
***पानीपत की तीसरा युद्ध ***
पानीपत की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की
बेहद महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी बदलावों वाली
साबित हुई। पानीपत की तीसरी जंग 250 वर्ष पूर्व
14 जनवरी, 1761 को मराठा सेनापति सदाशिवराव
भाऊ और अफगान सेनानायक अहमदशाह अब्दाली के
बीच हुई। इस समय उत्तर भारत में सिक्ख और दक्षिण में
मराठों की शक्ति का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ रहा
था। हालांकि इस दौरान भारत आपसी मतभेदों व
निजी स्वार्थों के कारण अस्थिरता का शिकार था
और विदेशी आक्रमणकारियों के निशाने पर था। इससे
पूर्व नादिरशाह व अहमदशाह अब्दाली कई बार
आक्रमण कर चुके थे और भयंकर तबाही के साथ-साथ
भारी धन-धान्य लूटकर ले जा चुके थे।
सन् 1747 में अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह का
उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। अहमदशाह अब्दाली ने
अगले ही वर्ष 1748 में भारत पर आक्रमण की शुरूआत कर
दी। 23 जनवरी, 1756 को चौथा आक्रमण करके उसने
कश्मीर, पंजाब, सिंध तथा सरहिन्द पर अपना
आधिपत्य स्थापित कर लिया। वह अप्रैल, 1757 में
अपने पुत्र तैमुरशाह को पंजाब का सुबेदार बनाकर
स्वदेश लौट गया। इसी बीच तैमूरशाह ने अपने रौब को
बरकरार रखते हुए एक सम्मानित सिक्ख का घोर
अपमान कर डाला। इससे क्रोधित सिक्खों ने मराठों
के साथ मिलकर अप्रैल, 1758 में तैमूरशाह को देश से
खदेड़ दिया। जब इस घटना का पता अहमदशाह
अब्दाली को लगा तो वह इसका बदला लेने के लिए
एक बार फिर भारी सैन्य बल के साथ भारत पर
पाँचवां आक्रमण करने के लिए आ धमका। उसने आते ही
पुन: पंजाब पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस घटना
को मराठों ने अपना अपमान समझा और इसका बदला
लेने का संकल्प कर लिया। पंजाब पर कब्जा करने के
उपरांत अहमदशाह अब्दाली रूहेला व अवध नवाब के
सहयोग से दिल्ली की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। उसने
1 जनवरी, 1760 को बरारघाट के नजदीक दत्ता जी
सिन्धिया को युद्ध में परास्त करके मौत के घाट उतार
दिया। इसके बाद उसने 4 मार्च, 1760 को मल्हार राव
होल्कर व जनकोजी आदि को भी युद्ध में बुरी तरह
पराजित कर दिया।
मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ
अफगान सेनानायक अहमदशाह अब्दाली
अहमदशाह के निरन्तर बढ़ते कदमों को देखते हुए
मरा��ा सरदार पेशवा ने उत्तर भारत में पुन: मराठा
का वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपने शूरवीर
यौद्धा व सेनापति सदाशिवराव भाऊ को तैनात
किया और इसके साथ ही अपने पुत्र विश्वास राव को
प्रधान सेनापति बना दिया। सदाशिवराव भाऊ
भारी सैन्य बल के साथ 14 मार्च, 1760 को अब्दाली
को सबक सिखाने के लिए निकल पड़ा। इस जंग में
दोनों तरफ के सैन्य बल में कोई खास अन्तर नहीं था।
दोनों तरफ विशाल सेना और आधुनिकतम हथियार थे।
इतिहासकारों के अनुसार सदाशिवराव भाऊ की
सेना में 15,000 पैदल सैनिक व 55,000 अश्वारोही
सैनिक शामिल थे और उसके पास 200 तोपें भी थीं।
इसके अलावा उसके सहयोगी योद्धा इब्राहिम गर्दी
की सैन्य टूकड़ी में 9,000 पैदल सैनिक और 2,000 कुशल
अश्वारोहियों के साथ 40 हल्की तोपें भी थीं।
जबकि दूसरी तरफ, अहमदशाह अब्दाली की सेना में
कुल 38,000 पैदल सैनिक और 42,000 अश्वारोही
सैनिक शामिल थे और उनके पास 80 बड़ी तोपें थीं।
इसके अलावा अब्दाली की आरक्षित सैन्य टूकड़ी में
24 सैनिक दस्ते (प्रत्येक में 1200 सैनिक), 10,000 पैदल
बंदूकधारी सैनिक और 2,000 ऊँट सवार सैनिक
शामिल थे। इस प्रकार दोनों तरफ भारी सैन्य बल
पानीपत की तीसरी लड़ाई में आमने-सामने आ खड़ा
हुआ था।
14 जनवरी, 1761 को सुबह 8 बजे मराठा सेनापति
सदाशिवराव भाऊ ने तोपों की भयंकर गर्जना के
साथ अहमदशाह अब्दाली का मुँह मोड़ने के लिए
धावा बोल दिया। दोनों तरफ के योद्धाओं ने अपने
सहयोगियों के साथ सुनियोजित तरीके से अपना
रणकौशल दिखाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते
शुरूआत के 3 घण्टों में दोनों तरफ वीर सैनिकों की
लाशों के ढ़ेर लग गए। इस दौरान मराठा सेना के छह
दल और अब्दाली सेना के 8,000 सैनिक मौत के
आगोश में समा चुके थे। इसके बाद मराठा वीरों ने
अफगानी सेना को बुरी तरह धूल चटाना शुरू किया
और उसके 3,000 दुर्रानी सैनिकों को मौत के घाट
उतार दिया। अब्दाली सेना में मराठा सेना के आतंक
का साया बढ़ने लगा। लेकिन, दूसरे ही पल अब्दाली व
उसके सहयोगियों ने अपने युद्ध की नीति बदल दी और
उन्होंने चक्रव्युह रचकर अपनी आरक्षित सेना के ऊँट
सवार सैनिकों के साथ भूख-प्यास से व्याकुल हो
चुकी मराठा सेना पर एकाएक भीषण हमला बोल
दिया। इसके बाद बाजी पलटकर अब्दाली की तरफ
जा पहुंची।
मराठा वीरों को अब्दाली के चक्रव्युह से जान
बचाकर भागना पड़ा। सदाशिवराव भाऊ की
स्थिति भी एकदम नाजुक और असहाय हो गई। दिनभर
में कई बार युद्ध की बाजी पलटी। कभी मराठा सेना
का पलड़ा भारी हो जाता और कभी अफगानी
सेना भारी पड़ती नजर आती। लेकिन, अंतत: अब्दाली
ने अपने कुशल नेतृत्व व रणकौशल की बदौलत इस जंग
को जीत लिया। इस युद्ध में अब्दाली की जीत के
साथ ही मराठों का एक अध्याय समाप्त हो गया।
इसके साथ ही जहां मराठा युग का अंत हुआ, वहीं, दूसरे
युग की शुरूआत के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व
भी स्थापित हो गया। इतिहासकार सिडनी ओवेन ने
इस सन्दर्भ में लिखा कि – “पानीपत के इस संग्राम के
साथ-साथ भारतीय इतिहास के भारतीय युग का अंत
हो गया।”
पानीपत के तीसरे संग्राम में भारी हार के बाद
सदाशिवराव भाऊ के सन्दर्भ में कई किवदन्तियां
प्रचलित हैं। पहली किवदन्ती यह है कि सदाशिवराव
भाऊ पानीपत की इस जंग में शहीद हो गए थे और
उसका सिर कटा शरीर तीन दिन बाद लाशों के ढ़ेर में
मिला था। दूसरी किवदन्ती के अनुसार सदाशिवराव
भाऊ ने युद्ध में हार के उरान्त रोहतक जिले के सांघी
गाँव में आकर शरण ली थी। तीसरी किवदन्ती यह है
कि भाऊ ने सोनीपत जिले के मोई गाँव में शरण ली
थी और बाद में नाथ सम्प्रदाय में दक्ष हो गए थे। एक
अन्य किवदन्ती के अनुसार, सदाशिवराव भाऊ ने
पानीपत तहसील में यमुना नदी के किनारे ‘भाऊपुर’
नामक गाँव बसाया था। यहां पर एक किले के अवशेष
भी थे, जिसे ‘भाऊ का किला’ के नाम से जाना
जाता था।
पानीपत की लड़ाई मराठा वीर विपरित
परिस्थितियों के कारण हारे। उस दौरान दिल्ली और
पानीपत के भीषण अकालों ने मराठा वीरों को
तोड़कर कर रख दिया था। मैदान में हरी घास का
तिनका तक दिखाई नहीं दे रहा था। मजबूरी में पेड़ों
की छाल व जड़ें खोदकर घास के स्थान पर घोड़ों को
खिलानी पड़ीं। सेनापति सदाशिवराव भाऊ भी
भूख से जूझने को विवश हुआ और सिर्फ दूध पर ही
आश्रित होकर रह गया। छापामार युद्ध में माहिर
मराठा सेना को पानीपत के समतल मैदान में अपनी
इस विद्या का प्रयोग करने का भी मौका नहीं मिल
पाया। अत्याधुनिक हथियारों और तोपों का
मुकाबला लाखों वीरों ने अपनी जान गंवाकर
किया। परिस्थिति और प्रकृति की मार ने मराठा
वीरों के हिस्से में हार लिख दी।
सांसद यशोधरा राजे सिंधिया के अनुसार, ‘पानीपत
का तृतीय संग्राम एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर रहा
है। पानीपत संग्राम में लाखों मराठाओं ने अपना
जीवन न्यौछावर कर दिया।’ इतिहासकार डा. शरद
हेवालकर के कथनानुसार, ‘पानीपत का तीसरा युद्ध,
विश्व के इतिहास का ऐसा संग्राम था, जिसने पूरे
विश्व के राजनीतिक पटल को बदलकर रख दिया।
पानीपत संग्राम हमारे राष्ट्रीय जीवन की जीत है,
जो हमारी अखण्डता के साथ चलती आई है।’
पानीपत की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की
महत्वपूर्ण धरोहर है। इस जंग में बेशक मराठा वीरों को
हार का सामना करना पड़ा हो, लेकिन भारतीय
इतिहास में उनकी वीरता का अमिट यशोगान अंकित
हो चुका है। हरियाणा की धरती पर लड़ी गई यह
लड़ाई, आज भी यहां के लोगों के जहन में गहराई तक
रची बसी है। मराठा वीरों के खून से सनी पानीपत
की मिट्टी को आज भी बड़े मान, सम्मान एवं गौरव
के साथ नमन किया जाता है। मराठा वीरों के खून से
मैदान में खड़ा आम का पेड़ भी काला पड़ गया था।
इसी कारण यहां पर युद्धवीरों की स्मृति में
उग्राखेड़ी के पास ‘काला अंब’ स्मारक बनाया गया
और इसे हरियाणा प्रदेश की प्रमुख धरोहरों में शामिल
किया गया। इन सबके अलावा पानीपत में ही एक
देवी का मन्दिर है। यह मन्दिर मराठों की स्मृति का
द्योतक है। इसे मराठा सेनापति गणपति राव पेशवा ने
बनवाया था।
देवी का मन्दिर
मराठा वीरों की वीरता से जुड़े गीत, भजन, आल्हा,
अलग-अलग किस्से, कहानियों का ओजस्वी रंग
हरियाणवी लोकसंस्कृति में सहज देखा जा सकता है।
जोगी मराठा वीरों की वीरता के लोकगीत गाते
हुए गर्व महसूस करते हैं। एक हरियाणवी गीत में
सदाशिवराव भाऊ की माँ युद्व के लिए निकल रहे
भाऊ को शनवार बाड़े की ड्योढ़ी पर रोक लेती है
और अपनी चिन्ता प्रकट करते हुए कहती है –
तू क्या शाह से लड़ेगा मन में गरवाया।
बड़े राव दत्ता पटेल का सिर तोड़ भगाया।
शुकताल पै भुरटिया ढूंढा ना पाया।
बेटा, दक्खिन बैठ करो राज, मेरी बहुत ही माया।
(अर्थात्, बेटा! तू अब्दाली से लड़ने और उसे हराने के
अहंकार को मन से निकाल दो। तुम जानते हो कि
उसने शुक्रताल पर दत्ता जी की गर्दन उतारकर कैसी
दुर्दशा कर दी थी। इसलिए बेटा, तू दक्षिण में बैठकर
राज कर ले, हमारे पास बहुत बड़ी धनमाया है।)
माँ के मुँह से ऐसी बात सुनकर इस लोकगीत में शूरवीर
भाऊ जवाब देता है –
भाऊ माता से कहै एक अर्ज सुणावै।
कहै कहाणी बावली, क्यूं हमनैं डरावै।
मेरा नवलाख लेज्या दखनी कौण सामनै आवै।
अटक नदी मेरी पायगा घोड़ों के जल प्यावै।
तोप कड़क कै खुणे देश गणियर गरजावै।
दखन तो सोई आवैंगे जिननैं हरलावै।
(अर्थात्, हे माता, तुम मुझे क्यों रोक रही हो? मुझे यह
कहानी सुनाकर इतना क्यो डरा रही हो? मेरे सामने
भला कौन ठहर सकता है। मैं अपने घोड़ों को अटक
नदी का पानी पिलाकर आऊँगा। अपनी
शक्तिशाली तोपों की मार से सभी शत्रुओं के छक्के
छुड़ा दुँगा। भगवान की कृपा से मैं दक्षिण सकुशल
वापस तो आऊँगा ही, इसके साथ ही गिलचा को
पूरा तबाह करके आऊँगा।)
इस प्रकार मराठा वीरों की गाथाएं न केवल
हरियाणा की संस्कृति में गहराई तक रची बसी हैं,
इसके साथ ही यहां के लोगों में उनके प्रति अगाध
श्रद्धा भरी हुई है। उदाहरण के तौरपर जब कोई छोटा
बच्चा छींकता है तो माँ के मुँह से तुरन्त निकलता है,
‘ जय छत्रपति माई रानियां की।’ इसका मतलब यहां
की औरतें अपनी ईष्ट देवी के साथ-साथ मराठो की
वीरता का प्रतीक छत्रपति शिवाजी का भी स्मरण
करती हैं। केवल इतना ही नहीं हरियाणा में निवास
करने वाली रोड़ जाति उसी पुरानी मराठा परंपरा
को संजोए हुए है। इस जाति का मानना है कि
पानीपत के तीसरे युद्ध में करारी हार होने के कारण
काफी संख्या में मराठे वीर दक्षिण नहीं ग�� और
यहीं पर बस गए और वे उन्हीं वीरों के वंशज हैं। जो
मराठा वीर यहीं बस गए थे, वे ही बाद में रोड़ मराठा
के नाम से जाने गए। इस प्रकार हरियाणा प्रदेश
मराठों के शौर्य एवं बलिदान को अपने हृदय में बड़े गर्व
एवं गौरव के साथ संजोए हुए है ।