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ताजमहल


इतिहास में पढ़ाया जाता है कि ताजमहल का निर्माण कार्य 1632 में शुरू और लगभग 1653 में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ।

अब सोचिए कि जब मुमताज का इंतकाल 1631 में हुआ तो फिर कैसे उन्हें 1631 में ही ताजमहल में दफना दिया गया, जबकि ताजमहल तो 1632 में बनना शुरू हुआ था। यह सब मनगढ़ंत बातें हैं जो अंग्रेज और मुस्लिम इतिहासकारों ने 18वीं सदी में लिखी।

दरअसल 1632 में हिन्दू मंदिर को इस्लामिक लुक देने का कार्य शुरू हुआ। 1649 में इसका मुख्य द्वार बना जिस पर कुरान की आयतें तराशी गईं। इस मुख्य द्वार के ऊपर हिन्दू शैली का छोटे गुम्बद के आकार का मंडप है और अत्यंत भव्य प्रतीत होता है। आस पास मीनारें खड़ी की गई और फिर सामने स्थित फव्वारे
को फिर से बनाया गया।

जे ए माॅण्डेलस्लो ने मुमताज की मृत्यु के 7 वर्ष पश्चात Voyages and Travels into the East Indies नाम से निजी पर्यटन के संस्मरणों में आगरे का तो उल्लेख किया गया है किंतु ताजमहल के निर्माण का कोई उल्लेख नहीं किया।
टाॅम्हरनिए के कथन के अनुसार 20 हजार मजदूर यदि 22 वर्ष तक ताजमहल का निर्माण करते रहते तो माॅण्डेलस्लो भी उस विशाल निर्माण कार्य का उल्लेख अवश्य करता।

ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े की एक अमेरिकन प्रयोगशाला में की गई कार्बन जांच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहजहां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वीं सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिए दूसरे दरवाजे भी लगाए गए हैं।
ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात शाहजहां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।
ताजमहल के गुम्बद पर जो अष्टधातु का कलश खड़ा है वह त्रिशूल आकार का पूर्ण कुंभ है। उसके मध्य दंड के शिखर पर नारियल की आकृति बनी है। नारियल के तले दो झुके हुए आम के पत्ते और उसके नीचे कलश दर्शाया गया है। उस चंद्राकार के दो नोक और उनके बीचोबीच नारियल का शिखर मिलाकर त्रिशूल का आकार बना है।

हिन्दू और बौद्ध मंदिरों पर ऐसे ही कलश बने होते हैं। कब्र के ऊपर गुंबद के मध्य से अष्टधातु की एक जंजीर लटक रही है। शिवलिंग पर जल सिंचन करने वाला सुवर्ण कलश इसी जंजीर पर टंगा रहता था। उसे निकालकर जब शाहजहां के खजाने में जमा करा दिया गया तो वह जंजीर लटकी रह गई। उस पर लाॅर्ड कर्जन ने एक दीप लटकवा दिया, जो आज भी है।

कब्रगाह को महल क्यों कहा गया? मकबरे को महल क्यों कहा गया? क्या किसी ने इस पर कभी सोचा, क्योंकि पहले से ही निर्मित एक महल को कब्रगाह में बदल दिया गया। कब्रगाह में बदलते वक्त उसका नाम नहीं बदला गया। यहीं पर शाहजहां से गलती हो गई। उस काल के किसी भी सरकारी या शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ‘ताजमहल’ शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

‘महल’ शब्द मुस्लिम शब्द नहीं है। अरब, ईरान, अफगानिस्तान आदि जगह पर एक भी ऐसी मस्जिद या कब्र नहीं है जिसके बाद महल लगाया गया हो।
यह भी गलत है कि मुमताज के कारण इसका नाम मुमताज महल पड़ा, क्योंकि उनकी बेगम का नाम था #मुमता -उल-जमानी। यदि मुमताज के नाम पर इसका नाम रखा होता तो ताजमहल के आगे से मुम को हटा देने का कोई औचित्य नजर नहीं आता।

विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक ‘Akbar the Great Moghul’ में लिखते हैं, बाबर ने सन् 1530 में आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था। यह इतना विशाल और भव्य था कि इसके जितना दूसरा कोई भारत में महल नहीं था। बाबर की पुत्री गुलबदन ‘हुमायूंनामा’ नामक अपने ऐतिहासिक वृत्तांत में ताज का संदर्भ ‘रहस्य महल’ (Mystic House) के नाम से देती है।

ताजमहल का निर्माण राजा परमर्दिदेव के शासनकाल में 1155 अश्विन शुक्ल पंचमी, रविवार को हुआ था। अतः बाद में मुहम्मद गौरी सहित कई मुस्लिम आक्रांताओं ने ताजमहल के द्वार आदि को तोड़कर उसको लूटा। यह महल आज के ताजमहल से कई गुना ज्यादा बड़ा था और इसके तीन गुम्बद हुआ करते थे। हिन्दुओं ने उसे फिर से मरम्मत करके बनवाया, लेकिन वे ज्यादा समय तक इस महल की रक्षा नहीं कर सके।

👉 वास्तुकला के विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिए उसका नाम ‘तेजोमहालय’ पड़ा था।

शाहजहां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है, जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम ‘तेजोमहालय’ से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहजहां और औरंगजेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुए उसके स्थान पर पवित्र मकबरा शब्द का ही प्रयोग किया है।
ओक के अनुसार अनुसार हुमायूं, अकबर, मुमताज, एतमातुद्दौला और सफदरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिन्दू महलों या मंदिरों में दफनाया गया है।

ताजमहल तेजोमहल शिव मंदिर है – इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज की लाश दफनाई गई न कि लाश दफनाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया। ‘ताजमहल’ शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द ‘तेजोमहालय’ शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वरमहादेव प्रतिष्ठित थे। देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित चित्रकारी की गई है।

इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज के मकबरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है। संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिन्दू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।
तेजोमहालय उर्फ ताजमहल को नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था, क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। यह मंदिर विशालकाय महल क्षेत्र में था। आगरा को प्राचीनकाल में अंगिरा कहते थे, क्योंकि यह ऋषि अंगिरा की तपोभूमि थी। अंगिरा ऋषि भगवान शिव के उपासक थे।
बहुत प्राचीन काल से ही आगरा में 5 शिव मंदिर बने थे। यहां के निवासी सदियों से इन 5 शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करते थे।

लेकिन अब कुछ सदियों से बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल 4 ही शिव मंदिर शेष हैं। 5वें शिव मंदिर को सदियों पूर्व कब्र में बदल दिया गया। स्पष्टतः वह 5वां शिव मंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही हैं, जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

साभार
धन्यवाद

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मनगढ़ंत वॉलीवुड मूवी केसरी और हॉलीवुड मूवी 300 से ज्यादा वीरता दिखायी थी. 23 माचातोड़ मेवाड़ी योद्धाओं ने जगदीश मन्दिर बचाने में !

मेवाड़ (उदयपुर) के सारे दरवाजे जैसे उदयपोल,किशनपोल,एकलिंगगढ़,ब्रह्मपोल,चांदपोल,गड़िया देवरा पोल ,हाथीपोल और दिल्ली दरवाजा बंद किये जा चुके थे। लेकिन उस रात दिवाली मनायी गयी थी मेवाड़ के हर दरवाज़े पर सैकड़ो मशालें और दीप जलायें थे नरु के साथियों ने।

1679ई. तक औरंगज़ेब समूचे उत्तर भारत के मंदिरों को लूट चूका था। शहर के शहर बरबाद करता चला जाता उसका कारवाँ। उसके सिपाही न सिर्फ लूटपाट करते बल्कि राज्य की खूबसूरत महिलाओं के साथ बलात्कार करते या उन्हें बन्दी बनाकर सिपाहियों के हरम में ले जाते। सिपाहियों का हरम किसी नरक (दोज़ख ) से कम नहीं होता जहाँ बमुश्किल ही कोई सात दिन जी पाता हो ! बच्चों और आदमियों को उनके सामने पहले की मार दिया जाता वो भी वीभत्स मौत के साथ।

1679 ई.से ही औरंगज़ेब के जेहन में राजपुताना के एक ही रियासत ‘मेवाड़’ को रौंदने का मन था और जनवरी 1680 की तेज़ कड़कड़ाती ठण्ड में उसकी सेनाओं ने मेवाड़ की सीमा पर आकर डेरा डाल लिया। सैनिक इतने जितने मेवाड़ में नागरिक नहीं और हर मेवाड़ी योद्धा के सामने औरंगज़ेब के 10 योद्धा थे।

तत्कालीन शूरवीर महाराणा राजसिंह द्वारा फौजी जमावड़ा महीनों पहले से चल रहा था। उन्हें पता था कि किस तरह जनता को सबसे पहले बचाना है।
बादशाह औरंगज़ेब ने शहज़ादे मुहम्मद आज़म, सादुल्ला खां, इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां को उदयपुर पर हमला कर वहां के मन्दिर वगैरह तोड़ने के साथ उदयपुर को लूटने भेजा।

महाराणा राजसिंह ने अपने जिग़र के टुकड़े को गिर्वा की पहाड़ियों पर कुँवर जयसिंह (महाराणा के पुत्र व भावी महाराणा) को तैनात कर दिया। देसूरी की नाल के इलाक़े में बदनोर के सांवलदास राठौड़ को कमान सौंपी गयी थी। बदनोर-देसूरी के पहाड़ी भाग पर विक्रमादित्य सौलंकी व गोपीनाथ घाणेराव युद्ध के लिए तैयार थे। मालवा सीमा पर मंत्री दयालदास को नियुक्त किया गया। देबारी,नाई और उदयपुर के पहाड़ी नाकों पर स्वयं महाराणा राजसिंह तैनात हुए।

वो दिन आ ही गया जब मुगल फौज लड़ते हुए उदयपुर आ पहुंची, तो वहां इन्होंने पूरा उदयपुर खाली पाया।
महाराणा राजसिंह प्रजा व सेना सहित अरावली के पहाड़ों में जा चुके थे। सादुल्ला खां व इक्का ताज खां फौज समेत उदयपुर के जगदीश मंदिर के सामने पहुंचे, जो कि उदयपुर के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक था व इसको बनाने में भारी धन (उस समय के लगभग 6 लाख रूपये ) खर्च हुआ था।

इस मंदिर की रक्षा के लिए नरू बारहठ सहित कुल 23 योद्धा तैनात थे, जिसका विवरण सुनकर आप की आँखे भीग जाएँगी। जब महाराणा राजसिंह राजपरिवार व सामंतों और जनता सहित पहाड़ों में प्रस्थान कर रहे थे तब किसी सामन्त ने महाराणा के बारहठ नरू को ताना दिया कि ” जिस दरवाज़े पर तुमने बहुत से दस्तूर (नेग) लिए हैं, उसको लड़ाई के वक़्त ऐसे ही कैसे छोड़ोगे ?”
नरू बारहठ साहब एक क्षण मौन के बाद हुंकारे – “जब तक नरु बारहठ के धड़ पर शीष रहेगा तब तक ठाकुर जी (जगदीश मन्दिर) की सीढ़िया कोई आतातायी नहीं चढ़ सकेगा। एकलिंग विजयते नमः”।

नरू बारहठ के अपने 22 साथी भी कहाँ मानने वाले थे और वे भी उनके साथ यहीं रुक गए।

पूरा उदयपुर ख़ाली था। घण्टाघर से हाथीपोल तक संन्नाटा। एक भी आदमी नहीं। यहाँ तक कि शहर के स्वानो तक को अनहोनी की आशंका हो गयी थी शायद। वो भी गायब थे लेकिन तोते और चिड़ियाओं की आवाज़े सुनसान मरघट जैसे सन्नाटे को यदा कदा चीर रही थी।

सबसे पहले नरु के साथियों ने शहर के सारे मंदिरों की पूजा की।कई शंख एक साथ ऐसे बजाये गए मानों सैकड़ो लोग रणभेरी बजा रहे हो। ठण्ड की इस रात में भी सभी की भुजाएँ फड़क रही थी। मौत का कोई खौंफ नहीं। आँखों में इतना तेज़ मानो सूरज की रश्मियाँ हो।
निर्देशानुसार रात सभी लोग जगदीश मंदिर आ गए।

मेवाड़ (उदयपुर) के सारे दरवाजे जैसे उदयपोल,किशनपोल,एकलिंगगढ़,ब्रह्मपोल,चांदपोल,गड़िया देवरा पोल ,हाथीपोल और दिल्ली दरवाजा बंद किये जा चुके थे। लेकिन उस रात दिवाली मनायी गयी थी मेवाड़ के हर दरवाज़े पर सैकड़ो मशालें और दीप जलायें थे नरु के साथियों ने।

मुग़ल फौज इतनी खौफ़जदा थी कि उसने रात में शहर पर हमला करने की हिम्मत न की। उधर नरु और साथियों ने आखिरी आरती की जगदीश मन्दिर में। एक दूसरे को बधाइयाँ दी गयी शहीद हो जाने की ख़ुशी में। शस्त्रों की पूजा के बाद अश्वों की पूजा की गयी।

केसरिया बाना (पगड़ी) पहने हर योद्धा इतरा रहा था। सभी मन्दिर के पीछे अपने घोड़ों के साथ मरने के लिए तैयार खड़े थे। एक ही सुर में तेज़ आवाज़े जगदीश मंदिर से पूरे शहर में गूंझ रही थी ” एकलिंगनाथ की जय !जय माता दी ! हर हर महादेव। हर हर महादेव। हर मेवाड़ी योद्धा की आँखों में ख़ून उतर आया था।

आखिर वो घडी आ गयी जब सारे दरवाजे तोड़ते हुए सुबह 9 बजे के के करीब मुगल फौज जगदीश मंदिर के पास ढलान पर भटियाणी चौहटा और घण्टाघर तक आ गयी। औरंगज़ेब के शहज़ादे मुहम्मद आज़म, सादुल्ला खां, इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां की सेना अब भी आगे बढ़ने से कतरा रही थी क्योंकि पूरा उदयपुर खाली था और रात तक शंख नाद की आवाज़े आ रही थी। हुंकारे आ रही थी। सेना के साथ शहज़ादे मुहम्मद आज़म भी किसी अनहोनी की आशंका में थे। सादुल्ला खां ने अपने खास 50 सिपाहियों की टोली को आगे टोह लेने भेजा। जगदीश चौक तक आते आते सब के सब 50 हलाक कर दिए गए। खून से सड़क लाल हो चुकी थी। रक्त बहता हुआ ढलान में मुग़ल सेना की ओर आता दिखा। मुग़ल सेना में हड़कम्प मच गया।

स्थिति को इक्का ताज खां और रुहुल्ला खां ने सम्भाला और सेना से आगे बढ़ने को कहा। तभी हर हर महादेव के नारे बुलंद हो उठे। सुनसान शहर थर्रा उठा। मंदिर की उत्तर वाले दरवाज़े (जहाँ आज स्कूल है )से एक योद्धा लड़ने के लिए बाहर आया और ऐसी गति मानों बिजली चलीं आ रही हो।केसरिया बाना पहने पहला माचातोड़ यौद्धा अपना अंतिम कर्तव्य निभाने निकल चूका था। हर हर महादेव के हुंकार और घोड़े की टाप की आवाज़ों के साथ पत्थर सड़को पर खुर ज्यादा ही आवाज़ कर रहे थे।हर माचातोड़ यौद्धा कम से कम 50 दुश्मनों को मारकर ही अपना जीवन धन्य समझता। जैसे ही एक माचातोड़ यौद्धा शहीद होता उसी समय दूसरा माचातोड़ यौद्धा ढलान मे हूंकार भरता हुआ नीचे मुग़ल ख़ेमे में घुस कर कई मुग़लो को फ़ना कर देता।ऐसे ही मंदिर से एक-एक कर माचातोड़ यौद्धा बाहर आते गए। शाम होने चली आयी थी।
मुग़ल सेना सदमे में डरी हुई थी और हैरान भी थी माचातोड़ यौद्धा की वीरता पर। मुग़ल सेना में माचातोड़ यौद्धा को लेकर फुस फुसाहट हो रही थी और हर कोई नए माचातोड़ यौद्धा का इंतज़ार कर रहा था। किसी को पता नहीं था ऐसे कितने ओर माचातोड़ यौद्धा अभी भी छिपे है ऊपर मन्दिर की ओर ?

लेकिन समय और नियति पहले ही नरु बारहठ की वीरता का किस्सा लिख चुकी थी। आखिर में नरू बारहठ बाहर आए और बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। केसरिया बाना पहने जिन्दा रहते हुए उनकी तलवार ने कई मुग़ल सिप्पसालारो को हलाक कर दिया। शीश कटने के बाद भी उनका धड़ तलवार चलाता रहा। मुग़ल सैनिक इधर उधर भागते फ़िरे। नरू बारहठ के शहीद होते ही मुग़ल सेना ने डर कर एक घण्टे ओर इंतज़ार किया। उसके बाद बादशाही फौज ने जगदीश मंदिर में मूर्तियों को तोड़कर मंदिर को तहस-नहस कर दिया।

बाद में इनकी स्मृति में एक चबूतरा मंदिर के पास ही बनवाया गया था लेकिन बाद में किसी ने इस चबूतरे पर मजार बनवा दी।

बाद में दोबारा यह मंदिर बनवाया गया था। यह मन्दिर महाराणा जगत सिंह जी प्रथम ने 6 लाख रूपये लगाकर दुबारा 1652 ईस्वी में बनवाया था लेकिन औरंगजेब द्वारा नुकसान पहुंचाने पर महाराणा संग्राम सिंह ने इसे फिर दुरूस्त करवाया। आज भी जगदीश मन्दिर की बाहर तक्षण शैली की मुर्तियां खण्डित है।

इसका निर्माण गुंगावत पंचोली कमल के पुत्र अर्जुन की निगरानी में भंगोरा वर्तमान में भगोरा सुथार गोत्र भाणा और उसके पुत्र मुकुंद की अध्यक्षता में 13 मई 1652 बैशाखी पुर्णिमा पर भव्य प्राण प्रतिष्ठा हुई।

बाद में गुस्से मे महाराणा राजसिंह ने अपने पुत्र भीम सिंह जी को गुजरात भेजा जिसने एक बडी और तीन सौ छोटी मस्जिदो को ध्वस्त कर इसका बदला लिया। महाराणा राज सिंह मारवाड़ के अजीत सिंह के मामा थे। एक बार मुगलों से एक राजकुमारी को बचाने के लिए और एक बार औरंगजेब द्वारा लगाए गए जजिया कर की निंदा करके राज सिंह ने औरंगजेब का कई बार विरोध किया। राणा राज सिंह को मथुरा के श्रीनाथजी की मूर्ति को संरक्षण देने के लिए भी जाना जाता है, उन्होंने इसे नाथद्वारा में रखा था। कोई अन्य हिंदू शासक अपने राज्य में श्रीनाथजी की मूर्ति लेने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि इसका मतलब मुगल सम्राट औरंगजेब का विरोध करना होगा, जो उस समय पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली व्यक्ति थे!

जगदीश मंदिर को बचाने की इस गौरव गाथा के बाद विडम्बना ही है कि इस मंदिर में आने वाले प्रतिदिन सैंकड़ों श्रद्धालुओं को इस अभूतपूर्व बलिदान की भनक तक नहीं है | मेवाड़ के दुर्ग तो दुर्ग सही, यहां का हर मंदिर राजपूतों के बलिदान की खूनी गाथा अपने अंदर समेटे हुए है।
🙏🙏जय मेवाड़नाथ एकलिंग जी की🙏🙏

नवयुवकमंडलमेवाड 🙏🙏

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ઇતિહાસ જે દેખાય છે તે યાદ રાખતો જ નથી
જે લખાય છે અને એમાં ગુજરાતનો ઉલ્લેખ થયો છે કે એ જ યાદ રાખે છે
ઇતિહાસ ગતિવિધિ પર આધાર રાખે છે
નહીં કે વિધિવિધાન પર

આપણે આપણા મૂળિયાં જ જડમૂળથી ઉખાડી નાંખ્યા છે એ મૂળને ક્યારેય ન ભૂલવા જોઈએ !

તમારા મૂળને ક્યારેય ભૂલશો નહીં…

કુશાબ, પાકિસ્તાનમાં હિન્દુ મંદિર
જે હાલમાં અંબા શરીફ તરીકે ઓળખાય છે,
આ ૬માળના મંદિરની જાળવણી છેલ્લે કાબુલથી શાસન કરનારા હિન્દુ શાહી રાજાઓ દ્વારા કરવામાં આવી હતી.

મહમૂદ ગઝનવીથી શરૂ થયેલી ૧૦૦૦વર્ષની અપવિત્રતાનો સામનો કર્યા પછી, હજુ પણ ઊભા છે.
આ તો એક મંદિર છે
આવાં તો અનેકો મંદિરો છે
જેને ઘોરી કે ખિલજી પણ નથી તોડી શક્યા!

જે પોતાના જ ગઢમાં ગાબડું નથી પડી શક્યા
તે શું ખાક ભારતીય ભવ્ય ઇતિહાસ કે અચલ સનાતન ધર્મ મિટાવી શકવાના છે
ઇતિહાસ એ લખાય છે તે નહીં
પણ જે દેખાય છે તે
બાકી વાર્તાઓ ખાલી સોશિયલ મિડિયા પર લાઈક પ્રાપ્તિનું સાધન માત્ર છે
તથ્ય બહાર લાવવું j પડે
સત્ય ગભરાયા વગર બહાર લાવવું જ પડે

ઇતિહાસ એક વિચાર માંગે છે
વિચારજો જરા !

!! જય અંબે !!

————- જનમેજય અધ્વર્યુ

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બેટ દ્વારકા


બેટ દ્વારકાના 2 ટાપુઓ કબજે કરવાના સુન્ની વક્ફ બોર્ડનું સપનું ગુજરાત હાઈકોર્ટે ચકનાચૂર કર્યું છે.
ગુજરાતનો આ વિષય આ સમયે ખૂબ જ ચર્ચામાં છે. અમને સોશિયલ મીડિયા દ્વારા ખબર પડી નહીંતર અમને ખબર ન પડી હોત.
સ્થળાંતર અને કબજો કેવી રીતે થાય છે, લેન્ડ જેહાદ છે કે કેમ તે સમજવા માટે તમે બેટ દ્વારકા ટાપુનો જ અભ્યાસ કરશો તો બધી પ્રક્રિયા સમજાઈ જશે.
થોડા વર્ષો પહેલા સુધી અહીંની લગભગ આખી વસ્તી હિન્દુ હતી.
આ ઓખા નગરપાલિકા હેઠળનો વિસ્તાર છે, જ્યાં જવાનો એકમાત્ર રસ્તો પાણીમાંથી પસાર થાય છે, તેથી લોકો બેટ દ્વારકાની બહાર જવા માટે બોટનો ઉપયોગ કરે છે.
દ્વારકાધીશનું પ્રાચીન મંદિર અહીં આવેલું છે.
કહેવાય છે કે પાંચ હજાર વર્ષ પહેલા રુક્મિણીએ અહીં મૂર્તિની સ્થાપના કરી હતી.
સમુદ્રથી ઘેરાયેલો આ ટાપુ ખૂબ જ શાંત હતો.
લોકોનો મુખ્ય વ્યવસાય માછીમારીનો હતો.
ધીરે ધીરે બહારથી માછીમારી કરનારા મુસ્લિમો અહીં આવવા લાગ્યા.
દયાળુ હિંદુ વસ્તીએ તેમને ત્યાં રહેવા અને માછલી પકડવાની છૂટ આપી.
ધીમે ધીમે માછીમારીનો આખો ધંધો મુસ્લિમોના કબજામાં આવી ગયો.
બહારથી ફંડ મળવાને કારણે તેણે બજારમાં સસ્તી માછલી વેચી, જેના કારણે તમામ હિંદુ માછીમારો બેરોજગાર બની ગયા.
હવે હિંદુ વસ્તી રોજગાર માટે ટાપુની બહાર જવા લાગી.
પરંતુ અહીં બીજો ચમત્કાર થયો.
બેટ દ્વારકાથી ઓખા જવા માટે બોટમાં ભાડું રૂ.8 હતું.
હવે બધી બોટ મુસ્લિમોના કબજામાં હોવાથી તેમણે ભાડાનો નવો નિયમ બનાવ્યો.
બોટ દ્વારા ઓખા જનાર હિન્દુ 100 રૂપિયા ભાડું ચૂકવશે અને તે જ મુસ્લિમ 8 રૂપિયા આપશે.
હવે જો રોજીરોજદાર હિંદુ આંદોલન માટે માત્ર 200 રૂપિયા આપે તો શું તે બચત કરશે?
તેથી હિન્દુઓ ત્યાંથી રોજગાર માટે સ્થળાંતર કરવા લાગ્યા.
હવે ત્યાં માત્ર 15 ટકા હિંદુ વસ્તી રહે છે.
તમે અહીં સ્થળાંતરનું પ્રથમ કારણ વાંચો.
રોજગારના બે મુખ્ય માધ્યમો, માછીમારી અને પરિવહન, હિંદુઓ પાસેથી છીનવી લેવામાં આવ્યા હતા.
અન્યત્રની જેમ, ચણતર, સુથાર, ઈલેક્ટ્રોનિક મિકેનિક્સ, ડ્રાઈવર, નાઈ અને અન્ય હાથની નોકરીઓ 90% સુધી હિંદુઓએ તેમને સોંપી દીધી છે.
હવે બેટ દ્વારકામાં 5000 વર્ષ જૂનું મંદિર છે, જેના માટે હિન્દુઓ આવતા હતા, તેથી જેહાદીઓએ તેમાં નવો રસ્તો શોધી કાઢ્યો.
તેમની પાસે અવરજવરના સાધનોનો કબજો હોવાથી તેઓએ દર્શનાર્થી ભક્તો પાસેથી માત્ર 20-30 મિનિટની જળ યાત્રા માટે 4 હજારથી 5 હજાર રૂપિયાની માંગણી શરૂ કરી હતી.
આટલું મોંઘું ભાડું સામાન્ય માણસ કેવી રીતે ચૂકવી શકશે, તેથી લોકોએ ત્યાં જવાનું બંધ કરી દીધું.
હવે ત્યાં જેહાદીઓનો સંપૂર્ણ કબજો હતો, તેથી તેઓએ પ્રાચીન મંદિર ચારે બાજુથી તેની કબરોથી ઘેરાયેલું જોઈને જગ્યાએ જગ્યાએ મકાનો બનાવવાનું શરૂ કર્યું.
બાકીની હિંદુ વસ્તીએ સરકારને તેમની વાત કહીને હારી હતી, પછી કેટલાક હિન્દુ સામાજિક કાર્યકરોએ તેની નોંધ લીધી અને સરકારને ચેતવણી આપી.
સરકારે ઓખાથી બેટ દ્વારકા સુધી સિગ્નેચર બ્રિજ બનાવવાનું કામ શરૂ કર્યું. જ્યારે બાકીના વિષયોની તપાસ શરૂ થઈ ત્યારે તપાસ એજન્સી ચોંકી ઉઠી હતી.
ગુજરાતમાં, શ્રી કૃષ્ણના શહેર દ્વારકામાં સ્થિત બેટ દ્વારકાના બે ટાપુઓ પર સુન્ની વક્ફ બોર્ડે પોતાનો દાવો રજૂ કર્યો છે. વકફ બોર્ડે તેની અરજીમાં દાવો કર્યો હતો કે બેટ દ્વારકા ટાપુ પરના બે ટાપુઓ વકફ બોર્ડની માલિકીના છે. ગુજરાત હાઈકોર્ટે આશ્ચર્ય વ્યક્ત કર્યું કે તમે કૃષ્ણ નગરીનો દાવો કેવી રીતે કરી શકો અને પછી ગુજરાત હાઈકોર્ટે આ અરજી પણ ફગાવી દીધી.
બેટ દ્વારકામાં લગભગ આઠ ટાપુઓ છે, જેમાંથી ભગવાન કૃષ્ણના બે મંદિરો બંધાયેલા છે. પ્રાચીન કથાઓ કહે છે કે ભગવાન કૃષ્ણની પૂજા કરતી વખતે, મીરા અહીં તેમની મૂર્તિમાં ડૂબી ગઈ હતી. બેટ દ્વારકાના આ બે ટાપુઓ પર લગભગ 7000 પરિવારો રહે છે, જેમાંથી લગભગ 6000 પરિવારો મુસ્લિમ છે. તે દ્વારકાના દરિયાકિનારે એક નાનો ટાપુ છે અને ઓખાથી થોડે દૂર આવેલો છે. વક્ફ બોર્ડ તેના આધારે આ બંને ટાપુઓ પર પોતાનો દાવો કરે છે.
અહીં આ ષડયંત્રનો પ્રારંભિક તબક્કો જ હતો કે તેનો ખુલાસો થયો. સુરક્ષા એજન્સીઓના જણાવ્યા અનુસાર, આ તબક્કામાં કેટલાક લોકો આવી જમીનો પર કબજો કરીને ગેરકાયદે બાંધકામો કરી રહ્યા હતા, જે વ્યૂહાત્મક રીતે ભારતની આંતરિક સુરક્ષા માટે મોટો ખતરો બની શકે છે.
હવે તમામ ગેરકાયદે ધંધા અને મઝારો તોડી પાડવામાં આવી રહ્યા છે.
બેટ દ્વારકામાં આવનાર કોઈપણ મુસ્લિમ ત્યાંનો સ્થાનિક નથી, બધા બહારના છે.
તેમ છતાં તેણે થોડા વર્ષોમાં ત્યાંના હિંદુઓ પાસેથી ધીમે ધીમે બધું જ છીનવી લીધું અને ભારતમાં ગુજરાત જેવા રાજ્યનો ટાપુ સીરિયા બની ગયો.
સાવચેત અને સતર્ક રહેવું ખૂબ જ જરૂરી છે.

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कश्मीर में मार्तंड सूर्य मंदिर का इतिहास


इतिहास से अनभिज्ञ कश्मीर में मार्तंड सूर्य मंदिर का इतिहास और उसके विनाश के बारे में हिंदुओं को नहीं बताया जाता ।

भारत के जम्मू और कश्मीर प्रदेश के अनंतनाग ज़िले के मट्टन नगर के समीप स्थित 8वीं शताब्दी में ललितादित्य मुक्तपीड के राजकाल में बना एक हिन्दू मन्दिर है। यह सूर्य देवता के मार्तंड रूप को समर्पित है। इसे 15वीं शताब्दी में उस समय कश्मीर घाटी पर सत्ता करे हुए सिकंदर शाह मीरी द्वारा भारी क्षति पहुँचाई गई और इस समय यह खण्डरावस्था में है।

मार्तंड सूर्य मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी ईस्वी में कर्कोटा राजवंश के तहत कश्मीर के तीसरे महाराज ललितादित्य मुक्तापिदा द्वारा किया गया था।[2]हालांकि यह माना जाता है कि इसे 725-756 ईस्वी के बीच बनाया गया था, [3] मंदिर की नींव लगभग 370-500 ईस्वी पूर्व की है, कुछ लोगों ने मंदिर के निर्माण को रणदित्य के साथ शुरू करने का श्रेय दिया था।[4][5]

विनाश

15 वीं शताब्दी की शुरुआत में सिकंदर बुतशिखान के शासन के दौरान मार्तंड सूर्य मंदिर को नष्ट कर दिया गया था, जो हिंदुओं के इस्लाम में जबरन धर्मांतरण के लिए जिम्मेदार था। उसे ‘सिकंदर द इकोनोक्लास्ट’ या सिकंदर बुतशिकन भी कहा जाता था। उसने 1389 से 1413 के बीच शासन किया। सिकंदर बुतशिकन धार्मिक कट्टर था। सूफी संत, मीर मोहम्मद हमदानी ने उसे न्त्कालीन बहुसंख्यक आबादी पर अपराध करने के लिए प्रभावित किया, हिंदुओं ने उसे बलपुर्वक इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए एक रणनीतिक कदम उठाया। परिणामस्वरूप, कई हिंदुओं ने बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म अपना लिया। उसके वंशज अब कश्मीर में मुसलमान के रूप में पहचानते हैं। जिन्होंने इस्लाम कबूल करने से इनकार किया या तो कश्मीर से भाग गए या मारे गए। यह 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों के सामूहिक वध से बहुत अलग नहीं था।

आज मार्तंड मंदिर की वर्तमान स्थिति का चित्र

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ज़्यादातर भारतीयों को जानकारी नहीं है कि होली जैसे मदनोत्सव का उद्गमस्थल मुल्तान है जो भारत के विभाजन के बाद #पाकिस्तान में है और जिसे आर्यों का बतौर मूलस्थान भी कभी जाना जाता था. आज वह प्रहलाद पुरी है..नरसिंह अवतार की.

खंडहर में तब्दील हो चुकी प्रहलाद पुरी में स्थित विशाल किले के भग्नावशेष चीख चीख कर उसकी प्राचीन ऐतिहासिकता के प्रमाण दे रहे हैं. वहां इस समय मदरसे चला करते हैं।
देवासुर संग्राम के दौरान दो ऐसे अवसर भी आए जब सुर- असुर ( आर्य- अनार्य ) के बीच संधि हुई थी.. एक भक्त ध्रुव के समय और दूसरी प्रहलाद के साथ. जब हिरण्यकश्प का वध हो गया तब वहां एक विशाल यज्ञ हुआ और बताते हैं कि हवन कुंड की अग्नि छह मास तक धधकती रही थी और इसी अवसर पर मदनोत्सव का आयोजन हआ…जिसे हम होली के रूप में जानते हैं.
यह समाजसमता का त्यौहार है, क्योंकि प्रह्लाद के माध्यम से असभ्य-अनपढ़- निर्धन असुरों को पूरा मौका मिला आर्यों के समीप आने का. टेसू के फूल का रंग तो था ही, पानी, धूल और कीचड़ के साथ ही दोनों की हास्य से ओतप्रोत छींटाकशी भी खूब चली.. उसी को आज हम गालियों से मनाते हैं. लेकिन बड़ों के चरणों की धूल भी मस्तक पर लगाते हैं. इसी लिए इस त्यौहार को धूलिवंदन भी कहते हैं.
मुल्तान की वो ऐतिहासिक विरासत बावरी ध्वंस के समय जला दी गयी. बचा है सिर्फ वह खंभा जिसे फाड़ कर नरसिंह निकले थे. गूगल में प्रहलादपुरी सर्च करने पर सिर्फ खंभे का ही चित्र मिलेगा.
यह कैसी विडंबना है कि हमको कभी यह नहीं बताया गया और न ही पाठ्यक्रम में इसे रखा गया. प्राचीन भारत के उस भूभाग ,जो अब पाकिस्तान में है ,उसमें तो विरासतें बिखरी पड़ी हैं पर हम बहुत कम जानते हैं.
साभार निरंजन सिंह जी

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आदिनाथ


ये जो आप मस्जिद देख रहे हैं ना इसका नाम है आदिना मस्जिद, किसी समय ये भगवान आदिनाथ का एक विशाल मंदिर हुआ करता था, आज इसे आदिना मस्जिद के नाम से जाना जाता है।

इसमे भगवान गणेश, विष्णु की खंडित प्रतिमा तथा अन्य कई सनातन संस्कृति के चिन्ह आज भी मौजूद है।

ये पांडुवा, मालवा, पश्चिम बंगाल में स्थित है जो भगवान शिव और भगवान विष्णु को समर्पित था।

लगभग 1348 ईसवी में मुस्लिम शासक सुल्तान सिकन्दर नें इस भव्य मंदिर को तोड़कर इसपर मस्जिद बना दी।

पश्चिम बंगाल सरकार की वेबसाइट भी पुष्टि करती है कि अदिना मस्जिद एक हिंदू मंदिर स्थल है। मुसलमान वर्तमान में भी इसमें नमाज़ पड़ते हैं और मंदिर स्थल पर अपने कई मृतकों को भी दफनाते हैं। परन्तु वामपंथ की सरकार रहते हुए कोई आवाज उठाने को तैयार नहीं।

रवि कांत

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सरस्वती कूप


#सरस्वती_कूप_अब_भी_चैतन्य_है..!!!!

जाने कितनी शताब्दियों से नदियां धरती की सतह पर बहती रही हैं। इनके किनारों पर विलक्षण सभ्यताएं अपने विकास के चरम पर पहुंची। घाट बने, शिवालों का निर्माण हुआ। सूर्योदय में मंत्रोच्चार और संध्या में बजते घंटनाद के बीच सदियों से प्रवाहमान नदियां संस्कृति की वाहक बनती गई। हमने नदियों को कुछ न दिया लेकिन उन्होंने हमें सदियों तक पाला।

एक ऐसी ही नदी रुष्ट होकर धरती के गर्भ में जा छुपी। वो ज्ञान की नदी थी, विलुप्त होने का प्रश्न ही नहीं था। लेकिन अब हम जानते हैं कि सरस्वती को लगभग खोज ही लिया गया है। सन 2013 में केंद्र सरकार की ओर से विस्तृत शोध शुरू किया गया, जो अब तक जारी है। इसरो के अनुसार नदीतमा (सरस्वती) आज भी हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के क्षेत्रों में भूमिगत होकर प्रवाहमान है। हालांकि आज का विषय थोड़ा हटकर है। ये समझ लीजिये कि भूमिगत ‘#सरस्वती_नदी’ के बारे में पड़ताल है।

‘ऐतिहासिक तथ्य जैसे दिखाई देते हैं, दरअसल वैसे होते नहीं। उनमे छुपे गूढ़ संकेतों को समझना आवश्यक है।’

आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के बीच राजा भोज ने धारा नगरी में एक संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना की। सरस्वती के वरदपुत्र महाराजा भोज की तपस्या से प्रसन्न हो कर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए थे। ये ज्ञात ऐतिहासिक तथ्य है। अब इसमें कोई वैज्ञानिकता भरा प्रश्न कर लें तो आपका उत्तर क्या होगा। भोज को सरस्वती का ‘इष्ट’ था ये पूर्णतः सत्य है लेकिन एक सत्य और भी है, जिस पर किसी का ध्यान ही नहीं है। धारा नगरी में मां सरस्वती प्रकट हुई थी, इसका वैज्ञानिक स्पष्टीकरण ये है कि महाराजा भोज ने सरस्वती नदी की भूमिगत ‘आंव’ खोज ली थी। इस पवित्र धारा को खोज लेने के बाद उन्होंने यहाँ एक ‘सरस्वती कूप’ का निर्माण करवाया। महाराजा भोज की ‘वॉटर इंजीनियरिंग’ का नमूना आज भी धार के तालाबों में देखा जा सकता है।

सरस्वती कूप, ज्ञान कुंड, वेल ऑफ़ विज़्डम एक ही बात है। ये जानकारी आपको गूगल पर मुश्किल से मिलेगी कि ‘ वेल ऑफ़ विज़्डम’ दुनिया की चुनिंदा जगहों पर पाए गए हैं। जिनका मीठा पानी पीकर स्वर्ग की देवी ज्ञान का अभीष्ट प्रदान करती है। पश्चिम सरस्वती को ‘स्वर्ग की देवी’ मानता है जो बुद्धि प्रदान करती है और हम भी सरस्वती को #ब्रम्ह्लोक से प्रकट हुआ मानते हैं। कुछ ख़ास क्षेत्रों में ही ऐसे ‘सरस्वती कूप’ पाए गए हैं। भारत में धार, प्रयागराज में अकबर के किले में कैद और वाराणसी में भी एक जगह इसके होने के संकेत मिले हैं।

प्रयागराज वाले सरस्वती कूप का 2013 में भारतीय सेना ने नवीनीकरण करवाया था। तत्कालीन सेंट्रल कमांड के जनरल अफसर कमांडिंग इन चीफ लेफ्टिनेंट जनरल अनिल चैत के प्रयासों से अब कूप के पानी का शोध सेना द्वारा किया जा रहा है। काशी के बारे में अपुष्ट जानकारी है कि #सरस्वती_उद्यान नामक क्षेत्र में भी कहीं एक ‘सरस्वती कूप’ भूमिगत है। यहीं पर सरस्वती की एक मूर्ति भी है।

जहाँ भी ये भूमिगत जलधाराएं मिली हैं, उन्हें ‘सरस्वती कूप’ का नाम क्यों दिया गया है। जिस नदी के किनारों पर ऋषि-मुनियों ने इस विलक्षण नदी का जल पीकर वेद रच डाले, उसमे कुछ तो विशेष होगा ही। प्रयागराज में सरस्वती कूप का जल बहुत उम्दा स्तर का पाया गया है। सवाल ये है कि सरस्वती कूप का निर्माण अकबर क्यों करवाता। स्पष्ट है कि उस किले को कब्जिया लिया गया था।

भोजशाला हिन्दू जीवन दर्शन का सबसे बड़ा अध्यन एवं प्रचार प्रसार का केंद्र भी था। यहाँ देश-विदेश से लाखों विद्यार्थी शिक्षण के लिए आते थे। उन सभी को इस सरस्वती कूप का जल पीने का सौभाग्य मिला था। यहाँ 1400 आचार्य ज्ञान का दीप जलाते थे। भवभूती, माघ, बाणभट्ट, कालिदास, मानतुंग, भास्करभट्ट, धनपाल, बोद्ध संत बन्स्वाल, समुन्द्र घोष आदि विश्व विख्यात विद्वान् माने जाते हैं । महाराजा भोज की मृत्यु के बाद भी यहाँ अध्यापन का कार्य 200 वर्षो तक निरंतर जारी रहा। फिर सन 1305 में #अलाउद्दीन_खिलजी ने आक्रमण कर यहाँ जल रहे ज्ञान के दीपक हमेशा के लिए बुझा दिए।

आप सोच रहे होंगे धार का ‘सरस्वती कूप’ कहाँ गया। वो यहीं है। भोजशाला परिसर के बाहर एक #मजहबी_स्थल में कैद है ‘#सरस्वती_कूप’। अब इसे #अकल_कुइयां के नाम से जाना जाता है। आज भी सरस्वती कूप भरपूर पानी दे रहा है। हालांकि ये पानी केवल “अपने मजहबी” लोगों को दिया जा रहा है। यदि मैं नाम लूंगा तो ये पोस्ट विवादित हो जाएगी और आईडी रिपोर्ट होने लगेगी। समझदार को इशारा काफी है।

धार नगरी को अपने ‘गौरव’ से काट दिया गया है। उनकी सोच केवल भोजशाला और #वाग्देवी_की_प्रतिमा लाने तक सीमित कर दी गई है। वे इस बात पर गौरव करना भूल चुके हैं कि कभी यहाँ संपूर्ण विश्व से विद्यार्थी आते थे। इस सरस्वती कूप को भी उन्होंने भूला दिया है। जिन्हे याद है वे भी कुछ नहीं कर सकते। इस सरस्वती कूप का वैज्ञानिक शोध आवश्यक है, जैसा कि सेना प्रयागराज में करवा रही है। भोजशाला में बीजमन्त्रों को विश्व ने लगभग खो ही दिया है लेकिन ये ‘सरस्वती कूप’ अब भी चैतन्य है। क्या इसके बारे में सरकार कुछ करेगी।

‘यह दिखला रही है कि कुंडलनी में जिस प्रकार प्रज्ञा प्रवाहित है उसी प्रकार सरस्वती भूलोक में गंगा और यमुना के संगम से भी मिलती है विश्व अणु से प्रवाहित जल धाराओं को चित्र में देखा जा सकता है।’

फोटो 1 – #प्रयागराज_का_सरस्वती_कूप
फोटो 2 – ये यंत्र उस जगह बना था, जहाँ पर #भोजशाला_का_सरस्वती_कूप है। हालांकि अब इसे मिटा दिया गया है। ये फोटो कई साल पहले लिया गया था।

साभार : विपुल विजय रेगे जी
दिनांक – ०१.०२.२०२३
—#राजसिंह—

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ब्रिटिश-मार्क्सवादी-नेहरूवादी इतिहासकारों ने हिन्दुओं के साथ छल किया-

पैगंबर मोहम्मद साहब का जब जन्म भी नहीं हुआ था, तब से अमरनाथ गुफा में हो रही है पूजा-अर्चना! इसलिए इस झूठ को नकारिए कि अमरनाथ गुफा की खोज एक मुसलिम ने की थी

अमरनाथ का पूरा इतिहास

बाबा बर्फानी के दर्शन के अमरनाथ यात्रा शुरू हो गयी है। अमरनाथ यात्रा शुरू होते ही फिर से सेक्युलरिज्म के झंडबदारों ने गलत इतिहास की व्याख्या शुरू कर दी है कि इस गुफा को 1850 में एक मुसलिम बूटा मलिक ने खोजा था! पिछले साल तो पत्रकारिता का गोयनका अवार्ड घोषित करने वाले इंडियन एक्सप्रेस ने एक लेख लिखकर इस झूठ को जोर-शोर से प्रचारित किया था। जबकि इतिहास में दर्ज है कि जब इसलाम इस धरती पर मौजूद भी नहीं था, यानी इसलाम पैगंबर मोहम्मद पर कुरान उतरना तो छोडि़ए, उनका जन्म भी नहीं हुआ था, तब से अमरनाथ की गुफा में सनातन संस्कृति के अनुयायी बाबा बर्फानी की पूजा-अर्चना कर रहे हैं।

कश्मीर के इतिहास पर कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ और नीलमत पुराण से सबसे अधिक प्रकाश पड़ता है। श्रीनगर से 141 किलोमीटर दूर 3888 मीटर की उंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफा को तो भारतीय पुरातत्व विभाग ही 5 हजार वर्ष प्राचीन मानता है। यानी महाभारत काल से इस गुफा की मौजूदगी खुद भारतीय एजेंसियों मानती हैं। लेकिन यह भारत का सेक्यूलरिज्म है, जो तथ्यों और इतिहास से नहीं, मार्क्सवादी-नेहरूवादियों के ‘परसेप्शन’ से चलता है! वही ‘परसेप्शन’ इस बार भी बनाने का प्रयास आरंभ हो चुका है।

‘राजतरंगिणी’ में अमरनाथ

अमरनाथ की गुफा प्राकृतिक है न कि मानव नर्मित। इसलिए पांच हजार वर्ष की पुरातत्व विभाग की यह गणना भी कम ही पड़ती है, क्योंकि हिमालय के पहाड़ लाखों वर्ष पुराने माने जाते हैं। यानी यह प्राकृतिक गुफा लाखों वर्ष से है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में इसका उल्लेख है कि कश्मीर के राजा सामदीमत शैव थे और वह पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने जाते थे। ज्ञात हो कि बर्फ का शिवलिंग अमरनाथ को छोड़कर और कहीं नहीं है। यानी वामपंथी, जिस 1850 में अमरनाथ गुफा को खोजे जाने का कुतर्क गढ़ते हैं, इससे कई शताब्दी पूर्व कश्मीर के राजा खुद बाबा बर्फानी की पूजा कर रहे थे।

“नीलमत पुराण” और “बृंगेश संहिता” में अमरनाथ

नीलमत पुराण, बृंगेश संहिता में भी अमरनाथ तीर्थ का बारंबार उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में लिखा है कि अमरनाथ की गुफा की ओर जाते समय अनंतनया (अनंतनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी, सुशरामनगर (शेषनाग), पंचतरंगिरी (पंचतरणी) और अमरावती में यात्री धार्मिक अनुष्ठान करते थे।

वहीं छठी में लिखे गये नीलमत पुराण में अमरनाथ यात्रा का स्पष्ट उल्लेख है। नीलमत पुराण में कश्मीर के इतिहास, भूगोल, लोककथाओं, धार्मिक अनुष्ठानों की विस्तृत रूप में जानकारी उपलब्ध है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गये वर्णन से पता चलता है कि छठी शताब्दी में लोग अमरनाथ यात्रा किया करते थे।

नीलमत पुराण में तब अमरनाथ यात्रा का जिक्र है जब इस्लामी पैगंबर मोहम्मद का जन्म भी नहीं हुआ था। तो फिर किस तरह से बूटा मलिक नामक एक मुसलमान गड़रिया अमरनाथ गुफा की खोज कर कर सकता है? ब्रिटिशर्स, मार्क्सवादी और नेहरूवादी इतिहासकार का पूरा जोर इस बात को साबित करने में है कि कश्मीर में मुसलमान हिंदुओं से पुराने वाशिंदे हैं। इसलिए अमरनाथ की यात्रा को कुछ सौ साल पहले शुरु हुआ बताकर वहां मुसलिम अलगाववाद की एक तरह से स्थापना का प्रयास किया गया है!

इतिहास में “अमरनाथ गुफा” का उल्लेख”

अमित कुमार सिंह द्वारा लिखित ‘अमरनाथ यात्रा’ नामक पुस्तक के अनुसार, पुराण में अमरगंगा का भी उल्लेख है, जो सिंधु नदी की एक सहायक नदी थी। अमरनाथ गुफा जाने के लिए इस नदी के पास से गुजरना पड़ता था। ऐसी मान्यता था कि बाबा बर्फानी के दर्शन से पहले इस नदी की मिट्टी शरीर पर लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं। शिव भक्त इस मिट्टी को अपने शरीर पर लगाते थे।

पुराण में वर्णित है कि अमरनाथ गुफा की उंचाई 250 फीट और चौड़ाई 50 फीट थी। इसी गुफा में बर्फ से बना एक विशाल शिवलिंग था, जिसे बाहर से ही देखा जा सकता था। बर्नियर ट्रेवल्स में भी बर्नियर ने इस शिवलिंग का वर्णन किया है। विंसेट-ए-स्मिथ ने बर्नियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का संपादन करते हुए लिखा है कि अमरनाथ की गुफा आश्चर्यजनक है, जहां छत से पानी बूंद-बूंद टपकता रहता है और जमकर बर्फ के खंड का रूप ले लेता है। हिंदू इसी को शिव प्रतिमा के रूप में पूजते हैं। ‘राजतरंगिणी’ तृतीय खंड की पृष्ठ संख्या-409 पर डॉ. स्टेन ने लिखा है कि अमरनाथ गुफा में 7 से 8 फीट की चौड़ा और दो फीट लंबा शिवलिंग है। कल्हण की राजतरंगिणी द्वितीय, में कश्मीर के शासक सामदीमत 34 ई.पू से 17 वीं ईस्वी और उनके बाबा बर्फानी के भक्त होने का उल्लेख है।

यही नहीं, जिस बूटा मलिक को 1850 में अमरनाथ गुफा का खोजकर्ता साबित किया जाता है, उससे करीब 400 साल पूर्व कश्मीर में बादशाह जैनुलबुद्दीन का शासन 1420-70 था। उसने भी अमरनाथ की यात्रा की थी। इतिहासकार जोनराज ने इसका उल्लेख किया है। 16 वीं शताब्दी में मुगल बादशाह अकबर के समय के इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी पुस्तक ‘आईने-अकबरी’ में अमरनाथ का जिक्र एक पवित्र हिंदू तीर्थस्थल के रूप में किया है। ‘आईने-अकबरी’ में लिखा है- गुफा में बर्फ का एक बुलबुला बनता है। यह थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढ़ता है और यह दो गज से अधिक उंचा हो जाता है। चंद्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू हो जाता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है।

वास्तव में कश्मीर घाटी पर विदेशी इस्लामी आक्रांता के हमले के बाद हिंदुओं को कश्मीर छोड़कर भागना पड़ा। इसके बारण 14 वीं शताब्दी के मध्य से करीब 300 साल तक यह यात्रा बाधित रही। यह यात्रा फिर से 1872 में आरंभ हुई। इसी अवसर का लाभ उठाकर कुछ इतिहासकारों ने बूटा मलिक को 1850 में अमरनाथ गुफा का खोजक साबित कर दिया और इसे लगभग मान्यता के रूप में स्थापित कर दिया। जनश्रुति भी लिख दी गई जिसमें बूटा मलिक को लेकर एक कहानी बुन दी गई कि उसे एक साधु मिला। साधु ने बूट को कोयले से भरा एक थैला दिया। घर पहुंच कर बूटा ने जब थैला खोला तो उसमें उसने चमकता हुआ हीरा माया। वह वह हीरा लौटाने या फिर खुश होकर धन्यवाद देने जब उस साधु के पास पहुंचा तो वहां साधु नहीं था, बल्कि सामने अमरनाथ का गुफा था।

आज भी अमरनाथ में जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है उसका एक भाग बूटा मलिक के परिवार को दिया जाता है

चढ़ावा देने से हमारा विरोध नहीं है, लेकिन झूठ के बल पर इसे दशक-दर-दशक स्थापित करने का यह जो प्रयास किया गया है, उसमें बहुत हद तक इन लोगों को दसफलता मिल चुकी है। आज भी किसी हिंदू से पूछिए, वह नीलमत पुराण का नाम नहीं बताएगा, लेकिन एक मुसलिम गरेडि़ए ने अमरनाथ गुफा की खोज की, तुरंत इस फर्जी इतिहास पर बात करने लगेगा। यही फेक विमर्श का प्रभाव होता है।