Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

#साल 1192 ए डी,

#तुर्की का सैन्य कमांडर बख्तियार खिलजी गंभीर रूप से बीमार पड़ गया।सारे हकीम हार गए परंतु बीमारी का पता नहीं चल पाया। खिलजी दिनों दिन कमजोर पड़ता गया और उसने बिस्तर पकड़ लिया ।उसे लगा कि अब उसके आखिरी दिन आ गए हैं ।

*#एक दिन उससे मिलने आए एक बुज़ुर्ग ने सलाह दी कि दूर भारत के मगध साम्राज्य में अवस्थित नालंदा महावीर के एक ज्ञानी राहुल शीलभद्र को एक बार दिखा लें ,वे आपको ठीक कर देंगे। खिलजी तैयार नहीं हुआ। उसने कहा कि मैं किसी काफ़िर के हाथ की दवा नहीं ले सकता हूं चाहे मर क्यों न जाऊं!! मगर बीबी बच्चों की जिद के आगे झुक गया। राहुल शीलभद्र जी तुर्की आए । #खिलजीने उनसे कहा कि दूर से ही देखो मुझे छूना मत क्योंकि तुम काफिर हो और दवा मैं लूंगा नहीं । राहुल शीलभद्र जी ने उसका चेहरा देखा,शरीर का मुआयना किया ,बलगम से भरे बर्तन को देखा, सांसों के उतार चढ़ाव का अध्ययन किया और बाहर चले गए
फिर लौटे और पूछा कि कुरान पढ़ते हैं?
खिलजी ने कहा दिन रात पढ़ते हैं
पन्ने कैसे पलटते हैं?
उंगलियों से जीभ को छूकर सफे पलटते हैं!!
शीलभद्र जी ने खिलजी को एक कुरान भेंट किया और कहा कि आज से आप इसे पढ़ें और राहुल शीलभद्र जी वापस भारत लौट आए।

उधर दूसरे दिन से ही खिलजी की तबीयत ठीक होने लगी
और एक हफ्ते में वह भला चंगा हो गया। दरअसल राहुल शीलभद्र जी ने कुरान के पन्नों पर दवा लगा दी थी जिसे उंगलियों से जीभ तक पढ़ने के दौरान पहुंचाने का अनोखा तरीका अपनाया गया था। 😳 😊

#खिलजी अचंभित था मगर उससे भी ज्यादा ईर्ष्या और जलन से मरा जा रहा था कि आखिर एक काफिर मुस्लिम से ज्यादा काबिल कैसे हो गया?

*#अगले ही साल 1193 में उसने सेना तैयार की और जा पहुंचा नालंदा महावीर मगध क्षेत्र। पूरी दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञान और विज्ञान का केंद्र। जहां 10000 छात्र और 1000 शिक्षक एक बड़े परिसर में रहते थे । जहां एक तीन मंजिला इमारत में विशाल लायब्रेरी थी जिसमें एक करोड़ पुस्तकें, पांडुलिपियां एवं ग्रंथ थे।

#खिलजी जब वहां पहुंचा तो शिक्षक और छात्र उसके स्वागत में बाहर आए क्योंकि उन्हें लगा कि वह कृतज्ञता व्यक्त करने आया है। *#खिलजी ने उन्हें देखा और मुस्कुराया…..और तलवार से भिक्षु श्रेष्ठ की गर्दन काट दी। फिर हजारों छात्र और शिक्षक गाजर मूली की तरह काट डाले गए।

**#खिलजी ने फिर ज्ञान विज्ञान के केंद्र पुस्तकालय में आग लगा दी। कहा जाता है कि पूरे तीन महीने तक पुस्तकें जलती रहीं। खिलजी चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि तुम काफिरों की हिम्मत कैसे हुई इतनी पुस्तकें पांडुलिपियां इकट्ठा करने की? बस एक कुरान रहेगा धरती पर बाकी सब को नष्ट कर दूंगा। पूरे नालंदा को तहस नहस कर जब वह लौटा तो रास्ते में विक्रम शिला विश्वविद्यालय को भी जलाते हुए लौटा।मगध क्षेत्र के बाहर बंगाल में वह रूक गया और वहां खिलजी साम्राज्य की स्थापना की।😢

जब वह लद्दाख क्षेत्र होते हुए तिब्बत पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था तभी एक रात उसके एक कमांडर ने उसकी सोए में हत्या कर दी। #आज भी बंगाल के पश्चिमी दिनाजपुर में उसकी कब्र है जहां उसे दफनाया गया था। और *#सबसे हैरत की बात है कि उसी दुर्दांत हत्यारे के नाम पर बिहार में बख्तियार पुर नामक जगह है जहां रेलवे जंक्शन भी है जहां से नालंदा की ट्रेन जाती है#
✍️Nirantar Narayan

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भारत में सेवा करने वाले ब्रिटिश अधिकारियों को इंग्लैंड लौटने पर सार्वजनिक पद/जिम्मेदारी नहीं दी जाती थी। तर्क यह था कि उन्होंने एक गुलाम राष्ट्र पर शासन किया है जिसकी वजह से उनके दृष्टिकोण और व्यवहार में फर्क आ गया होगा। अगर उनको यहां ऐसी जिम्मेदारी दी जाए, तो वह आजाद ब्रिटिश नागरिकों के साथ भी उसी तरह से ही व्यवहार करेंगे। इस बात को समझने के लिए नीचे दिया गया वाकया जरूर पढ़ें…

एक ब्रिटिश महिला जिसका पति ब्रिटिश शासन के दौरान पाकिस्तान और भारत में एक सिविल सेवा अधिकारी था। महिला ने अपने जीवन के कई साल भारत के विभिन्न हिस्सों में बिताए, अपनी वापसी पर उन्होंने अपने संस्मरणों पर आधारित एक सुंदर पुस्तक लिखी।

महिला ने लिखा कि जब मेरे पति एक जिले के डिप्टी कमिश्नर थे तो मेरा बेटा करीब चार साल का था और मेरी बेटी एक साल की थी। डिप्टी कलेक्टर को मिलने वाली कई एकड़ में बनी एक हवेली में रहते थे। सैकड़ों लोग डीसी के घर और परिवार की सेवा में लगे रहते थे। हर दिन पार्टियां होती थीं, जिले के बड़े जमींदार हमें अपने शिकार कार्यक्रमों में आमंत्रित करने में गर्व महसूस करते थे और हम जिसके पास जाते थे, वह इसे सम्मान मानता था। हमारी शान और शौकत ऐसी थी कि ब्रिटेन में महारानी और शाही परिवार भी मुश्किल से मिलती होगी।

ट्रेन यात्रा के दौरान डिप्टी कमिश्नर के परिवार के लिए नवाबी ठाट से लैस एक आलीशान कंपार्टमेंट आरक्षित किया जाता था। जब हम ट्रेन में चढ़ते तो सफेद कपड़े वाला ड्राइवर दोनों हाथ बांधकर हमारे सामने खड़ा हो जाता और यात्रा शुरू करने की अनुमति मांगता। अनुमति मिलने के बाद ही ट्रेन चलने लगती।

एक बार जब हम यात्रा के लिए ट्रेन में सवार हुए, तो परंपरा के अनुसार, ड्राइवर आया और अनुमति मांगी। इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती, मेरे बेटे का किसी कारण से मूड खराब था। उसने ड्राइवर को गाड़ी न चलाने को कहा। ड्राइवर ने हुक्म बजा लाते हुए कहा, जो हुक्म छोटे सरकार। कुछ देर बाद स्टेशन मास्टर समेत पूरा स्टाफ इकट्ठा हो गया और मेरे चार साल के बेटे से भीख मांगने लगा, लेकिन उसने ट्रेन को चलाने से मना कर दिया। आखिरकार, बड़ी मुश्किल से, मैंने अपने बेटे को कई चॉकलेट के वादे पर ट्रेन चलाने के लिए राजी किया और यात्रा शुरू हुई।

कुछ महीने बाद, वह महिला अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने यूके लौट आई। वह जहाज से लंदन पहुंचे, उनकी रिहाइश वेल्स में एक काउंटी में थी जिसके लिए उन्हें ट्रेन से यात्रा करनी थी। वह महिला स्टेशन पर एक बेंच पर अपनी बेटी और बेटे को बैठाकर टिकट लेने चली गई। लंबी कतार के कारण बहुत देर हो चुकी थी, जिससे उस महिला का बेटा बहुत परेशान हो गया था। जब वह ट्रेन में चढ़े तो आलीशान कंपाउंड की जगह फर्स्ट क्लास की सीटें देखकर उस बच्चे को फिर गुस्सा आ गया।

ट्रेन ने समय पर यात्रा शुरू की तो वह बच्चा लगातार चीखने-चिल्लाने लगा। वह ज़ोर से कह रहा था, “यह कैसा उल्लू का पट्ठा ड्राइवर है। उसने हमारी अनुमति के बिना ट्रेन चलाना शुरू कर दी है। मैं पापा को बोल कर इसे जूते लगवा लूंगा।” महिला को बच्चे को यह समझाना मुश्किल हो रहा था कि यह उसके पिता का जिला नहीं है, यह एक स्वतंत्र देश है। यहां डिप्टी कमिश्नर जैसा तीसरे दर्जे का सरकारी अफसर तो क्या प्रधानमंत्री और राजा को भी यह अख्तियार नहीं है कि वह लोगों को अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए अपमानित कर सके।

आज भले ही हमने अंग्रेजों को खदेड़ दिया है लेकिन हमने गुलामी को अभी तक देश बदर नहीं किया। आज भी कई अधिकारी, एसपी, मंत्री, सलाहकार और राजनेता अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए आम लोगों को घंटों सड़कों पर परेशान करते हैं।

प्रोटोकॉल आम जनता की सुविधा के लिए होना चाहिए, ना कि उनके लिए परेशानी का कारण।
The World Classes, Jaipur

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#इसे_भी_पाठ्यक्रम_में_शामिल_किया_जाना_चाहिए !!
जवाहरलाल नेहरू अभिनेत्री नरगिस के मामा थे ॥नरगिस की नानी दिलीपा मंगल पाण्डेय के ननिहाल के राजेन्द्र पाण्डेय की बेटी थीं… उनकी शादी 1880 में बलिया में हुई थी लेकिन शादी के एक हफ़्ते के अंदर ही उनके पति गुज़र गए थे…दिलीपा की उम्र उस वक़्त सिर्फ़ 13 साल थी…उस ज़माने में विधवाओं की ज़िंदगी बेहद तक़लीफ़ों भरी होती थी…ज़िंदगी से निराश होकर दिलीपा एक रोज़ आत्महत्या के इरादे से गंगा की तरफ़ चल पड़ीं लेकिन रात में रास्ता भटककर मियांजान नाम के एक सारंगीवादक के झोंपड़े में पहुंच गयीं जो तवायफ़ों के कोठों पर सारंगी बजाता था…मियांजान के परिवार में उसकी बीवी और एक बेटी मलिका थे… वो मलिका को भी तवायफ़ बनाना चाहता था…दिलीपा को मियांजान ने अपने घर में शरण दी…और फिर मलिका के साथ साथ दिलीपा भी धीरेधीरे तवायफ़ों वाले तमाम तौर-तरीक़े सीख गयीं और एक रोज़ चिलबिला की मशहूर तवायफ़ रोशनजान के कोठे पर बैठ गयीं…रोशनजान के कोठे पर उस ज़माने के नामी वक़ील मोतीलाल नेहरू का आना जाना रहता था जिनकी पत्नी पहले बच्चे के जन्म के समय गुज़र गयी थी…दिलीपा के सम्बन्ध मोतीलाल नेहरू से बन गए…इस बात का पता चलते ही मोतीलाल के घरवालों ने उनकी दूसरी शादी लाहौर की स्वरूप रानी से करा दी जिनकी उम्र उस वक़्त 15 साल थी…इसके बावजूद मोतीलाल ने दिलीपा के साथ सम्बन्ध बनाए रखे…इधर दिलीपा का एक बेटा हुआ जिसका नाम मंज़ूर अली रखा गया…उधर कुछ ही दिनों बाद 14 नवम्बर 1889 को स्वरूपरानी ने जवाहरलाल नेहरू को जन्म दिया…साल 1900 में स्वरूप रानी ने विजयलक्ष्मी पंडित को जन्म दिया और 1901 में दिलीपा के जद्दनबाई पैदा हुईं…अभिनेत्री नरगिस इन्हीं जद्दनबाई की बेटी थीं…मंज़ूर अली आगे चलकर मंज़ूर अली सोख़्त के नाम से बहुत बड़े मज़दूर नेता बने…और साल 1924 में उन्होंने यह कहकर देशभर में सनसनी फैला दी कि मैं मोतीलाल नेहरू का बेटा और जवाहरलाल नेहरू का बड़ा भाई हूं…उधर एक रोज़ लखनऊ नवाब के बुलावे पर जद्दनबाई मुजरा करने लखनऊ गयीं तो दिलीपा भी उनके साथ थी…जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के किसी काम से उन दिनों लखनऊ में थे…उन्हें पता चला तो वो उन दोनों से मिलने चले आए…दिलीपा जवाहरलाल नेहरू से लिपट गयीं और रो-रोकर मोतीलाल नेहरू का हालचाल पूछने लगीं…मुजरा ख़त्म हुआ तो जद्दनबाई ने जवाहरलाल नेहरू को राखी बांधी…साल 1931 में मोतीलाल नेहरू ग़ुज़रे तो दिलीपा ने अपनी चूड़ियां तोड़ डालीं और उसके बाद से वो विधवा की तरह रहने लगीं…(गुजराती के वरिष्ठ लेखक रजनीकुमार पंड्या जी की क़िताब ‘आप की परछाईयां’ से साभार।)

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Indraprastha Recent Findings:
इंद्रप्रस्थ की महत्वपूर्ण खोज:
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भारतवर्ष अपनी विशाल संपदा को लिए दिल्ली में सो रही है। दुर्भाग्य से इस महान देश के साथ विश्वासघात की गई । दिल्ली को मुगलों के साथ जोड़ने में अधिक रुचि दिखाई गई। मुगल और इस्लाम के जन्म के अनेक हजार वर्ष पूर्व दिल्ली में महाभारत काल की धमक रही है । इंद्रप्रस्थ में कुंती जी का मंदिर रो-रो कर अपनी प्राचीन अस्तित्व बता रही है । यह इंद्रप्रस्थ, वर्तमान यमुना नदी के किनारे स्थित पुरानी दिल्ली से लेकर वर्तमान पांडवानी किला ( पुरानी किला ) तक फैली थी। इसी बीच इंद्रप्रस्थ किला ( पुरानी किला ) स्थित मस्जिद के नीचे स्थल से त्रिमुख विष्णु-वराह देवता की भव्य प्रतिमा मिली है । विष्णु-वराह का यह स्वरूप हड़प्पा काल के वराह स्वरूप से जोड़ देती है । इस वराह विष्णु प्रतिमा के साथ वज्रासन में एकतरफ हनुमानजी और दूसरी तरफ गणेश जी उपस्थित हैं। मस्तक पर हड़प्पा की तरह ओंकार चिन्ह विद्यमान है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को अपने कार्य में गुणात्मक सुधार लानी होगी । इसी खोज में “पेंटेड ग्रे वेयर” काल की अत्यंत प्राचीन सामग्री इस विष्णु प्रतिमा के पास से मिली है । डा. बी बी लाल ने स्वीकार किया है की महाभारत काल के चीजों को छद्म रूप में कांग्रेस शासन काल में “पेंटेड ग्रे वेयर” कही गई है। वे महाभारत का समय कहने से अपने सेवा काल में बचते रहे । अपने अंतिम दिनों में उन्होंने स्थिति साफ की और “पेंटेड ग्रे वेयर” को महाभारत काल से जोड़ दिया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के कार्य करने की क्षमता में आज भी गुणात्मक सुधार नहीं हुई है । आर्य आक्रमण अवधारणा को सत्य मानते हुए डा.बी बी लाल ने जो समय महाभारत ( १२०० ईसवी पूर्व ) का अनुमान में रखा था, वही समय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने भी जल्दबाजी में रख दिया । यह विभ्रमित एजेंसी महाभारत का समय जानती ही नहीं तथा मस्तिष्क का प्रयोग करने में सर्वदा बचती रही है । अच्छा हो ये मात्र खुदाई करें और डेटिंग के लिए एक्सपर्ट की सेवा ली जाय तथा वैज्ञानिक तरीके अपनाएं जाएं। अनुमान का प्रयोग पुरातत्व विज्ञान में कम से कम न करें। द्वारका के डूबने की कार्बन डेटिंग जब ३१०० ईसवी पूर्व मिल रही है तब अनुमान के आधार पर इंद्रप्रस्थ के महाभारत काल को १२०० ईसवी पूर्व में रखना कहां तक न्यायोचित है ? यह दिमाग का दिवालियापन नहीं तो और क्या है ! अनुमान का ही प्रयोग रोमिला थापर , आर एस शर्मा , इरफान हबीब ने किया था ना ! जरा कल्पना कीजिए इन लोगों ने भारतवर्ष की क्या दुर्दशा कर दी ! अनुमान आधारित इनकी मार इतनी जबरदस्त है की भारतीय प्रजा अभी तक अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी नहीं कर पाई है !

#JPNadda #BhartiyaJantaParty #PMOIndia #GKishanReddy #MinistryOfCulture #DrJitendraSingh

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इतिहास में हमें यह पढाया गया कि, G.T.Road का निर्माण शेरशाह सूरी ने करावाया था!

परन्तु सच्चाई तो यह है कि, यह मार्ग जो, टेकनाफ (बांग्लादेश) से काबुल तक जाती है, जिसकी लंबाई 2, 400 किलोमीटर है, मौर्यकाल से ही अस्तित्व में है, जिसे उस समय “उत्तरापथ” के नाम से जाना जाता था।

यदि शेरशाह अपने 5 साल के शासनकाल में लगातार केवल इस सड़क का ही निर्माण कराता, तब भी इतनी लम्बी सड़क का निर्माण नहीं करा सकता था।
तो क्या ये वामपंथी इतिहासकारों के दिमाग की सनक, उपज है!

जिन्ना इसी मार्ग को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था, और गाँधी करीब-करीब तैयार भी थे!

– Harish Ray

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ઠાકુરસુજાનસિંહઅને_દરાબખાન

ઔરંગઝેબ એ કટ્ટર મુસ્લિમ શાસક હતો અને હિન્દુઓનો દુશ્મન !
ઔરંગઝેબને ઇતિહાસમાં જેટલો મહાન બતાવાયો છે એટલો તે હતો જ નહીં
આમ તો એણે કોઈ નિર્ણાયક યુદ્ધ જીત્યું j નહોતું
એના સમયમાં ભારત પર આટલું મોટું મોગલ સામ્રાજ્ય હતું તે જ મારાં મનમાં તો એક પ્રશ્નાર્થ છે.
કારણકે ઔરંગઝેબને લગભગ બધે જ ઠેકાણે હાર મળી હતી
તેમ છતાં તે ઘણા બધાં મંદિરો તોડી ગયો અને હિન્દુઓને મુસ્લિમ બનાવતો ગયો.
કંઈ રીતે ? અને કોને ?
આ સવાલ મારાં મનને કોરી ખાય છે.
ખેર એનો જવાબ ઇતિહાસ લેખોમાં હું વ્યવસ્થિત રીતે આપીશ !

અત્યારે આ એક વાર્તા વાંચવા જેવી છે
તે વાંચજો બધાં !

૭ માર્ચ ૧૬૭૯ની વાત છે, ઠાકુર સુજાન સિંહ પોતાના લગ્નની જાન પરત લઈને જઈ રહ્યા હતા. એટલે કે એમના લગ્ન થઈ ગયાં હતાં અને તેઓ દુલ્હન સાથે પોતાના ઘરે જઈ રહ્યાં હતાં. ૨૨ વર્ષના સુજાન સિંહ ભગવાન જેવા દેખાઈ રહ્યાં હતાં.
એવું લાગતું હતું કે જાણે દેવતાઓ તેમના લગ્નની જાન કાઢી રહ્યા છે!

તેમણે તેમની વહુનું મોઢું પણ સાંજ પડી ગઈ હતી એટલે રાતના આરામ માટે તેણે ‘છાપોલી’ ખાતે પડાવ નાંખ્યો. થોડી જ ક્ષણોમાં તેને ગાયોમાં ઘૂઘરોના અવાજો સંભળાવા લાગ્યા, અવાજો સ્પષ્ટ દેખાતા નહોતા, છતાં તે સાંભળવાનો પ્રયત્ન કરી રહ્યો હતો, જાણે તે અવાજો તેને કંઈક કહેતા હોય.

સુજાન સિંહે પોતાના લોકોને કહ્યું, કદાચ તે ભરવાડોનો અવાજ છે, તેઓ શું કહેવા માગે છે તે સાંભળો.
જાસૂસોએ માહિતી આપી કે યુવરાજ આ લોકો કહી રહ્યા છે કે “દેવડે” પર કોઈ સેના આવી છે. તેઓ ચોંકી ગયા. કેવું લશ્કર, કોની સેના કયા મંદિરમાં આવી ?

જવાબ આવ્યો, “યુવરાજ, આ ઔરંગઝેબની વિશાળ સેના છે, જેનો સેનાપતિ દરાબખાન છે, જેણે ખંડેલાની બહાર પડાવ નાખ્યો છે.
આવતીકાલે ખંડેલા ખાતે શ્રી કૃષ્ણ મંદિર તોડી પાડવામાં આવશે. નિર્ણય લેવાયો હતો

પળવારમાં બધું બદલાઈ ગયું. લગ્નના ખુશ ચહેરાઓ અચાનક કઠણ થઈ ગયા હતા, નરમ શરીર વીજળીના અવાજ જેવું સખત થઈ ગયું હતું.
સૈન્યમાં ફેરવાઈ ગયેલા બારાતીઓ તેમના સૈન્યના માણસો સાથે ચર્ચા કરવા લાગ્યા. ત્યારે તેમને ખબર પડી કે તેમની સાથે માત્ર ૭૦ સૈનિકો હતા.
પછી રાતના સમયે એક ક્ષણ પણ ગુમાવ્યા વિના તેઓએ નજીકના ગામના કેટલાક માણસોને ભેગા કર્યા.
લગભગ ૫૦૦ ઘોડેસવારો હવે તેમની સાથે હતા,

અચાનક તેમને તેમની પત્ની યાદ આવી, જેનો ચહેરો પણ તે જોઈ શક્યા ન હતા, જે ડોલીમાં બેઠી હતી. તેનું શું થશે, જેણે પોતાના લાલ કપડા પણ બરાબર જોયા નથી.

તેઓ વિવિધ વિચારોમાં ખોવાયેલા હતા, પછી તેમને તેમના કાનમાં તેની માતાને આપેલા શબ્દો યાદ આવ્યા, જેમાં તેણે રાજપૂત ધર્મ નહીં છોડવાનું વચન આપ્યું હતું, તેમની પત્ની પણ બધું સમજી ગઈ હતી, તેણે ડોલી તરફ જોયું., તેની પત્ની ઈશારો કરી રહી હતી. તેના મહેંદી હાથ બહાર કાઢીને. તેના ચહેરા પર ખુશીના હાવભાવ હતા, તે એક સાચી ક્ષત્રિયાણી નું કર્તવ્ય નિભાવી રહી હતી, જાણે તે પોતે જ દુશ્મન પર તલવારથી હુમલો કરવા માંગતી હોય, પણ એવું ન થઈ શક્યું.

સુજાન સિંહે ડોલી પાસે જઈને ડોલી અને તેની પત્નીને પ્રણામ કર્યા અને કહારો અને નાઈને ડોલીને સુરક્ષિત રીતે તેમના રાજ્યમાં મોકલવાનો આદેશ આપ્યો અને ખંડેલાને પોતે ઘેરી લીધો અને તેની રક્ષા કરવા લાગ્યા.

લોકો કહે છે કે જાણે સાક્ષાત ભગવાન કૃષ્ણ પોતે તે મંદિરની રક્ષા કરતા હોય તેમ તેમનો ચહેરો પણ શ્રીકૃષ્ણની જેમ ચમકતો હતો.

૮ માર્ચ, ૧૬૭૯ના રોજ, દરબખાનનું સૈન્ય સામસામે આવી ગયું હતું, મહાકાલ ભક્ત સુજાન સિંહને તેના પ્રમુખ દેવતા યાદ આવ્યા અને હર હર મહાદેવના નારા સાથે, ૧૦,૦૦૦ની મુઘલ સેના સાથે સુજાન સિંહના ૫૦૦ માણસો વચ્ચે ભીષણ યુદ્ધ શરૂ થયું.

સુજાન સિંહ તેને મારવા માટે દરાબખાન તરફ ધસી ગયા અને ૪૦ મુઘલ સૈનિકોને મારી નાખ્યા. આવી બહાદુરી જોઈને દરબખાને પીછેહઠ કરવાનું શ્રેષ્ઠ માન્યું, પણ ઠાકુર સુજાન સિંહ અટકવાના ન હતા.

જે તેમની સામે આવતો હતો તેને મારી નાખવામાં આવતો હતો. સુજાન સિંહ વાસ્તવમાં મૃત્યુના રૂપમાં યુદ્ધ લડી રહ્યા હતા. એવું લાગતું હતું કે જાણે મહાકાલ પોતે યુદ્ધ લડી રહ્યો હતો.

આ દરમિયાન કેટલાક લોકોની નજર સુજાન સિંહ પર પડી.
પણ …. આ શું સુજાન સિંહના શરીરને માથું પણ નથી…!

લોકોને ખૂબ જ આશ્ચર્ય થયું, પરંતુ તેમના પોતાના લોકોને એ સમજવામાં લાંબો સમય ન લાગ્યો કે સુજાન સિંહને મોક્ષ ઘણા સમય પહેલા મળી ગયો હતો.
જેઓ લડી રહ્યા છે તેઓ સુજાન સિંહના ઇષ્ટદેવ છે. બધાએ પોતાના હૃદયમાં માથું ટેકવીને પોતાના માનીતા ઇષ્ટદેવને પ્રણામ કર્યા.

હવે દરાબખાન માર્યો ગયો હતો, મુઘલ સૈન્ય ભાગી રહ્યું હતું, પણ આ શું છે, સુજાનસિંહ ઘોડા પર સવારી કર્યા વિના મુગલોને મારી રહ્યો હતો.

મૃત્યુનો આવો તાંડવ એ યુદ્ધના મેદાનમાં થયો હતો, જેનો અંદાજ એ વાત પરથી લગાવી શકાય છે કે એકલા સુજાન સિંહના હાથે મુગલોની ૭ હજાર સેનાનીઓ માર્યા ગયા હતા. જ્યારે મુઘલોની બાકીની સેના સંપૂર્ણપણે ભાગી ગઈ, ત્યારે સુજાન સિંહ જે માત્ર શરીર હતાં તે મંદિર તરફ વળ્યા.

ઈતિહાસકારો કહે છે કે દર્શકો માટે સુજનના શરીરમાંથી દિવ્ય પ્રકાશ નીકળી રહ્યો હતો, એક વિચિત્ર આશ્ચર્યજનક પ્રકાશ નીકળતો હતો, જેમાં સૂર્યનો પ્રકાશ પણ ઝાંખો પડી રહ્યો હતો.

આ જોઈને તેના પોતાના લોકો પણ ડરી ગયા અને બધા એકસાથે શ્રી કૃષ્ણની સ્તુતિ કરવા લાગ્યા.ઘોડા પરથી નીચે ઉતર્યા પછી સુજાન સિંહનું શરીર મંદિરની પ્રતિમાની સામે નીચે આવી ગયું અને એક બહાદુર યોદ્ધાનું મૃત્યુ થયું.

ઇતિહાસમાં જો કે આની સરખી નોંધ પણ લેવાઈ નથી.નથી એમનો કોઈ પાળીયો કે નથી કોઈ ખાંભી.
આજે તો આ એક શૌર્યકથા બનીને રહી ગઈ છે. એ રાહ જુએ છે કે જો એમાં કોઈ સચ્ચાઈ હોય તો ઇતિહાસ એની નોંધ લે.

🚩🚩🙏🙏 માં ભારતીના આ શૂરવીર યોદ્ધાને શત શત શત નમન 🚩🚩🙏🙏

————– જનમેજય અધ્વર્યુ

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आखिर कौन थी वीरमदेव की प्रेयसी फिरोजा…!!!

जालौर की धरती, इस पर बना हुआ स्वर्णगिरी का दुर्ग, इस पर स्थित वीरमदेव की चौकी, जिसका एक अनूठा ही इतिहास है। वीरमदेव का नाम भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी के साथ लिखा जाना चाहिए था। परन्तु काल की विडम्बना देखिए कि जिस समय हिन्दू राजा डोले मुजरे के लिए तथा विवाह सम्बन्धों के लिए दिल्ली जाते रहे, वीरमदेव ने दिल्ली का डोला अस्वीकार किया और एक इतिहास रच डाला।

आपने “फिरोजा” नाम सुना होगा..?? शायद नही सुना होगा, क्योंकि हमारे वामपंथी इतिहासकार ये सब चीजे आपके समक्ष नही रखते है, क्योंकि उनका एजेंडा फिर पूरा नही होगा। चाहे वो अलाउद्दीन खिलजी हो या हो औरंगजेब, इन सभी की पुत्रियों को हिन्दू राजकुमारों से ही प्रेम था और कई मुस्लिम राजकुमारियों ने तो इसी कारण आत्महत्या भी की थी। फिरोजा का भी एकतरफा प्यार था, वो वीरमदेव से शादी करना चाहती थी। वीरमदेव की ख्याति उन दिनों चारो ओर फैली थी।

“सोनगरा वंको क्षत्रिय अणरो जोश अपार
झेले कुण अण जगत में वीरम री तलवार”

1298 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति अलगू खां और नसरत खां ने गुजरात विजय अभियान किया। उन्होंने जालौर के राजा कान्हड़ देव से जालौर राज्य से होकर गुजरात जाने का रास्ता मांगा, परन्तु कान्हड़ देव ने यह कहकर मना कर दिया कि आप विदेशी और विधर्मी हैं। इस उत्तर से अलाउद्दीन खिलजी नाराज हो गया। परन्तु उसके लिए पहले गुजरात जीतना अनिवार्य था। अत: उसकी तुर्की मुस्लिम सेना गुजरात की तरफ़ बढ़ गई। उसकी सेना ने सोमनाथ के मंदिर को तोड़कर वँहा बहुत कत्लेआम मचाया। सोमनाथ मन्दिर को खंडित कर गुजरात से लौटती अलाउद्दीन खिलजी की सेना पर जालौर के शासक कान्हड़ देव चौहान ने पवित्र शिवलिंग शाही सेना से छीनकर जोकि गाय की खाल में भरकर लाया जा रहा था, जालौर की भूमि पर स्थापित करने के उदेश्य से सरना गांव में डेरा डाले शाही सेना पर भीषण हमला कर पवित्र शिवलिंग प्राप्त कर लिया और शास्त्रोक्त रीति से सरना गांव में ही प्राण प्रतिष्ठित कर दिया।

वीरमदेव के मल्लयुद्ध की शोहरत और व्यक्तित्व के बारे में सुनकर दिल्ली के तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी की पुत्री शहजादी फिरोजा का दिल वीरमदेव पर आ गया और शहजादी ने किसी भी कीमत पर उससे शादी करने की जिद पकड़ ली और मन ही मन उसे अपना पति भी मान लिया था।

“वर वरूं वीरमदेव ना तो रहूंगी अकन कुंवारी”

अर्थात, विवाह करूंगी तो वीरमदेव से नहीं तो अक्षत कुंवारी रहूंगी।

बेटी की जिद को देखकर, अपनी हार का बदला लेने और राजनैतिक फायदा उठाने का विचार कर अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी बेटी के लिए जालौर के राजकुमार को प्रणय प्रस्ताव भेजा। कहते हैं कि वीरमदेव ने यह कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया…

“मामो लाजे भाटियां, कुल लाजे चौहान,
जे मैं परणु तुरकणी, तो पश्चिम उगे भान”

अर्थात, अगर मैं तुरकणी से शादी करूं तो मामा (भाटी) कुल और स्वयं का चौहान कुल लज्जित हो जाएंगे और ऐसा तभी हो सकता है जब सूरज पश्चिम से उगे।

इस जवाब से आगबबूला होकर अलाउद्दीन ने युद्ध का ऐलान कर दिया। कहते हैं कि एक वर्ष तक तुर्कों की सेना जालौर पर घेरा डालकर बैठी रही फिर युद्ध हुआ और किले की हजारों राजपूतानियों ने जौहर किया। स्वयं वीरमदेव ने 22 वर्ष की अल्पायु में ही युद्ध में वीरगति पाई।

शाही सेना पर गुजरात से लौटते समय हमला और अब वीरमदेव द्वारा शहजादी फिरोजा के साथ विवाह का प्रस्ताव ठुकराने के कारण खिलजी ने जालौर रोंदने का निश्चय कर एक बड़ी सेना जालौर रवाना की। जिसे सिवाना के पास जालौर के कान्हड़ देव और सिवाना के शासक सातलदेव ने मिलकर एक साथ आक्रमण कर परास्त कर दिया। इस हार के बाद भी खिलजी ने सेना की कई टुकडियाँ जालौर पर हमले के लिए रवाना की और यह क्रम पॉँच वर्ष तक चलता रहा। लेकिन खिलजी की सेना जालौर के राजपूत शासक को नही दबा पाई। आख़िर जून 1308 में ख़ुद खिलजी एक बड़ी सेना के साथ जालौर के लिए रवाना हुआ। पहले उसने सिवाना पर हमला किया और एक विश्वासघाती के जरिये सिवाना दुर्ग के सुरक्षित जल भंडार में गौ-रक्त डलवा दिया। जिससे वहां पीने के पानी की समस्या खड़ी हो गई। अतः सिवाना के शासक सातलदेव ने अन्तिम युद्ध का ऐलान कर दिया। जिसके तहत उनकी रानियों ने अन्य क्षत्रिय स्त्रियों के साथ जौहर किया व सातलदेव आदि वीरों ने शाका कर अन्तिम युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।

इस युद्ध के बाद खिलजी अपनी सेना को जालौर दुर्ग रोंदने का हुक्म दे ख़ुद दिल्ली आ गया। उसकी सेना ने मारवाड़ में कई जगह लूटपाट व अत्याचार किये। सांचोर के प्रसिद्ध जय मन्दिर के अलावा कई मंदिरों को खंडित किया। इस अत्याचार के बदले कान्हड़ देव ने कई जगह शाही सेना पर आक्रमण कर उसे शिकस्त दी और दोनों सेनाओ के मध्य कई दिनों तक मुठभेड़ चलती रही। आखिर खिलजी ने जालौर जीतने के लिए अपने बेहतरीन सेनानायक कमालुद्दीन को एक विशाल सेना के साथ 1310 ई. में जालौर भेजा जिसने जालौर दुर्ग के चारों और सुद्रढ़ घेरा डाल युद्ध किया लेकिन अथक प्रयासों के बाद भी कमालुद्दीन जालौर दुर्ग नही जीत सका और अपनी सेना वापस लेकर लौटने लगा। तभी कान्हड़ देव का अपने एक सरदार विका से कुछ मतभेद हो गया और विका ने जालौर से लौटती खिलजी की सेना को जालौर दुर्ग के असुरक्षित और बिना किलेबंदी वाले हिस्से का गुप्त भेद दे दिया। विका के इस विश्वासघात का पता जब उसकी पत्नी को लगा तब उसने अपने पति को जहर देकर मार डाला। इस तरह जो काम खिलजी की सेना कई वर्षो तक नही कर सकी, वह एक विश्वासघाती की वजह से चुटकियों में हो गया और जालौर पर खिलजी की सेना का कब्जा हो गया।

खिलजी की सेना को भारी पड़ते देख 1311 ई. में कान्हड़ देव ने अपने पुत्र वीरमदेव को गद्दी पर बैठा स्वयं अन्तिम युद्ध करने का निश्चय किया। जालौर दुर्ग में उसकी रानियों के अलावा अन्य समाज की औरतों ने जौहर की ज्वाला प्रज्वलित कर जौहर किया। तत्पश्चात कान्हड़ देव ने शाका कर अन्तिम दम तक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की। कान्हड़ देव के वीरगति प्राप्त करने के बाद वीरमदेव ने युद्ध की बागडोर संभाली। वीरमदेव का शासक के रूप में साढ़े तीन वर्ष का कार्यकाल युद्ध में ही बिता। आख़िर वीरमदेव की रानियाँ भी जालौर दुर्ग को अन्तिम प्रणाम कर जौहर की ज्वाला में कूद पड़ी और वीरमदेव ने भी शाका करने हेतु दुर्ग के दरवाजे खुलवा शत्रु सेना पर टूट पड़ा और भीषण युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। वीरमदेव के वीरगति को प्राप्त होने के बाद शाहजादी फिरोजा की धाय सनावर जो इस युद्ध में सेना के साथ आई थी, वीरमदेव का मस्तक काट कर सुगन्धित पदार्थों में रख कर फिरोजा के पास ले गई। कहते हैं कि जब वीरमदेव का मस्तक स्वर्ण थाल में रखकर फिरोजा के सम्मुख लाया गया तो मस्तक दूसरी ओर घूम गया, तब फिरोजा ये कहते हुए वीरमदेव का कटा सिर गोद में लेकर, हिन्दू सुहागिन का भेष धारण कर वीरमदेव की चिता पर सती हो गई।

“तज तुरकाणी चाल हिंदूआणी हुई हमें,
भो-भो रा भरतार, शीश न धूण सोनीगरा”

अथार्त, सोनगरे के सरदार तू अपना सिर मत घुमा, तू मेरे जन्म-जन्मांतर का भरतार है। आज मैं तुरकणी से हिन्दू बन गई और अब अपना मिलन अग्नि की ज्वाला में होगा।

आज भी जालौर की सोनगरा की पहाड़ियों पर स्थित पुराने किले में फिरोजा का समाधि स्थल है, जिसे फिरोजा की छतरी के नाम से जाना जाता है।

संदर्भ श्रोत : कान्हड़ देव प्रबंध

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धर्म परिवर्तन और भारत का झूठा इतिहास
Religious conversion and false history of India
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१८५७ के सिपाही विद्रोह के बाद अंग्रेज बहुत डर गए। एकजुट भारत की प्रजा को तोड़ने के लिए आवश्यक था भारत के लोगों को ईसाई बनाना। इस पुण्य कार्य में बंगाल के प्रबुद्ध सर राजाराममोहन राय का अपार सहयोग अंग्रेजों को मिला। ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटेन के खुफिया तंत्र ने राजाराममोहन राय को कलकत्ता से ब्रिटेन जाने की व्यवस्था तथा लन्दन में मैक्समूलर से एक वैचारिक मुलाकात करवाई। इसका फलाफल यह हुई की राजाराममोहन राय ने दक्षिण भारत में फ़ैल रहे ईसाई मिशनरियों को मौन समर्थन दिया। ईसाई मिशनरियों के आड़ में अंग्रेजों ने भारतीय जनता को ईसाई बनाने की योजना बनाई। दक्षिण भारत में सहज रूप से लोग ईसाई नहीं बन रहे थे। ब्रिटेन के ईसाई मिशनरियों ने ब्राह्मण, उपनिषद् , रामायण , महाभारत की आलोचना शुरू कर दी। ईसाई धर्म ग्रन्थ मुक्ति का रास्ता बता दिए गए। अंग्रेजों ने महसूस किया की ब्राह्मण सहज रूप से धर्म परिवर्तन नहीं करते। इसलिए उन्होंने ब्राह्मण से इतर जाति के लोगों पर ध्यान केंद्रित किया। इन जातियों को ब्राह्मण के विरुद्ध बरगलाया भी. भीषण गरीबी और रोग से ग्रसित इतर जाति के हिन्दू लोगों को , मुफ्त भोजन, मुफ्त अंग्रेजी दवाई – चिकित्सा तथा शिक्षा की व्यवस्था लुभावनी और आकर्षक लगी। स्वतंत्रता तक ईसाई धर्म परिवर्तन बेरोक टोक दक्षिण भारत और भारत के आदिवासी अंचलों में की गई। ब्रिटिश भारत ने केवल गुलामी का इतिहास बताई है। ईसाई धर्मान्तरण के लिए रामायण, महाभारत , भगवान राम और भगवान कृष्ण मिथक बना दिए गए। यह भारत का असली इतिहास नहीं है। जब हमारे माननीय प्रधानमंत्री इतिहास परिवर्तन की बात करते हैं तो इसमें विपक्ष के लोग प्रधानमंत्री की आलोचना करते हैं। सर्वदा सत्य यही है की भारत के अतीत में कभी गरीबी , कुपोषण और अशिक्षा से ग्रसित एक हिन्दू समाज ने दुर्भाग्य से धर्मपरिवर्तन किया था । यह वह समाज था जिसे भारत के इतिहास और संस्कृति के बारे में गलत सूचना और जानकारी दी गई थी। यह सत्ता परिवर्तन और हमारे प्रधानमंत्री का दृढ़ प्रभाव थी की इंद्रप्रस्थ में महाभारत के चिन्ह को ७५ वर्षों से सरकारी पुरातत्व विभाग के सोये लोग खोजने में लग गए । इंद्रप्रस्थ, समुद्र में डूबे हिमखंड का मात्र सिरा है। सम्पूर्ण हिमखंड – भगवान कृष्ण की द्वारका है, जिसकी बहुत कम सूचना सरकारी पुरातत्व विभाग और भारत के लोगों को है। विदेशी आक्रमणकारियों ने सर्वदा धर्मपरिवर्तन का मार्ग भारत में सत्ता प्राप्ति के लिये किया है। भारत के इतिहास और संस्कृति को सुरक्षित रखनी है तो धर्म परिवर्तन के विरुद्ध हमें लड़ना होगा और भारत सरकार को एक कठोर क़ानून बनाने होंगें।
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After the Sepoy Mutiny of 1857, the British got very scared. To break the people of united India, British decided to convert Indians into Christian. The British got immense support from the enlightened Sir Rajaram Mohan Roy of Bengal in this pious work ! The East India Company and Britain’s intelligence agency made arrangements for Rajaram Mohan Roy to go to Britain from Calcutta and a ideological meeting was fixed with Max Müller in London. The immediate result was that, Rajaram Mohan Roy gave tacit support to the Christian missionaries spreading in South India. Under the guise of Christian missionaries, the British had planned to make the Indian public Christian. People in South India were not becoming Christians spontaneously. The British missionaries, started attacking Brahmins, Upanishads, Ramayana and the Mahabharata. Christian scriptures were told the way to salvation. The British realized that Brahmins do not convert easily. So they focused on people from caste other than Brahmins. They also tricked these people against Brahmins. Other caste Hindu people suffering from severe poverty and disease, found free food, free English medicine – medical and education system as breathtaking and attractive. Till independence, conversion to Christianity was done unabated in South India and tribal areas of India. British India has only told the history of slavery. Ramayana, Mahabharata, Bhagwan Rama and Bhagwan Krishna were made into myths for Christian conversion. This is not the real history of India. When our honorable Prime Minister talks about the change of history, then the people of the opposition criticize the Prime Minister. It is always true that in the past of India, a Hindu society suffering from poverty, malnutrition and illiteracy had unfortunately converted. It was the society that was given wrong information about India. It was the change of power and the strong influence of our Prime Minister that the footsteps of the Mahabharata at Indraprastha is attended after 75 years of long sleeping, by the Government Archaeology Department. Indraprastha is only the tip of the iceberg submerged in the sea. The whole iceberg, the Dwarka of Bhagwan Krishna, is still very little known to the archaeology department and people of India. Foreign invaders have always followed the path of religious conversion to gain power in India. If India’s history and culture is to be preserved, then we have to fight against religious conversion and the Government of India will have to make a strict law.
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Reference & evidence on the “Christian Missionaries” work in South India is given in:
“Discovery of Lost Dwarka” ( 2020 )-Birendra K Jha
https://www.amazon.com/dp/B0BYR89379…

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#नालंदा_विश्विद्यालय का पुस्तकालय जलाने वाला और जीवन भर मूर्तियां तोड़ने वाला #बख्तियार_खिलजी अपने अंत समय मे असम के कामरूप जिले के एक मंदिर के मूर्तियों के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता मिला अपने जीवन रक्षा के लिए । लेकिन उसका अंत बहुत भयानक तरीके से हुआ , नदी के किनारे रेत पर ले जाकर भीड़ ने उसके दोनों हाथ रस्सियों में बांधकर खींचा फिर उसके दोनों हाथ काट डाला गया । इसके बाद उसे रस्सियों में बांधकर नगर के गलियों में पशुओं की तरह घुमाया गया । इस दौरान छतों पर से लगातार वे औरतें गन्दगी की बारिश उसपर करती रहीं थी । ये वही औरतें थीं जिनके मर्दों और बच्चों का इसने कत्ल किया था । गन्दगी में लिथड़ा हुआ खिलजी की कई घण्टों तो इसी तरह तड़पते हुए मौत हो गयी थी ।

यह इतिहास कितनो को पता है यह मैं नहीं कह रहा इस्लामिक दस्तावेज ही कह रहे है । लेकिन इसे क्यों छुपाया गया है समझ से बाहर है । एक #फ़ारसी_इस्लामिक इतिहासकार गुलाम हुसैन सालिम ने अपनी किताब ” Riyaju-s-Salatin ” में इसका पूरा विवरण प्रस्तुत किया है ।