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ताजमहल


इतिहास में पढ़ाया जाता है कि ताजमहल का निर्माण कार्य 1632 में शुरू और लगभग 1653 में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ।

अब सोचिए कि जब मुमताज का इंतकाल 1631 में हुआ तो फिर कैसे उन्हें 1631 में ही ताजमहल में दफना दिया गया, जबकि ताजमहल तो 1632 में बनना शुरू हुआ था। यह सब मनगढ़ंत बातें हैं जो अंग्रेज और मुस्लिम इतिहासकारों ने 18वीं सदी में लिखी।

दरअसल 1632 में हिन्दू मंदिर को इस्लामिक लुक देने का कार्य शुरू हुआ। 1649 में इसका मुख्य द्वार बना जिस पर कुरान की आयतें तराशी गईं। इस मुख्य द्वार के ऊपर हिन्दू शैली का छोटे गुम्बद के आकार का मंडप है और अत्यंत भव्य प्रतीत होता है। आस पास मीनारें खड़ी की गई और फिर सामने स्थित फव्वारे
को फिर से बनाया गया।

जे ए माॅण्डेलस्लो ने मुमताज की मृत्यु के 7 वर्ष पश्चात Voyages and Travels into the East Indies नाम से निजी पर्यटन के संस्मरणों में आगरे का तो उल्लेख किया गया है किंतु ताजमहल के निर्माण का कोई उल्लेख नहीं किया।
टाॅम्हरनिए के कथन के अनुसार 20 हजार मजदूर यदि 22 वर्ष तक ताजमहल का निर्माण करते रहते तो माॅण्डेलस्लो भी उस विशाल निर्माण कार्य का उल्लेख अवश्य करता।

ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े की एक अमेरिकन प्रयोगशाला में की गई कार्बन जांच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहजहां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वीं सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिए दूसरे दरवाजे भी लगाए गए हैं।
ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात शाहजहां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।
ताजमहल के गुम्बद पर जो अष्टधातु का कलश खड़ा है वह त्रिशूल आकार का पूर्ण कुंभ है। उसके मध्य दंड के शिखर पर नारियल की आकृति बनी है। नारियल के तले दो झुके हुए आम के पत्ते और उसके नीचे कलश दर्शाया गया है। उस चंद्राकार के दो नोक और उनके बीचोबीच नारियल का शिखर मिलाकर त्रिशूल का आकार बना है।

हिन्दू और बौद्ध मंदिरों पर ऐसे ही कलश बने होते हैं। कब्र के ऊपर गुंबद के मध्य से अष्टधातु की एक जंजीर लटक रही है। शिवलिंग पर जल सिंचन करने वाला सुवर्ण कलश इसी जंजीर पर टंगा रहता था। उसे निकालकर जब शाहजहां के खजाने में जमा करा दिया गया तो वह जंजीर लटकी रह गई। उस पर लाॅर्ड कर्जन ने एक दीप लटकवा दिया, जो आज भी है।

कब्रगाह को महल क्यों कहा गया? मकबरे को महल क्यों कहा गया? क्या किसी ने इस पर कभी सोचा, क्योंकि पहले से ही निर्मित एक महल को कब्रगाह में बदल दिया गया। कब्रगाह में बदलते वक्त उसका नाम नहीं बदला गया। यहीं पर शाहजहां से गलती हो गई। उस काल के किसी भी सरकारी या शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ‘ताजमहल’ शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

‘महल’ शब्द मुस्लिम शब्द नहीं है। अरब, ईरान, अफगानिस्तान आदि जगह पर एक भी ऐसी मस्जिद या कब्र नहीं है जिसके बाद महल लगाया गया हो।
यह भी गलत है कि मुमताज के कारण इसका नाम मुमताज महल पड़ा, क्योंकि उनकी बेगम का नाम था #मुमता -उल-जमानी। यदि मुमताज के नाम पर इसका नाम रखा होता तो ताजमहल के आगे से मुम को हटा देने का कोई औचित्य नजर नहीं आता।

विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक ‘Akbar the Great Moghul’ में लिखते हैं, बाबर ने सन् 1530 में आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था। यह इतना विशाल और भव्य था कि इसके जितना दूसरा कोई भारत में महल नहीं था। बाबर की पुत्री गुलबदन ‘हुमायूंनामा’ नामक अपने ऐतिहासिक वृत्तांत में ताज का संदर्भ ‘रहस्य महल’ (Mystic House) के नाम से देती है।

ताजमहल का निर्माण राजा परमर्दिदेव के शासनकाल में 1155 अश्विन शुक्ल पंचमी, रविवार को हुआ था। अतः बाद में मुहम्मद गौरी सहित कई मुस्लिम आक्रांताओं ने ताजमहल के द्वार आदि को तोड़कर उसको लूटा। यह महल आज के ताजमहल से कई गुना ज्यादा बड़ा था और इसके तीन गुम्बद हुआ करते थे। हिन्दुओं ने उसे फिर से मरम्मत करके बनवाया, लेकिन वे ज्यादा समय तक इस महल की रक्षा नहीं कर सके।

👉 वास्तुकला के विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिए उसका नाम ‘तेजोमहालय’ पड़ा था।

शाहजहां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है, जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम ‘तेजोमहालय’ से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहजहां और औरंगजेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुए उसके स्थान पर पवित्र मकबरा शब्द का ही प्रयोग किया है।
ओक के अनुसार अनुसार हुमायूं, अकबर, मुमताज, एतमातुद्दौला और सफदरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिन्दू महलों या मंदिरों में दफनाया गया है।

ताजमहल तेजोमहल शिव मंदिर है – इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज की लाश दफनाई गई न कि लाश दफनाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया। ‘ताजमहल’ शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द ‘तेजोमहालय’ शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वरमहादेव प्रतिष्ठित थे। देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित चित्रकारी की गई है।

इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज के मकबरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है। संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिन्दू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।
तेजोमहालय उर्फ ताजमहल को नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था, क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। यह मंदिर विशालकाय महल क्षेत्र में था। आगरा को प्राचीनकाल में अंगिरा कहते थे, क्योंकि यह ऋषि अंगिरा की तपोभूमि थी। अंगिरा ऋषि भगवान शिव के उपासक थे।
बहुत प्राचीन काल से ही आगरा में 5 शिव मंदिर बने थे। यहां के निवासी सदियों से इन 5 शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करते थे।

लेकिन अब कुछ सदियों से बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल 4 ही शिव मंदिर शेष हैं। 5वें शिव मंदिर को सदियों पूर्व कब्र में बदल दिया गया। स्पष्टतः वह 5वां शिव मंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही हैं, जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

साभार
धन्यवाद

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ताजमहल जो नाम है

तेजोमहालय : एक प्राचीन शिव मंदिर है

इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था, इस तथ्य को आजतक छुपाये रखा गया | विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में “तेज-लिंग” का वर्णन आता है। ताजमहल में “तेज-लिंग” प्रतिष्ठित था इसलिये उसका नाम तेजो-महालय पड़ा था। तेजो महालय मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान् शिव को समर्पित था और आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था। ताज महल में आज भी संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित है मन्दिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है। 1985 में न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर यह सिद्ध किया कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष पुराना है।

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वीर तेजाजी ओर ताजमहल की सच्चाई


वीर तेजाजी ओर ताजमहल की सच्चाई… हिंदू गुम्बज… शाहज़हां के पूर्व के ताज के संदर्भ हमें नकली झूठे दस्तावेज़ सुनाया जाता हैं..

तेजाजी महाराज....तेजाजी महाराज….

तेजाजी महाराज.....तेजाजी महाराज…..

तेजाजी महाराज........

लोक देवता तेजाजी

तेजाजी मुख्यत: राजस्थान के लेकिन उतने ही उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात और कुछ हद तक पंजाब के भी लोक-नायक हैं। अवश्य ही इन प्रदेशों की जनभाषाओं के लोक साहित्य में उनके आख्यान की अभिव्यक्ति के अनेक रूप भी मौजूद हैं। राजस्थानी का ‘तेजा’ लोक-गीत तो इनमें शामिल है ही। वे इन प्रदेशों के सभी समुदायों के आराध्य हैं। लोग तेजाजी के मन्दिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और दूसरी मन्नतों के साथ-साथ सर्प-दंश से होने वाली मृत्यु के प्रति अभय भी प्राप्त करते हैं। स्वयं तेजाजी की मृत्यु, जैसा कि उनके आख्यान से विदित होता है, सर्प-दंश से ही हुई थी। बचनबद्धता का पालन करने के लिए तेजाजी ने स्वयं को एक सर्प के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। वे युद्ध भूमि से आए थे और उनके शरीर का कोई भी हिस्सा हथियार की मार से अक्षत्‌ नहीं था। घावों से भरे शरीर पर अपना दंश रखन को सर्प को ठौर नजर नहीं आई, तो उसने काटने से इन्कार कर दिया। वचन-भंग होता देख घायल तेजाजी ने अपना मुँह खोल कर जीभ सर्प के सामने फैला दी थी और सर्प ने उसी पर अपना दंश रख कर उनके प्राण हर लिए थे।

लोक-नायक की जीवन-यात्रा एक नितान्त साधारण मनुष्य के रूप में शुरू होती है और वह किसी-न-किसी तरह के असाधारण घटनाक्रम में पड़ कर एक असाधारण मनुष्य में रूपान्तरित हो जाता है। उसकी कथा को कहने और सुनने वाला लोक ही उसे एक ऐसे मिथकीय अनुपात में ढाल देता है कि इतिहास के तथ्यप्रेमी चिमटे से तो वह पकड़ा ही नहीं जा सकता। मसलन तेजाजी जिस सर्प से अपनी जीभ पर दंश झेल कर अपनी वचनबद्धता निभाते हुए नायकत्व हासिल करते हैं, इतिहास में उसका तथ्यात्मक खुलासा कुछ यह कह कर दिया गया हैः जब तेजाजी पनेर से अपनी पत्नी के साथ लौट रहे थे उस समय उन पर मीना सरदारों ने हमला किया क्योंकि वे पहले इस नागवंशी राजा द्वारा हरा दिए गए थे.

लोकाख्यान का नाग इतिहास की चपेट में आकर नागवंशी मुखिया की गति को प्राप्त हो जाता है। लोक-नायकों का एक वर्ग ऐसा भी होता है, जिसमें वे जन-साधारण के परित्राता अथवा परित्राणकर्त्ता बन कर अपनी छवि का अर्जन करते हैं। वे जन-साधारण के पक्ष में, स्थापित शक्ति-तन्त्र के दमन और दुराचार से लोहा लेते हैं। इस वर्ग के लोक-नायक अक्सर, हमेशा नहीं, कुछ हद तक संस्थापित कानून की हदों से बाहर निकले हुए होते हैं।

तेजाजी के बलिदान की मूल कथा संक्षेप में इस प्रकार है.तेजाजी महाराज…….. लोक देवता तेजाजी तेजाजी मुख्यत: राजस्थान के लेकिन उतने ही उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात और कुछ हद तक पंजाब के भी लोक-नायक हैं। अवश्य ही इन प्रदेशों की जनभाषाओं के लोक साहित्य में उनके आख्यान की अभिव्यक्ति के अनेक रूप भी मौजूद हैं। राजस्थानी का ‘तेजा’ लोक-गीत तो इनमें शामिल है ही। वे इन प्रदेशों के सभी समुदायों के आराध्य हैं। लोग तेजाजी के मन्दिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और दूसरी मन्नतों के साथ-साथ सर्प-दंश से होने वाली मृत्यु के प्रति अभय भी प्राप्त करते हैं। स्वयं तेजाजी की मृत्यु, जैसा कि उनके आख्यान से विदित होता है, सर्प-दंश से ही हुई थी। बचनबद्धता का पालन करने के लिए तेजाजी ने स्वयं को एक सर्प के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। वे युद्ध भूमि से आए थे और उनके शरीर का कोई भी हिस्सा हथियार की मार से अक्षत्‌ नहीं था। घावों से भरे शरीर पर अपना दंश रखन को सर्प को ठौर नजर नहीं आई, तो उसने काटने से इन्कार कर दिया। वचन-भंग होता देख घायल तेजाजी ने अपना मुँह खोल कर जीभ सर्प के सामने फैला दी थी और सर्प ने उसी पर अपना दंश रख कर उनके प्राण हर लिए थे। लोक-नायक की जीवन-यात्रा एक नितान्त साधारण मनुष्य के रूप में शुरू होती है और वह किसी-न-किसी तरह के असाधारण घटनाक्रम में पड़ कर एक असाधारण मनुष्य में रूपान्तरित हो जाता है। उसकी कथा को कहने और सुनने वाला लोक ही उसे एक ऐसे मिथकीय अनुपात में ढाल देता है कि इतिहास के तथ्यप्रेमी चिमटे से तो वह पकड़ा ही नहीं जा सकता। मसलन तेजाजी जिस सर्प से अपनी जीभ पर दंश झेल कर अपनी वचनबद्धता निभाते हुए नायकत्व हासिल करते हैं, इतिहास में उसका तथ्यात्मक खुलासा कुछ यह कह कर दिया गया हैः जब तेजाजी पनेर से अपनी पत्नी के साथ लौट रहे थे उस समय उन पर मीना सरदारों ने हमला किया क्योंकि वे पहले इस नागवंशी राजा द्वारा हरा दिए गए थे. लोकाख्यान का नाग इतिहास की चपेट में आकर नागवंशी मुखिया की गति को प्राप्त हो जाता है। लोक-नायकों का एक वर्ग ऐसा भी होता है, जिसमें वे जन-साधारण के परित्राता अथवा परित्राणकर्त्ता बन कर अपनी छवि का अर्जन करते हैं। वे जन-साधारण के पक्ष में, स्थापित शक्ति-तन्त्र के दमन और दुराचार से लोहा लेते हैं। इस वर्ग के लोक-नायक अक्सर, हमेशा नहीं, कुछ हद तक संस्थापित कानून की हदों से बाहर निकले हुए होते हैं। तेजाजी के बलिदान की मूल कथा संक्षेप में इस प्रकार है.

तेजाजी का जन्म

शंकर भगवान के वरदान से तेजाजी की प्राप्ति हुई
तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में माघ शुक्ला, चौदस वार गुरुार संवत ग्यारह सौ तीस, तदनुसार २९ जनवरी, १०७४, को धुलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी ताहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे। तेजाजी के नाना का नाम दुलन सोढी था. उनकी माता का नाम सुगना था. मनसुख रणवा ने उनकी माता का नाम रामकुंवरी लिखा है. तेजाजी का ननिहाल त्यौद गाँव (किशनगढ़) में था.

तेजाजी के माता-पिता शंकर भगवान के उपासक थे. शंकर भगवान के वरदान से तेजाजी की प्राप्ति हुई. कलयुग में तेजाजी को शिव का अवतार माना गया है. तेजा जब पैदा हुए तब उनके चेहरे पर विलक्षण तेज था जिसके कारण इनका नाम रखा गया तेजा. उनके जन्म के समय तेजा की माता को एक आवाज सुनाई दी - "कुंवर तेजा ईश्वर का अवतार है, तुम्हारे साथ अधिक समय तक नहीं रहेगा. "

तेजाजी के जन्म के बारे में जन मानस के बीच प्रचलित एक राजस्थानी कविता के आधार पर मनसुख रणवा का मत है-

जाट वीर धौलिया वंश गांव खरनाल के मांय।
आज दिन सुभस भंसे बस्ती फूलां छाय।।
शुभ दिन चौदस वार गुरु, शुक्ल माघ पहचान।
सहस्र एक सौ तीस में प्रकटे अवतारी ज्ञान।।
अर्थात - अवतारी तेजाजी का जन्म विक्रम संवत ११३० में माघ शुक्ल चतुर्दशी, बृहस्पतिवर को नागौर परगना के खरनाल गाँव में धौलिया जाट सरदार के घर हुआ.तेजाजी का जन्म शंकर भगवान के वरदान से तेजाजी की प्राप्ति हुई तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में माघ शुक्ला, चौदस वार गुरुार संवत ग्यारह सौ तीस, तदनुसार २९ जनवरी, १०७४, को धुलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी ताहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे। तेजाजी के नाना का नाम दुलन सोढी था. उनकी माता का नाम सुगना था. मनसुख रणवा ने उनकी माता का नाम रामकुंवरी लिखा है. तेजाजी का ननिहाल त्यौद गाँव (किशनगढ़) में था. तेजाजी के माता-पिता शंकर भगवान के उपासक थे. शंकर भगवान के वरदान से तेजाजी की प्राप्ति हुई. कलयुग में तेजाजी को शिव का अवतार माना गया है. तेजा जब पैदा हुए तब उनके चेहरे पर विलक्षण तेज था जिसके कारण इनका नाम रखा गया तेजा. उनके जन्म के समय तेजा की माता को एक आवाज सुनाई दी – “कुंवर तेजा ईश्वर का अवतार है, तुम्हारे साथ अधिक समय तक नहीं रहेगा. ” तेजाजी के जन्म के बारे में जन मानस के बीच प्रचलित एक राजस्थानी कविता के आधार पर मनसुख रणवा का मत है- जाट वीर धौलिया वंश गांव खरनाल के मांय। आज दिन सुभस भंसे बस्ती फूलां छाय।। शुभ दिन चौदस वार गुरु, शुक्ल माघ पहचान। सहस्र एक सौ तीस में प्रकटे अवतारी ज्ञान।। अर्थात – अवतारी तेजाजी का जन्म विक्रम संवत ११३० में माघ शुक्ल चतुर्दशी, बृहस्पतिवर को नागौर परगना के खरनाल गाँव में धौलिया जाट सरदार के घर हुआ.

तेजाजी का हळसौतिया

तेजाजी का हळसौतिया करते हुए

तेजाजी की बालपन में पुष्कर में शादी हुई

तेजाजी की ससुराल जाने से पहले भाभी से विदाई

तेजाजी का पनेर आगमन

लाछां गूजरी की सहायता से तेजाजी का पेमल से मिलन

तेजाजी लाछां गूजरी की गाय डाकूओं से छुड़ाकर वापस लाते हुए

सुरसुरा में वीर तेजाजी महाराज

सुरसुरा में पेमल का सती होना
ज्येष्ठ मास लग चुका है। ज्येष्ठ मास में ही ऋतु की प्रथम वर्षा हो चुकी है। ज्येष्ठ मास की वर्षा अत्यन्त शुभ है। गाँव के मुखिया को ‘हालोतिया’या हळसौतिया करके बुवाई की शुरुआत करनी है। मुखिया मौजूद नहीं है। उनका बड़ा पुत्र भी गाँव में नहीं है। उस काल में परंपरा थी की वर्षात होने पर गण या कबीले के गणपति सर्वप्रथम खेत में हल जोतने की शुरुआत करता था, तत्पश्चात किसान हल जोतते थे.

मुखिया की पत्नी अपने छोटे पुत्र को, जिसका नाम तेजा है, खेतों में जाकर हळसौतिया का शगुन करने के लिए कहती है। तेजा माँ की आज्ञानुसार खेतों में पहुँच कर हल चलाने लगा है। दिन चढ़ आया है। तेजा को जोरों की भूख लग आई है। उसकी भाभी उसके लिए ‘छाक’ यानी भोजन लेकर आएगी। मगर कब? कितनी देर लगाएगी? सचमुच, भाभी बड़ी देर लगाने के बाद ‘छाक’ लेकर पहुँची है। तेजा का गुस्सा सातवें आसमान पर है। वह भाभी को खरी-खोटी सुनाने लगा है। तेजाजी ने कहा कि बैल रात से ही भूके हैं मैंने भी कुछ नहीं खाया है, भाभी इतनी देर कैसे लगादी. भाभी भी भाभी है। तेजाजी के गुस्से को झेल नहीं पाई और काम से भी पीड़ित थी सो पलट कर जवाब देती है,

एक मन पीसना पीसने के पश्चात उसकी रोटियां बनाई, घोड़ी की खातिर दाना डाला, फिर बैलों के लिए चारा लाई और तेजाजी के लिए छाक लाई परन्तु छोटे बच्चे को झूले में रोता छोड़ कर आई, फिर भी तेजा को गुस्सा आये तो तुम्हारी जोरू जो पीहर में बैठी है. कुछ शर्म-लाज है, तो लिवा क्यों नहीं लाते?
तेजा को भाभी की बात तीर-सी लगती है। वह रास पिराणी फैंकते हैं और ससुराल जाने की कसम खाते हैं. वह तत्क्षण अपनी पत्नी पेमल को लिवाने अपनी ससुराल जाने को तैयार होता है। तेजा खेत से सीधे घर आते हैं और माँ से पूछते हैं कि मेरी शादी कहाँ और किसके साथ हुई. माँ को खरनाल और पनेर की दुश्मनी याद आई और बताती है कि शादी के कुछ ही समय बाद तुम्हारे पिता और पेमल के मामा में कहासुनी हो गयी और तलवार चल गई जिसमें पेमल के मामा की मौत हो गयी. माँ बताती है कि तेजा तुम्हारा ससुराल गढ़ पनेर में रायमल्जी के घर है और पत्नी का नाम पेमल है. सगाई ताउजी बख्शा राम जी ने पीला-पोतडा़ में ही करदी थी.

तेजा ससुराल जाने से पहले विदाई देने के लिये भाभी से पूछते हैं. भाभी कहती है - "देवरजी आप दुश्मनी धरती पर मत जाओ. आपका विवाह मेरी छोटी बहिन से करवा दूंगी." तेजाजी ने दूसरे विवाह से इनकार कर दिया.तेजाजी का हळसौतिया तेजाजी का हळसौतिया करते हुए तेजाजी की बालपन में पुष्कर में शादी हुई तेजाजी की ससुराल जाने से पहले भाभी से विदाई तेजाजी का पनेर आगमन लाछां गूजरी की सहायता से तेजाजी का पेमल से मिलन तेजाजी लाछां गूजरी की गाय डाकूओं से छुड़ाकर वापस लाते हुए सुरसुरा में वीर तेजाजी महाराज सुरसुरा में पेमल का सती होना ज्येष्ठ मास लग चुका है। ज्येष्ठ मास में ही ऋतु की प्रथम वर्षा हो चुकी है। ज्येष्ठ मास की वर्षा अत्यन्त शुभ है। गाँव के मुखिया को ‘हालोतिया’या हळसौतिया करके बुवाई की शुरुआत करनी है। मुखिया मौजूद नहीं है। उनका बड़ा पुत्र भी गाँव में नहीं है। उस काल में परंपरा थी की वर्षात होने पर गण या कबीले के गणपति सर्वप्रथम खेत में हल जोतने की शुरुआत करता था, तत्पश्चात किसान हल जोतते थे. मुखिया की पत्नी अपने छोटे पुत्र को, जिसका नाम तेजा है, खेतों में जाकर हळसौतिया का शगुन करने के लिए कहती है। तेजा माँ की आज्ञानुसार खेतों में पहुँच कर हल चलाने लगा है। दिन चढ़ आया है। तेजा को जोरों की भूख लग आई है। उसकी भाभी उसके लिए ‘छाक’ यानी भोजन लेकर आएगी। मगर कब? कितनी देर लगाएगी? सचमुच, भाभी बड़ी देर लगाने के बाद ‘छाक’ लेकर पहुँची है। तेजा का गुस्सा सातवें आसमान पर है। वह भाभी को खरी-खोटी सुनाने लगा है। तेजाजी ने कहा कि बैल रात से ही भूके हैं मैंने भी कुछ नहीं खाया है, भाभी इतनी देर कैसे लगादी. भाभी भी भाभी है। तेजाजी के गुस्से को झेल नहीं पाई और काम से भी पीड़ित थी सो पलट कर जवाब देती है, एक मन पीसना पीसने के पश्चात उसकी रोटियां बनाई, घोड़ी की खातिर दाना डाला, फिर बैलों के लिए चारा लाई और तेजाजी के लिए छाक लाई परन्तु छोटे बच्चे को झूले में रोता छोड़ कर आई, फिर भी तेजा को गुस्सा आये तो तुम्हारी जोरू जो पीहर में बैठी है. कुछ शर्म-लाज है, तो लिवा क्यों नहीं लाते? तेजा को भाभी की बात तीर-सी लगती है। वह रास पिराणी फैंकते हैं और ससुराल जाने की कसम खाते हैं. वह तत्क्षण अपनी पत्नी पेमल को लिवाने अपनी ससुराल जाने को तैयार होता है। तेजा खेत से सीधे घर आते हैं और माँ से पूछते हैं कि मेरी शादी कहाँ और किसके साथ हुई. माँ को खरनाल और पनेर की दुश्मनी याद आई और बताती है कि शादी के कुछ ही समय बाद तुम्हारे पिता और पेमल के मामा में कहासुनी हो गयी और तलवार चल गई जिसमें पेमल के मामा की मौत हो गयी. माँ बताती है कि तेजा तुम्हारा ससुराल गढ़ पनेर में रायमल्जी के घर है और पत्नी का नाम पेमल है. सगाई ताउजी बख्शा राम जी ने पीला-पोतडा़ में ही करदी थी. तेजा ससुराल जाने से पहले विदाई देने के लिये भाभी से पूछते हैं. भाभी कहती है – “देवरजी आप दुश्मनी धरती पर मत जाओ. आपका विवाह मेरी छोटी बहिन से करवा दूंगी.” तेजाजी ने दूसरे विवाह से इनकार कर दिया.

तेजाजी की बालपन में पुष्कर में शादी हुईतेजाजी की बालपन में पुष्कर में शादी हुई

तेजाजी की ससुराल जाने से पहले भाभी से विदाईतेजाजी की ससुराल जाने से पहले भाभी से विदाई

तेजाजी का पनेर आगमन बहिन के ससुराल में तेजाजी भाभी फिर कहती है कि पहली बार ससुराल को आने वाली अपनी दुल्हन पेमल का ‘बधावा’ यानी स्वागत करने वाली अपनी बहन राजल को तो पहले पीहर लेकर आओ। तेजाजी का ब्याह बचपन में ही पुष्कर में पनेर गाँव के मुखिया रायमल की बेटी पेमल के साथ हो चुका था। विवाह के कुछ समय बाद दोनों परिवारों में खून-खराबा हुआ था। तेजाजी को पता ही नहीं था कि बचपन में उनका विवाह हो चुका था। भाभी की तानाकशी से हकीकत सामने आई है। जब तेजाजी अपनी बहन राजल को लिवाने उसकी ससुराल के गाँव तबीजी के रास्ते में थे, तो एक मीणा सरदार ने उन पर हमला किया। जोरदार लड़ाई हुई। तेजाजी जीत गए। तेजाजी द्वारा गाडा गया भाला जमीन में से कोई नहीं निकाल पाया और सभी दुश्मन भाग गए. तबीजी पहुँचे और अपने बहनोई जोगाजी सियाग के घर का पता पनिहारियों से पूछा. उनके घर पधार कर उनकी अनुमति से राजल को खरनाल ले आए। तेजाजी का पनेर प्रस्थान तेजाजी अपनी माँ से ससुराल पनेर जाने की अनुमति माँगते हैं. माँ को अनहोनी दिखती है और तेजा को ससुराल जाने से मना करती है. भाभी कहती है कि पंडित से मुहूर्त निकलवालो. पंडित तेजा के घर आकर पतड़ा देख कर बताता है कि उसको सफ़ेद देवली दिखाई दे रही है जो सहादत की प्रतीक है. सावन व भादवा माह अशुभ हैं. पंडित ने तेजा को दो माह रुकने की सलाह दी. तेजा ने कहा कि तीज से पहले मुझे पनेर जाना है चाहे धन-दान ब्रह्मण को देना पड़े. वे कहते हैं कि जंगल के शेर को कहीं जाने के लिए मुहूर्त निकलवाने की जरुरत नहीं है. तेजा ने जाने का निर्णय लिया और माँ-भाभी से विदाई ली. अगली सुबह वे अपनी लीलण नामक घोड़ी पर सवार हुए और अपनी पत्नी पेमल को लिवाने निकल पड़े। जोग-संयोगों के मुताबिक तेजा को लकडियों से भरा गाड़ा मिला, कुंवारी कन्या रोती मिली, छाणा चुगती लुगाई ने छींक मारी, बिलाई रास्ता काट गई, कोचरी दाहिने बोली, मोर कुर्लाने लगे. तेजा अन्धविसवासी नहीं थे. सो चलते रहे. बरसात का मौसम था. कितने ही उफान खाते नदी-नाले पार किये. सांय काल होते-होते वर्षात ने जोर पकडा. रस्ते में बनास नदी उफान पर थी. ज्यों ही उतार हुआ तेजाजी ने लीलण को नदी पार करने को कहा जो तैर कर दूसरे किनारे लग गई. तेजाजी बारह कोस अर्थात ३६ किमी का चक्कर लगा कर अपनी ससुराल पनेर आ पहुँचे। तेजाजी का पनेर आगमन शाम का वक्त था। पनेर गढ़ के दरवाजे बंद हो चुके थे. कुंवर तेजाजी जब पनेर के कांकड़ पहुंचे तो एक सुन्दर सा बाग़ दिखाई दिया. तेजाजी भीगे हुए थे. बाग़ के दरवाजे पर माली से दरवाजा खोलने का निवेदन किया. माली ने कहा बाग़ की चाबी पेमल के पास है, मैं उनकी अनुमति बिना दरवाजा नहीं खोल सकता. कुंवर तेजा ने माली को कुछ रुपये दिए तो झट ताला खोल दिया. रातभर तेजा ने बाग़ में विश्राम किया और लीलन ने बाग़ में घूम-घूम कर पेड़-पौधों को तोड़ डाला. बाग़ के माली ने पेमल को परदेशी के बारे में और घोडी द्वारा किये नुकशान के बारे में बताया. पेमल की भाभी बाग़ में आकर पूछती है कि परदेशी कौन है, कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा. तेजा ने परिचय दिया कि वह खरनाल का जाट है और रायमल जी के घर जाना है. पेमल की भाभी माफ़ी मांगती है और बताती है कि वह उनकी छोटी सालेली है. सालेली (साले की पत्नि) ने पनेर पहुँच कर पेमल को खबर दी. कुंवर तेजाजी पनेर पहुंचे. पनिहारियाँ सुन्दर घोडी पर सुन्दर जवाई को देखकर हर्षित हुई. तेजा ने रायमल्जी का घर पूछा. सूर्यास्त होने वाला था. उनकी सास गाएँ दूह रही थी। तेजाजी का घोड़ा उनको लेकर धड़धड़ाते हुए पिरोल में आ घुसा। सास ने उन्हें पहचाना नहीं। वह अपनी गायों के डर जाने से उन पर इतनी क्रोधित हुई कि सीधा शाप ही दे डाला, ‘जा, तुझे काला साँप खाए!’ तेजाजी उसके शाप से इतने क्षुब्ध हुए कि बिना पेमल को साथ लिए ही लौट पड़े। तेजाजी ने कहा यह नुगरों की धरती है, यहाँ एक पल भी रहना पाप है.

लाछां गूजरी की सहायता से तेजाजी का पेमल से मिलन।

अपने पति को वापस मुड़ते देख पेमल को झटका लगा. पेमल ने पिता और भाइयों से इशारा किया की वे तेजाजी को रोकें. श्वसुर और सेल तेजाजी को रोकते हैं पर वे मानते नहीं हैं. वे घर से बहार निकल आते हैं. पेमल की सहेली थी लाछां गूजरी। उसने पेमल को तेजाजी से मिलवाने का यत्न किया। वह ऊँटनी पर सवार हुई और रास्ते में मीणा सरदारों से लड़ती-जूझती तेजाजी तक जा पहुँची। उन्हें पेमल का सन्देश दिया। अगर उसे छोड़ कर गए, तो वह जहर खा कर मर जाएगी। उसके मां-बाप उसकी शादी किसी और के साथ तय कर चुके हैं। लाछां बताती है, पेमल तो मरने ही वाली थी, वही उसे तेजाजी से मिलाने का वचन दे कर रोक आई है। लाछन के समझाने पर भी तेजा पर कोई असर नहीं हुआ. पेमल अपनी माँ को खरी खोटी सुनाती है. पेमल कलपती हुई आई और लिलन के सामने कड़ी हो गई. पेमल ने कहा - आपके इंतजार में मैंने इतने वर्ष निकले. मेरे साथ घर वालों ने कैसा वर्ताव किया यह मैं ही जानती हूँ. आज आप चले गए तो मेरा क्या होगा. मुझे भी अपने साथ ले चलो. मैं आपके चरणों में अपना जीवन न्यौछावर कर दूँगी.

पेमल की व्यथा देखकर तेजाजी पोल में रुके. सभी ने पेमल के पति को सराहा. शाम के समय सालों के साथ तेजाजी ने भोजन किया. देर रात तक औरतों ने जंवाई गीत गए. पेमल की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था. तेजाजी पेमल से मिले। अत्यन्त रूपवती थी पेमल। दोनों बतरस में डूबे थे कि लाछां की आहट सुनाई दी।लाछां गूजरी की सहायता से तेजाजी का पेमल से मिलन। अपने पति को वापस मुड़ते देख पेमल को झटका लगा. पेमल ने पिता और भाइयों से इशारा किया की वे तेजाजी को रोकें. श्वसुर और सेल तेजाजी को रोकते हैं पर वे मानते नहीं हैं. वे घर से बहार निकल आते हैं. पेमल की सहेली थी लाछां गूजरी। उसने पेमल को तेजाजी से मिलवाने का यत्न किया। वह ऊँटनी पर सवार हुई और रास्ते में मीणा सरदारों से लड़ती-जूझती तेजाजी तक जा पहुँची। उन्हें पेमल का सन्देश दिया। अगर उसे छोड़ कर गए, तो वह जहर खा कर मर जाएगी। उसके मां-बाप उसकी शादी किसी और के साथ तय कर चुके हैं। लाछां बताती है, पेमल तो मरने ही वाली थी, वही उसे तेजाजी से मिलाने का वचन दे कर रोक आई है। लाछन के समझाने पर भी तेजा पर कोई असर नहीं हुआ. पेमल अपनी माँ को खरी खोटी सुनाती है. पेमल कलपती हुई आई और लिलन के सामने कड़ी हो गई. पेमल ने कहा – आपके इंतजार में मैंने इतने वर्ष निकले. मेरे साथ घर वालों ने कैसा वर्ताव किया यह मैं ही जानती हूँ. आज आप चले गए तो मेरा क्या होगा. मुझे भी अपने साथ ले चलो. मैं आपके चरणों में अपना जीवन न्यौछावर कर दूँगी. पेमल की व्यथा देखकर तेजाजी पोल में रुके. सभी ने पेमल के पति को सराहा. शाम के समय सालों के साथ तेजाजी ने भोजन किया. देर रात तक औरतों ने जंवाई गीत गए. पेमल की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था. तेजाजी पेमल से मिले। अत्यन्त रूपवती थी पेमल। दोनों बतरस में डूबे थे कि लाछां की आहट सुनाई दी।

तेजाजी लाछां गूजरी की गाय डाकूओं से छुड़ाकर वापस लाते हुए......

लाछां गुजरी ने तेजाजी को बताया कि मीणा चोर उसकी गायों को चुरा कर ले गए हैं…. अब उनके सिवाय उसका कोई मददगार नहीं। लाछां गुजारी ने तेजाजी से कहा कि आप मेरी सहायता कर अपने क्षत्रिय धर्म की रक्षा करो अन्यथा गायों के बछडे भूखे मर जायेंगे. तेजा ने कहा राजा व भौमिया को शिकायत करो. लाछां ने कहा राजा कहीं गया हुआ है और भौमिया से दश्मनी है. तेजाजी ने कहा कि पनेर में एक भी मर्द नहीं है जो लड़ाई के लिए चढाई करे. तुम्हारी गायें मैं लाऊंगा.

तेजाजी फिर अपनी लीलण घोड़ी पर सवार हुए। पंचों हथियार साथ लिए. पेमल ने घोडी कि लगाम पकड़ कर कहा कि मैं साथ चलूंगी. लड़ाई में घोडी थम लूंगी. तेजा ने कहा पेमल जिद मत करो. मैं क्षत्रिय धर्म का पालक हूँ. मैं अकेला ही मीणों को हराकर गायें वापिस ले आऊंगा.

तेजाजी के आदेश के सामने पेमल चुप हो गई. पेमल अन्दर ही अन्दर कंप भी रही थी और बद्बदाने लगी -

डूंगर पर डांडी नहीं, मेहां अँधेरी रात
पग-पग कालो नाग, मति सिधारो नाथ
अर्थात पहाडों पर रास्ता नहीं है, वर्षात की अँधेरी रात है और पग-पग पर काला नाग दुश्मन है ऐसी स्थिति में मत जाओ.

तेजाजी धर्म के पक्के थे सो पेमल की बात नहीं मानी और पेमल से विदाई ली. पेमल ने तेजाजी को भाला सौंपा. वर्तमान सुरसुरा नामक स्थान पर उस समय घना जंगल था. वहां पर बालू नाग, जिसे लोक संगीत में बासक नाग बताया गया है, घात लगा कर बैठे थे. रात्रि को जब तेजाजी मीणों से गायें छुड़ाने जा रहे थे कि षड़यंत्र के तहत बालू नाग ने रास्ता रोका. बालू नाग बोला कि आप हमें मार कर ही जा सकते हो. तेजाजी ने विश्वास दिलाया कि मैं धर्म से बंधा हूँ. गायें लाने के पश्चात् वापस आऊंगा. मेरा वचन पूरा नहीं करुँ तो समझना मैंने मेरी माँ का दूध नहीं पिया है.तेजाजी लाछां गूजरी की गाय डाकूओं से छुड़ाकर वापस लाते हुए…… लाछां गुजरी ने तेजाजी को बताया कि मीणा चोर उसकी गायों को चुरा कर ले गए हैं…. अब उनके सिवाय उसका कोई मददगार नहीं। लाछां गुजारी ने तेजाजी से कहा कि आप मेरी सहायता कर अपने क्षत्रिय धर्म की रक्षा करो अन्यथा गायों के बछडे भूखे मर जायेंगे. तेजा ने कहा राजा व भौमिया को शिकायत करो. लाछां ने कहा राजा कहीं गया हुआ है और भौमिया से दश्मनी है. तेजाजी ने कहा कि पनेर में एक भी मर्द नहीं है जो लड़ाई के लिए चढाई करे. तुम्हारी गायें मैं लाऊंगा. तेजाजी फिर अपनी लीलण घोड़ी पर सवार हुए। पंचों हथियार साथ लिए. पेमल ने घोडी कि लगाम पकड़ कर कहा कि मैं साथ चलूंगी. लड़ाई में घोडी थम लूंगी. तेजा ने कहा पेमल जिद मत करो. मैं क्षत्रिय धर्म का पालक हूँ. मैं अकेला ही मीणों को हराकर गायें वापिस ले आऊंगा. तेजाजी के आदेश के सामने पेमल चुप हो गई. पेमल अन्दर ही अन्दर कंप भी रही थी और बद्बदाने लगी – डूंगर पर डांडी नहीं, मेहां अँधेरी रात पग-पग कालो नाग, मति सिधारो नाथ अर्थात पहाडों पर रास्ता नहीं है, वर्षात की अँधेरी रात है और पग-पग पर काला नाग दुश्मन है ऐसी स्थिति में मत जाओ. तेजाजी धर्म के पक्के थे सो पेमल की बात नहीं मानी और पेमल से विदाई ली. पेमल ने तेजाजी को भाला सौंपा. वर्तमान सुरसुरा नामक स्थान पर उस समय घना जंगल था. वहां पर बालू नाग, जिसे लोक संगीत में बासक नाग बताया गया है, घात लगा कर बैठे थे. रात्रि को जब तेजाजी मीणों से गायें छुड़ाने जा रहे थे कि षड़यंत्र के तहत बालू नाग ने रास्ता रोका. बालू नाग बोला कि आप हमें मार कर ही जा सकते हो. तेजाजी ने विश्वास दिलाया कि मैं धर्म से बंधा हूँ. गायें लाने के पश्चात् वापस आऊंगा. मेरा वचन पूरा नहीं करुँ तो समझना मैंने मेरी माँ का दूध नहीं पिया है.

सुरसुरा में वीर तेजाजी महाराज….. वहां से तेजाजी ने भाला, धनुष, तीर लेकर लीलन पर चढ़ उन्होंने चोरों का पीछा किया. सुरसुरा से १५-१६ किमी दूर मंडावारियों की पहाडियों में मीणा दिखाई दिए. तेजाजी ने मीणों को ललकारा. तेजाजी ने बाणों से हमला किया. मीने ढेर हो गए, कुछ भाग गए और कुछ मीणों ने आत्मसमर्पण कर दिया. तेजा का पूरा शारीर घायल हो गया और तेजा सारी गायों को लेकर पनेर पहुंचे और लाछां गूजरी को सौंप दी . लाछां गूजरी को सारी गायें दिखाई दी पर गायों के समूह के मालिक काणां केरडा नहीं दिखा तो वह उदास हो गई और तेजा को वापिस जाकर लाने के लिए बोला. तेजाजी वापस गए. पहाड़ी में छुपे मीणों पर हमला बोल दिया व बछड़े को ले आये. इस लड़ाई में तेजाजी का शारीर छलनी हो गया. बताते हैं कि लड़ाई में १५० मीणा लोग मारे गए जिनकी देवली मंदावारिया की पहाड़ी में बनी हैं. सबको मार कर तेजाजी विजयी रहे एवं वापस पनेर पधारे. तेजाजी की वचन बद्धता लाछां गूजरी को काणां केरडा सौंप कर लीलण घोडी से बोले कि तुम वापस उस जगह चलो जहाँ मैं वचन देकर आया हूँ. तेजाजी सीधे बालू नाग के इन्तजार स्थल पर आते हैं. बालू नाग से बोलते हैं की मैं मेरा वचन पूरा करके आया हूँ तुम अब अपना वचन पूरा करो. बालू नाग का ह्रदय काँप उठा. वह बोला – “मैं तुम्हारी इमानदारी और बहादुरी पर प्रसन्न हूँ. मैंने पीढी पीढी का बैर चुकता कर लिया. अब तुम जाओ मैं तुम्हें जीवन दान देता हूँ. तुम अपने कुल के एक मात्र देवता कहलाओगे. यह मेरा वरदान है.” तेजाजी ने कहा कि मैं अपने वचनों से पीछे नहीं हटता वह अपने प्राण को हर हाल में पूरा करेगा. बालू नाग ने अपना प्रण पूरा करने के लिए तेजाजी की जीभ पर हमला किया. तेजाजी लीलन से नीचे गिरे और वीर गति को प्राप्त हो गए. वे कलयुग के अवतारी बन गए. लोक परम्परा में तेजाजी को काले नाग द्वारा डसना बताया गया है. कहते हैं की लाछां गूजरी जब तेजाजी के पास आयी और गायों को ले जाने का समाचार सुनाया तब रास्ते में वे जब चोरों का पीछा कर रहे थे, उसी दौरान उन्हें एक काला नाग आग में घिरा नजर आया। उन्होंने नाग को आग से बाहर निकाला। बासग नाग ने उन्हें वरदान की बजाय यह कह कर शाप दिया कि वे उसकी नाग की योनी से मुक्ति में बाधक बने। बासग नाग ने फटकार कर कहा – मेरा बुढापा बड़ा दुखदाई होता है. मुझे मरने से बचाने पर तुम्हें क्या मिला. तेजाजी ने कहा – मरते, डूबते व जलते को बचाना मानव का धर्म है. मैंने तुम्हारा जीवन बचाया है, कोई बुरा काम नहीं किया. भलाई का बदला बुराई से क्यों लेना चाहते हो. नागराज लीलन के पैरों से दूर खिसक जाओ वरना कुचले जाओगे. नाग ने प्रायश्चित स्वरूप उन्हें डसने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने नाग को वचन दिया कि लाछां गूजरी की गायें चोरों से छुड़ा कर उसके सुपुर्द करने के बाद नाग के पास लौट आएँगे। तेजाजी ने पाया कि लाछां की गायें ले जाने वाले उसी मीणा सरदार के आदमी थे, जिसे उन्होंने पराजित करके खदेड़ भगाया था। उनसे लड़ते हुए तेजाजी बुरी तरह लहुलूहान हो गए। गायें छुड़ा कर लौटते हुए अपना वचन निभाने वे नाग के सामने प्रस्तुत हो गए। नागराज ने कहा – तेजा नागराज कुंवारी जगह बिना नहीं डसता. तुम्हारे रोम-रोम से खून टपक रहा है. मैं कहाँ डसूं? तेजाजी ने कहा अपने वचन को पूरा करो. मेरे हाथ की हथेली व जीभ कुंवारी हैं, मुझे डसलो. नागराज ने कहा – “तेजा तुम शूरवीर हो. मैं प्रसन्न होकर तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम तुम्हारे कुल के देवता के रूप में पूजे जावोगे. आज के बाद काला सर्प का काटा हुआ कोई व्यक्ति यदि तुम्हारे नाम की तांती बांध लेगा तो उसका पान उतर जायेगा. किसान खेत में हलोतिया करने से पहले तुम्हारे नाम की पूजा करेगा और तुम कलयुग के अवतारी माने जावोगे. यही मेरा अमर आशीष है.” नाग को उनके क्षत्‌-विक्षत्‌ शरीर पर दंश रखने भर को भी जगह नजर नहीं आई और अन्तत: तेजाजी ने अपनी जीभ पर सर्प-दंश झेल कर और प्राण दे कर अपने वचन की रक्षा की। तेजाजी ने नजदीक ही ऊँट चराते रैबारी आसू देवासी को बुलाया और कहा, ” भाई आसू देवासी ! मुसीबत में काम आने वाला ही घर का होता है, तू मेरा एक काम पूरा करना. मेरी इहलीला समाप्त होने के पश्चात् मेरा रुमाल व एक समाचार रायमल्जी मेहता के घर लेजाना और मेरे सास ससुर को पांवा धोक कहना. पेमल को मेरे प्यार का रुमाल दे देना, सारे गाँव वालों को मेरा राम-राम कहना और जो कुछ यहाँ देख रहे हो पेमल को बतादेना और कहना कि तेजाजी कुछ पल के मेहमान हैं.” लीलन घोडी की आँखों से आंसू टपकते देख तेजाजी ने कहा – “लीलन तू धन्य है. आज तक तूने सुख-दुःख में मेरा साथ निभाया. मैं आज हमेशा-हमेशा के लिए तुम्हारा साथ छोड़ रहा हूँ. तू खरनाल जाकर मेरे परिवार जनों को आँखों से समझा देना.” आसू देवासी सीधे पनेर में रायमल्जी के घर गया और पेमल को कहा – “राम बुरी करी पेमल तुम्हारा सूरज छुप गया. तेजाजी बलिदान को प्राप्त हुए. मैं उनका मेमद मोलिया लेकर आया हूँ.”

सुरसुरा में पेमल का सती होना......

तेजाजी के बलिदान का समाचार सुनकर पेमल के आँखों के आगे अँधेरा छा गया. उसने मां से सत का नारियल माँगा, सौलह श्रृंगार किये, परिवार जनों से विदाई ली और सुरसुरा जाकर तेजाजी के साथ सती हो गई.

पेमल जब चिता पर बैठी है तो लिलन घोडी को सन्देश देती है कि सत्य समाचार खरनाल जाकर सबको बतला देना. कहते हैं कि अग्नि स्वतः ही प्रज्वलित हो गई और पेमल सती हो गई. लोगों ने पूछा कि सती माता तुम्हारी पूजा कब करें तो पेमल ने बताया कि -

"भादवा सुदी नवमी की रात्रि को तेजाजी धाम पर जागरण करना और दसमी को तेजाजी के धाम पर उनकी देवली को धौक लगाना, कच्चे दूध का भोग लगाना. इससे मनपसंद कार्य पूर्ण होंगे. यही मेरा अमर आशीष है "
लीलन घोड़ी सतीमाता के हवाले अपने मालिक को छोड़ अंतिम दर्शन पाकर सीधी खरनाल की तरफ रवाना हुई. परबतसर के खारिया तालाब पर कुछ देर रुकी और वहां से खरनाल पहुंची. खरनाल गाँव में खाली पीठ पहुंची तो तेजाजी की भाभी को अनहोनी की शंका हुई. लीलन की शक्ल देख पता लग गया की तेजाजी संसार छोड़ चुके हैं.

तेजाजी की बहिन राजल बेहोश होकर गिर पड़ी, फिर खड़ी हुई और माता-पिता, भाई-भोजाई से अनुमति लेकर माँ से सत का नारियल लिया और खरनाल के पास ही पूर्वी जोहड़ में चिता चिन्वाकर भाई की मौत पर सती हो गई. भाई के पीछे सती होने का यह अनूठा उदहारण है. राजल बाई को बाघल बाई भी कहते हैं राजल बाई का मंदिर खरनाल में गाँव के पूर्वी जोहड़ में हैं.

तेजाजी की प्रिय घोड़ी लीलण भी दुःख नहीं झेल सकी और अपना शारीर छोड़ दिया. लीलण घोड़ी का मंदिर आज भी खरनाल के तालाब के किनारे पर बना है.

इतिहासकारों ने तेजाजी के निधन की तिथि दर्ज की: २८ अगस्त, ११०३ ईस्वी।

***************************************************************************************************************सुरसुरा में पेमल का सती होना…… तेजाजी के बलिदान का समाचार सुनकर पेमल के आँखों के आगे अँधेरा छा गया. उसने मां से सत का नारियल माँगा, सौलह श्रृंगार किये, परिवार जनों से विदाई ली और सुरसुरा जाकर तेजाजी के साथ सती हो गई. पेमल जब चिता पर बैठी है तो लिलन घोडी को सन्देश देती है कि सत्य समाचार खरनाल जाकर सबको बतला देना. कहते हैं कि अग्नि स्वतः ही प्रज्वलित हो गई और पेमल सती हो गई. लोगों ने पूछा कि सती माता तुम्हारी पूजा कब करें तो पेमल ने बताया कि – “भादवा सुदी नवमी की रात्रि को तेजाजी धाम पर जागरण करना और दसमी को तेजाजी के धाम पर उनकी देवली को धौक लगाना, कच्चे दूध का भोग लगाना. इससे मनपसंद कार्य पूर्ण होंगे. यही मेरा अमर आशीष है ” लीलन घोड़ी सतीमाता के हवाले अपने मालिक को छोड़ अंतिम दर्शन पाकर सीधी खरनाल की तरफ रवाना हुई. परबतसर के खारिया तालाब पर कुछ देर रुकी और वहां से खरनाल पहुंची. खरनाल गाँव में खाली पीठ पहुंची तो तेजाजी की भाभी को अनहोनी की शंका हुई. लीलन की शक्ल देख पता लग गया की तेजाजी संसार छोड़ चुके हैं. तेजाजी की बहिन राजल बेहोश होकर गिर पड़ी, फिर खड़ी हुई और माता-पिता, भाई-भोजाई से अनुमति लेकर माँ से सत का नारियल लिया और खरनाल के पास ही पूर्वी जोहड़ में चिता चिन्वाकर भाई की मौत पर सती हो गई. भाई के पीछे सती होने का यह अनूठा उदहारण है. राजल बाई को बाघल बाई भी कहते हैं राजल बाई का मंदिर खरनाल में गाँव के पूर्वी जोहड़ में हैं. तेजाजी की प्रिय घोड़ी लीलण भी दुःख नहीं झेल सकी और अपना शारीर छोड़ दिया. लीलण घोड़ी का मंदिर आज भी खरनाल के तालाब के किनारे पर बना है. इतिहासकारों ने तेजाजी के निधन की तिथि दर्ज की: २८ अगस्त, ११०३ ईस्वी। ***************************************************************************************************************

तेजाजी की चमत्कारी शक्तियां आज के विज्ञान के इस युग में चमत्कारों की बात करना पिछड़ापन माना जाता है और विज्ञान चमत्कारों को स्वीकार नहीं करता. परन्तु तेजाजी के साथ कुछ चमत्कारों की घटनाएँ जुडी हुई हैं जिन पर नास्तिक व्यक्तियों को भी बरबस विस्वास करना पड़ता है. कुछ घटनाएँ इस प्रकार हैं: जोधपुर के राजा अभय सिंह को तेजाजी का दर्शाव – सन १७९१ में जोधपुर राज्य के राजा अभय सिंह को सोते समय तेजाजी का दर्शाव हुआ. दर्शाव में तेजाजी ने राजा से कहा कि दक्षिण में मध्य प्रदेश तक के लोग मेरी पूजा करते हैं लेकिन मारवाड़ में मुझे भूल से चुके हैं. तेजाजी ने वचन दिया कि जहाँ लीलन , खारिया तालाब, में रुकी थी वहां मैं जाऊंगा. राजा ने पूछा, हम चाहते हैं कि आप हमारी धरती पर पधारो. पर आप कोई सबूत दो कि पधार गए हैं. तेजाजी ने दर्शाव में कहा कि परबतसर तालाब के पास जहाँ लीलन खड़ी हुई थी वहां जो खारिया तालाब है उसका पानी मीठा हो जायेगा एवं टीले पर जो हल का जूडा पेड़ के पास लटका है वो हरा हो जायेगा तथा यह खेजडा बनकर हमेशा खांडा खेजड़ा रहेगा. जोधपुर महाराज ने पनेर से तेजाजी की असली जमीन से निकली देवली लानी चाही लेकिन असफल रहे. अंत में तेजाजी ने दर्शाव में कहा कि मैं बिना मूर्ती के ही आ जाऊंगा, तब राजा ने देवली दूसरी लाकर लगाई. राजा जब वहां पधारे हल का जूडा हरा हो गया तथा खारिया तालाब का पानी चमत्कारी ढंग से मीठा हो गया. जोधपुर राज्य के राजा अभय सिंह को अपार ख़ुशी हुई और लोक देवता वीर तेजाजी का मंदिर खारिया तालाब की तीर पर बनाया. परबतसर तेजाजी पशु मेला – परबतसर में एशिया का सबसे बड़ा तेजाजी पशु मेला भरता है. यहाँ बिकने आने वाले पशुओं की अधिकतम संख्या १३०००० है तथा उसमें से बिक्री का रिकार्ड १००००० का है. हर वर्ष परबतसर मेले में सारे पशु रात को अचानक खड़े हो जाते हैं. ऐसी मान्यता है कि रात्रि को तेजाजी अपनी घोड़ी लीलन पर चढ़कर आते हैं और हर साल एक बार मेले में सभी प्राणियों को दर्शाव देते हैं. इस चमत्कारिक घटना के गवाह मेले में जाने वाले बड़े बुजुर्ग व पशु पालक हैं. सुरसुरा तेजाजी का बलिदान स्थल – सुरसुरा तेजाजी का बलिदान स्थल है. इसके स्थापना के पीछे भी ऐतिहासिक और चमत्कारिक घटना है. एक सुर्रा नाम का खाती बैलों को ले जा रहा था. रात्रि हो गई और खाती अराध्य देव तेजाजी की रखवाली में बैलों को छोड़ वहीँ रुक गया. रात को सुर्रा सो गया तब गुर्जरों ने बैलों को खोल लिया. लेकिन तेजाजी की कृपा से सारे गुर्जर आत्मा से अंधे हो गए एवं बैलों के साथ रात भर वहीँ घूमते रहे. सुबह जब सुर्रा उठा तो दूर पहाड़ी पर बैलों को घूमते पाया व गुर्जर पीछे पीछे घूम रहे थे. जब सुर्रा पास गया तो गुर्जरों का अंधापन दूर हो गया तथा उन्होंने सुर्रा से माफ़ी मांगी व भाग गए. सुर्रा तेजाजी के चमत्कार से बड़ा प्रभावित हुआ और वहीँ बस गया. तभी से तेजाजी के बलिदान धाम का नाम सुर्रा के कारण सुरसुरा पड़ गया. नदी की तलहटी में मिले तेजाजी – शिवना नदी की साफ-सफाई के लिए इन दिनों प्रत्येक रविवार को गायत्री परिवार के सदस्यों द्वारा श्रमदान किया जा रहा है। इस दौरान इस रविवार 22 मार्च 2009 को नदी से यमराज और वीर तेजाजी की दो प्राचीन प्रतिमाएँ निकली हैं। इन्हें लगभग दो सौ वर्ष पुरानी बताया गया है। यमराज और तेजाजी की प्रतिमाओं को मंदसौर स्थित पशुपतिनाथ मंदिर के हॉल में रखा गया है। रविवार सुबह लगभग साढ़े ग्यारह बजे श्रमदान के दौरान योगेशसिंह को गाद में दबी यमराज की साढ़े तीन फुट ऊँची प्रतिमा मिली। श्याम सोनी को समीप ही ढाई फुट ऊँची तेजाजी की प्रतिमा दिखी। दोनों प्रतिमाओं को निकालकर घाट पर रखा गया और प्रशासन को सूचना दी गई. गायत्री परिवार के सदस्य निर्मल मंडोवरा ने बताया कि दोनों प्रतिमाएँ अखंडित हैं तथा 150 से 200 वर्ष प्राचीन लगती हैं। **************************************

मीडिया में तेजाजी…………….. 30 अगस्त 2009 को मध्य प्रदेश के मालवा आँचल में तेजा दशमी मनाई गयी थी। राजस्थान में 30 अगस्त 2009 को यह पर्व विभिन्न भागों में मनाया गया। यहाँ मीडिया में तेजाजी के बारे में छपे कुछ समाचारों का सारांश दिया जा रहा है. यह बात स्पस्ट होती है कि तेजाजी का लोक देवता के रूप में गहरा प्रभाव है और भारी जन आस्था है। तेजाजी का मेला आरम्भ – चित्तौडग़ढ़[2], २९ अग. (प्रासं)। तेजाजी महाराज का वाॢषक मेला नगर के प्रतापनगर क्षेत्र में धाॢमक अनुष्ठान के साथ प्रारम्भ हो गया। तीन दिवसीय इस मेले का उद्घाटन भगवान तेजाजी महाराज सार्वजनिक न्यास के अध्यक्ष जगदीश पालीवाल द्वारा किया गया। उद्घाटन के अवसर पर न्यास के संरक्षक रामचन्द्र शर्मा, नारायणलाल गुर्जर, श्यामलाल कीर, गिरिराज शर्मा आदि मौजूद थे। उद्घाटन के पश्चात तेजाजी महाराज की जीवनी पर आधारित खेल का मंचन किया गया। इस दौरान राई नृत्य का आयोजन भी किया गया। बारिश के बीच बड़ी संख्या में मौजूद लोगो ने इसका आनन्द लिया। मेले का समापन रविवार को होगा। तेजाजी मेले की तैयारियां शुरू – भास्कर न्यूज भीलवाड़ा [3] भीलवाड़ा, । जिले भर में तेजा दशमी पर भरने वाले तेजाजी के मेलों को लेकर तैयारियां शुरू हो गई है। तेजाजी के चौक में भरने वाले तीन दिवसीय तेजा मेले को लेकर मेलास्थल पर डोलर, चकरियां लगनी शुरू हो गई है। तेजाजी के स्थान की भी साफ सफाई की जा रही है। तीन दिवसीय मेले की तैयारियों में नगर परिषद भी जुट गई है। मेला स्थल की सफाई की जा रही है। जिले के विभिन्न गांव और कस्बों में भी तेजा दशमी के मौके पर जागरण और कीर्तन के कार्यक्रम भी होंगे और झण्डे भी चढ़ाए जाएंगे। तेजाजी के थान पर उमड़े श्रद्धालु – भास्कर न्यूज अजमेर[4] – अजमेर. ऊसरी गेट स्थित प्राचीन तेजाजी की देवरी पर रविवार को भरे सालाना मेले में भारी संख्या में श्रद्धालु उमड़े। श्रद्धालुओं ने पूजा-अर्चना कर सुख-समृद्धि की कामना की। थान पर पूरे दिन श्रद्धालुओं का रैला उमड़ता रहा। शाम के समय मेला और परवान चढ़ा। अल सुबह से ही तेजाजी की देवरी पर श्रद्धालुओं का आने का क्रम जारी हो चुका था। भीड़ की स्थिति यह थी कि पुरुष और महिलाओं की यहां अलग-अलग कतार लगाई गई। कतारों में खड़े भक्तजन तेजाजी महाराज के जयकारे लगाते हुए अपनी बारी का इंतजार करते रहे। तेजाजी के श्रद्धालुओं ने नारियल, फूल माला और अगरबत्ती भेंट की। यहां नवजात शिशुओं एवं नवविवाहित जोड़ों ने भी धोक दिया। पूरे दिन श्रद्धालुओं का यहां आना-जाना लगा रहा। इधर शहर के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित तेजाजी के मंदिरों पर भी मेले भरे और रौनक रही। दाता नगर जटिया हिल्स स्थित रामदेव महाराज व तेजाजी महाराज का मेला भरा। तोपदड़ा के मेघवंशी मोहल्ला में बाबा रामदेव एवं तेजाजी महाराज की शोभायात्रा निकाली गई। रामनगर स्थित तेजा धम पर तेजाजी का मेला भरा, यहां मेला सुबह ध्वजारोहण के साथ हुआ। सजा श्रद्धा का दरबार, फैली सुगंध – भास्कर न्यूज भीलवाड़ा [5] भीलवाड़ा . लोकदेवता तेजाजी के जन्मोत्सव पर रविवार को उनके थानकों पर पूजा-अर्चना के लिए श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगा रहा। कोई चूरमा बाटी का भोग लगा रहा था, तो कोई कतारों में खड़ा होकर नारियल, प्रसाद व अगरबत्ती चढ़ाने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। यह नजारा था रविवार सुबह से ही तेजाजी चौक स्थित तेजाजी मंदिर का। तेजा दशमी पर सुबह पांच बजे तेजाजी की आरती की गई। उसके बाद श्रद्धालुओं का आना शुरू हुआ, जो अनवरत चलता रहा। दोपहर में तेजाजी स्थल पर मत्था टेकने व प्रसाद चढ़ाने वालों की लंबी कतारें लग गई। बड़ी संख्या में दर्शनों को उमड़े श्रद्धालुओं को देखते हुए प्रशासन ने भी सुरक्षा के विशेष बंदोबस्त किए। रविवार से ही तीन दिवसीय मेला भी शुरू हो गया। श्रद्धालु तेजाजी के जयकारे लगाते मेले का लुत्फ उठा रहे थे। कइयों ने ड्रेगन ट्रेन में बैठकर आनंद लिया तो कइयों ने झूलों का। महिलाएं घरेलू सामान खरीद रही थी, तो बच्चे खिलौनों के साथ ही मौत का कुआं देखने में मशगूल थे। ग्रामीण इस बार मेले में पहुंची नई चीजों को देख अचंभित हो रहे थे। तेजाजी के जयकारों से गूंजा शहर – वीर तेजा ब्रिगेड व युवा जाट महासभा की ओर से वाहन रैली निकाली गई। युवाओं ने तेजाजी के जयकारों से शहर को गुंजायमान कर दिया। ढोल की थाप पर नाचते-गाते युवा तेजाजी का जयघोष करते चल रहे थे।प्राइवेट बस स्टैंड स्थित जाट समाज के छात्रावास से वीर तेजा ब्रिगेड के जिलाध्यक्ष राजेश जाट व युवा जाट महासभा के जिलाध्यक्ष रामेश्वरलाल जाट ने तेजाजी की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर हरी झंडी दिखा रैली को रवाना किया। रैली शहर के मुख्य बाजारों से होते हुए तेजाजी चौक पहुंची। वहां तेजाजी का ध्वज अर्पण कर पूजा-अर्चना की। देवालाल जाट, सुखपाल जाट, नारायण जाट, शिवराज जाट, रामप्रसाद जाट, हीरालाल जाट, बक्षु जाट, शिवलाल जाट सहित जिलेभर के जाट समाज के युवा शामिल थे। आज चढ़ेंगे ध्वज व नेजे – तेजाजी स्थल पर एकादशी के दिन मजदूरों व कावाखेड़ा कच्चीबस्ती की ओर से विशाल ध्वज चढ़ाए जाएंगे। अगरपुरा, सांगानेर, सुवाणा व पांसल गांवों से श्रद्धालु अपने-अपने नेजे चढ़ाएंगे। चित्तौड़ रोड स्थित मॉडर्न व वुलन तथा राजस्थान स्पिनिंग मिल के मजदूर झंडे के साथ रवाना होंगे। मुख्य बाजारों में होते हुए थान पर पहुंचेंगे, जहां पूजा के बाद झंडे तेजाजी को चढ़ाए जाएंगे। कावाखेड़ा बस्ती का झंडा चार बजे चढ़ेगा। तेजाजी के थानकों पर भीड – भास्कर न्यूज बारां [6] बारां। तेजादशमी के अवसर पर रविवार को जिले में लोक देवता वीर तेजाजी की थानकों पर मेले आयोजित किए गए। पूजन-अर्चना व दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं की भीड जुटी रही। शहर के डोल मेला मैदान स्थित तेजाजी की थानक पर सुबह से ही पूजा-अर्चना का दौर शुरू हो गया था। यहां शाम तक पूजा अर्चना के लिए खासी भीड रही। शाम चार बजे बाद तेजाजी के झंडे के साथ अलगोजों के साथ भजनों की स्वरलहरियां बिखरते दल शहर के प्रमुख मार्गो से होकर तेजाजी के थानक पर पहुंचे। थानक के बाहर कई सपेरें अपनी पिटारियों में रखे सांपों को बाहर निकालकर बैठे नजर आए। एक साथ करीब दर्जन भर सांपों को देखकर लोग रोमांचित रहे। श्रद्धालुओं ने इन्हें भेंट भी दी। दूग्धाभिषेक, चूरमा-बाटी का भोग – सुबह होने पर दर्शनों के लिए पहुंचे श्रद्धालुओं ने यहां थानक पर तेजाजी के दर्शन कर नारियल, दूध आदि का प्रसाद चढाकर खुशहाली की कामना की। चूरमा, बाटी का भोग लगया गया। दिनभर लगा रहा तांता – सारथल – सारथल सहित आस-पास गांवों में तेजा दशमी श्रद्धापूर्वक मनाई गई। वीर तेजाजी के थानक पर सुबह से श्रद्धालुओं द्वारा नारियल, लडडू बाटी,चूरमा का भोग लगाया गया। दिनभर श्रद्धालुओं की थानक पर पूजा अर्चना के लिए भीड लगी रही। यहां सर्प दंश व जीव जन्तुओं के काटने से पीडित एक दर्जन करीब लोगों की डसी काटी गई। बमोरीकलां – यहां स्थित क्षार बाग में रविवार को लोक देवता तेजाजी के थानक पर दो दिवसीय मेला शुरू हुआ। मेले में खिलौने, मिठाई तथा मनिहारी के सामानों की दुकानें लगाई गई। तेजा दशमी के अवसर पर मंडलियों द्वारा गायन किया गया। पलायथा – कस्बे सहित क्षेत्र में रविवार को तेजादशमी मनाई गई। तेजाजी की मंडलियों ने तेजाजी के थानक पर विधिवत पूजा के बाद कस्बे में घूमकर तेजाजी गायन किया तथा ध्वज को घर-घर पहुंचने श्रद्धालुओं ने भी तेजाजी का पूजन कर नारियल चढाए। निकटवर्ती ग्राम अमलसरा स्थित तेजाजी के थानक पर एक दिवसीय मेला लगा। प्रसाद चढाया, मेले का लुत्फ उठाया – अन्ता – तेजादशमी के अवसर पर पर रविवार को यहां श्रद्घालुओं में विशेष उत्साह रहा। इस दौरान सीसवाली मार्ग पर बाबा खेमजी के तालाब की पाल पर तेजाजी स्थल पर लगे मेले में महिला पुरूषों की भीड उमड पडी।यहां तेजाजी के थानक पर श्रद्धालुओं ने दूध, नारियल और प्रसाद चढाया। मेला स्थल पर लगी दुकानों पर पर बच्चों ने चाट पकोडी का आनंद उठाया। इस दौरान कई सामाजिक संस्थाओं की ओर से यहां पानी के प्याऊ लगाए गए वहीं यातायात व्यवस्था बनाए रखने में पुलिस को कडी मशक्कत करनी पडी। ‘कोयला – कोयला, मियाडा, तिसाया, कोटडी समेत आसपास के गांवों में लोक देवता तेजाजी महाराज की पूजा-अर्चना कर लड्डू-बाटी का भोग लगाया गया। कस्बे के तेजाजी महाराज के थानक पर सुबह से ही लोगों की आवाजाही रही जो शाम तक चली। यहां एक दिवसीय मेला भी लगा। सीसवाली – कस्बे में तेजा दशमी पर्व पर रविवार को प्रात: से ही तेजाजी थानक पर श्रद्धालुओं की भारी भीड रही। रविवार को तेजा दशमी पर्व पर तिसाया रोड पर स्थित मेला मैदान पर तेजाजी महाराज के स्थान पर प्रात: से ही श्रद्धालुओ द्वारा दूध चढाकर पूजा-अर्चना का कार्यक्रम शुरू किया गया जो दिन भर चलता रहा। हरनावदाशाहजी – तेजादशमी का पर्व कस्बे समेत समूचे क्षेत्र में परम्परागत रूप से मनाया गया। इस अवसर पर लोगों ने तेजाजी के थानकों पर पूजा अर्चना की। कस्बे में छीपाबडौद मार्ग स्थित तेजाजी चौक में रविवार को पूरे दिन श्रृद्धालुओं का पूजा अर्चना करने एवं दर्शनो के लिए तांता लगा रहा। गांव उमरिया में भी तेजादशमी के अवसर पर एक दिवसीय मेला भी लगा। बोहत – कस्बे सहित आसपास के गांवों में तेजा दशमी का पर्व धूमशाम से मनाया गया। घर-घर लड्डू-बाटी बनाकर तेजाजी महाराज को भोग लगाया। कस्बे के हिंगोनियां सडक मार्ग के निकट लोक आस्था का प्रतीक तेजाजी के थानक पर सुबह से ही दूध चढाने व नारियल फोडने वाले श्रद्धालुओं की भीड लगी रही। ग्राम पंचायत द्वारा तेजाजी के थानक पर पांच दिवसीय मेले का भी आयोजन रखा गया। क्षेत्र के कई गांवों से बडी संख्या में श्रद्धालुओं ने मेले में पहुंचकर तेजाजी के दर्शन किए। मांगरोल – कस्बे सहित ग्रामीण अंचल में तेजा दशमी का पर्व धूमधाम से मनाया गया। कस्बे में नगर पालिका द्वारा सात दिवसीय मेले का आयोजन रखा गया है। वहीं समीपवर्ती ग्राम जलोदा तेजाजी में तेजाजी के थानक पर दूध-प्रसाद चढाने वाले श्रद्धालुओं की भीड नजर आई। ग्राम पंचायत द्वारा तीन दिवसीय मेले का आयोजन रखा गया है। शाहाबाद – सहरिया बहुल्य क्षेत्र में रविवार को तेजा दशमी का त्योहार धूमधाम से मनाया गया। इस अवसर पर तेजाजी के थानकों पर भीड उमडी ओर श्रद्धालुओं ने थानकों पर दर्शन तथा पूजा अर्चना की। मेला लगा – छीपाबडौद – क्षेत्र भर मे रविवार को तेजादशमी का पर्व मनाया गया। समीपवर्ती रतनपुरा गांव में इस मौके पर आयोजित एक दिवसीय मेले में लोग उमडे। मेले में पहुंचे विधायक करण सिंह राठौड का मेला समिति के संयोजक प्रेम सिंह चोधरी, महेंद्र सिंह चौधरी आदि ने स्वागत किया। इस अवसर पर विधायक ने यहां विधायक कोष से दो लाख रूपए देने व नलकूप लगवाकर मोटर डलवाने की घोषणा की। तेजाजी पशु मेला 5 से – सीमा सन्देश [7] श्रीगंगानगर। पशुपालन विभाग द्धारा पर्वतसर (नागौर) में श्री वीर तेजाजी पशु मेला आयोजित किया जाएगा। सहायक निदेशक पशुपालन विभाग ने बताया कि यह पशु मेला 5 अगस्त से 20 अगस्त तक चलेगा। चौकियों की स्थापना एक अगस्त-09 को की जाएगी। तेजाजी को पूजा, मेले लगे – भास्कर न्यूज उज्जैन [8] उज्जैन तेजा दशमी पर रविवार को तेजाजी महाराज की आराधना होगी। तेजाजी मंदिरों में शनिवार से ही श्रदालु पहुंचना शुरू हो गए। बड़ नगर रोड़ स्थित तेजाजी महाराज मंदिर में शनिवार को ही विभिन्न ग्रामीण अंचलों से श्रदालु निशान लेकर पहुंचे। यहाँ रात ८ बजे भजन संध्या शुरू हुई जो देर रात तक चली. रविवार को यहाँ मेला लगेगा और दिन भर निशानों का पूजन होगा। शाम को नगर में चल समारोह होगा जिसमें सैंकडों निशान शामिल होंगे। भैरव गढ़ सिद्धवट के समीप स्थित तेजाजी मंदिर में भी मेला लगेगा। रविवार दोपहर ३ बजे मंदिर में महा आरती होगी। अतिथि विकास प्राधिकरण अध्यक्ष मोहन यादव होंगे। तेजा दशमी पर कई घरों में चावल नहीं बनाये जाते। भैरव गढ़ क्षेत्र से लगे करीब १२ गांवों में चावल नहीं बनेंगे और ग्रामीण ढोल-धमाकों से नाचते गाते मंदिर पहुंचेंगे। मक्सी रोड पंवासा में तेजाजी मंदिर में माच का आयोजन होगा। तेजा स्थली विकसित करने की जरूरत – पत्रिका समाचार नागौर [9]नागौर। लोक देवता वीर तेजाजी की 935 वीं जयंती पर रविवार को खरनाल में आयोजित समारोह में वक्ताओं ने खरनाल को विश्व मानचित्र पर स्थान दिलाने की वकालत की। वीर तेजा जाट जन्मस्थली संस्थान में हुए समारोह में मुख्य अतिथि संसदीय सचिव दिलीप चौधरी ने कहा कि समाज के आराध्य देव तेजाजी की जन्मस्थली को विकसित करने की जरूरत है। वे इसे विश्व मानचित्र पर स्थान दिलाने में कोई कसर नहीं छोडेंगे। इसके लिए शीघ्र ही योजना बनाकर मुख्यमंत्री के सामने रखेंगे। उन्होंने तेजाजी के त्याग एवं वीरता का गुणगान करते हुए कहा कि उनके बनाए रास्ते पर चलकर समाज को नई दिशा दी जा सकती है। उन्होंने सरकार के किसान हित में किए जा रहे प्रयासों का बखान करते हुए कहा कि राज्य सरकार किसानों के लिए कई महत्वपूर्ण फैसले करने जा रही है। किसानों के लिए शीघ्र ही किसान आयोग एवं मार्केटिंग बोर्ड बनेगा। अध्यक्षता करते हुए डीडवाना विधायक रूपाराम डूडी ने कहा कि वीर तेजाजी के बलिदान से समाज को सीख लेनी चाहिए। विशिष्ट अतिथि विधायक हनुमान बेनीवाल ने कहा कि तेजाजी पूरे किसान समाज के देवता हैं। उन्होंने गायों की सेवा करते प्राणों की बाजी दी। पूर्व आईपीएस बी.आर. ग्वाला, आईपीएस के.राम बागडिया, जायल प्रधान रिद्धकरण लोमरोड, पूर्व प्रधान रूपाराम, संस्थान के राष्ट्रीय सचिव अर्जुनराम मेहरिया,संस्था उपाध्यक्ष यूआर बेनीवाल, भोपालगढ के पूर्व प्रधान बद्रीराम जाखड ने विचार व्यक्त किए। इससे पहले अतिथियों ने तेजाजी मंदिर में धोक लगाई। मदेरणा व चौधरी ने की पूजा – जन संसाधन मंत्री महिपाल मदेरणा एवं राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी, उप जिला प्रमुख डॉ. सहदेव चौधरी ने खरनाल स्थित मंदिर में तेजाजी के दर्शन किए। इस मौके पर संस्थान अध्यक्ष मेहरिया ने मंत्रियों का स्वागत किया।

मीडिया में तेजाजी…………….. 30 अगस्त 2009 को मध्य प्रदेश के मालवा आँचल में तेजा दशमी मनाई गयी थी। राजस्थान में 30 अगस्त 2009 को यह पर्व विभिन्न भागों में मनाया गया। यहाँ मीडिया में तेजाजी के बारे में छपे कुछ समाचारों का सारांश दिया जा रहा है. यह बात स्पस्ट होती है कि तेजाजी का लोक देवता के रूप में गहरा प्रभाव है और भारी जन आस्था है। तेजाजी का मेला आरम्भ – चित्तौडग़ढ़[2], २९ अग. (प्रासं)। तेजाजी महाराज का वाॢषक मेला नगर के प्रतापनगर क्षेत्र में धाॢमक अनुष्ठान के साथ प्रारम्भ हो गया। तीन दिवसीय इस मेले का उद्घाटन भगवान तेजाजी महाराज सार्वजनिक न्यास के अध्यक्ष जगदीश पालीवाल द्वारा किया गया। उद्घाटन के अवसर पर न्यास के संरक्षक रामचन्द्र शर्मा, नारायणलाल गुर्जर, श्यामलाल कीर, गिरिराज शर्मा आदि मौजूद थे। उद्घाटन के पश्चात तेजाजी महाराज की जीवनी पर आधारित खेल का मंचन किया गया। इस दौरान राई नृत्य का आयोजन भी किया गया। बारिश के बीच बड़ी संख्या में मौजूद लोगो ने इसका आनन्द लिया। मेले का समापन रविवार को होगा। तेजाजी मेले की तैयारियां शुरू – भास्कर न्यूज भीलवाड़ा [3] भीलवाड़ा, । जिले भर में तेजा दशमी पर भरने वाले तेजाजी के मेलों को लेकर तैयारियां शुरू हो गई है। तेजाजी के चौक में भरने वाले तीन दिवसीय तेजा मेले को लेकर मेलास्थल पर डोलर, चकरियां लगनी शुरू हो गई है। तेजाजी के स्थान की भी साफ सफाई की जा रही है। तीन दिवसीय मेले की तैयारियों में नगर परिषद भी जुट गई है। मेला स्थल की सफाई की जा रही है। जिले के विभिन्न गांव और कस्बों में भी तेजा दशमी के मौके पर जागरण और कीर्तन के कार्यक्रम भी होंगे और झण्डे भी चढ़ाए जाएंगे। तेजाजी के थान पर उमड़े श्रद्धालु – भास्कर न्यूज अजमेर[4] – अजमेर. ऊसरी गेट स्थित प्राचीन तेजाजी की देवरी पर रविवार को भरे सालाना मेले में भारी संख्या में श्रद्धालु उमड़े। श्रद्धालुओं ने पूजा-अर्चना कर सुख-समृद्धि की कामना की। थान पर पूरे दिन श्रद्धालुओं का रैला उमड़ता रहा। शाम के समय मेला और परवान चढ़ा। अल सुबह से ही तेजाजी की देवरी पर श्रद्धालुओं का आने का क्रम जारी हो चुका था। भीड़ की स्थिति यह थी कि पुरुष और महिलाओं की यहां अलग-अलग कतार लगाई गई। कतारों में खड़े भक्तजन तेजाजी महाराज के जयकारे लगाते हुए अपनी बारी का इंतजार करते रहे। तेजाजी के श्रद्धालुओं ने नारियल, फूल माला और अगरबत्ती भेंट की। यहां नवजात शिशुओं एवं नवविवाहित जोड़ों ने भी धोक दिया। पूरे दिन श्रद्धालुओं का यहां आना-जाना लगा रहा। इधर शहर के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित तेजाजी के मंदिरों पर भी मेले भरे और रौनक रही। दाता नगर जटिया हिल्स स्थित रामदेव महाराज व तेजाजी महाराज का मेला भरा। तोपदड़ा के मेघवंशी मोहल्ला में बाबा रामदेव एवं तेजाजी महाराज की शोभायात्रा निकाली गई। रामनगर स्थित तेजा धम पर तेजाजी का मेला भरा, यहां मेला सुबह ध्वजारोहण के साथ हुआ। सजा श्रद्धा का दरबार, फैली सुगंध – भास्कर न्यूज भीलवाड़ा [5] भीलवाड़ा . लोकदेवता तेजाजी के जन्मोत्सव पर रविवार को उनके थानकों पर पूजा-अर्चना के लिए श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगा रहा। कोई चूरमा बाटी का भोग लगा रहा था, तो कोई कतारों में खड़ा होकर नारियल, प्रसाद व अगरबत्ती चढ़ाने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। यह नजारा था रविवार सुबह से ही तेजाजी चौक स्थित तेजाजी मंदिर का। तेजा दशमी पर सुबह पांच बजे तेजाजी की आरती की गई। उसके बाद श्रद्धालुओं का आना शुरू हुआ, जो अनवरत चलता रहा। दोपहर में तेजाजी स्थल पर मत्था टेकने व प्रसाद चढ़ाने वालों की लंबी कतारें लग गई। बड़ी संख्या में दर्शनों को उमड़े श्रद्धालुओं को देखते हुए प्रशासन ने भी सुरक्षा के विशेष बंदोबस्त किए। रविवार से ही तीन दिवसीय मेला भी शुरू हो गया। श्रद्धालु तेजाजी के जयकारे लगाते मेले का लुत्फ उठा रहे थे। कइयों ने ड्रेगन ट्रेन में बैठकर आनंद लिया तो कइयों ने झूलों का। महिलाएं घरेलू सामान खरीद रही थी, तो बच्चे खिलौनों के साथ ही मौत का कुआं देखने में मशगूल थे। ग्रामीण इस बार मेले में पहुंची नई चीजों को देख अचंभित हो रहे थे। तेजाजी के जयकारों से गूंजा शहर – वीर तेजा ब्रिगेड व युवा जाट महासभा की ओर से वाहन रैली निकाली गई। युवाओं ने तेजाजी के जयकारों से शहर को गुंजायमान कर दिया। ढोल की थाप पर नाचते-गाते युवा तेजाजी का जयघोष करते चल रहे थे।प्राइवेट बस स्टैंड स्थित जाट समाज के छात्रावास से वीर तेजा ब्रिगेड के जिलाध्यक्ष राजेश जाट व युवा जाट महासभा के जिलाध्यक्ष रामेश्वरलाल जाट ने तेजाजी की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर हरी झंडी दिखा रैली को रवाना किया। रैली शहर के मुख्य बाजारों से होते हुए तेजाजी चौक पहुंची। वहां तेजाजी का ध्वज अर्पण कर पूजा-अर्चना की। देवालाल जाट, सुखपाल जाट, नारायण जाट, शिवराज जाट, रामप्रसाद जाट, हीरालाल जाट, बक्षु जाट, शिवलाल जाट सहित जिलेभर के जाट समाज के युवा शामिल थे। आज चढ़ेंगे ध्वज व नेजे – तेजाजी स्थल पर एकादशी के दिन मजदूरों व कावाखेड़ा कच्चीबस्ती की ओर से विशाल ध्वज चढ़ाए जाएंगे। अगरपुरा, सांगानेर, सुवाणा व पांसल गांवों से श्रद्धालु अपने-अपने नेजे चढ़ाएंगे। चित्तौड़ रोड स्थित मॉडर्न व वुलन तथा राजस्थान स्पिनिंग मिल के मजदूर झंडे के साथ रवाना होंगे। मुख्य बाजारों में होते हुए थान पर पहुंचेंगे, जहां पूजा के बाद झंडे तेजाजी को चढ़ाए जाएंगे। कावाखेड़ा बस्ती का झंडा चार बजे चढ़ेगा। तेजाजी के थानकों पर भीड – भास्कर न्यूज बारां [6] बारां। तेजादशमी के अवसर पर रविवार को जिले में लोक देवता वीर तेजाजी की थानकों पर मेले आयोजित किए गए। पूजन-अर्चना व दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं की भीड जुटी रही। शहर के डोल मेला मैदान स्थित तेजाजी की थानक पर सुबह से ही पूजा-अर्चना का दौर शुरू हो गया था। यहां शाम तक पूजा अर्चना के लिए खासी भीड रही। शाम चार बजे बाद तेजाजी के झंडे के साथ अलगोजों के साथ भजनों की स्वरलहरियां बिखरते दल शहर के प्रमुख मार्गो से होकर तेजाजी के थानक पर पहुंचे। थानक के बाहर कई सपेरें अपनी पिटारियों में रखे सांपों को बाहर निकालकर बैठे नजर आए। एक साथ करीब दर्जन भर सांपों को देखकर लोग रोमांचित रहे। श्रद्धालुओं ने इन्हें भेंट भी दी। दूग्धाभिषेक, चूरमा-बाटी का भोग – सुबह होने पर दर्शनों के लिए पहुंचे श्रद्धालुओं ने यहां थानक पर तेजाजी के दर्शन कर नारियल, दूध आदि का प्रसाद चढाकर खुशहाली की कामना की। चूरमा, बाटी का भोग लगया गया। दिनभर लगा रहा तांता – सारथल – सारथल सहित आस-पास गांवों में तेजा दशमी श्रद्धापूर्वक मनाई गई। वीर तेजाजी के थानक पर सुबह से श्रद्धालुओं द्वारा नारियल, लडडू बाटी,चूरमा का भोग लगाया गया। दिनभर श्रद्धालुओं की थानक पर पूजा अर्चना के लिए भीड लगी रही। यहां सर्प दंश व जीव जन्तुओं के काटने से पीडित एक दर्जन करीब लोगों की डसी काटी गई। बमोरीकलां – यहां स्थित क्षार बाग में रविवार को लोक देवता तेजाजी के थानक पर दो दिवसीय मेला शुरू हुआ। मेले में खिलौने, मिठाई तथा मनिहारी के सामानों की दुकानें लगाई गई। तेजा दशमी के अवसर पर मंडलियों द्वारा गायन किया गया। पलायथा – कस्बे सहित क्षेत्र में रविवार को तेजादशमी मनाई गई। तेजाजी की मंडलियों ने तेजाजी के थानक पर विधिवत पूजा के बाद कस्बे में घूमकर तेजाजी गायन किया तथा ध्वज को घर-घर पहुंचने श्रद्धालुओं ने भी तेजाजी का पूजन कर नारियल चढाए। निकटवर्ती ग्राम अमलसरा स्थित तेजाजी के थानक पर एक दिवसीय मेला लगा। प्रसाद चढाया, मेले का लुत्फ उठाया – अन्ता – तेजादशमी के अवसर पर पर रविवार को यहां श्रद्घालुओं में विशेष उत्साह रहा। इस दौरान सीसवाली मार्ग पर बाबा खेमजी के तालाब की पाल पर तेजाजी स्थल पर लगे मेले में महिला पुरूषों की भीड उमड पडी।यहां तेजाजी के थानक पर श्रद्धालुओं ने दूध, नारियल और प्रसाद चढाया। मेला स्थल पर लगी दुकानों पर पर बच्चों ने चाट पकोडी का आनंद उठाया। इस दौरान कई सामाजिक संस्थाओं की ओर से यहां पानी के प्याऊ लगाए गए वहीं यातायात व्यवस्था बनाए रखने में पुलिस को कडी मशक्कत करनी पडी। ‘कोयला – कोयला, मियाडा, तिसाया, कोटडी समेत आसपास के गांवों में लोक देवता तेजाजी महाराज की पूजा-अर्चना कर लड्डू-बाटी का भोग लगाया गया। कस्बे के तेजाजी महाराज के थानक पर सुबह से ही लोगों की आवाजाही रही जो शाम तक चली। यहां एक दिवसीय मेला भी लगा। सीसवाली – कस्बे में तेजा दशमी पर्व पर रविवार को प्रात: से ही तेजाजी थानक पर श्रद्धालुओं की भारी भीड रही। रविवार को तेजा दशमी पर्व पर तिसाया रोड पर स्थित मेला मैदान पर तेजाजी महाराज के स्थान पर प्रात: से ही श्रद्धालुओ द्वारा दूध चढाकर पूजा-अर्चना का कार्यक्रम शुरू किया गया जो दिन भर चलता रहा। हरनावदाशाहजी – तेजादशमी का पर्व कस्बे समेत समूचे क्षेत्र में परम्परागत रूप से मनाया गया। इस अवसर पर लोगों ने तेजाजी के थानकों पर पूजा अर्चना की। कस्बे में छीपाबडौद मार्ग स्थित तेजाजी चौक में रविवार को पूरे दिन श्रृद्धालुओं का पूजा अर्चना करने एवं दर्शनो के लिए तांता लगा रहा। गांव उमरिया में भी तेजादशमी के अवसर पर एक दिवसीय मेला भी लगा। बोहत – कस्बे सहित आसपास के गांवों में तेजा दशमी का पर्व धूमशाम से मनाया गया। घर-घर लड्डू-बाटी बनाकर तेजाजी महाराज को भोग लगाया। कस्बे के हिंगोनियां सडक मार्ग के निकट लोक आस्था का प्रतीक तेजाजी के थानक पर सुबह से ही दूध चढाने व नारियल फोडने वाले श्रद्धालुओं की भीड लगी रही। ग्राम पंचायत द्वारा तेजाजी के थानक पर पांच दिवसीय मेले का भी आयोजन रखा गया। क्षेत्र के कई गांवों से बडी संख्या में श्रद्धालुओं ने मेले में पहुंचकर तेजाजी के दर्शन किए। मांगरोल – कस्बे सहित ग्रामीण अंचल में तेजा दशमी का पर्व धूमधाम से मनाया गया। कस्बे में नगर पालिका द्वारा सात दिवसीय मेले का आयोजन रखा गया है। वहीं समीपवर्ती ग्राम जलोदा तेजाजी में तेजाजी के थानक पर दूध-प्रसाद चढाने वाले श्रद्धालुओं की भीड नजर आई। ग्राम पंचायत द्वारा तीन दिवसीय मेले का आयोजन रखा गया है। शाहाबाद – सहरिया बहुल्य क्षेत्र में रविवार को तेजा दशमी का त्योहार धूमधाम से मनाया गया। इस अवसर पर तेजाजी के थानकों पर भीड उमडी ओर श्रद्धालुओं ने थानकों पर दर्शन तथा पूजा अर्चना की। मेला लगा – छीपाबडौद – क्षेत्र भर मे रविवार को तेजादशमी का पर्व मनाया गया। समीपवर्ती रतनपुरा गांव में इस मौके पर आयोजित एक दिवसीय मेले में लोग उमडे। मेले में पहुंचे विधायक करण सिंह राठौड का मेला समिति के संयोजक प्रेम सिंह चोधरी, महेंद्र सिंह चौधरी आदि ने स्वागत किया। इस अवसर पर विधायक ने यहां विधायक कोष से दो लाख रूपए देने व नलकूप लगवाकर मोटर डलवाने की घोषणा की। तेजाजी पशु मेला 5 से – सीमा सन्देश [7] श्रीगंगानगर। पशुपालन विभाग द्धारा पर्वतसर (नागौर) में श्री वीर तेजाजी पशु मेला आयोजित किया जाएगा। सहायक निदेशक पशुपालन विभाग ने बताया कि यह पशु मेला 5 अगस्त से 20 अगस्त तक चलेगा। चौकियों की स्थापना एक अगस्त-09 को की जाएगी। तेजाजी को पूजा, मेले लगे – भास्कर न्यूज उज्जैन [8] उज्जैन तेजा दशमी पर रविवार को तेजाजी महाराज की आराधना होगी। तेजाजी मंदिरों में शनिवार से ही श्रदालु पहुंचना शुरू हो गए। बड़ नगर रोड़ स्थित तेजाजी महाराज मंदिर में शनिवार को ही विभिन्न ग्रामीण अंचलों से श्रदालु निशान लेकर पहुंचे। यहाँ रात ८ बजे भजन संध्या शुरू हुई जो देर रात तक चली. रविवार को यहाँ मेला लगेगा और दिन भर निशानों का पूजन होगा। शाम को नगर में चल समारोह होगा जिसमें सैंकडों निशान शामिल होंगे। भैरव गढ़ सिद्धवट के समीप स्थित तेजाजी मंदिर में भी मेला लगेगा। रविवार दोपहर ३ बजे मंदिर में महा आरती होगी। अतिथि विकास प्राधिकरण अध्यक्ष मोहन यादव होंगे। तेजा दशमी पर कई घरों में चावल नहीं बनाये जाते। भैरव गढ़ क्षेत्र से लगे करीब १२ गांवों में चावल नहीं बनेंगे और ग्रामीण ढोल-धमाकों से नाचते गाते मंदिर पहुंचेंगे। मक्सी रोड पंवासा में तेजाजी मंदिर में माच का आयोजन होगा। तेजा स्थली विकसित करने की जरूरत – पत्रिका समाचार नागौर [9]नागौर। लोक देवता वीर तेजाजी की 935 वीं जयंती पर रविवार को खरनाल में आयोजित समारोह में वक्ताओं ने खरनाल को विश्व मानचित्र पर स्थान दिलाने की वकालत की। वीर तेजा जाट जन्मस्थली संस्थान में हुए समारोह में मुख्य अतिथि संसदीय सचिव दिलीप चौधरी ने कहा कि समाज के आराध्य देव तेजाजी की जन्मस्थली को विकसित करने की जरूरत है। वे इसे विश्व मानचित्र पर स्थान दिलाने में कोई कसर नहीं छोडेंगे। इसके लिए शीघ्र ही योजना बनाकर मुख्यमंत्री के सामने रखेंगे। उन्होंने तेजाजी के त्याग एवं वीरता का गुणगान करते हुए कहा कि उनके बनाए रास्ते पर चलकर समाज को नई दिशा दी जा सकती है। उन्होंने सरकार के किसान हित में किए जा रहे प्रयासों का बखान करते हुए कहा कि राज्य सरकार किसानों के लिए कई महत्वपूर्ण फैसले करने जा रही है। किसानों के लिए शीघ्र ही किसान आयोग एवं मार्केटिंग बोर्ड बनेगा। अध्यक्षता करते हुए डीडवाना विधायक रूपाराम डूडी ने कहा कि वीर तेजाजी के बलिदान से समाज को सीख लेनी चाहिए। विशिष्ट अतिथि विधायक हनुमान बेनीवाल ने कहा कि तेजाजी पूरे किसान समाज के देवता हैं। उन्होंने गायों की सेवा करते प्राणों की बाजी दी। पूर्व आईपीएस बी.आर. ग्वाला, आईपीएस के.राम बागडिया, जायल प्रधान रिद्धकरण लोमरोड, पूर्व प्रधान रूपाराम, संस्थान के राष्ट्रीय सचिव अर्जुनराम मेहरिया,संस्था उपाध्यक्ष यूआर बेनीवाल, भोपालगढ के पूर्व प्रधान बद्रीराम जाखड ने विचार व्यक्त किए। इससे पहले अतिथियों ने तेजाजी मंदिर में धोक लगाई। मदेरणा व चौधरी ने की पूजा – जन संसाधन मंत्री महिपाल मदेरणा एवं राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी, उप जिला प्रमुख डॉ. सहदेव चौधरी ने खरनाल स्थित मंदिर में तेजाजी के दर्शन किए। इस मौके पर संस्थान अध्यक्ष मेहरिया ने मंत्रियों का स्वागत किया।

Tajmahal is a Hindu Temple Palace…… इतिहासकार श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है| यज तेजाजी के नाम से बनाया गया था । श्री पी.एन. ओक के तर्कों और प्रमाणों के समर्थन करने वाले छायाचित्रों का संकलन भी है । श्री ओक ने कई वर्ष पहले ही अपने इन तथ्यों और प्रमाणों को प्रकाशित कर दिया था पर दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से अधिकारिक जाँच नहीं हुई| यदि ताजमहल के शिव मंदिर होने में सच्चाई है तो भारतीयता के साथ बहुत बड़ा अन्याय है| विद्यार्थियों को झूठे इतिहास की शिक्षा देना स्वयं शिक्षा के लिये अपमान की बात है| श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है| इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये तर्कों का हिंदी रूपांतरण (भावार्थ) इस प्रकार हैं – 1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है| ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है| 2. शब्द ताजमहल के अंत में आये ‘महल’ मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो| 3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है| यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है – पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से “मुम” को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता| 4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)| 5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है| इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है| 6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल| इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है| 7. यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है| 8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है| ‘ताज’ और ‘महल’ दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं| 9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है| तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे| 10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था| यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता| 11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है| इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है| 12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है| 13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है| 14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है| ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था| जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई| 15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है| ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था| 16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है| यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में| पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है| वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे| स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे| 17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है| जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं| The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे| अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे| इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था| ******************************

तेजाजी और ताज महल :: प्रामाणिक दस्तावेज 18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था| 19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे| यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है| पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है| दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल| तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है| 20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम ‘आदाब-ए-आलमगिरी’, ‘यादगारनामा’ और ‘मुरुक्का-ए-अकब़राबादी’ (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं| उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है| इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये| यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी| 21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है| यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया| 22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मकराना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं| स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया| जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा| और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया| 23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था| यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती| 24. फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है| न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है| इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी| जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था| यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख 25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को ‘ताज-ए-मकान’, जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो| वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था| शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था| मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे| 26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है| इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं| 27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है| शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है| 28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था| उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है| 29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies’ जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है| संस्कृत शिलालेख 30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है| इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया|” शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया| इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’ नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था| वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था| शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar….now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”. अनुपस्थित गजप्रतिमाएँ 31. ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं| थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक “Travels in India A Hundred Years ago” के पृष्ठ 191 में) लिखता है, “सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा| वहाँ से मैंने पालकी ली और….. बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार (’COURT OF ELEPHANTS’) कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा|” कुरान की आयतों के पैबन्द 32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है| यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता| 33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है| कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है| कार्बन 14 जाँच 34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है| असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था| वास्तुशास्त्रीय तथ्य 35. ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है| हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है| 36. चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है| 37. चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है| इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था| ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं| हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं| 38. ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है| स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं| हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है| 39. ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है| इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है| त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है| यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है| इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं| ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं| सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था| जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है| त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद ‘अल्लाह’ शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में ‘अल्लाह’ शब्द कहीं भी नहीं है| असंगतियाँ 40. शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है| दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा| आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा| वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे| 41. उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)| इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था| इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है| 42. ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है| कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है| कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है| 43. जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है| इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं| संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है| हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं| इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है| 44. ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है| संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं| ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था| 45. पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है| यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता| ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं| ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया| 46. मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं| ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये| 47. मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है| ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था| 48. ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके| इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा| खजाने वाला कुआँ 49. तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं| यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है| खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी मंजिलों में हुआ करता था| सीढ़ियों के वृतीय संरचना के कारण घुसपैठिये या आक्रमणकारी न तो आसानी के साथ खजाने तक पहुँच सकते थे और न ही एक बार अंदर आने के बाद आसानी के साथ भाग सकते थे, और वे पहचान लिये जाते थे| यदि कभी घेरा डाले हुये शक्तिशाली शत्रु के सामने समर्पण की स्थिति आ भी जाती थी तो खजाने के संदूकों को पानी में धकेल दिया जाता था जिससे कि वह पुनर्विजय तक सुरक्षित रूप से छुपा रहे| एक मकब़रे में इतना परिश्रम करके बहुमंजिला कुआँ बनाना बेमानी है| इतना विशाल दीर्घाकार कुआँ किसी कब्र के लिये अनावश्यक भी है| दफ़न की तारीख अविदित 50. यदि शाहज़हां ने सचमुच ही ताजमहल जैसा आश्चर्यजनक मकब़रा होता तो उसके तामझाम का विवरण और मुमताज़ के दफ़न की तारीख इतिहास में अवश्य ही दर्ज हुई होती| परंतु दफ़न की तारीख कभी भी दर्ज नहीं की गई| इतिहास में इस तरह का ब्यौरा न होना ही ताजमहल की झूठी कहानी का पोल खोल देती है| 51. यहाँ तक कि मुमताज़ की मृत्यु किस वर्ष हुई यह भी अज्ञात है| विभिन्न लोगों ने सन् 1629,1630, 1631 या 1632 में मुमताज़ की मौत होने का अनुमान लगाया है| यदि मुमताज़ का इतना उत्कृष्ट दफ़न हुआ होता, जितना कि दावा किया जाता है, तो उसके मौत की तारीख अनुमान का विषय कदापि न होता| 5000 औरतों वाली हरम में किस औरत की मौत कब हुई इसका हिसाब रखना एक कठिन कार्य है| स्पष्टतः मुमताज़ की मौत की तारीख़ महत्वहीन थी इसीलिये उस पर ध्यान नहीं दिया गया| फिर उसके दफ़न के लिये ताज किसने बनवाया? आधारहीन प्रेमकथाएँ 52. शाहज़हां और मुमताज़ के प्रेम की कहानियाँ मूर्खतापूर्ण तथा कपटजाल हैं| न तो इन कहानियों का कोई ऐतिहासिक आधार है न ही उनके कल्पित प्रेम प्रसंग पर कोई पुस्तक ही लिखी गई है| ताज के शाहज़हां के द्वारा अधिग्रहण के बाद उसके आधिपत्य दर्शाने के लिये ही इन कहानियों को गढ़ लिया गया| कीमत 53. शाहज़हां के शाही और दरबारी दस्तावेज़ों में ताज की कीमत का कहीं उल्लेख नहीं है क्योंकि शाहज़हां ने कभी ताजमहल को बनवाया ही नहीं| इसी कारण से नादान लेखकों के द्वारा ताज की कीमत 40 लाख से 9 करोड़ 17 लाख तक होने का काल्पनिक अनुमान लगाया जाता है| 54. इसी प्रकार से ताज का निर्माणकाल 10 से 22 वर्ष तक के होने का अनुमान लगाया जाता है| यदि शाहज़हां ने ताजमहल को बनवाया होता तो उसके निर्माणकाल के विषय में अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि उसकी प्रविष्टि शाही दस्तावेज़ों में अवश्य ही की गई होती| भवननिर्माणशास्त्री 55. ताज भवन के भवननिर्माणशास्त्री (designer, architect) के विषय में भी अनेक नाम लिये जाते हैं जैसे कि ईसा इफेंडी जो कि एक तुर्क था, अहमद़ मेंहदी या एक फ्रांसीसी, आस्टीन डी बोरडीक्स या गेरोनिमो वेरेनियो जो कि एक इटालियन था, या शाहज़हां स्वयं| दस्तावेज़ नदारद 56. ऐसा समझा जाता है कि शाहज़हां के काल में ताजमहल को बनाने के लिये 20 हजार लोगों ने 22 साल तक काम किया| यदि यह सच है तो ताजमहल का नक्शा (design drawings), मजदूरों की हाजिरी रजिस्टर (labour muster rolls), दैनिक खर्च (daily expenditure sheets), भवन निर्माण सामग्रियों के खरीदी के बिल और रसीद (bills and receipts of material ordered) आदि दस्तावेज़ शाही अभिलेखागार में उपलब्ध होते| वहाँ पर इस प्रकार के कागज का एक टुकड़ा भी नहीं है| 57. अतः ताजमहल को शाहज़हाँ ने बनवाया और उस पर उसका व्यक्तिगत तथा सांप्रदायिक अधिकार था जैसे ढोंग को समूचे संसार को मानने के लिये मजबूर करने की जिम्मेदारी चापलूस दरबारी, भयंकर भूल करने वाले इतिहासकार, अंधे भवननिर्माणशस्त्री, कल्पित कथा लेखक, मूर्ख कवि, लापरवाह पर्यटन अधिकारी और भटके हुये पथप्रदर्शकों (guides) पर है| 58. शाहज़हां के समय में ताज के वाटिकाओं के विषय में किये गये वर्णनों में केतकी, जै, जूही, चम्पा, मौलश्री, हारश्रिंगार और बेल का जिक्र आता है| ये वे ही पौधे हैं जिनके फूलों या पत्तियों का उपयोग हिंदू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में होता है| भगवान शिव की पूजा में बेल पत्तियों का विशेष प्रयोग होता है| किसी कब्रगाह में केवल छायादार वृक्ष लगाये जाते हैं क्योंकि श्मशान के पेड़ पौधों के फूल और फल का प्रयोग को वीभत्स मानते हुये मानव अंतरात्मा स्वीकार नहीं करती| ताज के वाटिकाओं में बेल तथा अन्य फूलों के पौधों की उपस्थिति सिद्ध करती है कि शाहज़हां के हथियाने के पहले ताज एक शिव मंदिर हुआ करता था| 59. हिंदू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाये जाते हैं| ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है जो कि शिव मंदिर के लिये एक उपयुक्त स्थान है| 60. मोहम्मद पैगम्बर ने निर्देश दिये हैं कि कब्रगाह में केवल एक कब्र होना चाहिये और उसे कम से कम एक पत्थर से चिन्हित करना चाहिये| ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर के मंज़िल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज़ का बताया जाता है, यह मोहम्मद पैगम्बर के निर्देश के निन्दनीय अवहेलना है| वास्तव में शाहज़हां को इन दोनों स्थानों के शिवलिंगों को दबाने के लिये दो कब्र बनवाने पड़े थे| शिव मंदिर में, एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में, दो शिव लिंग स्थापित करने का हिंदुओं में रिवाज था जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर, जो कि अहिल्याबाई के द्वारा बनवाये गये हैं, में देखा जा सकता है| 61. ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं जो कि हिंदू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है| हिंदू गुम्बज 62. ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है| ऐसा गुम्बज किसी कब्र के लिये होना एक विसंगति है क्योंकि कब्रगाह एक शांतिपूर्ण स्थान होता है| इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों के लिये गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है क्योंकि वे देवी-देवता आरती के समय बजने वाले घंटियों, नगाड़ों आदि के ध्वनि के उल्लास और मधुरता को कई गुणा अधिक कर देते हैं| 63. ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है| इस्लाम के गुम्बज अनालंकृत होते हैं, दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित पाकिस्तानी दूतावास और पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के गुम्बज उनके उदाहरण हैं| 64. ताजमहल दक्षिणमुखी भवन है| यदि ताज का सम्बंध इस्लाम से होता तो उसका मुख पश्चिम की ओर होता| 65. महल को कब्र का रूप देने की गलती के परिणामस्वरूप एक व्यापक भ्रामक स्थिति उत्पन्न हुई है| इस्लाम के आक्रमण स्वरूप, जिस किसी देश में वे गये वहाँ के, विजित भवनों में लाश दफन करके उन्हें कब्र का रूप दे दिया गया| अतः दिमाग से इस भ्रम को निकाल देना चाहिये कि वे विजित भवन कब्र के ऊपर बनाये गये हैं जैसे कि लाश दफ़न करने के बाद मिट्टी का टीला बना दिया जाता है| ताजमहल का प्रकरण भी इसी सच्चाई का उदाहरण है| (भले ही केवल तर्क करने क

तेजाजी ने दी लड़की को शेर से लड़ने की शक्ति -

 घना जंगल... लकड़ी बीनती कुछ ग्रामीण युवतियाँ और खूँख्वार शेर का आक्रमण... कहानी पूरी तरह किसी एक्शन फिल्म की तरह लगती है, लेकिन है यह बिलकुल सच्ची! इस नायिका प्रधान कहानी की नायिका हैं... १७ साल की शारदा बंजारा, जिन्होंने न केवल शेर महाशय से मुकाबला करने की दिलेरी दिखाई, बल्कि उनके कान उमेठकर उन्हें दुम दबाकर भागने को मजबूर कर दिया। नीमच (मप्र) जिला मुख्यालय की तहसील मनासा के गाँव बाक्याखेड़ी में रहती है शारदा। एक दिन की बात है... उस दिन खेतों में निंदाई के काम से छुट्टी थी सो, शारदा चूल्हा जलाने के लिए जंगल में लकड़ियाँ बीनने गई। साथ में थीं दो बहनें, कमला व संगीता, भाभी टम्मू तथा काकी पन्नी।
जंगल में जाते ही कुछ किलोमीटर की दूरी पर उन्हें जंगल के राजा के दर्शन हो गए, लेकिन महिलाओं ने सोचा कि दूरी काफी है, सो राजा साहब प्रजा के पास शायद ही तशरीफ लाएँ। यह सोचकर वे अपने काम में लग गईं, लेकिन शेर महाशय ने तब तक उनकी उपस्थिति सूँघ डाली थी, सो दबे पाँव वे आ पहुँचे और उन्होंने सबसे करीब लकड़ियाँ चुन रही शारदा पर झपट्टा मार दिया। अचानक हुए इस हमले ने शारदा का संतुलन बिगाड़ दिया और कुछ सेकंड के लिए उसे समझ नहीं आया कि ये क्या हुआ.. उसकी चीख सुनकर अन्य महिलाओं ने उसकी तरफ देखा और एक सम्मिलित चीख के साथ वे सब गाँव वालों को बुलाने के लिए दौड़ गईं। उन्हें लगा शायद शेर ने शारदा को खत्म कर डाला।
इन्हीं कुछ पलों में शारदा ने सोच लिया कि जब लड़ाई तय ही है तो क्यों न पूरे जोश के साथ लड़ा जाए। शेर ने उसकी पिंडली पकड़ रखी थी। शारदा ने तुरंत लपक कर पूरी ताकत के साथ शेर के कान पकड़ लिए और अपनी पिंडली छुड़ाने का प्रयास करने लगी। इसी बीच उसने एक बड़ा पत्थर उठाकर शेर के सर पर दे मारा। शेर महाशय दुम दबाकर भाग लिए।
घायल शारदा खुद ही चलकर जैसे-तैसे घर पहुँची। घर पर वह माँ के सामने डर के मारे सच नहीं बता पाई। बस इतना कह पाई कि जंगल में पेड़ से गिर गई, लेकिन थोड़ी देर बाद उसकी हालत खराब होने लगी और उसे सच बताना पड़ा। उसे तुरंत मनासा के शासकीय अस्पताल ले जाया गया और फिर बाद में एक निजी अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया। फिलहाल शारदा स्वास्थ्य लाभ ले रही है।
एक पुरानी जींस और टी-शर्ट पहनने वाली दुबली-सी शारदा के साहस के चर्चे चारों ओर हैं। शारदा की माँ कहती है कि उनकी बेटी को शेर पर सवार होने वाली माता और तेजाजी महाराज ने बचाया है। सन्दर्भ - हिंदी वेब दुनिया में दिनेश प्रजापति का लेख "शेर से लड़ी बहादुर शारदा"तेजाजी ने दी लड़की को शेर से लड़ने की शक्ति – घना जंगल… लकड़ी बीनती कुछ ग्रामीण युवतियाँ और खूँख्वार शेर का आक्रमण… कहानी पूरी तरह किसी एक्शन फिल्म की तरह लगती है, लेकिन है यह बिलकुल सच्ची! इस नायिका प्रधान कहानी की नायिका हैं… १७ साल की शारदा बंजारा, जिन्होंने न केवल शेर महाशय से मुकाबला करने की दिलेरी दिखाई, बल्कि उनके कान उमेठकर उन्हें दुम दबाकर भागने को मजबूर कर दिया। नीमच (मप्र) जिला मुख्यालय की तहसील मनासा के गाँव बाक्याखेड़ी में रहती है शारदा। एक दिन की बात है… उस दिन खेतों में निंदाई के काम से छुट्टी थी सो, शारदा चूल्हा जलाने के लिए जंगल में लकड़ियाँ बीनने गई। साथ में थीं दो बहनें, कमला व संगीता, भाभी टम्मू तथा काकी पन्नी। जंगल में जाते ही कुछ किलोमीटर की दूरी पर उन्हें जंगल के राजा के दर्शन हो गए, लेकिन महिलाओं ने सोचा कि दूरी काफी है, सो राजा साहब प्रजा के पास शायद ही तशरीफ लाएँ। यह सोचकर वे अपने काम में लग गईं, लेकिन शेर महाशय ने तब तक उनकी उपस्थिति सूँघ डाली थी, सो दबे पाँव वे आ पहुँचे और उन्होंने सबसे करीब लकड़ियाँ चुन रही शारदा पर झपट्टा मार दिया। अचानक हुए इस हमले ने शारदा का संतुलन बिगाड़ दिया और कुछ सेकंड के लिए उसे समझ नहीं आया कि ये क्या हुआ.. उसकी चीख सुनकर अन्य महिलाओं ने उसकी तरफ देखा और एक सम्मिलित चीख के साथ वे सब गाँव वालों को बुलाने के लिए दौड़ गईं। उन्हें लगा शायद शेर ने शारदा को खत्म कर डाला। इन्हीं कुछ पलों में शारदा ने सोच लिया कि जब लड़ाई तय ही है तो क्यों न पूरे जोश के साथ लड़ा जाए। शेर ने उसकी पिंडली पकड़ रखी थी। शारदा ने तुरंत लपक कर पूरी ताकत के साथ शेर के कान पकड़ लिए और अपनी पिंडली छुड़ाने का प्रयास करने लगी। इसी बीच उसने एक बड़ा पत्थर उठाकर शेर के सर पर दे मारा। शेर महाशय दुम दबाकर भाग लिए। घायल शारदा खुद ही चलकर जैसे-तैसे घर पहुँची। घर पर वह माँ के सामने डर के मारे सच नहीं बता पाई। बस इतना कह पाई कि जंगल में पेड़ से गिर गई, लेकिन थोड़ी देर बाद उसकी हालत खराब होने लगी और उसे सच बताना पड़ा। उसे तुरंत मनासा के शासकीय अस्पताल ले जाया गया और फिर बाद में एक निजी अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया। फिलहाल शारदा स्वास्थ्य लाभ ले रही है। एक पुरानी जींस और टी-शर्ट पहनने वाली दुबली-सी शारदा के साहस के चर्चे चारों ओर हैं। शारदा की माँ कहती है कि उनकी बेटी को शेर पर सवार होने वाली माता और तेजाजी महाराज ने बचाया है। सन्दर्भ – हिंदी वेब दुनिया में दिनेश प्रजापति का लेख “शेर से लड़ी बहादुर शारदा”जय वीर तीजाजी महाराज की....

ॐ जय जगदीश हरे.....जय वीर तीजाजी महाराज की…. ॐ जय जगदीश हरे…..

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ताज महल


“सपोले/नमक-हराम/देशद्रोही”
योगी आदित्यनाथ का यह बयान कुछ लोगों को बुरा लग रहा है कि ताजमहल हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। 

लोग इस बयान पर आपत्ति जताते हुए ताजमहल को प्रेम का प्रतीक बता रहे हैं। 

ताजमहल, और उसके पीछे के प्रेम की कहानी कुछ दिनों पहले भाई रामप्रकाश त्रिपाठी की वाल पर पढ़ी थी। 

आप भी धैर्य से पढ़िए, ज्ञानवर्द्धन ही होगा :-
मुगलों के हरम की औलाद को हरामजादा

कहा जाता है।

शाहजहाँ के हरम में 8000 रखैलें थीं जो उसे उसके पिता जहाँगीर से विरासत में मिली थीं।

उसने बाप की सम्पत्ति को और बढ़ाया व हरम की महिलाओं की व्यापक छाँट की तथा बुढ़ियाओं को बाहर निकाल कर, अन्य

हिन्दू परिवारों से महिलाओं को बलात लाकर हरम को

बढ़ाता ही रहा।”

(अकबर दी ग्रेट मुगल : वी स्मिथ, पृष्ठ ३५९)
कहते हैं कि उन्हीं भगायी गयी महिलाओं से दिल्ली का रेडलाइट एरिया जी.बी. रोड गुलजार हुआ था और वहाँ इस धंधे की शुरूआत हुई थी।

जबरन अगवा की हुई हिन्दू महिलाओं की

यौन-गुलामी और यौन व्यापार को शाहजहाँ

प्रश्रय देता था, और अक्सर अपने मंत्रियों

और सम्बन्धियों को पुरस्कार स्वरूप अनेकों

हिन्दू महिलाओं को उपहार में दिया करता था।

यह नर पशु,यौनाचार के प्रति इतना आकर्षित

और उत्साही था, कि हिन्दू महिलाओं का मीना बाजार लगाया करता था, यहाँ तक कि अपने महल में भी!
सुप्रसिद्ध यूरोपीय यात्री फ्रांकोइस बर्नियर

ने इस विषय में टिप्पणी की थी कि,

”महल में बार-बार लगने वाले मीना बाजार,

जहाँ अगवा कर लाई हुई सैकड़ों हिन्दू महिलाओं

का, क्रय-विक्रय हुआ करता था,राज्य द्वारा बड़ी संख्या में नाचने वाली लड़कियों की व्यवस्था, और नपुसंक बनाये गये सैकड़ों लड़कों की हरमों में

उपस्थिति, शाहजहाँ की अनंत वासना के समाधान

के लिए ही थी।

(टे्रविल्स इन दी मुगल ऐम्पायर-

फ्रान्कोइसबर्नियर :पुनः लिखित वी. स्मिथ,

औक्सफोर्ड १९३४)
**शाहजहाँ को प्रेम की मिसाल के रूप पेश किया

जाता रहा है और किया भी क्यों न जाए।

8000 औरतों को अपने हरम में रखने वाला अगर

किसी एक में ज्यादा रुचि दिखाए तो वो उसका प्यार ही कहा जाएगा!

आप यह जानकर हैरान हो जायेंगे कि ‘मुमताज’ का नाम ‘मुमताज महल’ था ही नहीं बल्कि उसका असली नाम “अर्जुमंद-बानो-बेगम” था। 

और तो और जिस शाहजहाँ और मुमताज के प्यार की इतनी डींगे हांकी जाती हैं वो मुमताज़ ना तो शाहजहाँ की पहली पत्नी थी और ना ही आखिरी।

“मुमताज” शाहजहाँ की सात बीबियों में “चौथी” थी।

इसका मतलब है कि शाहजहाँ ने मुमताज से पहले 3 शादियाँ कर रखी थीं और, मुमताज से शादी करने के बाद भी उसका मन नहीं भरा तथा उसके बाद भी

उसने 3 शादियाँ और कीं!

यहाँ तक कि मुमताज के

मरने के एक हफ्ते के अन्दर ही उसकी बहन फरजाना से शादी कर ली थी।

जिसे उसने रखैल बना कर रखा हुआ था इससे शादी करने से पहले ही शाहजहाँ को इसी से एक बेटा भी था।
अगर शाहजहाँ को मुमताज से इतना ही प्यार था तो मुमताज से शादी के बाद भी शाहजहाँ ने 3 और

शादियाँ क्यों कीं…???

अब आप यह भी जान लें कि शाहजहाँ की सातों बीबियों में सबसे ज़्यादा सुन्दर मुमताज नहीं बल्कि इशरत

बानो थी जोकि उसकी पहली पत्नी थी ।
उससे भी घिनौना तथ्य यह है कि शाहजहाँ से

शादी करते समय “मुमताज” कोई “कुँवारी” लड़की नहीं थी बल्कि वो शादीशुदा थी और, उसका पति शाहजहाँ की सेना में सूबेदार था जिसका नाम “शेर अफगान खान” था।

शाहजहाँ ने शेर अफगान खान की हत्या कर मुमताज से शादी की थी।
गौर करने लायक बात यह भी है कि ३८ वर्षीय

मुमताज की मौत कोई बीमारी या एक्सीडेंट से

नहीं बल्कि चौदहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान अत्यधिक कमजोरी के कारण हुई थी! यानि शाहजहाँ ने उसे बच्चे पैदा करने की मशीन ही नहीं बल्कि फैक्ट्री बनाकर मार डाला!
**शाहजहाँ कामुकता के लिए इतना कुख्यात

था कि कई इतिहासकारों ने उसे उसकी अपनी “सगी बेटी” जहाँआरा के साथ स्वयं सम्भोग करने का दोषी कहा है!
शाहजहाँ और मुमताज महल की बड़ी बेटी

जहाँआरा बिल्कुल अपनी माँ की तरह लगती थी। इसीलिए मुमताज की मृत्यु के बाद उसकी याद में

लम्पट शाहजहाँ ने अपनी ही बेटी जहाँआरा को

फँसाकर भोगना शुरू कर दिया था।
जहाँआरा को शाहजहाँ इतना प्यार करता था

कि उसने उसका निकाह तक होने न दिया।
बाप-बेटी के इस प्यार को देखकर जब महल में चर्चा शुरू हुई, तो मुल्ला-मौलवियों की एक बैठक बुलाई गयी और उन्होंने इस पाप को जायज ठहराने के लिए एक हदीस का उद्धरण दिया और कहा कि – “माली को अपने द्वारा लगाये पेड़ का फल खाने का हक़ है”।

(Francois Bernier wrote,

” Shah Jahan used to have regular sex

with his eldest daughter Jahan Ara.

To defend himself,Shah Jahan used to

say that,it was the privilege of a planter

to taste the fruit of the tree he had

planted.”)
**इतना ही नहीं जहाँआरा के किसी भी आशिक को वह उसके पास फटकने नहीं देता था।

कहा जाता है कि एक बार जहाँआरा जब अपने एक आशिक के साथ इश्क लड़ा रही थी तो शाहजहाँ आ गया जिससे डरकर वह हरम के तंदूर में छिप गया, शाहजहाँ ने तंदूर में आग लगवा दी और उसे जिन्दा जला दिया!
**दरअसल अकबर ने यह नियम बना दिया था

कि मुगलिया खानदान की बेटियों की शादी नहीं होगी।

इतिहासकार इसके कई कारण बताते हैं। इसका परिणाम यह होता था कि मुग़ल खानदान

की लड़कियाँअपने जिस्मानी भूख मिटाने के लिए अवैध तरीके से दरबारी,नौकर के साथ साथ, रिश्तेदार यहाँ तक की सगे सम्बन्धियों का भी सहारा लेती थीं!
**जहाँआरा अपने लम्पट बाप के लिए लड़कियाँ भी

फँसाकर लाती थी।

जहाँआरा की मदद से शाहजहाँ ने मुमताज के भाई शाईस्ता खान की बीबी से कई बार बलात्कार किया था।
**शाहजहाँ के ब्राह्मण राजज्योतिष की 13 वर्षीय लड़की को जहाँआरा ने अपने महल में बुलाकर उसे धोखे

से नशा कराके बाप के हवाले कर दिया था जिससे शाहजहाँ

ने 58 वें वर्ष में उस 13 बर्ष की ब्राह्मण कन्या से निकाह किया था।
बाद में इसी ब्राहम्ण कन्या ने शाहजहाँ के कैद होने के बाद एक बार फिर औरंगजेब की हवस की

सामग्री बनने से खुद को बचाने के लिए अपने ही हाथों अपने चेहरे पर तेजाब डाल लिया था@
**शाहजहाँ शेखी मारा करता था कि ‘ ‘वह तिमूर (तैमूरलंग) का वंशज है जो भारत में तलवार और अग्नि लाया था।

उजबेकिस्तान के जंगली जानवर के समान उस तिमूर से और

उसके द्वारा हिन्दुओं के साथ की गयी भारी रक्तपात की उपलब्धि से, शाहजहाँ इतना

प्रभावित था कि ”उसने अपना नाम तिमूरद्वितीय

रख लिया था”।

(दी लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इण्डिया-

डॉ. के.एस. लाल, १९९२ पृष्ठ- १३२).
**बहुत प्रारम्भिक अवस्था से ही शाहजहाँ ने काफिरों

(हिन्दुओं) के प्रति युद्ध के लिए साहस व रुचि दिखाई थी।
अलग-अलग इतिहासकारों ने लिखा था कि,

”शहजादे के रूप में ही शाहजहाँ ने फतेहपुर सीकरी पर अधिकार कर लिया था और आगरा शहर में हिन्दुओं

का भीषण नरसंहार किया था@
**भारत यात्रा पर आये देला वैले, इटली के एक धनी व्यक्ति के अुनसार -शाहजहाँ की सेना ने भयानक बर्बरता का परिचय दिया था।

हिन्दू नागरिकों को घोर यातनाओं द्वारा अपने संचित धन को दे देने के लिए विवश किया गया, और अनेकों उच्च कुल की कुलीन हिन्दू महिलाओं का शील भंग

किया गया।”

(कीन्स हैण्ड बुक फौर विजिटर्स टू आगरा एण्ड

इट्सनेबरहुड, पृष्ठ 25)
**हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने शाहजहाँ को

एक महान निर्माता के रूप में चित्रित किया है।
किन्तु इस मुजाहिद ने अनेकों कला के प्रतीक सुन्दर हिन्दू मन्दिरों और अनेकों हिन्दू भवन निर्माण कला के केन्द्रों का बड़ी लगन और जोश से विध्वंस किया था!
अब्दुल हमीद ने अपने इतिहास अभिलेख, ‘बादशाहनामा’ में लिखा था- 

”महामहिम शहँशाह महोदय की सूचना में

लाया गया कि हिन्दुओं के एक प्रमुख केन्द्र, बनारस में उनके अब्बा हुजूर के शासनकाल में अनेकों मन्दिरों के पुनर निर्माण का काम प्रारम्भ हुआ था और काफिर

हिन्दू अब उन्हें पूर्ण कर देने के निकट आ पहुँचे हैं’, 

इस्लाम पंथ के रक्षक, इस शहँशाह ने आदेश दिया कि बनारस में और उनके सारे राज्य में, अन्यत्र सभी स्थानों पर, जिन मन्दिरों का निर्माण कार्य आरम्भ है, उन सभी का विध्वंस कर दिया जाए।
**इलाहाबाद प्रदेश से सूचना प्राप्त हो गई कि

जिला बनारस के छिहत्तर मन्दिरों का ध्वंस कर दिया गया था।’

(बादशाहनामा : अब्दुल हमीद लाहौरी,

अनुवाद एलियट और डाउसन, खण्ड VII,

पृष्ठ 36)
**हिन्दू मंदिरों को अपवित्र करने और उन्हें ध्वस्त करने की प्रथा ने शाहजहाँ के काल में एक व्यवस्थित विकराल रूप धारण कर लिया था।

(मध्यकालीन भारत – हरीश्चंद्र वर्मा – पेज-141)
*”कश्मीर से लौटते समय सन 1932 में शाहजहाँ को बताया गया कि अनेकों मुस्लिम बनायी गयी महिलायें फिर से हिन्दू हो गईं हैं और उन्होंने हिन्दू परिवारों में शादी कर ली है।

शहँशाह के आदेश पर इन सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लिया गया।
पहले तो उन सभी पर इतना आर्थिक दण्ड थोपा गया कि उनमें से कोई भुगतान नहीं कर सका!

बाद में या तो इस्लाम स्वीकार कर लेने या फिर मृत्यु में से एक को

चुन लेने का विकल्प दिया गया।
जिन्होनें धर्मान्तरण स्वीकार नहीं किया, उन सभी पुरुषों का सर काट दिया गया।
लगभग चार हजार पाँच सौ महिलाओं को बलात मुसलमान बना लिया गया और उन्हें सिपहसालारों, अफसरों और शहँशाह के नजदीकी लोगों और

रिश्तेदारों के हरम में भेज दिया गया।”

(हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल :

आर.सी. मजूमदार, भारतीय विद्या भवन,पृष 312)
* 1657 में शाहजहाँ बीमार पड़ा और उसी के

बेटे औरंगजेब ने उसे उसकी रखैल जहाँआरा के साथ आगरा के किले में बंद कर दिया। परन्तु औरंगजेब ने एक आदर्श बेटे का भी फर्ज निभाया

और अपने बाप की कामुकता को समझते हुए उसे अपने साथ ४० रखैलें (शाही वेश्याएँ) रखने की इजाजत दे दी।
दिल्ली आकर उसने बाप की हजारों रखैलों में से कुछ गिनी चुनी औरतों को अपने हरम में डालकर बाकी सभी को उसने किले से बाहर निकाल दिया।
उन हजारों महिलाओं को भी दिल्ली के उसी हिस्से में पनाह मिली जिसे आज दिल्ली का रेड लाईट एरिया जीबी रोड कहा जाता है। जोकि उसके अब्बा शाहजहाँ की मेहरबानी से ही बसा और गुलजार हुआ था ।
***”शाहजहाँ की मृत्यु आगरे के किले में ही 22 जनवरी 1666 ईस्वी में 74 साल की उम्र में, द हिस्ट्री चैनल के अनुसार, अत्यधिक कमोत्तेजक दवाएँ खा लेने का कारण हुई थी। यानि जिन्दगी के आखिरी वक्त तक वो अय्याशी ही करता रहा था।
** अब आप खुद ही सोचें कि क्यों ऐसे बदचलन और दुश्चरित्र इंसान को प्यार की निशानी बताकर

महान बताया जाता है… ???
क्या ऐसा बदचलन इंसान कभी किसी से प्यार कर सकता है…???
क्या ऐसे वहशी और क्रूर व्यक्ति की अय्याशी की कसमें खाकर लोग अपने प्यार को बे-इज्जत नहीं करते हैं…?
दरअसल ताजमहल और प्यार की कहानी इसीलिए गढ़ी गयी है कि लोगों को गुमराह किया जा सके और लोगों से… खासकर हिन्दुओं से… यह सचाई छुपायी जा सके कि- 

ताजमहल कोई प्यार की निशानी नहीं बल्कि महाराज जय सिंह द्वारा बनवाया गया भगवान् शिव का मंदिर “तेजो महालय” है…!
और जिसे प्रमाणित करने के लिए डा० सुब्रहमण्यम स्वामी आज भी सुप्रीम कोर्ट में सत्य की लड़ाई लड़

रहे हैं।
** असलियत में मुगल इस देश में धर्मान्तरण,

लूट-खसोट और अय्याशी ही करते रहे और नेहरू के आदेश पर हमारे इतिहासकार इन व्यभिचारियों  को जबरदस्ती महान बनाते रहे!

वास्तव में ये सब हुआ झूठी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर!
( दैनिक जागरण  के विशेष संवाददाता श्री ओम प्रकाश  तिवारी के वॉल से साभार )

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इतिहास तेजोमहालय


अन्य   इतिहास   तेजोमहालय-1 : और जब ताजमहल के बंद दरवाज़े खुले तो सामने आई…
आगरा निवासी पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी जो अब 80 (लेख 2010-11 में लिखे गए हैं) वर्ष से अधिक आयु के हैं. उनके ‘ताजमहल’ विषयक शोध को क्रमवार देने का मन हो आया जब उनके विचारों को पढ़ा. सोचता हूँ पहले उनके विचारों को ज्यों का त्यों रखूँ और फिर उनके जीवन पर भी कुछ प्रकाश डालूँ. जो हमारी सांस्कृतिक विरासत पर से मिथ्या इतिहास की परतों को फूँक मारकर दूर करने का प्रयास करते हैं प्रायः उनके प्रयास असफल हो जाया करते हैं. इसलिए सोचता हूँ उनकी फूँक को दमदार बनाया जाए और मिलकर उस समस्त झूठे आवरणों को हटा दिया जाए जो नव-पीढ़ी के मन-मानस पर डालने के प्रयास होते रहे हैं. तो लीजिये प्रस्तुत है पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के शब्दों में ….. ताजमहल की असलियत … एक शोध –  प्रतुलजी
भूमिका
मैं जब 10 वर्ष का था (सन् 1941 ई.) उस समय मेरी कक्षा छः की हिन्दी पुस्तक में एक पाठ ताजमहल पर था. जिस दिन वह पाठ पढ़ाया जाना था उस दिन कक्षा के सभी बालक अत्यधिक उल्लसित थे. उस पाठ में ताजमहल की भव्यता-शुभ्रता का वर्णन तो था ही, उससे अधिक उससे जुड़े मिथकों का वर्णन जिन्हें हमारे शिक्षक ने अतिरंजित रूप से बढ़ा दिया था. मेरे बाल मन पर यह बात पूर्णरूप से अंकित हो गई कि यह विश्वप्रसिद्ध ताज बीबा का रौजा (इस नाम से ही वह उन दिनों प्रसिद्ध था) मुगल सम्राट्‌ शाहजहाँ ने बनवाया था.
आठ वर्ष और बीत गये. सन्‌ 1949 ई. में मैं अपने श्वसुर के साथ एक विशेष कार्य से जीवन में पहली बार आगरा आया. वह विशिष्ट कार्य हम दोनों के मन पर इतना अधिक प्रभावी था कि मार्ग में एक बार भी यह ध्यान नहीं आया कि इसी आगरा में विश्वप्रसिद्ध दर्शनीय ताजमहल है. कार्य हो जाने पर जब हम लोग बालूगंज से आगरा किला स्टेशन की ओर लौट रहे थे तो लम्बी ढलान के नीचे चौराहे से जो एकाएक दाहिनी ओर दृष्टि पड़ी तो सूर्य की आभा में ताजमहल हमारे सम्मुख अपनी पूर्ण भव्यता में खड़ा था. हम दोनों कुछ क्षण तो स्तब्ध से खड़े रह गये, तदुपरान्त किसी साइकिल वाले की घंटी सुनकर हम लोगों को चेत हुआ.
जहाँ पर हम लोग खड़े थे वहाँ पर चारों ओर की सड़कें चढ़ाई पर जाती थीं. ऐसा प्रतीत होता था कि दाहिनी ओर चढ़ाई समाप्त होते ही नीचे मैदान में थोड़ी दूर पर ही ताजमहल है, अतः हम लोग उसी ओर बढ़ लिये. ऊपर पहुँचकर यह तो आभास हुआ कि ताजमहल वहाँ से पर्याप्त दूर है, परन्तु गरीबी के दिन थे, अस्तु हम लोग पैदल ही दो मील से अधिक का मार्ग तय कर गये. उन दिनों ताजमहल दर्शन के लिये टिकट नहीं लेना पड़ता था. और गाइड करने का तो प्रश्न ही नहीं था, परन्तु जिन लोगों ने गाइड किये हुए थे लगभग उनके साथ चलते हुए हमने उनकी बकवास पर्याप्त सुनी जो उस दिन तो अच्छी ही लगी थी.
उस प्रथम दर्शन में ताजमहल मुझे अपनी कल्पना से भी अधिक भव्य तथा सुन्दर लगा था. उसकी पच्चीकारी तथा पत्थर पर खुदाई-कटाई का कार्य अद्‌भुत था, फिर भी मुझे एक-दो बातें कचौट गई थीं. बुर्जियों, छतरियों, मेहराबों में स्पष्ट हिन्दू-कला के दर्शन हो रहे थे. मुख्यद्वार के ऊपर की बनी बेल तथा कलाकृति उसी दिन मैं कई मकानों के द्वार पर आगरा में ही देख चुका था. मैंने अपने श्वसुर जी से अपनी शंका प्रकट की तो उन्होंने गाइडों की भाषा में ही शाहजहाँ के हिन्दू प्रिय होने की बात कहकर मेरा समाधान कर दिया, परन्तु मैं पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुआ एवं मेरे अन्तर्मन में कहीं पर यह सन्देह बहुत काल तक प्रच्छन्न रूप में घुसा रहा.
18 मार्च सन्‌ 1954 को मेरी नियुक्ति आगरा छावनी स्टेशन पर स्टेशन मास्टर श्रेणी में हुई. तब से आज तक मैं आगरा में हूँ, इस कारण ताजमहल को जानने, समझने में मुझे पर्याप्त सुविधा मिली.
आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व समाचार-पत्रों में मैंने पढ़ा कि किसी लेखक (संभवतः श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक) ने ताजमहल को हिन्दू मन्दिर सिद्ध करने का प्रयास किया है. उक्त लेख में तथ्यों को तो दर्शया था, परन्तु उसमें प्रमाणों का अभाव था, अस्तु. उससे मुझे अधिक प्रेरणा नहीं मिल सकी. इसके कुछ वर्ष पश्चात्‌ एक दिन ज्ञात हुआ कि श्री ओक जी सायं 7 बजे स्थानीय इम्पीरियल होटल में प्रबुद्ध नागरिकों के सम्मुख ताजमहल पर वार्ता करेंगे.
मैं उस दिन गया और श्री ओक को लगभग डेढ़ घण्टे बोलते सुना. उनके भाषण के पश्चात्‌ ऐसा प्रतीत हुआ कि ताजमहल जैसे यमुना नदी (उस समय नदी साफ़-सुथरी होती थी) से लेकर कलश तक मिथ्याचार के कलुष से निकल कर अपनी सम्पूर्ण कान्ति से देदीप्यमान हो उठा हो. भाषण के पश्चात्‌ मैं स्वयं श्री ओक जी से मिला तथा उन्हें ताजमहल की दो विसंगतियों से अवगत कराया. ओक जी मुझसे प्रभावित हुए तथा मेरा नाम पता लिख ले गये.
सन्‌ 1975 ई. में एक दिन श्री ओक जी से पता लेकर इंग्लैंड से भारतीय मूल के अभियन्ता श्री वी. एस. गोडबोले तथा आई. आई. टी कानपुर के प्रवक्ता श्री अशोक आठवले आये. वे नई दिल्ली से पुरातत्त्व विभाग के महानिदेशक का अनुज्ञापत्र ले कर आये थे जिसके अनुसार विभाग को उन्हें वे सभी भाग खोल कर दिखाने थे जो साधारणतया सामान्य जनता के लिये बन्द रखे जाते हैं.
श्री गोडबोले ने मुझसे भी ताजमहल देखने के लिये साथ चलने का आग्रह किया. मैंने दो दिन के लिये अवकाश ले लिया तथा अगले दिन उन दोनों के साथ ताजमहल गया. कार्यालय में नई दिल्ली से लाया गया अनुज्ञापत्र देने पर वहां से एक कर्मचारी चाभियों का एक गुच्छा लेकर हमारे साथ कर दिया गया. उसके साथ हम लोगों ने पहले मुखय द्वार के ऊपर का भाग देखा.
तत्पश्चात्‌ ताजमहल के ऊपर का कक्ष उसकी छत एवं गुम्बज के दोनों खण्डों को देखा. नीचे आकर ताजमहल के नीचे बने कमरों तथा पत्थर चूने से बन्द कर दिये गये मार्गों आदि को देखा.
एक स्थल तो ऐसा आया जहाँ पर यदि हम लोग अवरुद्ध मार्ग को फोड़ कर आगे बढ़ सकते तो कुछ गज ही आगे चलने पर नीचे वाली कब्र की छत के ठीक नीचे होते और उक्त कब्र हमारे सर से लगभग तीस फुट ऊपर होती, अर्थात्‌ कब्र के ऊपर भी पत्थर तथा कब्र के नीचे भी पत्थर. पत्थर के ऊपर भी कमरा तथा पत्थर के नीचे भी कमरा. है न चमत्कार. मात्र इतना सत्य ही संसार के समक्ष उद्घाटित कर दिया जाए तो ताजमहल विश्व का आठवाँ आश्चर्य मान लिया जाए.
तदुपरान्त हमें बावली के अन्दर के जल तक के सातों खण्ड दिखाये गये. मस्जिद एवं तथाकथित जवाब के ऊपर के भाग एवं उनके अन्दर के भाग, बुर्जियों के नीचे हाते हुए पिछली दीवार में बने दो द्वारों को खोल कर यमुना तक जाने का मार्ग हमें दिखाया गया.
यहाँ पर दो बातें स्पष्ट करना चाहूँगा
(1) शव को कब्र में दफन करने का मुख्य उद्‌देश्य यह होता है कि मिट्‌टी के सम्पर्क में आकर शव स्वयं मिट्‌टी बन जाए. इसकी गति त्वरित करने के लिये उस पर पर्याप्त नमक भी डाला जाता है. यदि शव के नीचे तथा ऊपर दोनों ओर पत्थर होंगे तो वह विकृत हो सकता है, परन्तु मिट्‌टी नहीं बन सकता.
(2) यमुना तट पर स्थित उत्तरी दीवार के पूर्व तथा पश्चिमी सिरों के समीप लकड़ी के द्वार थे. इन्हीं द्वारों से होकर हम लोग अन्दर ही अन्दर चलकर ऊपर की बुर्जियों में से निकले थे. अर्थात्‌ भवन से यमुना तक जाने के लिए दो भूमिगत तथा पक्के मार्ग थे. इन्हीं द्वार में से एक की चौखट का चाकू से छीलकर अमरीका भेजा गया था जहाँ पर उसका परीक्षण किया गया था.
6 फरवरी 1984 को देश एवं संसार के सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि वह लकड़ी बाबर के इस देश में आने से कम से कम 80 वर्ष पूर्व की है. भारत सरकार ने इसे समाचार का न तो खण्डन ही किया और न ही कोई अन्य प्रतिक्रिया व्यक्त की, परन्तु शाहजहाँ के समान उसने एक कार्य त्वरित किया. उन दोनों लकड़ी के द्वारों को निकाल कर पता नहीं कहाँ छिपा दिया तथा उन भागों को पत्थर के टुकड़ों से सीमेंट द्वारा बन्द करा दिया.
ताजमहल परिसर के मध्य में स्थित फौआरे के ऊँचे चबूतरे के दाहिनी-बायें बने दोनों भवनों का नाम नक्कार खाना है, अर्थात्‌ वह स्थल जहाँ परवाद्य-यन्त्र रखे जाते हों अथवा गाय-वादन होता हो. इन भवनों पर ‘नक्कार खाना’ नाम की प्लेट भी लगी थी. जब हम लोगों ने इन बातों को उछाला कि गम के स्थान पर वाद्ययन्त्रों का क्या काम?
तो भारत सरकार ने उन प्लेटों को हटा कर दाहिनी ओर का भवन तो बन्द करवा दिया ताकि बाईं ओर के भवन में म्यूजियम बना दिया. इस म्यूजिम में हाथ से बने पर्याप्त पुराने चित्र प्रदर्शित हैं जो एक ही कलाकार ने यमुना नदी के पार बैठ कर बनाये हैं. इन चित्रों में नीचे यमुना नदी उसके ऊपर विशाल दीवार तथा उसके भी ऊपर मुखय भवन दिखाया गया है. इस दीवार के दोनों सिरों पर उपरोक्त द्वार स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं. अभी तक मैं चुप रहा हूं, परन्तु यह लेख प्रकाशित होते ही भारत सरकार अतिशीघ्र उक्त दोनों चित्र म्यूजियम से हटा देगी.
दो दिनों तक हम लोगों ने ताजमहल का कोना-कोना छान मारा. हम लोग प्रातः सात बजे ताजमहल पहुँच जाते थे तथा रात्रि होने पर जब कुछ दिखाई नहीं पड़ता था तभी वापस आते थे. इस अभियान से मेरा पर्याप्त ज्ञानवर्धन हुआ तथा और जानने की जिज्ञासा प्रबल हुई. मैंने हर ओर प्रयास किया ओर जहाँ भी कोई सामग्री उपलब्ध हुई उसे प्राप्त करनेका प्रयास किया.
माल रोड स्थित स्थानीय पुरातत्त्व कार्यालय के पुस्तकालय में मैं महीनों गया. बादशाहनामा मैंने वहीं पर देखा. उन्हीं दिनों मुझे महाभारत पढ़ते हुए पृष्ठ 262 पर अष्टावक्र के यह शब्द मिले, ‘सब यज्ञों में यज्ञ-स्तम्भ के कोण भी आठ ही कहे हैं.’ इसको पढ़ते ही मेरी सारी भ्रान्तियाँ मिट गई एवं तथाकथित मीनारें जो स्पष्ट अष्टकोणीय हैं, मुझे यज्ञ-स्तम्भ लगने लगीं.
एक बार मुझे नासिक जाने का सुयोग मिला. वहाँ से समीप ही त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग है. मैं उस मन्दिर में भी दर्शन करने गया. वापस आते समय मेरी दृष्टि पीठ के किनारे पर अंकित चित्रकारी पर पड़ी. मैं विस्मित होकर उसे देखता ही रहा गया. मुझे ऐसा लग रहा था कि इस प्रकार की चित्रकारी मैंने कहीं देखी है, परन्तु बहुत ध्यान देने पर भी मुझे यह याद नहीं आया कि वैसी चित्रकारी मैंने कहां पर देखी है.
दो दिन मैं अत्यधिक विकल रहा. तीसरे दिन पंजाब मेल से वापसी यात्रा के समय एकाएक मुझे ध्यान आया कि ऐसी ही चित्रकारी ताजमहल की वेदी के चारों ओर है. सायं साढ़े चार बजे घर पहुँचा और बिना हाथ-पैर धोये साईकिल उठा कर सीधा ताजमहल चला गया. वहाँ जाकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही कि ताजमहल के मुख्य द्वार एवं तत्रयम्बकेश्वर मन्दिर की पीठ की चित्रकारी में अद्‌भुत साम्य था. कहना न होगा कि त्रयम्बकेश्वर का मन्दिर शाहजहाँ से बहुत पूर्व का है.
सन्‌ 1981 में मुझे भुसावल स्थिल रेलवे स्कूल में कुछ दिन के लिय जाना पड़ा. यहाँ से बुराहनुपर मात्र 54 कि. मी. दूर है तथा अधिकांश गाड़ियाँ वहाँ पर रुकती हैं. एक रविवार को मैं वहाँ पर चला गया. स्टेशन से तांगे द्वारा ताप्ती तट पर जैनाबाद नामक स्थान पर मुमताजमहल की पहली कब्र मुझे अक्षुण्य अवस्था में मिली. वहाँ के रहने वाले मुसलमानों ने मुझे बताया कि शाहजहाँ की बेगम मुमताजमहल अपनी मृत्यु के समय से यहीं पर दफन है.
उसकी कब्र कभी खोदी ही नहीं गई और खोद कर शव निकालने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, क्योंकि इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता. किसी-किसी ने दबी जबान से यह भी कहा कि वे यहाँ से मिट्‌टी (खाक) ले गये थे. सन्‌ 1981 ई. तथा सन्‌ 1986 ई. के मेरे भुसावल के शिक्षणकाल में मैंने सैकड़ों रेल कर्मियों को यह कब्र दिखाई थी. श्री हर्षराज आनन्द काले, नागपुर के पत्र दिनांक 08/10/1996 के अनुसार उनके पास पुरातत्व विभाग के भोपाल कार्यलय का पत्र है जिसके अनुसार बुरहानपुर स्थित मुमताज़ महल की कब्र आज भी अक्षुण्य है अर्थात्‌ कभी खोदी ही नहीं गई.
पिछले 22 वर्ष से मैं ताजमहल पर शोधकार्य तथा इसके प्रचार-प्रसार की दृष्टि से जुड़ा रहा हूँ. इस पर मेरा कितना श्रम तथा धन व्यय हुआ इसका लेखा-जोखा मैंने नहीं रखा. इस बीच मुझे अनेक खट्‌टे-मीठे अनुभवों से दो-चार होना पड़ा है. उन सभी का वर्णन करना तो उचित नहीं है, परन्तु दो घटनाओं की चर्चा मैं यहाँ पर करना चाहूँगा…
जारी …
– प्रतुल वशिष्ठ जी के ब्लॉग से साभार
(नोट: लेख में दी गयी जानकारियाँ और फोटो प्रमाण राष्ट्रहित के लिए एवं भारत की जनता को अपने वास्तविक इतिहास के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से अन्य websites से साभार ले रहे हैं. यदि इनके उपयोग से सम्बंधित वेबसाइट मालिक को आपत्ति हों तो कृपया सूचित करें. हम उसे तुरंत हटा लेने के लिए वचनबद्ध हैं. धन्यवाद )
श्री प्रतुल वशिष्ठ के ब्लॉग से मिली  सामग्री के पश्चात इस विषय पर एवं श्री कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के विषय में खोज करने पर उनका मूलभूत लेखन प्राप्त हुआ और साथ ही ज्ञात हुआ कि ताजमहल एक शोध को उन्होंने पुस्तक रूप में भी प्रकाशित किया है. इस बारे में और अधिक सामग्री विभिन्न वेबसाइट पर प्राप्त हुई जिसे नीचे जोड़ा जा रहा है.
श्री वी. एस. गोडबोले के सौजन्य से मेरे पास इंग्लैण्ड से अनेक व्यक्ति ताजमहल दिखा देने का आग्रह ले कर आये. इस प्रकार मेरी प्रसिद्धि में वृद्धि हुई क्योंकि आम भारतीय आज भी विदेशियों को अति महत्व देता है. एक दिन मुझे सूचित किया गया कि रेलवे बोर्ड के एक बहुत बड़े अधिकारी सपरिवार ताजमहल देखने आ रहे हैं तथा उनका आदेश है कि गाइड के रूप में मुझे ही साथ भेजा जाए.
दूसरे दिन ताज एक्सप्रेस से उक्त अधिकारी (एक कल्पित नाम रख लेते हैं श्री आयंगर) उनकी पत्नी एवं उनकी साली आये. पति पत्नी 45-50 वर्ष तथा साली लगभग 24-25 वर्ष की थी. हम लोग ताजमहल पहुँच गये. ज्यों ही मैंने अपनी परिचित शैली में ताजमहल दिखाना प्रारम्भ किया त्यों ही श्रीमतीआयंगर ने उसे काटना प्रारम्भ कर दिया.
No! No! it is clear Mughal style…. (नहीं ! नहीं यह तो स्पष्ट मुगल कला है……….आदि आदि) यद्यपि श्री आयंगर चुप थे पर स्पष्ट पता लग रहा था कि वे दब्बू तथा अपनी पत्नी से प्रभावित थे. उस महिला ने मुझे एक भी तर्क नहीं रखने दिया. अधिकारी की पत्नी से मैं बहस भी तो नहीं कर सकता था. अतः मैंने शीघ्र से शीघ्र उनके पीछा छुड़ाना उचित समझा तथा कुछ दर्शनीय स्थलों को छोड़ता हुआ मैं उन्हें लेकर सीधा कब्र वाले कक्ष में प्रवेश कर गया.
अचानक आश्चर्यजनक घटना घट गईं अब तक चुपचाप चलने वाली श्रीमती आयंगर की बहन दौड़ कर एक स्तम्भ से चिपट गई और बोली, ‘Look here Didi. this is Kalyan Stambham, a typical of our south Indian temples.’ (इधर देखों दीदी ! यह कल्याण स्तम्भम्‌ है, जो अपने दक्षिण भारत के मन्दिरों की विशिष्ट है.) वह वाचाल महिला चुप साध गई. कहना न होगा कि तत्पनश्चात मैंने उन्हं सूर्य चक्र ”ऊँ” आदि वह सारे स्थल दिखाये जो मैं छोड़ गया था. विदा होते समय श्रीमती अयंगर ने अपने व्यवहार के लिये न केवल खेद व्यक्त किया अपितु क्षमता याचना भी की तथा थंजावूर आने का निमंत्रण भी दिया, पर मैं जीवन-पर्यन्त उनकी अनुजा का ऋणी रहूँगा.
आगरा के प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी श्री छेदीलाल जी अग्रवाल के सौजन्य से एक दिन दोपहर दो बजे ताजमहल दर्शन का कार्यक्रम बना. हम लोग ताजमहल के मुख्य द्वार के निकट एकत्र हुए तो ज्ञात हुआ कि कुछ लोग अभी नहीं आये हैं, अस्तु. उनकी प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया गया. श्री छेदीलाल जी उन दिनों अस्वस्थ चल रहे थे, अतः मैंने उन्हें सलाह दी कि आप हृदय रोगी हैं अतः द्वार के अन्दर जाकर छाया में बैठ कर हम लोगों की प्रतीक्षा करें.
श्री छेदीलाल जी चले गये. कुछ देर पश्चात्‌ सबसके आ जाने पर जब हम लोग अन्दर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि हृदय रोगी श्री छेदीलाल जी भागते हुए हमारी ओर आ रहे हैं. आते ही हाँफते हुए उन्होंने मुझसे कहा, ‘पाण्डेय जी ! पाण्डेय जी !! मैंने अभी सैकड़ों हजारों की संख्या में गणेश प्रतिमायें देखी हैं.” मैंने मुस्कारते हुए उनसे कहा, ”आपके गणेश दर्शन को सार्थक करते हुए मैं आज गणेश दर्शन से ही ताजमहल दर्शन का श्रीगणेश करूँगा. यद्यपि श्री छेदीलाल जी का प्राँगण में गणेश प्रतिमाएं होने का तो ज्ञान था, परन्तु निश्चित स्थान उन्हें ज्ञात नहीं था. उनकी खोजी दृष्टि ने वह खोज लिया जो लाखों व्यक्ति नित्य ताजमहल निहार कर भी न खोज पाने के कारण गणेश-दर्शन से वंचित रह जाते हैं.
इस पुस्तक के लेखन में मुझे अनेक सज्जनों का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त हुआ है और उनके प्रति यदि आभार प्रकट न किया जाए तो यह अशिष्टता ही नहीं कृतघ्नता भी होगा. सबसे पहले मैं आभारी हूँ श्री पुरुषोत्म नागेश जी ओक का जिन्होंने मुझे ताजमहल का सच्चा स्वरूप बताया. श्री वी. एस. गोडबोले : इंग्लैण्ड, श्री अशोक आठवले : कानपुर, श्री विजय बेडेकर : ठाणे एवं पं. भास्कर गोपाल केसकर : भाग्यनगर का.
इन बन्धुओं का भी मुझे विशेष सहयोग रहा. न सभी सज्जनों को मैं नमन करता हूँ. इसके अतिरिक्त मैं श्री गोपाल गोडसे तथा सूर्य भारतीय प्रकाशन का ह्रदय से आभारी हूँ जिनके सक्रिय सहयोग से यह पुस्तक आप के कर-कमलों तक पहुँ सकी है. सम्भव है कुछ नाम मुझे विस्मृत हो गये हों पर उन सभी महानुभावों का भी मैं आभार व्यक्त कर रहा हूँ जिनका प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सहयोग मुझे मिलता रहा है और उनके नाम मैं न देने पाने के कारण लज्जित भी हूँ, क्षमा प्रार्थी भी हूँ.
मेरे पूरे परिवार जिसमें मेरे पुत्र, पुत्र-वधुएँ, कन्या, दामाद एवं उनकी संतानें भी सम्मिलित हैं के अतिरिक्त सहधर्मिणी का सहयोग भी मुझे आशातीत मिला. इन सभी को मैं तन्मय होकर शुभार्शीवाद दे रहा हूँ. सबसे अन्त में मैं उन नवयुवक की प्रशंसा करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ जिसने लगातार उकसा-उकसा कर मुझे इस पुस्तक को प्रकाशित कराने के लिए बाध्य कर दिया. उस नवयुवक का नाम है पं. अवधेश भार्गव, गुरसहायगंज (जिला : फरुर्खाबाद, उ. प्र.)
आगरा : शरद पूर्णिमा (गुरूवार) युगाब्द ५०९९
(आश्विन शुक्ल १५ वंवत्‌ २०५४)
दि. १६ अक्टूबर, १९९७
विनीत
पं. कृष्णकुमार पाण्डे
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तेजोमहालय – 2 : बादशाहनामा में शाहजहाँ ने खुद दिए थे प्रमाण,…
  • तेजोमहालय – 2 : बादशाहनामा में शाहजहाँ ने खुद दिए थे प्रमाण, राजा मानसिंह के भवन में दफनाया था मुमताज़ को!
हमारे आस-पास दैनिक घटनाओं का एक चक्र सतत प्रवाहमान रहता है. उनमें से कुछ प्रमुख एवं महत्वपूर्ण घटनाएं इतिहास में भी स्थान पा जाती हैं. इतिहास में अंकित यह घटनाएँ प्रायः विवाद का विषय रही हैं.
कारण, इतिहास-लेखन होने तक अधिकांश प्रत्यक्षदर्शी एवं अंतरंग जानकार या तो इस संसार से प्रस्थान कर चुके होते हैं अथवा कई कारणों से मुख नहीं खोल पाते. एक अन्य कारण भी है. कुछ स्वार्थी एवं सम्बद्ध-पक्ष घटनाओं के सत्यपक्ष पर भ्रम का ऐसा पर्दा डाल देते हैं कि वह उजागर होकर जन-साधारण तक आ ही नहीं पाती एवं समय-अन्तराल की धूल उस पर लगातार जमती रहती है तथा उसे और अधिक प्रच्छन्न कर देती है.
ऐसी दशा में इतिहास-लेखन अत्यन्त क्लिष्ट कार्य हो जाता है. इतिहास लेखक को निष्पक्ष होने के साथ ही साथ उसकी अत्यन्त खोजपूर्ण दृष्टि का होना भी अति आवश्यक है. इस दृष्टि के लिये स्वातंत्र्य वीर सावरकर एवं वृन्दावनलाल वर्मा के नाम गौरव से लिये जा सकते हैं, जिन्होंने अतीत के लुप्त सूत्रों को जोड़ते हुए सत्य का सुन्दर कालीन बुन डाला ऐसा ही एक उदाहरण ताजमहल है.
आज प्रत्येक पुस्तक, नाटक, कविता, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के माध्यम से लगातार यही बताया जाता है कि ताजमहल को शाहजहाँ ने बनवाया था. प्रतिदिन ताजमहल देखने आने वाले देसी-विदेशी यात्रियों को भी अधकचरे गाइड यही घुट्‌टी पिलाते हैं एवं इसे रोचक बनाने के लिये अनेक घटनाएँ तथा कहानियाँ जोड़ देते हैं. यथा, शाहजहाँ की पटरानी अत्यन्त सुन्दरी थी, शाहजहाँ उससे प्राणपण से प्रेम करता था, मरते-समय रानी ने सम्राट्‌ से वचन लिया था कि वह रानी के लिये एक भव्य-स्मारक का निर्माण करायेगा आदि-आदि.
सन्‌ 1965 में श्री पु. ना. ओक ने इस मत का सशक्त खण्डन प्रबल प्रमाणों के आधार पर किया था, परन्तु उस समय के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष-जनों ने इसे मात्र हिन्दुत्व के प्रधान्य को सिद्ध करने का प्रयास-मात्र मानकर गम्भीरता से नहीं लिया. फिर भी, सत्यान्वेषणार्थियों को एक मार्ग तो मिल ही गया था.
शोध चलता रहा. भारत में कम, भारत के बाहर अधिक कार्य हुए. आज ऐतिहासिक, पुरातात्विक, वास्तु एवं स्थापत्य कला के ही नहीं अपितु पुष्ट वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि जैसा ताजमहल हम आज देख रहे हैं वैसा ही शाहजहाँ के जन्म से पूर्व भी खड़ा था. शाहजहाँ ने उसमें कब्र बनवाई है, कुरान की आयतें लिखवाई हैं एवं कुछ छोटे-मोटे अन्य परिवर्तन ही कराये हैं. आइये सत्यशोधन हेतु हम शाहजहाँ के समकालीन एवं पराकालीन लेखों एवं प्रमाणों की निष्पक्ष समीक्षा करें.
सबसे पहले  हम शाहजहाँ के स्वयं द्वारा अनुमोदित अभिलेखों की समीक्षा करें तो पायेंगे कि शाहजहाँ बड़ी स्पष्टता एवं ईमानदारी के साथ कहता है कि रानी का स्वर्गवास बुरहानपुर में हुआ था तथा उसे वहीं दफना दिया गया था. बाद में उसका शव अकबराबाद (आगरा) लाया गया एवं उसे राजा मानसिंह के भव्य भवन में, जो उस समय उनके नाती राजा जयसिंह के स्वामित्व में था, दफना दिया गया था.
भवन के बारे में वह बताता है कि वह भव्य-भवन विशाल फलदार वृक्षों से घिरा आकाश चुम्बी है एवं उसके ऊपर गुम्बज है. इस सारे वर्णन में शाहजहाँ न तो भवन तोड़ने की बात कहता है और न ही किसी प्रकार के नये निर्माण की ही. वह तो बिना लाग-लपेट स्पष्ट कहता है राजा जयसिंह से भवन लेकर उसमें रानी के शव को दफनाया था. पाठकों को इस कथन पर सन्देह हो रहा होगा कि यह असम्भव कथन शाहजहाँ द्वारा अनुमोदित कैसे हो सकता है? आइये प्रमाण देखें.
प्रथम मुगल बादशाह बाबर अपनी दैनिकी लिखता था, जिसमें वह प्रत्येक दिन की घटित घटनाओं का सटीक वर्णन लिखता था. जब वह भारत आया तो यहाँ पर उपलब्ध सब्जियों-फलों के नाम तथा भाव, अपने देश से उनकी तुलना आदि उसने सभी कुछ लिखा है. यह पुस्तक ”बाबरनामा’ कहलाई. इसी प्रथा को आगे बढ़ाया अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने, परन्तु थोड़ा बदल कर.
उन्होंने स्वयं न लिखकर अपने दरबार में एक विद्वान्‌ को इतिहास लेखन के लिये नियुक्त किया, जिन्होंने इन बादशाहों के काल में घटित घटनाओं का कहीं सत्य तथा कहीं अतिरंजित वर्णन किया, क्योंकि स्पष्ट है कि निष्पक्ष इतिहास लेखन इनका विषय न होकर अपने शाह का चरित्र ऊँचा दिखना और उसे प्रसन्न रखना ही इनका इष्ट था. इस प्रकार दरबारी भाँडों, भाटों एवं चारणों में तथा इनमें मात्र इतना ही अन्तर था कि इनका पद गरिमामय था तथा इनकी भाषा साहित्यिक थी. अस्तु, हमको इस अतिरंजना से बचते हुए सत्यान्वेषण करना है.
तो हम बता रहे थे कि अकबर के काल में ”आइन-ए-अकबरी’ एवं जहाँगीर के काल में ‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ लिखी गईं जब शाहजहाँ शासनारूढ़ हुआ तो उसे भी एक ऐसे ही विद्वान्‌  की आवश्यकता हुई जो दरबार में इस पद को सम्भाले. उस समय पटना में मुल्ला अब्दुल हमीद लाहोरी अपने अवकाश के दिन व्यतीत कर रहे थे. उन्हें सादर दरबार में बुलाया गया तथा इस कार्य पर नियुक्त किया गया.
मुल्ला ने 1600 पृष्ठों में शाहजहाँ काल के पहले 20 वर्षों का इतिहास लिखा है जिसका नाम ‘बादशाह नामा’ रखा गया. मुल्ला का मूल लेखन फारसी में है तथा इसका सर्वप्रथम प्रकाशन बंगाल की रॉयल एशियटिक सोसायटी द्वारा किया गया था, सन्‌ 1867 में. इसके मुख्य सम्पादक थे मेजर डब्ल्यू. एन. लीसे तथा सम्पादक मण्डल में थे मौलवी कबीर अलदीन तथा मौलवी अब्द अल रहीम. संयोग देखिये दो मुस्लिम और एक ईसाई. आइये देखें, इस पुस्तक में मुल्ला अब्दुल हमीद लाहोरी ताजमहल के बारे में क्या लिखता है?
उक्त बादशाहनामा तीन खण्डों में है. इस 1600 पृष्ठों के महाग्रन्थ में ताजमहल के बारे में मात्र एक दो-पृष्ठ ही लिखे गऐ हैं. जिस ताजमहल के बारे में संसार-भर में सैकड़ों लेखकों, कवियों और इतिहासकारों ने लाखों पृष्ठ लिख डाले, यदि उसे शाहजहाँ ने बनाया होता तो क्या लाहोरी स्वयं उसका अतिरंजित वर्णन नहीं करता?जैसा कि पराकालीन लेखकों ने लिखा है. क्या समकालीन मुल्ला स्वयं नहीं लिख सकता था कि सारे संसार से अभिकल्प (डिजायन) मँगाये गये, पर शाहजहाँ को कोई नहीं भाया, फिर एक भा गया. किस -किस प्रकार से मूल्यवान पत्थर कितनी मात्रा में तथा किस भाव में मँगाये गये थे, आदि. बादशाहनामा में यह भी लिखा होता कि इस भवन की नींव कब रखी गई, कितने दिनों में यह तैयार हुआ एवं इसमें कितने मजदूरों-कारीगरों आदि ने कार्य किया था.
बादशाहनामा के प्रथम खण्ड के पृष्ठ 402 पर 22 पंक्तियाँ लिखी गई हैं इनमें से प्रथम 20 पंक्तियों में जिस घटना का वर्णन है, उसका सम्बन्ध ताजमहल से नहीं है. पंक्ति क्र. 21 तथा 22 एवं पृष्ठ 403 की 19 पंक्तियों में इस घटना का पूर्ण एवं रोचक वर्णन किया गया है. यहाँ पर पहले मूल फारसी पाठ को नागरी लिपि में दे रहा हूँ. उर्दू के जानकार पाठक उससे कुछ अनुमान लगा सकेंगे. तत्पश्चात्‌ उसका हिन्दी रूपान्तर पाठकों के हित के लिये दे रहा हूँ. हिन्दी अनुवाद अंग्रेजी लेख को देखकर किया गया एवं हिन्दी में ऐसा प्रथम प्रयास है, अस्तु. सम्भव है किसी स्थल पर उपयुक्त शब्द न लिखा गया हो. यदि पाठकगण ऐसी किसी भूल को इंगित करेंगे तो आभारी रहूँगा.
बादशाहनामा पृष्ठ 402 की अन्तिम 2 पंक्तियां –
21. रोज़ ए जुमा हफ्दहूम जमाद इल अव्वल नाशे मुक़द्‌दसे मुसाफिरे अक्लीमे,
22. मुकद्‌दुस हज़रत मेहद आलिया मुमताज़ उजजमानीरा केह बा तारीक ए अ अमानत मुदाफून
हिन्दी अनुवाद पृष्ठ 402 बादशाहनामा –
21. शुक्रवार 17 जमादिल अव्वल साम्राज्य की यात्री का वह पवित्र शव.
22. पाक हजरत मुमताज़ उल ज़मानी का जो अस्थायी रूप से दफनाया गया था को भेजा गया.
बादशाहनामा पृष्ठ 403 की प्रथम 19 पंक्तियाँ
1. बूद मसाहूब ए बादशेहजादए नामदार मुहम्मद शाह शुजा बहादुर अ वजीर खान,
2. वा सती उन्‌निसा खानम केह बा मिज़ाज़शानासी वा कारदानी बा दारजा ए आओलई पेश,
3. दास्ती व वकालत एलान मालिके जहान मलिकाए जहानियान रसीदेह बूद, वाने-ए
4. दारुल खलाफाएं अकबराबाद नामूदन्द वा हुक्म शुद केह हर रोज़ दर राह आश ए बिसीयार
5. वा दाराहीम व दानानीरे बेशुमार बा फुक्रा वा नयाज़्मदान बीबीहन्द, वा जमीने दर
6. निहायत रिफात वा निजाहत केह जुनूबरू ए आन मिस्र जामा अस्त वा
7. पेश अज़ एैन मंज़िल ए राजाह मानसिंह बूद वदारी वक्त बा राजाह जयसिंह
8. नबीर ए ताल्लुक दश्त बारा-ए-मदफान ए आन बहिश्त मुवात्तन बार गुज़ीदन्द
9. अगर चेह राजा जयसिंह हुसूल ए एैन दावलातरा फोज़े अज़ीम दानिश्त अनमाब
10. अज़रू ए एहतियात के दर जमीय ए शेवन खुसूसन उमूरे दीनीएह नागुजिर अस्त
11. दर अवाज़ आन आली मज्जिल ए अज़ खलीसा ए शरीफाह बदू मरहत फरमूदन्द
12. बाद अज रसीदाने नाश बा आन शहर ए करामत बहर पंजदहून ज़मादी उस्‌ सानी एह।
13. सालए आयन्देह पैकारे नूरानी ए आन आसमानी जौहर बा खाके पाक सिपुर्देह आमद
14. वा मुतसद्‌दीयान-ए-दारुल खिलाफाह बा हुक्मे मुअल्ला ए अजालातुल वक्त तुरबत ए फलक मरताबते
15. आनजहाऩ इफ्फत्रा अज नज़र पोशीदन्द वा इमारते ए आलीशान वा गुम्बजे
16. रफी बुनियान केह ता रस्तखीज़ दर बलन्दी यादगारे हिम्मत ए गर्दून रिफात
17. हजरते साहिब करह ए सानी बाशेद वा दर उस्तुवारी नमूदारे इस्तीगमत
18. अजायम बनी तरह अफगन्दन्द वा मुहन्दिसाने दूरबीन बा मैमारान ए सानत
19. आफरीन चिहाल लाख रुपियाह अखरजते एैन इमारत बर आवुर्द नमूनदन्द
बादशाह नामा के पृष्ठ 403 का हिन्दी अनुवाद
1. साथ में थे राजकुमार मुहम्मद शुजा बहादुर, वजीर खान.
2. और सती उन्‌ निसा खानम जो परलोकगामिनी की प्रकृति से विशेष परिचित थी.
3. और अपने कर्त्तव्य में अत्यन्त निपुण थी तथा उस रानियों की महारानी के विचारों का प्रतिनिधित्व करती थी, आदि.
4. उसे (पार्थिव शरीर को) राजधानी अकबराबाद (आगरा) लाया गया और उसी दिन एक आदेश प्रसारित किया गया.
5. यात्रा के समय (मार्ग में) अनगिनत सिक्के फकीरों और गरीबों में बाँटे जाएं वह स्थल.
6. महान्‌ नगर के दक्षिण में स्थित विशाल मनोरम रसयुक्त वाटिका (बाग) से घिरा हुआ, और
7. सके बीच का वह भवन जो मानसिंह के महल के नाम से प्रसिद्ध था, इस समय राजा जयसिंह के स्वामित्व में था.
8. जो पौत्र थे, कोरानी को दफपाने के लिये चुना गया जिसका स्थान अब स्वर्ग में था.
9. यद्यपि राजा जयसिंह इस अत्यन्त प्रिय पैत्रक सम्पत्ति को उपहार में दे सकते थे,
10. फिर भी अत्यन्त सतर्कता बरतते हुए जो धार्मिक पवित्रता तथा गमी के समय अति आवश्यक है.
11. उस महान भवन के बदले उन्हें सरकारी भूमि का एक टुकड़ा दिया गया.
12. 15 जमादी उस सानी को उस महान्‌ नगर में पार्थिव शरीर आने के बाद,
13. अगले वर्ष उस भव्य शव को पवित्र भूमि को सौंप दिया गया.
14. उस दिन राजकीय आदेश के अन्तर्गत राजधानी के अधिकारियों ने उस आकाश चुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर,
15. उस धार्मिक महिला को संसार की दृष्टि से छिपा दिया, उस महान भवन में जिस पर गुम्बज है.
16. जो अपने आकार में इतना ऊँचा स्मारक है, आकाश आयामी साहस.
17. साहिब क़रानी सानी (सम्राट) का और शक्ति में इतना पुष्ट.
18. अपने संकल्प में इतनी दृढ़-नींव रखी गई और दूरदर्शी ज्यामितिज्ञों और कुशल कारीगरों (द्वारा)
19. इस भवन पर चालीस लाख रुपये व्यय किये गये.
उपरोक्त लेख का सारांश निम्न प्रकार बनता है :
‘मुमताज़ उज ज़मानी का पार्थिव शरीर 17 जमादिल अब्बल को आगरा भेजा गया जो वहाँ पर 15 जमादिलसानी को पहुँचा था. शव को दफनाने के लिये जो स्थ्ल चुना गया, वह नगर के दक्षिण स्थित राजा मानसिंह के महल के नाम से जाना जाता था. वह महल आकार में विशाल, भव्य, गगनचुम्बी गुम्बजयुक्त एवं बहुत विशाल बाग से घिरा था. अगले वर्ष राजाज्ञा से अधिकारियों ने शव को दफनाया. कुशल ज्यामितिज्ञों एवं कारीगरों को लगाकर (कब्र बनाने की) नींव डाली और इमारत पर 40 लाख रुपये व्यय हुआ.” इससे निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट उभर कर सामने आते हैं :
1. रानी को राजा मानसिंह के महल में दफनाया गया था.
2. जिस महल में दफनाया गया था उसके वर्णन में और आज के ताजमहल में विचित्र साम्य है, कोई अन्तर नहीं है.
3. महल को गिराने का कहीं वर्णन नहीं है.
4. (गिरा कर पुनः बनाया गया, ऐसा वर्णन न होने पर भी) जिस समय दफनाया गया था उस समय वह बड़ी समाधि आकाश चुम्बी, महान एवं गुम्बज युक्त थी.
5. दफनाते समय शाहजहाँ उपस्थित नहीं था.
6. अगले वर्ष दफनाया गया था. रानी की मृत्यु बरहानपुर में हुई थी तथा उसे वहीं दफना दिया गया था. उसे वहाँ से निकालकर आगरा इसलिये लाया गया होगा कि यहाँ पर कोई विशेष प्रबन्ध उसे दफनाने के लिये किया गया होगा.
यदि विशेष प्रबन्ध नहीं था तो शव आगरा लाया क्यों गया था? कुछ दिन वहीं दफन रहने दिया होता. यदि आगरा शव आ ही गया था तो उसे तुरन्त दफना कर 10 वर्षों बाद भी 22 वर्ष तक समाधि बनाई जा सकती थी? क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि शव आने तक भवन उपलब्ध नहीं था अथवा उसमें आवश्यक फेर बदल किये जा रहे थे क्योंकि भवन देर से उपलब्ध हो सका था.
पाठकगण एक बात पर और ध्यान दें कि शाहजहाँ अपनी परम प्रियरानी को दफन करने स्वयं नहीं आया था.
बादशाहनामा में स्वयं में यह पूरी घटना है. इसके आगे 10-12 या 22 वर्ष तक ताजमहल बनने का कोई विवरण नहीं है. लाहोरी के अनुसार अगले वर्ष दफ़न करने के साथ कब्र बनाई एवं काम पूरा हो गया. बाद में जो कुछ अन्य लेखकों द्वारा अन्यत्र लिखा गया वह झूठ एवं कल्पना पर आधारित ही माना जाएगा. उसका समकालीन प्रमाण कोई उपलब्ध नहीं है.
जारी …
– प्रतुल वशिष्ठ जी के ब्लॉग से साभार
(आगरा निवासी पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी जो अब 80 (लेख 2010-11 में लिखे गए हैं) वर्ष से अधिक आयु के हैं. उनके ‘ताजमहल’ विषयक शोध को क्रमवार देने का मन हो आया जब उनके विचारों को पढ़ा. सोचता हूँ पहले उनके विचारों को ज्यों का त्यों रखूँ और फिर उनके जीवन पर भी कुछ प्रकाश डालूँ. जो हमारी सांस्कृतिक विरासत पर से मिथ्या इतिहास की परतों को फूँक मारकर दूर करने का प्रयास करते हैं प्रायः उनके प्रयास असफल हो जाया करते हैं. इसलिए सोचता हूँ उनकी फूँक को दमदार बनाया जाए और मिलकर उस समस्त झूठे आवरणों को हटा दिया जाए जो नव-पीढ़ी के मन-मानस पर डालने के प्रयास होते रहे हैं. तो लीजिये प्रस्तुत है पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के शब्दों में ….. ताजमहल की असलियत … एक शोध –  प्रतुलजी)
(नोट: लेख में दी गयी जानकारियाँ और फोटो प्रमाण राष्ट्रहित के लिए एवं भारत की जनता को अपने वास्तविक इतिहास के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से अन्य websites से साभार ले रहे हैं. यदि इनके उपयोग से सम्बंधित वेबसाइट मालिक को आपत्ति हों तो कृपया सूचित करें. हम उसे तुरंत हटा लेने के लिए वचनबद्ध हैं. धन्यवाद )
तेजोमहालय-3 : शाहजहाँ ने कभी नहीं कहा उसने बनवाया ताजमहल, फिर किसने की इतिहास से छेड़छाड़?

बादशाहनामा का विश्लेषण
अर्जुमन्द बानो बेगम या मुमताउल जमानी शाहजहाँ की रानी थी. इसको बादशाहनामा के खण्ड एक के पृष्ठ 402 की अंतिम पंक्ति में भी इसके मुमता-उल-जमानी नाम से ही सम्बोधित किया गया है, न कि मुमताजमहल के नाम से. इतिहासकार इसके जन्म, विवाह एवं मृत्यु की तारीखों पर सहमत नहीं हैं. हमारी कथावस्तु पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः हम इसका जन्म सन्‌ 1593 तथा शाहजहाँ से विवाह सन्‌ 1612 मान लेते हैं.
अप्रतिम सुन्दरी नूरजहाँ मिर्जा ग्यास बेग की पौत्री एवं ख्वाजा अबुल हसन वा यामीनउद्‌दौला आसफखान की पुत्री अर्जुमन्द बानो शाहजहाँ की पटरानी नहीं थी. शाहजहाँ का प्रथम विवाह परशिया के शासक शाह इस्मायल सफवी की प्रपौत्री से हुआ था, जबकि मुमताज से सगाई पहले ही हो चुकी थी.
अर्जुमन्द बानों ने 8 पुत्रों एवं 6 पुत्रियों को जन्म दिया था एवं अपनी चौदहवीं सन्तान को जन्म देते समय इसका देहान्त बरहानपुर में 17 जिल्काद 1040 हिजरी तदनुसार 7 जून सन्‌ 1631 को हुआ था. (बादशाहनामा खण्ड, दो पृष्ट 27). इसको वहीं पर ताप्ती नदी के तट पर दफना दिया गया था. यह कब्र भी उपलब्ध है तथा इसकी देख-रेख लगातार वहाँ के निवासियों द्वारा की जाती है. उनका मानना है कि रानी का शव आज भी कब्र में है अर्थात्‌ न कब्र खोदी गई एवं न शव ही निकाला गया.
इसके विपरीत बादशाहनामा खण्ड एक, पृष्ठ 402 की 21वीं लाइन में लिखा है कि शुक्रवार 17 जमादिल अव्वल को हजरत मुमताज-उल-जमानी का पार्थिव शरीर (बरहानपुर से) भेजा गया जो अकबराबाद (आगरा) में 15 जमाद उल सान्या को आया (बादशाहनामा खण्ड एक पृष्ठ 403 की 12वीं पंक्ति).
शव आगरा लाया अवश्य गया था, परन्तु उसे दफनाया नहीं गया था. शव को मस्जिद के छोर पर स्थित बुर्जी (जिसमें बावली है) के पास बाग में रखा गया था जहाँ पर आज भी चार पत्थरों की बिना छत की दीवारें खड़ी हैं. बादशाहनामा खण्ड एक के पृष्ठ 403 की 13वीं पंक्ति के अनुसार अगले वर्ष (कम से कम 6-7 मास बाद) तथा पंक्ति 14 के अनुसार ‘आकाश चुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर) शव को दफनाया गया.
बादशाहनामा के उपरोक्त कथनों से एक बात सुस्पष्ट होकर उभरती है कि 15 जमाद उल सानी 1041 हिजरी तदनुसार 8 जनवरी सन्‌ 1632 को जब रानी का पार्थिव शरीर आगरा आया, उस समय उसे दफनाया नहीं गया. क्यों? क्योंकि उसे आकाशचुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर दफनाना था जो शायद तैयार (दफनाने योग्य दशा में) नहीं रही होगी.
किसी शव को दफनाने के लिये किसी भवन की आवश्यकता नहीं होती. शव को उसी दिन अथवा सुविधानुसार 3-4 दिन पश्चात्‌ भूमि में गड्‌डा खोदकर दफना दिया जाता है तथा उसे भर दिया जाता है. उस पर कब्र तथा कब्र के ऊपर रौज़ा या मकबरा कभी भी, कितने भी दिनों बाद तथा कितने ही वर्षों तक बनाया जा सकता है.
शव को अगले वर्ष भवन में दफनाने के वर्णन से स्पष्ट है कि इसी बहाने भवन प्राप्त करने का षड्‌यन्त्र चल रहा था तथा मिर्जा राजा जयसिंह पर जिन्हें अपनी पैतृक सम्पत्ति अत्यन्त मूल्यवान्‌ एवं प्रिय थी, उस भवन को शाहजहाँ को हस्तान्तरित कर देने के लिये जोर डाला जा रहा था या मनाया जा रहा था. अथवा यह भी सम्भव है कि भवन को प्राप्त करने के बाद उसमें शव को दफनाने के लिये आवश्यक परिवर्तन किये जा रहे थे. शव को आगरा में भवन मिल जाने की आशा में लाया गया था, परन्तु सम्भवतः राजा जयसिंह को मनाने में समय लगने के कारण उसे बाग में रखना पड़ा. यदि शाहजहाँ ने भूमि क्रय कर ताजमहल बनवाया होता तो शव को एक दिन के लिए भी बाग में रखने की आवश्यकता न होती.
शव को मार्ग तय करने में (बरहानपुर से अकबराबाद तक) लगभग 28 दिन लगे थे. पार्थिव शरीर को लाने राजकुमार गये थे. जाने में भी लगभग इतना ही समय लगा होगा. 2-4 दिन बरहानपुर में शव निकालने तथा वापिसी यात्रा की व्यवस्था में लगे होंगे. अर्थात्‌ 2 मास का समय राजकुमार के जाने के बाद लगा था. शव दफ़नाने की योजना इससे पूर्व बन गई होगी.
इतना समय उपलब्ध होने पर भी शव को (असुरक्षित) 6-7 मास तक बाग में रखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि भवन उपलब्ध था तो शव दफनाया क्यों नहीं गया और यदि भवन उपलब्ध नहीं था तो शव लाया क्यों गया? क्या इससे सुस्पष्ट नहीं कि शाहजहाँ को आशा रही होगी कि राजा जयसिंह मना नहीं करेंगे और इसी आशा में राजकुमार को भेज कर शव मँगवा लिया गया, परन्तु जयसिंह ने स्वीकृति नहीं दी. यह भी सम्भव है मिर्जा राजा जयसिंह के मना कर देने पर उन पर दबाव डालने की नीयत से ही शव को लाकर बाग में रख दिया गया हो. शव को दफ़नाने की तारीख न लिखना भी इसी शंका को बल देता है.
शव को बादशाहनामा के अनुसार अगले वर्ष गगनचुम्बी भवन में दफनाया गया. क्या इससे सिद्ध नहीं होता है कि ताजमहल जैसा आज दिखाई देता है उसी में रानी के पार्थिव शरीर को दफ़नाया गया था? अन्यथा क्या कुछ मास में गगनचुम्बी भवन का निर्माण किया जा सकता है, जिसके लिये अनेक लेखकों ने निर्माण काल 8-22 वर्ष तक का (अनुमानित) बताया है? क्या शाहजहाँ के लिये एक वर्ष से कम समय में ताजमहल बनाना सम्भव था? शाहजहाँ ने तो मात्र भवन को साफ करके कब्र बनाई थी एवं कुरान को लिखवाया था. शाहजहाँ ने कभी यह नहीं कहा कि उसने ताजमहल का निर्माण कराया था.
इतने सुस्पष्ट प्रमाणों के बाद भी सम्भव है कुछ पाठकों के मन में परम्परागत भ्रम शेष रह गया हो कि ताजमहल में नीचे वाली भूमितल स्थित कब्र, जिसे वास्तविक कहा जाता है वह भूमि के अन्दर खोद कर बनाई गई है एवं उस कब्र के ऊपर एवं चारों ओर यह विशाल एवं उच्च भवन खड़ा किया गया है वास्तव में तथ्य इसके विपरीत हैं.
जिस समय हम फव्वारों की पंक्तियों के साथ-साथ चलते हुए मुख्य भवन के समीप पहुँचते हैं, वहाँ पर छः सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद ही उस स्थल तक पहुँचते हैं जहाँ पर जूते उतारे जाते हैं. अर्थात्‌ हम लोग भूमितल से लगभग 4 फुट ऊपर जूते उतारते हैं. यहाँ से हम 24 सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाते हैं और पुनः 4 सीढ़ियां चढ़कर मुख्य भवन में प्रवेश करते हैं.
इन 24+4 अथवा 28 सीढ़ियों के बदले हम केवल 23 सीढ़ियां उतर कर नीचे की कब्र तक पहुँचते हैं. इस प्रकार भूमितल की कब्र जूते उतारने वाले स्थल से भी कम से कम तीन फुट ऊपर है जो ऊपर बताये अनुसार भूमितल से 4 फुट ऊपर था. इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि नीचे वाली कब्र भी पृथ्वी से 7 फीट ऊँची है जबकि इसे भूमि खोदकर बनाया जाना चाहिए था.
अगले पाठों में पाठकों को इस सत्य से भी परिचित कराया जायेगा कि इस तथाकथित नीचे वाली वास्तविक कब्र के नीचे भी कमरे आज भी स्थित हैं और जिनमें प्रवेश करने के मार्गों को बलात्‌ बन्द किया हुआ है. लेखक इसे सुनी सुनाई बात के आधार पर नहीं लिख रहा है, अपितु इन कमरों का स्वयं प्रत्यक्षदर्शी है.
अभी कुछ अन्य विज्ञ पाठकों की कुछ शंकाओं का समाधान होना रहा गया है. वे हैं बादशाहनामा की अन्तिम 2 पंक्तियों में आये शब्द (1) नींव रखी गई (2) ज्यामितिज्ञ, एवं (3) चालीस लाख रुपये.
यदि ऐसा होता तो उसे सम्बन्धित अन्य कामों का वर्णन भी होता. किसी काम को भी प्रारम्भ करने को भी मुहावरे में नींव रखना कहते हैं यथा ‘जवाहलाल नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखी थी.’ इसमें भूमि में गड्‌ढा खोदने से कोई तात्पर्य नहीं है, फिर भी यदि कोई इसके शाब्दिक अर्थ अर्थात्‌ खोदने को ही अधिक महत्व देता है तो उनके संतोष के लिये इतना ही पर्याप्त है कि दफनाने के लिये पहले खोदना तो पड़ता ही है चाहे वह छत या फर्श ही क्यों न हो.
रही ज्यामितिज्ञों की बात. ज्यामितिज्ञों की सबसे पहली आवश्यकता कब्र की दिशा निर्धारित करने के लिये ही होती हैं, कब्र हमेशा एक दिशा विशेष में ही बनाई जाती है. इसके अतिरिक्त ताजमहल देखते समय गाइडों ने आपको दिखाया एवं बताया होगा कि कुरान को इस प्रकार लिखा गया है कि कहीं से भी देखिये ऊपर-नीचे के सभी अक्षर बराबर दिखाई देंगे, ऐसा क्योंकर सम्भव हुआ? दूरदर्शी ज्यामितिज्ञों की गणना के आधार पर ही है.
अन्तिम संदेह चालीस लाख रुपयों पर है. यदि शाहजहाँ ने ताजमहल नहीं बनवाया था तो इतनी बड़ी धन राशि का व्यय कैसे हो गया. उस युग में चालीस लाख रुपया बहुत बड़ी राशि थी. बादशाहनामा में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इस राशि में कौन-कौन से व्यय सम्मिलित हैं मूलतः शाहजहाँ ने जो व्यय इस सन्दर्भ में किये थे वे इस प्रकार बनते हैं
(1) रानी के शव को बरहानपुर से मंगाना
(2) मार्ग में गरीबों तथा फकीरों को सिक्के बाँटना
(3) भवन के जिन कक्षों में कब्रे हैं उन्हें खाली कराना
(4) शव को दफ़न करना एवं कब्रें बनवाना
(5) भवन के ऊपर-नीचे के सभी कमरों को बन्द कराना
(6) मकराना से संगमरमर पत्थर मंगाना
(7) कुरान लिखाना एवं महरावें ठीक कराना
(8) मजिस्द में फर्श सुधरवाना तथा नमाज़ पढ़ने के लिए आसन बनवाना
(9) बगीचे में सड़क नहर आदि बनवाना
(10) रानी का शव जहाँ रखा गया था वहाँ पर घेरा बनवाना
(11) परिसर के बाहर ऊँचे मिट्‌टी के टीलों को समतल कराना आदि.
पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में यह कहना अति कठिन है कि उन चालीस लाख रुपयों में से उपरोक्त कौन-कौन से कार्य हुए थे. कुछ के अनुसार उक्त सारे कार्यों पर भी चालीस लाख रुपये व्यय नहीं आयेगा. ऊपर इंगित किया जा चुका है कि दरबारी चाटुकार अतिरंजित वर्णन करते थे अर्थात्‌ यदि दो लाख व्यय हुए होंगे तो चालीस लाख बखानेंगे. इस प्रकार मालिक भी प्रसन्न होता था तथा सुनने वाला भी प्रभावित होता था. दूसरा कारण यह भी था कि दो खर्च कर दस बता कर अपना घर भी सरलता से जरा भरा जा सकता था.
जारी …
– प्रतुल वशिष्ठ जी के ब्लॉग से साभार
(आगरा निवासी पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी जो अब 80 (लेख 2010-11 में लिखे गए हैं) वर्ष से अधिक आयु के हैं. उनके ‘ताजमहल’ विषयक शोध को क्रमवार देने का मन हो आया जब उनके विचारों को पढ़ा. सोचता हूँ पहले उनके विचारों को ज्यों का त्यों रखूँ और फिर उनके जीवन पर भी कुछ प्रकाश डालूँ. जो हमारी सांस्कृतिक विरासत पर से मिथ्या इतिहास की परतों को फूँक मारकर दूर करने का प्रयास करते हैं प्रायः उनके प्रयास असफल हो जाया करते हैं. इसलिए सोचता हूँ उनकी फूँक को दमदार बनाया जाए और मिलकर उस समस्त झूठे आवरणों को हटा दिया जाए जो नव-पीढ़ी के मन-मानस पर डालने के प्रयास होते रहे हैं. तो लीजिये प्रस्तुत है पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के शब्दों में ….. ताजमहल की असलियत … एक शोध –  प्रतुलजी)
(नोट: लेख में दी गयी जानकारियाँ और फोटो प्रमाण राष्ट्रहित के लिए एवं भारत की जनता को अपने वास्तविक इतिहास के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से अन्य websites से साभार ले रहे हैं. यदि इनके उपयोग से सम्बंधित वेबसाइट मालिक को आपत्ति हों तो कृपया सूचित करें. हम उसे तुरंत हटा लेने के लिए वचनबद्ध हैं. धन्यवाद )
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ताजमहल मंदिर है


ताजमहल मंदिर है और एक इस्लामिक ईमारत नहीं है इसके महापुख्ता सबूत नीचे देखें
1. क्या लाश को जमीन की जगह दूसरी या तीसरी मंजिल में दफनाया जाता है जैसे ताजमहल में है ?
2. विश्व मैं जितने भी इस्लामिक मकबरे हैं उन सबका मुंह काबा मक्का की तरफ है यानि सारे भारत के सभी मकबरों का मुंह पश्चिम की तरफ है लेकिन ताजमहल का मुंह दक्षिण की तरफ है स्वयं जाकर देख लें !
3. आप किसी भी मुस्लिम कब्रिस्तान मैं जाकर देख लीजिये आपको सभी कब्रों का मुंह पश्चिम की तरफ मिलेगा …..
4. शाहजहाँ की बेगम का नाम मुमताज उल जमानी था ..मुमताज महल नहीं था
5. अमेरिकन वैज्ञानिक मर्विन मिलर ने ताजमहल के एक द्वार का कुछ नमूना लेकर कार्बन टेस्ट विधि से चैक किया और बताया कि इसका निर्माण बाबर से भी सैकड़ों वर्ष पुराना है.
6.ताजमहल के नीचे उपस्थित शाहजहाँ निर्मित कब्रों के चारों ओर अनेक कक्ष हैं जिन्हें वर्षों पहले बंद कर दिया गया था.
7. ताजमहल के पीछे की ओर यमुना नदी बहती है जिस पर बने हुए घाट की एक अंग्रेज अधिकारी ने 19वी सदी में फोटो ली थी जिस घाट को अब तोड़ दिया गया है.
8. ताजमहल में अनेक जगह गणेश जी जैसी आकृतियाँ बनी हुई हैं.
9. ताजमहल में अनेक जगह पुराने निर्माण को छुपाती हुई नई चीजें नजर आएँगी जो उसके बहुत संदेहास्पद हैं.
10. शाहजहाँ के द्वारा जयपुर के राजा से ताजमहल मांगने के लिए भेजा गया पत्र आज भी वहां के किले के संग्रहालय में है.
11. ताजमहल का विशाल चबूतरा वास्तव में मन्दिर की दूसरी मंजिल है जिसके मुख्य द्वार को बाद में शाहजहाँ ने सीढियां बनवाकर छुपा दिया,आज भी सीढ़ियों के पीछे दीवार पर बनी नक्काशी को सीढियां आधा छुपा रही हैं.
12. चबूतरे के नीचे अनेक गुप्त कमरे हैं जिन्हें शाहजहाँ के समय से बंद कर दिया गया था. आज भी नीचे से दाई और बाई तरफ से जाने पर वे कमरे बाहर से दिखाई देते हैं.
13. ताजमहल के शीर्ष पर वैसा चन्द्रमा बना है जैसा भगवान शिव के मस्तक पर दिखता है और उस चन्द्रमा के बीच में कलश पर आम के पत्तों पर रखे नारियल की आकृति है जिसे हिन्दू लोग हर धार्मिक आयोजन में प्रतिष्ठित करते हैं जबकि इस्लाम में इस आकृति का जरा भी महत्व नहीं है.
14. विश्व के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. पुरुषोत्तम नागेश ओक द्वारा इस पर वर्षों के अनुसन्धान के बाद लगभग 108 ऐसे सबूत दिए गये जो इसे शिव मन्दिर सिद्ध करते हैं, इस विषय पर उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “ताजमहल एक मन्दिर” जरुर पढ़ें.
15.आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है| जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं| आगरा भरतपुर राजस्थान मैं
तेजा मंदिरों की पूरी फेहरिश्त है The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे| अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे| आगरा भरतपुर राजस्थान मैं कुछ प्रमुख तेजा मंदिर इस प्रकार हैं
1.वीर तेजा मंदिर जोधपुर राजस्थान जाट समाज जोधपुर के सौजन्य से , 2.श्री वीर तेजा मंदिर नई मंदी , घडसाना , अनुपगढ (गंगानगर) राजस्थान 3.वीर तेजाजी का मंदिर पूरा राजगढ़ बोरा मध्य प्रदेश 3.तेजाजी मुक्तिधाम टेम्पल सुरसुरा
4.तेजाजी चौक टेम्पल भिल्वारा राजस्थान
5.तेजाजी मंदिर नीयर जाट विल्लेज मेगार्दा पोस्ट दीपावास तहसील रायपुर जनपद-पाली राजस्थान
5.वीर तेजाजी मूवी(1982) राजस्थानी सिनेमा की सबसे हिट फिल्म है ये फिल्म वीर तेजाजी के के जीवन पर आधारित है वीर
तेजाजी भगवन शंकर के परमभक्त थे
6.विश्व हिन्दू परिषद् ने 5 अप्रैल 2005 को राडार तकनीक से ताजमहल की जांच वैज्ञानिकों से कराने की मांग की थी और अयोध्या मैं राडार तकनीक के माध्यम से सबूत जुटाकर हाई कोर्ट को भेजे गए थे उसी तर्ज पर आगरा का मामला भी ASI को पत्र
लिखकर तोगड़िया ने उठाया और कहा की ये शाहजहाँ से भी 400 वर्ष पुराना है इस पर उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने आपत्ति दर्ज की थी …यह खबर पी टी आयी न्यूज़ एजेंसी के माध्यम से आउटलुक मेग्जिन मैं छपी थी …. यह खबर देखने के लिए नीचे क्लिक करेंhttp://news.outlookindia.com/items.aspx?artid =290408 7.ताजमहल पर उत्तर प्रदेश वक्फ बोर्ड के मालिकाना दावे को आगरा कोर्ट के सिटी मजिस्ट्रेट ने नकारते हुए केंद्र सरकार और पुरातात्विक मंत्रालय को भेजा था

अध्यापक भारत's photo.
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ताजमहल एक शिव मंदिर


ताजमहल एक शिव मंदिर

http://www.mahashakti.org.in/2009/12/blog-post_19.html

“ताजमहल में शिव का पाँचवा रूप अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर विराजित है”
A Complete and True History of Taj Mahal in Hindi

आगरा के ताजमहल का सच सम्पूर्ण विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने वाले श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक “Tajmahal is a Hindu Temple Palace” और “Taj Mahal: The True Story” में 100 से भी अधिक प्रमाण और तर्को का हवाला देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। श्री पी.एन. ओक साहब को उस इतिहासकार के रूप मे जाना जाता है तो भारत के विकृत इतिहास को पुर्नोत्‍थान और सही दिशा में ले जाने का किया है। मुगलो और अग्रेजो के समय मे जिस प्रकार भारत के इतिहास के साथ जिस प्रकार छेड़छाड की गई और आज वर्तमान तक मे की जा रही है, उसका विरोध और सही प्रस्तुतिकारण करने वाले प्रमुख इतिहासकारो में पुरूषोत्तम नाथ ओक (Historian Purushottam Nath Oak) साहब का नाम लिया जाता है। ओक साहब ने ताजमहल की भूमिका, इतिहास और पृष्‍ठभूमि से लेकर सभी का अध्‍ययन किया और छायाचित्रों छाया चित्रो के द्वारा उसे प्रमाणित करने का सार्थक प्रयास किया। श्री ओक के इन तथ्‍यो पर आ सरकार और प्रमुख विश्वविद्यालय आदि मौन जबकि इस विषय पर शोध किया जाना चाहिये और सही इतिहास से हमे अवगत करना चाहिये। किन्‍तु दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से अधिकारिक जाँच नहीं हुई। यदि ताजमहल के शिव मंदिर होने में सच्चाई है तो भारतीयता के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। आज भी हम जैसे विद्यार्थियों को झूठे इतिहास की शिक्षा देना स्वयं शिक्षा के लिये अपमान की बात है, क्‍योकि जिस इतिहास से हम सबक सीखने की बात कहते है यदि वह ही गलत हो, इससे बड़ा राष्‍ट्रीय शर्म और क्‍या हो सकता है ? आखिर क्यों ताजमहल की असलियत को देश से छिपाया जा रहा है? इतने मजबूत तथ्यों और तर्कों के बाद भी ताजमहल के सही इतिहास से देश को क्यों वंचित रखा जा रहा है?

ताज महल की सच्चाई की कहानी
ताज महल की सच्चाई की कहानी

श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है। इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये तर्कों का हिंदी रूपांतरण इस प्रकार हैं –

सर्वप्रथम ताजमहल के नाम के सम्‍बन्‍ध में श्री ओक साहब ने कहा कि-

  • शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।
  • ताजमहल शब्द के अंत में आये ‘महल’ मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।
  • साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताज महल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है – पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से “मुम” को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।
  • चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था जैसा कि उर्दू में ज के लिए J नही Z का उपयोग किया जाता है)।
  • शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।
  • मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल, इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।
  • यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।
  • ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। ‘ताज’ और ‘महल’ दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।
श्री ओक साहब ने इसको मंदिर कहे जाने की बातो को तर्कसंगत तरीके से बताया है वह निम्न है-

  • ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।
  • संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।
  • देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।
  • संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।
  • ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।
  • भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।
  • वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।
  • आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।
  • आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।
 
ओक साहब ने भारतीय प्रामाणिक दस्तावेजो द्वारा इसे मकबरा मानने से इंकार कर दिया है
  • बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग-1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।
  • ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।
  • शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम ‘आदाब-ए-आलमगिरी’, ‘यादगारनामा’ और ‘मुरुक्का-ए-अकब़राबादी’ (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।
  • जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।
  • राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।
  • शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।
  • किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।

विदेशी और यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख द्वारा मत स्‍पष्‍ट करना
  • टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को ‘ताज-ए-मकान’, जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।
  • एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।
  • डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।
  • बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।
  • जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies’ जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।
    ताज के गुम्मद पर स्थापित कलश किसके ऊपर नारियल की आकृति बनी है

 संस्कृत शिलालेख द्वारा ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन

  • एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।” शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’ नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था। शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar….now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”.
 

थॉमस ट्विनिंग की अनुपस्थित गजप्रतिमा के सम्‍बन्‍ध में कथन

  • ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक “Travels in India A Hundred Years ago” के पृष्ठ 191 में) लिखता है, “सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और….. बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार (‘COURT OF ELEPHANTS’) कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।”
 

कुरान की आयतों के पैबन्द

  • ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।
  • शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।

वैज्ञानिक पद्धति कार्बन 14 द्वारा जाँच

  • ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।

बनावट तथा वास्तुशास्त्रीय तथ्य द्वारा जॉच

  • ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।
  • चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है। चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।
  • ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।
  • ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद ‘अल्लाह’ शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में ‘अल्लाह’ शब्द कहीं भी नहीं है।

अन्‍य असंगतियाँ

  • शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।
  • उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।
  • ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
  • जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।
  • ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।
  • पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।
  • मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।
  • मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।
  • ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।
 

मकबरे पर लटकता हूँ कलश जो कि शिव लिंग पर जलाभिषेक करता है, मकबरे में इसका क्या औचित्य
ताजमहल में खजाने वाला कुआँ
तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी मंजिलों में हुआ करता था। सीढ़ियों के वृतीय संरचना के कारण घुसपैठिये या आक्रमणकारी न तो आसानी के साथ खजाने तक पहुँच सकते थे और न ही एक बार अंदर आने के बाद आसानी के साथ भाग सकते थे, और वे पहचान लिये जाते थे। यदि कभी घेरा डाले हुये शक्तिशाली शत्रु के सामने समर्पण की स्थिति आ भी जाती थी तो खजाने के संदूकों को पानी में धकेल दिया जाता था जिससे कि वह पुनर्विजय तक सुरक्षित रूप से छुपा रहे। एक मकब़रे में इतना परिश्रम करके बहुमंजिला कुआँ बनाना बेमानी है। इतना विशाल दीर्घाकार कुआँ किसी कब्र के लिये अनावश्यक भी है।
मुमताज के दफ़न की तारीख अविदित होना
यदि शाहज़हां ने सचमुच ही ताजमहल जैसा आश्चर्यजनक मकब़रा होता तो उसके तामझाम का विवरण और मुमताज़ के दफ़न की तारीख इतिहास में अवश्य ही दर्ज हुई होती। परंतु दफ़न की तारीख कभी भी दर्ज नहीं की गई। इतिहास में इस तरह का ब्यौरा न होना ही ताजमहल की झूठी कहानी का पोल खोल देती है।
यहाँ तक कि मुमताज़ की मृत्यु किस वर्ष हुई यह भी अज्ञात है। विभिन्न लोगों ने सन् 1629,1630, 1631 या 1632 में मुमताज़ की मौत होने का अनुमान लगाया है। यदि मुमताज़ का इतना उत्कृष्ट दफ़न हुआ होता, जितना कि दावा किया जाता है, तो उसके मौत की तारीख अनुमान का विषय कदापि न होता। 5000 औरतों वाली हरम में किस औरत की मौत कब हुई इसका हिसाब रखना एक कठिन कार्य है। स्पष्टतः मुमताज़ की मौत की तारीख़ महत्वहीन थी इसीलिये उस पर ध्यान नहीं दिया गया। फिर उसके दफ़न के लिये ताज किसने बनवाया?
आधारहीन प्रेमकथाएँ
शाहज़हां और मुमताज़ के प्रेम की कहानियाँ मूर्खतापूर्ण तथा कपटजाल हैं। न तो इन कहानियों का कोई ऐतिहासिक आधार है न ही उनके कल्पित प्रेम प्रसंग पर कोई पुस्तक ही लिखी गई है। ताज के शाहज़हां के द्वारा अधिग्रहण के बाद उसके आधिपत्य दर्शाने के लिये ही इन कहानियों को गढ़ लिया गया।
कीमत
शाहज़हां के शाही और दरबारी दस्तावेज़ों में ताज की कीमत का कहीं उल्लेख नहीं है क्योंकि शाहज़हां ने कभी ताजमहल को बनवाया ही नहीं। इसी कारण से नादान लेखकों के द्वारा ताज की कीमत 40 लाख से 9 करोड़ 17 लाख तक होने का काल्पनिक अनुमान लगाया जाता है।
निर्माणकाल 
इसी प्रकार से ताज का निर्माणकाल 10 से 22 वर्ष तक के होने का अनुमान लगाया जाता है। यदि शाहज़हां ने ताजमहल को बनवाया होता तो उसके निर्माणकाल के विषय में अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि उसकी प्रविष्टि शाही दस्तावेज़ों में अवश्य ही की गई होती।
भवननिर्माणशास्त्री

  • ताज भवन के भवननिर्माणशास्त्री (designer, architect) के विषय में भी अनेक नाम लिये जाते हैं जैसे कि ईसा इफेंडी जो कि एक तुर्क था, अहमद़ मेंहदी या एक फ्रांसीसी, आस्टीन डी बोरडीक्स या गेरोनिमो वेरेनियो जो कि एक इटालियन था, या शाहज़हां स्वयं।
  • नदारद दस्तावेज़ ऐसा समझा जाता है कि शाहज़हां के काल में ताजमहल को बनाने के लिये 20 हजार लोगों ने 22 साल तक काम किया। यदि यह सच है तो ताजमहल का नक्शा (design drawings), मजदूरों की हाजिरी रजिस्टर (labour muster rolls), दैनिक खर्च (daily expenditure sheets), भवन निर्माण सामग्रियों के खरीदी के बिल और रसीद (bills and receipts of material ordered) आदि दस्तावेज़ शाही अभिलेखागार में उपलब्ध होते। वहाँ पर इस प्रकार के कागज का एक टुकड़ा भी नहीं है।
  • अतः ताजमहल को शाहज़हाँ ने बनवाया और उस पर उसका व्यक्तिगत तथा सांप्रदायिक अधिकार था जैसे ढोंग को समूचे संसार को मानने के लिये मजबूर करने की जिम्मेदारी चापलूस दरबारी, भयंकर भूल करने वाले इतिहासकार, अंधे भवननिर्माणशस्त्री, कल्पित कथा लेखक, मूर्ख कवि, लापरवाह पर्यटन अधिकारी और भटके हुये पथप्रदर्शकों (guides) पर है।
  • शाहज़हां के समय में ताज के वाटिकाओं के विषय में किये गये वर्णनों में केतकी, जै, जूही, चम्पा, मौलश्री, हारश्रिंगार और बेल का जिक्र आता है। ये वे ही पौधे हैं जिनके फूलों या पत्तियों का उपयोग हिंदू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में होता है। भगवान शिव की पूजा में बेल पत्तियों का विशेष प्रयोग होता है। किसी कब्रगाह में केवल छायादार वृक्ष लगाये जाते हैं क्योंकि श्मशान के पेड़ पौधों के फूल और फल का प्रयोग को वीभत्स मानते हुये मानव अंतरात्मा स्वीकार नहीं करती। ताज के वाटिकाओं में बेल तथा अन्य फूलों के पौधों की उपस्थिति सिद्ध करती है कि शाहज़हां के हथियाने के पहले ताज एक शिव मंदिर हुआ करता था।
  • हिंदू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाये जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है जो कि शिव मंदिर के लिये एक उपयुक्त स्थान है।
  • मोहम्मद पैगम्बर ने निर्देश दिये हैं कि कब्रगाह में केवल एक कब्र होना चाहिये और उसे कम से कम एक पत्थर से चिन्हित करना चाहिये। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर के मंज़िल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज़ का बताया जाता है, यह मोहम्मद पैगम्बर के निर्देश के निन्दनीय अवहेलना है। वास्तव में शाहज़हां को इन दोनों स्थानों के शिवलिंगों को दबाने के लिये दो कब्र बनवाने पड़े थे। शिव मंदिर में, एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में, दो शिव लिंग स्थापित करने का हिंदुओं में रिवाज था जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर, जो कि अहिल्याबाई के द्वारा बनवाये गये हैं, में देखा जा सकता है।
  • ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं जो कि हिंदू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है।
 

हिंदू गुम्बज के सम्‍बन्‍ध मे तर्क

  • ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। ऐसा गुम्बज किसी कब्र के लिये होना एक विसंगति है क्योंकि कब्रगाह एक शांतिपूर्ण स्थान होता है। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों के लिये गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है क्योंकि वे देवी-देवता आरती के समय बजने वाले घंटियों, नगाड़ों आदि के ध्वनि के उल्लास और मधुरता को कई गुणा अधिक कर देते हैं।
  • ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। इस्लाम के गुम्बज अनालंकृत होते हैं, दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित पाकिस्तानी दूतावास और पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के गुम्बज उनके उदाहरण हैं।
  • ताजमहल दक्षिणमुखी भवन है। यदि ताज का सम्बंध इस्लाम से होता तो उसका मुख पश्चिम की ओर होता।

कब्र दफनस्थल होता है न कि भवन

  • महल को कब्र का रूप देने की गलती के परिणामस्वरूप एक व्यापक भ्रामक स्थिति उत्पन्न हुई है। इस्लाम के आक्रमण स्वरूप, जिस किसी देश में वे गये वहाँ के, विजित भवनों में लाश दफन करके उन्हें कब्र का रूप दे दिया गया। अतः दिमाग से इस भ्रम को निकाल देना चाहिये कि वे विजित भवन कब्र के ऊपर बनाये गये हैं जैसे कि लाश दफ़न करने के बाद मिट्टी का टीला बना दिया जाता है। ताजमहल का प्रकरण भी इसी सच्चाई का उदाहरण है। (भले ही केवल तर्क करने के लिये) इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज़ की लाश दफ़नाई गई न कि लाश दफ़नाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया।
  • ताज एक सातमंजिला भवन है। शाहज़ादा औरंगज़ेब के शाहज़हां को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन के चार मंजिल संगमरमर पत्थरों से बने हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल वृतीय मुख्य कक्ष और तहखाने का कक्ष शामिल है। मध्य में दो मंजिलें और हैं जिनमें 12 से 15 विशाल कक्ष हैं। संगमरमर के इन चार मंजिलों के नीचे लाल पत्थरों से बने दो और मंजिलें हैं जो कि पिछवाड़े में नदी तट तक चली जाती हैं। सातवीं मंजिल अवश्य ही नदी तट से लगी भूमि के नीचे होनी चाहिये क्योंकि सभी प्राचीन हिंदू भवनों में भूमिगत मंजिल हुआ करती है।
  • नदी तट से भाग में संगमरमर के नींव के ठीक नीचे लाल पत्थरों वाले 22 कमरे हैं जिनके झरोखों को शाहज़हां ने चुनवा दिया है। इन कमरों को जिन्हें कि शाहज़हां ने अतिगोपनीय बना दिया है भारत के पुरातत्व विभाग के द्वारा तालों में बंद रखा जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को इनके विषय में अंधेरे में रखा जाता है। इन 22 कमरों के दीवारों तथा भीतरी छतों पर अभी भी प्राचीन हिंदू चित्रकारी अंकित हैं। इन कमरों से लगा हुआ लगभग 33 फुट लंबा गलियारा है। गलियारे के दोनों सिरों में एक एक दरवाजे बने हुये हैं। इन दोनों दरवाजों को इस प्रकार से आकर्षक रूप से ईंटों और गारा से चुनवा दिया गया है कि वे दीवाल जैसे प्रतीत हों।
  • स्पष्तः मूल रूप से शाहज़हां के द्वारा चुनवाये गये इन दरवाजों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाये हुये दरवाजे के ऊपर पड़ी एक दरार से झाँक कर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष (huge hall) और वहाँ के दृश्य को‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ देख कर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत सा हो गया। वहाँ बीचोबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारे मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहाँ पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिये कि ताजमहल हिंदू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन कौन से साक्ष्य छुपे हुये हैं उसके के सातों मंजिलों को खोल कर उसकी साफ सफाई करने की नितांत आवश्यकता है।
  • अध्ययन से पता चलता है कि इन बंद कमरों के साथ ही साथ ताज के चौड़ी दीवारों के बीच में भी हिंदू चित्रों, मूर्तियों आदि छिपे हुये हैं। सन् 1959 से 1962 के अंतराल में श्री एस.आर. राव, जब वे आगरा पुरातत्व विभाग के सुपरिन्टेन्डेंट हुआ करते थे, का ध्यान ताजमहल के मध्यवर्तीय अष्टकोणीय कक्ष के दीवार में एक चौड़ी दरार पर गया। उस दरार का पूरी तरह से अध्ययन करने के लिये जब दीवार की एक परत उखाड़ी गई तो संगमरमर की दो या तीन प्रतिमाएँ वहाँ से निकल कर गिर पड़ीं। इस बात को खामोशी के साथ छुपा दिया गया और प्रतिमाओं को फिर से वहीं दफ़न कर दिया गया जहाँ शाहज़हां के आदेश से पहले दफ़न की गई थीं। इस बात की पुष्टि अनेक अन्य स्रोतों से हो चुकी है। जिन दिनों मैंने ताज के पूर्ववर्ती काल के विषय में खोजकार्य आरंभ किया उन्हीं दिनों मुझे इस बात की जानकारी मिली थी जो कि अब तक एक भूला बिसरा रहस्य बन कर रह गया है। ताज के मंदिर होने के प्रमाण में इससे अच्छा साक्ष्य और क्या हो सकता है? उन देव प्रतिमाओं को जो शाहज़हां के द्वारा ताज को हथियाये जाने से पहले उसमें प्रतिष्ठित थे ताज की दीवारें और चुनवाये हुये कमरे आज भी छुपाये हुये हैं।

ताजमहल में ॐ की आकृति लिए के फूल
शाहज़हां के पूर्व के ताज के संदर्भ

  • स्पष्टतः के केन्द्रीय भवन का इतिहास अत्यंत पेचीदा प्रतीत होता है। शायद महमूद गज़नी और उसके बाद के मुस्लिम प्रत्येक आक्रमणकारी ने लूट कर अपवित्र किया है परंतु हिंदुओं का इस पर पुनर्विजय के बाद पुनः भगवान शिव की प्रतिष्ठा करके इसकी पवित्रता को फिर से बरकरार कर दिया जाता था। शाहज़हां अंतिम मुसलमान था जिसने तेजोमहालय उर्फ ताजमहल के पवित्रता को भ्रष्ट किया।
  • विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक ‘Akbar the Great Moghul’ में लिखते हैं, “बाबर ने सन् 1630 आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई”। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था।
  • बाबर की पुत्री गुलबदन ‘हुमायूँनामा’ नामक अपने ऐतिहासिक वृतांत में ताज का संदर्भ ‘रहस्य महल’ (Mystic House) के नाम से देती है।
  • बाबर स्वयं अपने संस्मरण में इब्राहिम लोधी के कब्जे में एक मध्यवर्ती अष्टकोणीय चारों कोणों में चार खम्भों वाली इमारत का जिक्र करता है जो कि ताज ही था। ये सारे संदर्भ ताज के शाहज़हां से कम से कम सौ साल पहले का होने का संकेत देते हैं।
  • ताजमहल की सीमाएँ चारों ओर कई सौ गज की दूरी में फैली हुई है। नदी के पार ताज से जुड़ी अन्य भवनों, स्नान के घाटों और नौका घाटों के अवशेष हैं। विक्टोरिया गार्डन के बाहरी हिस्से में एक लंबी, सर्पीली, लताच्छादित प्राचीन दीवार है जो कि एक लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय स्तंभ तक जाती है। इतने वस्तृत भूभाग को कब्रिस्तान का रूप दे दिया गया।
  • यदि ताज को विशेषतः मुमताज़ के दफ़नाने के लिये बनवाया गया होता तो वहाँ पर अन्य और भी कब्रों का जमघट नहीं होता। परंतु ताज प्रांगण में अनेक कब्रें विद्यमान हैं कम से कम उसके पूर्वी एवं दक्षिणी भागों के गुम्बजदार भवनों में।
  • दक्षिणी की ओर ताजगंज गेट के दूसरे किनारे के दो गुम्बजदार भवनों में रानी सरहंडी ब़ेगम, फतेहपुरी ब़ेगम और कु. सातुन्निसा को दफ़नाया गया है। इस प्रकार से एक साथ दफ़नाना तभी न्यायसंगत हो सकता है जबकि या तो रानी का दर्जा कम किया गया हो या कु. का दर्जा बढ़ाया गया हो। शाहज़हां ने अपने वंशानुगत स्वभाव के अनुसार ताज को एक साधारण मुस्लिम कब्रिस्तान के रूप में परिवर्तित कर के रख दिया क्योंकि उसने उसे अधिग्रहित किया था (ध्यान रहे बनवाया नहीं था)।
  • शाहज़हां ने मुमताज़ से निक़ाह के पहले और बाद में भी कई और औरतों से निक़ाह किया था, अतः मुमताज़ को कोई ह़क नहीँ था कि उसके लिये आश्चर्यजनक कब्र बनवाया जावे।
  • मुमताज़ का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और उसमें ऐसा कोई विशेष योग्यता भी नहीं थी कि उसके लिये ताम-झाम वाला कब्र बनवाया जावे।
  • शाहज़हां तो केवल एक मौका ढूंढ रहा था कि कैसे अपने क्रूर सेना के साथ मंदिर पर हमला करके वहाँ की सारी दौलत हथिया ले, मुमताज़ को दफ़नाना तो एक बहाना मात्र था। इस बात की पुष्टि बादशाहनामा में की गई इस प्रविष्टि से होती है कि मुमताज़ की लाश को बुरहानपुर के कब्र से निकाल कर आगरा लाया गया और ‘अगले साल’ दफ़नाया गया। बादशाहनामा जैसे अधिकारिक दस्तावेज़ में सही तारीख के स्थान पर ‘अगले साल’ लिखने से ही जाहिर होता है कि शाहज़हां दफ़न से सम्बंधित विवरण को छुपाना चाहता था।
  • विचार करने योग्य बात है कि जिस शाहज़हां ने मुमताज़ के जीवनकाल में उसके लिये एक भी भवन नहीं बनवाया, मर जाने के बाद एक लाश के लिये आश्चर्यमय कब्र कभी नहीं बनवा सकता।
  • एक विचारणीय बात यह भी है कि शाहज़हां के बादशाह बनने के तो या तीन साल बाद ही मुमताज़ की मौत हो गई। तो क्या शाहज़हां ने इन दो तीन साल के छोटे समय में ही इतना अधिक धन संचय कर लिया कि एक कब्र बनवाने में उसे उड़ा सके?
  • जहाँ इतिहास में शाहज़हां के मुमताज़ के प्रति विशेष आसक्ति का कोई विवरण नहीं मिलता वहीं शाहज़हां के अनेक औरतों के साथ, जिनमें दासी, औरत के आकार के पुतले, यहाँ तक कि उसकी स्वयं की बेटी जहांआरा भी शामिल है, के साथ यौन सम्बंधों ने उसके काल में अधिक महत्व पाया। क्या शाहज़हां मुमताज़ की लाश पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाता?
  • शाहज़हां एक कृपण सूदखोर बादशाह था। अपने सारे प्रतिद्वंदियों का कत्ल करके उसने राज सिंहासन प्राप्त किया था। जितना खर्चीला उसे बताया जाता है उतना वो हो ही नहीं सकता था।
  • मुमताज़ की मौत से खिन्न शाहज़हां ने एकाएक ताज बनवाने का निश्चय कर लिया। ये बात एक मनोवैज्ञानिक असंगति है। दुख एक ऐसी संवेदना है जो इंसान को अयोग्य और अकर्मण्य बनाती है।
  • शाहज़हां यदि मूर्ख या बावला होता तो समझा जा सकता है कि वो मृत मुमताज़ के लिये ताज बनवा सकता है परंतु सांसारिक और यौन सुख में लिप्त शाहज़हां तो कभी भी ताज नहीं बनवा सकता क्योंकि यौन भी इंसान को अयोग्य बनाने वाली संवेदना है।
  • सन् 1973 के आरंभ में जब ताज के सामने वाली वाटिका की खुदाई हुई तो वर्तमान फौवारों के लगभग छः फुट नीचे और भी फौवारे पाये गये। इससे दो बातें सिद्ध होती हैं। पहली तो यह कि जमीन के नीचे वाले फौवारे शाहज़हां के काल से पहले ही मौजूद थे। दूसरी यह कि पहले से मौजूद फौवारे चूँकि ताज से जाकर मिले थे अतः ताज भी शाहज़हां के काल से पहले ही से मौजूद था। स्पष्ट है कि इस्लाम शासन के दौरान रख रखाव न होने के कारण ताज के सामने की वाटिका और फौवारे बरसात के पानी की बाढ़ में डूब गये थे।
  • ताजमहल के ऊपरी मंजिल के गौरवमय कक्षों से कई जगह से संगमरमर के पत्थर उखाड़ लिये गये थे जिनका उपयोग मुमताज़ के नकली कब्रों को बनाने के लिये किया गया। इसी कारण से ताज के भूतल के फर्श और दीवारों में लगे मूल्यवान संगमरमर के पत्थरों की तुलना में ऊपरी तल के कक्ष भद्दे, कुरूप और लूट का शिकार बने नजर आते हैं। चूँकि ताज के ऊपरी तलों के कक्षों में दर्शकों का प्रवेश वर्जित है, शाहज़हां के द्वारा की गई ये बरबादी एक सुरक्षित रहस्य बन कर रह गई है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि मुगलों के शासन काल की समाप्ति के 200 वर्षों से भी अधिक समय व्यतीत हो जाने के बाद भी शाहज़हां के द्वारा ताज के ऊपरी कक्षों से संगमरमर की इस लूट को आज भी छुपाये रखा जावे।
  • फ्रांसीसी यात्री बेर्नियर ने लिखा है कि ताज के निचले रहस्यमय कक्षों में गैर मुस्लिमों को जाने की इजाजत नहीं थी क्योंकि वहाँ चौंधिया देने वाली वस्तुएँ थीं। यदि वे वस्तुएँ शाहज़हां ने खुद ही रखवाये होते तो वह जनता के सामने उनका प्रदर्शन गौरव के साथ करता। परंतु वे तो लूटी हुई वस्तुएँ थीं और शाहज़हां उन्हें अपने खजाने में ले जाना चाहता था इसीलिये वह नहीं चाहता था कि कोई उन्हें देखे।
  • ताज की सुरक्षा के लिये उसके चारों ओर खाई खोद कर की गई है। किलों, मंदिरों तथा भवनों की सुरक्षा के लिये खाई बनाना हिंदुओं में सामान्य सुरक्षा व्यवस्था रही है।
  • पीटर मुंडी ने लिखा है कि शाहज़हां ने उन खाइयों को पाटने के लिये हजारों मजदूर लगवाये थे। यह भी ताज के शाहज़हां के समय से पहले के होने का एक लिखित प्रमाण है।
  • नदी के पिछवाड़े में हिंदू बस्तियाँ, बहुत से हिंदू प्राचीन घाट और प्राचीन हिंदू शव-दाह गृह है। यदि शाहज़हाँ ने ताज को बनवाया होता तो इन सबको नष्ट कर दिया गया होता।
  • यह कथन कि शाहज़हाँ नदी के दूसरी तरफ एक काले पत्थर का ताज बनवाना चाहता था भी एक प्रायोजित कपोल कल्पना है। नदी के उस पार के गड्ढे मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा हिंदू भवनों के लूटमार और तोड़फोड़ के कारण बने हैं न कि दूसरे ताज के नींव खुदवाने के कारण। शाहज़हां, जिसने कि सफेद ताजमहल को ही नहीं बनवाया था, काले ताजमहल बनवाने के विषय में कभी सोच भी नहीं सकता था। वह तो इतना कंजूस था कि हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देने के लिये भी मजदूरों से उसने सेंत मेंत में और जोर जबर्दस्ती से काम लिया था।
  • जिन संगमरमर के पत्थरों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं उनके रंग में पीलापन है जबकि शेष पत्थर ऊँची गुणवत्ता वाले शुभ्र रंग के हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कुरान की आयतों वाले पत्थर बाद में लगाये गये हैं।
  • कुछ कल्पनाशील इतिहासकारों तो ने ताज के भवननिर्माणशास्त्री के रूप में कुछ काल्पनिक नाम सुझाये हैं पर और ही अधिक कल्पनाशील इतिहासकारों ने तो स्वयं शाहज़हां को ताज के भवननिर्माणशास्त्री होने का श्रेय दे दिया है जैसे कि वह सर्वगुणसम्पन्न विद्वान एवं कला का ज्ञाता था। ऐसे ही इतिहासकारों ने अपने इतिहास के अल्पज्ञान की वजह से इतिहास के साथ ही विश्वासघात किया है वरना शाहज़हां तो एक क्रूर, निरंकुश, औरतखोर और नशेड़ी व्यक्ति था।
  • और भी कई भ्रमित करने वाली लुभावनी बातें बना दी गई हैं। कुछ लोग विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि शाहज़हां ने पूरे संसार के सर्वश्रेष्ठ भवननिर्माणशास्त्रियों से संपर्क करने के बाद उनमें से एक को चुना था। तो कुछ लोगों का यग विश्वास है कि उसने अपने ही एक भवननिर्माणशास्त्री को चुना था। यदि यह बातें सच होती तो शाहज़हां के शाही दस्तावेजों में इमारत के नक्शों का पुलिंदा मिला होता। परंतु वहाँ तो नक्शे का एक टुकड़ा भी नहीं है। नक्शों का न मिलना भी इस बात का पक्का सबूत है कि ताज को शाहज़हां ने नहीं बनवाया।
  • ताजमहल बड़े बड़े खंडहरों से घिरा हुआ है जो कि इस बात की ओर इशारा करती है कि वहाँ पर अनेक बार युद्ध हुये थे।
  • ताज के दक्षिण में एक प्रचीन पशुशाला है। वहाँ पर तेजोमहालय के पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है।
  • ताज के पश्चिमी छोर में लाल पत्थरों के अनेक उपभवन हैं जो कि एक कब्र के लिया अनावश्यक है।
  • संपूर्ण ताज में 400 से 500 कमरे हैं। कब्र जैसे स्थान में इतने सारे रहाइशी कमरों का होना समझ के बाहर की बात है।
  • ताज के पड़ोस के ताजगंज नामक नगरीय क्षेत्र का स्थूल सुरक्षा दीवार ताजमहल से लगा हुआ है। ये इस बात का स्पष्ट निशानी है कि तेजोमहालय नगरीय क्षेत्र का ही एक हिस्सा था। ताजगंज से एक सड़क सीधे ताजमहल तक आता है। ताजगंज द्वार ताजमहल के द्वार तथा उसके लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय वाटिका के ठीक सीध में है।
  • ताजमहल के सभी गुम्बजदार भवन आनंददायक हैं जो कि एक मकब़रे के लिय उपयुक्त नहीं है।
  • आगरे के लाल किले के एक बरामदे में एक छोटा सा शीशा लगा हुआ है जिससे पूरा ताजमहल प्रतिबिंबित होता है। ऐसा कहा जाता है कि शाहज़हां ने अपने जीवन के अंतिम आठ साल एक कैदी के रूप में इसी शीशे से ताजमहल को देखते हुये और मुमताज़ के नाम से आहें भरते हुये बिताया था। इस कथन में अनेक झूठ का संमिश्रण है। सबसे पहले तो यह कि वृद्ध शाहज़हां को उसके बेटे औरंगज़ेब ने लाल किले के तहखाने के भीतर कैद किया था न कि सजे-धजे और चारों ओर से खुले ऊपर के मंजिल के बरामदे में। दूसरा यह कि उस छोटे से शीशे को सन् 1930 में इंशा अल्लाह ख़ान नामक पुरातत्व विभाग के एक चपरासी ने लगाया था केवल दर्शकों को यह दिखाने के लिये कि पुराने समय में लोग कैसे पूरे तेजोमहालय को एक छोटे से शीशे के टुकड़े में देख लिया करते थे। तीसरे, वृद्ध शाहज़हाँ, जिसके जोड़ों में दर्द और आँखों में मोतियाबिंद था घंटो गर्दन उठाये हुये कमजोर नजरों से उस शीशे में झाँकते रहने के काबिल ही नहीं था जब लाल किले से ताजमहल सीधे ही पूरा का पूरा दिखाई देता है तो छोटे से शीशे से केवल उसकी परछाईं को देखने की आवश्कता भी नहीं है। पर हमारी भोली-भाली जनता इतनी नादान है कि धूर्त पथप्रदर्शकों (guides) की इन अविश्वासपूर्ण और विवेकहीन बातों को आसानी के साथ पचा लेती है।
  • ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुये हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दिये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था।
  • ताजमहल पर शाहज़हां के स्वामित्व तथा शाहज़हां और मुमताज़ के अलौकिक प्रेम की कहानी पर विश्वास कर लेने वाले लोगों को लगता है कि शाहज़हाँ एक सहृदय व्यक्ति था और शाहज़हां तथा मुमताज़ रोम्यो और जूलियट जैसे प्रेमी युगल थे। परंतु तथ्य बताते हैं कि शाहज़हां एक हृदयहीन, अत्याचारी और क्रूर व्यक्ति था जिसने मुमताज़ के साथ जीवन भर अत्याचार किये थे।
  • विद्यालयों और महाविद्यालयों में इतिहास की कक्षा में बताया जाता है कि शाहज़हां का काल अमन और शांति का काल था तथा शाहज़हां ने अनेकों भवनों का निर्माण किया और अनेक सत्कार्य किये जो कि पूर्णतः मनगढ़ंत और कपोल कल्पित हैं। जैसा कि इस ताजमहल प्रकरण में बताया जा चुका है, शाहज़हां ने कभी भी कोई भवन नहीं बनाया उल्टे बने बनाये भवनों का नाश ही किया और अपनी सेना की 48 टुकड़ियों की सहायता से लगातार 30 वर्षों तक अत्याचार करता रहा जो कि सिद्ध करता है कि उसके काल में कभी भी अमन और शांति नहीं रही।
  • जहाँ मुमताज़ का कब्र बना है उस गुम्बज के भीतरी छत में सुनहरे रंग में सूर्य और नाग के चित्र हैं। हिंदू योद्धा अपने आपको सूर्यवंशी कहते हैं अतः सूर्य का उनके लिये बहुत अधिक महत्व है जबकि मुसलमानों के लिये सूर्य का महत्व केवल एक शब्द से अधिक कुछ भी नहीं है। और नाग का सम्बंध भगवान शंकर के साथ हमेशा से ही रहा है।

झूठे दस्तावेज़

  • ताज के गुम्बज की देखरेख करने वाले मुसलमानों के पास एक दस्तावेज़ है जिसे के वे “तारीख-ए-ताजमहल” कहते हैं। इतिहासकार एच.जी. कीन ने उस पर ‘वास्तविक न होने की शंका वाला दस्तावेज़’ का मुहर लगा दिया है। कीन का कथन एक रहस्यमय सत्य है क्योंकि हम जानते हैं कि जब शाहज़हां ने ताजमहल को नहीं बनवाया ही नहीं तो किसी भी दस्तावेज़ को जो कि ताजमहल को बनाने का श्रेय शाहज़हां को देता है झूठा ही माना जायेगा।
  • पेशेवर इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता तथा भवनशास्त्रियों के दिमाग में ताज से जुड़े बहुत सारे कुतर्क और चतुराई से भरे झूठे तर्क या कम से कम भ्रामक विचार भरे हैं। शुरू से ही उनका विश्वास रहा है कि ताज पूरी तरह से मुस्लिम भवन है। उन्हें यह बताने पर कि ताज का कमलाकार होना, चार स्तंभों का होना आदि हिंदू लक्षण हैं, वे गुणवान लोग इस प्रकार से अपना पक्ष रखते हैं कि ताज को बनाने वाले कारीगर, कर्मचारी आदि हिंदू थे और शायद इसीलिये उन्होंने हिंदू शैली से उसे बनाया। पर उनका पक्ष गलत है क्योंकि मुस्लिम वृतान्त दावा करता है कि ताज के रूपांकक (designers) बनवाने वाले शासक मुस्लिम थे, और कारीगर, कर्मचारी इत्यादि लोग मुस्लिम तानाशाही के विरुद्ध अपनी मनमानी कर ही नहीं सकते थे।

ताजमहल में कलश की आकृति

  • इस्‍लाम का मुख्‍य काम भारत को लूटना मात्र था, उन्‍होने तत्‍कालीन मन्दिरो अपना निशाना बनया, वास्ताव में ताजमहल तेजोमहल शिव मन्दिर है। हिन्‍दू मंदिर उस समय अपने ऐश्वर्य के चरम पर रहे थे। इसी प्रकार आज का ताजमहल नाम से विख्‍यात तेजोमहाजय को भी अपना निशाना बनाया। मुस्लिम शासकों ने देश के हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देकर उन्हें बनवाने का श्रेय स्वयं ले लिया इस बात का ताज एक आदर्श उदारहरण है।

चित्रो के झरोखे मे तर्क जिनके आधार पर काफी सच्‍चाई ओक साहब ने हमारे सामने रखी है -जो ताजमहल नही तेजोमहालय : एक प्राचीन शिव मंदिर तथ्यों के साथ रखी गयी है.

 

Taj Mahal Ki Is Sankshitp Kahani Ko Hindi Me लाने मे मेरा योगदान उतना ही है जितना कि रामसेतु के निर्माण में गिलहरी का था, श्रेय मूल लेखक श्री ओक साहब तथा अन्‍य प्रत्‍यक्ष व परोक्ष रूप से लगे सभी इतिहास प्रेमियो को।

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ताजमहल एक शिव मंदिर


ताजमहल एक शिव मंदिर
“ताजमहल में शिव का पाँचवा रूप अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर विराजित है”

श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक “Tajmahal is a Hindu Temple Palace” में 100 से भी अधिक प्रमाण देकर सिद्ध किया कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। श्री पी.एन. ओक जी ने भारत के विकृत इतिहास को पुर्नोत्‍थान और सही दिशा में ले जाने का किया है। मुगलो और अग्रेजो के समय मे जिस प्रकार भारत के इतिहास के साथ जिस प्रकार छेड़छाड की गई और आज वर्तमान तक मे की जा रही है, उसका विरोध और सही प्रस्तुतिकारण करने वाले प्रमुख इतिहासकारो में पुरूषोत्तम नागेश ओक जी का नाम लिया जाता है।

सरकार ”ताजमहल”की जाँच कराये.कब तक हम गुलामी का झूठा इतिहास पढेगे. यह राष्‍ट्रीय शर्म है ?
”Tajmahal is a Hindu Temple” श्री पी.एन. ओक ने लिखा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है। इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये प्रमाणों का हिंदी रूपांतरण इस प्रकार हैं –

”ताजमहल” के नाम पर प्रमाण >>> – (क्रम संख्‍या 1 से 8 तक)

1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

2. शब्द ताजमहल के अंत में आये ‘महल’ मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।

3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है – पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से “मुम” को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।

4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।

5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।

6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।

7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।

8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। ‘ताज’ और ‘महल’ दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।

फिर उन्‍होने इसको मंदिर कहे जाने की बातो को तर्कसंगत तरीके से बताया है (क्रम संख्‍या 9 से 17 तक)

9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।

10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।

11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।

12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।

13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।

14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।

15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।

16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।

भारतीय प्रामाणिक दस्तावेजो से यह मकबरा नहीं सिद्ध होता है ( क्रम संख्‍या18 से 24 तक)

18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।

19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।

20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम ‘आदाब-ए-आलमगिरी’, ‘यादगारनामा’ और ‘मुरुक्का-ए-अकब़राबादी’ (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।

21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।

22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।

23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।

24. और फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।

विदेशी और यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख द्वारा मत स्‍पष्‍ट करना ( क्रम संख्‍या 25 से 29 तक)
25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को ‘ताज-ए-मकान’, जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।

26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।

27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।

28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।

29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies’ जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।

संस्कृत शिलालेख का प्रमाण >>> ( क्रम संख्‍या 30)

30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।” शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’ नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।

शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar….now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”.

थॉमस ट्विनिंग की अनुपस्थित गजप्रतिमा के सम्‍बन्‍ध में कथन (क्रम संख्‍या 31)

31. ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक “Travels in India A Hundred Years ago” के पृष्ठ 191 में) लिखता है, “सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और….. बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार (‘COURT OF ELEPHANTS’) कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।”

कुरान की आयतों के पैबन्द (क्रम संख्‍या 32 व 33 द्वारा)
32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।

33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।

वैज्ञानिक पद्धति कार्बन 14 द्वारा जाँच >>>>>>

34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।

बनावट तथा वास्तुशास्त्रीय तथ्य द्वारा जॉच (क्रम संख्‍या 35 से 39 तक)

35. ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।

36. चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है।

37. चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।

38. ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।

39. ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद ‘अल्लाह’ शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में ‘अल्लाह’ शब्द कहीं भी नहीं है।

ठोस प्रमाण >>> (क्रमांक 40 से 48 तक)

40. शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।

41. उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।

42. ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

43. जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।

44. ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।

45. पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।

46. मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।

47. मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।

48. ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।

ताजमहल में खजाने वाला कुआँ

49. तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी म
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ताजमहल एक शिव मंदिर


ताजमहल एक शिव मंदिर
“ताजमहल में शिव का पाँचवा रूप अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर विराजित है”

श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक “Tajmahal is a Hindu Temple Palace” में 100 से भी अधिक प्रमाण देकर सिद्ध किया कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। श्री पी.एन. ओक जी ने भारत के विकृत इतिहास को पुर्नोत्‍थान और सही दिशा में ले जाने का किया है। मुगलो और अग्रेजो के समय मे जिस प्रकार भारत के इतिहास के साथ जिस प्रकार छेड़छाड की गई और आज वर्तमान तक मे की जा रही है, उसका विरोध और सही प्रस्तुतिकारण करने वाले प्रमुख इतिहासकारो में पुरूषोत्तम नागेश ओक जी का नाम लिया जाता है।

सरकार ”ताजमहल”की जाँच कराये.कब तक हम गुलामी का झूठा इतिहास पढेगे. यह राष्‍ट्रीय शर्म है ?
”Tajmahal is a Hindu Temple” श्री पी.एन. ओक ने लिखा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है। इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये प्रमाणों का हिंदी रूपांतरण इस प्रकार हैं –

”ताजमहल” के नाम पर प्रमाण >>> – (क्रम संख्‍या 1 से 8 तक)

1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

2. शब्द ताजमहल के अंत में आये ‘महल’ मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।

3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है – पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से “मुम” को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।

4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।

5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।

6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।

7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।

8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। ‘ताज’ और ‘महल’ दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।

फिर उन्‍होने इसको मंदिर कहे जाने की बातो को तर्कसंगत तरीके से बताया है (क्रम संख्‍या 9 से 17 तक)

9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।

10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।

11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।

12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।

13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।

14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।

15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।

16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।

भारतीय प्रामाणिक दस्तावेजो से यह मकबरा नहीं सिद्ध होता है ( क्रम संख्‍या18 से 24 तक)

18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।

19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।

20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम ‘आदाब-ए-आलमगिरी’, ‘यादगारनामा’ और ‘मुरुक्का-ए-अकब़राबादी’ (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।

21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।

22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।

23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।

24. और फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।

विदेशी और यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख द्वारा मत स्‍पष्‍ट करना ( क्रम संख्‍या 25 से 29 तक)
25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को ‘ताज-ए-मकान’, जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।

26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।

27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।

28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।

29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies’ जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।

संस्कृत शिलालेख का प्रमाण >>> ( क्रम संख्‍या 30)

30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।” शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’ नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।

शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar….now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”.

थॉमस ट्विनिंग की अनुपस्थित गजप्रतिमा के सम्‍बन्‍ध में कथन (क्रम संख्‍या 31)

31. ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक “Travels in India A Hundred Years ago” के पृष्ठ 191 में) लिखता है, “सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और….. बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार (‘COURT OF ELEPHANTS’) कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।”

कुरान की आयतों के पैबन्द (क्रम संख्‍या 32 व 33 द्वारा)
32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।

33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।

वैज्ञानिक पद्धति कार्बन 14 द्वारा जाँच >>>>>>

34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।

बनावट तथा वास्तुशास्त्रीय तथ्य द्वारा जॉच (क्रम संख्‍या 35 से 39 तक)

35. ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।

36. चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है।

37. चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।

38. ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।

39. ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद ‘अल्लाह’ शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में ‘अल्लाह’ शब्द कहीं भी नहीं है।

ठोस प्रमाण >>> (क्रमांक 40 से 48 तक)

40. शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।

41. उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।

42. ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

43. जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।

44. ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।

45. पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।

46. मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।

47. मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।

48. ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।

ताजमहल में खजाने वाला कुआँ

49. तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी म