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गंगा का सदा सेवन करना चाहिये |
वह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं |
जिनके बीच से गंगा बहती हैं, वे सभी देश श्रेष्ठ तथा पावन हैं |
उत्तम गति की खोच करनेवाले प्राणियों के लिये गंगा ही सर्वोत्तम गति हैं |
गंगा का सेवन करने पर वह माता और पिता – दोनों के कुलों का उद्धार करती हैं |
एक हजार चान्द्रायण-व्रत की अपेक्षा गंगाजी के जल का पीना उत्तम हैं |
एक मास गंगाजी का सेवन करनेवाला मनुष्य सब यज्ञों का फल पाता हैं |
गंगा देवी सब पापों को दूर करनेवाली तथा स्वर्ग लोक देनेवाली हैं |
गंगा के जल में जब तक हड्डी पड़ी रहती है, तब तक वह जीव स्वर्ग में निवास करता हैं |
अंधे आदि भी गंगाजी का सेवन करके देवताओं के समान हो जाते हैं |
गंगा-तीर्थ से निकली हुई मिटटी धारण करनेवाला मनुष्य सूर्य के समान पापों का नाशक होता हैं |
जो मानव गंगा का दर्शन, स्पर्श, जलपान अथवा ‘गंगा’ इस नाम का कीर्तन करता हैं, वह अपनी सैकड़ो-हजारों पीढ़ियों के पुरुषों को पवित्र कर देता हैं | अग्निपुराण, अध्याय –४३
कलियुग में गंगाजी की विशेष महिमा है |
कलियुग में तीर्थ स्वभावतः अपनी अपनी शक्तियों को गंगाजी में छोड़ते है परन्तु गंगा जी अपनी शक्तियों को कही नहीं छोड़ती |
गंगाजी पातको के कारण नर्क में गिरनेवाले नराधम पापियों को भी तार देती है |
कई अज्ञात स्थान में मर गये हो और उनके लिए शास्त्रीय विधि से तर्पण नहीं किया गया हो तो ऐसे लोगो की हिड॒डयॉ यदि गंगाजी में प्रवाहित करते है तो उनको परलोक मेंउत्तम फल की प्राप्ति होती है |
बासी जल त्याग देने योग्य माना गया है परन्तु गंगाजल बासी होने पर भी त्याज्य नहीं है |
इस लोक में गंगा जी की सेवा में तत्पर रहनेवाले मनुष्य को आधे दिन की सेवा से जो फल प्राप्त होता है वह सेकड़ो यज्ञो द्वारा भी नहीं मिलता है ।
( नारद पुराण )
देव तथा ऋषियों के स्पर्श से पावन हुआ एवं हिमालय से उद्गमित नदियों का जल, विशेषकर गंगाजल स्वाथ्यकारी अर्थात आरोग्य के लिए हितकारी है |
“हिमवत्प्रभवाः पथ्याः पुण्या देवर्षिसेविताः ।
– चरकसंहिता, सूत्रस्थान, अध्याय २७, श्लोक २०९
हिमालय से प्रवाहित गंगाजल औषधि (रोगी के लिए हितकारी) है |
“यथोक्तलक्षणहिमालयभवत्वादेव गाङ्गं पथ्यम् ।
– चक्रपाणिदत्त (वर्ष १०६०)
(श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित् से कहा ) राजन् ! वह ब्रह्माजी के कमण्डलुका जल, त्रिविक्रम (वामन) भगवान् के चरणों को धोने से पवित्रतम होकर गंगा रूप में परिणत हो गया।वे ही (भगवती) गंगा भगवान् की धवल कीर्ति के समान आकाश से (भगीरथी द्वारा) पृथ्वी पर आकर अब तक तीनों लोकों को पवित्र कर रही है।
“धातु: कमण्डलुजलं तदरूक्रमस्य, पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र । स्वर्धन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि, लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्ति: ।।
( श्रीमद्भा0 8।4।21)
“देवी गंगे ! आप संसाररूपी विष का नाश करनेवाली है | आप जीवनरुपा है | आप आधिभौतिक,आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के तापों का संहार करनेवाली तथाप्राणों की स्वामिनी हैं | आपको बार बार नमस्कार है |
“संसारविषनाशिन्ये जीवनायै नमोऽस्तु ते | तापत्रितयसंहन्त्रयै प्राणेश्यै ते नमो नम : ||
विश्व के वैज्ञानिक भी गंगाजल का परीक्षण कर दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं ! उन्होंने दुनिया की तमाम नदियों के जल का परीक्षण किया परंतु गंगाजल में रोगाणुओं को नष्टकरने तथा आनंद और सात्त्विकता देने का जो अद्भुत गुण है, उसे देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो उठे ।
सन् १९४७ में जलतत्त्व विशेषज्ञ कोहीमान भारत आया था । उसने वाराणसी से गंगाजल लिया । उस पर अनेक परीक्षण करके उसने विस्तृत लेख लिखा, जिसका सार है – ‘इस जल में कीटाणु-रोगाणुनाशक विलक्षण शक्ति है ।
दुनिया की तमाम नदियों के जल का विश्लेषण करनेवाले बर्लिन के डॉ. जे. ओ. लीवर ने सन् १९२४ में ही गंगाजल को विश्व का सर्वाधिक स्वच्छ और कीटाणु-रोगाणुनाशकजल घोषित कर दिया था ।
‘आइने अकबरी में लिखा है कि ‘अकबर गंगाजल मँगवाकर आदरसहित उसका पान करते थे । वे गंगाजल को अमृत मानते थे ।
औरंगजेब और मुहम्मद तुगलक भी गंगाजल का पान करते थे ।
शाहनवर के नवाब केवल गंगाजल ही पिया करते थे ।
कलकत्ता के हुगली जिले में पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारी नदियाँ, झरने और नाले गंगाजी में मिल चुके होते हैं । अंग्रेज यह देखकर हैरान रह गये कि हुगली जिले से भराहुआ गंगाजल दरियाई मार्ग से यूरोप ले जाया जाता है तो भी कई-कई दिनों तक वह बिगडता नहीं है । जबकि यूरोप की कई बर्फीली नदियों का पानी हिन्दुस्तान लेकर आनेतक खराब हो जाता है ।
अभी रुडकी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक कहते हैं कि ‘गंगाजल में जीवाणुनाशक और हैजे के कीटाणुनाशक तत्त्व विद्यमान हैं ।
फ्रांसीसी चिकित्सक हेरल ने देखा कि गंगाजल से कई रोगाणु नष्ट हो जाते हैं । फिर उसने गंगाजल को कीटाणुनाशक औषधि मानकर उसके इंजेक्शन बनाये और जिस रोगमें उसे समझ न आता था कि इस रोग का कारण कौन-से कीटाणु हैं, उसमें गंगाजल के वे इंजेक्शन रोगियों को दिये तो उन्हें लाभ होने लगा !
संत तुलसीदासजी कहते हैं :
गंग सकल मुद मंगल मूला । सब सुख करनि हरनि सब सूला ।।
(श्रीरामचरित. अयो. कां. : ८६.२)
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