#वीर_सावरकर की आलोचना करने वाले,
उनके बाल के बराबर भी नहीं हो सकते…
*आओ समझें*
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हमारे देश में एक विशेष जमात यह राग अलाप रही है,
कि जिन्ना अंग्रेजों से लड़े थे इसलिए महान थे।
जबकि वीर सावरकर गद्दार थे, क्यूंकि उन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी मांगी थी।
वैसे इन लोगों को यह नहीं मालूम कि जिन्ना ने देश तोड़कर पाकिस्तान लेने के लिऐ हज़ारों निर्दोष हिन्दुओं का क़त्ल करवाया था।
जबकि वीर सावरकर का तो सारा जीवन ही राष्ट्र को समर्पित था।
पहले सावरकर को जान तो लीजिये।
1. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे,
जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की
मृत्यु पर नासिक में शोकसभा का विरोध किया,
और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, उसका हम शोक क्यूँ करें ??
क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन
पर ब्रिटेन में शोकसभा हुई है…?
2. वीर सावरकर पहले देशभक्त थे,
जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह
का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में
बड़े – बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि
गुलामी का उत्सव मत मनाओ…
3. विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में, सात अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी…
4. वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे,
जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी भारी प्रशंसा की थी,
जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र ‘इन्डियन ओपीनियन’ में गाँधी ने निंदा की थी…
5. सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की
इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके ही
मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को
मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया…
6. सावरकर पहले भारतीय थे,
जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण
पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया,
और दस रूपये जुर्माना लगाया …
इसके विरोध में हड़ताल हुई…
स्वयं तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर
के पक्ष में ज़ोरदार सम्पादकीय लिखा…
7. वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे,
जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नही ली… बस इसी कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं दिया गया…
8. वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे,
जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को
*’1857 का स्वातंत्र्य समर’* नामक ग्रन्थ लिखकर इसे सिद्ध कर दिखाया …
9. सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे,
जिनके लिखे *’1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था…*
10. *’1857 का स्वातंत्र्य समर’ विदेशों में छापा गया और भारत में सरदार भगत सिंह ने इसे छपवाया था* जिसकी
एक – एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी…
*भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह ग्रंथ पवित्र गीता थी…*
पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी…
11. वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे
जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से
भारत लाते समय *आठ जुलाई 1910 को समुद्र*
*में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँच गए थे…*
12. सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे,
जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला,
मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नही मिला और बंदी बनाकर भारत लाया गया…
13. वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे,
जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने *दो आजन्म कारावास की सजा* सुनाई थी…
14. सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे,
जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही
*हंस पड़े और बोले- “चलो, ये अच्छा हुआ – ईसाई सत्ता ने हिन्दूधर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया.”*
15. वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे,
जिन्होंने काला पानी की सजा के समय
10 साल से भी अधिक समय तक आजादी के
लिए कोल्हू चलाकर 30 पौंड तेल प्रतिदिन निकाला…
16. वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे,
जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कील, कंकड़
और कोयले से कविताऐं लिखीं और 6000 पंक्तियाँ याद भी रखीं … जिन्हें बाद में प्रकाशित किया गया॥
17. वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे,
जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर
आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध इसलिये लगा रहा क्योंकि नेहरु उनसे वैसे ही ईर्ष्या करते थे जैसे सुभाष बोस से …
18. आधुनिक इतिहास के वीर सावरकर
पहले विद्वान लेखक थे,
जिन्होंने हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा कि-
*’आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका. पितृभू:पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः.’*
अर्थात समुद्र से हिमालय तक
भारत भूमि जिसकी पितृभू है
जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व जिनकी पुण्यभूमि है,
जिसके तीर्थ भारतभूमि मे ही हैं, वही हिन्दू है…
19. वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे
जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा
तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार
ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा,
पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के
बाद ससम्मान रिहा करना पड़ा …
*देशी-विदेशी दोनों सरकारों को*
*उनके राष्ट्रवादी विचारों से डर लगता था…*
20. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे,
जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ
तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा
तो यह कहकर रोक दिया गया कि,
वे संसद सदस्य नही थे,
जबकि इन काले अंग्रेजों ने *चर्चिल की मौत पर संसद में शोक मनाया था…*
21.वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त
स्वातंत्र्य वीर थे, जिनके मरणोपरांत
26 फरवरी 2003 को,
उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमे कभी उनके
निधन पर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था….
22. वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे,
जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए
कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा,
लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने
सुझाव पत्र *तत्काल नकार दिया* और वीर सावरकर के
*चित्र अनावरण राष्ट्रपति जी ने अपने कर-कमलों से किया…*
वीर सावरकर ने दस साल आजादी के लिए
कालापानी में कोल्हू चलाया था,
जबकि गाँधी-नेहरु ने कालापानी की उस जेल में
कभी दस मिनट चरखा भी नहीं चलाया….
23. महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी-देशभक्त,
उच्चकोटि के साहित्य के रचनाकार,
हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्थान के मंत्रदाता,
हिंदुत्व के सूत्रधार वीर विनायक दामोदर सावरकर
पहले ऐसे भव्य-दिव्य पुरुष, भारत माता के सच्चे सपूत थे,
जिनसे अंग्रेजी सत्ता भयभीत थी,
आजादी के बाद नेहरु की सत्ता भी भयभीत थी…
24. वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे,
जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया…
पर आश्चर्य की बात यह है कि,
इन सभी विरोधियों के *घोर अँधेरे को चीरकर*
*आज वीर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों*
*का सूर्य उदय हो रहा है…*
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Category: जीवन चरित्र
दलित उद्धारक के रूप में वीर सावरकर
28 मई जन्म दिन –
क्रांतिकारी वीर सावरकार का स्थान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना ही एक विशेष महत्व रखता है। सावरकर जी पर लगे आरोप भी अद्वितीय थे उन्हें मिली सजा भी अद्वित्य थी। एक तरफ उन पर आरोप था कि अंग्रेज सरकार के विरुद्ध युद्ध की योजना बनाने का, बम बनाने का और विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों से सम्पर्क करने का तो दूसरी तरफ उनको सजा मिली थी पूरे 50 वर्ष तक दो सश्रम आजीवन कारावास। इस सजा पर उनकी प्रतिक्रिया भी अद्वितीय थी कि ईसाई मत को मानने वाली अंग्रेज सरकार कब से पुनर्जन्म अर्थात दो जन्मों को मानने लगी। वीर सावरकर को 50 वर्ष की सजा देने के पीछे अंग्रेज सरकार का मंतव्य था कि उन्हें किसी भी प्रकार से भारत अथवा भारतीयों से दूर रखा जाये। जिससे वे क्रांति की अग्नि को न भड़का सके। सावरकर के लिए शिवाजी महाराज प्रेरणा स्रोत थे। जिस प्रकार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को आगरे में कैद कर लिया था उसी प्रकार अंग्रेज सरकार ने भी वीर सावरकर को कैद कर लिया था। जैसे शिवाजी महाराज ने औरंगजेब की कैद से छुटने के लिए अनेक पत्र लिखे उसी प्रकार से वीर सावरकर ने भी अंग्रेज सरकार को पत्र लिखे। जब उनकी अंडमान की कैद से छुटने की योजना असफल हुई, जब उसे अनसुना कर दिया गया। तब वीर शिवाजी की तरह वीर सावरकर ने भी कूटनीति का सहारा लिया क्यूंकि उनका मानना था अगर उनका सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार अंडमान की अँधेरी कोठरियों में निकल गया तो उनका जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा। इसी रणनीति के तहत उन्होंने सरकार से सशर्त मुक्त होने की प्रार्थना की, जिसे सरकार द्वारा मान तो लिया गया। उन्हें रत्नागिरी में 1924 से 1937 तक राजनितिक क्षेत्र से दूर नज़रबंद रहना था। विरोधी लोग इसे वीर सावरकर का माफीनामा, अंग्रेज सरकार के आगे घुटने टेकना और देशद्रोह आदि कहकर उनकी आलोचना करते हैं जबकि यह तो आपातकालीन धर्म अर्थात कूटनीति थी।
मुस्लिम तुष्टिकरण को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने अंडमान द्वीप के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर का नाम हटा दिया और संसद भवन में भी उनके चित्र को लगाने का विरोध किया। जीवन भर जिन्होंने अंग्रेजों की यातनाये सही मृत्यु के बाद उनका ऐसा अपमान करने का प्रयास किया गया। उनका विरोध करने वालों में कुछ दलित वर्ग की राजनीती करने वाले नेता भी थे। जिन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वकांशा को पूरा करने के लिए उनका विरोध किया था। दलित वर्ग के मध्य कार्य करने का वीर सावरकर का अवसर उनके रत्नागिरी प्रवास के समय मिला। 8 जनवरी 1924 को सावरकर जी रत्नागिरी में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने घोषणा कि की वे रत्नागिरी दीर्घकाल तक आवास करने आए है और छुआछुत समाप्त करने का आन्दोलन चलाने वाले है। उन्होंने उपस्थित सज्जनों से कहाँ कि अगर कोई अछूत वहां हो तो उन्हें ले आये और अछूत महार जाति के बंधुयों को अपने साथ बैल गाड़ी में बैठा लिया। सामाजिक कार्यों के साथ साथ धार्मिक कार्यों में भी दलितों के भाग लेने का और सवर्ण एवं दलित दोनों के लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना का निश्चय लिया गया। जिससे सभी एक स्थान पर साथ साथ पूजा कर सके और दोनों के मध्य दूरियों को दूर किया जा सके।
1. रत्नागिरी प्रवास के 10-15 दिनों के बाद में सावरकर जी को मढ़िया में हनुमान जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण मिला। उस मंदिर के देवल पुजारी से सावरकर जी ने कहाँ की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में दलितों को भी आमंत्रित किया जाये।जिस पर वह पहले तो न करता रहा पर बाद में मान गया। श्री मोरेश्वर दामले नामक किशोर ने सावरकार जी से पूछा कि आप इतने साधारण मनुष्य से व्यर्थ इतनी चर्चा क्यूँ कर रहे थे? इस पर सावरकर जी ने कहाँ कि
“सैंकड़ों लेख या भाषणों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप में किये गए कार्यों का परिणाम अधिक होता है। अबकी हनुमान जयंती के दिन तुम स्वयं देख लेना।”
2. 29 मई 1929 को रत्नागिरी में श्री सत्य नारायण कथा का आयोजन किया गया जिसमे सावरकर जी ने जातिवाद के विरुद्ध भाषण दिया जिससे की लोग प्रभावित होकर अपनी अपनी जातिगत बैठक को छोड़कर सभी महार- चमार एकत्रित होकर बैठ गए और सामान्य जलपान हुआ।
3. 1934 में मालवान में अछूत बस्ती में चायपान , भजन कीर्तन, अछूतों को यज्ञपवीत ग्रहण, विद्यालय में समस्त जाति के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के बैठाना, सहभोज आदि हुए।
4. 1937 में रत्नागिरी से जाते समय सावरकर जी के विदाई समारोह में समस्त भोजन अछूतों द्वारा बनाया गया जिसे सभी सवर्णों- अछूतों ने एक साथ ग्रहण किया था।
5. एक बार शिरगांव में एक चमार के घर पर श्री सत्य नारायण पूजा थी जिसमे सावरकर जो को आमंत्रित किया गया था। सावरकार जी ने देखा की चमार महोदय ने किसी भी महार को आमंत्रित नहीं किया था। उन्होंने तत्काल उससे कहाँ की आप हम ब्राह्मणों के अपने घर में आने पर प्रसन्न होते हो पर में आपका आमंत्रण तभी स्वीकार करूँगा जब आप महार जाति के सदस्यों को भी आमंत्रित करेंगे। उनके कहने पर चमार महोदय ने अपने घर पर महार जाति वालों को आमंत्रित किया था।
6. 1928 में शिवभांगी में विट्टल मंदिर में अछुतों के मंदिरों में प्रवेश करने पर सावरकर जी का भाषण हुआ।
7. 1930 में पतितपावन मंदिर में शिवू भंगी के मुख से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ ही गणेशजी की मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित की गई।
8. 1931 में पतितपावन मंदिर का उद्घाटन स्वयं शंकराचार्य श्री कूर्तकोटि के हाथों से हुआ एवं उनकी पाद्यपूजा चमार नेता श्री राज भोज द्वारा की गयी थी। वीर सावरकर ने घोषणा करी की इस मंदिर में समस्त हिंदुओं को पूजा का अधिकार है और पुजारी पद पर गैर ब्राह्मण की नियुक्ति होगी।
इस प्रकार के अनेक उदहारण वीर सावरकर जी के जीवन से हमें मिलते है जिससे दलित उद्धार के विषय में उनके विचारों को, उनके प्रयासों को हम जान पाते हैं। सावरकर जी के बहुआयामी जीवन के विभिन्न पहलुयों में से सामाजिक सुधारक के रूप में वीर सावरकर को स्मरण करने का मूल उद्देश्य दलित समाज को विशेष रूप से सन्देश देना है। जिसने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए सवर्ण समाज द्वारा अछूत जाति के लिए गए सुधार कार्यों की अपेक्षा कर दी है। और उन्हें केवल विरोध का पात्र बना दिया हैं।
वीर सावरकर महान क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा जी के क्रांतिकारी विचारों से लन्दन में पढ़ते हुए संपर्क में आये थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा स्वामी दयानंद के शिष्य थे। स्वामी दयानंद के दलितों के उद्धार करने रूपी चिंतन को हम स्पष्ट रूप से वीर सावरकर के चिंतन में देखते हैं।

बटूकेश्वर दत्त
(1) बटुकेश्वर दत्त ने 1929 में अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंक, इंकलाब ज़िंदाबाद के नारों के साथ आजन्म काला-पानी स्वीकार किया था।
(2) आजादी के बाद भी वे सरकारी उपेक्षा के चलते गुमनामी और उपेक्षित जीवन जीते रहे।
(3) जीवन निर्वाह के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ा तो कभी बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम किया।
(4) जिस व्यक्ति के ऐतिहासिक किस्से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर होने चाहिए थे उसे एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर गुजर-बसर करनी पड़ती है।
(5) देश की आजादी और जेल से रिहाई के बाद दत्त पटना में रहने लगे. पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वे बस का परमिट लेने पटना के कमिश्नर से मिलते हैं तो कमिश्नर द्वारा उनसे उनके #बटुकेश्वर_दत्त होने का प्रमाण मांगा गया ।
(6) उन्होंने बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम भी किया।
पटना की सड़कों पर खाक छानने को विवश बटुकेश्वर दत्त की पत्नी मिडिल स्कूल में नौकरी करती थीं जिससे उनका गुज़ारा हो पाया।
(7) अंतिम समय उनके 1964 में अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर उनका ढंग से उपचार नहीं हो रहा था।
इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है. चमनलाल आजाद के मार्मिक लेकिन कडवे सच को बयां करने वाले लेख को पढ़ पंजाब सरकार ने अपने खर्चे पर दत्त का इलाज़ करवाने का प्रस्ताव दिया। तब जाकर बिहार सरकार ने ध्यान देकर मेडिकल कॉलेज में उनका इलाज़ करवाना शुरू किया. पर दत्त की हालात गंभीर हो चली थी।
(8) 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया. दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था, “मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाउंगा.” दत्त को दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती किये जाने पर पता चला की उन्हें कैंसर है और उनके जीवन के कुछ दिन ही शेष बचे हैं। यह सुन भगत सिंह की मां विद्यावती देवी अपने पुत्र समान दत्त से मिलने दिल्ली आईं।
(9) वहीं पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन जब दत्त से मिलने पहुंचे और उन्होंने पूछ लिया, हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो मांग लीजिए। छलछलाई आंखों और फीकी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, हमें कुछ नहीं चाहिए। बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।
(10) 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर दत्त इस दुनिया से विदा हो गये. उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के समीप हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया।
(11) उक्त प्रसंग प्रत्येक भारतीय को ज्ञात होना चाहिए और चिंतन करना चाहिए कि ऐसे कई युवा अपना यौवन, सुख सुविधाएँ , परिवार के कष्ट निवारण की आशाओं पर तुषारापात कर देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए बलिदान हुए, उनमें से ऐसे कुछ ही लोग भाग्य से स्वतंत्रता का दिन देख पाए । लेकिन उन्हें कष्ट भोगने पड़े, उसका दोषी कौन?
(12) उन लोगों को आज हम अज्ञात कह देते हैं लेकिन तब के अखबारों की सुर्खियां गवाह है कि वे अज्ञात तो नहीं ही थे। तब के रेडियो में प्रमुख खबरों में होते थे उनके नाम।
शहरों में उनके पोस्टर लगते थे, मोटी इनामी धनराशि का लालच देकर उनके लिए मुखबिरी करवाई जाती थी।
(13) तो फिर बाद में वे अनाम कैसे बना दिए गए? भगतसिंह के साथ बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त को कालापानी की सजा हुई, जो कि मृत्युदण्ड से भी अधिक दुखदायी थी,अतः फाँसी से कमतर सजा नहीं थी।
फिर भी आज न कोई नामलेवा है,न साधारणतः कोई जानता है, न कहीं फोटो सहज उपलब्ध हैं।
(संशोधित- #कुमार_एस)

अमरशहीद भगत सिंह जी का डेथ वारंट (फाँसी का परवाना)

भगतसिंह द्वारा लाहौर जेल अधिकारियों को पिता से मिलने हेतु लिखा गया पत्र

विर सावरकर
क्रान्तिकारियों के मुकुटमणि स्वातन्त्र्यवीर सावरकर का जन्म 28 मई सन् 1883 ई. को नासिक जिले के भगूर ग्राम में एक चितपावन ब्राह्मण वंश परिवार में हुआ था। उनके पिता श्रीदामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही परम धार्मिक तथा कट्टर हिन्दुत्वनिष्ठ विचारों के थे। विनायक सावरकर पर अपने माता-पिता के संस्कारों की छाप पड़ी और वह प्रारम्भ में धार्मिकता से ओतप्रोत रहा।
नासिक में विद्याध्ययन के समय लोकमान्य तिलक के लेखों व अंग्रेजों के अत्याचारों के समाचारों ने छात्र सावरकर के हृदय में विद्रोह के अंकुर उत्पन्न कर दिये। उन्होंने अपनी कुलदेवी अष्टभुजी दुर्गा की प्रतिमा के सम्मुख प्रतिज्ञा ली—‘‘देश की स्वाधीनता के लिए अन्तिम क्षण तक सशस्त्र क्रांति का झंडा लेकर जूझता रहूँगा।’’
युवक सावरकर ने श्री लोकमान्य की अध्यक्षता में पूना में आयोजित एक सार्वजनिक समारोह के सबसे पहले विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का शुभारम्भ किया कालेज से निष्कासित कर दिये जाने पर भी लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से वह लन्दन के लिए प्रस्थान कर गये।
साम्राजयवादी अंग्रेज़ों के गढ़ लंदन में सावरकर चुप न बैठ सके। उन्हीं की प्ररेणा पर श्री मदनलाल ढींगरा ने सर करजन वायली की हत्या करके प्रतिशोध लिया। उन्होंने लन्दन से बम्ब व पिस्तौल, गुप्त रूप से भारत भिजवाये। लन्दन में ही ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ की रचना की। अंग्रेज सावरकर की गतिविधियों से काँप उठा।
13 मार्च 1910 को सावरकरजी को लन्दन के रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार करा लिया गया। उन्हें मुकदमा चलाकर मृत्यु के मुँह में धकेलने के उद्देश्य से जहाज में भारत लाया जा रहा था कि 8 जुलाई 1910 को मार्लेस बन्दरगाह के निकट वे जहाज से समुद्र में कूद पड़े। गोलियों की बौछार के बीच काफी दूर तक तैरते हुए वे फ्रांस के किनारे जा लगे, किन्तु फिर पकड़ लिये गये। भारत लाकर मुकदमे का नाटक रचा गया और दो आजन्म कारावास का दण्ड देकर उनको अण्डमान भेज दिया गया। अण्डमान में ही उनके बड़े भाई भी बन्दी थे। उनके साथ देवतास्वरूप भाई परमानन्द, श्री आशुतोष लाहिड़ी, भाई हृदयरामसिंह तथा अनेक प्रमुख क्रांतिकारी देशभक्त बन्दी थे। उन्होंने अण्डमान में भारी यातनाएँ सहन कीं। 10 वर्षों तक काला-पानी में यातनाएँ सहने के बाद वे 21 जनवरी 1921 को भारत में रतनागिरि में ले जाकर नज़रबन्द कर दिए गये। रतनागिरि में ही उन्होंने ‘हिन्दुत्व’, ‘हिन्दू पद पादशाही’, ‘उशाःप’, ‘उत्तर क्रिया’ (प्रतिशोध), ‘संन्यस्त्र खड्ग’ (शस्त्र और शास्त्र) आदि ग्रन्थों की रचना की; साथ ही शुद्धि व हिन्दू संगठन के कार्य में वे लगे रहे।
जिस समय सावरकर ने देखा कि गांधीजी हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर मुस्लिम पोषक नीति अपनाकर हिन्दुत्व के साथ विश्वासघात कर रहे हैं तथा मुसलमान प्रोत्साहित होकर देश को इस्लामिस्तान बनाने के ख्वाब देख रहे हैं, उन्होंने हिंदू संगठन की आवश्यकता अनुभव की। 30 दिसम्बर 1937 को अहमदाबाद में हुए अ,.भा. हिन्दू महासभा के वे अधिवेशन के वे अध्यक्ष चुने गये। हिन्दू महासभा के प्रत्येक आन्दोलन का उन्होंने तेजस्विता के साथ नेतृत्व किया। भारत-विभाजन का उन्होंने डटकर विरोध किया।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हीं की प्रेरणा से आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की थी। वीर सावरकर ने ‘‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दू का सैनिकीकरण’’ तथा ‘‘धर्मान्त र याने राष्ट्रान्तर’ के दो उद्घोष देश व समाज को दिये।
गांधीजी की हत्या के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया, किन्तु वे ससम्मान मुक्त कर दिए गये।
26 फरवरी 1966 को इस चिरंतन ज्योतिपुंज ने 22 दिन का उपवास करके स्वर्गारोहण किया। हिन्दू राष्ट्र भारत एक असाधारण योद्धा, महान् साहित्यकार, वक्ता, विद्वान, राजनीतिज्ञ, समाज-सुधारक, हिन्दू संगठक से रिक्त हो गया।
पूण्य तिथि पर कोटि कोटि नमन💐💐

નરસિંહ મહેતા
નરસિંહ મહેતા
જન્મ વૈશાખ સુદ પૂર્ણિમા ૧૪૬૫
ભક્ત કવિ નરસિંહ મહેતા મૂળ તો વડનગરના નાગર બ્રાહ્મણ હતાં. સં ૧૩૬૦ માં ઉતર ગુજરાતના છેલ્લા રાજવી કરણઘેલાના સમયમાં તેમના પૂર્વજો ગુજરાત છોડી કાઠીયાવાડમાં તળાજા, જિ. ભાવનગર હિન્દુ રાજવી નાગાર્જુનના રાજ્યમાં આવી વસ્યા. નરસિંહના પૂર્વજ ભાણજી પંડ્યા પ્રખર કર્મકાંડી હતાં. તેમણે રાજાએ આરંભેલ પુત્રેષ્ટિ યજ્ઞમાં સહાય કરી, રાજાને પુત્રપ્રાપ્તિ થઈ. રાજાએ હરખથી ઇશ્વરીયા અને મહાદેવપુર – બે ગામડાં બક્ષિસ આપ્યા. પંડ્યામાંથી જાગીરદાર બન્યા, ત્યારબાદ ગદાધર કારભારી બન્યો પ્રવૃત્તિમાં ફેરફાર થવાથી પંડ્યામાંથી મહેતા બન્યા.
ગદાધરને પાંચ પુત્રો થયાં, તેમાંથી એક જ જીવિત રહ્યો, તે પુરૂષોતમ, તેને બે પુત્રો થયા એક કૃષ્ણ દામોદર અને બીજો પર્વતરાય. બન્નેના લગ્ન તળાજા થયાં. કૃષ્ણ દામોદરને ત્યાં સં. ૧૪૬૫ ના વૈશાખી પૂર્ણિમાએ ભક્તકવિ નરસિંહનો જન્મ થયો. પિતા સિપાહી સાલાર હતાં – વંથલીની લડાઈમાં વીરગતિ પ્રાપ્ત કરી ત્યારે નરસિંહ ફક્ત ૪ વર્ષના હતા. નરસિંહ ભાઈ ભાભીની છત્રછાયામાંજ મોટા થયાં. નરસિંહના લગ્ન ૧૪૮૨માં મજેવડી મુકામે માણેકબાઈ સાથે થયાં. ૧૪૮૬માં પુત્રજન્મ (શામળશા), ૧૪૮૮માં પુત્રીજન્મ (કુંવરબાઈ). કુંવરબાઈના જ વંશમાં સંગીતસાધિકા વિદૂષિઓ તાનારીરી થઈ હતી.
નરસિંહ મહેતા એટલે ગુજરાતી ભાષાના આદિકવિ કે ભક્તકવિ , અને નરસી ભગત કે ભક્ત નરસૈયો જેવા લોકપ્રિય નામથી આપણે જેને ઓળખીયે છીએ. ગુજરાતી ભાષાના અણમોલ રત્ન સમાન નરસિંહ મહેતાને ઊર્મિકાવ્યો, આખ્યાન, પ્રભાતિયા અને ચરિત્રકાવ્યોના આરંભ કરનાર માનવામાં આવે છે. જેના દ્વારા રચાયેલા પ્રભાતિયા આપણને સવારે સાંભળવા મળે છે, જેના ભજનો અને કાવ્યો પાંચસો વર્ષોથી વધુ સમય વીતી ગયો હોવા છતાં પણ આજે લોકોના મનમાં તાજા છે, લોકો ભાવથી આ પદોને ગાય છે. ૧૫મી સદીમાં ભારતમાં જે ભક્તિ અંદોલનની શરૂઆત થઇ તેમાં ગુજરાતને ભક્તિનો રંગ લગાવનાર કવિ નરસિંહ મહેતાએ. જેમણે ભક્તિમાર્ગ અને જ્ઞાનમાર્ગના રહસ્યોને સૌપ્રથમ વાર કવિતાઓ અને ભજનો દ્વારા સરળ ભાષામાં લોકો સુધી પહોંચાડ્યા. નાગર જેવી ઉચ્ચી જાતમાં જન્મ થયેલો હોવા છતાં અછુતવાસમાં જઈને ભજનો ગાયા, લોકોને નાત-જાતના અને જ્ઞાતિ ધર્મોના ભેદોથી ઉપર ઉઠાવી સહુ કોઈ હરિના જન(ભગવાનના સંતાન)છે એવી સમજણ આપી. આવા ક્રાંતિકારી વિચાર ધરાવનાર નરસિંહ મહેતાને ભારતના રાષ્ટ્રપિતા મોહનદાસ કરમચંદ ગાંધી એટલે આપણા બાપુ પણ પોતાના આદર્શ માનતા હતા. બાપુનું સહુથી પ્રિય ભજન “વૈષ્ણવજન” એ નરસિંહ મહેતાએ રચેલું
છે.
નરસિંહ મહેતાનું બાળપણ
નરસિંહ મહેતાનો જન્મ વિક્રમ સંવંત ૧૪૬૫ (ઈ.સ.1409)ની આસપાસ કાઠીયાવાડના તળાજા ગામમાં (હાલનું તળાજા,ભાવનગર) વડનગરા બ્રાહ્મણની નાગર જ્ઞાતિમાં એક શૈવ-પંથી પરિવારમાં થયો હતો. તેમના પિતાનું નામ ‘કૃષ્ણદાસ’ કે ‘કૃષ્ણદામોદરદાસ મહેતા’ અને તેમની માતાનું નામ દયાકુંવરબાઈ હતું. નરસિંહ મહેતા જ્યારે પાંચ વર્ષના હતા, ત્યારે તેમના માતા-પિતાનું અવસાન થયું. બાળપણમાં જ પોતાના માતા-પિતાને ગુમાવનાર નાનકડા નરસિંહના પાલન પોષણની જવાબદારી તેમના દાદી ‘જયાગૌરીબાઇ’ કે ‘જયાકુંવરબાઇ’ સ્વીકારી. નરસિંહ મહેતાના દાદી જયાકુંવરબાઇ વૈષ્ણવ પંથી હતા. (ઇતિહાસકારો મુજબ નરસિંહ ના પિતા અને દાદા વિષ્ણુદાસ કે પુરષોતમદાસ એ શિવ પંથી હતા. નરસિંહ પર કૃષ્ણ ભક્તિના પ્રભાવનું કારણ તેમના દાદી નું પાલન પોષણ હતું.) દાદી નરસિંહને પોતાની સાથે નરસિંહના મોટા ભાઈ (નરસિંહના પિતાના મોટાભાઈ ના પુત્ર) બંસીધર ને ત્યાં જુનાગઢ લઈ આવ્યા. હવે નરસિંહ આઠ વર્ષનો થવા આવ્યો હતો, પરંતુ હજી સુધી તે કશું બોલી શકતો ન હતો. “બ્રાહ્મણનો દીકરો મૂક(મૂંગા) હોય તો પોતાનું જીવન કઈ રીતે જીવી શકશે, પોતાની આજીવિકા કેમ મેળવશે” આવા વિચારોના વંટોળથી નરસિંહના દાદી ઊંડી ચિંતામાં ડૂબી જતા. તેમને પોતાના પુત્રની આ અંતિમ નિશાની સમાન નરસિંહની ખૂબ જ ચિંતા થતી. લોકવાયકા મુજબ એકવાર જયારે બાળક નરસિંહ પોતાની દાદી સાથે ભાગવત-કથા સાંભળીને પરત ફરી રહ્યા હતા, ત્યારે એમને રસ્તામાં એક તપસ્વી સંતનો ભેટો થયો. નરસિંહના દાદીએ સંતનું અભિવાદન કરી, એ તપસ્વી સંતને બાળક નરસિંહ આઠ વર્ષનો થઇ ગયો હોવા છતાં બોલી ના શકતો હોવાની સમસ્યા વિશે જણાવ્યું. સંતે નરસિંહના નેત્રો માં દ્રષ્ટી કરી, અને નરસિંહની પાસે આવી તેના કાનમાં “રાધે ગોવિંદ” “રાધે કૃષ્ણ” ના મહામંત્રનું ઉચ્ચારણ કર્યું. નરસિંહને “રાધે ગોવિંદ” નું નામ બોલવાનું કહ્યું, ધીરે-ધીરે જોતજોતામાં તો મૂંગો બાળક નરસિંહ “રાધે ગોવિંદ” “રાધે કૃષ્ણ” નામનું રટણ કરવા લાગ્યો. આ જોઈ સહુ કોઈ ચકિત રહી ગયા અને નરસિંહના દાદીની પ્રસન્નતા નો કોઈ પર ના રહ્યો. ત્યારથી નરસિંહના જીવનમાં શ્રીકૃષ્ણની ભક્તિનો આરંભ થયો. જેણે નરસિંહ મહેતાને નરસિંહ ભગત બનાવી દીધા. બસ, હવે તો નરસિંહ દિવસ-રાત શ્રીકૃષ્ણના નામનું રટન કરે, પ્રભુની ભક્તિ કરે, અને આખો દિવસ સાધુ સંતો ના સાનિધ્યમાં એમની સેવા ચાકરીમાં વિતાવે. સંતો અને વૈરાગીઓ માટે અખાડા બનાવે તેની યોગ્ય સાફસફાઈ થાય અને કોઈને અગવડતા ન થાય તેનું ધ્યાન રાખે. એ સમયગાળામાં વૃંદાવન, કાશી અને મથુરામાંથી ધણા લોકો વ્યાપાર માટે જૂનાગઢ આવતા, નરસિંહ તેમની સેવા કરતા અને એ લોકો પાસેથી નરસિંહ શ્રીકૃષ્ણ, રાધા, સુદામા, બલરામ, અને ગોવાળોના જીવન વિશે પ્રશ્નો પૂછ્યા અને શ્રી કૃષ્ણલીલા ની વાતો સાભળતા અને પોતાનો મોટાભાગનો સમય ભજન કીર્તન માં વીતાવતા હતા. ગામમાં જ્યાં જ્યાં હરી કીર્તન અને ભજન થતાં હોય ત્યાં નરસિંહ પહોંચી જાય અને પોતાના મધુર સ્વરમાં ભજનો ગાવા લાગતા. ઘણીવાર સાધુસંતોની સાથે ભજનો ગાતાં ગાતાં પોતાના ગામથી ઘણાં દૂર નીકળી જતાં અને એ વાતનું એમને ભાન પણ ના રહેતું.
નરસિંહ મહેતાના વિવાહ
નરસિંહ કશું કામ ના કરતો અને સાધુ સંતો સાથે રખડતો અને ભજનો ગાતો રહેતો અને આ બાબત થી નરસિંહ ના પરિવારજનો ને ચિંતા થતી. તેઓએ નરસિંહને ઘણા સમજાવ્યા છતાં તેમના વર્તનમાં કોઈ સુધારો ન જોવા મળ્યો. નરસિંહ આજીવિકા માટે કોઈ કામ ના કરતા. તેથી તેમના દાદી ને થયું કે ‘નરસિંહ હવે ઉમરલાયક થઈ ગયો છે, અને જો નરસિંહના લગ્ન કરી નાખવામાં આવે, તો લગ્ન બાદ સંસારની જવાબદારી આવતા તેના વર્તનમા સુધારો આવશે. વિક્રમ સંવત ૧૪૮૫ (ઈ.સ. 1429)મા એક સંસ્કારી, અને સગુણી માણેકબાઈ નામની કન્યા સાથે નરસિંહના લગ્ન કરવા આવ્યા. લગ્નના થોડા વર્ષો બાદ નરસિંહ મહેતાને ત્યાં બાળકોના જન્મ થયા પુત્રીનું નામ કુવરબાઇ પુત્રનું નામ શામળશા(શામળદાસ) રાખવામાં આવ્યા, આ સમયગાળા દરમ્યાન તેમના દાદીનું મૃત્યુ થયું. પરંતુ નરસિંહની સંસારના વ્યવહાર પ્રત્યેની નિષ્ક્રિયતા તેમની તેમ જ રહી. માણેકબાઈ એક પતિવ્રતા નારી હતા. તેથી પોતાના પતિ ની ભક્તિમાં કોઈ બાધા ના આવે તેની કાળજી રાખતા. નરસિંહ મહેતાને સંસારના વ્યવહારમાં રસ નહિ માટે તેમના ઘરનો બધો વ્યવહાર માણેકબાઈ પોતાના માથે લીધો. નરસિંહ મહેતા શ્રીકૃષ્ણની ભક્તિમાં મગ્ન રહેતા.
ભાભીનું મહેણું અને નરસિંહને રાસલીલાના દર્શન
નરસિંહની કોઈ આજીવિકા ના હતી. જેથી નરસિંહ અને તેના પરિવારનો ભરણપોષણનો બોજો ભાઈ(બંસીધર) અને ભાભી(ઝવેરબાઈ મહેતી) પર આવી જતો. નરસિંહ મહેતાના ભાભી(ઝવેર મહેતિ) સ્વભાવે થોડા આકરા અને ગુસ્સાવાળા મિજાજના જેથી નરસિંહની આવી નિષ્ક્રિયતા જોઈ ના શકતા. તેઓ સતત નરસિંહ અને તેમના પરિવારને આકરા શબ્દો કહેતા. તેઓ માણેકબાઈ અને તેના બાળકોનું અપમાન કરતા. પરંતુ નરસિંહ પર આનો કોઈ પ્રભાવ ના પડતો, એક દિવસ નરસિંહ મહેતાના ભાભીએ ખુબ ગુસ્સે થઇ ને નરસિંહની ભક્તિ પર અને પ્રભુશ્રધ્ધા પર ખુબ જ આકરા શબ્દોમાં નિંદા કરી. નરસિંહ ની ભક્તિ પર મહેણા ટોણા માર્યા, નરસિંહ પોતાના ભગવાન અને પોતાના ભગવાન પ્રત્યેની ભક્તિ નું આવું અપમાન ભગત સહન ના કરી શક્યા. અને તેમણે સંસારનો ત્યાગ કરી ‘પ્રભુ પ્રાપ્ત કરીશ અથવા જીવનને પ્રભુ ચરણોમાં અર્પણ કરીશ’ આવો સંકલ્પ લઈને, ઘરનો ત્યાગ કરી, જ્યાં તેઓ શાંતિથી પોતાની ભક્તિ કરી શકે એવા સ્થળની શોધમાં નીકળી પડ્યા. તેમણે ગામથી દૂર વનમાં જવાનો નિર્ણય કર્યો. તેઓ જંગલ તરફ ચાલવા લાગ્યા. જંગલ તરફ જતા માર્ગમાં તેમને એક ખંડેર દેખાયું. તેમણે જોયું તો ત્યાં તેમને એક શિવલિંગ નજરે પડ્યું, અને આ સ્થાન પર અપૂજ્ય શિવલિંગ ને જોઈને, નરસિંહ મહેતાના મનમાં ભાવ જાગ્યો અને તેમણે તે ખડેર જગ્યાની સફાઈ કરી. વિધિવત શિવલિંગનું પૂજા અર્ચના કરી ભોળાનાથની ભકિતમાં લીન થઈ ગયા. સાત-સાત દિવસ સુધી ખાધા-પીધા વિના શિવની ભકિતમાં લીન થયેલા નરસિંહ મહેતા પર અંતે મહાદેવે પ્રસન્ન થઇ દર્શન આપ્યા.(એ દિવસ ચૈત્ર સુદની ચૌદશ હતી એવું માનવામાં આવે છે.) નરસિંહના આનંદનો પાર ના રહ્યો. જયારે મહાદેવે નરસિંહને તેની મનોકામના પૂછી ત્યારે નરસિંહે તેમને ‘રાધા કૃષ્ણની રાસલીલા જોવાની ઈચ્છા પ્રગટ કરી’. ભક્તની ઇચ્છાને માન આપી મહાદેવે નરસિંહ મહેતાને શ્રીકૃષ્ણની રાસલીલાના દર્શન કરાવ્યા. નરસિંહ મેહતા આવા અદ્વિત્ય અનુભવથી અભિભૂત થઇ ગયા. અને ભગવાન શ્રીકૃષ્ણની આજ્ઞાથી લોકોને જ્ઞાન અને ભક્તિનો સાચો માર્ગ બતાવવા તથા પોતે જોયેલી શ્રીકૃષ્ણલીલાનું લોકો ને રસપાન કરાવવા સંસારમાં પાછા ફર્યા. નરસિંહ મહેતાનુ જ્ઞાન અને ભક્તિનું ત્રીજુ નેત્ર ખુલી ગયું. જેના પ્રતાપે તેના અંતરમાંથી જ્ઞાન, ભક્તિ અને વૈરાગ્યના પદો નુ ધોધ છૂટી નીકળ્યો. ભાભીનું મહેણું નરસિંહને ભગવાન પ્રાપ્ત કરવાનું નિમિત્ત બની ગયું.
આવા દિવ્ય અનુભવો પછી નરસિંહ મહેતા પ્રભુ આજ્ઞાથી જ્યારે પોતાના ઘરે પાછા આવ્યા, ત્યારે તેમણે પોતાના ભાભીનો ખુબ ખુબ આભાર માન્યો, શ્રદ્ધાભાવથી તેમના ચરણ સ્પર્શ કરીને કહ્યું “ધન્ય હો તમે, ધન્ય હો, માર પર આવડો મોટો ઉપકાર કર્યો. મને પ્રભુનો ભેટો કરાવ્યો, તમે મારા ગુરુ છો. તમે મારો ઉદ્ધાર કર્યો છે તમારા પ્રતાપે આજે મે ઈશ્વરને પ્રાપ્ત કર્યા છે, આ ભવમાં ભલે મને ભાભી સ્વરૂપે મળ્યા પણ આવતા ભવમાં મને મા સ્વરૂપે મળજો”
ત્યારબાદ નરસિંહ મહેતા પોતાના પરિવાર સાથે ભાભીના ઘરનો ત્યાગ કરી નીકળી ગયા. પત્ની માણેકબાઈ ને ચિંતા હતી કે હવે શું કરીશું? ક્યાં જઈશું? ક્યાં રહીશું? પરંતુ નરસિંહને કોઈ ચિંતા નહોતી તેણે પોતાનું અને પોતાના પરીવારનું જીવન અને જીવનનો વ્યવહાર શ્રીકૃષ્ણના ચરણોમાં અર્પણ કરી દીધો. તેઓ પોતાના પરિવારને લઈને ગામની ધર્મશાળામાં રહેવા માટે ગયા, તપાસ કરતાં ત્રણ-ચાર દિવસ રહેવાની વ્યવસ્થા થઈ. બે દિવસ ધર્મશાળામાં ભોજન વિના વિતાવ્યા પછી ત્રીજા દિવસે, “બે દિવસથી પોતાના બાળકોને ભૂખ્યા જોઇને, અને આવતીકાલે ક્યાં જઈને રહેશું?” વગેર જેવા વિચારોથી માણેકબાઈનું મન ચિંતામાં ડુબી ગયું. તે જ દિવસે એક માણસ ધર્મશાળામાં આવ્યો અને નરસિંહ મહેતાને કહ્યું “નરસિંહ મહેતા તમે જ ને, હું એક બ્રાહ્મણ ની ખોજમાં છું જે મને હરી કથા(ભાગવત કથા) સંભળાવી શકે ગામમાં તપાસ કરતા તમારા વિષે જાણ થઇ”. ભગતના જીવને તો પ્રભુ ગુણ સિવાય બીજું જોઈએ શું! તેમણે યજમાન નું નિમંત્રણ સ્વીકાર કર્યું, અને તેમની સાથે જઈને કથા કરી કથાની સમાપ્તિ પર એ સજ્જને નરસિંહ મહેતાને રહેવા માટે એક ઘર દાનમાં આપ્યું.
( આ એક ઘટના નહીં પરંતુ ત્યારબાદ આવી અસંખ્ય ઘટનાઓ થઈ જેમાં નરસિંહ મહેતાને એક યા બીજી રીતે સતત મદદ મળતી રહી, જેમકે બાળકોના લગ્ન, પિતાનું શ્રાધ્ધ, દિકરી નુ મામેરુ, જેવા વ્યવહારુ પ્રસંગો કોઈને કોઈ અણધારી મદદથી ઉકેલાતાં ગયા. જેને લોકોએ ભગવાનના પરચા માની લીધા અને નરસિંહ મહેતાએ પણ આ બધા પ્રસંગોને પ્રભુની લીલા કહી ભાવથી ગાયા છે)
દીકરી કુંવરબાઇનો વિવાહ
ત્યારબાદ દીકરી કુંવરબાઇ ઉંમરલાયક થતાં માણેકબાઈ ને તેના લગ્નની ચિંતા થવા લાગી. આ વાત તેમણે મહેતાજીને કીધી અને નરસિંહ જવાબ આપ્યો “કુવર તો મારા નાથ ની દીકરી તેની ચિંતા કરવામાં, મહેતિ તેની ચિંતા કરશે મારો નાથ”. અને થયુ પણ એવુ જ સામે ચાલીને કુંવરબાઇ માટે માગું આવ્યું. નરસિંહ મહેતાની પુત્રી કુંવરબાઇ ના લગ્ન ઉનાના નિવાસી શ્રીરંગ મહેતાના પુત્ર સાથે નક્કી થયા. વિક્રમ સંવત ૧૫૦૨ (ઈ.સ. 1445- 47ની આસપાસ)માં લોકો એ ક્યારેય કલ્પના ન કરી હોય એવા ધામધૂમથી કુંવરબાઇ ના વિવાહ થયા. લોકોને એમ હતું કે ‘આ દરિદ્ર નરસૈયો કરીયાવરમાં(દીકરી સાસરે જાય ત્યારે તેના માતા પિતા તરફ થી પોતાની પુત્રીને આપવામાં આવતી ભેટ) પોતાની પુત્રીને વળી શુ આપવાનો?’ પરંતુ લોકોની કલ્પનાની વિરુદ્ધ લોકો આંખો ફાડીને જોતા રહી જાય એવો મોભા વાળો કરિયાવર હતો. કુંવરબાઇ પોતાના માતાની પાસેથી મળેલ શિખામણો અને પિતાના સંસ્કારોનો વારસો લઈને સાસરે જવા માટે નીકળી ગઈ.
નરસિહના પીતાનું શ્રાધ્ધ અને અન્ય પ્રસંગ
એકવાર જયારે નરસિંહ મહેતાના પિતાના શ્રાધ્ધના(પિતૃઓને પીંડ અર્પણ કરવાની વિધિ, પૂર્વજોના માનમાં બ્રાહ્મણોને કરવામાં આવતો ભોજનનો કાર્યક્રમ)પ્રસંગ માટે બે-ત્રણ બ્રાહ્મણને જમવાનું નિમંત્રણ આપવા માટે ગયા. પરંતુ અમુક લોકોએ નરસિંહ ને વાતોમાં ભોળવીને આખી નાગર નાતને જમવાનું નિમંત્રણ નરસિંહ મહેતા તરફથી છે એવો પ્રચાર કરી દીધો. જેથી સમગ્ર નાગર બ્રાહ્મણની નાત ને જમાડવાનું કાર્ય નરસિંહ પર આવી ચડ્યું, જેની પાસે સ્વયં પોતાના અને પોતાના પરિવાર ના ભોજન માટે નાણા અને અનાજ ના હોય તે આખી નાત ને કઈ રીતે જમાડે પરંતુ આ પ્રસંગે પણ કોઈ ચમત્કારી રીતે અણધારેલી મદદથી નરસિંહએ પ્રસંગને પણ પાર પાડ્યો. અને ત્યારબાદ સમગ્ર વિસ્તારમાં નરસિંહની અને તેની ભક્તિની વાતો થવા લાગી. નરસિંહની લોકપ્રિયતાની સાથે જ ધણા લોકો નરસિંહને પોતાનો દુશ્મન સમજવા લાગ્યા. નરસિંહથી ઈર્ષા પામેલા લોકો ઉચિત તક ની વાત જોઈને બેઠા હતા, તેઓ સતત નરસિંહ વિરુધ કાવતરાઓ રચતા. નરસિંહને મન કોઈ નાત-જાતના ભેદ ના હતા તેમના માટે તો દરેક હરીના જન(પ્રભુના સંતાનો) હતા, તેમના વિચાર હતા કે
“વૈષ્ણવજન તો તેને રે, કહીયે જે પીડ પરાઈ જાણે રે”
“સકળ લોકમાં સહુને વંદે નિંદાના કરે કેની રે”.
જયારે નરસિંહ નીચી(અછુત, ઢેઢ) જાતી ના લોકોની વિનંતી ને માન આપીને તેમના રહેણાંક વિસ્તારમા(ઢેઢવાડો) ભજન કરવા ગયા, તો પેલા ઈર્ષાળુ લોકોને અવસર મળી ગયો. તેમણે ખટપટ કરીને નરસિંહ અને તેના પરિવારને નાગર નાત માંથી બહાર(બહિષ્કાર કર્યો) કાઢી મુકમાં આવ્યા, નરસિંહ અને તેના પરિવાર સાથે ના તમામ સંબધો ને તોડી નાખવામાં આવ્યા. ત્યારબાદ પ્રભુના ભક્તનું આવું અપમાન કરનાર સમગ્ર નાત ને તેનું ફળ ભોગવવું પડ્યું. નાગર નાત ના આગેવાનો જે કાવતરાખોર લોકોની વાતોમાં આવીને નરસિંહ મહેતાને નાત બહાર મુક્યા હતા. તેમણે નરસિંહની માફી માંગી અને પોતાની ભૂલને સુધારી નરસિંહ ને નાતમાં ફરી સંમિલિત કર્યા.
પુત્ર શામળશદાસનો વિવાહ
વડનગરના મદનમહેતાના પુરોહિત મદનમહેતાની પુત્રી માટે એક યોગ્ય ગુણવાન મુરતયાની શોધમાં અસંખ્ય છોકરાઓ જોતા જોતા જુનાગઢ આવ્યા. એમની આ ખોજ નરસિંહ મહેતાના પુત્ર શામળદાસ (શામળયો) પર આવીને પૂર્ણ થઇ. નરસિંહ મહેતાના પુત્ર શામળશાના વિવાહ વડનગર ના શ્રીમંત પ્રધાન મદનમહેતાની પુત્રી સુરસેના સાથે સુનિશ્ચિત કરવામાં આવ્યા. પરંતુ મદનમહેતાના પત્નીને પોતાની દીકરીની ખુબ ચિંતા થવા લાગી, તેમને થયું કે મારી ફૂલ જેવી દીકરીએ ગરીબ ખાનદાનમાં કેવી રીતે સુખી થશે, માટે તેમણે નરસિંહની પરીક્ષા લેવા એક પત્ર લખ્યો. થોડા દિવસો બાદ મદનમહેતાને ત્યાંથી પત્ર આવ્યો જેમાં લખ્યું હતુ કે ”અમારા માન અને મોભાને યોગ્ય હોય એવી જાન લઈને આવો તો જ અમારી દીકરીને સાસરે વળાવીએ, નહીતર શામળદાસ સાથે ના લગ્ન ને ફોકટ કરશું.” આવા પ્રસંગે નરસિંહ મહેતાની અવસ્થા એવી નહી કે તે આવી જાન લઈને જઈ શકે. પરંતુ આ પ્રસંગે પણ નરસિંહ મહેતા ને પ્રભુ કૃપાથી અણધારી મદદ મળતી રહી.(દંતકથા મુજબ ભગવાન સ્વયમ શામળશાના વિવાહમાં હાજર રહી વિવાહ સંપન્ન કરાવ્યો) સમગ્ર પંથકમાં લોકો જોતા રહી જાય તેવી રૂડી જાન લઈને નરસિંહ મહેતા પોતાના પુત્રના લગ્ન મંડપમાં પધારિયા અને શામળદાસના લગ્ન પૂર્ણ કરાવ્યા. લગ્ન બાદ નરસિંહ મહેતા પોતાના પુત્ર અને પુત્રવધુ સાથે પોતાના ગામ પાછા ફર્યા.
પુત્ર શામળશા અને પત્ની માણેકબાઈનું મૃત્યુ
લગ્નને થોડો સમય જ વીત્યો હતો ત્યાજ એક દુર્ઘટનામાં નરસિંહ મહેતાના પુત્ર શામળદાસ(અને પુત્રવધુ સુરસેના) મૃત્યુ પામ્યા. (એક લોકવાયકા મુજબ સારંગધર નામના એક નાગર બ્રાહ્મણ જે નરસીંહ મહેતાને પોતાના દુશ્મન સમજતા હતા. તેમણે નરસિંહ મહેતા પર ચોરીનો ખોટો આરોપ લગાવ્યો અને પોતાના પુત્ર હનુમંત ના ખોટા સોગંધ ખાધા અને પોતે ખોટો હોવાને કારણે તેના પુત્ર મૃત્યુ પામ્યો. હનુમંતની માતા નરસિંહ મહેતાને પગે પડ્યા અને હનુમંતનો જીવ બચાવવા માટે કરગરવા લાગ્યા. પરોપકારી જીવ નરસિંહ મહેતાથી ના જોવાયુ અને ભગવાનને પ્રાથના કરી કે હનુમંત જીવંત થાય અને તેના બદલામાં પોતાના પુત્ર શામળદાસના જીવ ને પ્રભુ ના ચરણે અર્પણ કરી દીધો. જેથી લગના થોડા દિવસોમાં જ શામળદાસ મૃત્યુ પામ્યો). નરસિંહ મહેતાની પત્ની માણેકબાઈ પર પોતાના એકના એક પુત્રના મોતની ઘટના નો ખુબ જ મોટો આઘાત પડ્યો. નરસીંહ મહેતાના પત્ની માણેકબાઈ આ પીડા સહન ના કરી શક્યા અને થોડા દિવસોમાં જ પુત્રના મૃત્યુના દુઃખની પીડામા પોતાનો જીવ છોડી દીધો. નરસિંહ મહેતા ના જીવનમાં તો દુઃખોના ડુંગરો તૂટી પડ્યા, પહેલા પોતાના કુળનો દિપક સમાન પુત્રના મૃત્યુથી પોતાના કુળનો નાશ થયો અને પોતાની અર્ધાંગીની(પત્ની)ના અવસાનથી જાણે સમગ્ર સંસારનોજ અંત જ ના થઇ ગયો હોય. પરંતુ આવા પ્રસંગે પણ નરસીંહ મહેતા એ પોતાની ભક્તિ અને ભગવાન પ્રત્યેની આસ્થા ડગવા ના દીધી. જેવી એમની સમાનતા એવી સમતા. અગવડ કે સગવડ, સુખ કે દુઃખ, પ્રશંસા કે નિંદા શાનાથીય તેઓ ચલિત ન થયા. પત્નીના અવસાન સમયે તેમની જીભેથી સારી પડ્યું, “ભલું થયું ભાંગી ઝંઝાળ સુખે ભજશું શ્રી ગોપાલ” (સંસારમાં રહીને પણ નરસિંહની વૈરાગ્ય ભાવના અહી પ્રગટ થતી જોવા મળે છે.)
દિકરી કુંવરબાઇનું મામેરુ
હવે નરસિંહ પોતાનો સંપૂર્ણ સમય પ્રભુ ભક્તિ માટે વાપરતા અને સાધુ સંતોની સેવા કરે. લોકોને પોતાની કવિતા અને ભજનો ના પદોથી જ્ઞાન અને ભક્તિની દિવ્ય અનુભૂતિ કરાવતા. તેમની વધતી જતી લોકપ્રિયતાથી હવે તેમનો વિરોધ કરનાર ઈર્ષાળુ લોકોની સંખ્યામા પણ વધારો થયો. આવા લોકો અવનવા રસ્તાઓથી નરસિંહ ને બદનામ કરવાનો, અપમાનિત કરવાનો, નીચા દેખાડવાનો પ્રયત્ન કરતા રહેતા હતા. એવા જ સમયગાળામાં નરસિંહના પુત્રી કુંવરબાઇનો સિમંત પ્રસંગ(એક રીવાજ છે જયારે કોઈ સ્ત્રી માતૃત્વના સાતમાં મહિનામાં હોય ત્યારે બાળક અને માતાના સ્વાસ્થય માટે પૂજા સ્ત્રીઓ સાથે મળીને પૂજા કરે) આવી પહોચ્યો. પોતાની પુત્રીનો પત્ર નરસિંહ ને મળ્યો. નરસિંહ પિતાના ધર્મનું પાલન કરવા દીકરીના સિમંતવિધિના પ્રસંગમાં જવા માટે નિકળ્યા. દીકરીના સાસરિયા તરફથી માંગવામાં આવેલા મામેરાની(સિમંતવિધિના પ્રસંગમાં બધા સાસરીયાવાળાને મનગમતી ભેટ આપવા માટે એક રિવાજ) ભેટોની યાદી નરસિંહે ભગવાનના ચરણોમા ધરી દીધી. પોતાના ભગવાન પર સંપૂર્ણ વિશ્વાસ અને થયું પણ એવુજ યાદીમાં લખેલી ભેટો કરતા પણ વિશેષ વસ્તુઓ કુંવરબાઇના મામેરામાં હતી. કોઈએ ના કર્યું હોય એવું ભવ્ય મામેરું નરસિંહ મહેતા એ કર્યું હતું.(કુંવરબાઇનું મામેરુ એ ભક્તની ભક્તિ અને ભગવાનની ભક્તપરાયણ અને વાત્સલ્યતાના પ્રતિક સમાન ગુજરાતી ભાષાના અનેક કવિઓએ વખાણ્યું છે.) આ પ્રસંગે પણ નરસિંહને ઈશ્વરીય(અણધારેલી) મદદ મળી રહી. દીકરીના મામેરાનો પ્રસંગ સુખેથી પૂરો કરી. તેઓ જુનાગઢ પાછા આવ્યા અને કુંવરબાઇના મામેરાના પ્રસંગ બાદ નરસિંહની લોકપ્રિયતા ખુબ વધવા લાગી.
ઈર્ષાળુ લોકોથી હવે આ સહન થયું નહિ, તેઓ હવે નરસિંહને મારી નાખવા માંગતા હતા. તેની માટે યોજનાઓ બનાવવા લાગ્યા, પોતાની યોજના પ્રમાણે તેમણે નરસિંહને ગ્રામલોકોની દ્રષ્ટિમાં વ્યભિચારી બતાવી મારી નાખવાની યુક્તિ અપનાવી. જેના માટે નરસિંહ જે સ્થાન પર રહેતા હતા, તે સ્થાન પર એક નગરવધુને(વૈશ્યા, દેહનો વેપાર કરનાર સ્ત્રી) મોકલી. પરંતુ જેમ પારસમણીનો સ્પર્શ થતા લોખંડ પણ સોનું બની જાય તેમ થોડા જ દિવસોમાં નરસિંહની ભક્તિના પ્રતાપે એ નગરવધુએ(ઇતિહાસકારોના મતે તેનું નામ ત્યારબાદ રતનબાઇ રાખવામાં આવ્યું) પોતાનો વ્યવસાય છોડી તપસ્વી બની શ્રીકૃષ્ણની ભક્તિના રંગમાં રંગાઈ ગઈ. પોતાનું જીવન શ્રીકૃષ્ણના ચરણોમાં અર્પણ કરી દીધું.
નરસિંહ મહેતાની ભકતીનો પ્રતાપ
આ બનાવ પછી પણ પેલા ઈર્ષાળુ અને કપટી લોકોની મતીમાં કોઈ સુધારો ના આવ્યો. એ લોકોએ નરસિંહ વિરુધ, લોકોને ગેરમાર્ગે દોરી જવાના ખોટા આરોપ અને માયાજાળ બતાવી નિર્દોષ લોકોને ભ્રમિત કરવાના બનાવ જેવી અફવાઓને લોકો વચ્ચે રજુ કરવા લાગ્યા. તે સમયના જુન્નાગઢમાં ચુડાસમા વંશના રાજવી રાજા રા’માંડલિક નું શાસન હતું. ઈર્ષાળુ લોકોએ નરસિંહ વિરુધ રાજાના કાનમાં વાતો નાખવાનું શરુ કરી દીધું. રાજાને એ બાબતમાં વિશ્વાસના હતો કે નરસિંહ ની ભક્તિ ખોટી હોય પરંતુ તેમણે પોતાના રાજધર્મનું પાલન કરતા નરસિંહ મહેતાની તપાસ કરવાનો આદેશ આપ્યો. મંત્રી ને ગામમાં તપાસ કરતા નરસિંહની મહેતાના વિરોધમાં ઘણી બાબતો(પેલા લોકોએ ઉપજાવેલી) જાણવા મળી. મંત્રીએ દરેક બાબતથી રાજાને અવગત કરાવ્યા. રાજાએ નરસિંહને અનૈતિક વર્તનની શંકાના આરોપમાં કેદ કરવાનો આદેશ આપ્યો. આ પ્રસંગે પણ નરસિંહની પ્રભુ પ્રત્યેની ભાવનામાં કોઈ ઓટ ના આવી. તેમના મુખેથી અનાયાસ નીકળી પડ્યું કે ‘વાહ મારા પ્રભુ વાહ ભક્તને ભજન કરવામાં કોઈ બાધાના પહોચે એ માટે આવી વ્યવસ્થા કરી’. નરસિંહને કેદ કરી રાજ દરબારમાં હાજર કરવામાં આવ્યા. રાજ દરબારમાં તેમના વિરુધ અનૈતિકતાનો આરોપ લગાવામાં આવ્યો. અને પોતાની નિર્દોષતા સિધ્ધ કરવા માટે ભગવાનની મૂર્તિને રાજાની નિશાની વાળો હાર પહેરાવમાં આવ્યો અને નરસિંહ ને કહેવામાં આવ્યું કે ‘જો તમારી ભક્તિ સાચી હોય તો કરો તમે તમારા ભગવાનને પ્રાથના અને આ હાર પોતાને પહેરાવવાની વિનંતી કરો, જો તમે સાચા હશો તો પ્રભુ તમને આ હાર જરૂરથી પહેરાવશે, અને જો એવું નહિ થાય તો કાલે સવારમાં સમગ્ર પ્રજાની સામે તમને મૃત્યુદંડ આપવામાં આવશે.’ નરસિંહ મહેતાતો નિશ્ચિત બેસીને ભગવાનના ભજનનો ગાવા લાગ્યા એક પછી એક અનેક ભજનો ગાઈ ને સમગ્ર પ્રજાને સંભળાવ્યા. ધીરે ધીરે આખી રાત વીતવા આવી. પરંતુ સૂર્યોદય પહેલા જ સમગ્ર પ્રજાના જોત જોતામાં ભગવાનની મૂર્તિને પહેરાવેલો હાર ઉડીને નરસિંહ મહેતાના ગાળામાં આવી પહોચ્યો. રાજવી અને સમગ્ર પ્રજા નરસિંહ મહેતા અને તેની ભક્તિનો આવો પરચો જોઈને આશ્ચર્ય ચકિત રહી ગઈ. સમગ્ર પ્રજા અને રાજા નરસિંહ ને નત મસ્તક થઇ ગયા. જે લોકો નરસિંહ ને પોતાનો દુશ્મન સમજતા હતા તેમને પણ નરસિંહની માફી માંગી.
નરસિંહ મહેતાની હુંડી
(આ ઉપરાંત એક હુંડીનો પ્રસંગ ગુજરાત નહિ પણ ભારતના ઘણા ભાગોમાં ધણો લોકપ્રિય છે, પરંતુ ઘણા ઈતિહાસકારો આ ઘટનાનો વિરોધ કરે છે. તેમના મતે હુંડી ભજનની રચના નરસિંહ મહેતાના મૃત્યુ બાદ કરવામાં આવી છે. એ જે કઈ પણ હોય પરંતુ શ્રધ્ધા અને ભક્તિના વિષયમાં પુરાવાની આવશ્યકતા હોતી નથી. હુંડી ભજન એ લોકોમાં ખુબ લોકપ્રિય અને પ્રચલિત છે.)
ઘટના એવી હતી કે એક વાર સાધુ સંતો સાથે ભક્તોનું એક સમૂહ યાત્રા કરતુ કરતુ નરસિંહ મહેતાના ગામમા આવી ચડ્યા. નરસિંહ મહેતાએ તેમનું સ્વાગત અને જલપાન કરાવી અતિથીનો આદર સદકાર કર્યા. અજાણ્યા ગામમાં આવો આદર જોઇને યાત્રાળુઓ ખુબ રાજી થયા. યાત્રામાં આવેલા વ્યાપારી લોકોએ નરસિંહ મહેતાને જતા જતા વિનંતી કરી કે તે એમને હુંડી(સરળ ભાષામાં એ સમયના ચેક જેવી વ્યવસ્થા) લખી આપે જેથી કોઈ પણ જોખમ વગર તેઓ યાત્રા કરી શકે. નરસિંહ મહેતાએ યાત્રાળુને માર્ગમાં બાધા ના આવે એ માટે તેમને એક હુંડી શામળશા શેઠના(ભગવાન શ્રીકૃષ્ણના) નામે લખી આપી. યાત્રાળુઓ યાત્રા કરતા મહાનગરમાં આવી પહોચ્યા. નરસિંહ મહેતાએ જે શામળશા શેઠના નામ પર હુંડી લખી આપી હતી તેની શોધ કરવા લાગ્યા, પરંતુ સમગ્ર નગરમાં તપાસ કરતા પણ આવા નામના કોઈ શેઠ છે એ બાબતના પુરાવા મળ્યા નહિ. આખરે થાકીને તે લોકો એક ધર્મશાળામાં રોકાયા. તેઓ મનો મન ‘નરસિંહ મહેતાએ તેમને મુર્ખ બનાવ્યા, શામળશા શેઠ નામનો તો કોઈ માણસ નગરમાં છે જ નહિ’ એવી વાતો કરવા લાગ્યા. ત્યાજ અચાનક એક વ્યક્તિ યાત્રાળુઓને શોધતા શોધતા ધરમશાળામાં આવ્યા અને નરસિંહ મહેતાની હુંડી સ્વીકારીને તેના નાણા તે યાત્રાળુ વેપારીને ચૂકવી આપ્યા. દંતકથા મુજબ તે હુંડી સ્વીકાર કરનાર બીજું કોઈ નહિ ભગવાન શ્રીકૃષ્ણ સ્વયંમ હતા.(હુંડીના પ્રસંગની અન્ય ઘણી કથાઓ છે, જેમકે નરસિંહના પુત્રના લગ્ન સમયે હુંડીની ઘટના ઘટી. પરંતુ મૂળ વાત એ છે કે ભગવાને નરસિંહ મહેતાની હુંડી સ્વીકારી.)
નરસિંહ મહેતાનુ મૃત્યુ
નરસિંહ મહેતાના મૃત્યુ અંગે કોઈ સચોટ માહિતી નથી. પરંતુ લોક માન્યતા પ્રમાણે નરસિંહ મહેતાનું મૃત્યુ (ઈ.સ.1488) ૭૯ વર્ષની ઉમરની આસપાસ કાઠીયાવાડના માંગરોળ નામના ગામમાં થયું હતું. આ ગામમાં હાલમાં એક ‘નરસિંહ મહેતા સ્મશાન’ નામનું સ્મશાનગૃહ છે. અને એવું કહેવામાં આવે છે કે આજ સ્થળ પર નરસિંહ મહેતાના અંતિમ સંસ્કાર કરવામાં આવ્યા હતા. પોતાના સંપૂર્ણ જીવનમાં તેમણે અનેક સાહિત્યનુ સર્જન કર્યું. જે આજે આટલો સમય વીતી ગયો હોવા છતા આજે પણ સંભાળનારને પરમ આનંદનો અનુભવ કરાવે છે.
નરસિંહ મહેતાની રચનાઓ વિશે
નરસિંહ મહિતાએ પોતાના જીવનકાળ દરમિયાન ઘણા બધા પદો, કાવ્યો, અને ભજનોની રચના કરી પરંતુ આ તમામ રચના તેમને ગાઈને કરી હતી, માટે જે કોઈ સચોટ મહીતી નથી કે તેમણે કેટલા પદોની રચના કરી હતી. પરંતુ નરસિંહ મહેતા દ્વારા રચિત ૨૨૦૦૦થી પણ વધુ ભજનો વૈષ્ણવ સંપ્રદાયોમાં જોવા મળે છે, રસપ્રદ વાત એ છે કે નરસિંહ ની ઘણીબધી રચના એ અન્ય ભાષામાંથી પણ પ્રાપ્ત થઇ છે. નરસિંહના પદોગુજરાત જ નહિ પણ સમગ્ર ભારતમાં ગવાતા જોવા મળે છે. નરસિંહ મહેતાની રચનાઓ મૌખિક રીતે સચવાયેલી છે. ગુજરાત વિદ્યા સભાના સભ્ય અને ગુજરાતી ભાષાના લેખક કેશવરામ કાશીરામ શાસ્ત્રી(કે. કા. શાસ્ત્રી)એ પોતાના પુસ્તક ‘નરસિંહ મહેતા- એક અધ્યયન’ માં નોધેલું છે કે નરસિંહ મહેતા દ્વારા રચાયેલ પદોની સહુથી જૂની લેખિત હસ્તપત્ર ઈ.સ. 1612ની આસપાસમાં બનાવેલા મળી આવેલ છે. જેમની કેટલીક હસ્ત્લીપીને હજુ સાચવામાં આવેલ છે. આ ઉપરાંત નરસિંહ મહેતાની રચનાઓ મૌખિક અને ખુબ લોકપ્રિય હોવાને કારણે તેમાં થોડા ફેરફાર થયેલા જોવા મળે છે. નરસિંહ મહેતાની રચનાઓ વિષે અનેક લેખકો અને ઇતિહાસકારોએ સંસોધેન કરેલા છે. નરસિંહ મહેતાની રચનામાં “ઝુલણ છંદ” અને “કેદારો રાગ” મુખ્ય સ્વરૂપે જોવા મળે છે.
श्रीनिवास रामानुजन की जयंती पर
श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसंबर, 1887 को तमिलनाडु के इरोड (मद्रास प्रेसीडेंसी) में हुआ था और 26 अप्रैल, 1920 को मात्र 32 वर्ष की आयु में तमिलनाडु के कुंभकोणम में उनकी मृत्यु हुई थी।
रामानुजन ने काफी कम उम्र में ही गणित का कौशल हासिल कर लिया था, मात्र 12 वर्ष की आयु में उन्होंने त्रिकोणमिति में महारत हासिल कर ली थी।
वर्ष 1903 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय की एक छात्रवृत्ति प्राप्त की, किंतु अगले ही वर्ष यह छात्रवृत्ति वापस ले ली गई, क्योंकि वे गणित की तुलना में किसी अन्य विषय पर अधिक ध्यान नहीं दे रहे थे।
वर्ष 1913 में उन्होंने ब्रिटिश गणितज्ञ गॉडफ्रे एच. हार्डी के साथ पत्र-व्यवहार शुरू किया, जिसके बाद वे ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज़ चले गए।
वर्ष 1918 में लंदन की रॉयल सोसाइटी के लिये उनका चयन हुआ।
रामानुजन ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी के सबसे कम उम्र के सदस्यों में से एक थे और कैम्ब्रिज़ विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज के फेलो चुने जाने वाले पहले भारतीय थे।
गणित में योगदान
सूत्र और समीकरण
रामानुजन ने अपने 32 वर्ष के अल्प जीवनकाल में लगभग 3,900 परिणामों (समीकरणों और सर्वसमिकाओं) का संकलन किया है। उनके सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में पाई (Pi) की अनंत श्रेणी शामिल थी।
उन्होंने पाई के अंकों की गणना करने के लिये कई सूत्र प्रदान किये जो परंपरागत तरीकों से अलग थे।
खेल सिद्धांत
उन्होंने कई चुनौतीपूर्ण गणितीय समस्याओं को हल करने के लिये नवीन विचार प्रस्तुत किये, जिन्होंने खेल सिद्धांत के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
खेल सिद्धांत में उनका योगदान विशुद्ध रूप से अंतर्ज्ञान पर आधारित है और इसे अभी तक गणित के क्षेत्र में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
रामानुजन की पुस्तकें
वर्ष 1976 में जॉर्ज एंड्रयूज ने ट्रिनिटी कॉलेज की लाइब्रेरी में रामानुजन की एक नोटबुक की खोज की थी। बाद में इस नोटबुक को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।
रामानुजन नंबर
गणित में रामानुजन का सबसे बड़ा योगदान रामानुजन संख्या यानी 1729 को माना जाता है।
यह ऐसी सबसे छोटी संख्या है, जिसको दो अलग-अलग तरीके से दो घनों के योग के रूप में लिखा जा सकता है।
1729, 10 और 9 के घनों का योग है- 10 का घन है 1000 और 9 का घन है 927 और इन दोनों को जोड़ने से हमें 1729 प्राप्त होता है।
1729, 12 और 1 के घनों का योग भी है- 12 का घन है 1728 और 1 का घन है 1 और इन दोनों को जोड़ने से हमें 1729 प्राप्त होता है।
अन्य योगदान: रामानुजन के अन्य उल्लेखनीय योगदानों में हाइपर जियोमेट्रिक सीरीज़, रीमान सीरीज़, एलिप्टिक इंटीग्रल, माॅक थीटा फंक्शन और डाइवर्जेंट सीरीज़ का सिद्धांत आदि शामिल हैं।
जयंती पर कोटि नमन
स्रोत : टाइम्स ऑफ इंडिया

Chatrapati Shivaji
_*Never learnt much about Shivaji in history in School. Amazed at what many think of him:*_
*”From Kabul to Kandahar my Taimur family created the Mogul Sultanate. Iraq, Iran, Turkistan and in many more countries my army defeated ferocious warriors. But in India Shivaji put brakes on us. I spent my maximum energy on Shivaji but could not bring him to his knees.*
*Ya Allah, you gave me an enemy, fearless and upright, please keep your doors to heaven open for him because the world’s best and large hearted warrior is coming to you.”*
-Aurangzeb (After Shivaji’s death, while reading Namaz)
*”That day Shivaji just didn’t chop of my fingers but also chopped off my pride. I fear to meet him even in my dreams.”*
–Shahista Khan.
*”Is there no man left to defeat Shivaji in my kingdom??”*
– Frustrated Begum Ali Adilshah.
*”Netaji, your country does not require any Hitler to throw out British. All you need to teach is Shivaji’s history.”*
-Adolf Hitler
*”Had Shivaji been born in England, we would not only have ruled earth but the whole Universe.”*
-Lord Mountbatten
*”Had Shivaji lived for another ten years, the British would not have seen the face of India.”*
— A British Governer
*_If India needs to be made independent then there is only one way out, ‘Fight like Shivaji’.”*
–Netaji
*”Shivaji is just not a name, it is an energy source for Indian youth, which can be used to make India free.”*
– Swami Vivekananda.
*”Had Shivaji been born in America, we would nomenclared him as SUN.”*
– Barrack Obama
The famous war of Umberkhind is mentioned in the Guinness Book of World Records:
*”The 30,000 strong army of Kartalab Khan from Uzbekistan was defeated by mere 1000 mawalas of Shivaji. Not a single Uzbeki was left alive to return back home.”*
Shivaji was a King of International fame. In the span of 30 yrs of his career he fought with only two Indian warriors. All the others were outsiders.
Shahista Khan, who feared Shivaji even in his dreams was King of Abu Taliban and Turkistan.
Behlol Khan Pathan, Sikandar Pathan, Chidar Khan Pathan were all warrior sardars of Afghanistan.
Diler Khan Pathan was the great warrior of Mangolia. All of them bit dust in front of Shivaji.
Sidhhi Jowhar and Salaba Khan were Iranian warriors, who got defeated by Shivaji.
Sidhhi Jowhar later planned a sea attack. In response Shivaji raised a navy, the first Indian Navy. But before accomplishing the task Shivaji left this world. (He was poisoned.)
Google *”Shivaji, the Management Guru.”* It’s a full subject in Boston University.
Yet, we Indians know so little about him….. what a pity…. atleast let us make our future generation to know about this great INDIAN.
Pl do the least, circulate widely.🙏🙏🙏
आदि शंकराचार्य
एक बालक जिसने 4 वर्ष की उम्र में अपने पिता को खो दिया। 8 वर्ष की उम्र में अपनी मां से सन्यास की आज्ञा ले ली। 12 की उम्र में श्रुति और स्मृति शास्त्रों में निपुणता प्राप्त कर ली।
16 की उम्र में अद्वैत वेदांत का दर्शन दे दिया जिस पर आज तक सबसे ज्यादा रिसर्च हुई है और जारी है। 20 की उम्र में उपनिषद,योगसूत्र,भगवतगीता जैसी गूढ़ पुस्तकों पर टिकाएं लिख डालीं। 25 की उम्र तक तो देश के समस्त विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया।
सनातन धर्म से विमुख हो चुके लोगों को पुनश्च मुख्य धारा में लाने के लिए देश भर में मठ-मंदिर,धामों की स्थापना की,जो आज भी सनातन धर्म की दिग्दिगांत में फैली कीर्ति का मूल बने हुए हैं।
अंततः 32 की उम्र में केदारनाथ में समाधि ली।
ऐसे भगवान शंकाराचार्य की अपने जीवन काल में की गई दिग्विजय यात्राओं का मैप देखिए और कल्पना कीजिये आज से 1300 वर्ष पहले एक व्यक्ति द्वारा पूरे देश भर में भ्रमण कैसे संभव हुआ होगा।
रत्नगर्भा भारत-भूमि पर जन्में सर्वश्रेष्ठ मानव का हम सब पर ऋण है,आइए उनकी राह पर चल उस ऋषि-ऋण को कम करने का संकल्प लें।
जयतु भारतं🙏🙏
