Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

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              लोभ और भय

      राजा भोज के दरबार में बड़े पंडित थे, बड़े ज्ञानी थे और कभी कभी वह उनकी परीक्षा भी लिया करता था। एक दिन वह अपना तोता राजमहल से ले आया दरबार में। तोता एक ही रट लगाता था, एक ही बात दोहराता था बार बार : 'बस एक ही भूल है, बस एक ही भूल है, बस एक ही भूल है।'

राजा ने अपने दरबारियों से पूछा, “यह कौन सी भूल की बात कर रहा है तोता?” पंडित बड़ी मुश्किल में पड़ गए। और राजा ने कहा, “अगर ठीक जवाब न दिया तो फांसी, ठीक जबाब दिया तो लाखों के पुरस्कार और सम्मान।”

अब अटकलबाजी नहीं चल सकती थी, खतरनाक मामला था। ठीक जवाब क्या हो? तोते से तो पूछा भी नहीं जा सकता। तोता कुछ और जानता भी नहीं। तोता इतना ही कहता है, तुम लाख पूछो, वह इतना ही कहता है : ‘बस एक ही भूल है।’

सोच विचार में पड़ गए पंडित। उन्होंने मोहलत मांगी, खोजबीन में निकल गए। जो राजा का सब से बड़ा पंडित था दरबार में, वह भी घूमने लगा कि कहीं कोई ज्ञानी मिल जाए। अब तो ज्ञानी से पूछे बिना न चलेगा। शास्त्रों में देखने से अब कुछ अर्थ नहीं है। अनुमान से भी अब काम नहीं होगा। जहां जीवन खतरे में हो, वहां अनुमान से काम नहीं चलता। तर्क इत्यादि भी काम नहीं देते। तोते से कुछ राज़ निकलवाया नहीं जा सकता। वह अनेकों के पास गया लेकिन कहीं कोई जवाब न दे सका कि तोते के प्रश्न का उत्तर क्या होगा।

बड़ा उदास लौटता था राजमहल की तरफ कि एक चरवाहा मिल गया। उसने पूछा, “पंडित जी, बहुत उदास हैं? जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो आप के ऊपर, कि मौत आनेवाली हो, इतने उदास! बात क्या है?” तो उसने अपनी अड़चन कही, दुविधा कही। उस चरवाहे ने कहा, “फिक्र न करें, मैं हल कर दूंगा। मुझे पता है। लेकिन एक ही उलझन है। मैं चल तो सकता हूँ लेकिन मैं बहुत दुर्बल हूँ और मेरा यह जो कुत्ता है इसको मैं अपने कंधे पर रखकर नहीं ले जा सकता। इसको पीछे भी नहीं छोड़ सकता। इससे मेरा बड़ा लगाव है।” पंडित ने कहा, “तुम फिक्र छोड़ो। मैं इसे कंधे पर रख लेता हूँ।”

उन ब्राह्मण महाराज ने कुत्ते को कंधे पर रख लिया। दोनों राजमहल में पहुंचे। तोते ने वही रट लगा रखी थी कि एक ही भूल है, बस एक ही भूल है। चरवाहा हंसा उसने कहा, “महाराज, देखें भूल यह खड़ी है।” वह पंडित कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा था। राजा ने कहा, “मैं समझा नहीं।” उसने कहा कि “शास्त्रों में लिखा है कि कुत्ते को पंडित न छुए और अगर छुए तो स्नान करे और आपका महापंडित कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा है। लोभ जो न करवाए सो थोड़ा है। बस, एक ही भूल है : लोभ और भय लोभ का ही दूसरा हिस्सा है, नकारात्मक हिस्सा। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ भय, एक तरफ लोभ।

ये दोनों बहुत अलग अलग नहीं हैं। जो भय से धार्मिक है वह डरा है दंड से, नर्क से, वह धार्मिक नहीं है। और जो लोभ से धार्मिक है, जो लोलुप हो रहा है वह वासनाग्रस्त है स्वर्ग से, वह धार्मिक नहीं है।

फिर धार्मिक कौन है? धार्मिक वही है जिसे न लोभ है, न भय। जिसे कोई चीज लुभाती नहीं और कोई चीज डराती भी नहीं। जो भय और प्रलोभन के पार उठा है वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।

सत्य को देखने के लिए लोभ और भय से मुक्ति चाहिए। सत्य की पहली शर्त है अभय क्योंकि जब तक भय तुम्हें डांवाडोल कर रहा है तब तक तुम्हारा चित्त ठहरेगा ही नहीं। भय कंपाता है, भय के कारण कंपन होता है। तुम्हारी भीतर की ज्योति कंपती रहती है। तुम्हारे भीतर हजार तरंगें उठती हैं लोभ की, भय की।

संजय गुप्ता

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मित्रो रामचरितमानस के सुंदरकांड में माता सीता और हनुमानजी का ज्ञानवर्धक एवम भक्तिपूर्ण संवाद!!!!

मित्रो हनुमानजी माता सीता की खोज के लिए लंका जाते हैं। विभीषण के कहे अनुसार हनुमानजी अशोकवाटिका में पहुचकर क्या करते हैं, आगे पढ़ें,,,

  • कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
    जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥

हनुमान्‌जी ने हदय में विचार कर सीताजी के सामने अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया। यह समझकर सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥ तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥

वे सोचने लगीं- श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बोले-॥

  • रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
    लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्‌जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥ सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्‌जी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ॥

  • राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
    यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

हनुमान्‌जी ने कहा- हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ, हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ। श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥सीताजी ने पूछा- नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही॥

  • कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
    जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥

हनुमान्‌जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥ भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया (सीताजी ने कहा-) हे तात हनुमान्‌! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥

मैं बलिहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मंगल कहो। श्री रघुनाथजी तो कोमल हृदय और कृपालु हैं। फिर हे हनुमान्‌! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है?॥ सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है। वे श्री रघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँवले अंगों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे?॥

मुँह से वचन नहीं निकलता, नेत्रों में (विरह के आँसुओं का) जल भर आया। (बड़े दुःख से वे बोलीं-) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान्‌जी कोमल और विनीत वचन बोले-॥ हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित (शरीर से) कुशल हैं, परंतु आपके दुःख से दुःखी हैं। हे माता! मन में ग्लानि न मानिए (मन छोटा करके दुःख न कीजिए)। श्री रामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है॥

  • रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
    अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥

हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का संदेश सुनिए। ऐसा कहकर हनुमान्‌जी प्रेम से गद्गद हो गए। उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥ हनुमान्‌जी बोले- श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान॥और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गई है॥

मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥ और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध न रही॥हनुमान्‌जी ने कहा- हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी का स्मरण करो। श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥

राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो॥ श्री रामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है?॥

  • अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयुस नहिं राम
    दोहाई॥
    कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥

हे माता! मैं आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ, पर श्री रामचंद्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है। (अतः) हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्री रामचंद्रजी वानरों सहित यहाँ आएँगे॥ और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएँगे। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएँगे। (सीताजी ने कहा-) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें से) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान, योद्धा हैं॥

  • मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
    कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥

अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!)। यह सुनकर हनुमान्‌जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान्‌ और वीर था॥ तब उसे देखकर सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमान्‌जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥

  • सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
    प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥

भावार्थ:-हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है। (अत्यंत निर्बल भी महान्‌ बलवान्‌ को मार सकता है)॥

भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्‌जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमान्‌जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥

*अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥

भावार्थ:-हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥

हनुमान्‌जी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥

हे माता! सुनो, सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। (सीताजी ने कहा-) हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं॥ हनुमान्‌जी ने कहा- हे माता! यदि आप मन में सुख मानें प्रसन्न होकर आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥

संजय गुप्ता

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हनुमानजी जन्मोत्सव विशेष,,, यहाँ लोगों से मिलने हर 41 साल में आते है भगवान हनुमान!!!!!!

हिन्दू धर्म ग्रंथों में सात ऐसे महामानवों का वर्णन है जो अजर अमर है और आज भी इस धरती पर उपस्थित है, हनुमान जी उनमे से एक है। हाल ही में सेतु एशिया नामक एक वेबसाइट ने दावा किया है कि इस धरती पर एक ऐसी जगह है जहाँ के लोगों से मिलने हनुमानजी प्रत्येक 41 साल बाद आते हैं और कुछ दिन वहां रहने के बाद वापस चले जाते है।

लेकिन हनुमान जी केवल उनसे मिलने ही हर 41 साल में क्यों आते है और उनसे मिलकर वो क्या करते है, इस बारे में सेतु एशिया ने अपनी वेबसाइट पर विस्तृत शोध प्रकाशित किया है जो आप इस लेख के आखिर में दिए गए लिंक पर पढ़ सकते है। हम यहाँ पर उनके शोध के मुख्य अंश प्रकाशित कर रहे है।

मातंग आदिवासी : सेतु एशिया के शोधानुसार श्रीलंका के जंगलों में एक ऐसा कबीलाई समूह रहता है जोकि पूर्णत: बाहरी समाज से कटा हुआ है। उनका रहन-सहन और पहनावा भी अलग है। उनकी भाषा भी प्रचलित भाषा से अलग है। यह मातंग आदिवासी समुदाय है। सेतु एशिया के अनुसार हनुमान जी हर 41 साल में इनसे मिलने आते है।

सेतु एशिया नाम इस आध्यात्मिक संगठन का केंद्र कोलंबों में है जबकि इसका साधना केंद्र पिदुरुथालागाला पर्वत की तलहटी में स्थित एक छोटे से गांव नुवारा में है। इस संगठन का उद्देश्य मानव जाति को फिर से हनुमानजी से जोड़ना है।

सेतु नामक इस आध्यात्मिक संगठन का दावा है कि इस बार 27 मई 2014 हनुमानजी ने इन आदिवासी समूह के साथ अंतिम दिन‍ बिताया था। इसके बाद अब 2055 में फिर से मिलने आएंगे हनुमानजी।

सेतु संगठन अनुसार इस कबीलाई या आदिवासी समूह को मातंग लोगों का समाज कहा जाता है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि हनुमान जी का जन्म भी मातंग ऋषि का आश्रम में हुआ था।

श्रीलंका के पिदुरु पर्वत के जंगलों में रहने वाले मातंग कबीले के लोग संख्या में बहुत कम हैं और श्रीलंका के अन्य कबीलों से काफी अलग हैं। सेतु संगठन ने उनको और अच्छी तरह से जानने के लिए जंगली जीवन शैली अपनाई और इनसे संपर्क साधना शुरू किया। संपर्क साधने के बाद उन समूह से उन्हें जो जानकारी मिली उसे जानकर वे हैरान रह गए।

‘हनु पुस्तिका’ में सब कुछ लिखा है : अध्ययनकर्ताओं अनुसार मातंगों के हनुमानजी के साथ विचित्र संबंध हैं जिसके बारे में पिछले साल ही पता चला। फिर इनकी विचित्र गतिविधियों पर गौर किया गया, तो पता चला कि यह सिलसिला रामायण काल से ही चल रहा है।

इन मातंगों की यह गतिविधियां प्रत्येक 41 साल बाद ही सक्रिय होती है। मातंगों अनुसार हनुमानजी ने उनको वचन दिया था कि मैं प्रत्येक 41 वर्ष में तुमसे मिलने आऊंगा और आत्मज्ञान दूंगा। अपने वचन के अनुसार उन्हें हर 41 साल बाद आत्मज्ञान देकर आत्म शुद्धि करने हनुमानजी आते हैं।

सेतु अनुसार जब हनुमानजी उनके पास 41 साल बाद रहने आते हैं, तो उनके द्वारा उस प्रवास के दौरान किए गए हर कार्य और उनके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द का एक-एक मिनट का विवरण इन आदिवासियों के मुखिया बाबा मातंग अपनी ‘हनु पुस्तिका’ में नोट करते हैं। 2014 के प्रवास के दौरान हनुमानजी द्वारा जंगल वासियों के साथ की गई सभी लीलाओं का विवरण भी इसी पुस्तिका में नोट किया गया है।

कहां है यह पर्वत : सेतु ने दावा किया है कि हमारे संत पिदुरु पर्वत की तलहटी में स्थित अपने आश्रम में इस पुस्तिका तो समझकर इसका आधुनिक भाषाओँ में अनुवाद करने में जुटे हुए हैं ताकि हनुमानजी के चिरंजीवी होने के रहस्य जाना जा सके, लेकिन इन आदिवासियों की भाषा पेचीदा और हनुमानजी की लीलाएं उससे भी पेचीदा होने के कारण इस पुस्तिका को समझने में काफी समय लग रहा है।

यह पर्वत श्रीलंका के बीचोबीच स्थित है जो श्रीलंका के नुवारा एलिया शहर में स्थित है। पर्वतों की इस श्रृंखला के आसपास घंने जंगल है। इन जंगलों में आदिवासियों के कई समूह रहते हैं।

हनु पुस्तिका का एक पृष्ठ i नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला :

वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है।

मातंगों ने की थी हनुमानज की सेवा : कहते हैं कि जब प्रभु श्रीरामजी ने अपना मानव जीवन पूरा करके जल समाधि ले ली थी, तब हनुमानजी पुनः अयोध्या छोड़कर जंगलों में रहने चले गए थे। किष्किंधा आदि जगह होते हुए वे लंका के जंगलों में भ्रमण हेतु गए। उस वक्त वहां विभीषण का राज था। विभीषण को भी चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त था।

हनुमानजी ने कुछ दिन श्रीलंका के जंगलों में गुजारे जहां वे प्रभु श्रीराम का ध्यान किया करते थे। उस दौरान पिदुरु पर्वत में रहने वाले कुछ मातंग आदिवासियों ने उनकी खूब सेवा की। उनकी सेवा से प्रसंन्न होकर हनुमानजी ने उनको वचन दिया कि प्रत्येक 41 साल बाद में तुमसे मिलने आऊंगा। यही कारण है कि हनुमानजी आज भी इस वचन का पालन करते हैं।

रहस्यमय मंत्र : सेतु वेबसाइट का दावा है कि मातंगों के पास एक ऐसा रहस्यमय मं‍त्र है जिसका जाप करने से हनुमानजी सूक्ष्म रूप में प्रकट हो जाते हैं। वे आज भी जीवित हैं और हिमालय के जंगलों में रहते हैं। जंगलों से निकलकर वे भक्तों की सहायता करने मानव समाज में आते हैं, लेकिन किसी को दिखाई नहीं देते।

मातंगों अनुसार हनुमानजी को देखने के लिए आत्मा का शुद्ध होना जरूरी है। निर्मल चित्त के लोग ही उनको देख सकते हैं। मंत्र जप का असर तभी होता है जबकि भक्त में हनुमानजी के प्रति दृढ़ श्रद्धा हो और उसका हनुमानजी से आत्मिक संबंध हो।

सेतु का दावा है कि जिस जगह पर यह मंत्र जपा जाता है उस जगह के 980 मीटर के दायरे में कोई भी ऐसा मनुष्य उपस्थित न हो जो आत्मिक रूप से हनुमानजी से जुड़ा न हो। अर्थात उसका हनुमानजी के साथ आत्मा का संबंध होना चाहिए।

मंत्र : कालतंतु कारेचरन्ति एनर मरिष्णु , निर्मुक्तेर कालेत्वम अमरिष्णु।

यह मंत्र स्वयं हनुमानजी ने पिदुरु पर्वत के जंगलों में रहने वाले कुछ आदिवासियों को दिया था। पिदुरु (पूरा नाम पिदुरुथालागाला Pidurutalagala) श्री लंका का सबसे ऊंचा पर्वत माना जाता है।

सेतु एशिया की वेबसाइट http://www.setu.asia पर इस संबंध में विस्तार से अब तक तीन अध्याय पोस्ट किए हैं। अध्याय का संक्षेप विवरण,,,,,,,

अध्याय 1 : इस अध्यया में बताया गया है कि पिछले साल एक रात कैसे उन्हें हनुमानजी दिखाई दिए और उन्होंने क्या कहा। सेतु अनुसार हनुमानजी ने मातंगों को एक बच्चे के पिछले जन्म की कहानी सुनाई।

अध्याय 2 : दूसरे अध्याय अनुसार मातंगों के साथ हनुमानजी ने किस तरह शहद की खोज की और वहां क्या क्या घटनाएं घटी।

अध्याय 3 : तीसरे अध्याय को सबसे रोचक और रहस्यमय माना जाता है। पूर्व के पन्नों पर दिए गए मंत्र का अर्थ और उसके संबंध में विस्तार से इस अध्याय में बताया गया है। इस अध्याय में समय की अवधारण का भी समझया गया है जैसे कि जब हम लोग (मनुष्य) समय के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में घड़ी का विचार आता है, लेकिन हनुमानजी तो चिरंजीवी हैं।

हनुमानजी या अन्य कोई भगवान् जब समय के बारे में सोचते हैं तो उन्हें समय के धागों (तंतुओं ) का विचार आता है। अर्थात उनके लिए धरती का समय क्षणिक ही है। हिन्दू कालगणना अनुसार मनुष्य का एक वर्ष देवताओं का एक दिन ही होता है।

संजय गुप्ता

Posted in मंत्र और स्तोत्र

प्रस्तुत है संस्कृत में हनुमान चालीसा ——–

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनऊं रघुवर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ।।

बुद्धि हीन तनु जानिकै सुमिरौं पवनकुमार ।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु क्लेश विकार ।।

हृद्दर्पणं नीरजपादयोश्च गुरोः पवित्रं रजसेति कृत्वा ।
फलप्रदायी यदयं च सर्वम् रामस्य पूतञ्च यशो वदामि ।।

स्मरामि तुभ्यम् पवनस्य पुत्रम् बलेन रिक्तो मतिहीनदासः ।
दूरीकरोतु सकलं च दुःखम् विद्यां बलं बुद्धिमपि प्रयच्छ ।।

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर जय कपीस तिहुं लोक उजागर ।

जयतु हनुमद्देवो ज्ञानाब्धिश्च गुणागरः ।
जयतु वानरेशश्च त्रिषु लोकेषु कीर्तिमान् ।।( 1)

रामदूत अतुलित बलधामा अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ।

दूतः कोशलराजस्य शक्तिमांश्च न तत्समः ।
अञ्जना जननी यस्य देवो वायुः पिता स्वयम्।।(2)

महावीर विक्रम बजरंगी कुमति निवार सुमति के संगी।

हे वज्रांग महावीर त्वमेव च सुविक्रमः।
कुत्सितबुद्धिशत्रुस्त्वम् सुबुद्धेः प्रतिपालकः।।(3)

कंचन बरन बिराज सुबेसा कानन कुण्डल कुंचित केसा ।

काञ्चनवर्णसंयुक्तः वासांसि शोभनानि च । कर्णयोः कुण्डले शुभ्रे कुञ्चितानि कचानि च ।।(4)

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै कांधे मूंज जनेऊ साजे ।

वज्रहस्ती महावीरः ध्वजायुक्तस्तथैव च।
स्कन्धे च शोभते यस्य मुञ्जोपवीतशोभनम्।।(5)

संकर सुवन केसरी नन्दन तेज प्रताप महाजगबन्दन ।

नेत्रत्रयस्य पुत्रस्त्वं केशरीनन्दनः खलु ।
तेजस्वी त्वं यशस्ते च वन्द्यते पृथिवीतले।।(6)

विद्यावान गुनी अति चातुर राम काज करिबै को आतुर ।

विद्यावांश्च गुणागारः कुशलोऽपि कपीश्वरः।
रामस्य कार्यसिद्ध्यर्थम् उत्सुको सर्वदैव च ।।(7)

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया राम लखन सीता मन बसिया ।

राघवेन्द्रचरित्रस्य रसज्ञः सः प्रतापवान् ।
वसन्ति हृदये तस्य सीता रामश्च लक्ष्मणः।।(8)

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा विकट रूप धरि लंक जरावा ।

वैदेही सम्मुखे तेन प्रदर्शितस्तनुः लघुः।
लंका दग्धा कपीशेन विकटरूपधारिणा । (9)

भीम रूप धरि असुर संहारे
रामचन्द्र के काज संवारे ।

हताः रूपेण भीमेन सकलाः रजनीचराः।
कार्याणि कोशलेन्द्रस्य सफलीकृतवान् कपिः।।(10)

लाय सजीवन लखन जियाये श्री रघुवीर हरषि उर लाए ।

जीवितो लक्ष्मणस्तेन खल्वानीयौषधम् तथा ।
रामेण हर्षितो भूत्वा वेष्टितो हृदयेन सः।।(11)

रघुपति कीन्ही बहुत बडाई तुम मम प्रिय भरत सम भाई ।

प्राशंसत् मनसा रामः कपीशं बलपुंगवम्।
प्रियं समं मदर्थं त्वम् कैकेयीनन्दनेन च।।(12)

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ।

यशो मुखैः सहस्रैश्च गीयते तव वानर ।
हनुमन्तं परिष्वज्य प्रोक्तवान् रघुनन्दनः।।(13)

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा
नारद सारद सहित अहीसा।

सनकादिसमाः सर्वे देवाः ब्रह्मादयोऽपि च ।
भारतीसहितः शेषो देवर्षिः नारदः खलु।।(14)

जम कुबेर दिगपाल जहां ते कबि कोबिद कहि सकहि कहां ते।

कुबेरो यमराजश्च दिक्पालाः सकलाः स्वयम् ।
पण्डिताः कवयः सर्वे शक्ताः न कीर्तिमण्डने।।(15)

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा
राम मिलाय राज पद दीन्हा।

उपकृतश्च सुग्रीवो वायुपुत्रेण धीमता।
वानराणामधीपोऽभूद् रामस्य कृपया हि सः।।(16)

तुम्हरो मन्त्र विभीषण माना
लंकेश्वर भए सब जग जाना ।

तवैव चोपदेशेन दशवक्त्रसहोदरः ।
प्राप्नोति नृपत्वं सः जानाति सकलं जगत्।।(17)

जुग सहस्र जोजन पर भानू
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।

योजनानां सहस्राणि दूरे भुवः स्थितो रविः ।
सुमधुरं फलं मत्वा निगीर्णः भवता पुनः।।18)

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं
जलधि लांघि गए अचरज नाहिं।

मुद्रिकां कोशलेन्द्रस्य मुखे जग्राह वानरः ।
गतवानब्धिपारं सः नैतद् विस्मयकारकम् ।।(19)

दुर्गम काज जगत के जेते
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।

यानि कानि च विश्वस्य कार्याणि दुष्कराणि हि ।
भवद्कृपाप्रसादेन सुकराणि पुनः खलु ।।20)

राम दुआरे तुम रखवारे
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।

द्वारे च कोशलेशस्य रक्षको वायुनन्दनः।
तवानुज्ञां विना कोऽपि न प्रवेशितुमर्हति।।(21)

सब सुख लहै तुम्हारी सरना
तुम रक्षक काहु को डरना ।

लभन्ते शरणं प्राप्ताः सर्वाण्येव सुखानि च।
भवति रक्षके लोके भयं मनाग् न जायते।।(22)

आपन तेज सम्हारो आपे
तीनो लोक हांक ते कांपै ।

समर्थो न च संसारे वेगं रोद्धुं बली खलु ।
कम्पन्ते च त्रयो लोकाः गर्जनेन तव प्रभो ।।(23)

भूत पिसाच निकट नहिं आवै
महाबीर जब नाम सुनावै।

श्रुत्वा नाम महावीरं वायुपुत्रस्य धीमतः।
भूतादयः पिशाचाश्च पलायन्ते हि दूरतः।।(24)

नासै रोग हरै सब पीरा
जो समिरै हनुमत बलबीरा।

हनुमन्तं कपीशं च ध्यायन्ति सततं हि ये।
नश्यन्ति व्याधयः तेषां पीडाः दूरीभवन्ति च।।(25)

संकट ते हनुमान छुडावै
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।

मनसा कर्मणा वाचा ध्यायन्ति हि ये जनाः।
दुःखानि च प्रणश्यन्ति हनुमन्तम् पुनः पुनः।।26)

सब पर राम तपस्वी राजा
तिनके काज सकल तुम साजा ।

नृपाणाञ्च नृपो रामः तपस्वी रघुनन्दनः ।
तेषामपि च कार्याणि सिद्धानि भवता खलु।।(27)

और मनोरथ जो कोई लावै
सोई अमित जीवन फल पावै।

कामान्यन्यानि च सर्वाणि कश्चिदपि करोति यः। प्राप्नोति फलमिष्टं सः जीवने नात्र संशयः।।(28)

चारो जुग परताप तुम्हारा
है प्रसिद्ध जगत उजियारा ।

कृतादिषु च सर्वेषु युगेषु सः प्रतापवान् ।
यशः कीर्तिश्च सर्वत्र दोदीप्यते महीतले ।।(29)

साधु सन्त के तुम रखवारे
असुर निकन्दन राम दुलारे।

साधूनां खलु सन्तानां रक्षयिता कपीश्वरः।
असुराणाञ्च संहर्ता रामस्य प्रियवानर ।।(30)

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता
अस वर दीन जानकी माता ।

सिद्धिदो निधिदः त्वञ्च जनकनन्दिनी स्वयम् ।
दत्तवती वरं तुभ्यं जननी विश्वरूपिणी ।।(31)

राम रसायन तुम्हरे पासा
सदा रहो रघुपति के दासा ।

कराग्रे वायुपुत्रस्य चौषधिः रामरूपिणी ।
रामस्य कोशलेशस्य पादारविन्दवन्दनात् ।।(32)

तुम्हरे भजन राम को पावै
जन्म जन्म के दुख बिसरावै ।

पूजया मारुतपुत्रस्य नरः प्राप्नोति राघवम् ।
जन्मनां कोटिसंख्यानां दूरीभवन्ति पातकाः।।(33)

अन्त काल रघुवर पुर जाई
जहां जन्म हरिभक्त कहाई ।

देहान्ते च पुरं रामं भक्ताः हनुमतः सदा।
प्राप्य जन्मनि सर्वे हरिभक्ताः पुनः पुनः ।।(34)

और देवता चित्त न धरई
हनुमत सेइ सर्व सुख करई ।

देवानामपि सर्वेषां संस्मरणं वृथा खलु।
कपिश्रेष्ठस्य सेवा हि प्रददाति सुखं परम् ।।(35)

संकट कटै मिटै सब पीरा
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।

करोति संकटं दूरं संकटमोचनः कपिः।
नाशयति च दुःखानि केवलं स्मरणं कपेः।।(36)

जय जय हनुमान गोसाईं
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ।

जयतु वानरेशश्च जयतु हनुमद् प्रभुः।
गुरुदेवकृपातुल्यम् करोतु मम मंगलम् ।।(37)

जो सत बार पाठ कर कोई
छूटहि बन्दि महासुख होई।

श्रद्धया येन केनापि शतवारं च पठ्यते।
मुच्यते बन्धनाच्छीघ्रम् प्राप्नोति परमं सुखम्।।(38)

जो यह पढै हनुमान चालीसा
होय सिद्धि साखी गौरीसा।

स्तोत्रं तु रामदूतस्य चत्वारिंशच्च संख्यकम्।
पठित्वा सिद्धिमाप्नोति साक्षी कामरिपुः स्वयम् ।।39)

तुलसीदास सदा हरि चेरा कीजै नाथ हृदय मँह डेरा।

सर्वदा रघुनाथस्य तुलसी सेवकः परम्।
(सर्वदा रघुनाथस्य रवीन्द्रः सेवकः परम्)
विज्ञायेति कपिश्रेष्ठ वासं मे हृदये कुरु ।।(40)

पवनतनय संकट हरन मंगल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ।।

विघ्नोपनाशी पवनस्य पुत्रः
कल्याणकारी हृदये कपीश ।
सौमित्रिणा राघवसीतया च
सार्धं निवासं कुरु रामदूत ।।

देवदत्तो गुरुर्यस्य मार्कण्डेयश्च गोत्रकम्।
अनुवादः कृतस्तेन कृपया पितृपादयोः।।।

टंकण अशुद्धि के लिए क्षमा

जय श्री राम ✏️✏️✏️✏️

देव शर्मा

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गुरु के दर्शन
〰🌼🌼〰
एक बार गुरु नानक देव जी से किसी ने पूछा कि गुरु के दर्शन करने से क्या लाभ होता है ?

गुरु जी ने कहा कि इस रास्ते पर चला जा, जो भी सब से पहले मिले उस से पूछ लेना |

वह व्यक्ति उस रास्ते पर गया तो उसे सब से पहले एक कौवा मिला, उसने कौवे से पूछा कि गुरु के दर्शन करने से क्या होता है ?

उसके यह पूछते ही वह कौवा मर गया….

वह व्यक्ति वापिस गुरु जी के पास आया और सब हाल बताया…

अब गुरु ने कहा कि फलाने घर में एक गाय ने एक बछड़ा दिया है, उससे जाकर यह सवाल पूछो,

वह आदमी वहां पहुंचा और बछड़े के आगे यही सवाल किया तो वह भी मर गया…..

वह आदमी भागा भागा गुरु जी के पास आया और सब बताया…

अब गुरु जी ने कहा कि फलाने घर में जा, वहां एक बच्चा पैदा हुआ है, उस से यही सवाल करना…

वह आदमी बोला के वह बच्चा भी मर गया तो ?

गुरु जी ने कहा कि तेरे सवाल का जवाब वही देगा…

अब वह आदमी उस घर में गया और जब बच्चे के पास कोई ना था तो उसने पूछा कि गुरु के दर्शन करने से क्या लाभ होता है ?

वह बच्चा बोला कि मैंने खुद तो नहीं किये लेकिन तू जब पहली बार गुरु जी के दर्शन करके मेरे पास आया तो मुझे कौवे की योनी से मुक्ति मिली और बछड़े का जन्म मिला….

तू दूसरी बार गुरु के दर्शन करके मेरे पास आया तो मुझे बछड़े से इंसान का जन्म मिला….

सो इतना बड़ा हो सकता है गुरु के दर्शन करने का फल, फिर चाहे वो दर्शन आंतरिक हो या बाहरी…..

ऐ सतगुरू मेरे…
नज़रों को कुछ ऐसी खुदाई दे…
जिधर देखूँ उधर तू ही दिखाई दे…
कर दे ऐसी कृपा आज इस दास पे कि…
जब भी बैठूँ सिमरन में…
सतगुरू तू ही दिखाई दे..
🌼🌼〰〰🌼🌼〰〰🌼🌼〰〰🌼🌼〰〰🌼🌼

देव शर्मा

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એક વાણિયા થી લક્ષ્મીજી નારાજ થઇ ગયા. 


એક વાણિયા થી લક્ષ્મીજી નારાજ થઇ ગયા.
જતા સમયે બોલ્યા હું જઇ રહી છું,
અને મારી જગ્યાએ નુકસાન આવી રહ્યું છે.
તૈયાર થઇ જા.
પરંતુ, હું તને છેલ્લી ભેટ
જરૂર આપવા માંગીશ.
માંગ, તારી જે પણ ઇચ્છા હોય તે.

વાણિયો બહુ જ સમજદાર હતો.
તેણે વિનંતિ કરી કે નુકસાન આવે તો ભલે આવે, પણ એને કહેજો કે મારા પરિવારમાં પ્રેમ બન્યો રહે.
બસ, મારી આ જ ઇચ્છા છે.

લક્ષ્મીજી એ તથાસ્તુઃ કહ્યું.

થોડાક દિવસો પછી,

વાણિયા ની દિકરીના લગ્ન માટે તેના ભત્રીજા એ ભુલથી ખોટું સોનું ધરાવતો સેટ ખરીદી કરી લીધો.
વાણિયા ને ખબર પડતાં દુઃખ થયું, પરંતુ તે ૫૦,૦૦૦ ના નુક્સાન માટે પોતાના ભાઈના દીકરાને વઢયા નહિ, ફક્ત શિખામણ આપી.
એ સમજી ગયા હતા કે નુકશાન પ્રવેશ કરી ચુક્યો છે.

“ઘરે જતા પહેલા ભગવાનના મંદિરે જતો જાઉં”, એમ વિચારી તે લક્ષ્મી-નારાયણ મંદિરે ગયા.
ત્યાં તેમના મોંઘા ચપ્પલ કોઈ ચોરી ગયું. નુકસાન એનો પરચો બતાવવા લાગ્યો હતો.

આ બાજુ ઘરે,
વાણિયા ની સૌથી નાની વહુ ખીચડી બનાવતી હતી. તેણે મીઠું વગેરે નાખ્યું, અને બીજું કામ કરવા લાગી.
ત્યારે બીજા છોકરાની વહુ આવી અને ચાખ્યા વગર મીઠું નાખીને ચાલી ગઈ.
તેની સાસુએ પણ આવું જ કર્યું.

સાંજે સૌથી પહેલા વાણિયો આવ્યો.
પહેલો કોળિયો મુખમાં લીધો તો ખ્યાલ આવ્યો કે બહું જ વધારે મીઠું પડી ગયુ છે.
એ સમજી ગયા કે નુકસાન આવી ગયું છે.
પણ કંઇ બોલ્યા વગર ચૂપચાપ ખીચડી જમીને ચાલ્યા ગયા.
એના પછી મોટા દીકરાનો નંબર આવ્યો.
એણે પણ પહેલો કોળિયો મોઢામાં મુકતા તરત પૂછ્યુ કે પપ્પાએ જમવાનું જમી લીધું ? એમણે કંઇ કહ્યું ?
બધાએ જવાબ આપ્યો ‘હા, જમી લીધું ! કઈ જ નથી બોલ્યા’.

હવે દીકરાએ વિચાર્યું કે જ્યારે પિતાજી જ કઈ નથી બોલ્યા તો હું પણ ચૂપચાપ જમી લઉ. આવી રીતે ઘરના બીજા સદસ્યો એક એક આવ્યા. પહેલા વાળાનું પૂછતા, અને ચૂપચાપ જમીને ચાલ્યા જતા.

રાતે નુકસાન હાથ જોડીને વાણિયા ને કહેવા લાગ્યો,
’ હું જઈ રહ્યો છું.
વાણિયા એ પૂછ્યું, “કેમ ?”

ત્યારે નુકસાન કહે છે,
” તમે લોકો એક કિલો તો મીઠુ ખાઈ ગયા.
તો પણ ઝઘડો જ ના થયો. મને લાગે છે કે મારું તો અહીં કઈ કામ નથી.”

બોધ:-

ઝઘડો, કમજોરી એ નુકસાનની ઓળખાણ છે.

જ્યાં પ્રેમ છે, ત્યાં લક્ષ્મીનો વાસ છે.
સદા પ્રેમ વહેંચતાં રહો.
નાના- મોટાની કદર કરો.
જે મોટા (વડીલ) છે એ મોટા જ રહેવાના,
પછી ભલેને તમારી કમાણી એમની કમાણીથી વધારે હોય.

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हनुमान् के कई अर्थ हैं-(१) पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य रूप में ९ अवतार हुये थे।


हनुमान् के कई अर्थ हैं-(१) पराशर संहिता के अनुसार उनके मनुष्य रूप में ९ अवतार हुये थे।
(२) आध्यात्मिक अर्थ तैत्तिरीय उपनिषद् में दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और कर्म की ५-५ इन्द्रियों का मिलन विन्दु है। जो इन १० इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा समन्वय करता है, वह हनुमान् है।
(३) ब्रह्म रूप में गायत्री मन्त्र के ३ पादों के अनुसार ३ रूप हैं-स्रष्टा रूप में यथापूर्वं अकल्पयत् = पहले जैसी सृष्टि करने वाला वृषाकपि है। मूल तत्त्व के समुद्र से से विन्दु रूपों (द्रप्सः -ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, -सभी विन्दु हैं) में वर्षा करता है वह वृषा है। पहले जैसा करता है अतः कपि है। अतः मनुष्य का अनुकरण करने वाले पशु को भी कपि कहते हैं। तेज का स्रोत विष्णु है, उसका अनुभव शिव है और तेज के स्तर में अन्तर के कारण गति मारुति = हनुमान् है। वर्गीकृत ज्ञान ब्रह्मा है या वेद आधारित है। चेतना विष्णु है, गुरु शिव है। उसकी शिक्षा के कारण जो उन्नति होती है वह मनोजव हनुमान् है।
(४) हनु = ज्ञान-कर्म की सीमा। ब्रह्माण्ड की सीमा पर ४९वां मरुत् है। ब्रह्माण्ड केन्द्र से सीमा तक गति क्षेत्रों का वर्गीकरण मरुतों के रूप में है। अन्तिम मरुत् की सीमा हनुमान् है। इसी प्रकार सूर्य (विष्णु) के रथ या चक्र की सीमा हनुमान् है। ब्रह्माण्ड विष्णु के परम-पद के रूप में महाविष्णु है। दोनों हनुमान् द्वारा सीमा बद्ध हैं, अतः मनुष्य (कपि) रूप में भी हनुमान् के हृदय में प्रभु राम का वास है।
(५) २ प्रकार की सीमाओं को हरि कहते हैं-पिण्ड या मूर्त्ति की सीमा ऋक् है,उसकी महिमा साम है-ऋक्-सामे वै हरी (शतपथ ब्राह्मण ४/४/३/६)। पृथ्वी सतह पर हमारी सीमा क्षितिज है। उसमें २ प्रकार के हरि हैं-वास्तविक भूखण्ड जहां तक दृष्टि जाती है, ऋक् है। वह रेखा जहां राशिचक्र से मिलती है वह साम हरि है। इन दोनों का योजन शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ४ अध्याय ४ के तीसरे ब्राह्मण में बताया है अतः इसको हारियोजन ग्रह कहते हैं। हारियोजन से होराइजन हुआ है।
(६) हारियोजन या पूर्व क्षितिज रेखा पर जब सूर्य आता है, उसे बाल सूर्य कहते हैं। मध्याह्न का युवक और सायं का वृद्ध है। इसी प्रकार गायत्री के रूप हैं। जब सूर्य का उदय दीखता है, उस समय वास्तव में उसका कुछ भाग क्षितिज रेखा के नीचे रहता है और वायुमण्डल में प्रकाश के वलन के कारण दीखने लगता है। सूर्य सिद्धान्त में सूर्य का व्यास ६५०० योजन कहा है, यह भ-योजन = २७ भू-योजन = प्रायः २१४ किमी. है। इसे सूर्य व्यास १३,९२,००० किमी. से तुलना कर देख सकते हैं। वलन के कारण जब पूरा सूर्य बिम्ब उदित दीखता है तो इसका २००० योजन भाग (प्रायः ४,२८,००० किमी.) हारियोजन द्वारा ग्रस्त रहता है। इसी को कहा है-बाल समय रवि भक्षि लियो …)। इसके कारण ३ लोकों पृथ्वी का क्षितिज, सौरमण्डल की सीमा तथा ब्रह्माण्ड की सीमा पर अन्धकार रहता है। यहां युग सहस्र का अर्थ युग्म-सहस्र = २००० योजन है जिसकी इकाई २१४ कि.मी. है।
तैत्तिरीय उपनिषद् शीक्षा वल्ली, अनुवाक् ३-अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपं, उत्तरा हनुरुत्तर रूपम्। वाक् सन्धिः, जिह्वा सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्चन्दांस्येवैतत्संतर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/३/२) एवा ते हारियोजना सुवृक्ति ऋक् १/६१/१६, अथर्व २०/३५/१६)
तद् यत् कम्पायमानो रेतो वर्षति तस्माद् वृषाकपिः, तद् वृषाकपेः वृषाकपित्वम्। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१२)आदित्यो वै वृषाकपिः। ( गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१०) स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण उत्तर २/१२)
(७) सुन्दर काण्ड-मूल वैदिक शब्द सु-नर था जिससे लौकिक शब्द सुन्दर हुआ है। सु = अच्छा, समन्वय, मिला हुआ। दुः = अलग-अलग, असम्बद्ध। जैसे सुख-दुःख।
सु-नर = अच्छा नर, जो लोगों को मिलाये। जैसे इसाई विवाह में पति-पत्नी को मिलाने वाला सु-नर (Best man) कहलाता है।
वेद में सुनर वह है जो पति-पत्नी, भक्त भगवान् को मिला दे।
रामायण में हनुमानजी सीता-राम को मिलाने के लिए दूत बने, भक्त विभीषण या शत्रु पक्ष के व्यक्ति को भगवान् राम से मिलाया तथा परस्पर विरोधी सुग्रीव तथा अंगद को भी राम से मिलाया।
हनु = दोनों ओठ। इनके बीच का भाग ५ ज्ञानेन्द्रिय तथा ५ कर्मेन्द्रिय का समन्वय है। जो ज्ञान-कर्म दोनों में श्रेष्ठ है, वही हनुमान है (तैत्तिरीय उपनिषद्, शीक्षा वल्ली)।
सु-नर हनुमान का चरित्र वर्णन होने के कारण इस अध्याय को सुन्दर काण्ड कहते हैं।
(८) हनुमान की जन्म तिथि-
पंचांग में हनुमान जयन्ती की कई तिथियों दी गई हैं पर उनका स्रोत मैंने कहीं नहीं देखा है। पंचांग निर्माताओं के अपने अपने आधार होंगे। पराशर संहिता, पटल 6 में यह तिथि दी गई है-
तस्मिन् केसरिणो भार्या कपिसाध्वी वरांगना।
अंजना पुत्रमिच्छन्ति महाबलपराक्रमम्।।29।।
वैशाखे मासि कृष्णायां दशमी मन्द संयुता।
पूर्व प्रोष्ठपदा युक्ता कथा वैधृति संयुता।।36।।
तस्यां मध्याह्न वेलायां जनयामास वै सुतम्।
महाबलं महासत्त्वं विष्णुभक्ति परायणम्।।37।।
इसके अनुसार हनुमान जी का जन्म वैशाख मास कृष्ण दशमी तिथि शनिवार (मन्द = शनि) युक्त पूर्व प्रोष्ठपदा (पूर्व भाद्रपद) वैधृति योग में मध्याह्न काल में हुआ।

 

Arun Upadhyay

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શું હનુમાનજી વાંદરા હતા?


શું હનુમાનજી વાંદરા હતા?
◆◆◆
શ્રી હનુમાનજી હિંદુઓ માટે એક પૂજનિય દેવ છે. તેમની મૂર્તિ અને ચિત્રો સર્વત્ર માન અને પ્રતિષ્ઠા સાથે મૂકવામાં આવે છે. ભક્તો દ્વારા તેમની પૂજા કરવામાં આવે છે. કોઇ એવું રામજી મંદિર નહી હોય જ્યાં મહાવીર હનુમાનજીની મૂર્તિ પ્રતિષ્ઠિત ન હોય. શ્રી રામનું નામ સાંભળતા જ એક હિંદુના મનમાં મહાવીર શ્રી હનુમાનજીની છબી ઉત્પન્ન થઇ જતી હોય છે. તેમના મહાન બ્રહ્મચર્ય અને પરાક્રમની કથાઓ સંભળાવીને બાળકોને હનુમાનજી જેવા ચરિત્રવાન બનવાનો ઉપદેશ આપવામાં આવે છે. સમગ્ર સંસ્કૃત વાગ્મયમાં મહાન આદિત્ય બ્રહ્મચારી તરીકે તેમને યાદ કરવામાં આવે છે. સંસ્કૃત તથા અન્ય ભાષાઓની રામાયણોમાં હનુમાનજીના વીરતાપૂર્ણ જીવનની ઘટનાઓનું વર્ણન થયેલ હોય છે. એવો તે ક્યો હિંદુ હશે જેના શરીરમાં હનુમાનજીનું નામ સાંભળતા જ શક્તિસંચાર ન થતો હોય? પરંતુ શું એ આપણી મૂર્ખતા નથી કે આપણે પોતે જ આપણા વીર, પરાક્રમી, વિદ્વાન અને પૂજનીય પૂર્વજ હનુમાનજીને વિશ્વ સમક્ષ પૂંછડાવાળા એક જંગલી પ્રાણી સ્વરૂપે પ્રસ્તુત કરીએ છીએ, ટીવી સિરિયલોમાં, ચિત્રોમાં અને મંદિરોની મૂર્તીઓમાં તેમને પૂંછડાધારી બતાવીએ છીએ?

વાસ્તવિકતા એ છે કે વાલ્મીકિ રામાયણ અનુસાર શ્રી રામ હનુમાનજીને વેદ-શાસ્ત્રો, સંસ્કૃત ભાષા અને વ્યાકરણના મહાન વિદ્વાન માનતા હતા.

શ્રીરામ અને હનુમાનજીની પ્રથમ મુલાકાત અને વાર્તાલાપ પછી શ્રી રામે લક્ષ્મણજીને હનુમાનજી વિશે કહ્યું, “હે લક્ષ્મણ, આ હનુમાનજી સુગ્રીવના મંત્રી છે. સુગ્રીવની ઇચ્છાથી મારી પાસે આવ્યા છે. જે વ્યક્તિ ઋગ્વેદ ભણ્યો ન હોય, યજુર્વેદ સમજ્યો ન હોય, સામવેદનો પંડિત ન હોય તે આ વ્યક્તિ જેવી વાણી બોલી શકે નહીં, કારણ કે હનુમાનજી મારી સાથે વાર્તાલાપમાં એક પણ શબ્દ અશુધ્ધ બોલ્યા નથી.” (વાલ્મીકિ રામાયણ, કિષ્કિંધા કાંડ, સર્ગ 3, શ્લોક 26-29) શું ભગવાન શ્રીરામ અહીં કોઇ વાંદરાની પ્રશંષા કરી રહ્યા છે?

શ્રી રામે કહ્યું, “લક્ષ્મણ, આ બ્રહ્મચારીને જુઓ. ખરેખર એ સંપૂર્ણ શબ્દશાસ્ત્ર (વ્યાકરણ) અનેક વખત ભણેલા છે. જુઓ, તેણે આટલી બધી વાત કરી, પરંતુ તેની વાણીમાં એક પણ ભૂલ થઇ નથી.” (વાલ્મીકિ રામાયણ, કિષ્કિંધા કાંડ, સર્ગ 1, શ્લોક 17-18)

લક્ષ્મણજી હનુમાનજીને કહે છે, “હે વિદ્વાન, અમને મહાત્મા સુગ્રીવનાં ગુણોની ખબર છે.”

મહર્ષિ અગસ્ત્યે શ્રી રામને કહ્યું, “પરાક્રમ, ઉત્સાહ, ચતુરાઇ, બળ, સુશીલતા, નમ્રતા, ન્યાય અને ધીરજમાં હનુમાનજી જેવો આ સંસારમાં બીજો કોઇ મનુષ્ય નથી… અભ્યાસ સમયે તે વ્યાકરણમાં એટલા તલ્લીન થઇ જતા કે સવારથી સાંજ સુધી તે ભણ્યા જ કરતા… હનુમાનજી વ્યાકરણ ઉપરાંત વેદ, વેદાંગ, છંદ વગેરેમાં પણ વિદ્વાન છે.” (વાલ્મીકિ રામાયણ, ઉત્તર કાંડ, સર્ગ 36, શ્લોક 43-45)

વાલ્મીકિ રામાયણમાં એક પ્રસંગમાં લખ્યું છે કે શ્રી રામ ચૌદ વર્ષના વનવાસ અને લંકા વિજય પછી અયોધ્યા પાછા ફરે છે ત્યારે તેમણે પોતાના આગમનની સૂચના આપવા માટે હનુમાનજીને અગાઉથી અયોધ્યા મોકલવામાં આવે છે. ભરતજી જ્યારે શ્રી રામના આગમનનાં સમાચાર હનુમાનજી પાસેથી સાંભળે છે ત્યારે ભરતજી અત્યંત પ્રસન્ન થઇ હનુમાનજીને છાતી સાથે ચાંપીને કહે છે, “તમે કોઇ દેવ છો કે મનુષ્ય છો (વાંદરા નહીં)? તમે મારા પર દયા કરીને અહીં આવ્યા છો. હે સૌમ્ય, આ પ્રિય સમાચાર સંભળાવવા બદલ હું તમને એક લાખ ગાયો અને સો ગામ આપુ છું”. (વાલ્મીકિ રામાયણ, યુધ્ધ કાંડ, સર્ગ 14, શ્લોક 60-61) અહીં પણ ભરતજીએ હનુમાનજીને દેવ કે મનુષ્ય કહ્યા છે, વાંદરા કહ્યા નથી. જો ભરતજીએ હનુમાનજીને વાંદરા માન્યા હોત તો આ પ્રકારનું દાન ન આપ્યુ હોત.

વાલ્મીકિ રામાયણમાં શ્રી રામ, લક્ષ્મણજી તથા મહર્ષિ અગસ્ત્ય દ્વારા થયેલુ શ્રી હનુમાનજીનું યશોગાન શું હનુમાનજીને એક પૂંછડીવાળા વાનર સિધ્ધ કરે છે? શું આ બધા ગુણ કોઇ વાંદરામાં શક્ય છે? માટે જ મહાવિદ્વાન રાજા સુગ્રીવના મંત્રી, ભગવાન શ્રી રામના સાથીને ‘વાંદરો’ કહેવો એ એમનું જ નહીં, પરંતુ આર્ય સભ્યતાનું પણ અપમાન છે.

વાલ્મીકિ રામાયણના ઉપર આપેલા કેટલાક પ્રમાણો સિદ્ધ કરે છે કે દક્ષિણ ભારતના વાનર લોકો વાંદરા નહી, પણ મનુષ્યો હતા. બાડમેર (રાજસ્થાન) ક્ષેત્રમાં આજે પણ વાનર જાતિના લોકો નિવાસ કરે છે. રાંચીની આસપાસ ઉરાવ અને મુંડા નામની જાતિના લોકો વસવાટ કરે છે, જેમનાં ગોત્ર “વાનર” અને “ભલ્લૂક (રીંછ)” છે.

સંસ્કૃતના પ્રસિધ્ધ કોષકાર શ્રી આપ્ટેએ પોતાના કોષમાં “કપિ” શબ્દનો અર્થ હાથી, સૂર્ય અને શિલારસ કર્યો છે. સંભવ છે કે સૂર્યવંશી ક્ષત્રિય વંશજ હોવાને લીધે વનવાસી અને પહાડના લોકો “વાનર” કે “કપિ” નામથી ઓળખાવા લાગ્યા હશે. આ વાત ન સમજવાને કારણે આપણે તેમને પૂંછડીવાળા વાનર માની લીધા છે.

જ્યારે હનુમાનજી લંકામાં હતા ત્યારે તેમણે પોતાના બુદ્ધિ-ચાતુર્ય અને શારીરિક પરાક્રમથી સંપૂર્ણ લંકામાં એક મહાન હલચલ (ક્રાંતિ) મચાવી દીધી, જેનથી આખી લંકા સળગી ઊઠી. વાતને રજૂ કરવાની આ એક આલંકારિક રીત છે. જો એમ કહેવામાં આવે કે ચીને આક્રમણ કરીને આખા ભારતમાં આગ સળગાવી દીધી હતી, તો એનો અર્થ એટલો જ થાય કે ભારતની જનતામાં એક જાતનો ક્રોધ વ્યાપી ગયો હતો. એનો અર્થ એવો નહિં થાય કે ચીનીઓએ દીવાસળી અને ઘાસતેલ રેડીને ભારતમાં ભૌતિક આગ લગાડી હતી!!! જે લોકોએ હનુમાનજીને પૂંછડૂં લગાડ્યું છે એ લોકોએ હનુમાનજી, હનુમાનજીના સાચા ભક્તો અને સમગ્ર આર્યજાતિનું અપમાન જ કર્યું છે.

આમ, હનુમાનજી મનુષ્ય હતા, ક્ષત્રિય જાતિના રત્ન હતા, ભારતીય આર્યોના ગૌરવરૂપ પૂર્વજ હતા. તેમની માતાનું નામ અંજની અને પિતાનું નામ કેસરી હતું. એમના વિશે જે કાંઇ ભ્રમ ફેલાવવામાં આવે છે તેનું નિરાકરણ થવું જોઇએ. એ પણ યાદ રાખવું જોઇએ કે હનુમાનજી જીવન અને કાર્યો વિશે વાલ્મીકિ રામાયણ જ પ્રામાણિક ગ્રંથ છે.

આશા છે કે આટલા પ્રમાણો જાણ્યા પછી કોઇ સાચો આર્ય હિંદુ વંદનીય મહાબલી વિદ્વાન શ્રી હનુમાનજીને પૂંછડીવાળો વાનર માનવાનું દુઃસાહસ કરશે નહિં.

II જય હનુમાનજી II

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…શહેરની એ ક શાળામાં શિક્ષિકાની જોબ કરતી


…શહેરની એ ક શાળામાં શિક્ષિકાની જોબ કરતી
હીરલ સાંજનું ડીનર પતાવી એના ઘરમાં ફેમીલી રૂમના એક ટેબલ પર એના વર્ગના વિદ્યાર્થીઓના હોમ વર્કની નોટો તપાસવા બેસી ગઈ…
હીરલનો પતિ વિમલ સોફામાં બેસી એના સ્માર્ટ ફોનમાં ધ્યાન કેન્દ્રિત કરીને એની ગમતી ગેમ રમવામાં પરોવાઈ ગયો.

છેલ્લી નોટ બુક વાંચ્યા પછી એકાએક હીરલની આંખો આંસુઓથી ભરાઈ ગઈ.એક પણ શબ્દ બોલ્યા સિવાય એ મુંગા મુંગા રડવા લાગી.

વિમલએ પત્નીને રડતી જોઈ પૂછ્યું :”હીરલ શું થયું? કેમ રડે છે ?”

હીરલ:”ગઈ કાલે મેં મારા પહેલા ધોરણના વિદ્યાર્થીઓને “તમારે શું બનવાની ઇચ્છા છે? “એ વિષય પર નોટમાં થોડાં વાક્યો લખવાનું ગૃહકામ આપ્યું હતું.

વિમલએ ફરી પૂછ્યું :”ઓ.કે.પણ એ તો કહે કે તું રડે છે કેમ ?”

હીરલ:”આજે મેં જે છેલ્લી નોટ બુક તપાસી એમાંનું લખાણ મારા હૃદયને સ્પર્શી ગયું .એ વાંચીને મારાથી રડી પડાયું.”

વિમલએ આશ્ચર્ય સાથે હીરલને પૂછ્યું :”એ વિદ્યાર્થીએ એની નોટમાં એવું તો શું લખ્યું છે કે તું આમ રડવા બેસી ગઈ છે ?”

જવાબમાં હીરલએ કહ્યું:

“તો સાંભળો ,આ વિદ્યાર્થીએ ‘મારી ઇચ્છા’
એ શીર્ષક નીચે નોટમાં આમ લખ્યું છે.

“મારી ઇચ્છા એક સ્માર્ટ ફોન બનવાની છે.

મારી મમ્મી અને મારા ડેડીને સ્માર્ટ ફોન બહુ જ ગમે છે.એને હંમેશા હાથમાં ને હાથમાં જ રાખે છે.તેઓ એમના સ્માર્ટ ફોનની એટલી બધી કેર રાખે છે કે ઘણીવાર તેઓ મારી કેર રાખવાનું ભૂલી જાય છે.

જ્યારે મારા ડેડી આખો દિવસ ઓફિસમાં કામ કર્યા પછી સાંજે થાકીને ઘેર આવે છે ત્યારે એમના સ્માર્ટ ફોન માટે એમને સમય હોય છે પણ મારા મારા માટે કે મારા અભ્યાસ વિષે પૂછવાનો એમને સમય નથી મળતો.

મારા ડેડી અને મમ્મી ઘરમાં કોઈ અગત્યનું કામ કરતા હોય અને એમના સ્માર્ટ ફોન ઉપર કોઈના ફોનની રીંગ વાગે કે તરત જ બધું કામ એક બાજુ મૂકીને પહેલી રિંગે જ દોડીને સ્માર્ટ ફોન ઉપાડી વાતો કરવા માંડે છે.
કોઈ દિવસ હું રડતો હોઉં તો પણ મારા તરફ ધ્યાન આપતા નથી કે મારી દરકાર કરતા નથી.

તેઓને એમના સ્માર્ટ ફોનમાં ગેમ રમવા માટે સમય છે પણ મારી સાથે રમવાનો સમય નથી.
તેઓ જ્યારે કોઈ વખત એમના સ્માર્ટ ફોનમાં કોઈની સાથે વાત કરતા હોય ત્યારે હું કોઈ બહુ જ અગત્યની વાત એમને કહેતો હોઉં તો એના પર ધ્યાન આપતા નથી અને કોઈ વાર મારા પર ગુસ્સે પણ થઇ જાય છે.

એટલા માટે જ મારી મહેચ્છા એક સેલ ફોન બનવાની છે.
…”ભગવાન મને સેલફોન બનાવે તો કેવું સારું કે જેથી હું મારાં મમ્મી અને ડેડીની પાસેને પાસે જ રહું !”

હીરલ નોટમાંથી આ વાંચતી હતી એને વિમલ એક ધ્યાનથી સાંભળી રહ્યો હતો.
આ વિદ્યાર્થીનું લખાણ એના હૃદયને સ્પર્શી ગયું.

ભાવાવેશમાં આવીને એણે હીરલને પૂછ્યું:“હીરલ,આ છેલ્લી નોટબુકમાં લખનાર વિદ્યાર્થી કોણ છે?એનું નામ શું ?”

આંખમાં આંસુ સાથે હીરલએ જવાબ આપ્યો :

“આપણો પુત્ર કર્તવ્ય… !”