पत्थर की कीमत
एक हीरा व्यापारी था जो हीरे का बहुत बड़ा विशेषज्ञ माना जाता था, किन्तु गंभीर बीमारी के चलते अल्प आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी।
अपने पीछे वह अपनी पत्नी और बेटा छोड़ गया। जब बेटा बड़ा हुआ तो उसकी माँ ने कहा-
“बेटा, मरने से पहले तुम्हारे पिताजी ये पत्थर छोड़ गए थे, तुम इसे लेकर बाज़ार जाओ और इसकी कीमत का पता लगा, ध्यान रहे कि तुम्हे केवल कीमत पता करनी है, इसे बेचना नहीं है।”
युवक पत्थर लेकर निकला, सबसे पहले उसे एक सब्जी बेचने वाली महिला मिली।
” अम्मा, तुम इस पत्थर के बदले मुझे क्या दे सकती हो ?”, युवक ने पूछा।
“देना ही है तो दो गाजरों के बदले मुझे ये दे दो… तौलने के काम आएगा।” सब्जी वाली बोली।
युवक आगे बढ़ गया। इस बार वो एक दुकानदार के पास गया और उससे पत्थर की कीमत जानना चाही। दुकानदार बोला-
“इसके बदले मैं अधिक से अधिक 500 रूपये दे सकता हूँ… देना हो तो दो नहीं तो आगे बढ़ जाओ।”
युवक इस बार एक सुनार के पास गया। सुनार ने पत्थर के बदले 20 हज़ार देने की बात की।
फिर वह हीरे की एक प्रतिष्ठित दुकान पर गया वहां उसे पत्थर के बदले 1 लाख रूपये का प्रस्ताव मिला और अंत में युवक शहर के सबसे बड़े हीरा विशेषज्ञ के पास पहुंचा और बोला-
“श्रीमान, कृपया इस पत्थर की कीमत बताने का कष्ट करें।”
विशेषज्ञ ने ध्यान से पत्थर का निरीक्षण किया और आश्चर्य से युवक की तरफ देखते हुए बोला-
“यह तो एक अमूल्य हीरा है, करोड़ों रूपये देकर भी ऐसा हीरा मिलना मुश्किल है।”
………
यदि हम गहराई से सोचें तो ऐसा ही मूल्यवान हमारा मानव जीवन भी है।
यह अलग बात है कि हममें से बहुत से लोग इसकी कीमत नहीं जानते और सब्जी बेचने वाली महिला की तरह इसे मामूली समझा तुच्छ कामो में लगा देते हैं।
हम प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें इस मूल्यवान जीवन को समझने की सद्बुद्धि दे और हम हीरे के विशेषज्ञ की तरह इस जीवन का मूल्य आंक सकें।
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Category: छोटी कहानिया – १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक
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*તમે કેમેરાની નજરમાં છો.*
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એક દિવસ સવારે ડોરબેલ
વાગી. જ્યારે મેં દરવાજો
ખોલ્યો, ત્યારે મેં જોયું કે એક
આકર્ષક કદની વ્યક્તિ તેના
ચહેરા પર સુંદર સ્મિત સાથે ઉભી હતી…
*મેં કહ્યું, “હા કહો…”*
તેણે કહ્યું,
“સારું ભાઇ, તમે રોજ મારી
પાસે આજીજી કરતા હતા,”
*મેં કહ્યું*
*”માફ કરજો ભાઈ,મેં આપને*
*ઓળખ્યા નહિ…”*
તેથી તે કહેવા લાગ્યા,
*”ભાઈ, હું ભગવાન છું,*
*તું રોજ પ્રાર્થના કરતો ને એટલે*
*આજે હું આખો દિવસ તારી સાથે રહીશ…”*
મેં ચીડાતાં કહ્યું,
*”આ શું મજાક છે…?”*
*”ઓહ આ મજાક નથી, સાચી વાત છે. ફક્ત તું જ મને જોઈ શકીશ, તારા સિવાય મને કોઈ જોઈ અને સાંભળી શકશે નહિ…!”*
*કંઈ બોલે તે પહેલા પાછળથી મમ્મી આવી… “એકલો શું ઉભો છે, અહીં શું કરે છે..? ચા તૈયાર છે, ચાલ અંદર આવીને પી લે…”*
હવે એ આંગતુકના શબ્દોમાં
થોડો વિશ્વાસ થવા લાગ્યો હતો,
અને મારા મનમાં થોડો ડર હતો.
ચાની પહેલી ચુસ્કી પીતાં જ મેં ગુસ્સાથી બૂમ પાડી…
*”અરે મા.. શું આટલી બધી ખાંડ રોજે રોજ..?”*
આટલું બોલ્યા પછી મનમાં વિચાર આવ્યો કે જો આ આંગતુક ખરેખર ભગવાન હશે
તો તેને ગમશે નહીં કે કોઈ તેની માતા પર ગુસ્સે થાય. મેં મનને શાંત કર્યું અને સમજાવ્યું કે “ભાઈ, આજે તું નજરમાં છે… થોડું ધ્યાન રાખજે…!”
*બસ પછી હું જ્યાં પણ હોઉં… તે આખા ઘરમાં મારી પાછળ આવ્યા… થોડી વાર પછી હું નાહવા બાથરૂમ તરફ ગયો કે તરત તે પણ આગળ વધ્યા…*
*મેં કહ્યું,*
*”પ્રભુ,અહીં તો એકલો છોડો…!”*
બસ, સ્નાન કરીને, તૈયાર થઈને હું પૂજાગૃહમાં ગયો, ચોક્કસપણે પહેલીવાર મેં પ્રભુને હૃદયપૂર્વક પ્રાર્થના કરી, કારણ કે આજે મારે મારી પ્રામાણિકતા સાબિત કરવાની હતી. ગાડીમાં દૈનિક પ્રવાસ શરૂ થયો ત્યારે એક ફોન આવ્યો અને ફોન ઉપાડવા જ જતો હતો ત્યારે ધ્યાન આવ્યું, ‘આજે હું નજરમાં છું…’
ગાડી સાઇડમાં થોભાવી, ફોન પર વાત કરી અને વાત કરતાં જ કહેવાનો હતો કે ‘આ કામના પૈસા થશે’… પણ કેમ જાણે મારા મોઢામાંથી નીકળી ગયું, “તું આવ, તારું કામ થઈ જશે, આજે…”
પછી તે દિવસે ઓફિસમાં ન તો સ્ટાફ સાથે ગુસ્સો થયો, ન કોઈ કર્મચારી સાથે દલીલ કરી, રોજેરોજ ૨૫-૩૦ અપશબ્દો બિનજરૂરી બોલતો, પરંતુ તે દિવસે બધા અપશબ્દો
“કોઈ વાંધો નહીં, ઠીક છે, થઇ જશે”…માં બદલાઈ ગયા.
આ પહેલો દિવસ હતો જ્યારે ક્રોધ, અભિમાન, કોઈ દુષ્ટતા, લોભ, અપશબ્દો, અપ્રમાણિકતા, જૂઠ મારી દિનચર્યાનો ભાગ નહોતા બન્યા.
*સાંજે ઓફિસે થી બહાર આવ્યો, કારમાં બેઠો, પછી બાજુમાં બેઠેલા ભગવાન સાથે વાત કરી…*
*”ભગવાન સીટબેલ્ટ બાંધો, આપ પણ કોઇક નિયમોનું પાલન કરો…” મારા અને એના ચહેરા પર સંતોષનું સ્મિત હતું…*
*જ્યારે ઘરે ડિનર પીરસવામાં આવ્યું ત્યારે કદાચ પહેલીવાર મારા મોઢામાંથી બહાર આવ્યું,*
“પ્રભુ, તમે તેને પહેલા લો…!”
અને તેણે પણ સ્મિત કર્યું અને કોળિયો મોંમાં લીધો.
જમ્યા પછી માતાએ કહ્યું,
*”આજે પહેલીવાર તને રસોઇમાં કોઈ કમી ન લાગી. શું વાત છે? શું આજે સૂર્ય પશ્ચિમમાં થી નીકળ્યો છે?”*
હું બોલ્યો,
“મા આજે મારા મનમાં સૂર્યોદય થયો છે…રોજ હું માત્ર અન્ન જ ખાતો હતો, આજે મેં પ્રસાદ લીધો છે, માતા, અને પ્રસાદમાં કોઈ કમી નથી હોતી…!!”
થોડીવાર ચાલ્યા પછી હું મારા રૂમમાં ગયો, નિશ્ર્ચિત અને શાંત મને ઓશીકા પર માથું મૂક્યું, પછી ભગવાને મારા માથા પર પ્રેમથી હાથ ફેરવ્યો અને કહ્યું,
*”આજે તારે ઊંઘવા માટે કોઈ સંગીત, કોઈ દવા કે કોઈ પુસ્તકની જરૂર નહીં પડે…”*
જે દિવસે આપણે સમજી ગયા કે *”તે”* જોઈ રહ્યો છે, ત્યારે બધું સારું થઈ જશે. સ્વપ્નમાં આવેલ એક વિચાર પણ આંખો ખોલી શકે છે…!!
*હંમેશા એ યાદ રાખવુ…*
“આપણે ધરતીના કેમેરાની નજરમાં નહીં પણ દરેક સમયે પ્રભુના નજરમાં છીએ…!!”
*આપણે સૌ ઉપરવાળા ના કેમેરામાં કેદ છીએ…*
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बटूकेश्वर दत्त
(1) बटुकेश्वर दत्त ने 1929 में अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंक, इंकलाब ज़िंदाबाद के नारों के साथ आजन्म काला-पानी स्वीकार किया था।
(2) आजादी के बाद भी वे सरकारी उपेक्षा के चलते गुमनामी और उपेक्षित जीवन जीते रहे।
(3) जीवन निर्वाह के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ा तो कभी बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम किया।
(4) जिस व्यक्ति के ऐतिहासिक किस्से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर होने चाहिए थे उसे एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर गुजर-बसर करनी पड़ती है।
(5) देश की आजादी और जेल से रिहाई के बाद दत्त पटना में रहने लगे. पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वे बस का परमिट लेने पटना के कमिश्नर से मिलते हैं तो कमिश्नर द्वारा उनसे उनके #बटुकेश्वर_दत्त होने का प्रमाण मांगा गया ।
(6) उन्होंने बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम भी किया।
पटना की सड़कों पर खाक छानने को विवश बटुकेश्वर दत्त की पत्नी मिडिल स्कूल में नौकरी करती थीं जिससे उनका गुज़ारा हो पाया।
(7) अंतिम समय उनके 1964 में अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर उनका ढंग से उपचार नहीं हो रहा था।
इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है. चमनलाल आजाद के मार्मिक लेकिन कडवे सच को बयां करने वाले लेख को पढ़ पंजाब सरकार ने अपने खर्चे पर दत्त का इलाज़ करवाने का प्रस्ताव दिया। तब जाकर बिहार सरकार ने ध्यान देकर मेडिकल कॉलेज में उनका इलाज़ करवाना शुरू किया. पर दत्त की हालात गंभीर हो चली थी।
(8) 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया. दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था, “मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाउंगा.” दत्त को दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती किये जाने पर पता चला की उन्हें कैंसर है और उनके जीवन के कुछ दिन ही शेष बचे हैं। यह सुन भगत सिंह की मां विद्यावती देवी अपने पुत्र समान दत्त से मिलने दिल्ली आईं।
(9) वहीं पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन जब दत्त से मिलने पहुंचे और उन्होंने पूछ लिया, हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो मांग लीजिए। छलछलाई आंखों और फीकी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, हमें कुछ नहीं चाहिए। बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।
(10) 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर दत्त इस दुनिया से विदा हो गये. उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के समीप हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया।
(11) उक्त प्रसंग प्रत्येक भारतीय को ज्ञात होना चाहिए और चिंतन करना चाहिए कि ऐसे कई युवा अपना यौवन, सुख सुविधाएँ , परिवार के कष्ट निवारण की आशाओं पर तुषारापात कर देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए बलिदान हुए, उनमें से ऐसे कुछ ही लोग भाग्य से स्वतंत्रता का दिन देख पाए । लेकिन उन्हें कष्ट भोगने पड़े, उसका दोषी कौन?
(12) उन लोगों को आज हम अज्ञात कह देते हैं लेकिन तब के अखबारों की सुर्खियां गवाह है कि वे अज्ञात तो नहीं ही थे। तब के रेडियो में प्रमुख खबरों में होते थे उनके नाम।
शहरों में उनके पोस्टर लगते थे, मोटी इनामी धनराशि का लालच देकर उनके लिए मुखबिरी करवाई जाती थी।
(13) तो फिर बाद में वे अनाम कैसे बना दिए गए? भगतसिंह के साथ बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त को कालापानी की सजा हुई, जो कि मृत्युदण्ड से भी अधिक दुखदायी थी,अतः फाँसी से कमतर सजा नहीं थी।
फिर भी आज न कोई नामलेवा है,न साधारणतः कोई जानता है, न कहीं फोटो सहज उपलब्ध हैं।
(संशोधित- #कुमार_एस)

આરોગ્યદાયક અને આરોગ્યવર્ધક આમલી
#खरगोश_की_कहानी_1
सदियों से दुनिया को खरगोश और कछुए की कहानी सुनाई जा रही है ।
कछुए और खरगोश में दौड़ हुई । तेज़ दौड़ने वाला खरगोश हार गया । धीरे धीरे रेंगने वाला कछुआ जीत गया । दुनिया को सबक मिला कि Slow n Steady wins the race ……. चलते रहो चलते रहो …..
कभी मत रुको …… चलते रहो …… चरैवेति चरैवेति ……
पर आज तक किसी ने खरगोश से न पूछा कि उस दिन आखिर हुआ क्या था ?????
एक दिन मुझे मिल गया वो खरगोश …….एक पेड़ के नीचे लेटा ……. ऊँघता , अलसाता ।
मैंने पूछा , तुम वही हो न ???? जो उस दिन हार गया था कछुए से ?????
हाँ …….मैं वही हूँ ……
क्या हुआ था उस दिन ?
अरे कुछ नही यार । ये आलसी लापरवाह होने की कहानी झूठी है ।
मैं बेतहाशा दौड़ा चला जा रहा था । कछुआ बहुत बहुत पीछे छूट गया था । मुझे पता था मैं बहुत आगे हूँ ….. मैंने सोचा , इस पेड़ के नीचे दो घड़ी सुस्ता लेता हूँ ।
पिछली रात कायदे से सोया नही था ।
Competition की anxiety के कारण नींद ही न आई । बरसों से कछूए की कहानियां सुनाई जा रही थीं मुझे , वो बिना थके चल सकता है , सालों साल चल सकता है ……कभी नही थकता …… ये ज़िन्दगी एक मैराथन रेस की तरह है ।
मैं उस कछुए को दिखाना चाहता था कि मैं भी तेज दौड़ सकता हूँ और बहुत दूर तक दौड़ सकता हूँ ।
इस पेड़ की छांव कितनी शीतल है …… मैंने घास बिछा के एक नर्म गुदगुदा बिस्तर बनाया और उसपे लेट गया ……. लेटते ही आँख लग गई ।
स्वप्नलोक में पहुंच गया ।
वहां एक सन्यासी ध्यानमग्न बैठे थे ।
मुझे पास जान उन्होंने आँखें खोली ।
वो मुस्कुराए ।
कौन हो ?????
मैं खरगोश हूँ . दौड़ में हिस्सा ले रहा हूँ । दौड़ लगी हुई है ।
क्यों दौड़ रहे हो ?
जंगल को ये बताने के लिए कि मैं ही सबसे तेज़ दौड़ता हूँ …….
उससे क्या होगा ? तुम जंगल को क्यों बताना चाहते हो कि तुम बहुत तेज़ दौड़ते हो ??? इतना तेज दौड़ के क्या मिलेगा ???
सबसे तेज़ धावक का medal मिलेगा । इज़्ज़त शोहरत मिलेगी …..मान सम्मान होगा ……. पैसा मिलेगा । मैं अच्छा भोजन खाऊंगा ।
अच्छा भोजन तो आज भी है चारों ओर । देखो चारों तरफ कितनी हरियाली है । पेड़ पौधों पे फल फूल लदे हुए हैं ।
जंगल मुझे याद करेगा कि मैं सबसे तेज़ दौड़ने वाला खरगोश था ।
एक हज़ार साल पहले सबसे तेज़ दौड़ने वाले हिरण का नाम याद है तुम्हें ???? या सबसे बड़े हाथी का ??????
सबसे ताकतवर शेर का ?????
नही तो ……
आज तुम्हारा मुकाबला कछुए से है ।
कल हिरण से होगा
परसों घोड़े से …….
किस किस से दौड़ लगाओगे ?????
क्या सारी जिंदगी दौड़ते ही रहोगे ?????
अच्छा आज की दौड़ जीतने के बाद क्या करोगे ?????
चैन की बंसी बजाऊंगा । उस विशाल पेड़ की घनी छांव में आराम की नींद सोऊंगा । भंवरे मुझे लोरियां सुनाएंगे । तितलियां गुनगुनाएँगी । मैं उस तालाब में बतख के साथ खेलूंगा ।
चैन की नींद तो तुम अब भी सो रहे हो …….उस बतख के साथ तो तुम अब भी खेल सकते हो ।
मेरी नींद खुल गई ।
सामने देखा तो पक्षी चहचहा रहे थे । मैं तालाब में कूद गया । मुझे बत्तखों ने घेर लिया । मछलियां मेरे साथ अठखेलियाँ करने लगी ।
तभी एक बतख ने याद दिलाया ……हे , तुम्हारी तो दौड़ लगी है न कछुए के साथ …….. तुमको तो दौड़ना है अभी …….
छोड़ो , कुछ नही रखा इस बेकार की दौड़ में …….
मुझे किसी के सामने कुछ prove नही करना …….
मुझे किसी से मुकाबला नही करना …….….
चलो तैरने चलें ………
इस तरह मैंने वो दौड़ छोड़ दी ।
कछुए वाली दौड़ मैं बेशक हार गया , पर ज़िन्दगी की दौड़ में जीत गया हूँ ।
इस दुनिया मे 7 Billion लोग हैं ।
हम किसी को खुश नही रख सकते ।
इस भरी दुनिया मे आप सिर्फ एक आदमी को खुश रख सकते हैं …….खुद को ।
दुनिया को खुश करने के लिए नही , स्वयं को खुश रखने के लिये जियो ।
Fb पे पढ़ी एक पोस्ट का हिंदी रूपांतरण किया है ।
मूल रचना अंग्रेज़ी में है ।
*नाम की कमाई*
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एक गांव में एक नौजवान को सत्संग सुनने का बड़ा शौक था।
किसी से पता चला कि गांव के बाहर नदी के उस पार परम संत तुलसी दास जी ने डेरा लगाया हुआ है और आज उनका शाम को 5:00 बजे का सत्संग का प्रोग्राम है।
वह नदी पार करके नौका के द्वारा सत्संग में पहुंच गया। प्रेमी था बड़े प्यार से सत्संग सुना और बड़ा आनंद माना।
जब जाने लगा थोड़ा अंधेरा हो गया। देखा तूफान बहुत ज्यादा था और बारिश के कारण नदी बड़े तूफान पर चल रही थी।
अब जितनी नौका वाले मल्हाह थे, सब डेरे में रुक गए! कोई नौका से आने जाने का साधन नहीं है। संत तुलसी दास जी के पास पहुंचा और बोला महाराज मेरी नई नई शादी हुई है, मेरी पत्नी भी इस गांव में अनजान है और घर में मेरे कोई नहीं है। मेरे पास गहना वगैरा बहुत है,नकदी भी है और हमारा गांव में चोर लुटेरे भी बहुत हैं तो किसी भी हालत में मुझे वहां जाना ही पड़ेगा। नहीं तो पता नहीं क्या हो जाएगा..?
संत तुलसी दास जी ने एक कागज पर कलम से कुछ लिखा और बिना बताए उस पेपर को फोल्ड किया और उसके हाथ में पकड़ा दिया और कहा इसको खोलकर मत देखना कि इसमें क्या लिखा है।जब नदी के पास पहुंचो तो नदी को मेरा संदेश देना।
जब नदी के किनारे पहुंचा देखा तूफान बड़े जोरों का है। इसने चिट्ठी नदी की ओर दिखाते हुए कहा यह संत तुलसी दास जी ने तुम्हारे लिए भेजी है।
इतना सुनते ही नदी बीच में से अलग हो गई और ज़मीन दिखने लगी। पैदल चलने के लिए। यह बड़ा हैरान हुआ। इसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। इसने आंखें मलीं, सोचा कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूं? फिर पैदल नदी पार करने लगा।
मन में जिज्ञासा उठी, देखूं तो सही इस चिट्ठी में लिखा कया है ? जब उसने चिट्ठी खोली तो उसमें लिखा था “राम”।
बड़ा हैरान हुआ, इतने में नदी वापस भर गई और रास्ता बंद हो गया। यह दौड़कर फिर वापस किनारे पर आ गया।
उसी समय संत तुलसी दास जी के पास पहुंचा और संत तुलसी दास जी को सारी बात कहकर सुनाई तो संत तुलसी दास जी ने कहा-भाई मैंने पहले ही कहा था कि चिट्ठी खोलना नहीं। खैर उसी समय दूसरी चिट्ठी दी और कहा इस चिट्ठी को खोलना नहीं और वैसे ही करना।
यह बड़ा हैरान था। संत तुलसी दास जी से पूछा – महाराज चिट्ठी पर तो राम लिखा था, तो इसमें अलग क्या है? राम तो हर कोई लिखता है, पढ़ता है। तो संत तुलसी दास जी ने फरमाया एक राम वो है,जो लोग पढ़ते हैं,सुनते हैं, लिखते हैं और यह मेरा अपना राम है जो मैंने सारी जिंदगी “भजन सिमरन” करके कमाया है।
मित्रो, जो गुरु का दिया “नाम” है, वो आपको हर जगह मिल जाएगा लिखा हुआ लेकिन जो उन्होंने हमें दिया है उसमें ‘पावर’ है। वह उन्होंने कमाया है उनका निजी खजाना है और जब हम “भजन सिमरन” का अभ्यास रोज-रोज करते हैं तो इसी खजाने को बढ़ाते हैं।
हजूर फरमाया करते थे, ये जो संगत है, मेरी फुलवारी है। हर भजन करने वाले से मुझे खुशबू आती है। हमे भजन सिमरन करके इसे बढ़ाना है, पर हम अज्ञानी इसे बढ़ाने की बजाय संसारी वस्तुओं को बढ़ा रहे हैं जो सब यहीं रह जाएँगी।
जय श्री राम🙏🙏🙏
Ravi kant
गुरुद्वारा बंगला साहिब मूल रूप से महान हिंदू राजा राजा जय सिंह का बंगला (महल) था।
जब औरंगज़ेब ने 6 वर्षीय सिख गुरु हर कृष्ण को बुलाया, तो जय सिंह ने गुरु की रक्षा की और उन्हें यहाँ निवास करने की पेशकश की। उसने सिक्खों को बंगला दान में दिया।
हिंदुओं ने सिखों की रक्षा और पालन-पोषण कैसे किया वर्ष: 1661।
औरंगजेब ने गुरु हर कृष्ण को बुलवाया। वह गुरु से गुरुपद छीनकर राम राय को देना चाहता था।
महान राजपूत राजा राजा जय सिंह ने तुरंत महसूस किया कि गुरु का जीवन खतरे में है। वे स्वयं बाल गुरु के दर्शन के लिए कीरतपुर गए।
औरंगजेब ने गुरु हर कृष्ण को दिल्ली बुलाया। सम्मन का उल्लंघन करने का अर्थ केवल गुरु को फांसी देना होगा।
लेकिन गुरु दिल्ली जाने के लिए अनिच्छुक थे।
गुरुमाता कृष्ण कौर ने स्पष्ट रूप से कहा: “हम नहीं जाएंगे। हमें मुगलों पर भरोसा नहीं है। उनसे कुछ भी अच्छा नहीं हुआ”।
नाकाबंदी और खतरे को महसूस करते हुए जय सिंह ने कहा:
“माँ, मैं गुरु की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता हूँ। वह मेरे मेहमान होंगे।
मैं एक राजपूत हूँ। यह एक राजपूत का शब्द है।
मैं गुरु के एक बाल को छूने नहीं दूंगा। मैं इसके लिए अपनी जान दे दूंगा। मैं हमेशा उनकी तरफ से रहूंगा”
माता और गुरु आश्वस्त थे।
गुरु जय सिंह के साथ दिल्ली गए।
जय सिंह अपने वचन के पक्के थे। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से गुरु की रक्षा की और उनके निजी राजदूत के रूप में कार्य किया। उसने गुरु की ओर से सम्राट से याचिका दायर की।
जय सिंह ने यह सुनिश्चित किया कि औरंगज़ेब गुरु पर अपनी नज़र भी न रखे
जब गुरु दिल्ली में थे, राजा जय सिंह ने गुरु को दिल्ली के बाहरी इलाके में अपने निजी बंगले में ठहराया।
गुरु का बहुत सम्मान किया जाता था और हर सुविधा दी जाती थी।
कई सिख गुरु के दर्शन के लिए आए। गुरु के निधन के बाद, महल सिखों को दे दिया गया और यह बाद में गुरुद्वारा बन गया।

बचपन में मेरे घर के पास एक नीम का पेड़ था, उस पेड़ पर कौवों के दो-तीन जोड़ो ने घौंसला बनाया हुआ था जिनमे उनके छोटे बच्चे भी थे।
कौवे सारा दिन कांव कांव करते रहते थे, बड़ा शोर मचता था। एक दिन मैंने उनके घौंसले में पत्थर मार दिया , कौवे ससुरे बहुत गुस्सा हो गए। तब से मुझे पहचान गए थे,उन्हें लगता कि मैं उनके बच्चो का दुश्मन हूँ। जंहा भी मैं जाता मेरे ऊपर मंडराते हुए उड़ते रहते, कई बार मौका मिलते ही चोंच भी मार देते। डर के मारे में टोपी पहन के घर से निकलता था।
मैं घर से निकला नही की कौवे कांव कांव करते हुए मेरे पीछे , कुछ सामान लेने जाओ , खेलने जाओ यंहा तक कि स्कूल जाते भी मेरा पीछा करते।
छत पर तो जाना ही मुश्किल कर दिया था, कौवे छत पर ही बैठे रहते जैसे मेरा ही इन्तेजार करते हों कि कब मैं आऊं और वो कब मुझे चोंच मारें।।डर के मारे मैं दिन में कभी छत पर नही जाता था चाहे कितना ही जरूरी काम हो।
मेरे दोस्त या दूसरे लोग पूछते की ये कौवे तेरे साथ साथ क्यों रहते हैं? मैं उनसे बड़े रौब से कहता कि ये मेरे दोस्त हैं!!मुझे पहचानते हैं! मुझ से बहुत प्यार करते हैं, मैने इन्हें पाल रखा है।
मेरी बात सुन के दोस्त और दूसरे लोग अचंभा मानते ,मुझे बड़ा वाला पक्षी प्रेमी समझते।
कौवे की मेरे से दुश्मनी कई महीनों तक चली, जब तक कि उनके बच्चे बड़े होके उस पेड़ से उड़ नही गए थे।
अफ़सोस इस बात का है कि उस समय मोबाइल नही था और न सोशल मीडिया…. वरना मैं भी पक्षी प्रेमी बन के मशहूर हो गया होता😏
संजय कुमार
लगभग सवा सौ वर्षों से निकल रही चांदमल ढढ्ढा की गणगौर के पीछे भी पुत्र की मनोकामना की चाह प्रमुख रही है। कहा जाता है की देशनोक से बीकानेर आकर बसे सेठ उदयमल ढढ्ढा के कोई पुत्र नहीं था। राजपरिवार में अच्छी प्रतिष्ठा के कारण उनको शाही गणगौर देखनें का निमंत्रण मिला। तब उदयमल की पत्नी ने प्रण लिया की पुत्र होने के बाद ही गणगौर दर्शन करूंगी। एक वर्ष गणगौर की विशवास एवं आस्था के साथ साधना करने से उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। जिसका नाम चांदमल रखा गया। तभी से प्रतिवर्ष भाईया के साथ गणगौर निकालने की परम्परा शुरू हुई। सेठ चांदमल जी के गणगौर का भाईया भी उतना ही कीमती है जितनी की गणगौर।
सेठ उदयमल राजा के धर्मभाई थे। इसलिए राजा ने उनकी गणगौर की सवारी नहीं निकाल कर चैत्र शुक्ला तृतीया एवं चतुर्थी को मेला प्रारम्भ करने की इजाजत दी। इस गणगौर की सवारी की एक बड़ी विशेषता भी है की इसके पांव है। जबकि बाकि सब गणगौर के पांव नहीं होते।
भारी -भारी कपड़ों और आभूषणों से सजी यह गणगौर अद्वितीय लगती है। यह गणगौर ढढ्ढ़ो के पुस्तैनी घर के आगे पाटे पर विराजमान रहती है। इस गणगौर के चारो तरफ सुरक्षाकर्मीयों का पहरा रहता है
जय माँ
Malchand Suthar
