Posted in स्मरण शक्ति - Memory power

ऐसा मंत्र जिससे स्मरण शक्ति बढती है और पढ़ा हुए कभी भूलते नहीं है


ऐसा मंत्र जिससे स्मरण शक्ति बढती है और पढ़ा हुए कभी भूलते नहीं है

तंत्र मंत्र में बेहद शक्ति होती है जिसका प्रमुख कारण हमारे प्राचीन वैदिक विद्वानों व ऋषियों द्वारा बेहद वैज्ञानिक ढंग से उनका रचा गया होना है।
उदाहरणस्वरूप अगर आप संस्कृत भाषा में लिखी गई कोई भी किताब या ग्रंथ कुछ देर पढ़ लेते हैं तो आपके मन मष्तिष्क में एक अजीब सी उर्जा का संचार होता है जो हमें एक अलग हे माहौल में ले जाता है। इसका कारण है वैज्ञानिक भाषा मानी जाने वाली संस्कृत भाषा में रचे गये ग्रंथो का सुसंगठित तरीके से संकलित होना।
हमारे वेदों शास्त्रों और पुराणों उपनिषदों में ऐसे अनगिनत मंत्र हैं जो किसी चमत्कारिक औषधि से कम नही है ।  ऐसा ही एक पावन मंत्र है यह स्मरण शक्ति बढाने का मंत्र जिसके नित प्रतिदिन अभ्यास से हमारी स्मरण शक्ति काफी अच्छी हो जाती है ।
यह मंत्र इस प्रकार है :

” ॐ नमो भगवती सरस्वती परमेश्वरी वाक्य वादिनी है विद्या देही भगवती हंसवाहिनी बुद्धि में देही प्रज्ञा देही, देही विद्या देही देही परमेश्वरी सरस्वती स्वाहा “

मंत्रोच्चारण की विधि – यह मंत्र अत्यन्त तीव्र एवं प्रभावी होता है। बसंत पंचमी के दिन या किसी भी रविवार को सरस्वती माता के चित्र के समक्ष दूध से बना प्रसाद चढ़ाकर उक्त मंत्र का विधि पूर्वक 11माला जप करें तथा खीर का भोजन करें तो यह मंत्र सिद्ध हो जाता है।
इसके पश्चात जब भी पढ़ने बैठे इस मंत्र का 7 बार जप करें तो पढ़ा हुआ स्मरण रहता है और बुद्धि तीव्र होती है।
स्रोत : ज्योतिष के जाने माने विद्वान योगेश मिश्र जी
Posted in नहेरु परिवार - Nehru Family

मेमुना बेगम


इंदिरा गाँधी कहें या मेमुना बेगम – क्या है उनकी सच्चाई ! इंदिरा गांधी के प्रेम संबंधों का सनसनीखेज खुलासा?

आज तक आपने कभी इंदिरा गांधी के जीवनकाल में झाँकने की कोशिश की है?

आपने यदि ऐसा किया होता तो आप गांधी परिवार का पूरा सच जान चुके होते. किन्तु देश ने बड़े उम्मीदों के साथ एक महिला को प्रधानमंत्री चुना था लेकिन वह शायद इस पद के लायक ही नहीं थीं.

जिस तरह से इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल दिया और कई दंगों में अपनी चुनावी रोटियाँ बनाई थीं, शायद उसे आप नहीं जानते हैं.

आज हम आपको इंदिरा गांधी के मेमुना बेगम बनने तक के सफ़र पर लेकर जायेंगे और साथ ही साथ यह बतायेंगे कि कैसे रवीन्द्रनाथ टैगौर ने इंदिरा को उनके खराब आचरण के चलते अपने विश्वविद्यालय से निकाल दिया था-

शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय में जर्मन टीचर से प्रेम संबंध

इंदिरा गांधी बड़ी उम्मीदों के साथ ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय भेजा गया था ताकि वह ऑक्सफ़ोर्ड के बाद भारत देश का भला कर सकें. लेकिन देखिये कि जल्द ही इंदिरा को वहां से खराब प्रदर्शन के कारण निकाल दिया जाता है.

तब नेहरू जी ने इनको शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय में भर्ती कराया गया था. जैसा कि शायद आपको पता ना हो कि शान्तिनिकेतन रवीन्द्रनाथ टैगौर जी चला रहे थे. लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने भी इंदिरा को खराब आचरण के कारण वहां से निकाल दिया था. तो आखिर इंदिरा गाँधी में ऐसा क्या था कि वह कहीं भी अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रही थीं. असल में आपको गांधी परिवार की पूरी सच्चाई जरूर पता होनी चाहिए. एक स्त्री खराब आचरण के कारण विश्वविद्यालय से निकाल दी जाती हैं किन्तु वह इस लायक जरूर है कि वह देश की प्रधानमंत्री बन जाती है.

ऐसा बोला जाता है कि रवीन्द्रनाथ टैगौर को इंदिरा गाँधी के प्रेम संबंधों का पता चल गया था. कैथरीन फ्रैंक की पुस्तक “the life of Indira Nehru Gandhi”  में इंदिरा गांधी के अन्य प्रेम संबंधों के कुछ पर प्रकाश डाला गया है. इस पुस्तक में साफ लिखा है कि इंदिरा का पहला प्यार शान्तिनिकेतन में जर्मन शिक्षक के साथ था. बाद में वह एम ओ मथाई, (पिता के सचिव) धीरेंद्र ब्रह्मचारी (उनके योग शिक्षक) के साथ और दिनेश सिंह (विदेश मंत्री) के साथ भी अपने प्रेम संबंधो के लिए प्रसिद्द हुई.

सबूत के लिए पढ़िए यह पुस्तकें

के.एन. राव की पुस्तक “नेहरू राजवंश” (10:8186092005 ISBN),

कैथरीन फ्रैंक की पुस्तक “The Life of Indira Nehru Gandhi (ISBN: 9780007259304),

पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की पुस्तक Profiles And Letters ” (ISBN: 8129102358).

आप बस इतना कीजिये कि यह तीन पुस्तकें पढ़ लीजिये और तब आप गाँधी परिवार के ऐसे-ऐसे राज जान जाओगे कि आपके पैरों से जमीन खिसक जाएगी. किस तरह से इंदिरा गाँधी ने अपने निजी लाभ के लिए रिश्तों तक का खून कर दिया और सत्ता में बने रहने के लिए कैसे देश तक का अहित किया गया था.

क्या मुस्लिम लोगों से नेहरू नफरत करते थे ?

शान्तिनिकेतन से जब इंदिरा गाँधी घर आ गई तो वह एकदम अकेली हो गयी थीं. उस समय तक इनकी माँ की मौत हो ही गयी थी. कहते हैं कि इनके इस अकेलेपन का फायदा फ़िरोज़ खान नाम के व्यापारी ने उठाया. यह व्यक्ति शराब का व्यापारी था. फ़िरोज़ खान और इंदिरा गाँधी के बीच प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गए. दोनों ने लन्दन की मस्जिद में जाकर निकाह भी कर लिया था. इस तरह से इंदिरा गाँधी मुस्लिम धर्म अपना चुकी थीं. इंदिरा ने अपना नाम मेमुना बेगम रखा था. तो इसमें किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए.

लेकिन तभी जवाहरलाल नेहरू अपने प्रधानमंत्री पद का डर सताने लगता है और वह एक मुस्लिम युवक को उसका धर्म परिवर्तन कराने के लिए राजी करते हैं. फिरोज खान को फिरोज गांधी बनाया जाता है.

अब इस तरह से तो साफ हो जाता है कि नेहरू मुस्लिम लोगों से जलते थे. तभी शायद एक व्यक्ति को फिरोज खान से फिरोज गांधी बनने को मजबूर किया गया था.

इंदिरा गाँधी का यह सच जनता तक पहुँचाने की सख्त जरूरत हो गयी है.

जिस तरह से यह परिवार हिन्दू-मुस्लिम लोगों का उपयोग अपने हित को पूरा करने के लिए कर रहा है तो अब वक़्त आ गया है कि गांधी परिवार के हर व्यक्ति का काला चिठ्ठा खोलकर जनता के सामने पेश किया जाये.

Posted in भारत गौरव - Mera Bharat Mahan

तीन ग्रह जिन्हें आधुनिक विज्ञान ने नहीं, सर्वप्रथम वेद व्यास ने पहचाना था


तीन ग्रह जिन्हें आधुनिक विज्ञान ने नहीं, सर्वप्रथम वेद व्यास ने पहचाना था

तीन ग्रह जिन्हें आधुनिक विज्ञान ने नहीं, सर्वप्रथम वेद व्यास ने पहचाना था —> आपको ये जानना चाहिए कि प्राचीनतम काल में योगी-महर्षि वस्तुतः वैज्ञानिक गतिविधियों में संलग्न होते थे ! उनके द्वारा बहुत गहन अनुसंधान किया जाता था जिसे आप तपस्या भी कह सकते हैं ! इसी तपस्या के बल पर वे चौंकाने वाले तथ्यों की खोज करने में सक्षम होते थे ! आइए आज हम आपको कुछ ऐसी नई जानकारियां देते हैं, जिन्हें जानकर आपको भारतीय पौराणिक कथाओं और ज्ञान-विज्ञान पर अगाध निष्ठा हो जाएगी !

विज्ञान की दृष्टि से ही नहीं वरन् ज्योतिष के क्षेत्र में भी सौर मंडल बेहद अहम भूमिका निभाता है ! सौर मंडल के ग्रहों के अनुरूप ही ब्रह्मांड का कार्य सुचारू रूप से चलता है यहां तक कि ग्रह भी अन्य ग्रहों के प्रभाव से अछूते नहीं रहते ! धरती, जो कि सौरमंडल का ही एक ग्रह है भी अन्य ग्रहों के प्रभाव से अनछुआ नहीं है !

तीन ग्रह जिन्हें आधुनिक विज्ञान ने नहीं, सर्वप्रथम वेद व्यास ने पहचाना था
तीन ग्रह जिन्हें आधुनिक विज्ञान ने नहीं, सर्वप्रथम वेद व्यास ने पहचाना था

यह तो हुआ वैज्ञानिक पक्ष लेकिन ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी सभी 12 राशियां भी इन ग्रहों से प्रभावित होती हैं ! उल्लेखनीय है कि कई हजार साल पहले जब सौरमंडल की खोज नहीं हुई थी तब तक यही माना जाता था कि ऐसी कोई भी व्यवस्था है ही नहीं ! लेकिन जैसे-जैसे सौर मंडल के अस्तित्व से जुड़े राज खुलने लगे, वैसे-वैसे यह महसूस किया जाने लगा कि इसके बिना धरती क्या इंसान का भी कोई वजूद नहीं है !

यह भी पढ़ें : जानें लंदन के इस ‘हिन्दू स्कूल’ के बारे में जो पूर्णतया हिन्दू परंपरा पर आधारित है

कथित तौर पर सौर मंडल की खोज के कई वर्षों बाद वैज्ञानिकों ने यूरेनस, नेप्च्यून और प्लूटो की खोज की थी ! दस्तावेजों के अनुसार 13 मार्च, 1781 ईसवी को विलियम हर्शल ने टेलिस्कोप के जरिए यूरेनस को खोजा था ! वहीं कुछ महीनों बाद जर्मनी के खगोल शास्त्री जोहान गैल और उनके शिष्य हेनरिक लूइस ने नेप्च्यून के अस्तित्व से पर्दा हटाया ! प्लूटो की खोज तो खैर आधुनिक युग में की गई है ! इसलिए यह सौर मंडल का सबसे कम उम्र का ग्रह कहा जाता है !

लेकिन पौराणिक दस्तावेज इन सभी बातों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं ! आपको जानकर हैरानी होगी कि वेद व्यास द्वारा रचित महाभारत में स्वयं उन्होंने इन तीनों ग्रहों का वर्णन किया था ! हालांकि वेद व्यास ने इन तीनों ग्रहों को अलग-अलग नाम दिए थे लेकिन अपने ग्रंथ की रचना के दौरान उन्होंने इन तीनों ग्रहों को अलग-अलग नाम दिए थे !

ईशा मसीह हिन्दू थे, करते थे भगवान शिव की पूजा : क्राइस्‍ट परिचय किताब

वेद व्यास ने महाभारत की एक पंक्ति में उल्लेख किया है ‘एक हरे-सफेद रंग का ग्रह चित्रा नक्षत्र के पास से गुजरा है’ ! इसके अलावा सत्रहवीं शताब्दी के मध्य वाराणसी में रहने वाले महान पंडित नीलकंठ चतुर्धर को भी यूरेनस या श्वेत के बारे में जानकारी थी ! उल्लेखनीय है कि यूरेनस का रंग हरे और सफेद का मिश्रण है ! महाभारत को अपने शब्दों में बयां करते हुए नीलकंठ ने इस बात का जिक्र किया था कि श्वेत या महापात (ऐसा ग्रह जिसकी कक्षा सबसे बड़ी हो), खगोलशास्त्र का बेहद महत्वपूर्ण और चर्चित ग्रह है ! इसके अलावा नीलकंठ ने यह भी जिक्र किया था कि श्वेत ग्रह शनि या सैटर्न के पार है ! वहीं श्याम (नील और सफेद रंग का मिश्रण) या नेपच्यून ज्येष्ठा नक्षत्र में था और यह ग्रह धुएं से भरा है ! अब आप सोचेंगे कि व्यास को इन ग्रहों के रंग का कैसे पता चला तो इसका जवाब भी महाभारत में छिपा है ! महाभारत के अंदर शीशों और सूक्ष्म दृष्टि का जिक्र भी किया गया है ! इसके अलावा पौराणिक साहित्यों में दूरबीनी यंत्र का भी जिक्र है, जिसकी सहायता से दूर की चीजों को देखा जा सकता था !

इसलिए यह माना जा सकता है कि उस दौर में भी लेंस और टेलिस्कोप की सुविधा मौजूद थी ! महाभारत काल के दौरान कृत्तिका और यह तीक्ष्ण ग्रह एक-दूसरे के संयोजन में थे ! कुरुक्षेत्र युद्ध के 16वें दिन यह कहा गया था कि सातों ग्रह, सूर्य से दूर जा रहे हैं, चूंकि राहु और केतु जिनके पास शरीर नहीं सिर्फ परछाई है, को नजरअंदाज किया जा सकता है ! यह कथन स्पष्ट करता है कि महाभारत काल के दौरान भी अन्य तीन ग्रहों यूरेनस, नेप्च्यून और प्लूटो अस्तित्व में थे ! महर्षि व्यास के अनुसार सभी सातों ग्रह बेहद प्रभावशाली और महत्वपूर्ण थे ! लेकिन प्लूटो, जो कि धरती से काफी दूर था, धरती पर ज्यादा प्रभाव नहीं डाल सकता था इसलिए इसे नजरअंदाज ही किया जाता था !

Posted in भारतीय मंदिर - Bharatiya Mandir

अतुल्य भारत : मांडूक तंत्र पर आधारित देश का एकमात्र मेंढक मंदिर



उत्तर प्रदेश में लखनऊ से सीतापुर मार्ग पर लखीमपुर खीरी से लगभग 12 कि.मी. दूर ओएल कस्बा है. यहां भारत का एकमात्र मेंढक मंदिर स्थित है. लखीमपुर खीरी लखनऊ संभाग के अतंर्गत लखनऊ से उत्तर-पूर्व में स्थित है. यह जनपद पश्चिम में शाहजहांनपुर तथा पीलीभीत, पूर्व में बहराईच, तथा दक्षिण में हरदोई जिले की सीमाओं को स्पर्श करता है. इसी जिले में दुधुवा राष्ट्रीय उद्यान भी है जिसे देखने प्रति वर्ष सैंकड़ों पर्यटक आते हैं. ये पर्यटक ओयल भी अवश्य जाते हैं. ओयल का जितना पर्यटन की दृष्टि से महत्व है उतना ही धार्मिक दृष्टि से भी महत्व है. लखीमपुर खीरी जिले में कुल छः कस्बे हैं जिनमें से एक है ओयल.

अतीत में ओयल कस्बा प्रसिद्ध तीर्थ नैमिषारण्य क्षेत्र का एक हिस्सा था. नैमिषारण्य और हस्तिनापुर मार्ग में पड़ने वाला कस्बा अपनी कला, संस्कृति तथा समृद्धि के लिए विख्यात था. ओयल शैव सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र था. ओयल के शासक भगवान शिव के उपासक थे. ओयल कस्बे के मध्य में स्थित मेंढक मंदिर पर आधारित प्राचीन शिव मंदिर अद्भुत है.

ओयल का मेंढक मंदिर

मेंढक मंदिर देश में अपने ढंग का अकेला और अनोखा मंदिर है. मेंढक एक ऐसा उभयचर प्राणी है जो वर्षा होने की सूचना देता है. अतः इसे वृष्टि एवं अनावृष्टि से संबंध माना जाता है. यह माना जाता है कि राज्य को सूखे तथा बाढ़ की प्राकृतिक आपदा से बचाने के लिए इस मंदिर का निर्माण कराया गया. अतीत में यह कस्बा नैमिषारण्य क्षेत्रा का एक हिस्सा था. नैमिषारण्य वही प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है जहां दधीचि ने अपनी अस्थियां देवताओं को प्रदान की थीं. अतः यह सम्पूर्ण क्षेत्र प्राचीनकाल से धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्रियाकलापों का केन्द्र रहा है.

ओयल के मेंढक मंदिर का शिखर

ओयल शैव सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र था. और यहां के शासक भगवान शिव के उपासक थे. ओयल कस्बे के मध्य में स्थित मंडूक यंत्र पर आधारित प्राचीन शिव मंदिर इस कस्बे की ऐतिहासिक गरिमा को प्रमाणित करता है. ग्यारहवीं शती के बाद से यह क्षेत्रा चाहमान शासकों के आधीन रहा. 19 वीं सदी के प्रारम्भ में चाहमान वंश के तत्कालीन यशस्वी राजा बख्श सिंह ने जन कल्याण की भावना से प्रेरित हो कर इस अद्भुत मंदिर का निर्माण कराया. मंदिर की वास्तु परिकल्पना कपिला के एक महान तांत्रिक ने की थी. तंत्रवाद पर आधारित इस मंदिर की वास्तु संरचना अपनी विशेष शैली के कारण ध्यान आकृष्ट करती है.

मंदिर के आधार पर विशालकाय मेंढक-आकृति

ओयल में विशालकाय मेंढक मंदिर प्राचीन तांत्रिक परम्परा का एक महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं. मेंढक मंदिर अड़तीस मीटर लम्बाई, पच्चीस मीटर चौड़ाई में निर्मित एक मेढक की पीठ पर बना हुआ है. पाषाण निर्मित मेंढक का मुख तथा अगले दो पैर उत्तर की दिशा में हैं. मेंढक का मुख 2 मीटर लम्बा, डेढ़ मीटर चौड़ा तथा 1 मीटर ऊंचा है.  इसके पीछे का भाग 2 मीटर लम्बा तथा 1.5 मीटर चौड़ा है. पिछले पैर दक्षिण दिशा में दिखाई हैं. मेंढक की उभरी हुई गोलाकार आंखें तथा मुख का भाग बड़ा जीवन्त प्रतीत होता है. मेंढक के शरीर का आगे का भाग उठा हुआ तथा पीछे का भाग दबा हुआ है जोकि वास्तविक मेंढक के बैठने की स्वाभविकमुद्रा है.

ग्यारहवीं सदी की तांत्रिक संरचनाओं में अष्टदल कमल का बहुत महत्व रहा है.  ओयल इस मंदिर ही अष्टदल कमल को विशेष महत्व दिया गया है. मंदिर का आधार भाग अष्टदल कमल के आकार का बना हुआ है.

मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग

मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर तथा दूसरा द्वार दक्षिण की ओर है. मंदिर में काले-स्लेटी पाषाण का भव्य शिवलिंग है. जो श्वेत संगमरमर की 1 मीटर उंचाई तथा 0.7 मीटर व्यास की दीर्घा में गर्भगृह के मध्य स्थित है. इस शिवलिंग को भी कमल के फूल पर अवस्थित किया गया है. इसके समीप उत्तर-पूर्व कोने पर श्वेत संगमरमर की निर्मित नंदी वाहन की प्रतिम है. मंदिर के अंदर से सुरंग मार्ग है. जो मंदिर के प्रांगण के बाहर पश्चिम की ओर खुलता है. यह आज भी प्रयोग में लाया जाता है.

अनुमान है कि प्राचीन काल में इस सुरंग मार्ग से राज परिवार तथा विशिष्ट पुजारी गण आते-जाते रहे होंगे. मंदिर का विशाल प्रांगण में जिसके मध्य यह मंदिर निर्मित है लगभग 100 मीटर का वर्गाकार है. मंदिर का निर्माण वर्गाकार जगती के ऊपर किया गया है. मंदिर के ऊपर तक जाने के लिए चारो तरफ सीढ़ियां बनी हैं. सीढ़ियों द्वारा भक्त उस धरातल पर पहुंचता है जहां से उसे आठ कोणीय सतह के उपर जाने का मार्ग मिलता है. इस कोण के बाद अष्टदल कमल की अर्द्धवृत्ताकार पंखुड़ियों को पार कर तीन वृत्ताकार सीढ़ियों के बाद अष्टकोणीय धरातल है. यहां पर चतुष्कोणीय गर्भगृह है.

मंदिर का निर्माण ईंटों और चूने के गारे से किया गया है. इसमें सबसे नीचे एक विशाल मेंढक का निर्माण किया गया है. उसके ऊपर पांच मीटर उंची जगती बनाई गई है. जिसके चारो तरफ पांच सीढ़ियां हैं. मंदिर की बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं, साधु-संतों और योगियों की विभिन्न मुद्राओं में प्लास्टर निर्मित मूर्तियां हैं. सबसे ऊपर मंदिर का गुम्बदाकार शिखर है. मंदिर के चारो कोनों पर चार अन्य छोटे मंदिर निर्मित किए गए हैं. ये मंदिर भी वास्तु संरचना में अष्टकोणीय हैं. किसी भी छोटे मंदिर में देव मूर्ति की स्थापना नहीं की गई है. मंदिर का भीतरी भाग दांतेदार मेहराबों, पद्म पंखुड़ियों , पुष्प पत्र अलंकरणों से चित्रांकित है. मंदिर के मुख्य गर्भगृह में सहस्त्र कमल दलों से अलंकृत सफेद संगमरमर की दीर्घा है. मंदिर के चारो ओर लगभग 150 मीटर वर्गाकार में चहारदीवारी निर्मित है.

मंदिर की दीवारों पर तथा चारो कोनों पर बने लघु मंदिरों की दीवारों पर शिव साधना में रत अनेक आकृतियां उत्कीर्ण हैं. इनमें खड्ग धारिणी देवी चामुण्डा, मोरनी पर आरूढ़ चार शीश वाले देवता तथा आत्म-बलि के दृश्य बने हुए हैं. चार सिर वाले देवता का चौथा सिर मुख्या सिर के ठीक ऊपर बनाया गया है. इनके ठीक पीछे एक अन्य देवता विराजमान हैं. आत्म-बलि का दृश्य अद्भुत है. इसमें एक स्त्री को करवट लेटे हुए एक पुरूष के शरीर पर बैठे हुए दिखाया गया है. वह स्त्री अपने दाएं हाथ में धारदार हथियार रखे हुए है तथा उसके बाएं हाथ में उसका कटा हुआ सिर है जिसका मुख खुला हुआ है. कटी हुई गरदन से रक्त की धार निकल कर खुले हुए मुख में गिर रही है. मूलतः यह स्व-रक्तपान का दृश्य है जो तांत्रिक अनुष्ठान की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करता है. उस स्त्री के दोनों पार्श्व में सेविकाएं खड़ी हुई हैं  जो इस तांत्रिक क्रिया की साक्षी एवं सहयोगिनी हैं.

मंदिर की बाहरी दीवार पर जिन विशालकाय ताखों में तांत्रिक क्रियाओं वाली मूर्तियों को प्रदर्शित किया गया है वे बेल-बूटे के सुन्दर अंकनों से सुसज्जित हैं. मंदिर की भीतरी दीवारों को भी सुंदर बेल-बूटों से सजाया गया है.  मंदिर की जगती पर पूर्व की ओर लगभग 2 फुट व्यास का एक कुआं बना हुआ है. ऐसा प्रतीत होता है कि इस कुए का जल-स्तर भूतल के समानांतर है. मंदिर के उत्तर में 2 की.मी. लम्बा और 1 कि.मी. कुण्ड है जो संभवतः भक्तजन के स्नान के लिए बनाया गया होगा.

यूं तो देश के अनेक स्थान पर तंत्रवाद से संबंधित मंदिर एवं प्रतिमाएं पाई जाती हैं जिनमें चौसठ योगिनियों के मंदिर प्रमुख हैं किन्तु ‘मांडूक तंत्र’ पर आधारित यह मेंढक मंदिर अद्वितीय है.

– डॉ. शरद सिंह

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

भगत सिंह के साथ बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह हकदार थे


शहीद-ए-आजम भगत सिंह के साथ नेशनल असेम्बली में बम फेंकने वाले क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त को वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। दत्त का जीवन भारत की स्वतंत्रता के बाद भी संघर्ष की गाथा बना रहा। बटुकेश्वर दत्त की न केवल जिन्दगी, बल्कि उनकी स्मृति की भी आजाद भारत में घोर उपेक्षा हुई।

इस बात का खुलासा, नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताब “बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह के सहयोगी” में किया गया है। अनिल वर्मा द्वारा लिखी गयी यह संभवत: पहली ऐसी किताब है, जो उनके जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज होने के साथ-साथ स्वतंत्रता संघर्ष और आजादी के बाद जीवन संघर्ष को उजागर करती है।

इस पुस्तक के मुताबिक, भारत की आजादी के लिए अपनी जवानी जेल में खपाने वाले दत्त ने आजाद भारत में जिन्दगी बिताने के लिए बड़ा संघर्ष किया।

भारत जब आजाद हुआ तो बटुकेश्वर दत्त को भी जेल से छोड़ दिया गया। उनके सामने जीवनयापन की बड़ी समस्या थी। उन्होंने एक सिगरेट कंपनी में एजेन्ट की नौकरी कर ली। बाद में बिस्कुट बनाने का एक छोटा कारखाना खोला, लेकिन नुकसान होने की वजह से इसे बंद कर देना पड़ा।

बटुकेश्वर दत्त को 1964 में अचानक बीमार होने के बाद गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया।

इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखाः

“क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी गलती की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एडियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।”

अखबारों में इस लेख के छपने के बाद, सत्ता में बैठे लोगों के कानों पर जूं रेंगी। पंजाब सरकार उनकी मदद के लिए सामने आई। बिहार सरकार भी हरकत में आई, लेकिन तब तक बटुकेश्वर की हालत काफी बिगड़ चुकी थी। उन्हें 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया।

दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था:

“मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस दिल्ली में मैनें जहां बम डाला था, वहां एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लादा जाऊंगा।”

उन्हें सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया। फिर बाद में एम्स में। वहां जांच में पता चला कि वह कैन्सर से पीड़ित थे और उनकी जिन्दगी के कुछ ही दिन शेष बचे थे। यहां उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जताते हुए कहा कि उनका दाह संस्कार भी उनके मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।

20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर बटुकेश्वर दत्त का निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया।

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

कभी अंग्रेजों ने भारतीय राजा से कर्ज लेकर बनवाया था रेलवे लाइन; ये है पूरी कहानी


आज भले ही भारत को विदेशों से कर्ज लेना पड़ता है, लेकिन एक समय ऐसा था, जब यहां के राजा-महाराजा अंग्रेजों को विकासमूलक कार्यों के लिए कर्ज दिया करते थे।

जी हां, वर्ष 1870 में ब्रिटिश सरकार ने होलकर राजवंश के महाराजा तुकोजीराव होलकर द्वितीय से करोड़ों रुपए का कर्ज लेकर इन्दौर के आसपास रेल लाइन बिछाना शुरू किया था। यह रोचक कहानी आज भी रेलवे के इतिहास में दर्ज है।

महाराजा तुकोजीराव होलकर द्वितीय मध्य रेलवे से होने वाले लाभ को बेहतर समझते थे। उनके द्वारा मुहैया कराए गए एक करोड़ रुपए के शुरुआती कर्ज से अंग्रेजी सरकार ने इन्दौर के नजदीक तीन रेलवे सेक्शन को जोड़ने का काम किया था।

यही नहीं, रेल लाइन बिछाने के लिए महाराजा ने जमीन पूरी तरह निःशुल्क मुहैया करवाई थी।

इस संबंध में 5 मई 1870 को शिमला में वायसरॉय और गर्वनर जनरल इन कौंसिल के समक्ष इस समझौते पर मुहर लगाई गई थी।

यहां रेलवे के तीन सेक्शन इंदौर-खंडवा, इंदौर-रतलाम-अजमेर और इंदौर-देवास-उज्जैन के ट्रैक्स की कुल लम्बाई 117 किलोमीटर थी। अंग्रेजों ने महज सात साल में ही इसका निर्माण पूरा कर लिया और इस पर भाप का इन्जन चलाना शुरू कर दिया गया।

पहाड़ी इलाका होने की वजह से इस सेक्शन में रेल लाइन बिछाना टेढ़ी खीर था। यही नहीं, नर्मदा नदी पर काफी बड़े पुल का निर्माण भी किया गया। रेल इंजन को ट्रैक्स तक लाने के लिए हाथियों का उपयोग किया गया था।

यह तस्वीर लंदन के अखबार में प्रकाशित की गई थी।

Posted in कविता - Kavita - કવિતા

जो चाहा कभी पाया नहीं,


 

जो चाहा कभी पाया नहीं,

जो पाया कभी सोचा नहीं,

जो सोचा कभी मिला नहीं,

जो मिला रास आया नहीं,

जो खोया वो याद आता है,

पर जो पाया संभाला जाता नहीं ,

क्यों अजीब सी पहेली है ज़िन्दगी,

जिसको कोई सुलझा पाता नहीं…

जीवन में कभी समझौता करना पड़े

तो कोई बड़ी बात नहीं है,

क्योंकि, झुकता वही है जिसमें जान होती है,

अकड़ तो मुरदे की पहचान होती है।

ज़िन्दगी जीने के दो तरीके होते है!

पहला: जो पसंद है उसे हासिल करना सीख लो.!

दूसरा: जो हासिल है उसे पसंद करना सीख लो.!

 

 

जिंदगी जीना आसान नहीं होता;

बिना संघर्ष कोई महान नहीं होता.!

 

 

जिंदगी बहुत कुछ सिखाती है;

कभी हंसती है तो कभी रुलाती है;

पर जो हर हाल में खुश रहते हैं;

जिंदगी उनके आगे सर झुकाती है।

चेहरे की हंसी से हर गम चुराओ;

बहुत कुछ बोलो पर कुछ ना छुपाओ;

खुद ना रूठो कभी पर सबको मनाओ;

राज़ है ये जिंदगी का बस जीते चले जाओ।

“गुजरी हुई जिंदगी  कभी याद न कर,

तकदीर मे जो लिखा है उसकी फर्याद न कर…

जो होगा वो होकर रहेगा, तु कल की फिकर मे

अपनी आज की हसी बर्बाद न कर…

हंस मरते हुये भी गाता है और मोर नाचते हुये भी रोता है….

ये जिंदगी का फंडा है बॉस दुखो वाली रात निंद नही आती

और खुशी वाली रात कौन सोता है…

ईश्वर का दिया कभी अल्प नहीं होता;

जो टूट जाये वो संकल्प नहीं होता;

हार को लक्ष्य से दूर ही रखना;

क्योंकि जीत का कोई विकल्प नहीं होता।

🌾🌾🌾

जिंदगी में दो चीज़ें

हमेशा टूटने के लिए ही होती हैं :

“सांस और साथ”

सांस टूटने से तो

इंसान 1 ही बार मरता है;

पर किसी का साथ टूटने से

इंसान पल-पल मरता है।

🌾🌾🌾

जीवन का

सबसे बड़ा अपराध –

किसी की आँख में आंसू

आपकी वजह से होना।

 

और जीवन की

सबसे बड़ी उपलब्धि –

 

किसी की आँख में आंसू

आपके लिए होना।

🌾🌾🌾

जिंदगी जीना

आसान नहीं होता;

 

बिना संघर्ष

कोई महान नहीं होता;

 

जब तक न पड़े

हथोड़े की चोट;

 

पत्थर भी

भगवान नहीं होता।

🌾🌾🌾

जरुरत के मुताबिक जिंदगी जिओ

ख्वाहिशों के मुताबिक नहीं।,

 

क्योंकि जरुरत तो

फकीरों की भी पूरी हो जाती है;

 

और ख्वाहिशें बादशाहों की भी

अधूरी रह जाती है।

🌾🌾🌾

 

मनुष्य सुबह से शाम तक

काम करके उतना नहीं थकता;

 

जितना क्रोध और चिंता से

एक क्षण में थक जाता है।

🌾🌾🌾

दुनिया में

कोई भी चीज़ अपने आपके लिए

नहीं बनी है।

 

जैसे: दरिया

खुद अपना पानी नहीं पीता।

 

पेड़ –

खुद अपना फल नहीं खाते।

 

सूरज –

अपने लिए हररात नहीं देता।

 

फूल –

अपनी खुशबु

अपने लिए नहीं बिखेरते।

 

मालूम है क्यों?

 

क्योंकि दूसरों के लिए ही

जीना ही असली जिंदगी है।

🌾🌾🌾

मांगो

तो अपने रब से मांगो;

 

जो दे तो रहमत

और न दे तो किस्मत;

 

लेकिन दुनिया से

हरगिज़ मत माँगना;

 

क्योंकि दे तो एहसान

और न दे तो शर्मिंदगी।

🌾🌾🌾

कभी भी

‘कामयाबी’ को दिमाग

 

और ‘नकामी’ को दिल में

जगह नहीं देनी चाहिए।

 

क्योंकि,

 

कामयाबी

दिमाग में घमंड

और नकामी दिल में

मायूसी पैदा करती है।

🌾🌾🌾

कौन देता है

उम्र भर का सहारा।,

 

लोग तो जनाज़े में भी

कंधे बदलते रहते हैं।

🌾🌾🌾

कोई व्यक्ति

कितना ही महान क्यों न हो,

 

आंखे मूंदकर

उसके पीछे न चलिए।

 

यदि ईश्वर की

ऐसी ही मंशा होती

तो वह हर प्राणी को

आंख,

नाक,

कान,

मुंह,

मस्तिष्क आदि क्यों देता?

 

Nice Lines

By Gulzar Sahab:-

🌀💦🌀💦🌀💦🌀

पानी से

तस्वीर कहा बनती है,

 

ख्वाबों से

तकदीर कहा बनती है,

 

किसी भी रिश्ते को

सच्चे दिल से निभाओ,

 

ये जिंदगी

फिर वापस कहा मिलती है,

 

कौन किस से

चाहकर दूर होता है,

 

हर कोई अपने हालातों से

मजबूर होता है,

 

हम तो

बस इतना जानते है,

 

हर रिश्ता “मोती”

और हर दोस्त

“कोहिनूर” होता है।

Posted in संस्कृत साहित्य

आरती हर लेती है हर चिंता


आरती हर लेती है हर चिंता

आपकी प्रतिक्रिया

आरती सृष्टि प्रक्रिया का एक तार्किक, प्रयोगातीत और विज्ञानपरक उपक्रम है। दार्शनिक दृष्टिकोंण से देखा जाए तो आरती में समस्त सृष्टि प्रक्रिया समायी हुई है। वस्तुतः इसमें बताया गया है कि कौन सा तत्व कैसे बना और उन तत्वों का अनुक्रम और व्युत्क्रम क्या है। छान्दोय उपनिषद् अर्थात् आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। वेदोक्त सृष्टि प्रक्रिया के अनुरुप आरती में पर्दा खुलते ही सर्व प्रथम साधक ईश्वर को देखता है। उसके प्रथम तत्व शब्द गुणक आकाश के प्रतीक शंख को बजाता है, फिर दूसरे तत्व वायु के प्रतीक चॅवर को डुलाता है अथवा वस्त्र से ही क्रिया प्रदर्शित करता है। इसके बाद तीसरे तत्व अर्थात् अग्नि अथवा धूप से आरती उतारता है। चौथे तत्व जल का प्रदर्शन कुंभारती स्वरुप करता है और अन्तिम पृथ्वी तत्व के लिए अपनी उंगली, अंगूठे आदि अंगों से मुद्राएं प्रदर्शित करता है। दार्शनिक सिद्धांत के अनुसार जिस क्रम से तत्व उत्पन्न होता उस विलोम क्रम से ही एक दूसरे में विलीन हो जाता है और अंत में शेष रह जाता है एक मात्र आत्म तत्व। इसी प्रकार आरती में भी पूर्वोक्त अनुक्रम दिखाने के अनन्तर पुनः व्युत्क्रम आरंभ हो जाता है। पुनः प्रथम मुद्राएं और बाद में जल पूरित शंख भ्रमण, दीप आरती, चॅवर वस्त्र प्रदर्शन और अंत में शंख में लिया जल भक्तों पर छिड़क कर वही एकमात्र ईश्वरीय दर्शन और उनकी परम कृपा की अपेक्षा करता है। आरती का शास्त्रीय रुप वस्तुतः यही है। यदि शंख, वस्त्र, चॅवर उपक्रम नहीं हैं तो मात्र श्रद्धा से हाथ जोड़कर तत्वों से सम्बद्ध पांच उपक्रम-क्रियाएं करता है। यही सृष्टि क्रम के मनन करने का आध्यात्मिक सार-सत है।
हिन्दू वांग्मय में पूजा-अर्चना के पश्चात् आरती द्वारा अपनी भूलों की क्षमा-याचना हेतु प्रायश्चित् करने का विधान वर्णन सर्व विदित है। याचक अपने इष्ट देव से प्रार्थना करता है कि देव अज्ञानतावश किसी कर्म, पूजा-अर्चना में कहीं कोई त्रुटि रह गई हो तो उसके लिए क्षमा करें। मैंने जो मंत्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है, आपकी कृपा से वह निर्विघ्न पूर्ण हो। आरती जिसको आरात्रिक, आरान्तिक अथवा नीराजन भी कहते हैं, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान आदि के अंत में सम्पन्न की जाती है। पूजा-अर्चना में रह गयी त्रुटियां आरती उपक्रम से ही दूर होना मानी गई हैं।
स्कंदपुराण के अनुसार, पूजन मंत्रहीन और क्रियाहीन होने पर ही नीराजन कर लेने से उसमें समस्त पूर्णता आ जाती है।
हरि भक्तविलास में उल्लेख आता है कि आरती होते देखने मात्र से ही कष्टों का निवारण होता है और समस्त पुण्यों की प्राप्ति होती है। जो देवाधिदेव, चक्रधारी श्री विष्णु जी की आरती होते हुए देखता है वह सात जन्मों तक सत्कमरें में जीवन न व्यतीत करने के बाद भी अन्ततः परम पद को प्राप्त होता है।
विष्णु धर्मोत्तर में वर्णन मिलता है कि जो कोई धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती ग्रहण कर लेता है, वह करोड़ों पीढ़ियों का उद्धार तो करता ही है, भगवान के परमपद को भी प्राप्त होता है।
आरती से जपने वाले मूल मंत्र, आरती में प्रयुक्त सामग्री, आरती उतारने का विधान आदि अनेक महत्वपूर्ण बातें सामान्यतः भक्तजनों से बहुत दूर हैं। यदि इनका भी श्रद्धा से पालन कर लिया जाए तो परिणाम और भी अधिक संतोषजनक सिद्ध हो सकते हैं। जिस देव का जिस मंत्र से पूजन किया जाता है, उस मंत्र के द्वारा तीन बार साधक को पुष्पांजलि देनी चाहिए और शंख, घड़ियाल, घंटा आदि महावाद्यों के साथ जयकार करके और अपनी सामर्थ्यनुसार सोना, चांदी, अष्टधातु, पीतल आदि के पात्र में घृत अथवा कपूर से विषम संख्या की बत्तियां जला कर आरती करनी चाहिए।
सामान्यतः पांच बत्तियों से आरती उतारने की प्रथा चलन में है, इसको पंचदीप भी कहते हैं। एक, सात अथवा इससे भी अधिक विषम संख्या में भी बत्तियां बनाकर आरती की जाती है। अपने प्रयोजन के अनुरुप रुई अथवा कच्चे सूत की बत्ती को तदनुसार रंग से रंग कर भी बत्तियां बनाई जाती हैं।
पद्मपुराण के अनुसार कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चंदन की पांच या सात बत्तियां बनाकर अथवा रुई या घी की बत्तियां बनाकर घंटा, शंख आदि नाद के साथ आरती करना चाहिए। दीप माला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवे साष्टांग दण्डवत् से आरती करनी चाहिए।
आरती उतारते समय सर्वप्रथम देव के चरणों में उसको सात बार घुमाना चाहिए। इसके बाद दो बार नाभिदेश और एक-एक बार मुखमंडल तथा अंत में सात बार समस्त अंग में उसको घुमाना चाहिए। यदि देवता की आरती के लिए उनका बीज मंत्र, नीराजन, महावाद्य, घंटिका आदि का पता न हो तो मात्र श्रद्धाभाव रखते हुए सर्व वेदों के बीज प्रणव ॐकार को ही ले लेना चाहिए और आरती इस प्रकार से देव के वाएं से दाएं से घुमाना चाहिए कि ॐ की आकृति बन जाए।  किस देव की आरती कितने बार उतारी जाए इसका वर्णन भी शास्त्रों में मिलता है।
छान्दोग्य उपनिषद में आता है कि जिस देव की जितनी संख्या लिखी हो उतनी ही बार उनकी आरती उतारना चाहिए। जैसे विष्णु, आदित्यों में परिणित होने के कारण द्वादशात्मा माने गए हैं, इसलिए उनकी तिथि भी द्वादश है और महामंत्र भी द्वादशाक्षर है, अतः विष्णु जी की आरती बारह बार उतारनी चाहिए। सूर्य सप्त रश्मि है। सूर्य सप्तमी तिथि के अधिष्ठाता देव हैं इसलिए उसकी आरती सात बार उतारना चाहिए। दुर्गा जी की नव संख्या प्रसिद्ध है, नवमी तिथि है, नव अक्षर का ही नवार्ण मंत्र है अतः उनकी आरती भी नौ बार उतारनी चाहिए। रुद्र एकादश है अथवा शिव चतुर्दशी तिथि के अधिष्ठाता देव हैं अतः उनकी आरती ग्यारह अथवा चौदह बार उतारना चाहिए। गणेश जी चतुर्थ तिथि के अधिष्ठाता देव है। इसलिए उनकी आरती चार बार उतारना चाहिए। इसी प्रकार अन्य देवी-देवताओं की उनमें मंत्र, तिथि से सुनिश्चित कर लेना चाहिए यदि कहीं किसी देव की आरती उतारने के संबंध में भ्रम उत्पन्न तो ॐकार की आकृति बनाते हुए उनमें बाएं से दाएं सात बार आरती घुमानी चाहिए। अधिकांशतः देखने में आता है कि आरती के इस मर्म से अधिकांश लोग अज्ञान है। आरती की लौ पर ध्यान केन्द्रित करते हुए सदैव भाव यही रखना चाहिए कि जिस प्रकार उसकी लौ सदैव उर्घ्वमुखी रहती है उसी प्रकार जीवन भी सदैव उर्घ्वगति को प्राप्त हो।
तांत्रिक और गुह्य दृष्टिकोंण से देखा जाए तो आरती उतारना वस्तुतः एक तांत्रिक उपक्रम ही है। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्यौछावर आदि उपक्रम आरती लेने के पीछे भाव यही है कि सब विघ्न-बाधाएं दूर हों। अघोर तंत्र में कौलाचारी चर्म दीपों में चर्बी के तेल के दीपक जलाकर अनेक अकोर साधनाएं आरती के द्वारा विभिन्न मुद्राएं बनाकर करते हैं।
जो भी है हमारी सनातन संस्कृति में आरती के पीछे कष्टों और दुःखों से निवारण का मर्म सर्वथा सत्य है। अध्यात्म के अनेक उपक्रमों में आरती के साथ उपजी आस्था के पीछे जीवन की पूर्णता और अंततः प्रभु दर्शन का सार-सत सुनिश्चित है। इस आस्था में जीवन यापन करने से साधकों को काम, अर्थ और धर्म लाभ मिलता ही मिलता है।

Posted in हिन्दू पतन

हिंदू क्यों मिट गया?


सनातन धर्म

 

आखिर अफगानीस्तान से हिंदू क्यों मिट गया?
काबुल जो भगवान राम के पुत्र कुश का बनाया शहर था, आज वहाँ एक भी मंदिर नही बचा !
गांधार जिसका विवरण महाभारत मे है, जहां की रानी गांधारी थी, आज उसका नाम कंधार हो चूका है, और वहाँ आज एक भी हिंदू नही बचा !
कम्बोडिया जहां राजा सूर्य देव बर्मन ने दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर अंकोरवाट बनाया, आज वहाँ भी हिंदू नही है !
बाली द्वीप मे 20 साल पहले तक 90% हिंदू थे, आज सिर्फ 20% बचे है !
कश्मीर घाटी मे सिर्फ 20 साल पहले 50% हिंदू थे, आज एक भी हिंदू नही बचा !
केरल मे 10 साल पहले तक 60% जनसंख्या हिन्दुओ की थी, आज सिर्फ 10% हिंदू केरल मे है !
नोर्थ ईस्ट जैसे सिक्किम, नागालैंड, आसाम आदि मे हिंदू हर रोज मारे या भगाए जाते है, या उनका धर्मपरिवर्तन हो रहा है !
मित्रों, 1569 तक ईरान का नाम पारस या पर्शिया होता था और वहाँ एक भी मुस्लिम नही था, सिर्फ पारसी रहते थे.. जब पारस पर मुस्लिमो का आक्रमण होता था, तब पारसी बूढ़े-बुजुर्ग अपने नौजवान को यही सिखाते थे की हमे कोई मिटा नही सकता, लेकिन ईरान से सारे के सारे पारसी मिटा दिये गए.
धीरे-धीरे उनका कत्लेआम और धर्म-परिवर्तन होता रहा. एक नाव मे बैठकर 21 पारसी किसी तरह गुजरात के नवसारी जिले के उद्वावाडा गांव मे पहुचे और आज पारसी सिर्फ भारत मे ही गिनती की संख्या मे बचे है.
हमेशा शांति की भीख मांगने वाले हिन्दुओं… आजतक के इतिहास का सबसे बड़ा संकट हिन्दुओं पर आने वाला है, ईसाईयों के 80 देश और मुस्लिमो के 56 देश है, और हिन्दुओं का एकमात्र देश भारत ही अब हिन्दुओं के लिए सुरक्षित नहीं रहा.
भारत को एक फ़ोकट की धर्मशाला बना दिया गया है, जहाँ इसके मेजबान हिन्दू ही बहुत जल्दी मुस्लिम सेना तैयार करने वाली संस्था PFI द्वारा शुरू होने वाले गृहयुद्ध में कश्मीर की तरह पुरे भारत में हिन्दुओं के हाथ-पैर काट दिए जायेंगे, आंखे निकाल ली जाएँगी, और कश्मीर की ही तरह उनकी सुरक्षा के लिए कही पर भी सरकार नाम की संस्था कोई भी सेना नहीं भेजेगीे, हिन्दू खुद तो ख़तम हो रहा है और समस्त विश्व के कल्याण की बकवास करता फिरता है, जबकि समूचा विश्व उसको पूरी तरह निगल लेने की पूरी तैयारी कर चूका है…
आज तक हिन्दू जितनी अधिक उदारता और सज्जनता दिखलाता रहा है, उसको उतना ही कायर और मुर्ख मानकर उस पर अन्याय और हर तरह का धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक विश्वासघात किया जाता रहा है..
…और हिन्दू है कि आंख बंद करके बस कहावतों में जिंदा रहकर बस भगवान के शांति स्वरूपं की पूजा करते-करते सच में नपुंसक बन चूका है..
जबकि हमारे किसी भी देवी देवता का स्वरुप अश्त्र-शस्त्र के बिना नहीं है, हमारे धर्म में धर्म की परिभाषा के 10 लक्षणों में अहिंसा नाम का कोई शब्द ही नहीं है, रक्षा धर्म ही हम हिन्दुओ की रक्षा कर सकता है…
इसके बाद भी अति भाग्यवादी, अवतारवादी हिन्दुओं ने आज तक अपनी दुर्दशा के इतिहास से कोई सबक न लेकर आज भी सेकुलार्ता का नशा लेकर मुर्छित होकर जी रहा है, और अपने ही शुभचिंतक भाइयों को सांप्रदायिक कहकर उनसे नपुंसक बनने की सीख देता फिरता है..!!

Posted in संस्कृत साहित्य

सप्तर्षि


इसमें शक नहीं कि सप्तर्षि यानी सात ऋषि (सप्त+ऋषि) हमारे दिल और हमारे दिमाग पर छाए हुए हैं। बचपन में जैसे हम लोगों को चन्द्रमा में नजर आने वाले काले धब्बे को लेकर कई तरह की कहानियां सुनाई जाती हैं, ध्रुव तारे को लेकर कई तरह की बातें बताई जाती हैं, वैसे ही सप्तर्षियों के बारे में भी कई तरह की गौरव-गाथाएं सुनाई जाती हैं।

जहां आकाश में आकाशगंगा नजर आती है, वहां सप्तर्षियों का वास है, वे तारे जिन्हें सात की संख्या तक पहुंचाया जाता है, वे ही वहां रहने वाले सात ऋषि हैं, इस तरह की अद्भुत बातें, कहानियां, गाथाएं सुनकर हमारे देश के बच्चे बड़े होते हैं। जाहिर है कि हम लोगों के जेहन में सप्तर्षि अमिट तरीके से अंकित हैं और उनके प्रति हमारे मन में अगर कोई भाव है तो सिर्फ सम्मान का है, श्रद्धा का है।

पर इसमें भी कोई शक नहीं कि हम नहीं जानते कि ये सात ऋषि हैं कौन और क्यों इनको इस कदर सम्मान का और श्रद्धा का पात्र बना दिया गया कि सातवें आसमान पर तारों के बीच हमेशा के लिए, कभी नष्ट न होने के लिए बिठा दिया जाए? इन सात ऋषियों के बारे में बहुत सी बातें हैं जिन्हें हम अभी एक-एक कर बताएंगे।

पर इनके बारे में सबसे ज्यादा गड़बड़ परम्परा यह चला दी गई कि ये ब्राह्मण कुलों के प्रवर्तक थे, और जब ब्राह्मण कुलों के कथित प्रवर्तकों के नाम गिनवाने की बारी आती है तो ब्राह्मण कहे जाने वाला हर भारतीय सबसे पहले अपने कुल और उसके ठीक या गलत प्रवर्तक का नाम गिनवा देता है और उसके बाद कोई भी छह मशहूर नाम, मसलन दुर्वासा का या परशुराम का या मार्कण्डेय का नाम गिनवा देता है।

सामने कोई दूसरा ब्राह्मण जाति वाला बैठा हुआ हो और उसके कुल प्रवर्तक का, मसलन किसी कश्यप का, या किसी कौशिक का या किसी पराशर का नाम न गिनवा सका हो तो क्षमायाचना पूर्वक कह देगा कि फलां-फलां कारणों से आपके कुल प्रवर्तक सप्तर्षियों की गिनती में नहीं आ पाए।

जिसके प्रति इतना सम्मान हो, श्रद्धा हो पर उसके बारे में ठीक-ठीक पता न हो, पता लगाने की कोशिश भी अब बन्द कर दी गई हो, इसका कोई दूसरा उदाहरण कभी मिलेगा तो बताएंगे। पर फिलहाल इसमें यह बात जोड़नी जरूरी लग रही है कि उन सप्तर्षियों के नामों के साथ लिबर्टी, यह रिआयत हजारों सालों से ली जा रही है। महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं।

एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वसिष्ठ वही रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है।

इसके अलावा एक धारणा यह भी है कि चारों दिशाओं के अलग-अलग सप्तर्षि हैं और इस प्रकार अट्ठाइस ऋषियों के नाम मिल जाते हैं। बल्कि पुराणों में तो मामला इस हद तक खिंच गया है कि चौदह मन्वन्तरों के अलग-अलग सप्तर्षि माने गए हैं और यह संख्या कुल अट्ठानवे तक चली जाती है और वहां भी तुर्रा यह कि नामों में कई बार बदल हो जाता है। नहुष ने जिन सप्तर्षियों को अपनी पालकी ढोने के काम में लगाया था उनमें अगस्त्य भी एक थे, जिनके बारे में विवाद लगातार रहा है कि वे सप्तर्षि हैं या नहीं।

तो कैसे बात बनेगी? सप्तर्षियों के नामों के बारे में बेशक इस कदर विविधता रही हो, पर जैसे यह तय है कि हमारे हृदय में उनके प्रति अपार सम्मान और श्रद्धा बसी है वैसे ही दो बातें और भी तय हैं। एक, कि अपने देश में कोई न कोई वक्त ऐसा था जब सप्तर्षि शब्द बेशक प्रचलित न हुआ हो पर कोई सात ऋषिकुल ऐसे थे जो शेष ऋषिकुलों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण थे और दो, कि ये सात ऋषिकुल ऐसे थे जिन्होंने देश की सभ्यता के विकास में, विचारों के प्रवाह में, बौद्धिक योगदान में अपना नाम जरूर कमाया था। तो क्यों न इन्हीं दो तार्किक आधारों पर अपने सप्तर्षियों के पास पहुंचने की एक उम्दा कोशिश की जाए?

सप्तर्षि शब्द और इसके आभामण्डल के तले पनपी महनीय सप्तर्षि अवधारणा का विकास महाभारत और खासकर उस के बाद पुराणों के काल में हुआ तो जाहिर है कि इसका आधारकाल इससे काफी पहले का रहा होगा। कौन सा रहा होगा? इस सवाल के जवाब में फिर से ऋग्वेद हमारी सहायता करता है। कभी हमने बताया था कि ऋग्वेद में करीब एक हजार सूक्त हैं, करीब दस हजार मन्त्र हैं (चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं) और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। पर यह नहीं बताया था कि वे ऋषि कौन थे। आज वह बताने का वक्त है।

बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों (कह सकते हैं कि खण्डों) में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं। एक बार नाम जान लिए जाएं तो तर्क का सिलसिला आगे बढ़े। मंडल संख्या दो – गृत्समद वंश या ऋषिकुल, तीन-विश्वामित्र, चार-वामदेव, पांच-अत्रि, छह-भारद्वाज, सात-वसिष्ठ।

इस तरह छह नाम तो साफ-साफ मिल जाते हैं। इस नामावली के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण सूचनाएं हमारे पाठकों को पता रहनी चाहिए। एक कि इनमे गृत्समद ऋषि ने अपना गोत्र बदलकर शौनक कर लिया था और इसलिए आगे अब इन्हें शौनक कहना इतिहास की दृष्टि से ज्यादा स्वाभाविक रहेगा। दूसरी महत्वपूर्ण सूचना यह है कि इन छह कुलों के अलावा एक और कुल भी था, कण्वकुल जिसके अनेक ऋषियों ने कई पीढ़ी तक मन्त्र रचे और वे सभी मन्त्र ऋग्वेद में हैं।

फिर क्यों नहीं वेदव्यास ने ऋग्वेद के मन्त्रों का संकलन (मौजूदा) तैयार करते समय उनके मन्त्रों को कण्वकुल  का एक पृथक वंशमंडल देने का वैसा गौरव नहीं दिया जैसा शेष छह कुलों को दिया? जवाब आसान नहीं। अनुमान ही लगाया जा सकता है कि चूंकि कण्वकुल के अनेक ऋषियों ने अपने मन्त्र कुछ दानदाताओं की प्रशंसा में बना डाले इसलिए वेदव्यास ने इन्हें पसंद न कर, काव्यकर्म के विरूद्ध मानकर, पृथक वंशमंडल का गौरव न दिया हो। कण्वों के इस तरह के मन्त्रों को ‘नाराशंसी’ कहते हैं और दाता राजाओं की प्रशंसा में होने के कारण ये मंत्र पुराने राजाओं के बारे में हमारी जानकारी बढ़ाने में खासी सहायता करते हैं। पृथक वंशमंडल बेशक न मिला हो, पर कण्वकुल तो है।

तो सात ऋषिकुल सामने आ गए-वसिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। इनका कालक्रम भी करीब-करीब इसी श्रृंखला में है। जिस ग्रंथ का नाम ऋग्वेद है, जो ग्रन्थ हमारे देश की बौद्धिक प्रखरता का पर्यायवाची और दुनिया भर में हमारी पहचान का अभूतपूर्व प्रतीक बना हुआ हो और जिसके प्रति विद्वानों का आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा हो और पढ़ने वालों की मांग बढ़ती जा रही हो, उस ऋग्वेद के मंत्रों का अधिकतम भाग जिन सात ऋषिकुलों ने पीढ़ी दर पीढ़ी रचा हो, उन सात कुलों का कितना अद्वितीय सम्मान इस देश के लोगों के बीच रहा होगा, क्या इसकी कल्पना कर सकते हैं?

कर सकते हैं, इसलिए जाहिर है कि ये सात ऋषिकुल, ये सात ऋषि हमारी विचार धरोहर के पुरोधा होने के कारण हमारी स्मृति में अमर हो गए और बाद में कभी व्यावसायिक तो कभी राजनीतिक कारणों से सप्तर्षियों के नामों में और अवधारणा में फर्क आता गया हो तो कोई क्या कर सकता है? पर अगर तर्क और इतिहास की सीढ़ी चढेंग़े तो इस अवधारणा के शिखर पर आप इन्हीं सात ऋषियों को बैठा पाएंगे। इसलिए अचरज नहीं कि किसी भी सप्तर्षि गणना में इनमें से अधिकांश नाम, कभी चार, कभी पांच तो कभी छह नाम इन्हीं में से आते हैं और इनमें से हरेक का सप्तर्षित्व आज तक सुरक्षित है।

फिर इनमें से हर कुल के प्रवर्तक ने या उसके परवर्ती ने देश की सभ्यता के विकास में अपना अनूठा योगदान किया है। आद्यवसिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो मैत्रावरूण वसिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया जिसका अनुकरण करते भविष्य में किसी से नहीं बना। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह अद्भुत योगदान दिया था। अत्रि  लोग ही सिन्धु पार कर ईरान (आज का) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया तो भरद्वाजों में से एक भरद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी। वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया तो शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरूकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया।

फिर से बताएं तो वसिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक-ये हैं वे सात ऋषि, सप्तर्षि, जिन्होंने इस देश की मेधा को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारा हृदय खुद ब खुद किसी अपूर्व मनोभाव से भर जाता है।

बाद में जो अपने-अपने कारणों से अपने-अपने नाम जोड़ने की होड़ लगी तो यह सप्तर्षि के महत्व को ही दिखाता है। पर सप्तर्षि तो  सप्तर्षि हैं। हमें उनके नाम तो मालूम रहने ही चाहिएं, यह भी मालूम रहना चाहिए कि वे सप्तर्षि क्यों हैं। इन्हें भूल सकते हैं भला?