Posted in भारतीय उत्सव - Bhartiya Utsav

वसंत पंचमी


लो, आ गया वसं त

डॉ. मोहन चन्द तिवारी

शरद ऋतु की ठिठुरती जड़ प्रकृति के बाद जैसे ही मधुमास में वासंती प्रकृति का लावण्य प्रकट होता है, उसके सौन्दर्य को देखकर स्त्री-पुरु ष, कीट- पतंगे, नभचर-जलचर सभी मदमस्ती से झूमने लगते हैं। ऋतुराज वसंत के आगमन से प्रकृति में नवयौवन का सौंदर्य हिलोरें मारने लगता है। वसंत पंचमी सरस्वती पूजा का भी विशेष पर्व है –

भारतीय कालगणना के अनुसार, माघ शुक्ल पंचमी की तिथि वसंत ऋतु के आगमन की तिथि वसंत पंचमी के रूप में प्रसिद्ध है। यह प्राचीन काल से सृष्टि-प्रक्रिया की भी पुण्यतिथि रही है। षड्ऋतुचक्र का प्रारंभ वसंत से ही होता है। ‘तैत्तिरीय ब्राrाण’ के अनुसार, ऋतुओं में वसंत मुख्य है जिसके आगमन पर समस्त देवगण सोमपान करते हुए आनंदोत्सव मनाते हैं। प्रकृति नित्य सुन्दर है किन्तु वसंत आने पर इसकी चारुता में चार चां द लग जाते हैं तथा प्रकृति का कण-कण चारुता से भर जाता है- ‘सर्व प्रिये चारुतरं वसंते’। यह दिन सरस्वती देवी का आविर्भाव दिवस होने के कारण श्रीपंचमी अथवा वागीश्वरी जयंती के रूप में प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में वैदिक अध्ययन का सत्र श्रावणी पूर्णिमा से प्रारंभ होकर इसी तिथि को समाप्त होता था। पुन: नए शिक्षासत्र का प्रारंभ भी इसी तिथि से माना जाता था। इसलिए वसंत पंचमी को सारस्वतोत्सव के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इस दिन सरस्वती के समुपासक और समस्त शिक्षण संस्थाएं नृत्य-संगीत का विशेष आयोजन करते हुए विद्या की अधिष्ठात्री देवी की पूजा-अर्चना करते हैं। सरस्वती ज्ञान-विज्ञान की ही अधिष्ठात्री देवी नहीं, बल्कि काव्य-सर्जन की उत्प्रेरिका शक्ति भी है। ‘ऋग्वेद’ के अनुसार, सरस्वती वाणी की अधिष्ठात्री देवी ही नहीं बल्कि इस देश के सांस्कृतिक इतिहास की भी अनेक कड़ियां इससे जुड़ी हैं। वैदिककालीन भरतजनों ने सरस्वती नदी के तटों पर यज्ञ करते हुए इस ब्रrा देश को सर्वप्रथम ‘भारत’ नाम प्रदान किया था जैसा कि ‘ऋग्वेद’ के इस मंत्र से स्पष्ट है- ‘विश्वामित्रास्य रक्षति ब्रrोदं भारतं जनम्’। सरस्वती नदी के तटों पर रची-बसी वैदिक सभ्यता के अवशेषों को ही आज सारस्वत सभ्यता के रूप में जो नई पहचान मिली है, उसका ऐतिहासिक प्रमाण ‘ऋग्वेद’ के अनेक मंत्रों में मिल जाता है- ‘सरस्वती साध्यन्ती धियं न इलादेवी भारती विश्वतूर्ति:’ (2.3.8) वैदिक मंत्रों में वाग्देवी सरस्वती का राष्ट्र-रक्षिका देवी के रूप में आह्वान हुआ है जो न केवल युद्ध के समय शत्रुओं से रक्षा करती थी बल्कि धनधान् य को समृद्ध करने वाली राष्ट्र देवी भी थी- ‘अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्।’ वसंत पंचमी के साथ भारतवर्ष की इस समृद्ध सारस्वत परंपरा का इतिहास भी संरक्षित है। ‘शतपथ ब्राrाण’

में ही वसंत ऋतु से जुड़ा रोचक समाज चिन्तन का भी प्रसंग मिलता है जिसमें सेनानी-सेना प्रमुख तथा ग्रामणी-ग्राम प्रमुख की तुलना वसंत ऋतु से की गई है क्योंकि वसंत ऋतु युद्ध लड़ने की सवरेत्कृष्ट ऋतु भी थी और इसी ऋतु में ग्रामों की आर्थिक संपदा से राजकोष में भारी वृद्धि होती थी। सैन्य संरक्षण तथा भरण-पोषण की प्रमुख ऋतु होने के कारण ब्राrाण ग्रंथों ने वसंत ऋतु को ‘प्रजापति’ की संज्ञा भी प्रदान की है। वसंत पंचमी के साथ सरस्वती उपासना और कामदेव की उपासना साथ-साथ जुड़ी है। सामान्यतया वसंत ऋतु के मधुमास में पाश्चात्य वेलेंटाइन डे का भी आगमन होता है। कामभाव को उद्दीप्त करने वाली ऋतु वसंत प्रतिवर्ष अपने प्रेमियों को नि:शुल्क रूप से रंग-बिरंगे फूलों की सौगात प्रदान करती आई है। वह पुष्प- गुच्छों से शोभायमान नवयौ वना प्रकृ ति देवी के रूप में अपने चाहने वालों को पुष्पासव का मधुपान कराती है। इसीलिए वसंत को मधुमास भी कहा गया है। कामोद्दीपक ऋतु होने के कारण शास्त्रों में वसंत पंचमी को रति और कामदेव की पूजा करके मदनोत्सव मनाने का विधान आया है- ‘रतिकामौ तु सम्पूज्य कर्त्तव्य: सुमहोत्सव:’। वसंत में सूर्य विषुवत रेखा पर सीधे चमकता है इसलिए इस ऋतु में न अधिक गर्मी होती है और न अधिक सर्दी। कालिदास ने इस सुहाने वसंत के सायंकाल को सुखद और दिन को रमणीय बताया है- सुखा प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:। प्रकृति के धरातल पर कशुक पुष्प का खिलना और कोयल की कूंज को वसंतागम का सूचक माना गया है। पशु, पक्षी, मनुष्य आदि सभी प्राणी इस ऋतु में कामबाण के लक्ष्य होते हैं। वसंतोसव के अवसर पर प्रेम अथवा अनुराग के प्रतीक लाल पुष्पों को भेंट कर प्रणय निवेदन की परंपरा भारत में ही प्रचलित हुई है। कालिदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’

में रानी इरावती वसंत ऋतु के अवसर पर अपना प्रेमाभिलाष प्रकट करने के लिए राजा अग्निमित्र के पास लाल कुरबक के नवीन पुष्पों को भिजवाती है । वसंतोत्सव के अवसर पर स्त्रियों के पति के साथ झूला झूलने की प्रथा भी प्रणय निवेदन की परंपरा थी। प्राचीन भारत में वसंतोत्सव के अंतर्गत प्रेम नाटकों का भी सामूहिक प्रदर्शन किया जाता था। ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘रत्नावली’, ‘पारिजातमंजरी’

आदि नाट्य रचनाएं वसंतोत्सव से जुड़ी लोकप्रिय रचनाएं हैं। ‘अभिज्ञानशाकुन्तलं’ नाटक में भी वसंतोत्सव की विशेष र्चचा आई है। यूरोप आदि पश्चिमी जगत में वेलेंटाइन डे जैसी प्रेम संबंधी मान्यताएं भारत से ही निर्यात हुई हैं। वसंत ऋतु के अवसर पर वेलेंटाइन डे मनाया जाना, इसी तथ्य का सूचक है परन्तु प्रकृति प्रेमियों, साहित्यकारों और कलाकारों को ऋतुराज वसंत के आगमन का जिस हर्षोल्लास के साथ स्वागत करना चाहिए, उसकी परंपरा अब लुप्त होती जा रही है। जारी पेज 2

पश्चिमी जगत में वे लेंटाइन डे जैसी प्रेम संबंधी मान्यताएं भारत से ही निर्यात हुई हैं। वसंत ऋतु के अवसर पर वेलेंटाइन डे मनाया जाना, इसी तथ्य का सूचक है परन्तु प्रकृति प्रेमियों, साहित्यकारों और कलाकारों को ऋतुराज वसंत के आगमन का जिस हर्षोल्लास के साथ स्वागत करना चाहिए, उसकी परं परा अब लुप्त होती जा रही है

 

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