દ્વારકા નો *ધણી*
મથુરા નો *મણી*
ગોકુળ ની *શાન*
રાધાનો *કાન*
મીરા નો *શ્યામ*
નરસિંહ નો *નાથ*
સુદામા નો *સાથ*
રૂકમણી *ભરથાર*
સૌ નો *સરતાજ*
દ્રૌપદી નો *સખો*
વાંસળી નો *સાદ*
દેવકી નો *લાલ*
જશોદા નો *પ્રાણ*
ગાયો નો *ગોવાળ*
નંદલાલ નો *બાળ*
વાસુદેવ નો *વ્હાલ*
અર્જુન નો *સારથી*
ભક્તો નો *ભેરુ*
કંસ નો *કાળ*
પાંડવો નો *બેલી*
ગીતા રચયિતા*
ગોપીઓ નો *ખાસ*
પ્રેમ નો *પ્રાસ…*
દિલમાં સદા *વાસ*
એવા…
*સુદર્શન ધારી*
*જગતગુરુ – યુગપુરુષ*
*શ્રી કૃષ્ણ*
*ને શત શત પ્રણામ*
જય દ્વારકાધીશ 🙏🌹
Category: श्री कृष्णा
श्रीकृष्ण अपने पैर का अंगूठा क्यों पीते थे ?
श्रीकृष्ण सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा हैं । यह सारा संसार उन्हीं की आनन्दमयी लीलाओं का विलास है । श्रीकृष्ण की लीलाओं में हमें उनके ऐश्वर्य के साथ-साथ माधुर्य के भी दर्शन होते हैं । ब्रज की लीलाओं में तो श्रीकृष्ण संसार के साथ बिलकुल बँधे-बँधे से दिखायी पड़ते हैं । उन्हीं लीलाओं में से एक लीला है बालकृष्ण द्वारा अपने पैर का अंगूठे पीने की लीला ।
श्रीकृष्णावतार की यह बाललीला देखने, सुनने अथवा पढ़ने में तो छोटी-सी तथा सामान्य लगती है किन्तु इसे कोई हृदयंगम कर ले और कृष्ण के रूप में मन लग जाय तो उसका तो बेड़ा पार होकर ही रहेगा क्योंकि ‘नन्हे श्याम की नन्ही लीला, भाव बड़ा गम्भीर रसीला ।’
श्रीकृष्ण की पैर का अंगूठा पीने की लीला का भाव
भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्येक कार्य को संतों ने लीला माना है जो उन्होंने किसी उद्देश्य से किया । जानते हैं संतों की दृष्टि में क्या है श्रीकृष्ण के पैर का अंगूठा पीने की लीला का भाव ?
संतों का मानना है कि बालकृष्ण अपने पैर के अंगूठे को पीने के पहले यह सोचते हैं कि क्यों ब्रह्मा, शिव, देव, ऋषि, मुनि आदि इन चरणों की वंदना करते रहते हैं और इन चरणों का ध्यान करने मात्र से उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ? कैसे इन चरण-कमलों के स्पर्श मात्र से गौतमऋषि की पत्नी अहिल्या पत्थर की शिला से सुन्दर स्त्री बन गई ?
कैसे इन चरण-कमलों से निकली गंगा का जल (गंगाजी विष्णुजी के पैर के अँगूठे से निकली हैं अत: उन्हें विष्णुपदी भी कहते हैं) दिन-रात लोगों के पापों को धोता रहता है ? क्यों ये चरण-कमल सदैव प्रेम-रस में डूबी गोपांगनाओं के वक्ष:स्थल में बसे रहते हैं ? क्यों ये चरण-कमल शिवजी के धन हैं । मेरे ये चरण-कमल भूदेवी और श्रीदेवी के हृदय-मंदिर में हमेशा क्यों विराजित हैं ।
जे पद-पदुम सदा शिव के धन,सिंधु-सुता उर ते नहिं टारे।
जे पद-पदुम परसि जलपावन,सुरसरि-दरस कटत अघ भारे।।
जे पद-पदुम परसि रिषि-पत्नी,बलि-मृग-ब्याध पतित बहु तारे।
जे पद-पदुम तात-रिस-आछत,मन-बच-क्रम प्रहलाद सँभारि।।
भक्तगण मुझसे कहते हैं कि—
हे कृष्ण ! तुम्हारे चरणारविन्द प्रणतजनों की कामना पूरी करने वाले हैं, लक्ष्मीजी के द्वारा सदा सेवित हैं, पृथ्वी के आभूषण हैं, विपत्तिकाल में ध्यान करने से कल्याण करने वाले हैं ।
भक्तों और संतों के हृदय में बसकर मेरे चरण-कमल सदैव उनको सुख प्रदान क्यों करते हैं ? बड़े-बड़े ऋषि मुनि अमृतरस को छोड़कर मेरे चरणकमलों के रस का ही पान क्यों करते हैं । क्या यह अमृतरस से भी ज्22यादा स्वादिष्ट है ?
विहाय पीयूषरसं मुनीश्वरा,
ममांघ्रिराजीवरसं पिबन्ति किम्।
इति स्वपादाम्बुजपानकौतुकी,
स गोपबाल: श्रियमातनोतु व:।।
अपने चरणों की इसी बात की परीक्षा करने के लिये बालकृष्ण अपने पैर के अंगूठे को पीने की लीला किया करते थे ।
वासुदेवा मिश्रा
कलिधर्मः
कलियुग के लक्षण
कलि शव्द कल् धातुमें इन् प्रत्यय (सर्वधातुभ्योः इन् – उणादिसूत्र 4-117) से निष्पन्न हुआ है । कल् धातुके विभिन्न अर्थ है, जैसे कि कलँ गतौ॑ स॒ङ्ख्याने॑ च, कलँ॒ शब्दसङ्ख्या॒नयोः॑, कलँऽ क्षेपे॑, आदि । उसी के अनुसार कलियुग के विभिन्न लक्षण देखनेको मिलते हैं ।
कलते स्पर्द्धते अर्थमें इस युग के मनुष्य स्पर्द्धाशील – एक अपर के प्रति स्पर्द्धा (हम किसीसे कम् नहीँ) का भावना रखने वाले होते हैं ।
कल्यन्ते, पापेषु निक्षिप्यते अनेन, यद्वा कलयति, पापेन जडयति, कलुषितं करोति, अर्थमें इस युग के मनुष्य पाप कार्य में अधिक आग्रह रखते हैं ।
कलौ अर्थ एवाभिजनहेतुः । कलियुग में अर्थ ही कुलीनता का कारण होगा ।
बलमेवाशेषधर्महेतुः । बल ही सम्पुर्ण धर्म का कारण होगा । बलवान् का धर्म ही धर्म होगा ।
अभिरुचिरेव दाम्पत्यसम्बन्धहेतुः । आजीवन सहधर्माचरण नहीँ, पारस्परिक रुचि ही दाम्पत्य का हेतु होगा । जो जिसे जव तक पसन्द हो तव तक विवाहसम्बन्ध रखेंगे ।
स्त्रीत्वमेवोपभोगहेतुः । स्त्री-स्वरूप ही (जिस किसी का भी योनि स्वरूप हो) उपभोग का कारण होगा ।
अनृतमेवव्यवहारजयहेतुः । मिथ्या (कपट) भाषण ही व्यवहार में सफलता प्राप्तकरने का कारण होगा ।
उन्नताम्बुतैव पृथिवीहेतुः । पुण्यक्षेत्रादि का विचार न करके जल की सुगमता और सुलभता ही वासस्थान का कारण होगा ।
ब्रह्मसूत्रमेव विप्रत्वहेतुः । यज्ञोपवीत (जनेउ) धारण मात्र ही ब्राह्मणत्व का कारण होगा ।
रत्नधातुतैव श्लाघ्यताहेतुः । रत्नादि धारण करना ही प्रशंसा का कारण होगा ।
लिङ्गधारणमेवाश्रमहेतुः । वाह्यचिन्ह ही (भगवा वस्त्र, शिखा, भस्मधारण आदि) आश्रमवासी का चिह्न होगा ।
अन्याय एव वृत्तिहेतुः । अन्याय (योग्यता से भिन्न अन्यविचार, जैसे जाति आदि) ही आजीविका (वृत्ति) का कारण होगा ।
दौर्बल्यमेवावृत्तिहेतुः । दुर्बलता (संघबद्ध न होना) ही बेकारी का कारण होगा ।
अभयप्रगल्भोच्चारणमेव पाण्डित्यहेतुः । निर्भय हो कर धृष्टता के साथ बोलना ही (जैसे कुछ राजनेता, वकील आदि करते हैं) पाण्डित्य का कारण होगा ।
अनाढ्यतैव साधुत्वहेतुः । निर्धनता ही साधुत्व में कारण होगा ।
स्नानमेव प्रसाधनहेतुः । शरीरशुद्धि केसिए स्नान नहीं करेंगे । प्रसाधन (सजना संवरना) ही स्नान का कारण होगा ।
दानमेव धर्महेतुः । (यश के लिये) दान ही धर्म का कारण होगा ।
स्वीकरणमेव विवाहहेतुः । एक अपर को स्वीकार करलेना ही (live-in relationship) विवाह का कारण होगा ।
सद्वेषधार्येव पात्रम् । वन-ठन कर रहनेवाला सुपात्र कहलायेगा ।
दूरायतनोदकमेव तीर्थहेतुः । दूरदेश का जल ही तीर्थ का स्थान लेगा ।
कपटवेषधारणमेव महत्त्वहेतुः । (अपने स्वाभाविक वेष से भिन्न) कपटवेष धारण करना ही महत्व का कारण होगा ।
महाभारत के युद्ध के पश्चात् काल की एक घटना है । भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं- हे युधिष्ठिर ! अब तुम विजेता हुए हो तो अब राजतिलक का दिन निश्चित कर तुम राज्य भोगो।”तब युधिष्ठिर कहते हैं – “मुझसे अब राज्य नहीं भोगा जाएगा । मैं अब तप करना चाहता हूँ । मुझे राज्यसुख की आकांक्षा नहीं है । तप करके फिर आकर राज्य सँभालूँगा ।
तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – नहीं, तुमसे फिर राज्य नहीं होगा क्योंकि अब कलियुग का प्रभाव शुरू हो चुका है । इसलिए तुम थोड़े समय राज्य करो, फिर तप करना ।
युधिष्ठिर को यह बात समझ में नहीं आयी । वे कहने लगेः पहले तप करूँगा, बाद में राज्य करूँगा । तब श्रीकृष्ण पुनः बोलेः फिर राज्य नहीं हो सकेगा ।
युधिष्ठिर के चित्त में राज्य करने की रूचि न थी । तब श्रीकृष्ण कहते हैं – “तुम पाँचों भाई वन में जाओ और जो कुछ भी दिखे वह आकर मुझे बताओ । मैं तुम्हें उसका प्रभाव बताऊँगा ।
पाँचों भाई वन में गये । युधिष्ठिर महाराज ने देखा कि किसी हाथी की दो सूँड है । यह देखकर आश्चर्य का पार न रहा । अर्जुन दूसरी दिशा में गये । वहाँ उन्होंने देखा कि कोई पक्षी है, उसके पंखों पर वेद की ऋचाएँ लिखी हुई हैं पर वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है । यह भी आश्चर्य है । भीम ने तीसरा आश्चर्य देखा कि गाय ने बछड़े को जन्म दिया है और बछड़े को इतना चाट रही है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है । सहदेव ने चौथा आश्चर्य देखा कि छः सात कुएँ हैं और आसपास के कुओं में पानी है किन्तु बीच का कुआँ खाली है । बीच का कुआँ गहरा है फिर भी पानी नहीं है । पाँचवे भाई नकुल ने भी एक अदभुत आश्चर्य देखा कि एक पहाड़ के ऊपर से एक बड़ी शिला लुढ़कती-लुढ़कती आती और कितने ही वृक्षों से टकराई पर उन वृक्षों के तने उसे रोक न सके । कितनी ही अन्य शिलाओं के साथ टकराई पर वह रुक न सकीं । अंत में एक अत्यंत छोटे पौधे का स्पर्श होते ही वह स्थिर हो गई । पाँचों भाईयों के आश्चर्यों का कोई पार नहीं । शाम को वे श्रीकृष्ण के पास गये और अपने अलग-अलग दृश्यों का वर्णन किया ।
युधिष्ठिर कहते हैं – मैंने दो सूँडवाला हाथी देखा तो मेरे आश्चर्य का कोई पार न रहा । तब श्री कृष्ण कहते हैं – कलियुग में ऐसे लोगों का राज्य होगा जो दोनों ओर से शोषण करेंगे । बोलेंगे कुछ और करेंगे कुछ । ऐसे लोगों का राज्य होगा । इसलिये तुम पहले राज्य कर लो ।
अर्जुन ने आश्चर्य देखा कि पक्षी के पंखों पर वेद की ऋचाएँ लिखी हुई हैं और पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है । इसी प्रकार कलियुग में ऐसे लोग रहेंगे जो बड़े-बड़े कहलायेंगे । बड़े पंडित और विद्वान कहलायेंगे किन्तु वे यही देखते रहेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और हमारे नाम से संपत्ति कर जाये । संस्था के व्यक्ति विचारेंगे कि कौन सा मनुष्य मरे और संस्था हमारे नाम से हो जाये । पंडित विचार करेंगे कि कब किसका श्राद्ध है? चाहे कितने भी बड़े लोग होंगे किन्तु उनकी दृष्टि तो धन के ऊपर (मांस के ऊपर) ही रहेगी । परधन परमन हरन को वैश्या बड़ी चतुर । ऐसे लोगों की बहुतायत होगी, कोई कोई विरल ही संत पुरूष होगा ।
भीम ने तीसरा आश्चर्य देखा कि गाय अपने बछड़े को इतना चाटती है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है । कलियुग का आदमी शिशुपाल हो जायेगा । बालकों के लिए ममता के कारण इतना तो करेगा कि उन्हें अपने विकास का अवसर ही नहीं मिलेगा । किसी का बेटा घर छोड़कर साधु बनेगा तो हजारों व्यक्ति दर्शन करेंगे किन्तु यदि अपना बेटा साधु बनता होगा तो रोयेंगे कि मेरे बेटे का क्या होगा? इतनी सारी ममता होगी कि उसे मोहमाया और परिवार में ही बाँधकर रखेंगे और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा । अंत में बिचारा अनाथ होकर मरेगा । वास्तव में लड़के तुम्हारे नहीं हैं । वे तो बहुओं की अमानत हैं । लड़कियाँ जमाइयों की अमानत हैं और तुम्हारा यह शरीर मृत्यु की अमानत है । तुम्हारी आत्मा-परमात्मा की अमानत हैं । तुम अपने शाश्वत संबंध को जान लो बस ।
सहदेव ने चौथा आश्चर्य यह देखा कि पाँच सात भरे कुएँ के बीच का कुआँ एक दम खाली । कलियुग में धनाढय लोग लड़के-लड़की के विवाह में, मकान के उत्सव में, छोटे-बड़े उत्सवों में तो लाखों रूपये खर्च कर देंगे परन्तु पड़ोस में ही यदि कोई भूखा प्यासा होगा तो यह नहीं देखेंगे कि उसका पेट भरा है या नहीं । दूसरी और मौज-मौज में, शराब, कबाब, फैशन और व्यसन में पैसे उड़ा देंगे । किन्तु किसी के दो आँसूँ पोंछने में उनकी रूचि न होगी । जिनकी रूचि होगी उन पर कलियुग का प्रभाव नहीं होगा, उन पर भगवान का प्रभाव होगा ।
पाँचवा आश्चर्य यह था कि एक बड़ी चट्टान पहाड़ पर से लुढ़की, वृक्षों के तने और चट्टाने उसे रोक न पाये किन्तु एक छोटे से पौधे से टकराते ही वह चट्टान रूक गई । कलियुग में मानव का मन नीचे गिरेगा, उसका जीवन पतित होगा । यह पतित जीवन धन की शिलाओं से नहीं रूकेगा न ही सत्ता के वृक्षों से रूकेगा । किन्तु हरिनाम के एक छोटे से पौधे से, हरि कीर्तन के एक छोटे से पौधे मनुष्य जीवन का पतन होना रूक जायेगा ।
इसलिए पांडवो ! तुम पहले थोड़े समय के लिए राज्य कर लो । कलियुग का प्रभाव बढ़ेगा तो तुम्हारे जैसे सज्जनों के लिए राज्य करना मुश्किल हो जाएगा । फिर तप करते-करते सीधे स्वर्ग में जाना, स्वर्गारोहण करना ।
अभी पवित्र पुरूषों के लिए भगवन्नाम कीर्तन, सत्संग ध्यान, निर्भयता और नारायण की प्रसन्नता के कार्यों को करते-करते स्वर्गारोहण करना आवश्यक है । अन्याय अत्याचार करना तो पाप है परन्तु अन्याय अत्याचार सहना उतनी ही बडा पाप है । पाप करना तो पाप है किन्तु पापी और हिंसकों से भयभीत हो कर उन्हें छूट देना महापाप है ।
प्रसाद देवरानी
भगवान कृष्ण का जीवन सिखाता है,सुख-दु:ख में सम रहने की अद्भुत कला
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*निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज॥
भावार्थ:-जिन्हें निंदा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं॥
सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश, जीवन-मरण, आदि इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति में सदैव सम रहना समत्वबुद्धि या समता योग कहलता है। मानव जीवन में सुख-दु:ख का आना-जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। तुलसीदासजी ने कहा है–
तुलसी इस संसार में, सुख-दु:ख दोनों होय।
ज्ञानी काटे ज्ञान से, मूरख काटे रोय।।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (८।१५) में संसार को ‘दु:खालयशाश्वतम्’ कहा है–अर्थात् इस संसार में जो भी जन्म लेता है, उसे दु:खों का सामना करना पड़ता है; परन्तु प्रत्येक मनुष्य दु:खी जीवन से बचना चाहता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (१२।१७) में कहा है कि जो सभी प्रकार के सुख-दु:ख में, सफलता और असफलता में सम रहता है, वह मुझे प्रिय है–
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:।।
‘सुख-दु:ख में सुखी-दु:खी होना भोग है और सुखी-दु:खी न होकर सम रहना योग है–’समत्वं योग उच्यते’ (गीता २।४८) अर्थात् जिस किसी तरह अपने में समता और निर्लिप्तता आनी चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (२।१४) में मनुष्य को दु:खों को सहन करने के लिए कहा है–’हे कौन्तेय! इन्द्रियों के जो विषय (जड़ पदार्थ) हैं, वे अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख और दु:ख देने वाले हैं। वे आने-जाने वाले और अनित्य हैं। उनको तुम सहन करो।
गीता (२।१५) में भगवान कहते हैं–सुख दु:ख में सम रहने वाला व्यक्ति जन्म-मरण से रहित हो जाता है,अर्थात् सुख-दु:ख में सम रहना ही सुख-दु:ख को सहना है। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में समता योग के कुछ अनुपम उदाहरण!!!!!!
भगवान श्रीकृष्ण को समता बहुत प्रिय थी, इसलिए गीता में उन्होंने समता का वर्णन किया है। गीता में उन्होंने केवल कहा ही नहीं अपितु काम पड़ने पर व्यवहार भी समता का ही किया।
छ: कौरव महारथियों–द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, बृहद्बल और कृतवर्मा–द्वारा अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेरकर जयद्रथ ने पीछे से निहत्थे अभिमन्यु पर ज़ोरदार प्रहार किया। उस वार की मार अभिमन्यु सह ना सका और वीरगति को प्राप्त हो गया। अभिमन्यु की मृत्यु अत्यन्त ही निन्दनीय और हृदयविदारक घटना थी। सुभद्रा और उत्तरा का विलाप सुनना सबके लिए असह्य हो गया। युधिष्ठिर, अर्जुन, सुभद्रा और उत्तरा की तरह श्रीकृष्ण भी अपने भांनजे की मृत्यु से कम दु:खी न थे परन्तु ऐसे विचित्र क्षणों में परिवार को उबारने में उन जैसा समत्वयोगी ही समर्थ हो सकता है। गहरी मनोव्यथा में डूबे अर्जुन को सान्त्वना देते हुए भगवान श्रीकृष्ण बोले–
‘मित्र! ऐसे व्याकुल न होओ। पुरुषसिंह! शोक न करो! धर्मशास्त्रकारों ने संग्राम में वध होना ही क्षत्रियों का सनातन धर्म बतलाया है।’ (महाभा. द्रोण. ७२।७२)
अपनी बहिन सुभद्रा को पुत्र की मृत्यु पर श्रीकृष्ण ने जो सान्त्वना शब्द कहे वे उनकी अद्भुत धीरता दिखलाते हैं– ‘सुभद्रे! तुम वीर-माता, वीर-पत्नी, वीर-कन्या और वीर भाइयों की बहिन हो। पुत्र के लिए शोक न करो। वह उत्तम गति को प्राप्त हुआ है।’
भगवान श्रीकृष्ण का यह संवेदना-संदेश तो अद्भुत धैर्य और पराक्रम से भरा है– ‘हमारी इच्छा तो यह है कि हमारे कुल में और भी जितने पुरुष हैं, वे सब यशस्वी अभिमन्यु की ही गति प्राप्त करें।’ (महाभा. द्रोण. ७८।४१)
महाभारत युद्ध के पश्चात् जब श्रीकृष्ण सहित सभी पांडव गांधारी से मिलने गए, तब पुत्रशोक में विह्वल गांधारी ने आंखों की पट्टी के भीतर से ही राजा युधिष्ठिर के पैरों की अंगुलियों के अग्रभाग को एक क्षण के लिए देखा। इतने देखने मात्र से ही युधिष्ठिर के पैरों के नाखून काले पड़ गए। गांधारीजी यह बात अच्छी तरह से जानती थीं कि महाभारत का पूरा युद्ध जिस योद्धा के बलबूते पर लड़ा गया है और जिसके कारण पाण्डवों को विजय मिली है, वह श्रीकृष्ण ही हैं। अत: गांधारीजी का सारा क्रोध्र श्रीकृष्ण पर ही केन्द्रित हो गया। वे श्रीकृष्ण को सम्बोधित करती हुई कहती हैं–
‘मधुसूदन! माधव! जनार्दन! कमलनयन! तुम शक्तिशाली थे, तुममें महान बल है, तुम्हारे पास बहुत-से सैनिक थे, दोनों पक्षों से अपनी बात मनवा लेने की सामर्थ्य तुममें थी, तुमने वेदशास्त्र और महात्माओं की बात सुनी और जानी हैं, यह सब होते हुए भी तुमने स्वेच्छा से कुरुवंश के नाश की उपेक्षा की; जानबूझकर इस वंश का नाश होने दिया। यह तुम्हारा महान दोष है, अत: तुम इसका फल प्राप्त करो।’ (महाभा. स्त्री. २५।४०-४१)
इतना सब सुनकर भी श्रीकृष्ण शान्त, गम्भीर और मौन रहे। गांधारी के क्रोध ने प्रचण्डरूप धारण कर लिया और वे नागिन की भांति फुफकार कर बोली–
‘चक्रगदाधर! मैंने पति की सेवा से जो कुछ भी तप प्राप्त किया है, उस तपोबल से तुम्हें शाप दे रही हूँ–आज से छत्तीसवां वर्ष आने पर तुम्हारा समस्त परिवार आपस में लड़कर मर जाएगा। तुम सबकी आंखों से ओझल होकर अनाथ के समान वन में घूमोगे और किसी निन्दित उपाय से मृत्यु को प्राप्त होगे। इन भरतवंश की स्त्रियों के जैसे तुम्हारे कुल की स्त्रियां भी इसी तरह सगे-सम्बन्धियों की लाशों पर गिरेंगी।’
ऐसा घोर शाप सुनकर भला कौन न भय से कांप उठता, परन्तु श्रीकृष्ण ने उसी गम्भीर मुस्कान के साथ कहा–‘मैं जानता हूँ, ऐसा ही होने वाला है। वृष्णिकुल का संहारक मेरे अतिरिक्त और हो भी कौन सकता है? यादवों को देव, दानव और मनुष्य तो मार नहीं सकते, अत: वे आपस में ही लड़कर नष्ट होंगे।’
शाप सुनकर भी भगवान श्रीकृष्ण गांधारी से कहते हैं–’उठो! शोक मत करो। प्रतिदिन युद्ध के लिए जाने से पूर्व जब तुम्हारा पुत्र दुर्योधन तुमसे आशीर्वाद लेने आता था और कहता था कि मां मैं युद्ध के लिए जा रहा हूँ, तुम मेरे कल्याण के लिए आशीर्वाद दो, तब तुम सदा यही उत्तर देती थीं ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ अर्थात् धर्म की जय हो।’
यह कहकर समत्वयोगी श्रीकृष्ण निर्विकार भाव से खड़े रहे और गांधारी मौन हो गयीं।
इस प्रसंग का सार यही है कि सुख-दु:ख को मेहमान समझकर स्वागत करें। दु:ख में विचलित न होकर धैर्य के साथ उसका सामना करें। क्योंकि वाल्मीकिरामायण में कहा गया है–‘दुर्लभं हि सदा सुखम्।’ अर्थात् सदा सुख मिले यह दुर्लभ है।
- जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥
भावार्थ:-जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं॥
- सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥
भावार्थ:-मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए॥
साभार
श्री राधिका जु
लट उरझी सुरझाय जा मेरे कर मेंहदी लगी हरि, आयजा।
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लट उरझी सुरझाय जा,
मेरे कर मेंहदी लगी हरि, आयजा।
माथे की बेंदी सरक गयी है,अपने हाथ लगाय जा ।
मेरे कर मेंहदी लगी।
सिर की सारी सरक गयी है
अपने हाथ उढ़ाय जा ,मेरे कर मेंहदी लगी !
चन्दसखी भज बालकृष्ण छबि
बीरी तनक खबाय जा ,मेरे कर मेंहदी लगी !
~ चन्दसखी
Part 2
एरी आजकाल सब लोकलाज त्याग दोऊ,
सीखे हैंसब बिधि सनेह सरसायबौ।
यह रसखान दिना द्वै में बात फैल जैहै,
कहां लौं सयानी चंदा हाथन छिपायबौ ।
आज ही निहार्यौ वीर, निकट कलिंदी तीर,
दोउन कौ दो उन सौं मुरि मुसकायबौ।
दोऊ परैं पैंयां दोऊ लेत हैं बलैयां,
उन्हें भूल गई गैयां इन्हें गागर उठायबौ।
रसखान
Part 3
ब्रह्म मैं ढूंड्यौ पुरानन गानन,
वेद रिचा सुनी चौगुने चायन।
देख्यौ सुन्यौ कबहू न कितै
वह कैसौ स्वरूप औ कैसौ सुभायन !
मैं ब्रह्म को खोजने निकला,
वेद,पुराण खोजे,उसका न रूप का पता चला न स्वभाव का!
उसको टेरता रहा,हेरता रहा,हार गया।
रसखान कहते हैं,नर और नारी किसी ने कुछ नहीं बताया।
वृंदावन गया,वहां की कुंज- कुटी में दुबका हुआ
वह ब्रह्म राधारानी के पैर दाब रहा था
टेरत हेरत हार पर्यौ
रसखान बतायौ न लोगलुगायन।
देख्यौ-दुर्यौ वह कुंजकुटीर में
बैठ्यौ पलोटत राधिका-पायन।
रसखान
Part 4
मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गले पहरौंगी।
ओढ पितंबर लै लकुटी, वन गोधन ग्वालनि संग फिरौंगी।।
भावतो मोहि वही रसखान, सो तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
वा मुरली मुरलीधर की अधरान- धरी, अधरा न धरौंगी।।
रसखान
Part 5
मुक्ति भरै तहं पानी
““““““““““““““““““““““““““““““`
मुक्ति कहै गोपाल ते ,मेरी मुक्ति बताय ।
ब्रज-रज उड़ि मस्तक परै ,मुक्ति मुक्त ह्वै जाय ।
गोपाल-संस्कृति लोकसंस्कृति है ।
इसके संबंध में गहराई से सोचने की जरूरत है ।
यज्ञ ,तप आदि की महिमा शास्त्रों में है ,तो रही आवे ।
पुरुषार्थ-चतुष्टय में मोक्ष को अन्तिम-पुरुषार्थ माना गया तो माना गया ,ठीक है । लेकिन गोपाल-संस्कृति में मुक्ति की क्या कदर है ?
मुक्ति भरै तहं पानी ।
मुक्ति नौन सी खारी लागै ।
गोपाल-संस्कृति में पुरुषार्थ का स्वरूप है >> ब्रज-रज में धूलि-धूसरित रहना , सामान्य हो जाना !
धूलि से अधिक और सामान्य क्या होगा ? हम न भई बिन्दावन रेनु ।
आऔ एक बार धारि गोकुल-गली की धूरि ,तब एहि नीति की प्रतीति कर लै हैं हम ।
श्रीकृष्ण से उद्धव ने ज्ञान की बात कही ,तो श्रीकृष्ण बोले > बात तो तुम्हारी ठीक ही है किन्तु एक बार ब्रजरज को नमस्कार कर आओ ,तब तुम जैसा कहोगे ,मान लूंगा ।
बेचारे उद्धव ब्रज में ज्ञान लेकर के आये ,जब लौटे तो बोले >>
आसामहो चरणरेणु जुषामहंस्यां
अथवा
वन्दे नन्द व्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश: । भागवत १०-४७
ज्ञान तो मुझे अब हुआ है श्रीकृष्ण ! मुक्ति यदि कहीं है भी तो वह इन सहज -सामान्य ब्रज-गोपिकाओं की चरण-रज से नीचे ही है ।
यह रज विशेष का निषॆध है । सामान्य बन जाना >> यही लोकसंस्कृति का संदॆश भी है । यही पुरुषार्थ का स्वरूप है |
Part 6
शृणु सखि कौतुकमेकं नन्दनिकेतांगणे मया दृष्टम्।
गोधूलि-धूसरांगो नृत्यति वेदान्त-सिद्धान्त :।
अरी सखी ! सुनो तो आज तो बडे अचरज की बात देख कर आयी हूं ।
कहां देखा सखि ?
अरी, नन्दबाबा के आंगन में देखा !
क्या देखा सखि ?
वहां आकर वेदान्त का परम सिद्धान्त गोधूलि से धूसरित होकर नाच रहा है ।
कल तक जो अपने को साध्य बतला रहा था , कल तक जो अपने को विशेष बतलाता था ,आज वह सामान्य बन जाने में ही धन्यता का अनुभव कर रहा है ।
Part 7
लोकतत्व :लीला:गोपजीवन
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दानलीला, माखनचोरी, रासलीला,चीरहरण >कितनी ही लीलाएं हैं !
कृष्ण- लीलाओं का जो ठाठ खडा है,
उसमें जनजातीयतत्व ,जनजातिकी मर्यादा,
उनके रीतिरिवाज,
नरनारी के उन्मुक्त-संबंध ,नृत्यगीत इत्यादि के अध्ययन से
वह लोकतत्व स्पष्ट होगा !
उनका मूल तो लोकगीतों में ही है ।
लीला इतिहास की घटना नहीं होती ।
सूरदास को समझने के लिये गोपजीवन को समझना होगा ।
सूरदास के काव्य में गोपजीवन का समग्र चित्र है ।
जगह-जगह वे उल्लेख कर रहे हैं >
सब सुन्दरी सबै नव जोवन निठुर अहिर की जात।
<blockquote>
हम अहीर गृहनारि लोकलज्जा के जेरे ।
गोरस बेचनहारि गूजरी अति इतराती ।
दस गैयन कर को बडौ अहिरजाति सब एक ।
जब अहीर का संदर्भ आया है तो ब्रज के गोप और गूजर का सन्दर्भ अपने आप ही आगया ।
</blockquote>
बडा पुरखा चले- जाने के बाद भी कुलों को किस प्रकार जोड देता है ,इसका उदाहरण श्रीकृष्ण हैं।
मथुरा से यादवों का एक कुल दक्षिण गया, जिसने वहां मदुरै बसाया ।
आयर-जन गायें चराते और कण्णन के गीत गाते।
यादव-गोप और आभीर जातियां गोपालदेवता की उपासक हैं और यह एकता इनको अन्तर्भुक्त करती है।
कृष्ण-साहित्य में अहीर-गोप-यादव और गूजर-तत्व बहुत महत्वपूर्ण है
<blockquote>
हम तौ निपट अहीर बाबरी जोग दीजिये जानन।
या >> ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पै नाच नचामें।
राधा संबंधी गीतों में गुजरिया बरसाने की जैसे पद हैं।
</blockquote>
<hr />
Part 8
सूरदास में उपासना का लोकतंत्र है। मुनिमद मेंटि दासव्रत राख्यौ अंबरीष हितकारी।
दुर्वासा जैसे तपस्वी के सामने वे दासधर्म के साथ खडे हैं। सूरकाव्य सर्वजनचेतना का काव्य है। जात पांत कुलकान गनत नहि रंक होय कै रानौ। विदुरानी ने प्यार से याद किया गोपाल ने दरवाजा खट्खटा दिया। केला के छिलके खिलाये बाबली ने? आपा भूल गयी। दुर्योधन ने उलाहना दिया .
हमतें विदुर कहा है नीकौ? ताकी झुगिया में तुम बैठे कौन बडप्पन पायौ? जात-पांत कुल हू तें न्यारौ है दासी कौ जायौ।
कृष्ण ने जवाब दिया जहं अभिमान तहां मैं नाहीं वह भोजन बिस लागे।
<hr />
Part 9
मदन ने भगवान शिव पर जब अपना बाण चलाया तो सारी सृष्टि कामुक हो उठी वही बचे जो भगवान की शरण लिए थे।
वैसी ही स्तिथि सभी मनोभावों आवेगों के लिए होती है। उनके रंग में रंगे लोग उसके समर्थन में समर्पित तर्क ढूंढ लेते हैं।
स्थिति यह हो चली है कि इस(आप जैसे कतिपय विवेकी)तरह की समझ रखने वाले अपने परिवार तक में अकेले होते जा रहे हैं।
बस सब तजि हरि भज!
बस दिया कबीरा रोय।।
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Part 10
कृष्ण एक देश या एक काल का भाव नहीं है,
क्योंकि वह केवल इतिहास नहीं है।
इतिहास देश काल का बंधन है।
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Part 11
वंशी जहां बजती है,जब कभी बजती है,
रवींद्र नाथ टैगोर कहते हैं >तोमार वांशि आमार प्राणे बेजे छे।
कृष्णतत्व रागतत्व है,रंजयतीति राग:।
अपने रंग में रंग लेता है,तो दूसरा रंग चढता ही नहीं
<blockquote>
सूरदास की कारी कामर चढे न दूजौ रंग।
</blockquote>
कैसा उन्मादी रंग है!
इस रंग को छुटाने का मन ही नहीं करता
<blockquote>
मेरी चुनरी में लग गयौ दाग री ऐसौ चटक रंग डारौ!
</blockquote>
एक बार देखती है तो कंठ से सौ-सौ रागिनियां फूट पडती हैं।
यह रंग कभी न छूटे, मैं इसे सौ बार देखूं और हजार बार नाचूं >
लोग कहें मीरा भई रे बाबरी सास कहे घर नासी रे,पग घुंघरू बांध मीरा नाची ।
तमिलनाडु के आलवारों ने नाप्पिन्नै के दिव्यसौंदर्य का चित्रण किया है,
अंडाल ने नाप्पिन्नै को नंद गोप की वधू कहा था।
आयर लोग मुल्लै वनांचल में गाय चराते थे,कण्णन के गीत गाते थे।
कन्नड के नाइणप्पा और पंप के कृष्णकाव्य प्रसिद्ध हैं॥
केरल के कृष्ण पांडुरंग हैं,
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Part 12
लीलाशुक का कृष्णकर्णामृत कह रहा है
<blockquote>
भीमरथी के पुलिन पर मत जाना, वहां तमालनील चित्त रूपी वित्त को लूट लेगा।
असम में शंकरदेव ने ब्रजबुलि में कृष्णगीत गाये।
</blockquote>
उडीसा में नावकेलि,नटचोरिगीत हैं।
महाराष्ट्र में गोविंदा आला रे की टेर गूंज रही है।
गुजरात गा रहा है >
सखी सहेली ना संग मा रे अमें चाल्यां छे जमना तीर रे आज कोई रोको नहीं।मनिपुर की विंबावती तो मीरा ही है।
सारा भारत ही कृष्णराग में रंगा है।
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Part 13
शठकोप शूद्रमुनि थे
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वैष्णवदर्शन की चार परंपराओं का उल्लेख प्राय: सभी जगह किया जाता है ।
आचार्य श्रीरामानुज का विशिष्टाद्वैत ,
श्री निंबार्कआचार्य का द्वैताद्वैत,
श्री मध्वआचार्य का द्वैतवाद तथा आचार्यवल्लभ का शुद्धाद्वैत ।
ये चारों दार्शनिक आचार्य थे, सिद्धान्तों के प्रतिपादक थे तथा इन चारों ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य किया था ।
गीता का भाष्य भी लिखा था ।
भागवत को भी चारों ने ही आधार बनाया था ।
निस्सन्देह ये चारों ही वन्दनीय हैं ।
लेकिन जीवन-परंपरा तो नदी की तरह बहती है , पहले छोटे-छोटे स्रोत होते हैं , वे मिलते हैं , मिलते -मिलते बडी धारा बन जाती है ।
जब हम इस क्रम को देखते हैं तो हमें आश्चर्य होता है कि भले ही इन आचार्यों ने उस जीवन -परंपरा को सैद्धान्तिक आधार दिया था किन्तु वे धाराएं इनसे भी पहले लोकजीवन में मौजूद हैं ।
उदाहरण के लिये रामानुज को ही देखें ,
इनकी परंपरा मुनि शठकोप से जा कर मिलती है , जिनकी वाणी >> तिरुवायमौलि << है और जिसे तामिलवेद या द्रविडवेद कहा जाता है ।
नाथमुनि ने मधुर कवि के शिष्य परांकुश जी से उनकी वाणी को प्राप्त किया ।
ये शठकोप शूद्रमुनि थे ।
शास्त्र का अध्ययन तो विभागों में होता ही है किन्तु शास्त्र के साथ जब हम लोकजीवन की परंपरा को देखते हैं , तब ये बातें स्पष्ट होती हैं।
Part 14
श्रीविष्णुस्वामी
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वैष्णवदर्शन और उसकी परंपरा के प्रसंग में श्रीविष्णुस्वामी का नाम बडी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है ।
यों उनकी किसी कृति का उल्लेख तो पढने को नहीं मिला किन्तु उनके अनुयायियों का एक ग्रन्थ >> साकारसिद्धि << चर्चा में अवश्य रहा है। ग्रियर्सन के एन्साइक्लोपीडिया ओफ रिलीजन एंड एथिक्स में तो कहा गया है कि श्रीविष्णुस्वामी१४ वीं शताब्दी के थे , वल्लभाचार्य के पिता लक्ष्मण भट्ट उनके शिष्य थे ।
किन्तु सर्वदर्शनसंग्रह नामक ग्रन्थ में माधवाचार्यजी ने जिस प्रकार से श्रीविष्णुस्वामी-संप्रदाय का वर्णन किया है , उससे प्रतीत होता है कि वे आचार्यवल्लभ से बहुत पहले के आचार्य हैं।
श्रीविष्णुस्वामी सिद्ध थे , यह तो सभी मानते हैं।कहा जाता है कि श्रीविष्णुस्वामी के पिता द्रविडदेश के राजा थे , जो दिल्लीसम्राट के अधीन थे ।
नाभादास के भक्तमाल में ज्ञानदेव को इनके संप्रदाय का अनुवर्ती कहा गया है।
इससे इनका समय ई. १२५० के आसपास होना संभव है ।
आगे चल कर वल्लभाचार्य ने इनके सिद्धान्त को आगे बढाया किन्तु इसी के साथ यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीविष्णुस्वामी की परंपरा अन्य कई धाराओं में भी चलती रही है ।
सर्वदर्शनसंग्रह में श्रीविष्णुस्वामी के मतानुयायियों में गर्भकान्तमिश्र का भी नाम आता है , ये नृसिंहमूर्ति के उपासक थे ।
આ મેસેજ સમજપુર્વક 3 થી 4 વખત વાંચજો. હું જયારે જયારે અસમજણ માં હોઉં ત્યારે નિરાંતે 5 વખત વાંચીને નિશ્ચિંત થઇ જાઉં છું. આપ સૌને આમાં થી સમજ અને બળ મળશે તો મારી જાતને ધન્ય સમજીશ.
શ્રીકૃષ્ણ ભગવાનની કથા એમ કહે છે કે તેઓ જન્મ્યા પહેલા જ તેમને મારી નાખવાની તૈયારી થઇ ગઈ હતી.
પણ તેમાંથી તેઓ આબાદ ઉગરી ગયા. આગળ તેમના જીવનમાં ઘણા સંકટો આવ્યા પણ તેઓ લડતા રહ્યા કોઈને કોઈ યુક્તિ કરીને હંમેશા બચતા રહ્યા.
કોઈ પ્રસંગમાં તો તેઓ રણ છોડી ભાગી પણ ગયા હતા,
પણ મારા જીવન માં આટલી બધી તકલીફો કેમ છે કરી ને તેઓ કોઈ દિવસ કોઈને પણ પોતાની જન્મકુંડળી બતાવવા ગયા હોય એવી કોઈ નોધ મેં નથી વાંચી.
ના કોઈ ઉપવાસ કર્યા, ના ખુલ્લા પગે ક્યાંય ચાલવાની માનતા કરી, કે કોઈ માતાજી ના ભુવા પાસે દાણા જોવડાવ્યા,
મારે આ પ્રસંગ યાદ રાખવા જેવો ને વિચારવા જેવો છે.
તેમણે તો યજ્ઞ કર્યો તે ફક્ત અને ફક્ત કર્મોનો.
યુદ્ધના મેદાનમાં જયારે અર્જુને ધનુષ્ય બાણ નીચે નાખી દીધા,
ત્યારે ભગવાન શ્રીકુષ્ણ એ ના તો અર્જુનના જન્માક્ષર જોયા, ના તો તેને કોઈ દોરો કે તાવીજ આપ્યા,
આ તારું યુદ્ધ છે અને તારે જ કરવાનું છે એમ અર્જુન ને સ્પષ્ટ કહી દીધું.
અર્જુને જયારે ધનુષ્ય નાખી દીધું ત્યારે તે ધનુષ ઉપાડી ભગવાને અર્જુન વતી લડાઈ નથી કરી.
બાકી શ્રીકુષ્ણ ભગવાન ખુદ મહાન યોદ્ધા હતા.
તેઓ એકલા હાથે આખી કૌરવોની સેના ને હરાવી શકે તેમ હતા,પણ ભગવાને શસ્ત્ર હાથ માં નહોતું પકડ્યું પણ જો અર્જુને લડવાની તૈયારી બતાવી તો તેઓ તેના સારથી ( માર્ગદર્શક ) બનવા તૈયાર હતા.
આ રીતે ભગવાન શ્રીકૃષ્ણ મને સમજાવે છે કે જો દુનિયાની તકલીફોમાં તું જાતે લડીશ તો હું હંમેશા તારી આગળ ઉભો હોઈશ.
તારી તકલીફો ને હું હળવી કરી નાખીશ અને તને માર્ગદર્શન પણ આપીશ,
કદાચ આજ ગીતા નો સહુથી સંક્ષિપ્ત સાર છે.
જયારે હું પ્રભુ સન્મુખ થાવ ત્યારે ભગવાનને એટલી જ વિનંતી કરું કે ભગવાન મારી તકલીફો થી લડવાની મને શક્તિ આપજો.
નહિ કે ભગવાન મારી તકલીફો થી છુટકારો આપજો.
ભગવાન માંગે છે તો મારું સ્વાર્થ વગરનું કર્મ,….
માટે મારે કર્મ કરતા રહેવું.
સમય કાઢીને આ મેસેજ ખાસ વાંચવા વિનંતી. 🙏🏻
🕉~:||सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्|
ज्योति अग्रवाल
~🚩 जय श्रीहरिः शरणम्… जय श्रीकृष्ण शरणम् मम्: 💓________________ 💫🍃आज हम आपको भगवान श्रीकृष्ण के आठ विवाह और उनके अस्सी पुत्रों की कथा का वर्णन बताते है:~👨👨👧👧🌹👏🙏🕉🚩
पुराणों के अनुसार श्री कृष्ण जी ने ने 8 स्त्रियों से विवाह किया था जो उनकी पटरानियां बनी थी। ये थी :– रुक्मिणी, जाम्बवती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविंदा, सत्या(नाग्नजिती), भद्रा और लक्ष्मणा। प्रत्येक पत्नी से उन्हें 10 पुत्रों की प्राप्ति हुई थी इस तरह से उनके 80 पुत्र थे। आज हम आपको श्री कृष्ण जी की 8 रानियों और 80 पुत्रों के बारे में बताएँगे:~~
1:~ रुक्मिणी विदर्भ राज्य का भीष्म नामक एक वीर राजा था। उसकी पुत्री का नाम रुक्मिणी था। वह साक्षात लक्ष्मीजी का ही अंश थीं। वह अत्यधिक सुंदर और सभी गुणों वाली थी। नारद जी द्वारा श्रीकृष्ण के गुणों सा वर्णन सुनने पर रुक्मिणी श्रीकृष्ण से ही विवाह करना चाहती थी। रुक्मिणी के रूप और गुणों की चर्चा सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने भी रुक्मिणी के साथ विवाह करने का निश्चय कर लिया था।
रुक्मिणी का एक भाई था, जिसना नाम रुक्मि था। उसने रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से साथ तय कर दिया था। जब यह बात श्रीकृष्ण को पता चली तो वे विवाह से एक दिन पहले बलपूर्वक रुक्मिणी का हरण कर द्वारका ले गए। द्वारका पहुंचने के बाद श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का विवाह किया गया। रुकमणी के दस पुत्र पैदा हुये।
रूक्मिणी के पुत्रों के ये नाम थे :- प्रद्युम्न, चारूदेष्ण, सुदेष्ण, चारूदेह, सुचारू, विचारू, चारू, चरूगुप्त, भद्रचारू, चारूचंद्र।
2:~जाम्बवत सत्राजित नामक एक यादव था। उसने भगवान सूर्य की बहुत भक्ति की। जिससे खुश होकर भगवान ने उसे एक मणि प्रदान की थी। भगवान कृष्ण ने सत्राजित को वह मणि राजा उग्रसेन को भेंट करने को कहा, लेकिन सत्राजित ने उनकी बात नहीं मानी और मणि अपने पास ही रखी। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को लेकर जंगल में शिकार करने गया। वहां एक शेर ने प्रसेन का वध करके वह मणि छीन ली और अपनी गुफा में जा छिपा। कुछ दिनों बाद ऋक्षराज जाम्बवन्त ने शेर को मारकर वह मणि अपने पास रख ली।
सत्राजित ने मणि चुराने और अपने भाई का वध करने का दोष श्रीकृष्ण पर लगा। इस दोष के मुक्ति पाने के लिए श्रीकृष्ण उस मणि की खोज करने के लिए वन में गए। मणि की रोशनी से श्रीकृष्ण उस गुफा तक पहुंच गए, जहां जाम्बवन्त और उसकी पुत्री जाम्बवती रहती थी। श्रीकृष्ण और जाम्बवन्त के बीच घोर युद्ध हुआ।
युद्ध में पराजित होने पर जाम्बवन्त को श्रीकृष्ण के स्वयं विष्णु अवतार होने की बात पता चली। श्रीकृष्ण का असली रूप जानने पर जाम्बवन्त ने उनसे क्षमा मांगी और अपने अपराध का प्रायश्चित करने के लिए अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।
जाम्बवंती के पुत्र ये थे:- साम्ब, सुमित्र, पुरूजित, शतजित, सहस्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ व क्रतु।
3:~सत्यभाम मणि लेकर श्रीकृष्ण द्वारका पहुंचे। वहां पहुंचकर श्रीकृष्ण ने वह मणि सत्राजित को दी और खुद पर लगाए दोष को गलत साबित किया। श्रीकृष्ण के निर्दोष साबित होने पर सत्राजित खुद को अपमानित महसूस करने लगा। वह श्रीकृष्ण के तेज को जानता था, इसलिए वह बहुत भयभीत हो गया। उसकी मूर्खता की वजह से कहीं श्रीकृष्ण की उससे कोई दुश्मनी न हो जाए, इस डर से सत्राजित ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।
सत्यभामा के पुत्रों के नाम थे :- भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
4:~ सत्या (नग्नजिती) कौशल राज्य के राजा नग्नजित की एक पुत्री थी। जिसका नाम नग्नजिती थी। वह बहुत सुंदर और सभी गुणों वाली थी। अपनी पुत्री के लिए योग्य वर पाने के लिए नग्नजित ने शर्त रखी। शर्त यह थी कि जो भी क्षत्रिय वीर सात बैलों पर जीत प्राप्त कर लेगा, उसी के साथ नग्नजिती का विवाह किया जाएगा। एक दिन भगवान कृष्ण को देख नग्नजिती उन पर मोहित हो गई और मन ही मन भगवान कृष्ण से ही विवाह करने का प्रण ले लिया। भगवान कृष्ण यह बात जान चुके थे।
अपनी भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान कृष्ण ने सातों बैल को अपने वश में करके उन पर विजय प्राप्त की। भगवान का यह पराक्रम देखकर नग्नजित ने अपनी पुत्री का विवाह भगवान कृष्ण के साथ किया।
सत्या के बेटों के नाम ये थे :- वीर, अश्वसेन, चंद्र, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुंत।
5:~ कालिन्दी एक बार भगवान कृष्ण अपने प्रिय अर्जुन के साथ वन में घूम रहे थे। यात्रा की धकान दूर करने के लिए वे दोनों यमुना नदीं के किनार जाकर बैठ गए। वहां पर श्रीकृष्ण और अर्जुन को एक युवती तपस्या करती हुई दिखाई दी। उस युवती को देखकर अर्जुन ने उसका परिचय पूछा। अर्जुन द्वारा ऐसा पूछने पर उस युवती ने अपना नाम सूर्यपुत्री कालिन्दी बताया।
वह यमुना नदीं में निवास करते हुए भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। यह बात जान कर भगवान श्रीकृष्ण ने कालिन्दी को अपने भगवान विष्णु के अवतार होने की बात बताई और उसे अपने साथ द्वारका ले गए। द्वारका पहुंचने पर भगवान श्रीकृष्ण और कालिन्दी का विवाह किया गया।
कालिंदी के पुत्रों के नाम ये थे :- श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास एवं सोमक।
6:~ लक्ष्मणा लक्ष्मणा ने देवर्षि नारद से भगवान विष्णु के अवतारों के बारे में कई बातों सुनी थी। उसका मन सदैव भगवान के स्मरण और भक्ति में लगा रहता था। लक्ष्मणा भगवान विष्णु को ही अपने पति रूप में प्राप्त करना चाहती थी। उसके पिता यह बात जानते थे।
अपनी पुत्री की इच्छा पूरी करने के लिए उसके पिता ने स्वयंवर का एक ऐसा आयोजन किया, जिसमें लक्ष्य भेद भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के सिवा कोई दूसरा नही कर सके। लक्ष्मणा के पिता ने अपनी पुत्री के विवाह उसी वीर से करने का निश्चय किया, जो की पानी में मछली की परछाई देखकर मछली पर निशाना लगा सके।
शिशुपाल, कर्ण, दुर्योधन, अर्जुन कोई भी इस लक्ष्य का भेद नही कर सका। तब भगवान कृष्ण ने केवल परछाई देखकर मछली पर निशाना लगाकर स्वयंवर में विजयी हुए और लक्ष्मणा के साथ विवाह किया।
लक्ष्मणा के पुत्रों के नाम थे :- प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊध्र्वग, महाशक्ति, सह, ओज एवं अपराजित।
7:~ मित्रविंदा अवंतिका (उज्जैन) की राजकुमारी मित्रविंदा के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया गया था। उस स्वयंवर में मित्रविंदा जिसे भी अपने पति रूप में चुनती उसके साथ मित्रविंदा का विवाह कर दिया जाता। उस स्वयंवर में भगवान कृष्ण भी पहुंचे। मित्रविंदा भगवान कृष्ण के साथ ही विवाह करना चाहती था, लेकिन उसका भाई विंद दुर्योधन का मित्र था।
इसलिए उसने अपनी बहन को बल से भगवान कृष्ण को चुनने से रोक लिया। जब भगवान कृष्ण को मित्रविंदा के मन की बात पता चली। तब भगवान ने सभी विरोधियों के सामने ही मित्रविंदा का हरण कर लिया और उसके साथ विवाह किया।
मित्रविंदा के पुत्रों के नाम यह है :- वृक, हर्ष, अनिल, गृध, वर्धन, अन्नाद, महांश, पावन, वहिन तथा क्षुधि।
8:~भद्रा भगवान श्रीकृष्ण की श्रुतकीर्ति नामक एक भुआ कैकय देश में रहती थी। उनकी एक भद्रा नामक कन्या थी। भद्रा और उसके भाई भगवान श्रीकृष्ण के गुणों को जानते थे। इसलिए भद्रा के भाइयों ने उसका विवाह भगवान श्रीकृष्ण के साथ करने का निर्णय किया। अपनी भुआ और भाइयों के इच्छा पूरी करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने पूरे विधि-विधान के साथ भद्रा के साथ विवाह किया।
भद्रा के पुत्र :- संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।
विशेष:~~ इनके अलावा भी श्रीकृष्ण जी की 16100 और पत्नियां बताई जाती है। इन 16100 कन्याओं को श्री कृष्ण ने नरकासुर राक्षस का वध कर मुक्त कराया था और अपने यहाँ आश्रय दिया था। इन सभी कन्याओं ने श्री कृष्ण को पति स्वरुप मान लिया था।हरि-ॐ- जय जै श्रीकृष्णा कृष्णा हरे हरे-हरे मुरारी🌹👏 जय श्रीमन्न नारायणः नारायणः श्रीहरिः 🦅$–राधे💞राधे–👏-💓______________________
पारब्रह्म भगवान कृष्ण
आठ अंक के साथ भगवान कृष्ण का सम्बंध
अष्टमी तिथि
आठवे पहर ,
आठवाँ सन्तान,
आठवाँ अवतार,
आठ भाई ,
16100 रानी ( 1+6+1=8)
आठ पटरानी,
आठ सखिया,
125 वर्ष तक धरती पर रहे ,
(1+2+5 = 8)
आठ प्रकार के अपशकुन देखे कंश ने कृष्ण जन्म के समय।
आठों पहर का नींद खराब हो गया था उनका।
8-8 अक्षरों के तारक मंत्र –
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
भगवान् श्री कृष्ण को अलग अलग स्थानों में अलग अलग नामो से जाना जाता है।
- उत्तर प्रदेश में कृष्ण ,गोपाल ,गोविन्द, नन्दलाल इत्यादि नामो से जानते है।
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राजस्थान में श्रीनाथजी या ठाकुरजी के नाम से जानते है।
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महाराष्ट्र में बिट्ठल के नाम से भगवान् जाने जाते है।
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उड़ीसा में जगन्नाथ के नाम से जाने जाते है।
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बंगाल में गोपालजी के नाम से जाने जाते है।
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दक्षिण भारत में वेंकटेश या गोविंदा के नाम से जाने जाते है।
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गुजरात में द्वारिकाधीश के नाम से जाने जाते है।
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असम ,त्रिपुरा,नेपाल इत्यादि पूर्वोत्तर क्षेत्रो में कृष्ण नाम से ही पूजा होती है।
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मलेशिया, इंडोनेशिया, अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस इत्यादि देशो में कृष्ण नाम ही विख्यात है।
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गोविन्द या गोपाल में “गो” शब्द का अर्थ गाय एवं इन्द्रियों , दोनों से है। गो एक संस्कृत शब्द है और ऋग्वेद में गो का अर्थ होता है मनुष्य की इंद्रिया…जो इन्द्रियों का विजेता हो जिसके वश में इंद्रिया हो वही गोविंद है गोपाल है।
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श्री कृष्ण के पिता का नाम वसुदेव था इसलिए इन्हें आजीवन “वासुदेव” के नाम से जाना गया। श्री कृष्ण के दादा का नाम शूरसेन था..
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श्री कृष्ण का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद के राजा कंस की जेल में हुआ था।
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श्री कृष्ण के भाई बलराम थे लेकिन उद्धव और अंगिरस उनके चचेरे भाई थे,
अंगिरस ने बाद में तपस्या की थी और जैन धर्म के तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम से विख्यात हुए थे।
- श्री कृष्ण ने 16000 राजकुमारियों को असम के राजा नरकासुर की कारागार से मुक्त कराया था और उन राजकुमारियों को आत्महत्या से रोकने के लिए मजबूरी में उनके सम्मान हेतु उनसे विवाह किया था।
क्योंकि उस युग में हरण की हुयी स्त्री अछूत समझी जाती थी और समाज उन स्त्रियों को अपनाता नहीं था।।
- श्री कृष्ण की मूल पटरानी एक ही थी जिनका नाम रुक्मणी था जो महाराष्ट्र के विदर्भ राज्य के राजा रुक्मी की बहन थी।। रुक्मी शिशुपाल का मित्र था और श्री कृष्ण का शत्रु ।
दुर्योधन श्री कृष्ण का समधी था और उसकी बेटी लक्ष्मणा का विवाह श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब के साथ हुआ था।
श्री कृष्ण के धनुष का नाम सारंग था। शंख का नाम पाञ्चजन्य था। चक्र का नाम सुदर्शन था। उनकी प्रेमिका का नाम राधारानी था जो बरसाना के सरपंच वृषभानु की बेटी थी। श्री कृष्ण राधारानी से निष्काम और निश्वार्थ प्रेम करते थे। राधारानी श्री कृष्ण से उम्र में बहुत बड़ी थी। लगभग 6 साल से भी ज्यादा का अंतर था।
श्री कृष्ण ने 14 वर्ष की उम्र में वृंदावन छोड़ दिया था।। और उसके बाद वो राधा से कभी नहीं मिले।
- श्री कृष्ण विद्या अर्जित करने हेतु मथुरा से उज्जैन मध्य प्रदेश आये थे। और यहाँ उन्होंने उच्च कोटि के ब्राह्मण महर्षि सान्दीपनि से अलौकिक विद्याओ का ज्ञान अर्जित किया था।।
श्री कृष्ण की कुल 125 वर्ष धरती पर रहे । उनके शरीर का रंग गहरा काला था और उनके शरीर से 24 घंटे पवित्र अष्टगंध महकता था।
उनके वस्त्र रेशम के पीले रंग के होते थे और मस्तक पर मोरमुकुट शोभा देता था।
उनके सारथि का नाम दारुक था और उनके रथ में चार घोड़े जुते होते थे। उनकी दोनो आँखों में प्रचंड सम्मोहन था।
श्री कृष्ण के कुलगुरु महर्षि शांडिल्य थे।
श्री कृष्ण का नामकरण महर्षि गर्ग ने किया था।
श्री कृष्ण के बड़े पोते का नाम अनिरुद्ध था जिसके लिए श्री कृष्ण ने बाणासुर और भगवान् शिव से युद्ध करके उन्हें पराजित किया था।
श्री कृष्ण ने गुजरात के समुद्र के बीचो बीच द्वारिका नाम की राजधानी बसाई थी। द्वारिका पूरी सोने की थी और उसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मा ने किया था।
श्री कृष्ण को ज़रा नाम के शिकारी का बाण उनके पैर के अंगूठे मे लगा वो शिकारी पूर्व जन्म का बाली था,बाण लगने के पश्चात भगवान स्वलोक धाम को गमन कर गए।
श्री कृष्ण ने हरियाणा के कुरुक्षेत्र में अर्जुन को पवित्र गीता का ज्ञान रविवार शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन मात्र 45 मिनट में दे दिया था।
श्री कृष्ण ने सिर्फ एक बार बाल्यावस्था में नदी में नग्न स्नान कर रही स्त्रियों के वस्त्र चुराए थे और उन्हें अगली बार यु खुले में नग्न स्नान न करने की नसीहत दी थी।
श्री कृष्ण के अनुसार गौ हत्या करने वाला असुर है और उसको जीने का कोई अधिकार नहीं।
श्री कृष्ण अवतार नहीं थे बल्कि अवतारी थे….जिसका अर्थ होता है “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्” न ही उनका जन्म साधारण मनुष्य की तरह हुआ था और न ही उनकी मृत्यु हुयी थी।
सर्वान् धर्मान परित्यजम मामेकं शरणम् व्रज
अहम् त्वम् सर्व पापेभ्यो मोक्षस्यामी मा शुच–
( भगवद् गीता अध्याय 18 )
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी
हे नाथ नारायण वासुदेव …👏🏼
हे आनंद उमंग भयो जय हो नन्द लाल की
नन्द के आनंद भयो जय कनैया लाल की
हे ब्रज में आनंद भयो जय यशोदा लाल की
नन्द के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की
हे आनंद उमंग भयो जय हो नन्द लाल की
गोकुल के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की
जय यशोदा लाल की जय हो नन्द लाल की
हाथी, घोड़ा, पालकी जय कन्हैया लाल की
जय हो नन्द लाल की जय यशोदा लाल की
हाथी, घोड़ा, पालकी जय कन्हैया लाल की
हे आनंद उमंग भयो जय कन्हैया लाल की
हे कोटि ब्रह्माण्ड के अधिपति लाल की
हाथी, घोड़ा, पालकी जय कन्हैया लाल की
हे गौने चराने आये जय हो पशुपाल की
नन्द के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की
आनंद से बोलो सब जय हो ब्रज लाल की
हाथी, घोड़ा, पालकी जय कन्हैया लाल की
जय हो ब्रज लाल की पावन प्रतिपाल की
हे नन्द के आनंद भयो जय हो नन्द लाल की
जय श्री कृष्ण
कृष्ण जन्म का रहस्य
कृष्ण जन्म का रहस्य…..♡
Abhimanyu “Krishnaa” Kashyap
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कृष्ण का जन्म होता है अँधेरी रात में, अमावस में। सभी का जन्म अँधेरी रात में होता है और अमावस में होता है। असल में जगत की कोई भी चीज उजाले में नहीं जन्मती, सब कुछ जन्म अँधेरे में ही होता है। एक बीज भी फूटता है तो जमीन के अँधेरे में जन्मता है। फूल खिलते हैं प्रकाश में, जन्म अँधेरे में होता है।
असल में जन्म की प्रक्रिया इतनी रहस्यपूर्ण है कि अँधेरे में ही हो सकती है। आपके भीतर भी जिन चीजों का जन्म होता है, वे सब गहरे अंधकार में, गहन अंधकार में होती है। एक कविता जन्मती है, तो मन के बहुत अचेतन अंधकार में जन्मती है। बहुत अनकांशस डार्कनेस में पैदा होती है। एक चित्र का जन्म होता है, तो मन की बहुत अतल गहराइयों में जहाँ कोई रोशनी नहीं पहुँचती जगत की, वहाँ होता है। समाधि का जन्म होता है, ध्यान का जन्म होता है, तो सब गहन अंधकार में। गहन अंधकार से अर्थ है, जहाँ बुद्धि का प्रकाश जरा भी नहीं पहुँचता। जहाँ सोच-समझ में कुछ भी नहीं आता, हाथ को हाथ नहीं सूझता है।
कृष्ण का जन्म जिस रात में हुआ, कहानी कहती है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, इतना गहन अंधकार था। लेकिन इसमें विशेषता खोजने की जरूरत नहीं है। यह जन्म की सामान्य प्रक्रिया है।
दूसरी बात कृष्ण के जन्म के साथ जुड़ी है- बंधन में जन्म होता है, कारागृह में। किसका जन्म है जो बंधन और कारागृह में नहीं होता है? हम सभी कारागृह में जन्मते हैं। हो सकता है कि मरते वक्त तक हम कारागृह से मुक्त हो जाएँ, जरूरी नहीं है हो सकता है कि हम मरें भी कारागृह में। जन्म एक बंधन में लाता है, सीमा में लाता है। शरीर में आना ही बड़े बंधन में आ जाना है, बड़े कारागृह में आ जाना है। जब भी कोई आत्मा जन्म लेती है तो कारागृह में ही जन्म लेती है।
लेकिन इस प्रतीक को ठीक से नहीं समझा गया। इस बहुत काव्यात्मक बात को ऐतिहासिक घटना समझकर बड़ी भूल हो गई। सभी जन्म कारागृह में होते हैं। सभी मृत्युएँ कारागृह में नहीं होती हैं। कुछ मृत्युएँ मुक्ति में होती है। कुछ अधिक कारागृह में होती हैं। जन्म तो बंधन में होगा, मरते क्षण तक अगर हम बंधन से छूट जाएँ, टूट जाएँ सारे कारागृह, तो जीवन की यात्रा सफल हो गई।
कृष्ण के जन्म के साथ एक और तीसरी बात जुड़ी है और वह यह है कि जन्म के साथ ही उन्हें मारे जाने की धमकी है। किसको नहीं है? जन्म के साथ ही मरने की घटना संभावी हो जाती है। जन्म के बाद – एक पल बाद भी मृत्यु घटित हो सकती है। जन्म के बाद प्रतिपल मृत्यु संभावी है। किसी भी क्षण मौत घट सकती है। मौत के लिए एक ही शर्त जरूरी है, वह जन्म है। और कोई शर्त जरूरी नहीं है। जन्म के बाद एक पल जीया हुआ बालक भी मरने के लिए उतना ही योग्य हो जाता है, जितना सत्तर साल जीया हुआ आदमी होता है। मरने के लिए और कोई योग्यता नहीं चाहिए, जन्म भर चाहिए।
लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ एक चौथी बात भी जुड़ी है कि मरने की बहुत तरह की घटनाएँ आती हैं, लेकिन वे सबसे बचकर निकल जाते हैं। जो भी उन्हें मारने आता है, वही मर जाता है। कहें कि मौत ही उनके लिए मर जाती है। मौत सब उपाय करती है और बेकार हो जाती है। कृष्ण ऐसी जिंदगी हैं, जिस दरवाजे पर मौत बहुत रूपों में आती है और हारकर लौट जाती है।
वे सब रूपों की कथाएँ हमें पता हैं कि कितने रूपों में मौत घेरती है और हार जाती है। लेकिन कभी हमें खयाल नहीं आया कि इन कथाओं को हम गहरे में समझने की कोशिश करें। सत्य सिर्फ उन कथाओं में एक है, और वह यह है कि कृष्ण जीवन की तरफ रोज जीतते चले जाते हैं और मौत रोज हारती चली जाती है।
मौत की धमकी एक दिन समाप्त हो जाती है। जिन-जिन ने चाहा है, जिस-जिस ढंग से चाहा है कृष्ण मर जाएँ, वे-वे ढंग असफल हो जाते हैं और कृष्ण जीए ही चले जाते हैं। लेकिन ये बातें इतनी सीधी, जैसा मैं कह रहा हूँ, कही नहीं गई हैं। इतने सीधे कहने का पुराने आदमी के पास कोई उपाय नहीं था। इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
जितना पुरानी दुनिया में हम वापस लौटेंगे, उतना ही चिंतन का जो ढंग है, वह पिक्चोरियल होता है, चित्रात्मक होता है, शब्दात्मक नहीं होता। अभी भी रात आप सपना देखते हैं, कभी आपने खयाल किया कि सपनों में शब्दों का उपयोग करते हैं कि चित्रों का?
सपने में शब्दों का उपयोग नहीं होता, चित्रों का उपयोग होता है। क्योंकि सपने हमारे आदिम भाषा हैं, प्रिमिटिव लैंग्वेज हैं। सपने के मामले में हममें और आज से दस हजार साल पहले के आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। सपने अभी भी पुराने हैं, प्रिमिटिव हैं, अभी भी सपना आधुनिक नहीं हो पाया। अभी भी सपने तो वही हैं जो दस हजार साल, दस लाख पुराने थे। गुहा-मानव ने एक गुफा में सोकर रात में जो सपने देखे होंगे, वही एयरकंडीशंड मकान में भी देखे जाते हैं। उससे कोई और फर्क नहीं पड़ा है। सपने की खूबी है कि उसकी सारी अभिव्यक्ति चित्रों में है।
जितना पुरानी दुनिया में हम लौटेंगे- और कृष्ण बहुत पुराने हैं, इन अर्थों में पुराने हैं कि आदमी जब चिंतन शुरू कर रहा है, आदमी जब सोच रहा है जगत और जीवन के बाबत, अभी जब शब्द नहीं बने हैं और जब प्रतीकों में और चित्रों में सारा का सारा कहा जाता है और समझा जाता है, तब कृष्ण के जीवन की घटनाएँ लिखी गई हैं। उन घटनाओं को डीकोड करना पड़ता है। उन घटनाओं को चित्रों से तोड़कर शब्दों में लाना पड़ता है। और कृष्ण शब्द को भी थोड़ा समझना जरूरी है।
कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जो आकृष्ट करे, जो आकर्षित करे; सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन, कशिश का केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस पर सारी चीजें खिंचती हों। जो केंद्रीय चुंबक का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का केंद्र है। वह सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन है जिस पर सब चीजें खिँचती हैं और आकृष्ट होती हैं।
शरीर खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, परिवार खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, समाज खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, जगत खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृष्ण का केंद्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आसपास सब घटित होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, तो एक अर्थ में कृष्ण ही जन्मता है वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है, और उसके बाद सब चीजें उसके आसपास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस कृष्ण बिंदु के आसपास क्रिस्टलाइजेशन शुरू होता है और व्यक्तित्व निर्मित होता है। इसलिए कृष्ण का जन्म एक व्यक्ति विशेष का जन्म मात्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति मात्र का जन्म है।
कृष्ण जैसा व्यक्ति जब हमें उपलब्ध हो गया तो हमने कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ वह सब समाहित कर दिया है जो प्रत्येक आत्मा के जन्म के साथ समाहित है। महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती है, सदा काव्यात्मक हो जाती है। पीछे लौटकर निर्मित होती है।
पीछे लौटकर जब हम देखते हैं तो हर चीज प्रतीक हो जाती है और दूसरे अर्थ ले लेती है। जो अर्थ घटते हुए क्षण में कभी भी न रहे होंगे। और फिर कृष्ण जैसे व्यक्तियों की जिंदगी एक बार नहीं लिखी जाती, हर सदी बार-बार लिखती है।
हजारों लोग लिखते हैं। जब हजारों लोग लिखते हैं तो हजार व्याख्याएँ होती चली जाती हैं। फिर धीरे-धीरे कृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती। कृष्ण एक संस्था हो जाते हैं, एक इंस्टीट्यूट हो जाते हैं। फिर वे समस्त जन्मों का सारभूत हो जाते हैं। फिर मनुष्य मात्र के जन्म की कथा उनके जन्म की कथा हो जाती है। इसलिए व्यक्तिवाची अर्थों में मैं कोई मूल्य नहीं मानता हूँ। कृष्ण जैसे व्यक्ति व्यक्ति रह ही नहीं जाते। वे हमारे मानस के, हमारे चित्त के, हमारे कलेक्टिव माइंड के प्रतीक हो जाते हैं। और हमारे चित्त ने जितने भी जन्म देखे हैं, वे सब उनमें समाहित हो जाते हैं।