अंतरिक्षीय धातु से बने कुबेर
सन 1938 का साल था।
नाज़ी एसएस चीफ़ हेनरिक हिमलर अपनी टीम के साथ एक खोही अभियान पर तिब्बत आए थे।
उनका ये विश्वास था कि आर्य कहाँ से आए, इसका उत्तर तिब्बत में मिल सकता है।
आधुनिक उपकरणों से लैस उनकी टीम ने बड़ा खोजी अभियान चलाया।
यहाँ उन्हें भारी मात्रा में पुरातात्विक सामग्री मिली थी।
ये तो पता नहीं कि उन्हें वहाँ क्या-क्या मिला लेकिन एक विशिष्ट वस्तु ने उनका ध्यान आकर्षित कर लिया।
उन्हें मिली थी 24 सेमी ऊँची, लगभग दस किलो की एक मूर्ति, जो किसी धातु से बनी हुई थी।
मूर्ति ‘वैश्रवण’ की थी, जिन्हे भारतीय और चीन में देवता के रूप में माना जाता है।
भारतीय उन्हें कुबेर का रूप मानते हैं।
इस मूर्ति में मध्य में एक स्वस्तिक को देखकर हिमलर चकित रह गया और उस मूर्ति को जर्मनी ले गया।
उसने ये मरते दम तक नहीं बताया कि ये विशिष्ट मूर्ति और सोने की गठानें उसे कहाँ से मिली।
ये मूर्ति म्यूनिख ले जायी गई और एक निजी संग्रह में रखी रही। हालाँकि हिमलर ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि उन्होंने एक अनमोल वस्तु खोज निकाली है और इसका रहस्य उनके मरने के कई साल बाद उद्घाटित होगा।
सन 2007 में ये मूर्ति एक प्रदर्शनी में रखी गई।
यहाँ एक वैज्ञानिक डॉ एल्मर बकनेर ने इसे देखा और उन्हें महसूस हुआ कि मूर्ति में किसी ख़ास धातु का समावेश किया गया है।
जब इसे लैब में लाकर गहन परीक्षण किया गया तो पता चला कि ये मूर्ति एक उल्कापिंड की धातु से बनी हुई है।
जब और गहराई में गए तो मालूम हुआ कि इस मूर्ति की धातु को ‘चिंगा उल्कापिंड’ से तराश कर निकाला गया था।
चिंगा 1500 साल पूर्व साइबेरिया और मंगोलिया के बीच आकर गिरा था।
इसमें एक दुर्लभ अंतरिक्षीय धातु (ataxite) मौजूद थी।
उस दौर में उल्कापिंड से मिलने वाली दुर्लभ धातुओं का महत्व वे सभ्यताएं जानती थी।
ऐसी ‘अंतरिक्ष से आई’ धातुओं से अस्त्र-शस्त्र बनाने का प्रचलन था। इस मूर्ति में स्वस्तिक बना हुआ है और ये संयोगवश उसी क्षेत्र में मिला है, जहाँ पर प्राचीन ग्रंथों में ‘कुबेर की बस्तियाँ’ होने की बात कही गई है।
अभी तो आप इस सुंदर कुबेर मूर्ति का आनंद लीजिये,
उन खो गए लोगों की समझ के बारे में सोचने जितनी अपनी ‘समझ’ नहीं है।
‘स्वस्तिक मिरर इमेज के कारण दक्षिणावर्त दिख रहा है।’
