Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

वीर सावरकर


वीर सावरकर

45 साल के महात्मा गाँधी 1915 में भारत आते हैं, 2 दशक से भी ज्यादा दक्षिण अफ्रीका में बिता कर। इससे 4 साल पहले 28 वर्ष का एक युवक अंडमान में एक कालकोठरी में बन्द होता है। अंग्रेज उससे दिन भर कोल्हू में बैल की जगह हाँकते हुए तेल पेरवाते हैं, रस्सी बटवाते हैं और छिलके कूटवाते हैं। वो तमाम कैदियों को शिक्षित कर रहा होता है, उनमें राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ प्रगाढ़ कर रहा होता है और साथ ही दीवालों कर कील, काँटों और नाखून से साहित्य की रचना कर रहा होता है।
उसका नाम था- विनायक दामोदर सावरकर।
वीर सावरकर।

उन्हें आत्महत्या के ख्याल आते। उस खिड़की की ओर एकटक देखते रहते थे, जहाँ से अन्य कैदियों ने पहले आत्महत्या की थी। पीड़ा असह्य हो रही थी। यातनाओं की सीमा पार हो रही थी। अंधेरा उन कोठरियों में ही नहीं, दिलोदिमाग पर भी छाया हुआ था। दिन भर बैल की जगह खटो, रात को करवट बदलते रहो। 11 साल ऐसे ही बीते। कैदी उनकी इतनी इज्जत करते थे कि मना करने पर भी उनके बर्तन, कपड़े वगैरह धो देते थे, उनके काम में मदद करते थे। सावरकर से अँग्रेज बाकी कैदियों को दूर रखने की कोशिश करते थे। अंत में बुद्धि को विजय हुई तो उन्होंने अन्य कैदियों को भी आत्महत्या से विमुख किया।

लेकिन नहीं, महा गँवारों का कहना है कि सावरकर ने मर्सी पेटिशन लिखा, सॉरी कहा, माफ़ी माँगी..ब्ला-ब्ला-ब्ला। मूर्खों, काकोरी कांड में फँसे क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने भी माफ़ी माँगी थी, तो? उन्हें भी ‘डरपोक’ करार दोगे? बताओ। उन्होंने भी माफ़ी माँगी थी अंग्रेजों से। क्या अब इस कसौटी पर क्रांतिकारियों को तौला जाएगा? शेर जब बड़ी छलाँग लगाता है तो कुछ कदम पीछे लेता ही है। उस समय उनके मन में क्या था, आगे की क्या रणनीति थी- ये आज कुछ लोग बैठे-बैठे जान जाते हैं। कौन ऐसा स्वतंत्रता सेनानी है जिसे 11 साल कालापानी की सज़ा मिली हो। नेहरू? गाँधी? कौन?

नानासाहब पेशवा, महारानी लक्ष्मीबाई और वीर कुँवर सिंह जैसे कितने ही वीर इतिहास में दबे हुए थे। 1857 को सिपाही विद्रोह बताया गया था। तब इसके पर्दाफाश के लिए 20-22 साल का एक युवक लंदन की एक लाइब्रेरी का किसी तरह एक्सेस लेकर और दिन-रात लग कर अँग्रेजों के एक के बाद एक दस्तावेज पढ़ कर सच्चाई की तह तक जा रहा था, जो भारतवासियों से छिपाया गया था। उसने साबित कर दिया कि वो सैनिक विद्रोह नहीं, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। उसके सभी अमर बलिदानियों की गाथा उसने जन-जन तक पहुँचाई। भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों ने मिल कर उसे पढ़ा, अनुवाद किया।

दुनिया में कौन सी ऐसी किताब है जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया था? अँग्रेज कितने डरे हुए थे उससे कि हर वो इंतजाम किया गया, जिससे वो पुस्तक भारत न पहुँचे। जब किसी तरह पहुँची तो क्रांति की ज्वाला में घी की आहुति पड़ गई। कलम और दिमाग, दोनों से अँग्रेजों से लड़ने वाले सावरकर थे। दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाले सावरकर थे। 11 साल कालकोठरी में बंद रहने वाले सावरकर थे। हिंदुत्व को पुनर्जीवित कर के राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले सावरकर थे। साहित्य की विधा में पारंगत योद्धा सावरकर थे।

आज़ादी के बाद क्या मिला उन्हें? अपमान। नेहरू व मौलाना अबुल कलाम जैसों ने तो मलाई चाटी सत्ता की, सावरकर को गाँधी हत्या केस में फँसा दिया। गिरफ़्तार किया। पेंशन तक नहीं दिया। प्रताड़ित किया। 60 के दशक में उन्हें फिर गिरफ्तार किया, प्रतिबंध लगा दिया। उन्हें सार्वजनिक सभाओं में जाने से मना कर दिया गया। ये सब उसी भारत में हुआ, जिसकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। आज़ादी के मतवाले से उसकी आज़ादी उसी देश में छीन ली गई, जिसे उसने आज़ाद करवाने में योगदान दिया था। शास्त्री जी PM बने तो उन्होंने पेंशन का जुगाड़ किया।

वो कालापानी में कैदियों को समझाते थे कि धीरज रखो, एक दिन आएगा जब ये जगह तीर्थस्थल बन जाएगी। आज भले ही हमारा पूरे विश्व में मजाक बन रहा हो, एक समय ऐसा होगा जब लोग कहेंगे कि देखो, इन्हीं कालकोठरियों में हिंदुस्तानी कैदी बन्द थे। सावरकर कहते थे कि तब उन्हीं कैदियों की यहाँ प्रतिमाएँ होंगी। आज आप अंडमान जाते हैं तो सीधा ‘वीर सावरकर इंटरनेशनल एयरपोर्ट’ पर उतरते हैं। सेल्युलर जेल में उनकी प्रतिमा लगी है। उस कमरे में प्रधानमंत्री भी जाकर ध्यान धरता है, जिसमें सावरकर को रखा गया था। सावरकर का अपमान करने का अर्थ है अपने ही थूक को ऊँट के मूत्र में मिला कर पीना।

हजारो झूले थे फंदे पर, लाखों ने गोली खाई थी
क्यों झूठ बोलते थे साहब, चरखे से आजादी आई थी….
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

जरा याद करो कुर्बानी

सरदार उधम सिंह स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे ही जांबाज नौजवान थे जिन्होंने हंसते-हंसते मौत को गले लगाया था। उधम सिंह का जन्म आज ही के दिन यानी 26 दिसंबर 1899 को पटियाला में हुआ था।

उधम सिंह ने 13 अप्रैल 1919 को हुए जधन्य जलियावाला बाग नरसंहार को अपनी आंखों के सामने घटित होते देखा था और वहां की मिट्टी को हाथों में लेकर बदला लेने की कसम खाई थी। जलियावाला कांड का बदला उनके जीवन का लक्ष्य बन गया था। वे लगातार ताक में रहे और आखिर 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को उन्हें सफलता मिली।

उन्होंने इंग्लैड की ज़मीन पर रायल सेंट्रल एशियन सोसाइटी की मीटिंग के दौरान भरी सभा में जलियावाला कांड के दोषी माइकल ओ डायर को गोली मारकर ढेर कर दिया था। वे एक किताब के अंदर रिवाल्वर छुपाकर ले गए थे। वे चाहते तो इस घटना को अंजाम देने के बाद वहां से निकल सकते थे लेकिन वे अपनी रिवाल्वर लहराते वहीं खड़े रहे। अपनी गिरफ्तारी दी और फांसी के फंदे पर झूल गए। दरअसल वे भारतीयों के आत्म-सम्मान को झकझोरना चाहते थे। उनके अंदर आजादी की आकांक्षा को जागृत करना चाहते थे।

उधम सिंह क्रांतिकारियों के संपर्क में रहते थे और अमर शहीद भगत सिंह को अपना गुरु और आदर्श मानते थे। उधम सिंह का जन्म पटियाला में एक साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता टहल सिंह एक रेलवे क्रासिंग के चौकीदार थे। लेकिन मात्र सात वर्ष की आयु में माता-पिता का साया उधम सिंह के सर से उठ गया। बड़े भाई मुक्ता सिंह के साथ उनका प्रारंभिक जीवन केंद्रीय खालसा अनाथालय में गुजरा। 1917 में बड़े भाई का भी देहांत हो गया। उधम सिंह दुनिया में अकेले रह गए। भाई के देहांत के एक साल बाद 1918 में उन्होंने मैट्रिक किया और अनाथालय छोड़ दिया। इसके एक साल बाद 13 अप्रैल 1919 को उनके जीवन को झकझोरने वाली घटना घटित हुई।

वह बैसाखी का दिन था जब जनरल डायर के आदेश पर जलियावाला बाग के सभी दरवाजे बंद कर दिए गए और बाग में मौजूद निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई गईं। देखते-देखते वहां हजारों लोगों की लाशें बिछ गईं। उनमें मासूम बच्चे, महिलाएं, बूढ़े, नौजवान सभी आयुवर्ग के लोग शामिल थे। उधम सिंह भी बाग में मौजूद थे। उन्होंने अपनी आंखों के सामने इस भीषण अमानुषिक नरसंहार को देखा। उनका खून खौल उठा था और उन्होंने उसी समय बाग की मिट्टी उठाकर बदला लेने की कसम खाई थी। हालांकि भारी सुरक्षा के बीच रहने वाले डायर को मारना इतना आसान नहीं था। लेकिन वे इसी धुन में लगे रहे।

उधम सिंह ने 1920 ईं में अमेरिका की यात्रा की। वहां बब्बर खालसा आंदोलन से जुड़े लोगों से मिले। भारत लौटने के बाद अमृतसर पुलिस ने उन्हें बिना लाइसेंस के पिस्तौल के साथ पकड़ा और चार साल के लिए जेल में डलवा दिया। जेल से छूटने के बाद भी पुलिस उनके पीछे लगी रही। कुछ दिनों तक वे नाम बदलकर अमृतसर में रहे। 1935 में कश्मीर में वे भगत सिंह की तस्वीर रखने के कारण संदेह के आधार पर गिरफ्तार कर लिए गए। 30 के दशक में वे इंग्लैंड चले गए और बदला लेने के सही मौके की ताक में रहने लगे। अंततः उन्हें 10 साल बाद मौका मिला। उन्होंने माइकल ओ डायर को गोली मारकर ढेर कर दिया। अदालती कार्यवाही के बाद 31 जुलाई 1940 को लंदन में ही उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।

उधम सिंह के क्रांतिकारी जज्बे को देशवासियों की ओर से क्रांतिकारी नमन।

हार्दिक कुमार