Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

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इस साल मेरा सात वर्षीय बेटा दूसरी कक्षा मैं प्रवेश
पा गया ….क्लास मैं हमेशा से अव्वल आता रहा है !
पिछले दिनों तनख्वाह मिली तो मैं उसे नयी स्कूल ड्रेस और
जूते दिलवाने के लिए बाज़ार ले गया !
बेटे ने जूते लेने से ये कह कर मना कर दिया की पुराने
जूतों को बस थोड़ी-सी मरम्मत की जरुरत है वो अभी इस
साल काम दे सकते हैं!
अपने जूतों की बजाये उसने मुझे अपने दादा की कमजोर
हो चुकी नज़र के लिए नया चश्मा बनवाने को कहा !
मैंने सोचा बेटा अपने दादा से शायद बहुत प्यार करता है
इसलिए अपने जूतों की बजाय उनके चश्मे
को ज्यादा जरूरी समझ रहा है !
खैर मैंने कुछ कहना जरुरी नहीं समझा और उसे लेकर ड्रेस
की दुकान पर पहुंचा…..दुकानदार ने बेटे के साइज़ की सफ़ेद
शर्ट निकाली …डाल कर देखने पर शर्ट एक दम फिट
थी…..फिर भी बेटे ने थोड़ी लम्बी शर्ट दिखाने
को कहा !!!!
मैंने बेटे से कहा :बेटा ये शर्ट तुम्हें बिल्कुल सही है तो फिर
और लम्बी क्यों ?
बेटे ने कहा :पिता जी मुझे शर्ट निक्कर के अंदर
ही डालनी होती है इसलिए
थोड़ी लम्बी भी होगी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा…….ले
किन यही शर्ट मुझे अगली क्लास में भी काम आ
जाएगी ……पिछली वाली शर्ट
भी अभी नयी जैसी ही पड़ी है लेकिन छोटी होने की वजह
से मैं उसे पहन नहीं पा रहा !
मैं खामोश रहा !!

घर आते वक़्त मैंने बेटे से पूछा : तुम्हे ये सब बातें कौन
सिखाता है बेटा ?

बेटे ने कहा: पिता जी मैं अक्सर
देखता था कि कभी माँ अपनी साडी छोड़कर तो कभी आप
अपने जूतों को छोडकर हमेशा मेरी किताबों और कपड़ो पर
पैसे खर्च कर दिया करते हैं !

गली- मोहल्ले में सब लोग कहते हैं के आप बहुत ईमानदार आदमी हैं और हमारे साथ वाले राजू के पापा को सब लोग चोर, कुत्ता, बे-ईमान, रिश्वतखोर और जाने क्या क्या कहते हैं, जबकि आप दोनों एक ही ऑफिस में काम करते हैं…..

जब सब लोग आपकी तारीफ करते हैं तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है…..मम्मी और
दादा जी भी आपकी तारीफ करते हैं! पिता जी मैं चाहता हूँ कि मुझे कभी जीवन में नए कपडे, नए जूते मिले या न मिले
लेकिन कोई आपको चोर, बेईमान, रिश्वतखोर न कहे !!!!!

मैं आपकी ताक़त बनना चाहता हूँ पिता जी,
आपकी कमजोरी नहीं ! बेटे की बात सुनकर मैं निरुतर था !!

”आज मुझे पहली बार मुझे मेरी ईमानदारी का इनाम मिला था !!
आज बहुत दिनों बाद आँखों में ख़ुशी, गर्व और सम्मान के आंसू थे”…!!

मोनीष

Posted in मातृदेवो भव:

कल मातृ दिवस 2017 – रिश्ते तो बहुत हैं, मां सिर्फ एक है – मातृ दिवस विशेष : मां के लिए बस एक दिन ? – मां से बढ़कर कुछ नहीं है दुनिया में!! Mother’s Day – Sunday, May 8. 2017 :
(Please also see English version, below)

‘जननी नी जोड़ सखी ! नहीं जड़े रे लोल’ के कवि दामोदर बोटादकर ने क्या खूब लिखा है माँ के लिए !!! भारतीय संस्कृति में माँ को ‘मातृदेवो भव:’ कहकर इश्वर का दर्ज्जा दिया गया है। माँ शब्द बोलते ही पुरे विश्व की ख़ुशी हमे मिल गई हो ऐसा प्रतीत होता है। माँ शब्द में एक ऐसी मिठास और आत्मीयता होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती।
आज ना जाने कितनी माताएं, अपने बच्चों के होते हुए भी वृद्धाश्रम में तन्हा जीवन व्यतीत कर रही हैं. कितनों को उनके बच्चे सड़क पर असहाय छोड़कर चले जाते हैं. वो भी सिर्फ इसीलिए क्योंकि उन्हें अपनी मां ही अपनी स्वतंत्रता और पारिवारिक खुशहाली की राह में बाधा लगने लगती है.

एक माँ को सम्मान और आदर देने के लिये हर वर्ष एक वार्षिक कार्यक्रम के रुप में मातृदिवस को मनाया जाता है। ये आधुनिक समय का उत्सव है जिसकी उत्पत्ति उत्तरी अमेरिका में माताओं को सम्मान देने के लिये हुई थी। बच्चों से माँ के रिश्तों में प्रगाढ़ता बढ़ाने के साथ ही मातृत्व को सलाम करने के लिये इसे मनाया जाता है। समाज में माँ का प्रभाव बढ़ाने के लिये इसे मनाया जाता है। पूरे विश्व के विभिन्न देशों में अलग-अलग तारीखों पर हर वर्ष मातृ दिवस को मनाया जाता है। भारत में, इसे हर साल मई महीने के दूसरे रविवार को मनाया जाता है।

मां, यह वह शब्द है जो किसी भी व्यक्ति के जीवन में सबसे ज्यादा अहमियत रखता है. ईश्वर सभी जगह उपस्थित नहीं रह सकता इसीलिए उसने धरती पर मां का स्वरूप विकसित किया, जो हर परेशानी और हर मुश्किल घड़ी में अपने बच्चों का साथ देती है, उन्हें दुनियां के हर गम से बचाती है. बच्चा जब जन्म लेता है तो सबसे पहले वह मां बोलना ही सीखता है. मां ही उसकी सबसे पहली दोस्त बनती है, जो उसके साथ खेलती भी है और उसे सही-गलत जैसी बातों से भी अवगत करवाती है. मां के रूप में बच्चे को निःस्वार्थ प्रेम और त्याग की प्राप्ति होती है तो वहीं मां बनना किसी भी महिला को पूर्णता प्रदान करता है.
आज मदर्स डे है. यह दिन बच्चों के जीवन में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण इंसान, मां को समर्पित है. भले ही यह दिन भी अन्य दिनों की तरह विदेशी संस्कृति की ही देन है. लेकिन आज जब सभी की जीवनशैली इतनी ज्यादा व्यस्त हो चुकी है कि उनके पास अपनी मां के लिए ही समय नहीं बचता तो ऐसे में हम एक दिन तो अपनी मां के नाम कर ही सकते हैं.

‘मां की महिमा क्या गाऊं, मां की कहानी क्या सुनाऊं, हे मां तू है महान, तूने हमको जन्म दिया, मिले हर जन्म में तेरी को,मां तुझे सलाम’।

जिस मां ने खुद भूखे रहकर, अपनी सभी इच्छाओं को नजरअंदाज कर अपने बच्चे की हर कमी को पूरा किया आज वही अपने बच्चे के लिए बोझ बन गई है. दुनियां की चकाचौंध में मशगूल व्यक्ति अपनी मां को पीछे छोड़कर सफल जीवन की कामना करता है, जो किसी भी रूप में संभव नहीं है.

क्यों न हम सिर्फ ‘एक ही दिन’ को मां के लिए महत्वपूर्ण न बनाकर ‘हर क्षण’ को सदियों तक मां के लिए महत्वपूर्ण बनाएं। उसे हर क्षण यह अहसास दिलाएं की वह हमारे जीवन में एक ‘सम्माननीय पद’ पर आसीन हैं, ताकि हर दिन एक ममता दिवस के रूप में यादगार बन जाएं।

Happy Mother’s Day !
Mother’s Day is a modern celebration honouring one’s own mother, as well as motherhood, maternal bonds, and the influence of mothers in society. It is celebrated on various days in many parts of the world.
The celebration of Mother’s Day began in the United States in the early 20th century; it is not related to the many celebrations of mothers and motherhood that have occurred throughout the world over thousands of years, such as the Greek cult to Cybele, the Roman festival of Hilaria, or the Christian Mothering Sunday celebration (originally a celebration of the mother church, not motherhood). Despite this, in some countries Mother’s Day has become synonymous with these older traditions.

स्वस्तिक ज्योतिष केंद्र

Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

#नास्तिमातृसमो_गुरुः
माता के समान कोई भी गुरु नही हो सकता…..

।।मातृ देवो भव: पितृ देवो भव:।।

पितुरप्यधिका माता
गर्भधारणपोषणात् ।
अतो हि त्रिषु लोकेषु
नास्ति मातृसमो गुरुः॥

गर्भ को धारण करने और पालनपोषण करने के कारण माता का स्थान पिता से भी बढकर है। इसलिए तीनों लोकों में माता के समान कोई गुरु नहीं अर्थात् माता परमगुरु है!

नास्ति गङ्गासमं तीर्थं
नास्ति विष्णुसमः प्रभुः।
नास्ति शम्भुसमः पूज्यो
नास्ति मातृसमो गुरुः॥

गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं, विष्णु के समान प्रभु नहीं और शिव के समान कोई पूज्य नहीं और माता के समान कोई गुरु नहीं।

नास्ति चैकादशीतुल्यं
व्रतं त्रैलोक्यविश्रुतम्।
तपो नाशनात् तुल्यं
नास्ति मातृसमो गुरुः॥

एकादशी के समान त्रिलोक में प्रसिद्ध कोई व्रत नहीं, अनशन से बढकर कोई तप नहीं और माता के समान गुरु नहीं!

नास्ति भार्यासमं मित्रं
नास्ति पुत्रसमः प्रियः।
नास्ति भगिनीसमा मान्या
नास्ति मातृसमो गुरुः॥

पत्नी के समान कोई मित्र नहीं, पुत्र के समान कोई प्रिय नहीं, बहन के समान कोई माननीय नहीं और माता के समान गुरु नही!

न जामातृसमं पात्रं
न दानं कन्यया समम्।
न भ्रातृसदृशो बन्धुः
न च मातृसमो गुरुः ॥

दामाद के समान कोई दान का पात्र नहीं, कन्यादान के समान कोई दान नहीं, भाई के जैसा कोई बन्धु नहीं और माता जैसा गुरु नहीं!

देशो गङ्गान्तिकः श्रेष्ठो
दलेषु तुलसीदलम्।
वर्णेषु ब्राह्मणः श्रेष्ठो
गुरुर्माता गुरुष्वपि ॥

गंगा के किनारे का प्रदेश अत्यन्त श्रेष्ठ होता है, पत्रों में तुलसीपत्र, वर्णों में ब्राह्मण और माता तो गुरुओं की भी गुरु है!

पुरुषः पुत्ररूपेण
भार्यामाश्रित्य जायते।
पूर्वभावाश्रया माता
तेन सैव गुरुः परः ॥

पत्नी का आश्रय लेकर पुरुष ही पुत्र रूप में उत्पन्न होता है, इस दृष्टि से अपने पूर्वज पिता का भी आश्रय माता होती है और इसीलिए वह परमगुरु है!

मातरं पितरं चोभौ
दृष्ट्वा पुत्रस्तु धर्मवित्।
प्रणम्य मातरं पश्चात्
प्रणमेत् पितरं गुरुम् ॥

धर्म को जानने वाला पुत्र माता पिता को साथ देखकर पहले माता को प्रणाम करे फिर पिता और गुरु को!

माता धरित्री जननी
दयार्द्रहृदया शिवा ।
देवी त्रिभुवनश्रेष्ठा
निर्दोषा सर्वदुःखहा॥

माता, धरित्री , जननी , दयार्द्रहृदया, शिवा, देवी , त्रिभुवनश्रेष्ठा, निर्दोषा, सभी दुःखों का नाश करने वाली है!

आराधनीया परमा
दया शान्तिः क्षमा धृतिः ।
स्वाहा स्वधा च गौरी च
पद्मा च विजया जया ॥

आराधनीया, परमा, दया , शान्ति , क्षमा, धृति, स्वाहा , स्वधा, गौरी , पद्मा, विजया , जया,

दुःखहन्त्रीति नामानि
मातुरेवैकविंशतिम् ।
शृणुयाच्छ्रावयेन्मर्त्यः
सर्वदुःखाद् विमुच्यते ॥

और दुःखहन्त्री -ये माता के इक्कीस नाम हैं। इन्हें सुनने सुनाने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है!

दुःखैर्महद्भिः दूनोऽपि
दृष्ट्वा मातरमीश्वरीम्।
यमानन्दं लभेन्मर्त्यः
स किं वाचोपपद्यते ॥

बड़े बड़े दुःखों से पीडित होने पर भी भगवती माता को देखकर मनुष्य जो आनन्द प्राप्त करता है उसे वाणी द्वारा नहीं कहा जा सकता!

इति ते कथितं विप्र
मातृस्तोत्रं महागुणम्।
पराशरमुखात् पूर्वम्
अश्रौषं मातृसंस्तवम्॥

हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे महान् गुण वाले मातृस्तोत्र को कहा , इसे मैंने अपने पिता पराशर के मुख से पहले सुना था!

सेवित्वा पितरौ कश्चित्
व्याधः परमधर्मवित्।
लेभे सर्वज्ञतां या तु
साध्यते न तपस्विभिः॥

अपने माता पिता की सेवा करके ही किसी परम धर्मज्ञ व्याध ने उस सर्वज्ञता को पा लिया था जो बडे बडे तपस्वी भी नहीं पाते!

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन
भक्तिः कार्या तु मातरि।
पितर्यपीति चोक्तं वै
पित्रा शक्तिसुतेन मे ॥

इसलिए सब प्रयत्न करके माता और पिता की भक्ति करनी चाहिए, मेरे पिता शक्तिपुत्र पराशर जी ने भी मुझसे यही कहा था!

—भगवान वेदव्यास

Posted in मातृदेवो भव:

वेदों में कहा गया है कि मातृ देवो भव: पितृ देवो भव: गुरु देवो भव:
अतिथि देवो भव:। हमारे शास्त्रों में सूत्र संकेतों के रूप में हैं जिन्हें
समझने की कोशिश करनी चाहिए। अभिवादन
शीलस्य नित्य वृद्धोपसेविन:।चत्वारि तस्य
वर्धते,आयुर्विद्या यशो बलं॥अर्थात मात्र प्रणाम करने से, सदाचार के
पालन से एवं नित्य वृद्धों की सेवा करने से आयु, विद्या,
यश और बल की वृद्धि होती है। भगवान
श्रीगणेश अपने माता-पिता में त्रैलोक समाहित मान कर
उनका पूजन और प्रदक्षिणा (चक्कर लगाना) करने से प्रथम
पूज्यनीय बन गए। यदि हम जीवों के
प्रति परोपकार की भावना रखें
तो अपनी कुंडली में
ग्रहों की रुष्टता को न्यूनतम कर सकते हैं। नवग्रह
इस चराचर जगत में पदार्थ, वनस्पति, तत्व, पशु-
पक्षी इत्यादि में अपना वास रखते हैं।
इसी तरह ऋषियों ने पारिवारिक सदस्यों और आसपास के
लोगों में भी ग्रहों का प्रतिनिधित्व बताया है। माता-
पिता दोनों के संयोग से किसी जातक का जन्म होता है
इसलिए सूर्य आत्मा के साथ-साथ पिता का प्रतिनिधित्व करता है और
चंद्रमा मन के साथ-साथ मां का प्रतिनिधित्व करता है। योग शास्त्र में
दाहिने स्वर को सूर्य और बाएं को चंद्रमा कहा गया है। श्वास
ही जीवन है और इसको देने वाले सूर्य
और चंद्र हैं। योग ने इस श्वास को प्राण कहा है। आजकल
ज्योतिष में तरह-तरह के उपाय प्रचलित हैं परन्तु व्यक्ति के
आचरण संबंधी और जीव के निकट
संबंधियों से जो उपाय शास्त्रों में वर्णित हैं कदाचित वे चलन में
नहीं रह गए हैं। यदि कुंडली में सूर्य
अशुभ स्थिति में हो, नीच का हो, पीड़ित
हो तो कर्मविपाक सिद्धांत के अनुसार यह माना जाता है कि पिता रुष्ट
रहे होंगे तभी जातक सूर्य की अशुभ
स्थिति में जन्म पाता है। सूर्य के इस अनिष्ट परिहार के लिए इस
जन्म में जातक को अपने
पिता की सेवा करनी चाहिए और प्रात: उनके
चरण स्पर्श करे और अन्य सांसारिक क्रियाओं से उन्हें प्रसन्न
रखें तो सूर्य अपना अशुभ फल कम कर सकते हैं। यदि सूर्य ग्रह
रुष्ट हैं तो पिता को प्रसन्न करें, चंद्र रुष्ट है तो माता को प्रसन्न
करें, मंगल रुष्ट है तो भाई-बहन को प्रसन्न करें, बुध रुष्ट है
तो मामा और बंधुओं को प्रसन्न करें, गुरु रुष्ट है तो गुरुजन और
वृद्धों को प्रसन्न करें, शुक्र रुष्ट है
तो पत्नी को प्रसन्न करें, शनि रुष्ट है तो दास-
दासी को प्रसन्न करें और यदि केतू रुष्ट है तो कुष्ठ
रोगी को प्रसन्न करें। ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार यदि हम
प्रेम-सत्कार और आदर का भाव रख कर ग्रहों के प्रति व्यवहार
करें तो रुष्ट ग्रह की नाराजगी को शांत
किया जा सकता है।

विकरण प्रकाश राइसोनय

Posted in सुभाषित - Subhasit

।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।

मातृ देवो भव

ममतामयी माँ

“मातृ देवो भव।”

–तैत्तिरीयोप0 शिक्षावल्ली, अनुवाक-11

नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया ।।

–महाभारत ,शांतिपर्व, 266/31

माता के तुल्य कोई छाया नहीं है, माता के तुल्य कोई सहारा नहीं है। माता के सदृश कोई रक्षक नहीं है तथा माता के समान कोई प्रिय वस्तु नहीं है।

न च शोचति नाप्येनं स्थाविर्यमपकर्षति ।
श्रिया हीनोऽपि यो गेहमम्बेति प्रतिपद्यते ।।

–महाभारत ,शांतिपर्व,266/27

माता के रहते मनुष्य को कभी चिंता नहीं होती ,बुढापा उसे अपनी और नहीं खींचता । जो अपनी माँ को पुकारता हुआ घर में आता है ,वह निर्धन होने पर भी मानो माता अन्नपूर्णा के पास चला जाता है ।

समर्थ वासमर्थ वां कृशं वाप्यकृशं तथा ।
रक्षत्येव सुतं माता नान्यः पोष्टा विधानतः ॥

–महाभारत ,शांतिपर्व,266/29

पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या बलवान माता उसका पालन करती ही है । माता के सिवा कोई दुसरा विधिपूर्वक पुत्र का पालन नहीं कर सकता ।

‘मातृलाभे सनाथत्वमनाथत्वं विपर्यये ।’

– महाभारत ,शांतिपर्व,266/26

जब तक माता जीवित रहती है ,मनुष्य सनाथ रहता है और उसके न रहने परवह अनाथ हो
जाता है ।

–जय श्रीमन्नारायण।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

खलील जिब्रान ने कहा है, ” वो सुंदर नहीं थी पर सुंदर लग सकती थी, अगर कोई उस से कहता तुम सुंदर हो”

इस कथन को साबित करती मेरी एक सहेली की कहानी

“मैं क्लास में अकेली लड़की थी और चालीस लड़के।मैं सर को देखती और सारे लड़के मुझे ”

“पर तुमने भाव सिर्फ उसे दिया, जो आज तुम्हारा पति है”

“ना ना मैंने नहीं,उसने मुझे भाव दिया ।टु टेल यू द ट्रुथ मैं बिलकुल भी सुन्दर नहीं थी और बहुत मोटी थी। कोई मुझे लेकर सीरियस नहीं होता था ।”

“क्या बात कर रही हो,पिछले पंद्रह वर्षों से जानती हूँ तुम्हें, तुम तो हमेशा से बहुत सुंदर और स्मार्ट दिखती हो”

“वो तो मैंने ओवर द इयर्स खुद को ग्रूम किया है, एन्ड फ्रैंकली स्पीकिंग ,ये मेरे पतिदेव भी तब ज़रा भी गुडलुकिंग नहीं थे।”

“अरे वे तो कितने हैंडसम हैं”

“अब चेंज हो गए हैं, पहले की फोटो दिखाउंगी, पहचान नहीं पाओगी। उन्हें भी कोई लड़की नहीं मिली । बेसिकली हम दोनों को कोई भाव नहीं देता था तो हम दोनों ही एक दूसरे के करीब आ गए ”

और आज इन दोनों को पार्टीज़ में बेस्ट लुकिंग कपल का अवार्ड मिलता है।
(फोटो नहीं लगा सकती क्योंकि इज़ाज़त नहीं ली है,पर ये वाकया इतना रोचक लगा कि शेयर कर लिया )

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

खलील जिब्रान की एक बहुत प्रसिद्ध कथा है। एक मां और बेटी में बहुत प्यार था, जैसा कि सभी मां-बेटियों में होता है। लेकिन अगर तुम निरीक्षण करो, तो मां-बेटियों में एक गहन ईष्या भी होती है। मां बेटी को प्यार भी करती है, और ईष्या भी करती है। क्योंकि मां बूढ़ी होती जाती है, और बेटी जवान होती जाती है। और कहीं गहरे में मां को लगता ही है कि जैसे उसकी जवानी बेटी ने छीन ली।

क्योंकि हम सदा दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं। वह हमारा साधारण गणित है। और फिर बेटी जैसे-जैसे जवान होने लगती है और घर कोई मेहमान आयें, मित्र आयें, प्रियजन आयें, तो सभी की नजर बेटी पर होती है। मां अंधेरे में पड़ने लगती है। तब बेटी प्रतियोगी हो जाती है। इसलिए जवान बेटी को घर से टालने के लिए मां इतनी आतुर हो जाती है, जिसका हिसाब नहीं। यद्यपि वह कहती यही है कि विवाह करना है, उसका घर बसाना है, यह ऊपर-ऊपर है। उससे छुटकारा पाना है। यह जल्दी टले।

क्योंकि उसकी मौजूदगी उसके बुढ़ापे की तरफ इशारा होने लगी। और उसकी मौजूदगी बताती है कि अब वह महत्वपूर्ण नहीं रही। गौण हो गई, अंधेरे में पड़ गई। मां बर्दाश्त नहीं करती। बाप भी अपनी बेटी के प्रति अगर थोड़ा ज्यादा प्रेमपूर्ण मालूम पड़े, तो मां के लिए बड़ा कठिन हो जाता है। अति कठिनाई मालूम पड़ती है।
और ईष्या गहन है।

उन दोनों मां-बेटियों में भी ऐसा ही प्यार था, जैसा सभी मां-बेटियों में है। वह एक दूसरे की बड़ी चिंता करती थीं। और ध्यान रखना, जीवन का एक नियम है कि जब तुम बहुत चिंता करते हो, तो वह चिंता परिपूरक है। तुम्हारे भीतर कहीं कोई अपराध छिपा है। जब तुम किसी व्यक्ति की जरूरत से ज्यादा देखभाल करते हो, उसका मतलब है, तुम कुछ छिपाने की कोशिश कर रहे हो, तुम कुछ ढांक रहे हो। अन्यथा अतिरिक्त कभी भी नहीं होता।

समझो, जिस दिन पति कुछ अपराध करके घर लौटा है, किसी स्त्री का हाथ हाथ में लिया है, किसी स्त्री को प्रेम के शब्द कहे हैं, उस दिन वह पत्नी के प्रति जरूरत से ज्यादा प्रेमपूर्ण रहेगा। और पत्नियां पहचान जाती हैं कि इतने प्रेमपूर्ण तुम कल न थे, परसों न थे, आज क्या मामला है? और पति इतना प्रेमपूर्ण इसलिये रहेगा कि भीतर उसने एक अपराध किया है। उस अपराध को परिपूरित करना है, उस अपराध को भरना है। वह अपने को क्षमा नहीं कर पा रहा है। तब एक ही उपाय है, कि इस पत्नी के प्रति अपराध किया है, किसी दूसरी स्त्री के प्रति प्रेमपूर्ण हुआ हूं, तो इस पत्नी को प्रेम से चुकतारा कर दूं। हिसाब बराबर हो जाये।

हम जब भी किसी एक दूसरे की जरूरत से ज्यादा चिंता करने लगते हैं, तो वहां कोई रोग छिपा है, वहां कोई द्वंद्व छिपा है। अन्यथा अतिशय की कोई भी जरूरत नहीं है।
स्वस्थ व्यक्ति हमेशा मध्य में होता है–अस्वस्थ व्यक्ति अति पर चला आता है। दोनों मां-बेटी एक दूसरे के प्रति अति चिंता करती थीं। एक दूसरे को पकड़कर, जकड़कर रखा था।

एक रात–दोनों को नींद में चलने की आदत थी–आधी रात दोनों उठीं और घर के पीछे के बगीचे में गईं। और जब मां ने लड़की को देखा–तो नींद में थी, स्वप्न था, नींद में चलने की बीमारी थी–तो उसने कहा, ‘तेरे ही कारण! तू ही खा गई मेरे जीवन को। तेरे ही कारण मेरी जवानी नष्ट हो गई। आज मैं बूढ़ी हूं, आज मैं एक खंडहर हूं; तेरे ही कारण। न तू पैदा होती और न यह दुर्भाग्य मेरे ऊपर पड़ता।’

और बेटी ने कहा कि ‘असलियत बिलकुल उलटी है। मेरे कारण तुम बूढ़ी नहीं हो गई हो, सभी बूढ़े होते हैं। सच्चाई यह है कि तुम्हारे कारण मैं प्रेमी नहीं खोज पा रही हूं। तुम हर जगह बाधा हो मेरे जीवन में। तुम दुश्मन हो मेरी खुशी की। तुम जहर हो। तुम मर ही जाओ तो मैं स्वतंत्र हो जाऊं, क्योंकि तुम ही मेरा कारागृह हो।’

और तब अचानक मुर्गे ने बांग दी और दोनों की नींद टूट गई। और बेटी ने मां के पैर पर हाथ रखा और कहा कि सर्दी बहुत है, तबीयत खराब हो जायेगी, आप भीतर चलें। और मां ने बेटी को कहा कि तू ऐसी रात उठ कर अंधेरे में बगीचे में मत आया कर। किसी का कोई भरोसा नहीं है। जिंदगी विश्वास योग्य नहीं है। सब एक दूसरे के शत्रु हैं। बेटी, भीतर चल। और दरवाजा बंद कर। और दोनों एक दूसरे के गले में हाथ डाले अत्यंत प्रेमपूर्ण भीतर गईं और बिस्तर पर, फिर एक ही बिस्तर पर दोनों लेट गईं, अति प्रेम से भरी और सो गईं।

कहानी सूचक है। एक तो चेतन मन है, जिसे तुम होश में, जाग कर उपयोग करते हो। और एक अचेतन मन है, जो नींद में जाहिर होता है। जिस पिता को तुम जाग कर आदर देते हो, नींद में उसकी हत्या कर देते हो। जिस स्त्री को जाग कर तुम बहन कहते हो, नींद में उसकी वासना की कामना करते हो।
तुम्हारी नींद तुम्हारे जागरण से बिलकुल विपरीत क्यों है? जागकर तुम उपवास करते हो, नींद में तुम भोजन करते हो। तुम्हारा जागा मन और तुम्हारा सोया मन, दोनों तुम्हारे हैं, तो उनमें इतना विरोध क्यों? इतनी विपरीतता क्यों?
क्योंकि तुम्हारा जागा मन एक झूठ है, जो समाज, संस्कृति और सभ्यता से पैदा किया गया है। तुम्हारे भीतर तुम हो…।

एक बच्चा पैदा होता है। तब वह वही है, जो है। फिर समाज सिखाना शुरू करता है कि क्या गलत है और क्या सही। अभी तक बच्चा दोनों था, इकट्ठा था। न उसे पता था, क्या गलत है और क्या सही। सभी कुछ प्राकृतिक था। फिर समाज बताता है, ये ये बातें गलत है, और ये ये बातें सही हैं। और बच्चे को झुकाता है, दंड देता है, पुरस्कार देता है, लोभ, भय। और बच्चे को झुकाता है कि ठीक करो और गलत को छोड़ो।

दोनों प्राकृतिक हैं। छोड़ना तो हो नहीं सकता। तो बच्चा गलत को भीतर दबाता है और फिर ठीक को ऊपर लाता है। वह गलत दबते-दबते, दबते-दबते अचेतन का हिस्सा हो जाता है। उसकी पर्तें-दर-पर्तें हो जाती हैं। वह अंधेरे में फेंकता जाता है। जैसे किसी आदमी ने घर में कूड़ा-करकट, व्यर्थ की चीजें, काम के बाहर हो गया सामान–फेंकता जाता है एक कमरे में तलघर में। वहां इकट्ठा होता जाता है। वहां एक कबाड़, व्यर्थ का बहुत कुछ इकट्ठा हो जाता है। और जो जो ठीक है, सुंदर है, काम के योग्य है, वह बैठक खाने में रखता है। बैठक खाना तुम्हारा चेतन मन है। अचेतन तुम्हारा कबाड़ है।

लेकिन उस कबाड़ में बड़ी शक्ति है। क्योंकि वह भी प्राकृतिक है। ज्यादा प्राकृतिक है, बजाय चेतन मन के। इसलिए किसी आदमी के बैठकखाने को देखकर तुम उसकी असली स्थिति मत समझ लेना। बैठकखाना तो धोखा है। जो बाहर से आनेवाली दुनिया के लिए बनाया जाता है। वह उसका असली घर नहीं है। बैठकखाने में कोई जीता थोड़े ही है! रहता थोड़े ही है। सिर्फ बाहर की दुनिया का स्वागत करता है। वह एक चेहरा है जो हम दूसरे के लिए बनाकर रखते हैं। असली आदमी वहां नहीं है। तो बैठकखाने को तो भूल ही जाना। अगर असली आदमी का घर खोजना हो तो बैठकखाने को छोड़ कर सब देखना।

तुम्हारा चेतन मन तुम्हारी सजी हुई तस्वीर है, जो दूसरों को दिखाने के लिए बनाई गई है। वह तुम्हारा असलीपन नहीं है। लेकिन मजबूरी है, वह करनी पड़ेगी। हर बच्चे की करनी पड़ेगी। अन्यथा समाज उसे जीने न देगा।

बाप कहेगा, मैं तुम्हारा पिता हूं आदर करो। और बच्चे के मन में हो सकता है, कोई आदर न हो। क्योंकि आदर सिर्फ किसी के बेटे होने से नहीं होता। बाप और बेटा होने से आदर का कोई संबंध नहीं है। बाप आदर योग्य होना भी चाहिये, तब आदर होता है। मां कहती है, मुझे प्रेम करो क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं। प्रेम कोई तर्क की निष्पत्ति तो नहीं है। वह कुछ ऐसा तो नहीं है कि क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं इसलिये मुझे प्रेम करो। ‘क्योंकि’ का वहां क्या संबंध है? अगर मां प्रेम-योग्य हो, तो प्रेम होगा।

लेकिन इस जगत में बहुत कम लोग प्रेम के पात्र हैं। बहुत कम लोग प्रेम के योग्य हैं–ना के बराबर। उंगलियों पर गिने जा सकते हैं पूरे इतिहास में, जो आदर के योग्य हैं, प्रेम के योग्य हैं। जिनके प्रति तुम्हारा आदर सहज होगा। अन्यथा आदर को जबरदस्ती लाना होगा, प्रेम को आरोपित करना होगा। बच्चे को मां कहती है, प्रेम करो। बाप कहता है, आदर करो। क्योंकि मैं बाप हूं, क्योंकि मैं मां हूं। और बच्चे की कुछ समझ में नहीं आता कि प्रेम कैसे करे?

बच्चे को छोड़ दें। क्या तुम्हें भी पता चल सका है जिंदगी के लंबे अनुभव के बाद कि अगर तुम्हें प्रेम करना पड़े तो तुम क्या करोगे? प्रेम घटता है, किया नहीं जा सकता। करोगे, तो झूठ होगा। दिखावा होगा। ऊपर-ऊपर होगा। अभिनय होगा। नाटक होगा।

आदर किया नहीं जा सकता, होता है। गुरु का आदर नहीं करना होता, गुरु वही है जिसके प्रति आदर होता है। करना पड़े आदर, तो बात व्यर्थ हो गई। झूठी हो गई। झुकना पड़े चेष्टा से, शिष्टाचार से, तो वह आचरण मिथ्या हो गया। झुकना हो जाये सहज किसी के पास जाकर, तुम रोकना भी चाहो और न रुक सको…
ओशो!

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♡ दुख का दर्पण ♡
खलील जिब्रान ने अपनी
अनूठी किताब प्रॉफेट में कहा है।
एक व्यक्ति ने पूछा,
और हमें प्रेम के संबंध
में कुछ बताओ!
तो खलील जिब्रान की
किताब के नायक
अलमुस्तफा ने कहा,
तुम एक-दूसरे को प्रेम करना,
लेकिन एक-दूसरे के
मालिक मत बनना।
तुम एक-दूसरे के पास होना,
लेकिन बहुत पास नहीं।
तुम ऐसे ही होना,
जैसे मंदिरों के खंभे होते हैं–
एक ही छप्पर को सम्हालते हैं,
लेकिन फिर भी दूर-दूर होते हैं।
अगर मंदिर के खंभे
बहुत पास आ जाएं
तो मंदिर गिर जाएगा।
प्रेमी से भी थोड़े दूर होना,
ताकि दोनों के बीच में
स्वतंत्र आकाश हो।
अगर बीच का स्वतंत्र
आकाश बिलकुल ही
खो जाए तो तुम एक-दूसरे
के ऊपर अतिक्रमण
बन जाओगे,
आक्रमण बन जाओगे।
मगर ये सब बातें तो किताबों में हैं।
आदमी के जीवन में तो
जिससे प्रेम होता है,
हम उससे उसकी सारी
स्वतंत्रता छीन लेना चाहते हैं।
क्योंकि प्रेम होते ही भय होता है
कि कहीं यह प्रेम किसी
और की तरफ न मुड़ जाए;
जो प्रेम मुझे मिला है,
कहीं कोई इसका और
मालिक न हो जाए।
धन मिलता है,
तो धन खो न जाए!
प्रेम मिलता है,
तो प्रेम न खो जाए!
जो मिलता है,
उसी के खोने का
भय हो जाता है।
उस भय के कारण
स्वतंत्रता असंभव हो जाती है।
भय के साथ कैसी स्वतंत्रता?
निर्भय में ही स्वतंत्रता
का फूल खिलता है।
और प्रत्येक व्यक्ति के
प्राण बस एक ही बात
के लिए रोते हैं, एक ही
बात के लिए गुनगुनाते हैं,
एक ही बात के लिए
खोजते हैं–वह है मोक्ष।
जहां तुम्हें मुक्ति मिलेगी,
वहीं तुम आह्लादित होने लगोगे;
जहां तुम्हें बंधन मिलेगा,
वहीं तुम उदास होने लगोगे।
अगर तुम इतने उदास हो,
तो कारण साफ है–
चाहा था मोक्ष,
मिलीं जंजीरें; मांगा था
आकाश, मिला कारागृह;
खोजते थे पंख, पैर भी कट गए;
चाहते थे मुक्ति, जो पास था
वह भी दांव पर लग गया
और खो गया; और जिसकी
आशा की थी, उसके कहीं
दूर भी कोई आसार
नजर नहीं आते–
इसलिए तुम उदास हो।
ओशो ♡

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खलील जिब्रान की एक कहानी है

कि एक आदमी सोया है और तीन चींटियां उसके चेहरे पर चल रही हैं। एक चींटी ने दूसरी से कहा कि अजीब पहाड़ी पर आ गये हैं हम भी। न घास—पात ऊगता—होगा कोई क्लीन शेव! —न घास—पात ऊगता, न कोई वृक्ष दृष्टिगोचर होते, न कोई झील— झरने। किस पहाड़ पर आ गये हैं! बिलकुल सूखा। और देखते यह चोटी गौरीशंकर की? —नाक होगी—उठती चली गई है, आकाश को छूती मालूम होती है।

ऐसा वे एक—दूसरे से बात करने लगीं और बड़ी धन्यभागी होने लगीं कि हम चढ़ आये पहाड़ पर। और तीनों धीरे— धीरे नाक पर चढ़ गईं। और इसके पहले कि जैसा हिलेरी ने झंडा गाडा, वे गाड़तीं कि उस आदमी को नींद में थोड़ी—सी भनक पड़ी। उसने अपना हाथ फेरा, वे तीनों चींटियां उसकी नाक पर दबकर मर गईं।

यहूदियों में एक बहुत महत्वपूर्ण विचार है हसीद फकीरों का, कि आदमी के खोजें थोड़े ही परमात्मा मिल सकता है। परमात्मा जब आदमी को खोजता है तभी मिलन होता है। यह बात महत्वपूर्ण है। आदमी के खोजें भी क्या होगा? एक बूंद सागर को खोजने चले, राह में खो जायेगी कहीं। धूल— धवांस में दब जायेगी कहीं।

और बूंद भी शायद सागर तक पहुंच जाये क्योंकि बूंद और सागर के बीच का फासला बहुत छोटा है। लेकिन आदमी परमात्मा को खोजने चले—कहां खोजेगा? किस दिशा में, कहां जायेगा? किन चांद—तारों पर? और बूंद और सागर के बीच जो अनुपात है, बूंद बहुत छोटी है सागर से लेकिन इतनी छोटी नहीं जितना आदमी छोटा है इस विराट से। यह अनुपात.. बहुत दूर है परमात्मा, बहुत बड़ा है। और हम तो बहुत छोटे हैं। कहां खोज पायेंगे? कैसे खोज पायेंगे?

जिब्रान की यह कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। ऐसा ही आदमी है। शायद आदमी इससे भी छोटा। चींटी और आदमी के बीच फासला है जरूर, लेकिन आदमी और विराट के बीच का फासला तो सोचो! बहुत विराट है फासला। हम कैसे खोज पायेंगे? ये हमारे छोटे—छोटे पैर नहीं पहुंच पायेंगे। यह तो मंदिर ही चलकर आ जाये तो ही हम प्रवेश कर पायेंगे। और मंदिर चलकर आता है। तुम पुकारो भर। तुम्हारे पुकार के ही कच्चे धागों में बंधा आता है। कच्चे धागे में चले आयेंगे सरकार बंधे।

तुम पुकारते रहो। तुम प्यास जाहिर करते रहो। तुम रोओ। तुम गाओ। तुम नाचो। तुम जाहिर कर दो अपनी बात कि हम तेरी प्रतीक्षा में आतुर हैं। कि हम यहां तुझे बुला रहे हैं। तुम्हारी सारी भाव— भंगिमा, तुम्हारी सारी मुद्रायें पुकार और प्यास की खबर देने लगें। जिस दिन तुम्हारी पुकार और प्यास सौ डिग्री पर आती, उसी क्षण।

कोई भी नहीं कह सकता कि सौ डिग्री कब आती। और हर आदमी की डिग्री अलग— अलग आती। इसलिए तुम पुकारे जाओ। तुम अथक पुकारे जाओ। तुम्हारी पुकार ऐसी हो कि पुकार ही रह जाये, तुम मिट जाओ। प्रश्न ही बचे, प्रश्नकर्ता खो जाये। प्यास ही बचे। कोई भीतर प्यासा अलग न रह जाये। प्यास में ही डूब जाये और लीन हो जाये। उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं। द्वार दूर नहीं हैं, द्वार तुम्हारे भीतर हैं। लेकिन उन्हीं के लिए खुलते हैं जो प्राण—प्रण से पुकारते हैं।

*🌹ओशो

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खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कहानी है।

एक कुत्ता बाकी कुत्तों को समझाता था कि देखो भौंको मत, बेकार मत भौंको। बेकार भौंकने के कारण ही कुत्तों की जाति बरबाद हुई। और जब तक हम बेकार ही भौंकते रहेंगे, शक्ति व्यय होगी। और जब शक्ति भौंकने में ही व्यय हो जाएगी तो और क्या खाक करोगे?अरे, पिछड़े जा रहे हो! आदमियों तक से पिछड़े जा रहे हो!

कुत्तों को बात तो जंचती, कि बात तो सच है; मगर बेचारे कुत्ते आखिर कुत्ते हैं, बिना भौंके कैसे रहें। एकदम चांद निकल आए और कुत्ते बिना भौंके रह जाएं! सिपाही निकले और कुत्ते बिना भौंके रह जाएं! पोस्टमैन निकले, एकदम खरखरी उठती है। संन्यासी को देख लें…। कुत्ते वर्दी के खिलाफ, बड़े दुश्मन! वर्दीधारी देखा कि फिर उनसे नहीं रहा जाता। फिर सब संयम का बांध टूट जाता है। यम-नियम-प्राणायाम इत्यादि सब भ्रष्ट हो जाते हैं। फिर तो वे कहते, अब देखेंगे कल, अभी तो भौंक लें। अभी तो ऐसा मजा आता है भौंकने में!

मगर यह कुत्ता भी ठीक कहता था। इसको लोग पूजते थे कि यह अवतारी पुरुष है। ऐसा कुत्ता ही नहीं देखा जो खुद तो भौंकता ही नहीं, दूसरों को भी नहीं भौंकने देता। अदभुत है!

ऐसे वर्षों आए और गए और उपदेशक समझाता रहा और सुनने वाले सुनते रहे सिर झुका कर कि अब क्या करें, मजबूरी है, पापी हैं हम! मगर यह आदमी तो बड़ा पहुंचा हुआ है! यह कुत्ता कोई साधारण कुत्ता नहीं। यह तो सीधा आकाश से ही आया है, ईश्वर का ही अवतार होना चाहिए। न भौंके। कभी नहीं किसी ने उसको भौंकते देखा। उसका आचरण बिलकुल शुद्ध था, विचार के बिलकुल अनुकूल था। जैसा बाहर वैसा भीतर। संतों में उसकी गिनती थी।

लेकिन एक रात कुत्तों ने तय किया कि अपना गुरु कितना समझाता है और अब उसका बुढ़ापा भी आ गया है, एक दफा तो अपन ऐसा करें कि एक रात तय कर लें। अमावस की रात आ रही है कल। कल रात चाहे कुछ भी हो जाए,कितनी ही उत्तेजनाएं आएं और शैतान कितना ही हमारे गले को गुदगुदाए, कि कितने ही निकलें पुलिस वाले और सिपाही और संन्यासी , मगर हम आंख बंद किए, अंधेरी गलियों में छिपे हुए, नालियों में दबे हुए पड़े रहेंगे। एक दफा तो अपने गुरु को यह भरोसा आ जाए कि हमने भी तेरी बात सुनी और मानी।

गुरु निकला शाम से, जो उसका काम था कि कोई मिल जाए कुत्ता भौंकते हुए और वह पकड़े, दे उपदेश, पिलाए वही घोंटी। मगर कोई न मिला,बारह बज गए, रात हो गई आधी, सन्नाटा छाया हुआ है! सदगुरु बड़ा परेशान हुआ। उसने कहा, हरामजादे गए कहां! कमबख्त! कोई मिलता ही नहीं।

वह तो बेचारा समझा-समझा कर अपनी खुजलाहट निकाल लेता था। आज समझाने को भी कोई न मिला। एकदम गले में खुजलाहट उठने लगी। जब कोई कुत्ता न दिखा और सब कुत्ते नदारद, तो पहली दफा उसकी नजर सिपाहियों पर गई, पोस्टमैनों पर गई, संन्यासी चले जा रहे! बड़े जोर से जीवन भर का दबा हुआ एकदम उभर कर आने लगा। बहुत रोका,बहुत संयम साधा, बहुत राम-राम जपा, मगर कुछ काम न आए। नहीं रोक सका, एक गली में जाकर भौंक दिया।

उसका भौंकना था कि सारे गांव में क्या भुकभाहट मची,क्योंकि बाकी कुत्तों ने सोचा कोई गद्दार दगा दे गया। जब एक ने दगा दे दिया, हम क्यों पीछे रहें? अरे, हम नाहक दबे-दबाए पड़े हैं! सारे कुत्ते भौंकने लगे। ऐसी भौंक कभी नहीं मची थी। और सदगुरु वापस लौट आया! तीर्थंकर वापस आ गया! उसने कहा, अरे कमबख्तो! कितना समझाया,मगर नहीं, तुम न मानोगे। तुम अपनी जात न बदलोगे। तुम्हारा रोग न जाएगा। फिर भौंक रहे हो। इसी भौंकने में कुत्ते की जातियों का ह्रास हुआ। इसी में हम बरबाद हुए। नहीं तो आज आदमी के गले में पट्टे बांध कर घूमते होते। आ गया कलियुग! क्यों भौंक रहे हो?

फिर बेचारे कुत्ते पूंछ दबा कर चले कि क्या करें! परमहंस देव, क्या करें! छूटता ही नहीं। आज तो बहुत पक्का कर लिया था छोड़ने का, लेकिन कोई गद्दार दगा दे गया। पता नहीं कौन गद्दार है, किस धोखेबाज ने, किस बेईमान ने भौंक दिया!

🌹❤ Osho ❤🌹

🌹🌹 Zorba The Buddha 🌹🌹

🌹🌹🌹🙏🌹🌹🌹