खलील जिब्रान की एक बहुत प्रसिद्ध कथा है। एक मां और बेटी में बहुत प्यार था, जैसा कि सभी मां-बेटियों में होता है। लेकिन अगर तुम निरीक्षण करो, तो मां-बेटियों में एक गहन ईष्या भी होती है। मां बेटी को प्यार भी करती है, और ईष्या भी करती है। क्योंकि मां बूढ़ी होती जाती है, और बेटी जवान होती जाती है। और कहीं गहरे में मां को लगता ही है कि जैसे उसकी जवानी बेटी ने छीन ली।
क्योंकि हम सदा दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं। वह हमारा साधारण गणित है। और फिर बेटी जैसे-जैसे जवान होने लगती है और घर कोई मेहमान आयें, मित्र आयें, प्रियजन आयें, तो सभी की नजर बेटी पर होती है। मां अंधेरे में पड़ने लगती है। तब बेटी प्रतियोगी हो जाती है। इसलिए जवान बेटी को घर से टालने के लिए मां इतनी आतुर हो जाती है, जिसका हिसाब नहीं। यद्यपि वह कहती यही है कि विवाह करना है, उसका घर बसाना है, यह ऊपर-ऊपर है। उससे छुटकारा पाना है। यह जल्दी टले।
क्योंकि उसकी मौजूदगी उसके बुढ़ापे की तरफ इशारा होने लगी। और उसकी मौजूदगी बताती है कि अब वह महत्वपूर्ण नहीं रही। गौण हो गई, अंधेरे में पड़ गई। मां बर्दाश्त नहीं करती। बाप भी अपनी बेटी के प्रति अगर थोड़ा ज्यादा प्रेमपूर्ण मालूम पड़े, तो मां के लिए बड़ा कठिन हो जाता है। अति कठिनाई मालूम पड़ती है।
और ईष्या गहन है।
उन दोनों मां-बेटियों में भी ऐसा ही प्यार था, जैसा सभी मां-बेटियों में है। वह एक दूसरे की बड़ी चिंता करती थीं। और ध्यान रखना, जीवन का एक नियम है कि जब तुम बहुत चिंता करते हो, तो वह चिंता परिपूरक है। तुम्हारे भीतर कहीं कोई अपराध छिपा है। जब तुम किसी व्यक्ति की जरूरत से ज्यादा देखभाल करते हो, उसका मतलब है, तुम कुछ छिपाने की कोशिश कर रहे हो, तुम कुछ ढांक रहे हो। अन्यथा अतिरिक्त कभी भी नहीं होता।
समझो, जिस दिन पति कुछ अपराध करके घर लौटा है, किसी स्त्री का हाथ हाथ में लिया है, किसी स्त्री को प्रेम के शब्द कहे हैं, उस दिन वह पत्नी के प्रति जरूरत से ज्यादा प्रेमपूर्ण रहेगा। और पत्नियां पहचान जाती हैं कि इतने प्रेमपूर्ण तुम कल न थे, परसों न थे, आज क्या मामला है? और पति इतना प्रेमपूर्ण इसलिये रहेगा कि भीतर उसने एक अपराध किया है। उस अपराध को परिपूरित करना है, उस अपराध को भरना है। वह अपने को क्षमा नहीं कर पा रहा है। तब एक ही उपाय है, कि इस पत्नी के प्रति अपराध किया है, किसी दूसरी स्त्री के प्रति प्रेमपूर्ण हुआ हूं, तो इस पत्नी को प्रेम से चुकतारा कर दूं। हिसाब बराबर हो जाये।
हम जब भी किसी एक दूसरे की जरूरत से ज्यादा चिंता करने लगते हैं, तो वहां कोई रोग छिपा है, वहां कोई द्वंद्व छिपा है। अन्यथा अतिशय की कोई भी जरूरत नहीं है।
स्वस्थ व्यक्ति हमेशा मध्य में होता है–अस्वस्थ व्यक्ति अति पर चला आता है। दोनों मां-बेटी एक दूसरे के प्रति अति चिंता करती थीं। एक दूसरे को पकड़कर, जकड़कर रखा था।
एक रात–दोनों को नींद में चलने की आदत थी–आधी रात दोनों उठीं और घर के पीछे के बगीचे में गईं। और जब मां ने लड़की को देखा–तो नींद में थी, स्वप्न था, नींद में चलने की बीमारी थी–तो उसने कहा, ‘तेरे ही कारण! तू ही खा गई मेरे जीवन को। तेरे ही कारण मेरी जवानी नष्ट हो गई। आज मैं बूढ़ी हूं, आज मैं एक खंडहर हूं; तेरे ही कारण। न तू पैदा होती और न यह दुर्भाग्य मेरे ऊपर पड़ता।’
और बेटी ने कहा कि ‘असलियत बिलकुल उलटी है। मेरे कारण तुम बूढ़ी नहीं हो गई हो, सभी बूढ़े होते हैं। सच्चाई यह है कि तुम्हारे कारण मैं प्रेमी नहीं खोज पा रही हूं। तुम हर जगह बाधा हो मेरे जीवन में। तुम दुश्मन हो मेरी खुशी की। तुम जहर हो। तुम मर ही जाओ तो मैं स्वतंत्र हो जाऊं, क्योंकि तुम ही मेरा कारागृह हो।’
और तब अचानक मुर्गे ने बांग दी और दोनों की नींद टूट गई। और बेटी ने मां के पैर पर हाथ रखा और कहा कि सर्दी बहुत है, तबीयत खराब हो जायेगी, आप भीतर चलें। और मां ने बेटी को कहा कि तू ऐसी रात उठ कर अंधेरे में बगीचे में मत आया कर। किसी का कोई भरोसा नहीं है। जिंदगी विश्वास योग्य नहीं है। सब एक दूसरे के शत्रु हैं। बेटी, भीतर चल। और दरवाजा बंद कर। और दोनों एक दूसरे के गले में हाथ डाले अत्यंत प्रेमपूर्ण भीतर गईं और बिस्तर पर, फिर एक ही बिस्तर पर दोनों लेट गईं, अति प्रेम से भरी और सो गईं।
कहानी सूचक है। एक तो चेतन मन है, जिसे तुम होश में, जाग कर उपयोग करते हो। और एक अचेतन मन है, जो नींद में जाहिर होता है। जिस पिता को तुम जाग कर आदर देते हो, नींद में उसकी हत्या कर देते हो। जिस स्त्री को जाग कर तुम बहन कहते हो, नींद में उसकी वासना की कामना करते हो।
तुम्हारी नींद तुम्हारे जागरण से बिलकुल विपरीत क्यों है? जागकर तुम उपवास करते हो, नींद में तुम भोजन करते हो। तुम्हारा जागा मन और तुम्हारा सोया मन, दोनों तुम्हारे हैं, तो उनमें इतना विरोध क्यों? इतनी विपरीतता क्यों?
क्योंकि तुम्हारा जागा मन एक झूठ है, जो समाज, संस्कृति और सभ्यता से पैदा किया गया है। तुम्हारे भीतर तुम हो…।
एक बच्चा पैदा होता है। तब वह वही है, जो है। फिर समाज सिखाना शुरू करता है कि क्या गलत है और क्या सही। अभी तक बच्चा दोनों था, इकट्ठा था। न उसे पता था, क्या गलत है और क्या सही। सभी कुछ प्राकृतिक था। फिर समाज बताता है, ये ये बातें गलत है, और ये ये बातें सही हैं। और बच्चे को झुकाता है, दंड देता है, पुरस्कार देता है, लोभ, भय। और बच्चे को झुकाता है कि ठीक करो और गलत को छोड़ो।
दोनों प्राकृतिक हैं। छोड़ना तो हो नहीं सकता। तो बच्चा गलत को भीतर दबाता है और फिर ठीक को ऊपर लाता है। वह गलत दबते-दबते, दबते-दबते अचेतन का हिस्सा हो जाता है। उसकी पर्तें-दर-पर्तें हो जाती हैं। वह अंधेरे में फेंकता जाता है। जैसे किसी आदमी ने घर में कूड़ा-करकट, व्यर्थ की चीजें, काम के बाहर हो गया सामान–फेंकता जाता है एक कमरे में तलघर में। वहां इकट्ठा होता जाता है। वहां एक कबाड़, व्यर्थ का बहुत कुछ इकट्ठा हो जाता है। और जो जो ठीक है, सुंदर है, काम के योग्य है, वह बैठक खाने में रखता है। बैठक खाना तुम्हारा चेतन मन है। अचेतन तुम्हारा कबाड़ है।
लेकिन उस कबाड़ में बड़ी शक्ति है। क्योंकि वह भी प्राकृतिक है। ज्यादा प्राकृतिक है, बजाय चेतन मन के। इसलिए किसी आदमी के बैठकखाने को देखकर तुम उसकी असली स्थिति मत समझ लेना। बैठकखाना तो धोखा है। जो बाहर से आनेवाली दुनिया के लिए बनाया जाता है। वह उसका असली घर नहीं है। बैठकखाने में कोई जीता थोड़े ही है! रहता थोड़े ही है। सिर्फ बाहर की दुनिया का स्वागत करता है। वह एक चेहरा है जो हम दूसरे के लिए बनाकर रखते हैं। असली आदमी वहां नहीं है। तो बैठकखाने को तो भूल ही जाना। अगर असली आदमी का घर खोजना हो तो बैठकखाने को छोड़ कर सब देखना।
तुम्हारा चेतन मन तुम्हारी सजी हुई तस्वीर है, जो दूसरों को दिखाने के लिए बनाई गई है। वह तुम्हारा असलीपन नहीं है। लेकिन मजबूरी है, वह करनी पड़ेगी। हर बच्चे की करनी पड़ेगी। अन्यथा समाज उसे जीने न देगा।
बाप कहेगा, मैं तुम्हारा पिता हूं आदर करो। और बच्चे के मन में हो सकता है, कोई आदर न हो। क्योंकि आदर सिर्फ किसी के बेटे होने से नहीं होता। बाप और बेटा होने से आदर का कोई संबंध नहीं है। बाप आदर योग्य होना भी चाहिये, तब आदर होता है। मां कहती है, मुझे प्रेम करो क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं। प्रेम कोई तर्क की निष्पत्ति तो नहीं है। वह कुछ ऐसा तो नहीं है कि क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं इसलिये मुझे प्रेम करो। ‘क्योंकि’ का वहां क्या संबंध है? अगर मां प्रेम-योग्य हो, तो प्रेम होगा।
लेकिन इस जगत में बहुत कम लोग प्रेम के पात्र हैं। बहुत कम लोग प्रेम के योग्य हैं–ना के बराबर। उंगलियों पर गिने जा सकते हैं पूरे इतिहास में, जो आदर के योग्य हैं, प्रेम के योग्य हैं। जिनके प्रति तुम्हारा आदर सहज होगा। अन्यथा आदर को जबरदस्ती लाना होगा, प्रेम को आरोपित करना होगा। बच्चे को मां कहती है, प्रेम करो। बाप कहता है, आदर करो। क्योंकि मैं बाप हूं, क्योंकि मैं मां हूं। और बच्चे की कुछ समझ में नहीं आता कि प्रेम कैसे करे?
बच्चे को छोड़ दें। क्या तुम्हें भी पता चल सका है जिंदगी के लंबे अनुभव के बाद कि अगर तुम्हें प्रेम करना पड़े तो तुम क्या करोगे? प्रेम घटता है, किया नहीं जा सकता। करोगे, तो झूठ होगा। दिखावा होगा। ऊपर-ऊपर होगा। अभिनय होगा। नाटक होगा।
आदर किया नहीं जा सकता, होता है। गुरु का आदर नहीं करना होता, गुरु वही है जिसके प्रति आदर होता है। करना पड़े आदर, तो बात व्यर्थ हो गई। झूठी हो गई। झुकना पड़े चेष्टा से, शिष्टाचार से, तो वह आचरण मिथ्या हो गया। झुकना हो जाये सहज किसी के पास जाकर, तुम रोकना भी चाहो और न रुक सको…
ओशो!
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