

बच्चों के नाम गलत न रखें।
हिन्दूओं के एक बहुत बड़े वर्ग को न जाने हो क्या गया है?
उत्तर भारतीय हिन्दू समाज पथभ्रष्ट एवं दिग्भ्रमित हो गया है.
एक सज्जन ने अपने बच्चों से परिचय कराया, बताया पोती का नाम अवीरा है, बड़ा ही यूनिक नाम रखा है। पूछने पर कि इसका अर्थ क्या है, बोले कि बहादुर, ब्रेव कॉन्फिडेंशियल। सुनते ही दिमाग चकरा गया। फिर बोले कृपा करके बताएं आपको कैसा लगा? मैंने कहा बन्धु अवीरा तो बहुत हीअशोभनीय नाम है। नहीं रखना चाहिए. उनको बताया कि
1. जिस स्त्री के पुत्र और पति न हों. पुत्र और पतिरहित (स्त्री)
2. स्वतंत्र (स्त्री) उसका नाम होता है अवीरा.
नास्ति वीरः पुत्त्रादिर्यस्याः सा अवीरा
उन्होंने बच्ची के नाम का अर्थ सुना तो बेचारे मायूस हो गए, बोले महाराज क्या करें अब तो स्कूल में भी यही नाम हैं बर्थ सर्टिफिकेट में भी यही नाम है। क्या करें?
आजकल लोग नया करने की ट्रेंड में कुछ भी अनर्गल करने लग गए हैं जैसे कि लड़की हो तो मियारा, शियारा, कियारा, नयारा, मायरा तो अल्मायरा … लड़का हो तो वियान, कियान, गियान, केयांश …और तो और इन शब्दों के अर्थ पूछो तो दे गूगल … दे याहू … और उत्तर आएगा “इट मीन्स रे ऑफ लाइट” “इट मीन्स गॉड्स फेवरेट” “इट मीन्स ब्ला ब्ला”
नाम को यूनीक रखने के फैशन के दौर में एक सज्जन ने अपनी गुड़िया का नाम रखा “श्लेष्मा”. स्वभाविक था कि नाम सुनकर मैं सदमें जैसी अवस्था में था. सदमे से बाहर आने के लिए मन में विचार किया कि हो सकता है इन्होंने कुछ और बोला हो या इनको इस शब्द का अर्थ पता नहीं होगा तो मैं पूछ बैठा “अच्छा? श्लेष्मा! इसका अर्थ क्या होता है? तो महानुभाव नें बड़े ही कॉन्फिडेंस के साथ उत्तर दिया “श्लेष्मा” का अर्थ होता है “जिस पर मां की कृपा हो” मैं सर पकड़ कर 10 मिनट मौन बैठा रहा ! मेरे भाव देख कर उनको यह लग चुका था कि कुछ तो गड़बड़ कह दिया है तो पूछ बैठे. क्या हुआ have I said anything weird? मैंने कहा बन्धु तुंरत प्रभाव से बच्ची का नाम बदलो क्योंकि श्लेष्मा का अर्थ होता है “नाक का mucus” उसके बाद जो होना था सो हुआ.
यही हालात है उत्तर भारतीय हिन्दूओं के एक बहुत बड़े वर्ग का। न जाने हो क्या गया है उत्तर भारतीय हिन्दू समाज को ? फैशन के दौर में फैंसी कपड़े पहनते पहनते अर्थहीन, अनर्थकारी, बेढंगे शब्द समुच्चयों का प्रयोग हिन्दू समाज अपने कुलदीपकों के नामकरण हेतु करने लगा है
अशास्त्रीय नाम न केवल सुनने में विचित्र लगता है, बालकों के व्यक्तित्व पर भी अपना विचित्र प्रभाव डालकर व्यक्तित्व को लुंज पुंज करता है – जो इसके तात्कालिक कुप्रभाव हैं.
भाषा की संकरता इसका दूरस्थ कुप्रभाव है.
नाम रखने का अधिकार दादा-दादी, भुआ, तथा गुरुओं का होता है. यह कर्म उनके लिए ही छोड़ देना हितकर है.
आप जब दादा दादी बनेंगे तब यह कर्तव्य ठीक प्रकार से निभा पाएँ उसके लिए आप अपनी मातृभाषा पर कितनी पकड़ रखते हैं अथवा उसपर पकड़ बनाने के लिए क्या कर रहे हैं, विचार करें. अन्यथा आने वाली पीढ़ियों में आपके परिवार में भी कोई “श्लेष्मा” हो सकती है,कोई भी अवीरा हो सकती है।
शास्त्रों में लिखा है व्यक्ति का जैसा नाम है समाज में उसी प्रकार उसका सम्मान और उसका यश कीर्ति बढ़ती है.
नामाखिलस्य व्यवहारहेतु: शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतु:।
नाम्नैव कीर्तिं लभते मनुष्य-स्तत: प्रशस्तं खलु नामकर्म।
{वीरमित्रोदय-संस्कार प्रकाश}
स्मृति संग्रह में बताया गया है कि व्यवहार की सिद्धि आयु एवं ओज की वृद्धि के लिए श्रेष्ठ नाम होना चाहिए.
आयुर्वर्चो sभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहृतेस्तथा ।
नामकर्मफलं त्वेतत् समुद्दिष्टं मनीषिभि:।।
नाम कैसा हो–
नाम की संरचना कैसी हो इस विषय में ग्रह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में विस्तार से प्रकाश डाला गया है पारस्करगृह्यसूत्र 1/7/23 में बताया गया है-
द्व्यक्षरं चतुरक्षरं वा घोषवदाद्यंतरस्थं।
दीर्घाभिनिष्ठानं कृतं कुर्यान्न तद्धितम्।।
अयुजाक्षरमाकारान्तम् स्त्रियै तद्धितम् ।।
इसका तात्पर्य यह है कि बालक का नाम दो या चारअक्षरयुक्त, पहला अक्षर घोष वर्ण युक्त, वर्ग का तीसरा चौथा पांचवा वर्ण, मध्य में अंतस्थ वर्ण, य र ल व आदिऔर नाम का अंतिम वर्ण दीर्घ एवं कृदन्त हो तद्धितान्त न हो।
जैसे देव शर्मा ,सूरज वर्मा ,कन्या का नाम विषमवर्णी तीन या पांच अक्षर युक्त, दीर्घ आकारांत एवं तद्धितान्त होना चाहिए यथा श्रीदेवी आदि।
नोट — शास्त्रों में तीन प्रकार के नाम रखने को कहा गया है, एक नक्षत्र आधारित, दूसरा, प्रसिद्ध नाम (जो पब्लिक हो), तीसरा गुप्त नाम, जो केवल खास लोगों को पता हो । देवी अथवा नदी के नाम पर बालिका का नाम नहीं रखना चाहिए, ऐसा शास्त्रों का कथन है क्योंकि ये मां समान हैं और कोई भी मनुष्य, विवाह के बाद, इनका नाम भी लेता है और रमण भी करता है, ऐसा करने से ऐसी स्त्रियों के वैवाहिक जीवन कष्टमय होते हैं ।
हमारे शास्त्रों में वर्ण अनुसार नाम की व्यवस्था की गई है ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक, आनंद सूचक, तथा शर्मा युक्त होना चाहिए. क्षत्रिय का नाम बल रक्षा और शासन क्षमता का सूचक, तथा वर्मा युक्त होना चाहिए, वैश्य का नाम धन ऐश्वर्य सूचक, पुष्टि युक्त तथा गुप्त युक्त होना चाहिए, अन्य का नाम सेवा आदि गुणों से युक्त, एवं दासान्त होना चाहिए।
पारस्कर गृहसूत्र में लिखा है –
शर्म ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य
शास्त्रीय नाम की हमारे सनातन धर्म में बहुत उपयोगिता है मनुष्य का जैसा नाम होता है वैसे ही गुण उसमें विद्यमान होते हैं. बालकों का नाम लेकर पुकारने से उनके मन पर उस नाम का बहुत असर पड़ता है और प्रायः उसी के अनुरूप चलने का प्रयास भी होने लगता है इसीलिए नाम में यदि उदात्त भावना होती है तो बालकों में यश एवं भाग्य का अवश्य ही उदय संभव है।
हमारे सनातन धर्म में अधिकांश लोग अपने पुत्र पुत्रियों का नाम भगवान के नाम पर रखना शुभ समझते हैं ताकि इसी बहाने प्रभु नाम का उच्चारण भगवान के नाम का उच्चारण हो जाए।
भायं कुभायं अनख आलसहूं।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूं॥
विडंबना यह है की आज पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में नाम रखने का संस्कार मूल रूप से प्रायः समाप्त होता जा रहा है. इससे बचें शास्त्रोक्त नाम रखें इसी में भलाई है, इसी में कल्याण है।
अशोकभाई हिंडौचा
मानव (शरीर) और वीणा (यंत्र) के बीच सादृश्य
मानव शरीर (भगवान द्वारा निर्मित वीणा) और मानव निर्मित वीणा के बीच कई समानताएं हैं। ये रहस्य “संध्या वंदनी तत्वार्थ” और “वेद प्रकाशिके” नामक पुस्तक में प्रकट हुए हैं।
1936 में कन्नड़ भाषा में ‘श्री येदा तोरे सुब्रमण्य सरमा’ द्वारा लिखित और प्रकाशित। इस पुस्तक में वीणा के कई रहस्यों का उल्लेख किया गया था। यहाँ कुछ बिंदुओं का उल्लेख किया गया है
वीणा के 24 झरोखे हैं जिनमें झरोखों के साथ 4 तारें और बगल में 3 तार हैं।
4 तार 4 वेदों को दर्शाते हैं
शीर्ष पहली कड़ी सरानी इंगित करती है – ऋग्वेद दूसरी कड़ी पंचम इंगित करती है – यजुर्वेद तीसरी
कड़ी मंदरा
इंगित करती है – साम वेद
चौथी कड़ी अनुमंद्रा अथर्ववेद को इंगित करती है।
कहा जाता है कि सभी 4 तारों में “शुद्ध सत्व गुण” होता है।
चौबीस झरोखों का महत्व इनसे उत्पन्न होने वाली ध्वनि (नाद) के कारण आता है न कि इसमें प्रयुक्त धातु के कारण।
मानव रीढ़ की हड्डी (रीढ़ की हड्डी) मूलाधार (शरीर की सीट) से सीधे सिर तक खड़ी होती है।
सिर के शीर्ष में ब्रह्म रंध्र विद्यमान है।
वीणा की 24 झिल्लियों की तरह, मानव रीढ़ की हड्डी में 24 खंड होते हैं।
शरीर रचना के अनुसार, रीढ़ की हड्डी में 7 ग्रीवा, 12 वक्षीय और 5 काठ कशेरुकाएँ होती हैं।
वीणा में प्रत्येक झल्लाहट के बीच की दूरी निचले सप्तक में चौड़ी होती है और उच्च सप्तक की ओर बढ़ने पर कम हो जाती है।
इसी प्रकार मूलाधार में रीढ़ की हड्डी मोटी होती है और ब्रह्म रंध्र की ओर बढ़ने पर प्रत्येक वलय के बीच की दूरी कम हो जाती है।
मंदरा स्थायी स्वर मानव रीढ़ की हड्डी के आसन बिंदु से शुरू होता है और जैसे ही यह ब्रह्म रंध्रम की ओर बढ़ता है
सहस्राराम में स्थित होने पर तारत्व या श्रुति में वृद्धि होती है। यहीं पर संगीत का जीवन स्थित है।
प्राण (जीवन) और अग्नि (अग्नि) के मिलन से पैदा हुआ नाद मूलाधार से कम श्रुति से शुरू होता है और स्वाधिष्ठान, मणिपुर को पार करते हुए सहस्रकमल तक पहुँचता है।
अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, षडचक्र। इस क्रम में श्रुति (पिच) बढ़ती है।
यह दैवी वीणा और मानव निर्मित वीणा के बीच समानता को दर्शाता है।
तो यह निश्चित है कि मोक्ष नाद योग प्राप्त करना एक सही मार्ग है,
और नाद योग के अभ्यास के लिए वीणा एक उपयुक्त साधन है।
सारंगदेव ने इंगित किया है, वीणा का प्रत्येक भाग एक विशेष देवता का निवास है।
“सर्व देव मयी तस्मथ वीनेयम सर्व मंगला पुनाति विरहत्यादि पटकैह पतितान जनान”
वीणा में सभी देवताओं का वास होने के कारण यह सर्वमंगल है, क्योंकि सभी पाप दूर हो जाते हैं। “इंदिरा पत्रिका ब्रह्मा तुम्बुरनाभिही सरस्वती-डोरिको वासुकीर जीव सुधा एमएसयू सौरिका रविह
उपरोक्त श्लोक में वीणा में देवताओं और उनके स्थानों का वर्णन है
इसलिए वीणा को मोक्ष दायक यंत्र माना जाता है। अनेक देवताओं ने अनेक वाद्य यंत्र बजाए हैं लेकिन ऐसा देवतुल्य पवित्र स्थान केवल वीणा को ही दिया गया है।
નિંદ્રા નો કુદરતી ક્રમ..!!
રાત્રી ના ૧૧ થી ૩ સુધી લોહી નો મહત્તમ પ્રવાહ લીવર તરફ હોય છે. આ એ મહત્વ નો સમય છે જયારે શરીર લીવર ની મદદ થી, વિષરહિત થવાની પ્રક્રિયા માં થી, પસાર થાય છે, એનો આકાર મોટો થઈ જાયે છે,પણ આ પ્રક્રિયા આપ ગાઢ નિદ્રા માં, પોચો પછીજ શરૂ થાયે છે.. તમે ૧૧ વાગે ગાઢ નિંદ્રા ની અવસ્થા માં પોહચો પછીજ આ પ્રક્રિયા શરૂ થાય અને તો શરીર ને, પુરા ૪ કલાક મળે વિષમુક્ત થવા માટે હવે તમે જો ૧૨ વાગે ગાઢ નિંદ્રા ની અવસ્થા માં પહોંચો તો તમારા શરીર ને ૩
કલાક જ મળે..!!જો, ૧ વાગે ગાઢ નિંદ્રા ની અવસ્થા માં પહોંચો તો તમારા શરીર ને 2 કલાક જ મળે. અને જો,..2 વાગે ગાઢ નિંદ્રા ની અવસ્થા માં પહોંચો તો
તમારા શરીર ને ૧ જ કલાક મળે. જ્યાં ૪ કલાક ની તાતી જરૂર હોય ત્યાં ઓછા કલાક મળવા થી વિષ મુક્તિ નું કાર્ય સંપૂર્ણ રીતે ના થઈ શકે. અને શરીર વિષયુક્ત રોગો નું ઘર થતું જાયે. થોડું વિચારી જુવો જયારે પણ તમે મોડી રાત સુધી જાગ્યા હોવ ત્યારે ગમે તેટલા કલાક
ઊંઘો તમને પોતાની કાયા બીજે દિવસે થાકેલીજ લાગશે.શરીર ને વિષમુક્ત થવા પૂરતો સમય ના આપી ને, શરીર ની બીજી અનેક ક્રિયાઓ માં તમે અજાણતાંજ અવરોધ ઉત્પન્ન કરો છો. બ્રહ્મા મુરત એટલે સવારે ૩ થી ૫ ના સમય માં લોહી નું સંચરણ ફેફસાં તરફ થતું હોય છે. જે અત્યંત જરૂરી ક્રિયા નું સ્થાન છે તે વખતે તમે મન અને તનને સ્વચ્છ કરી, ધ્યાન જેવી સુક્ષ્મા પ્રકિર્યા માં જાતને પરોવી જોઈએ જેથી બ્રહ્માંડીય ઉર્જા જે તે સમય એ વિપુલ માત્રા માં સહજ ઉપલબ્ધ હોય તે તમને પ્રાપ્ત થાય,તે પછી ખુલ્લી હવા માં, વ્યાયામ કરવો જોઈએહવા માં આ સમયે લાભપ્રદ આયન ની માત્રા ખૂબજ વધારે હોય છે. ૫ થી ૭ શુદ્ધ થયેલા રક્ત નો સંચાર તમારા મોટા આંતરડા તરફ હોય છે. જે પાછલો મળ કાઢવાની પ્રક્રિયા માં સક્રિય ભાગ લે છે અને શરીર ને આખા દિવસ દરમિયાન લેવાતા પોષક તત્વો ગ્રહણ કરવા માટે તૈયાર
કરે છે.
પછી સૂર્યોદય ના સમય એ,7- 9 શુદ્ધ રક્ત સ્વચ્છ શરીર ના પેટ અને આમાશય તરફ વહે છે.
આ સમય છે જયારે પૌષ્ટિક નાસ્તો એટલે શિરામણ આરોગવો જોઈએ. તમારા દિવસ નો તે સહુથી જરૂરી આહાર છે.સવારે પૌષ્ટિક નાસ્તો ના કરતા લોકો ને ભવિષ્ય માં ઘણી બધી આરોગ્ય-લક્ષી સમસ્યા નો સામનો કરવો
પડે છે. આ કુદરત એ તમારા શરીર માટે બનાવેલી આરોગ્ય
ઘડિયાળ છે.
એને અનુસરવા થી ચિતા સુધી ચાલતા જઈ શકાય.
હવે તમે પૂછશો કે કયારેક કોઈ કાર્ય મોડી રાત સુધી કરવું પડે
તો શું કરવાનું?હું તો વિનંતી કરીશ કે કેમ જલદી સૂઈ ને વહેલા ઉઠી ને ના કરી શકાય?બસ તમારા મોડી રાત ના કાર્યો ને વહેલા ઉઠી નેકરવાની આદત પાડો સમય તો સરખોજ મળશે. પણ સાથે સાથે સ્વસ્થ શરીર પ્રાપ્ત થશે. જય શ્રી
#વન્દે_માતરમ 🇮🇳🇮🇳🇮🇳
!! लक्ष्मण रेखा !!
लक्ष्मण रेखा आप सभी जानते हैं पर इसका असली नाम शायद नहीं पता होगा । लक्ष्मण रेखा का नाम (सोमतिती विद्या है)
यह भारत की प्राचीन विद्याओ में से जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था चलिए जानते हैं अपने प्राचीन भारतीय विद्या को
सोमतिती_विद्या–लक्ष्मण_रेखा….
महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है–सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति,,
यह वेदमंत्र कोड है उस सोमना कृतिक यंत्र का,, पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में वह केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है,, वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है,, कोड को उल्टा कर देने पर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है,,
जब महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भृमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा–राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है??महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है-इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है,,
यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है महर्षि विश्वामित्र के द्वारा,, यह जो ब्रह्मचारी लक्ष्मण है यह एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है,,उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी,,
महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में,,महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में,, महर्षि भारद्वाज के यहां,, और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में,,
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था,, एक अन्य ब्रह्मचारी वर्णित भी उस विद्या का अच्छा जानकार था,,
सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति–इस मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरमैन
आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है,,फिर उस यंत्र को एक्टिवेट करें और उसकी मदद से एक लेजर बीम जैसी किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें,,
उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा,, लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा जो भी व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो,,ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने
जानकर हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी,,
महर्षि दधीचि,, महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे,
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे,,
उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी,, ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे,,
मुगलों द्वारा करोडों करोड़ो ग्रन्थों के जलाए जाने पर और अंग्रेजों द्वारा महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लूट लूटकर ले जाने के कारण कितनी ही अद्भुत विधाएं जो हमारे यशस्वी पूर्वजों ने खोजी थी लुप्त हो गई,,जो बचा है उसे संभालने में प्रखर बुद्धि के युवाओं को जुट जाना चाहिए, परमेश्वर सद्बुद्धि दे हम सबको…..
साभार:
जय श्री राम 🙏❤️
वीरेंद्र श्रीवात्सव
!! लक्ष्मण रेखा !!
लक्ष्मण रेखा आप सभी जानते हैं पर इसका असली नाम शायद नहीं पता होगा । लक्ष्मण रेखा का नाम (सोमतिती विद्या है)
यह भारत की प्राचीन विद्याओ में से जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था चलिए जानते हैं अपने प्राचीन भारतीय विद्या को
सोमतिती_विद्या–लक्ष्मण_रेखा….
महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है–सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति,,
यह वेदमंत्र कोड है उस सोमना कृतिक यंत्र का,, पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में वह केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है,, वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है,, कोड को उल्टा कर देने पर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है,,
जब महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भृमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा–राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है??महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है-इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है,,
यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है महर्षि विश्वामित्र के द्वारा,, यह जो ब्रह्मचारी लक्ष्मण है यह एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है,,उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी,,
महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में,,महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में,, महर्षि भारद्वाज के यहां,, और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में,,
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था,, एक अन्य ब्रह्मचारी वर्णित भी उस विद्या का अच्छा जानकार था,,
सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति–इस मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरमैन
आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है,,फिर उस यंत्र को एक्टिवेट करें और उसकी मदद से एक लेजर बीम जैसी किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें,,
उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा,, लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा जो भी व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो,,ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने
जानकर हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी,,
महर्षि दधीचि,, महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे,
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे,,
उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी,, ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे,,
मुगलों द्वारा करोडों करोड़ो ग्रन्थों के जलाए जाने पर और अंग्रेजों द्वारा महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लूट लूटकर ले जाने के कारण कितनी ही अद्भुत विधाएं जो हमारे यशस्वी पूर्वजों ने खोजी थी लुप्त हो गई,,जो बचा है उसे संभालने में प्रखर बुद्धि के युवाओं को जुट जाना चाहिए, परमेश्वर सद्बुद्धि दे हम सबको…..
साभार:
जय श्री राम 🙏❤️
वीरेंद्र श्रीवात्सव
💥✳
किरलियान ने मरते हुए आदमी के फोटो लिए, उसके शरीर से ऊर्जा के छल्ले बाहर लगातार विसर्जित हो रहे थे, और वो मरने के तीन दिन बाद तक भी होते रहे।
*अब तो वह जलाने के बाद औपचारिक तौर पर उसकी हड्डियाँ उठाना ही तीसरा हो गया। यानि अभी जिसे हम मरा समझते हैं वो मरा नहीं है। आज नहीं कल वैज्ञानिक कहते हैं तीन दिन बाद भी मनुष्य को जीवित कर सकेगें।*
*और एक मजेदार घटना किरलियान के फोटो में देखने को मिली। की जब आप क्रोध की अवस्था में होते हो तो तब वह ऊर्जा के छल्ले आपके शरीर से निकल रहे होते हैं। यानि क्रोध भी एक छोटी मृत्यु तुल्य है।*
*एक बात और किरलियान ने अपनी फोटो से सिद्ध की कि मरने से ठीक छह महीने पहले ऊर्जा के छल्ले मनुष्य के शरीर से निकलने लग जाते हैं। यानि मरने की प्रक्रिया छ: माह पहले शुरू हो जाती है, जैसे मनुष्य का शरीर मां के पेट में नौ महीने विकसित होने में लेता है वैसे ही उसे मिटने के लिए छ: माह का समय चाहिए।
*भारत में हजारों साल से योगी मरने के छ:माह पहले अपनी तिथि बता देते थे।*
*ये छ: माह कोई संयोगिक बात नहीं है। इस में जरूर कोई रहस्य होना चाहिए। कुछ और तथ्य किरलियान ने मनुष्य के जीवन के सामने रखे, एक फोटो में उसने दिखाया है, छ: महीने पहले जब उसने जिस मनुष्य को फोटो लिया तो उसके दायें हाथ में ऊर्जा प्रवाहित नहीं हो रही थी। यानि दाया हाथ उर्जा को नहीं दर्शा रहा था। जबकि दांया हाथ ठीक ठाक था, पर ठीक छ: माह बाद अचानक एक ऐक्सिडेन्ट के कारण उस आदमी का वह हाथ काटना पड़ा।*
*यानि हाथ की ऊर्जा छ: माह पहले ही अपना स्थान छोड़ चुकी थी।*
*भारतीय योग तो हजारों साल से कहता आया है कि मनुष्य के स्थूल शरीर में कोई भी बिमारी आने से पहले आपके सूक्ष्म शरीर में छ: माह पहले आ जाती है। यानि छ: माह पहले अगर सूक्ष्म शरीर पर ही उसका इलाज कर दिया जाये तो बहुत सी बिमारियों पर विजय पाई जा सकती है।*
*इसी प्रकार भारतीय योग कहता है कि मृत्यु की घटना भी अचानक नहीं घटती वह भी शरीर पर छ: माह पहले से तैयारी शुरू कर देती है। पर इस बात का एहसास हम क्यों नहीं होता।*
*पहली बात तो मनुष्य मृत्यु के नाम से इतना भयभीत है कि वह इसका नाम लेने से भी डरता है। दूसरा वह भौतिक वस्तुओं के साथ रहते-रहते इतना संवेदन हीन हो गया है कि उसने लगभग अपनी अतीन्द्रिय शक्तियों से नाता तोड़ लिया है। वरन और कोई कारण नहीं है।*
*पृथ्वी का श्रेष्ठ प्राणी इतना दीन हीन। पशु पक्षी भी अतीन्द्रिय ज्ञान में उससे कहीं आगे है।*
*साइबेरिया में आज भी कुछ ऐसे पक्षी हैं जो बर्फ गिरने के ठीक 14 दिन पहले वहां से उड़ जाते हैं। न एक दिन पहले न एक दिन बाद।*
*जापान में आज भी ऐसी चिड़िया पाई जाती है जो भुकम्प के12 घन्टे पहले वहाँ से गायब हो जाती है।*
*और भी न जाने कितने पशु-पक्षी हैं जो अपनी अतीन्द्रिय शक्ति के कारण ही आज जीवित हैं।*
*भारत में हजारों योगी मरने की तिथि पहले ही घोषित कर देते हैं। अभी ताजा घटना विनोबा भावे जी की है। जिन्होंने महीनों पहले कह दिया था कि में शरद पूर्णिमा के दिन अपनी देह का त्याग करूंगा।*
*ठीक महाभारत काल में भी भीष्म पितामह ने भी अपने देह त्याग के लिए दिन चुना था। कुछ तो हमारे स्थूल शरीर के उपर ऐसा घटता है, जिससे योगी जान जाते हैं कि अब हमारी मृत्यु का दिन करीब आ गया है।*
*एक उदाहरण। जब आप रात को बिस्तर पर सोने के लिए जाते है। सोने ओर निंद्रा के बीच में एक संध्या काल आता है, एक न्यूटल गीयर, पर वह पल के हज़ारवें हिस्से के समान होता है। उसे देखने के लिए बहुत होश चाहिए। आपको पता ही नहीं चल पाता कि कब तक जागे ओर कब नींद में चले गये। पर योगी सालों तक उस पर मेहनत करता है। जब वह उस संध्या काल की अवस्था से परिचित हो जाता है। मरने के ठीक छ: महीने पहले मनुष्य के चित्त की वही अवस्था सारे दिन के लिए हो जाती है। तब योगी समझ जाता है अब मेरी बड़ी संध्या का समय आ गया। पर पहले उस छोटी संध्या के प्रति सजग होना पड़ेगा। तब महासंध्या के प्रति आप जान पायेंगे।*
*और हमारे पूरे शरीर का स्नायु तंत्र प्राण ऊर्जा का वर्तुल उल्टा कर देता है। यानि आप साँसे तो लेंगे पर उसमें प्राण तत्व नहीं ले रहे होगें। शरीर प्राण तत्व छोड़ना शुरू कर देता है।
अरुण शुक्ला
गुरुत्वाकर्षण
कहते हैं न्यूटन ने सेब फल को गिरते देखा और गुरुत्वाकर्षण का पता लगाया,,, एक सेब को गिरते देख लिया और पृथ्वी के अंदर गुरुत्वाकर्षण खोज लिया,,
वाह रे मेरे खोजी,,, कितनी चीजें ऊपर को उठ रही थी,, भांप बनकर जल ऊपर उठते हैं,, पौधे बनकर बीज ऊपर उठते हैं,, अग्नि को कहीं भी जलाओ ऊपर की तरफ उठती है,, फिर ये नियम क्यों नहीं खोजा की ये ऊपर किस कारण उठते हैं,,,
ऋषि कणाद ने हजारों साल पहले वैशेषिक दर्शन में गुरुत्वाकर्षण का कारण बताया,
संयोगाभावे गुरुत्वातपतनम–५-१-७,,
यानी कोई भी वस्तु जब तक कही न कहीं उसका जुड़ाव है वो नीचे नहीं गिरेगी,, जैसे आम या सेब का टहनी से संयोग,जब तक संयोग है तब तक पृथ्वी में कितना भी आकर्षण है वो वस्तु को अपनी तरफ खींच नहीं सकती,, जैसे ही संयोग का अभाव हुआ गुरुत्व के कारण वस्तु खुद पृथ्वी पर गिर जाएगी,,
2–संस्काराभावे गुरुत्वात पतनम–५-१-१८
आगे बढ़ते हुए ऋषि कणाद कहते हैं कि अगर किसी वस्तु में संस्कार है तब भी पृथ्वी उसे अपनी तरफ नहीं खींच सकती,, संस्कार का अभाव होने पर ही वस्तु गुरुत्व के कारण पृथ्वी पर गिरेगी,,
संस्कार ऋषि ने तीन प्रकार के बताए,1-वेग, 2-भावना, 3-स्थितिस्थापक,
तो इन तीन में से वेग संस्कार जिस वस्तु में है,,, जैसे तीर में हम धनुष से वेग उत्त्पन्न करते हैं,, तो वह गति करता है,, जैसे ही वेग संस्कार खत्म होगा,, उतनी दूर जाकर वह अपने गुरुत्व के कारण जमीन पर गिर जाएगा,,,
पूरी पृथ्वी पर हमारे वैदिक ऋषियों के सिद्धांत हैं,, लेकिन फिर भी हम उन्हें दूसरों के नाम से पढ़ने पर मजबूर हैं,,
अपने वेद शास्त्रों की ओर लौट आओ दोस्तों,,कुछ नहीं है अंधी पश्चिमी दौड़ मे
अपनी संस्कृति,, अपना गौरव
हिंदू सनातन धर्म में सुबह उठने के बाद धरती माता पर पैर रखने से पहले उसे प्रणाम करने की सलाह इसलिए दी जाती है क्योंकि धरती माता हमारी पालनकर्ता है। हमारे जीवन के लिए सभी आवश्यक पदार्थ धरती ही हमें उपलब्ध कराती है। फिर चाहे जल हो या भोजन। धरती माता को प्रणाम करने और उसके प्रति आभार जताकर हम अपना सौभाग्य बढ़ा सकते हैं, क्योंकि धरती को भी देवी मां का स्थान प्राप्त है…
शास्त्रों में मनुष्य को प्रात:काल उठने के बाद धरती माता की वंदना करके ही भूमि पर पैर रखने का विधान किया गया है। पहले दायें पैर को भूमि पर रख कर हाथ से पृथ्वी का स्पर्श कर फिर मस्तक पर लगाया जाता है, साथ ही पांव रखने के लिए विष्णुपत्नी भूदेवी से क्षमा मांगी जाती है — ‘हे धरती माता ! मुझे तुम्हारे ऊपर पैर रखने में बहुत संकोच होता है, तुम तो मेरे भगवान की शक्ति हो ।’
भूमि वंदना क्यों करनी चाहिए ?
▪️ नींद से उठने के बाद चूंकि हमें बिस्तर से उतर कर आगे के कार्यों के लिए भूमि पर पांव रखना पड़ेगा और कौन मनुष्य ऐसा होगा जिसे अपनी माता के ऊपर पैर रखना अच्छा लगेगा ? इसी विवशता के कारण सबसे पहले भूमि वंदना कर उन पर पांव रखने के लिए विष्णुपत्नी भूदेवी से क्षमा मांगी जाती है।
▪️ पथ्वी माता ने सबको धारण कर रखा है; अत: वे सभी के लिए पूज्य और वंदन-आराधन के योग्य हैं। वे न रहें या उनकी कृपा न रहे तो सारा जगत कहीं भी ठहर नहीं सकता है।
▪️ पथ्वी माता धैर्य और क्षमा की देवी हैं। पृथ्वी पर मनुष्य कितना आघात करता है, जल निकालने के लिए भूमि के हृदय को चीरा जाता है, अन्न उपजाने के लिए भूमि के हृदय पर हल चलाया जाता है, मनुष्य व जीव-जन्तु भी उस पर मल-मूत्र का त्याग करते हैं; लेकिन धरती को कभी क्रोध नहीं आता। जिस दिन धरती माता को क्रोध आ जाए, धरती हिलने लगे, भूकम्प आ जाए तो मानव जाति का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
▪️ भमि की शस्य-सम्पदा से ही अन्नरूप प्राण उत्पन्न होता है। साथ ही भूमि के हृदय में अनंत ऐश्वर्य जैसे—हीरा, पन्ना, रूबी, नीलम, सोना, लोहा, तांबा और न जानें कितनी धातुएं रहती हैं, जो वे हमें प्रदान करती हैं; इसलिए पृथ्वी देवी का सदा सम्मान करना चाहिए।
कुछ चीजें जो भूदेवी की मर्यादा के विरुद्ध हैं, वह नहीं करनी चाहिए। जैसे—
▪️ दीपक, शिवलिंग, देवी की मूर्ति, शंख, यंत्र, शालग्राम का जल, फूल, तुलसीदल, जपमाला, पुष्पमाला, कपूर, गोरोचन, चंदन की लकड़ी, रुद्राक्ष माला, कुश की जड़, पुस्तक और यज्ञोपवीत—इन वस्तुओं को कभी भी भूमि पर नहीं रखना चाहिए।
▪️ गरहण के अवसर पर भूमि को नहीं खोदना चाहिए।
भूमि वंदन करने के पीछे यही शिक्षा छिपी है कि मनुष्य को पृ्थ्वी की तरह सहनशील, धैर्यवान और क्षमावान होना चाहिए। बोलिए वासुदेव भगवान की जय।
भूमि-वंदना का मंत्र इस प्रकार है—
समुद्रवसने देवि पर्वत स्तन मण्डिते।
विष्णुपत्निनमस्तुभ्यं पादस्पर्शंक्षमस्वमे।।
अर्थात् :– समुद्ररूपी वस्त्रों को धारण करने वाली, पर्वतरूपी स्तनों से शोभित विष्णुपत्नी, मेरे द्वारा होने वाले पाद स्पर्श के लिए आप मुझे क्षमा करें।
भगवान नारायण श्रीदेवी और भूदेवी (पृथ्वी) के पति हैं। भूदेवी कश्यप ऋषि की पुत्री हैं, और पुराणों में इनका एक देवी रूप है। भूदेवी अपने एक रूप से संसार में सब जगह फैली हुईं हैं और दूसरे रूप में देवी रूप में स्थित रहती हैं।
कश्यप ऋषि की पुत्री होने से ये ‘काश्यपी’, स्थिर रूप होने से ‘स्थिरा’, विश्व को धारण करने से ‘विश्वम्भरा’, अनंत रूप होने से ‘अनंता’ और सब जगह फैली होने से ‘पृथ्वी’ कहलाती हैं । भगवान की पत्नी होने के कारण वे ‘विष्णुप्रिया’ के नाम से जानी जाती हैं ।
सृष्टि के समय ये प्रकट होकर जल के ऊपर स्थिर हो जाती हैं, और प्रलयकाल में ये जल के अंदर छिप जाती हैं।
वाराहकल्प में जब हिरण्याक्ष दैत्य पृथ्वी को चुराकर रसातल में ले गया, तब भगवान श्रीहरि हिरण्याक्ष को मार कर रसातल से पृथ्वी को ले आए और उसे जल पर इस प्रकार रख दिया, मानो तालाब में कमल का पत्ता हो। इसके बाद ब्रह्मा जी ने उसी पृथ्वी पर सृष्टि रचना की। उस समय वाराहरूपधारी भगवान श्रीहरि ने सुंदर देवी के रूप में उपस्थित भूदेवी का वेदमंत्रों से पूजन किया और उन्हें ‘जगत्पूज्य’ होने का वरदान देते हुए कहा—
‘तुम सबको आश्रय प्रदान करने वाली बनो। देवता, सिद्ध, मानव, दैत्य आदि से पूजित होकर तुम सुख पाओगी। गृहप्रवेश, गृह निर्माण के आरम्भ, वापी, तालाब आदि के निर्माण के समय मेरे वर के कारण लोग तुम्हारी पूजा करेंगे।’
इसके बाद त्रिलोकी में पृथ्वी की पूजा होने लगी।