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अस्थियां गंगाजी में ही क्यों विसर्जित की जाती हैं?

पतित पावनी गंगा को देव नदी कहा जाता है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार गंगा स्वर्ग से धरती पर आई हैं। गंगा श्री हरि विष्णु के चरणों से निकली हैं और भगवान शिव की जटाओं में आकर बसी हैं।

श्री हरि और भगवान शिव से घनिष्ठ संबंध होने पर गंगा को पतित पावनी कहा जाता है।
मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सभी पापों का नाश हो जाता है।

एक दिन देवी गंगा श्री हरि से मिलने बैकुण्ठ धाम गईं और उनसे बोलीं, “प्रभु ! मेरे जल में स्नान करने से सभी के पाप नष्ट हो जाते हैं लेकिन मैं इतने पापों का बोझ कैसे उठाऊंगी? मेरे में जो पाप समाएंगे उन्हें कैसे समाप्त करूंगी?”

इस पर श्री हरि बोले, “गंगा! जब साधु, संत, वैष्णव आप में स्नान करेंगे तो आप के सभी पाप घुल जाएंगे।”

गंगा नदी इतनी पवित्र हैं कि अधिकांश हिंदू की अंतिम इच्छा होती है कि उसकी अस्थियों का विसर्जन गंगा में ही किया जाए, लेकिन यह अस्थियां जाती कहां हैं?
.इसका उत्तर तो वैज्ञानिक भी नहीं दे पाए क्योंकि असंख्य मात्रा में अस्थियों का विसर्जन करने के बाद भी गंगा जल पवित्र एवं पावन है। गंगासागर तक खोज करने के बाद भी इस प्रश्न का पार नहीं पाया जा सका।

सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की शांति के लिए मृत व्यक्ति की अस्थि को गंगा में विसर्जन करना उत्तम माना गया है। यह अस्थियां सीधे श्री हरि के चरणों में बैकुण्ठ जाती हैं।

जिस व्यक्ति का अंत समय गंगा के समीप आता है उसे मरणोपरांत मुक्ति मिलती है। इन बातों से गंगा के प्रति हिन्दुओं की आस्था तो स्वाभाविक है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि गंगा जल में पारा अर्थात (मर्करी) विद्यमान होता है जिससे हड्डियों में कैल्शियम और फोस्फोरस पानी में घुल जाता है। जो जलजन्तुओं के लिए एक पौष्टिक आहार है।
वैज्ञानिक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर) विद्यमान होता है जो पारे के साथ मिलकर पारद का निर्माण होता है। इसके साथ-साथ यह दोनों मिलकर मरकरी सल्फाइड साल्ट का निर्माण करते हैं।
हड्डियों में बचा शेष कैल्शियम, पानी को स्वच्छ रखने का काम करता है।
धार्मिक दृष्टि से पारद शिव का प्रतीक है और गंधक शक्ति का प्रतीक है। सभी जीव अंततः शिव और शक्ति में ही विलीन हो जाते हैं।…

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गंगा विलास क्रूज़ कल से शुरू हो चुका है… यह विश्व का सबसे बड़ा और सबसे Luxury क्रूज़ है….. इस पर कुछ फ़ालतू की आपत्तियों के अलावा सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि इतने महंगे क्रूज़ को खरीदेगा कौन? और वो भी 50 दिनों के लिए?

ऐसा बताया जा रहा है कि इसकी कीमत 25-50 हजार रूपये प्रतिदिन है…और पूरे 51 दिन के ट्रिप की कीमत लगभग 20 लाख रूपए है.. जिसमें रहना खाना पीना सब कुछ है.

  • महत्वपूर्ण जानकारी – इस क्रूज़ पर Non Veg और शराब उपलब्ध नहीं होगी.

आप जान कर हैरान हो जाएंगे कि क्रूज़ की शुरुआत होने से पहले ही March 2024 तक इस क्रूज़ की सभी tickets book हो चुकी हैं…. और book कराने वालों में भारतीयों की भी अच्छी खासी संख्या है.

इस क्रूज़ की सफलता से और भी ऐसी services शुरू होंगी… यह क्रूज़ 27 River Systems से होकर गुजरेगा… कल को हो सकता है छोटी दूरी और कम समय के क्रूज़ भी चलने लगें… और यकीन मानिये यह कई Billion Dollars की Opportunity है.. जो इन नदी के किनारे रहने वाले करोड़ों लोगों का जीवन बदल सकती है.

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गंगा की गंड़की


सीसामऊ नाला का नाम सुना है?

1890 में अंग्रेजों के समय बनवाया गया था… पूरे कानपुर शहर का कूड़ा करकट, मल मूत्र, चमड़े की फैक्ट्री का कचरा, और अन्य Industrial Waste इस नाले के रास्ते पवित्र गंगा नदी में गिरा करता था.

यह नाला एक दिन में 450 Million लीटर (1 Million का अर्थ 10 लाख हुआ, आगे calculate कर लीजिये ) गन्दा पानी गंगा में गिराता था….इसे एशिया का सबसे बड़ा नाला बोला जाता था…… तब रोजाना गंगा किनारे जा कर हर हर गंगे करते समय याद नहीं आई माँ गंगा की पवित्रता??

2018 में यह नाला बंद कर दिया गया… आस पास ढेरों Sevage Treatment plant लगाए गए.. ताकि गन्दा पानी गंगा में नहीं जाए… यह काम केंद्र सरकार की नमामि गंगे project के द्वारा हुआ.

सवा सौ साल से चल रही गंगा की बर्बादी को रोकने वाला मोदी एक क्रूज चलाने से अधर्मी हो गया….. गजब है 😂😂

जो आज गंगा की पवित्रता का हल्ला मचा रहे हैं.. उनमे से अधिकतर को सीसामऊ नाले के बारे में पता तक नहीं होगा.

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गंगा लगातार सिकुड़ रही है जो कि बेहद चिंता का बिषय है


गंगा लगातार सिकुड़ रही है जो कि बेहद चिंता का बिषय है
यदि हम और हमारा समाज इसी तरह गंगा को लेकर अचेतन अवस्था मे रहे तो आने वाला भविष्य में यह भी सरस्वती नदी की तरह बिलुप्त हो जाएगी गंगा की ऊपर वाली तस्वीर 1984 की है और नीचे वाली तस्वीर 2016 की है ।
भारत लोकतांत्रिक देश है, जहां किसी भी बड़ी समस्या का समाधान राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति के बिना संभव नहीं। गंगा प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम के प्रथम व द्वितीय चरण में करीब 1500 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। बेसिन प्राधिकरण के गठन के बाद वर्ल्ड बैंक की सहायता से 300 करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। सात हजार करोड़ रुपए की परियोजना प्रस्तावित है परंतु इतने के बावजूद गंगा के संरक्षण की दिशा में उठाए गए कदम सार्थक नजर नहीं आ रहे..
दुनिया की सबसे पवित्र नदियों में एक है – गंगा। माना जाता है कि गंगा जल के स्पर्श मात्र से समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है। गोमुख में अपने मूल से शुरू होकर बंगाल की खाड़ी तक गंगा 2525 किमी से अधिक की यात्रा तय करती है। गंगा के मुहाने पर विशाल डेल्टा-सुंदरवन डेल्टा-है, जो दुनिया में सबसे बड़ा डेल्टा है। दुनिया में हिंदू धर्म मानने वाला हर व्यक्ति अपने जीवन में कम-से-कम एक बार गंगा स्नान की इच्छा रखता ही है। यकीनन दुनिया में यह सबसे पवित्र नदी है और गहराई से इस देश के लोगों द्वारा प्रतिष्ठित है। गंगा में स्नान करने के लिए कई लोग कुम्भ मेला और कई त्योहारों में बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं।

गंगा नदी देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। 2071 किमी तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक व आर्थिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। सौ फीट की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौंदर्य और महत्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित है। इसके प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावकतापूर्ण वर्णन किए गए हैं।

पहली बार संसद में जब उठा सवाल

1975 में पहली बार गंगा के प्रदूषित होने की बात सामने आने पर संसद में एमएस कृष्णा द्वारा यह सवाल उठाया गया, ‘गंगा प्रदूषण के बारे में सरकार को क्या जानकारी है और इसे रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है?’ संसद में सवाल का जवाब देने के लिए बीएचयू से उत्तर मांगा गया जिसका टेलीग्राम आया तो भूचाल मच गया। इसके बाद से गंगा प्रदूषण के बारे में चर्चा तेज हो गई। 21 जुलाई, 1981 को पहली बार भारतीय संसद में इस बात को स्वीकार किया गया कि गंगा जल प्रदूषित हो रहा है। यदि इसे रोका नहीं गया तो भविष्य में इसके गंभीर परिणाम होंगे।

पिछले दो दशक के शोधों के दौरान पाया गया है कि गंगा जल के प्रदूषण की समस्या दूसरे स्तर की हो गई है। आज हमें सोचना होगा कि आगामी दो दशकों में गंगा में पानी बहेगा कि नहीं क्योंकि गंगा में तेजी से सिल्टेशन के कारण उसकी गहराई निरंतर कम हो रही है।

सभी बड़े शहरों के आसपास गंगा के दोनों तरफ की भूमि पर अतिक्रमण होने के कारण गंगा सिकुड़ रही है। पानी का प्रवाह निरंतर कम होने से तनुता कम हो रही है और प्रदूषण की तीव्रता में निरंतर वृद्धि हो रही है।

गंगा को बचाने के लिए निम्न बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना होगा-
1. गंगा के पानी के प्रवाह को बढ़ाना,
2. गंगा की जल धारण क्षमता में वृद्धि करना और 3. गंगा जल के प्रदूषण नियंत्रण के दृष्टिगत सीवेज और कारखानों से निकले विषाक्त पदार्थों के शोधन और पुनर्चक्रण के साथ-साथ नई तकनीकों के माध्यम से उनकी मात्रा को कम करना।

गंगा-समस्या को निम्नलिखित कार्यक्रमों से हल किया जा सकता है-
1. गंगा नीति निर्धारण :

नीति ऐसी हो जो नदी में जल की मात्रा बढ़ाने के साथ ही पारिस्थितिक प्रवाह को भी कायम रख सके। वर्षा जल संचयन, भूजल पुनर्भरण, प्राकृतिक सफाई, भूजल व नदियों के जल का दोहन, नदी के तट की भूमि का प्रयोग, मृत शरीरों का दाह संस्कार, भस्मीकरण सयंत्र, जल के उपभोग, पीने, नहाने, कपड़े धोने, नेविगेशन, जलीय कृषि, पौधरोपण, फसलों की सिंचाई, अपशिष्ट जल निस्तारण, प्रदूषण नियंत्रण तकनीक, एसटीपी के लिए भूमि चयन, जल संग्रह क्षेत्रों में प्रमुख निर्माण, विभिन्न परियोजनाओं में लोगों की भागीदारी, परियोजनाओं की निगरानी, परियोजना प्रमुख की जवाबदेही, संबंधित पक्षों को साथ लेना, जैव विविधता संरक्षण, युवा शक्ति का उपयोग व जनजागरुकता।

2. गंगा संरक्षण योजना :

जल संरक्षण के लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजना, पुनर्जनन क्षमता आधारित पर्यावरण प्रबंधन, गंगा बेसिन में सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विकास समुदाय उपचार सुविधाओं सहित विशिष्ट उपचार।

3. राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति का आह्वान

भारत लोकतांत्रिक देश है, जहां किसी भी बड़ी समस्या का समाधान राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति के बिना संभव नहीं है। इतिहास गवाह है कि गंगा प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम के प्रथम व द्वितीय चरण में करीब 1500 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के 2008 में गठन के बाद वर्ल्ड बैंक की सहायता से 300 करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। सात हजार करोड़ रुपए की परियोजना प्रस्तावित है परंतु इतने के बावजूद गंगा के संरक्षण की दिशा में उठाए गए कदम सार्थक नजर नहीं आ रहे हैं। गंगा के संरक्षण का कार्य राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति के बिना पूरा नहीं हो सकता।

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चीनी भाषा में माँ को माँ कहते हैं । अंग्रेजों के चाकरों की किताबों ने मुझे सिखाया कि चीन की सबसे महत्वपूर्ण नदी का नाम ह्वांग-हो है । जब इंटरनेट के माध्यम से मैंने उसका वास्तविक उच्चारण पता किया तो “ग्वङ्गो” निकला, अर्थात “गङ्गा” का अपभ्रंश ! अफ्रीका में विषुवत पर सबसे ऊंचे पर्वत को प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में मेरु कहा गया है (जिसका एक छोड़ उत्तर ध्रुव में सुमेरु तथा दक्षिण ध्रुव में कुमेरु कहा जाता था, बीच में विषुवत पर मेरु था)। अंग्रेजों ने इसका नाम बदलकर माउण्ट केन्या कर दिया, यद्यपि “किनयन-गिरी” कुछ ही दक्षिण तंजानिआ में है । माउण्ट केन्या की तलहटी में आज भी मेरु नाम का नगर है जो मेरु प्रान्त की राजधानी है और वहाँ की भाषा का नाम भी मेरु है । आजकल उन्हें ईसाई बनाने में मिशनरियाँ बहुत सक्रिय हैं । किन्तु संस्कृत का अफ्रीका से चीन तक के सम्बन्धों को छुपाकर यूरोप वाले हमें सिखाते हैं कि आर्य पूर्वी यूरोप और द्रविड़ भूमधसागरीय तटवर्ती क्षेत्रों से आये, ऑस्ट्रेलॉयड और नेग्रिटो अफ्रीका से आये, तथा मंगोलॉयड चीन-मंगोलिया से आये, जैसे भारत मनुष्य की उत्पत्ति के लायक था ही नहीं । सच्चाई उल्टी है : भारत संसार का एकमात्र देश है जहां संसार की सभी नस्लें हैं, दूसरे किसी देश में सारी नस्लें क्यों नहीं गयी ? माउण्ट एवेरेस्ट से बहुत ऊंचा है मेरु, बशर्ते भूकेन्द्र से दूरी को पैमाना माने, न कि काल्पनिक समुद्रतल से (प्रमाण नीचे है)। भूव्यास हर जगह एक समान नहीं है, अतः समुद्रतल एक जैसा नहीं है । पुराणकारों का गणित अंग्रेजों से बेहतर था । ग्रीक लोगों ने ईसा से तीन सौ वर्ष पहले जाना कि पृथ्वी गोल है, जबकि “भूगोल” शब्द उससे बहुत पुराना है और प्राचीन ग्रन्थों में है ।

एक उदाहरण प्रस्तुत है :-

महाभारत में वेद व्यास जी ने लिखा है कि जब जरासन्ध ने मथुरा पर अपनी (तन्त्र द्वारा सिद्ध) गदा फेंकी तो वह मथुरा के बगल में मगध की राजधानी गिरिव्रज से 99  योजन दूर जाकर गिरी । परम्परागत पञ्चाङ्गकारों द्वारा सर्वमान्य और वराहमिहिर द्वारा सर्वोत्तम माने गए सूर्यसिद्धान्त के अनुसार भूव्यास 1600 योजन का है । गूगल अर्थ द्वारा गिरिव्रज और मथुरा के अक्षांशों का औसत निकालकर फल का कोज्या (कोसाइन) ज्ञात करें और उसे विषुवतीय अर्धव्यास से गुणित करें, इष्टस्थानीय भू-व्यासार्ध प्राप्त होगा । इसे मथुरा और गिरिव्रज के रेखांशों (Longitudes) के अन्तर से गुणित करें, फल 98.54 योजन मिलेगा, जो पूर्णांक में 99  योजन है । इसका अर्थ यह है कि व्यास जी ने पृथ्वी को गोल मानकर उपरोक्त गणित किया था । गौतम बुद्ध के काल में मगध की राजधानी राजगीर थी, गिरिव्रज तो महाभारत के मूल कथानक के काल की प्रागैतिहासिक राजधानी थी । ऐतिहासिक युग में योजन का मान बढ़ गया था, विभिन्न ऐतिहासिक ग्रन्थों में भूपरिधि सूर्यसिद्धान्तीय मान 5026.5 योजन के स्थान पर केवल 3200 योजन बतायी गयी । अतः स्पष्ट है कि वेद व्यास जी का गणित पूर्णतया शुद्ध था और अतिप्राचीन था । अब बतलाएं, क्या पृथ्वी के गोल होने और पृथ्वी के व्यास की खोज ग्रीक लोगों ने ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में की ?

माउण्ट एवरेस्ट का अक्षांश है 27:59 । विषुवतीय एवं ध्रुवीय भूव्यासार्धों में अन्तर है 21772 मीटर , अतः माउण्ट एवरेस्ट के अक्षांश पर भूव्यासार्ध का मान विषुवत पर स्थित मेरु पर्वत के पास के भूव्यासार्ध से 6769 मीटर कम है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट की समुद्रतलीय ऊँचाई मेरु की समुद्रतलीय ऊँचाई से 3649 मीटर अधिक है । फलस्वरूप भूकेन्द्र से मेरु-शिखर की ऊँचाई भूकेन्द्र से एवरेस्ट-शिखर की ऊँचाई की तुलना में 3120 मीटर अधिक है , दोनों में कोई तुलना ही नहीं है ! पृथ्वी के महाद्वीपीय भार का विषुवतीय केन्द्र पर्वतराज महामेरु ही है जो पृथ्वी के घूर्णन पर जायरोस्कोपिक नियन्त्रण रखता है और सम्पात-पुरस्सरण (precession of equinoxes) का भी केन्द्र है (न्यूटन ने प्रिन्सिपिया में विषुवतीय अफ्रीका के पर्वतीय उभार को पृथ्वी के घूर्णन का जायरोस्कोपिक नियन्त्रक बताया था) । पुराणकारों का गणित अंग्रेजों से बेहतर था न ! फिर भी अंग्रेजों ने मेरु पर्वत नाम बदलकर माउण्ट केन्या कर दिया और पौराणिक गणित को कपोरकल्पित घोषित कर दिया ! मेरुपर्वत की सबसे बड़ी विशेषता है कि चारों ओर के धरातल की तुलना में यदि ऊँचाई मापी जाय तो यह संसार का सबसे ऊँचा पर्वत है, सपाट धरातल पर पाँच किलोमीटर ऊँचा पिरामिड है जिसकी नक़ल में मिश्र के पिरामिड बनते थे और दक्षिण सूडान में प्रागैतिहासिक मेरु साम्राज्य था (माउण्ट एवरेस्ट आसपास के धरातल से केवल 300 मीटर ऊँचा है)।

ग्रीक लोगों ने प्राचीन सभ्यताओं के सारे ज्ञान का जो थोड़ा सा हिस्सा समझा उसे अपने नाम से लिखकर सिकन्दरिया के विशाल पुस्तकालय में आग लगा दी और विरोधियों को मौत के घाट उतार दिया । सिकन्दर तो इतना क्रूर था कि अपने बाप फिलिप को पटककर चाकू भिरा दिया था, गुरुभाई कैलीस्थीनीज (प्राचीन ग्रीक में उच्चारण “कालीस्थानी”, ग्रीक में अन्तिम “स” का उच्चारण नहीं होता था) को सूली पर टाँग दिया, और भारत में दिगम्बर साधु महात्मा दाण्डायण को जबरन पकड़ लाने के लिए सिपाहियों को भेजा लेकिन सिपाहियों ने हिम्मत नहीं की तब स्वयं गया, मेगास्थनीज (“महास्थानी”) ने दाण्डायण को “दमदमी” लिखा !

हमारे इतिहासकार भी इन बातों पर ध्यान नहीं देते, उन्हें रामायण, महाभारत और पुराणों में ज्ञान की कोई बात नहीं दिखती, जबकि भारतीय संस्कृति इन्हीं ग्रन्थों पर आश्रित रही है ; वेद कितने लोग पढ़कर अर्थ लगा सकते हैं ? रामायण, महाभारत और पुराणों के माध्यम से ही वैदिक धर्म और संस्कृति बची हुई है जिसे मिटाने में हमारे “सेक्युलर” बुद्धिजीवी रात-दिन परिश्रम करते रहते हैं । एक भी “सेक्युलर” बुद्धिजीवी को संस्कृत भाषा का भी ज्ञान नहीं है, उनके विदेशी आका जो लिखते हैं उसे ये लोग तोते की तरह दुहराते रहते हैं । कोई बहस करे तो उसे इतिहास का भगवाकरण कहकर चिल्ल-पों मचाते हैं, शराफत से शास्त्रार्थ भी नहीं करते । अतः इन बदमाशों का एक ही इलाज है : असहिष्णुता पूर्वक इनके सारे पद, सारी उपाधियाँ और सारे पुरस्कार छीन लिए जाएँ । असत्य और अनाचार को सहना अधर्म है, सहिष्णुता नहीं । सहिष्णुता है सत्य की ओर जाने वाले अपने मार्ग से भिन्न दूसरे सत्य मार्गों को सहन करना , सभी सच्चे पन्थों का सर्वपन्थ-समभाव की भावना से आदर करते हुए अपने पन्थ पर चलना ।
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विनय झा

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गंगा में विसर्जित अस्थियां आखिर जाती कहां हैं.?

बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख अवश्य पढ़े.!

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पतित पावनी गंगा को देव नदी कहा जाता है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार गंगा स्वर्ग से धरती पर आई है। मान्यता है कि गंगा श्री हरि विष्णु के चरणों से निकली है और भगवान शिव की जटाओं में आकर बसी है।

श्री हरि और भगवान शिव से घनिष्ठ संबंध होने पर गंगा को पतित पाविनी कहा जाता है। मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सभी पापों का नाश हो जाता है।

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एक दिन देवी गंगा श्री हरि से मिलने बैकुण्ठ धाम गई और उन्हें जाकर बोली,” प्रभु ! मेरे जल में स्नान करने से सभी के पाप नष्ट हो जाते हैं लेकिन मैं इतने पापों का बोझ कैसे उठाऊंगी? मेरे में जो पाप समाएंगे उन्हें कैसे समाप्त करूंगी?”

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इस पर श्री हरि बोले,”गंगा! जब साधु, संत, वैष्णव आ कर आप में स्नान करेंगे तो आप के सभी पाप घुल जाएंगे।”

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गंगा नदी इतनी पवित्र है की प्रत्येक हिंदू की अंतिम

इच्छा होती है उसकी अस्थियों का विसर्जन गंगा में ही

किया जाए लेकिन यह अस्थियां जाती कहां हैं?

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इसका उत्तर तो वैज्ञानिक भी नहीं दे पाए क्योंकि असंख्य मात्रा में अस्थियों का विसर्जन करने के बाद भी गंगा जल पवित्र एवं पावन है। गंगा सागर तक खोज करने के बाद भी इस प्रश्न का पार नहीं पाया जा सका।

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सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की शांति के लिए मृत व्यक्ति की अस्थि को गंगा में विसर्जन करना उत्तम माना गया है। यह अस्थियां सीधे श्री हरि के चरणों में बैकुण्ठ जाती हैं।

जिस व्यक्ति का अंत समय गंगा के समीप आता है उसे

मरणोपरांत मुक्ति मिलती है। इन बातों से गंगा के प्रति हिन्दूओं की आस्था तो स्वभाविक है।

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वैज्ञानिक दृष्टि से गंगा जल में पारा अर्थात (मर्करी)

विद्यमान होता है जिससे हड्डियों में कैल्शियम और

फोस्फोरस पानी में घुल जाता है। जो जलजन्तुओं के लिए एक पौष्टिक आहार है। वैज्ञानिक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर) विद्यमान होता है जो पारे के साथ मिलकर पारद का निर्माण होता है। इसके साथ-साथ यह दोनों मिलकर मरकरी सल्फाइड साल्ट का निर्माण करते हैं। हड्डियों में बचा शेष कैल्शियम, पानी को स्वच्छ रखने का काम करता है। धार्मिक दृष्टि से पारद शिव का प्रतीक है और गंधक शक्ति का प्रतीक है। सभी जीव अंततःशिव और शक्ति में ही विलीन हो जाते हैं।…….

हर हर गंगे

ऊँ नम: शिवाय..!!#प्रतिलिपि

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गंगा की महिमा


गंगा की महिमा

Adawya Society & Foundation  : अदव्य
(गंगा दशहरा : ५ से १४ जून)

कपिल_मुनि के कोप से सगर राजा के पुत्रों की मृत्यु हो गयी । राजा सगर को पता चला कि उनके पुत्रों के उद्धार के लिए माँ गंगा ही समर्थ हैं ।

अतः गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए सगर के पौत्र अंशुमान, अंशुमान के पुत्र दिलीप और दिलीप के पुत्र भगीरथ घोर तपस्या में लगे रहे ।

आखिरकार भगीरथ सफल हुए गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में । इसलिए गंगा का एक नाम ‘भागीरथी भी है । जिस दिन गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुर्इं वह दिन ‘गंगा दशहरा के नाम से जाना जाता है ।

जगद्गुरु आद्य शंकराचार्यजी, जिन्होंने कहा है :-

एको ब्रह्म द्वितियोनास्ति । द्वितियाद्वैत भयं भवति ।।

उन्होंने भी ‘गंगाष्टक लिखा है,
गंगा की महिमा गायी है ।

रामानुजाचार्य, रामानंद स्वामी, चैतन्य महाप्रभु और स्वामी रामतीर्थ ने भी गंगाजी की बडी महिमा गायी है ।

कई साधु-संतों, अवधूत-मंडलेश्वरों और जती-जोगियों ने गंगा माता की कृपा का अनुभव किया है, कर रहे हैं तथा बाद में भी करते रहेंगे ।

अब तो विश्व के वैज्ञानिक भी गंगाजल का परीक्षण कर दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं ! उन्होंने दुनिया की तमाम नदियों के जल का परीक्षण किया परंतु गंगाजल में रोगाणुओं को नष्ट करने तथा आनंद और सात्त्विकता देने का जो अद्भुत गुण है, उसे देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो उठे ।

हृषिकेश में स्वास्थ्य-अधिकारियों ने पुछवाया कि यहाँ से हैजे की कोई खबर नहीं आती, क्या कारण है ? उनको बताया गया कि यहाँ यदि किसी को हैजा हो जाता है तो उसको गंगाजल पिलाते हैं । इससे उसे दस्त होने लगते हैं तथा हैजे के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और वह स्वस्थ हो जाता है । वैसे तो हैजे के समय घोषणा कर दी जाती है कि पानी उबालकर ही पियें किंतु गंगाजल के पान से तो यह रोग मिट जाता है और केवल हैजे का रोग ही मिटता है ऐसी बात नहीं है, अन्य कई रोग भी मिट जाते हैं ।

तीव्र व दृढ श्रद्धा-भक्ति हो तो गंगास्नान व गंगाजल के पान से जन्म-मरण का रोग भी मिट सकता है ।

सन् 1947 में जलतत्त्व विशेषज्ञ कोहीमान भारत आया था । उसने वाराणसी से गंगाजल लिया । उस पर अनेक परीक्षण करके उसने विस्तृत लेख लिखा, जिसका सार है –
‘इस जल में कीटाणु-रोगाणुनाशक विलक्षण शक्ति है।’

दुनिया की तमाम नदियों के जल का विश्लेषण करनेवाले बर्लिन के डॉ. जे. ओ. लीवर ने सन् 1924 में ही गंगाजल को विश्व का सर्वाधिक स्वच्छ और कीटाणु-रोगाणुनाशक जल घोषित कर दिया था ।

‘आइने अकबरी में लिखा है कि ‘अकबर गंगाजल मँगवाकर आदर सहित उसका पान करते थे । वे गंगाजल को अमृत मानते थे ।

औरंगजेब और मुहम्मद तुगलक भी गंगाजल का पान करते थे । शाहनवर के नवाब केवल गंगाजल ही पिया करते थे ।

कलकत्ता के हुगली जिले में पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारी नदियाँ, झरने और नाले गंगाजी में मिल चुके होते हैं ।

अंग्रेज यह देखकर हैरान रह गये कि हुगली जिले से भरा हुआ गंगाजल दरियाई मार्ग से यूरोप ले जाया जाता है तो भी कई-कई दिनों तक वह बिगड़ता नहीं है । जबकि यूरोप की कई बर्फीली नदियों का पानी हिन्दुस्तान लेकर आने तक
खराब हो जाता है ।

अभी रुड़की विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक कहते हैं कि ‘गंगाजल में जीवाणुनाशक और हैजे के कीटाणुनाशक तत्त्व विद्यमान हैं ।

फ्रांसीसी चिकित्सक हेरल ने देखा कि गंगाजल से कई रोगाणु नष्ट हो जाते हैं । फिर उसने गंगाजल को कीटाणुनाशक औषधि मानकर उसके इंजेक्शन बनाये और जिस रोग में उसे समझ न आता था कि इस रोग का कारण कौन-से कीटाणु हैं, उसमें गंगाजल के वे इंजेक्शन रोगियों को दिये तो उन्हें लाभ होने लगा !

संत तुलसीदासजी कहते हैं :-
गंग सकल मुद मंगल मूला ।
सब सुख करनि हरनि सब सूला ।।
(श्रीरामचरित. अयो. कां. 86.2)

सभी सुखों को देनेवाली और सभी शोक व दुःखों को हरने वाली माँ गंगा के तट पर स्थित तीर्थों में पाँच तीर्थ विशेष आनंद-उल्लास का अनुभव कराते हैं :-

गंगोत्री, हर की पौडी (हरिद्वार), प्रयागराज त्रिवेणी, काशी और गंगासागर

गंगा दशहरे के दिन गंगा में गोता मारने से सात्त्विकता, प्रसन्नता और विशेष पुण्यलाभ होता है ।

।। जय गंगा माई ।।

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गंगा जल खराब क्यों नहीं होता?


👉गंगा जल खराब क्यों नहीं होता?

👉अमेरिका में एक लीटर गंगाजल 250 डालर में क्यों मिलता है।

प्रस्तुति: फरहाना ताज

💐
मौसम में कई बार छोटी बेटी को खांसी की शिकायत हुई और कई प्रकार के सिरप से ठीक ही नहीं हुई।
इसी दौरान एक दिन घर ज्येष्ठ जी का आना हुआ और वे गोमुख से गंगाजल की एक कैन भरकर लाए।

थोड़े पोंगे पंडित टाइप हैं, तो बोले जब डाक्टर से खांसी ठीक नहीं होती हो तो, गंगाजल पिलाना चाहिए।

मैंने बेटी से कहलवाया, ताउ जी को कहो कि गंगाजल तो मरते हुए व्यक्ति के मुंह में डाला जाता है, हमने तो ऐसा सुना है .

तो बोले, नहीं कई रोगों का भी इलाज है। बेटी को पता नहीं क्या पढाया वह जिद करने लगी कि गंगा जल ही पिउंगी, सो दिन में उसे तीन बार दो-दो चम्मच गंगाजल पिला दिया और तीन दिन में उसकी खांसी ठीक हो गई। यह हमारा अनुभव है, हम इसे गंगाजल का चमत्कार नहीं मानते, उसके औषधीय गुणों का प्रमाण मानते हैं।

कई इतिहासकार बताते हैं कि सम्राट अकबर स्वयं तो गंगा जल का सेवन करते ही थे, मेहमानों को भी गंगा जल पिलाते थे।

इतिहासकार लिखते हैं कि अंग्रेज जब कलकत्ता से वापस इंग्लैंड जाते थे, तो पीने के लिए जहाज में गंगा का पानी ले जाते थे, क्योंकि वह सड़ता नहीं था। इसके विपरीत अंग्रेज जो पानी अपने देश से लाते थे ,वह रास्ते में ही सड़ जाता था।

करीब सवा सौ साल पहले आगरा में तैनात ब्रिटिश डाक्टर एमई हॉकिन ने वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध किया था कि हैजे का बैक्टीरिया गंगा के पानी में डालने पर कुछ ही देर में मर गया।

दिलचस्प ये है कि इस समय भी वैज्ञानिक पाते हैं कि गंगा में बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है।

लखनऊ के नेशनल बोटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट एनबीआरआई के निदेशक डॉक्टर चंद्र शेखर नौटियाल ने एक अनुसंधान में प्रमाणित किया है कि गंगा के पानी में बीमारी पैदा करने वाले ईकोलाई बैक्टीरिया को मारने की क्षमता बरकरार है।
डॉ नौटियाल का इस विषय में कहना है कि गंगा जल में यह शक्ति गंगोत्री और हिमालय से आती है। गंगा जब हिमालय से आती है तो कई तरह की मिट्टी, कई तरह के खनिज, कई तरह की जड़ी बूटियों से मिलती मिलाती है।
कुल मिलाकर कुछ ऐसा मिश्रण बनता जिसे हम अभी नहीं समझ पाए हैं।

डॉक्टर नौटियाल ने परीक्षण के लिए तीन तरह का गंगा जल लिया था। उन्होंने तीनों तरह के गंगा जल में ई-कोलाई बैक्टीरिया डाला। नौटियाल ने पाया कि ताजे गंगा पानी में बैक्टीरिया तीन दिन जीवित रहा, आठ दिन पुराने पानी में एक एक हफ्ते और सोलह साल पुराने पानी में 15 दिन। यानी तीनों तरह के गंगा जल में ई कोलाई बैक्टीरिया जीवित नहीं रह पाया।

वैज्ञानिक कहते हैं कि गंगा के पानी में बैक्टीरिया को खाने वाले बैक्टीरियोफाज वायरस होते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया की तादाद बढ़ते ही सक्रिय होते हैं और बैक्टीरिया को मारने के बाद फिर छिप जाते हैं।

मगर सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस बात की पहचान करना है कि गंगा के पानी में रोगाणुओं को मारने की यह अद्भुत क्षमता कहाँ से आती है?

दूसरी ओर एक लंबे अरसे से गंगा पर शोध करने वाले आईआईटी रुड़की में पर्यावरण विज्ञान के रिटायर्ड प्रोफेसर देवेंद्र स्वरुप भार्गव का कहना है कि गंगा को साफ रखने वाला यह तत्व गंगा की तलहटी में ही सब जगह मौजूद है। डाक्टर भार्गव कहते हैं कि गंगा के पानी में वातावरण से आक्सीजन सोखने की अद्भुत क्षमता है। भार्गव का कहना है कि दूसरी नदियों के मुकाबले गंगा में सड़ने वाली गंदगी को हजम करने की क्षमता 15 से 20 गुना ज्यादा है।

गंगा माता इसलिए है कि गंगाजल अमृत है, इसलिए उसमें मुर्दे, या शव की राख और अस्थियां विसर्जित नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मोक्ष कर्मो के आधार पर मिलता है।

भगवान इतना अन्यायकारी नहीं हो सकता कि किसी लालच या कर्मकांड से कोई गुनाह माफ कर देगा। जैसी करनी वैसी भरनी!

जब तक अंग्रेज किसी बात को नहीं कहते भारतीय सत्य नहीं मानते, इसलिए इस आलेख के वैज्ञानिकों के वक्तव्य BBC बीबीसी हिन्दी सेवा से साभार लिया गया है 🚩🙏🚩🙏🚩🙏🚩

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गंगा


hariom Sadhak

गंगा का सदा सेवन करना चाहिये |

वह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं |

जिनके बीच से गंगा बहती हैं, वे सभी देश श्रेष्ठ तथा पावन हैं |

उत्तम गति की खोच करनेवाले प्राणियों के लिये गंगा ही सर्वोत्तम गति हैं |

गंगा का सेवन करने पर वह माता और पिता – दोनों के कुलों का उद्धार करती हैं |

एक हजार चान्द्रायण-व्रत की अपेक्षा गंगाजी के जल का पीना उत्तम हैं |

एक मास गंगाजी का सेवन करनेवाला मनुष्य सब यज्ञों का फल पाता हैं |

गंगा देवी सब पापों को दूर करनेवाली तथा स्वर्ग लोक देनेवाली हैं |

गंगा के जल में जब तक हड्डी पड़ी रहती है, तब तक वह जीव स्वर्ग में निवास करता हैं |

अंधे आदि भी गंगाजी का सेवन करके देवताओं के समान हो जाते हैं |

गंगा-तीर्थ से निकली हुई मिटटी धारण करनेवाला मनुष्य सूर्य के समान पापों का नाशक होता हैं |

जो मानव गंगा का दर्शन, स्पर्श, जलपान अथवा ‘गंगा’ इस नाम का कीर्तन करता हैं, वह अपनी सैकड़ो-हजारों पीढ़ियों के पुरुषों को पवित्र कर देता हैं | अग्निपुराण, अध्याय –४३

कलियुग में गंगाजी की विशेष महिमा है |

कलियुग में तीर्थ स्वभावतः अपनी अपनी शक्तियों को गंगाजी में छोड़ते है परन्तु गंगा जी अपनी शक्तियों को कही नहीं छोड़ती |

 

गंगाजी पातको के कारण नर्क में गिरनेवाले नराधम पापियों को भी तार देती है |

कई अज्ञात स्थान में मर गये हो और उनके लिए शास्त्रीय विधि से तर्पण नहीं किया गया हो तो ऐसे लोगो की हिड॒डयॉ यदि गंगाजी में प्रवाहित करते है तो उनको परलोक मेंउत्तम फल की प्राप्ति होती है |

बासी जल त्याग देने योग्य माना गया है परन्तु गंगाजल बासी होने पर भी त्याज्य नहीं है |

इस लोक में गंगा जी की सेवा में तत्पर रहनेवाले मनुष्य को आधे दिन की सेवा से जो फल प्राप्त होता है वह सेकड़ो यज्ञो द्वारा भी नहीं मिलता है ।

( नारद पुराण )

देव तथा ऋषियों के स्पर्श से पावन हुआ एवं हिमालय से उद्गमित नदियों का जल, विशेषकर गंगाजल स्वाथ्यकारी अर्थात आरोग्य के लिए हितकारी है |

“हिमवत्प्रभवाः पथ्याः पुण्या देवर्षिसेविताः ।

– चरकसंहिता, सूत्रस्थान, अध्याय २७, श्लोक २०९

हिमालय से प्रवाहित गंगाजल औषधि (रोगी के लिए हितकारी) है |

“यथोक्तलक्षणहिमालयभवत्वादेव गाङ्गं पथ्यम् ।

– चक्रपाणिदत्त (वर्ष १०६०)

(श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित् से कहा ) राजन् ! वह ब्रह्माजी के कमण्‍डलुका जल, त्रिविक्रम (वामन) भगवान् के चरणों को धोने से पवित्रतम होकर गंगा रूप में परिणत हो गया।वे ही (भगवती) गंगा भगवान् की धवल कीर्ति के समान आकाश से (भगीरथी द्वारा) पृथ्‍वी पर आकर अब तक तीनों लोकों को पवित्र कर रही है।

“धातु: कमण्‍डलुजलं तदरूक्रमस्‍य, पादावनेजनपवित्रतया नरेन्‍द्र । स्‍वर्धन्‍यभून्‍नभसि सा पतती निमार्ष्टि, लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्ति: ।।

( श्रीमद्भा0 8।4।21)

“देवी गंगे ! आप संसाररूपी विष का नाश करनेवाली है | आप जीवनरुपा है | आप आधिभौतिक,आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के तापों का संहार करनेवाली तथाप्राणों की स्वामिनी हैं | आपको बार बार नमस्कार है |

“संसारविषनाशिन्ये जीवनायै नमोऽस्तु ते | तापत्रितयसंहन्त्रयै प्राणेश्यै ते नमो नम : ||

विश्व के वैज्ञानिक भी गंगाजल का परीक्षण कर दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं ! उन्होंने दुनिया की तमाम नदियों के जल का परीक्षण किया परंतु गंगाजल में रोगाणुओं को नष्टकरने तथा आनंद और सात्त्विकता देने का जो अद्भुत गुण है, उसे देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो उठे ।

सन् १९४७ में जलतत्त्व विशेषज्ञ कोहीमान भारत आया था । उसने वाराणसी से गंगाजल लिया । उस पर अनेक परीक्षण करके उसने विस्तृत लेख लिखा, जिसका सार है – ‘इस जल में कीटाणु-रोगाणुनाशक विलक्षण शक्ति है ।

दुनिया की तमाम नदियों के जल का विश्लेषण करनेवाले बर्लिन के डॉ. जे. ओ. लीवर ने सन् १९२४ में ही गंगाजल को विश्व का सर्वाधिक स्वच्छ और कीटाणु-रोगाणुनाशकजल घोषित कर दिया था ।

 

‘आइने अकबरी में लिखा है कि ‘अकबर गंगाजल मँगवाकर आदरसहित उसका पान करते थे । वे गंगाजल को अमृत मानते थे ।

औरंगजेब और मुहम्मद तुगलक भी गंगाजल का पान करते थे ।

शाहनवर के नवाब केवल गंगाजल ही पिया करते थे ।

कलकत्ता के हुगली जिले में पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारी नदियाँ, झरने और नाले गंगाजी में मिल चुके होते हैं । अंग्रेज यह देखकर हैरान रह गये कि हुगली जिले से भराहुआ गंगाजल दरियाई मार्ग से यूरोप ले जाया जाता है तो भी कई-कई दिनों तक वह बिगडता नहीं है । जबकि यूरोप की कई बर्फीली नदियों का पानी हिन्दुस्तान लेकर आनेतक खराब हो जाता है ।

अभी रुडकी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक कहते हैं कि ‘गंगाजल में जीवाणुनाशक और हैजे के कीटाणुनाशक तत्त्व विद्यमान हैं ।

फ्रांसीसी चिकित्सक हेरल ने देखा कि गंगाजल से कई रोगाणु नष्ट हो जाते हैं । फिर उसने गंगाजल को कीटाणुनाशक औषधि मानकर उसके इंजेक्शन बनाये और जिस रोगमें उसे समझ न आता था कि इस रोग का कारण कौन-से कीटाणु हैं, उसमें गंगाजल के वे इंजेक्शन रोगियों को दिये तो उन्हें लाभ होने लगा !

संत तुलसीदासजी कहते हैं :

गंग सकल मुद मंगल मूला । सब सुख करनि हरनि सब सूला ।।

(श्रीरामचरित. अयो. कां. : ८६.२)

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1966 का वह गो-हत्‍या बंदी आंदोलन


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Aditi Gupta

1966 का वह गो-हत्‍या बंदी आंदोलन, जिसमें हजारों साधुओं को इंदिरा सरकार ने गोलियों से भुनवा दिया था! आंखों देखा वर्णन!

देश के त्याग, बलिदान और राष्ट्रीय ध्वज में मौजूद ‘भगवा’ रंग से पता नहीं कांग्रेस को क्‍या एलर्जी है कि वह आजाद भारत में संतों के हर आंदोलन को कुचलती रही है। आजाद भारत में कांग्रेस पार्टी की सरकार भगवा वस्त्रधारी संतों पर गोलियां तक चलवा चुकी है! गो-रक्षा के लिए कानून बनाने की मांग लेकर जुटे हजारों साधु-संत इस गांलीकांड में मारे गए थे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए उस खूनी इतिहास को कांग्रेस ने ठीक उसी तरह दबा दिया, जिस कारण आज की युवा पीढ़ी उस दिन के खूनी कृत्‍य से आज भी अनजान है!

गोरक्षा महाभियान समिति के तत्कालीन मंत्रियों में से एक मंत्री और पूरी घटना के गवाह, प्रसिद्ध इतिहासकार एवं लेखक आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, ”7 नवंबर 1966 की सुबह आठ बजे से ही संसद के बाहर लोग जुटने शुरू हो गए थे। उस दिन कार्तिक मास, शुक्‍ल पक्ष की अष्‍टमी तिथि थी, जिसे हम-आप गोपाष्‍ठमी नाम से जानते हैं। गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक व सनातनी करपात्री जी महाराज ने चांदनी चैक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरंभ किया। करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय के सातों पीठ के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, मध्व संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि, सिखों के निहंग व हजारों की संख्या में मौजूद नागा साधुओं को पंडित लक्ष्मीनारायण जी ने चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे। लालकिला मैदान से आरंभ होकर नई सड़क व चावड़ी बाजार से होते हुए पटेल चैक के पास से संसद भवन पहुंचने के लिए इस विशाल जुलूस ने पैदल चलना आरंभ किया। रास्ते में अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे। हर गली फूलों का बिछौना बन गया था।”

आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, ” यह हिंदू समाज के लिए सबसे बड़ा ऐतिहासिक दिन था। इतने विवाद और अहं की लड़ाई होते हुए भी सभी शंकराचार्य और पीठाधिपतियों ने अपने छत्र, सिंहासन आदि का त्याग किया और पैदल चलते हुए संसद भवन के पास मंच पर समान कतार में बैठे। उसके बाद से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ। नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चैक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहा था। कम से कम 10 लाख लोगों की भीड़ जुटी थी, जिसमें 10 से 20 हजार तो केवल महिलाएं ही शामिल थीं। जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक के लोग गो हत्या बंद कराने के लिए कानून बनाने की मांग लेकर संसद के समक्ष जुटे थे। उस वक्त इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी और गुलजारी लाल नंदा गृहमंत्री। गो हत्या रोकने के लिए इंदिरा सरकार केवल आश्वासन ही दे रही थी, ठोस कदम कुछ भी नहीं उठा रही थी। सरकार के झूठे वादे से उकता कर संत समाज ने संसद के बाहर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया था।”

रामरंग जी के अनुसार, ”दोपहर एक बजे जुलूस संसद भवन पर पहुंच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ। करीब तीन बजे का समय होगा, जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानंद भाषण देने के लिए खड़े हुए। स्वामी रामेश्वरानंद ने कहा, ‘यह सरकार बहरी है। यह गो हत्या को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाएगी। इसे झकझोरना होगा। मैं यहां उपस्थित सभी लोगों से आह्वान करता हूं कि सभी संसद के अंदर घुस जाओ और सारे सांसदों को खींच-खींच कर बाहर ले आओ, तभी गो हत्या बंदी कानून बन सकेगा।’ ”

”इतना सुनना था कि नौजवान संसद भवन की दीवार फांद-फांद कर अंदर घुसने लगे। लोगों ने संसद भवन को घेर लिया और दरवाजा तोड़ने के लिए आगे बढ़े। पुलिसकर्मी पहले से ही लाठी-बंदूक के साथ तैनात थे। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया। भीड़ और आक्रामक हो गई। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। संसद के सामने की पूरी सड़क खून से लाल हो गई। लोग मर रहे थे, एक-दूसरे के शरीर पर गिर रहे थे और पुलिस की गोलीबारी जारी थी। नहीं भी तो कम से कम, पांच हजार लोग उस गोलीबारी में मारे गए थे।”

”बड़ी त्रासदी हो गई थी और सरकार के लिए इसे दबाना जरूरी था। ट्रक बुलाकर मृत, घायल, जिंदा-सभी को उसमें ठूंसा जाने लगा। जिन घायलों के बचने की संभावना थी, उनकी भी ट्रक में लाशों के नीचे दबकर मौत हो गई। हमें आखिरी समय तक पता ही नहीं चला कि सरकार ने उन लाशों को कहां ले जाकर फूंक डाला या जमीन में दबा डाला। पूरे शहर में कफ्र्यू लागू कर दिया गया और संतों को तिहाड़ जेल में ठूंस दिया गया। केवल शंकराचार्य को छोड़ कर अन्य सभी संतों को तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। करपात्री जी महाराज ने जेल से ही सत्याग्रह शुरू कर दिया। जेल उनके ओजस्वी भाषणों से गूंजने लगा। उस समय जेल में करीब 50 हजार लोगों को ठूंसा गया था।”

रामरंग जी के अनुसार, ”शहर की टेलिफोन लाइन काट दी गई। 8 नवंबर की रात मुझे भी घर से उठा कर तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया। नागा साधु छत के नीचे नहीं रहते, इसलिए उन्होंने तिहाड़ जेल के अदंर रहने की जगह आंगन में ही रहने की जिद की, लेकिन ठंड बहुत थी। नागा साधुओं ने जेल का गेट, फर्निचर आदि को तोड़ कर जलाना शुरू किया। उधर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गुलजारीलाल नंदा पर इस पूरे गोलीकांड की जिम्मेवारी डालते हुए उनका इस्तीफा ले लिया। जबकि सच यह था कि गुलजारीलाल नंदा गो हत्या कानून के पक्ष में थे और वह किसी भी सूरत में संतों पर गोली चलाने के पक्षधर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गांधी को तो बलि का बकरा चाहिए था! गुलजारीलाल नंदा को इसकी सजा मिली और उसके बाद कभी भी इंदिरा ने उन्हें अपने किसी मंत्रीमंडल में मंत्री नहीं बनाया। तत्काल महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री व चीन से हार के बाद देश के रक्षा मंत्री बने यशवंत राव बलवतंराव चैहान को गृहमंत्री बना दिया गया। तिहाड़ जेल में नागा साधुओं के उत्पाद की खबर सुनकर गृहमंत्री यशवंत राव बलवतंराव चैहान खुद जेल आए और उन्होंने नागा साधुओं को आश्वासन दिया कि उनके अलाव के लिए लकड़ी का इंतजाम किया जा रहा है। लकड़ी से भरे ट्रक जेल के अंदर पहुंचने और अलाव की व्यवस्था होने पर ही नागा साधु शांत हुए।”

रामरंग जी के मुताबिक, ”करीब एक महीने बाद लोगों को जेल से छोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। करपात्री जी महाराज को भी एक महीने बाद छोड़ा गया। जेल से निकल कर भी उनका सत्याग्रह जारी था। पुरी के शंकराचार्य और प्रभुदत्‍त ब्रहमचारी जी का आमरण अनशन महीनों चला। बाद में इंदिरा सरकार ने इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए धोखे का सहारा लिया। यशवंत राव बलवतंराव चैहान ने करपात्री जी महाराज से भेंट कर यह आश्वासन दिया कि अगले संसद सत्र में गो हत्या बंदी कानून बनाने के लिए अध्यादेश लाया जाएगा और इसे कानून बना दिया जाएगा, लेकिन आज तक यह कानून का रूप नहीं ले सका।”

रामरंग जी कहते हैं, ”कांग्रेस शुरु से ही भारत के सनातन धर्मी संतों से नफरत प्रदर्शित करती रही है। 7 नवंबर 1966 को उसका चरम रूप देखने को मिला। बाद में सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम को एक तरह से दबा दिया, जिसकी वजह से गो रक्षा के लिए किए गए उस बड़े आंदोलन और सरकार के खूनी कृत्य से आज की युवा पीढ़ी अनजान है।”