#मिथिला में पान की परंपरा के बारे में कहा जाता है –
माछ-पान-मखान
मिथिलाक तीन पहिचान।
इसी तरह #देवघर (झारखंड) के मैथिल ब्राह्मणों में एक व्यंग कहावत है –
सौव्वें सुपाड़ी, लाखें पान
बेसि होवै तै गांजा टान।
वैसे तो आर्य और द्रविड़ों से पान को जोड़कर देखा जाता है। मगर सम्पूर्ण भारतीय प्रायद्वीप (साउथ ईस्ट एशिया) में पान की परंपरा होने का प्रमाण मिलता है। श्रीलंका में तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के इसके प्रमाण मिले हैं। समय के साथ सम्पूर्ण विश्व में यह फैल गया। मुग़लिया दरबार भी इससे अछूता नहीं रहा। बौद्ध तंत्रयान में भी इसके प्रयोग की जानकारी मिलती है।
मिथिला में पान की परंपरा अति प्राचीन है। ऋषि #जमदग्नि का कौशिकी तीर के आश्रम में माँ मृगावती के साथ अज्ञातवास में रह रहे बालक उदयन (राजा सहस्रानीक पुत्र) ने सर्वप्रथम ‘पान’ का पौधा देखा था। ये वही यमदग्नि हैं जिन्होंने #सामवेद की कुछ ऋचाएं रचे हैं। इनकी ससुराल कौशिकी (कोशी क्षेत्र) में थी। यह क्षेत्र मिथिला का अंग रहा है।
इसी उदयन ने वासवदत्ता से विवाह के पश्चात मगध नरेश की भगिनी (बहन) और अंग नरेश दृढ़वर्मा की पुत्री प्रियदर्शिका से भी विवाह किया। राजा #हर्षवर्धन ने ‘प्रियदर्शिका’ में इसे विस्तार दिया है।
#गर्ग_संहिता में मिथिला के नरेश उग्रसेन के राजसूय यज्ञ के लिए प्रद्युम्न द्वारा पान का बीड़ा उठाये जाने की चर्चा मिलती है।
#स्कंद_पुराण में चर्चा मिलती है कि समुद्र मंथन के क्रम में पान का बेल निकला था। मंथन की धुरी #मंदार_पर्वत आज भले ही प्राचीन अंग जनपद का भूभाग रहा हो मगर यह मिथिला का पड़ोसी राज्य था।
#महाभारत में चर्चा है कि युद्ध के पश्चात जब पांडव राजसूय यज्ञ करने को उद्यत हुए तब याज्ञिक ऋषियों ने पान लाने का अनुरोध किया। इसके लिए #अर्जुन को नागों के क्षेत्र में जाना पड़ा।
‘महाभारत’ के एक अन्य प्रकरण में चर्चा मिलती है कि #विदुर के घर #कृष्ण को भोजन के उपरांत पान भी परोसा गया।
13वीं-14 वीं सदी के मिथिला के प्रख्यात लेखक #ज्योतिरीश्वर_ठाकुर ‘वर्ण रत्नाकर’ में मिथिला में पान की परंपरा के बारे में जानकारी देते हैं। पान की पत्तियों तथा इसमें प्रयुक्त चूना और मसालों के प्रकार के बारे में वे अन्य लेखकों से अव्वल लिखते हैं।
13 प्रकार के पान तथा मसालों की लंबी सूची वे प्रस्तुत तो करते ही हैं। वे यह भी बताते हैं कि विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों से लाई सुपाड़ी और चूना इसे विशिष्ट बनाते हैं। ज्योतिरीश्वर कहते हैं कि पान और मखाना स्वर्ग में भी नहीं मिलते। यह मिथिला में ‘मुखशुद्धि’ है।
13वीं सदी में आये तिब्बती यात्री #धर्मस्वामिन कहते हैं कि यहां पान के पत्तों पर सूखे गोबर को जलाकर बनाए गए राख का पेस्ट तथा सुगंधित कत्था लगाकर बीड़ा बनाया जाता है जिसे गीले कपड़ों में दो दिनों तक रखकर खाया जा सकता है।
16वीं सदी के महाकवि #विद्यापति अपने पदों में काकेर, बेलहरी, मगही, बंगला जैसे पान के पत्तों की चर्चा करते हैं। उस समय के मिथिला की परंपराएं बिना पान के संपन्न नहीं होती थी। ऐसा आज भी है।
इतिहासकार #जदूनाथ_सरकार कहते हैं कि बंगाल के सोनारगांव के लोग प्राचीन काल से नदी में मिलनेवाले सीप के कवच (प्रवाल भस्म) को जलाकर चूना बनाते हैं। इसे बिहार और बंगाल में बेचा भी जाता है मगर अब ‘खान-ए-पुरनियमत’ के आधार पर सोनारगांव के मदरसे में इसे अधार्मिक बताकर बहिष्कार किया गया है।
10वीं-11वीं सदी में भारत आए ईरानी लेखक #अलबरूनी कहते हैं कि भारत में पान चबाना राष्ट्रीय आदत है। यहां के समाज में पान से लोगों की आवभगत की जाती है। मुसलमान इसे खाना नहीं जानते थे। अब सीख चुके हैं। इसे ‘देवल रानी खिज़िर खान’ में #अमीर_खुसरो भी लिखते हैं। खुसरो ने पान की बुराइयां भी बहुत की है।
पान 20वीं शताब्दी तक भारत में बहुत प्रचलन में था। 21वीं शताब्दी में आते-आते कैंसरजन्य तत्वों की पहचान विशेषज्ञों ने की और पारंपरिक पान को ग्रहण लग गया। बताया गया कि पान के पत्तों में Hydroxychavicol और Eugenol तथा सुपाड़ी में Nitrosamines नामक तत्व पाया जाता है जो कैंसर उत्पन्न कर सकता है।
प्राचीन भारतीय आरोग्य ग्रंथों में पान को कामोद्दीपक तथा अन्य दर्जनों रोगों का इलाज माना गया है।
इस मुआं कैंसर ने तो Amitabh Bachchan के ‘खाइके पान बनारस वाला…’ के धर्म-दर्शन को भी पलीता लगा दिया। बावजूद इसके विद्वान एच. व्ही. नागराजराव के अनुसार पान की महिमा निम्नलिखित है –
ताम्बूलं मुखरोगनाशि निपुणं संवर्धनं तेजसो
नित्यं जाठरवह्निवृद्धिजननं दुर्गन्धदोषापहम् ।
वक्त्रालंकरणं प्रहर्षजननं विद्वन्नृपाग्रे रणे
कामस्यायतनं समुद्भवकरं लक्षम्याः सुखस्यास्पदम् ॥
पान मुख के रोगों को नाश करने में निपुण और तेज को बढ़ाने वाला है। नित्य जठराग्नि को बढ़ाने वाला और (मुख) दुर्गन्ध के दोष को नष्ट करने वाला है। विद्वानों और राजा के सम्मुख, रण में मुख की शोभा बढ़ाने वाला हर्ष का जनक है। काम का घर और लक्ष्मी के सुख का कारण है।
– उदय शंकर झा ‘चंचल’
