીને ચોરને ઈનામ દીધું. એની નીતિનાં વખાણ કર્યાં. એને રાજમાં નોકરી દીધી.

દાદાજીની વાતો