आज भी मरणासन्न व्यक्ति को बाछी छुआया जाता है। उसके मुख में गङ्गा-जल डाला जाता है। गीता सुनायी जाती है। गायत्री फूँकी जाती है उसके कान में।
जानते हैं, मरणासन्न को बछिया क्यों छुआई जाती है? वह वैतरणी तिराती है। वैतरणी तो आप जानते ही होंगे।
लेकिन स्यात वास्तव में वैतरणी का निहितार्थ आप नहीं जानते।
स्वर्ग जो इसी धरती पर ही था, वहाँ भी आना-जाना लगा रहता था। और आर्य अपने साथ यात्रा में एक दुधारू गौ साथ ले जाते थे। गौ को साथ ले जाने का सरलतम उपाय है बछिया ले चलो, गाय पीछे से स्वयं आ जायेगी।
यात्रा में तब होटल और रेस्टोरेंट नहीं होते थे। रात वीराने में भी बितानी पड़ सकती थी। तो दुधारू गौ साथ हो तो दूध रात का आहार हो जाता था।
और यात्रा में आज जैसे सुपर हाइवे या नदियों पर आज की तरह पुल भी नहीं होते थे। संस्कृति उन्नत थी अवश्य, किन्तु सभ्यता में सुविधाओं का अभी अभाव था। मार्ग में नदियों पर उस पार जाने को नौका भी हर जगह नहीं होती थी।
जिस नदी के जिस घाट पर तरणी न हो, वहाँ हर नदी वैतरणी ही हुआ करती है। आज भी हर नदी के हर घाट पर तरणी अर्थात् नाव नहीं होती। वैतरणी अर्थात जहाँ तरणी न हो।
और गाय या उसकी बछिया की पूँछ पकड़ कर नदी को बिना तरणी के भी पार किया जा सकता है। न तैरना आता हो तो भी।
वही मान्यता चली आ रही है। स्वर्ग की यात्रा में गो साथ होनी ही चाहिये। तो बछिया साथ ले जाओ। गाय आ जायेगी पीछे पीछे।
गो वैतरणी तिराती थी, तब भी,
और तिरा रही है, अब भी।
गो, गङ्गा, गीता और गायत्री इन चार के प्रति जिसके या किसी के भी मन में हास्य के स्तर की भी अश्रद्धा है, तो वह और वे अपना विशेषण स्वयं चुन लें।
बकरी के प्रति आपकी जो बहुत श्रद्धा है उसका सम्मान है,
किन्तु गाय को जानवर न कहिये।
आज भी वह माता है मेरी।
माता है हमारी!
~ त्रिलोचन नाथ तिवारी जी