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मित्रोआज शुक्रवार है, आज हम आपको असुरों के गुरु शुक्राचार्यजी के दस रहस्य बतायेगें। मित्रो प्रस्तुति विस्तृत है, इसलिये शेयर या कॉपी करके समय मिलने पर पढें। मित्रो बहुत दुर्लभ प्रस्तुति है, इसलिये अवश्य पढ़ें आपका ज्ञानवर्द्धन होगा।

अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥
– शुक्राचार्य (शुक्र नीति)

अर्थात कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरू होता हो, कोई ऐसा मूल (जड़) नहीं है, जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नहीं होता, उसको काम में लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं।

शुक्राचार्य एक रहस्यमयी ऋषि हैं। उनके बारे में लोग सिर्फ इतना ही जानते हैं कि वे असुरों के गुरु थे। लेकिन हम आपको बताएंगे उनके बारे में कुछ अन्य तरह की रहस्यमी बातें जो शायद ही आप जानते होंगे। शुक्राचार्य के संबंध में काशी खंड महाभारत, पुराण आदि ग्रंथों में अनेक कथाएं वर्णित है।

देवताओं के अधिपति इन्द्र, गुरु बृहस्पति और विष्णु परम ईष्ट हैं। दूसरी ओर दैत्यों के अधिपति हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के बाद विरोचन बने जिनके गुरु शुक्राचार्य और शिव परम ईष्ट हैं। एक ओर जहां देवताओं के भवन, अस्त्र आदि के निर्माणकर्ता विश्‍वकर्मा थे तो दूसरी ओर असुरों के मयदानव। इन्द्र के भ्राताश्री वरुणदेव देवता और असुर दोनों को प्रिय हैं।

असुरों में कई महान शिव भक्त असुर हुए हैं। शुक्राचार्य उनमें से एक थे। आओ उनके बारे में जानते हैं दस रहस्य…

पहला रहस्य…. ऋषि भुगु के पुत्र थे शुक्राचार्य :महर्षि भृगु के पुत्र और भक्त प्रहल्लद के भानजे शुक्राचार्य। महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता मिले और एक बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान विष्णु से कर दिया था। भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। माना जाता है कि उशना ही आगे चलकर शुक्राचार्य कहलाए। एक अन्य मान्यता अनुसार वे भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र थे।

मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। इनका वाहन रथ है, उसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजाएं फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 20 वर्ष की होती है।

दूसरा रहस्य.. शुक्र नीति के प्रवर्तक :शुक्राचार्य महान ज्ञानी के साथ-साथ एक अच्छे नीतिकार भी थे। शुक्राचार्य की कही गई नीतियां आज भी बहुत महत्व रखती हैं। आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है।

शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है।

तीसरा रहस्य… माता ख्याति :कहा जाता है कि दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।

जम्बूद्वीप के इलावर्त (रशिया) क्षे‍त्र में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि अंतिम बार संभवत: शम्बासुर के साथ युद्ध हुआ था जिसमें राजा दशरथ ने भी भाग लिया था।

चौथा रहस्य… शुक्राचार्य को याद थी मृत को जिंदा करने की विद्या :इस विद्या के अविष्कार भगवान शंकर थे। ज्ञात हो कि गणेशजी का सिर काट कर हाथी का सिर लगा कर शिव ने गणेश को पुनः जीवित कर दिया था। भगवान शंकर ने ही दक्ष प्रजापति का शिरोच्छेदन कर वध कर दिया था और पुनः अज (बकरे) का सिर लगा कर उन्हें जीवन दान दे दिया।

इस विद्या द्वारा मृत शरीर को भी जीवित किया जा सकता है। यह विद्या असुरों के गुरु शुक्राचार्य को याद थी। शुक्राचार्य इस विद्या के माध्यम से युद्ध में आहत सैनिकों को स्वस्थ कर देते थे और मृतकों को तुरंत पुनर्जीवित कर देते थे। शुक्राचार्य ने रक्तबीज नामक राक्षस को महामृत्युंजय सिद्धि प्रदान कर युद्धभूमि में रक्त की बूंद से संपूर्ण देह की उत्पत्ति कराई थी।

कहते हैं कि महामृत्युंजय मंत्र के सिद्ध होने से भी यह संभव होता है। महर्षि वशिष्ठ, मार्कंडेय और गुरु द्रोणाचार्य महामृत्युंजय मंत्र के साधक और प्रयोगकर्ता थे। संजीवनी नामक एक जड़ी बूटी भी मिलती है जिसके प्रयोग से मृतक फिर से जी उठता है।

मत्स्य पुराण अनुसार शुक्राचार्य ने आरंभ में अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वे (अंगिरस) अपने पुत्र बृहस्पति के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने अंगिरस का आश्रम छोड़कर गौतम ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया। गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।

पांचवां रहस्य… एकाक्षता नाम :माना जाता है कि एक समय जब विष्णु अवतार त्रिविक्रम वामन ने ब्राह्मण बनकर राजा बालि से तीन पग धरती दान में मांगी तो उस वक्त शुक्राचार्य बलि को सचेत करने के उद्देश्य से जलपात्र की टोंटी में बैठ गए। जल में कोई व्याघात समझ कर उसे सींक से खोदकर निकालने के यत्न में इनकी आंख फूट गई। फिर आजीवन वे काने ही बने रहे। तब से इनका नाम एकाक्षता का द्योतक हो गया।

दरअसल भगवान विष्णु ने वामनावतार में जब राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी तब शुक्राचार्य सूक्ष्म रूप में बलि के कमंडल में जाकर बैठ गए, जिससे की पानी बाहर न आए और बलि भूमि दान का संकल्प न ले सकें। तब वामन भगवान ने बलि के कमंडल में एक तिनका डाला, जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई। इसलिए इन्हें एकाक्ष यानी एक आंख वाला भी कहा जाता है।

छठा रहस्य… शिव ने निगल लिया था शुक्राचार्य को :गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।

मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती गई और देवता असहाय हो गए। ऐसे में उन्होंने भगवान शंकर की शरण ली। शुक्राचार्य द्वार मृत संजीवीनी का अनुचित प्रयोग करने के कारण भगवान शंकर को बहुत क्रोध आया। क्रोधावश उन्होंने शुक्राचार्य को पकड़कर निगल लिया। इसके बाद शुक्राचार्य शिवजी की देह से शुक्ल कांति के रूप में बाहर आए और अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त किया। तब उन्होंने प्रियवृत की पुत्री ऊर्जस्वती से विवाह कर अपना नया जीवन शुरू किया। उससे उन को चार पुत्र हुए।

सातवां रहस्य.. शुक्राचार्य की पुत्री की प्रसिद्ध कहानी :इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया।

एक बार की बात है कि दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। शर्मिष्ठा अति सुन्दर राजपुत्री थी, तो देवयानी असुरों के महा गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। दोनों एक दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं।

उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले। भगवान शंकर को आते देख वे सभी कन्याएं लज्जावश से बाहर निकलकर दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिए। इस पर देवयानी अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, ‘रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।’

देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएं में धकेल दिया। देवयानी को कुएं में धकेल कर शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् राजा ययाति आखेट करते हुए वहां पर आ पहुंचे और अपनी प्यास बुझाने के लिए वे कुएं के निकट गए तभी उन्होंने उस कुएं में वस्त्रहीन देवयानी को देखा।

जल्दी से उन्होंने देवयानी की देह को ढंकने के लिए अपने वस्त्र दिए और उसको कुएं से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेमपूर्वक राजा ययाति से कहा, ‘हे आर्य! आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती हूं। हे क्षत्रियश्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण पुत्री हूं किन्तु बृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता। इसलिए आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझ कर स्वीकार कीजिए।’ ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

देवयानी वहां से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किए हुए कर्म पर शुक्राचार्य को अत्यन्त क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गए। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से मान-मनोन्वल करने लगे।

बड़ी मुश्किल से शुक्राचार्य का क्रोध शान्त हुआ और वे बोले, ‘हे दैत्यराज! मैं आपसे किसी प्रकार से रुष्ठ नहीं हूं किन्तु मेरी पुत्री देवयानी अत्यन्त रुष्ट है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर सको तो मैं पुनः तुम्हारा साथ देने लगूंगा।’

वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिए उससे कहा, ‘हे पुत्री! तुम जो कुछ भी मांगोगी मैं तुम्हें वह प्रदान करूंगा।’ देवयानी बोली, ‘हे दैत्यराज! मुझे आपकी पुत्री शर्मिष्ठा दासी के रूप में चाहिए।’ अपने परिवार पर आए संकट को टालने के लिए शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया।

शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्र की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु तथा पुरु हुए।

बाद में जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के संबंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के पास चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर कहा, ‘रे ययाति! तू स्त्री लम्पट है। इसलिए मैं तुझे शाप देता हूं तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।’

उनके शाप से भयभीत हो राजा ययाति गिड़गिड़ाते हुए बोले, ‘हे दैत्य गुरु! आपकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुए अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है।’ तब कुछ विचार कर के शुक्रचार्य जी ने कहा, ‘अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो।’

इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा, ‘वत्स यदु! तुम अपने नाना के द्वारा दी गई मेरी इस वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था मुझे दे दो।’ इस पर यदु बोला, ‘हे पिताजी! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। इसलिये मैं आपकी वृद्धावस्था को नहीं ले सकता।’

ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की मांग की, लेकिन सभी ने कन्नी काट ली। लेकिन सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की मांग को स्वीकार कर लिया।

पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा, ‘तूने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुझे राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूं। मैं तुझे शाप भी देता हूं कि तेरा वंश सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा।’

आठवां रहस्य… संगीतज्ञ और कवि थे शुक्राचार्य :शुक्राचार्य को श्रेष्ठ संगीतज्ञ और कवि होने का भी गौरव प्राप्त है। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी ज्ञाता हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।

नौवां रहस्य… शुक्राचार्य का शुक्राचार्य नाम कैसे पड़ा :कवि या भार्गव के नाम से प्रसिद्ध शुक्राचार्य का शुक्र नाम कैसे पड़ा इस संबंध में वामन पुराण में विस्तार से उल्लेख मिलता है।

कथा अनुसार जब शुक्राचार्य को शंकर भगवान निगल जाते हैं तब शंकरजी के उदर में जाकर कवि (शुक्राचार्य) ने शंकर भगनान की स्तुति प्रारंभ कर दी जिससे प्रसन्न हो कर शिव ने उन को बाहर निकलने कि अनुमति दे दी। जब वे एक दिव्य वर्ष तक महादेव के उदर में ही विचरते रहे लेकिन कोई छोर न मिलने पर वे पुनः शिव स्तुति करने लगे। तब भगवान शंकर ने हंस कर कहा कि मेरे उदर में होने के कारण तुम मेरे पुत्र हो गए हो अतः मेरे शिश्न से बाहर आ जाओ। आज से समस्त चराचर जगत में तुम शुक्र के नाम से ही जाने जाओगे। शुक्रत्व पाकर भार्गव भगवान शंकर के शिश्न से निकल आए। तब से कवि शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए।

दसवां रहस्य… क्या शुक्राचार्य अरब चले गए थे? :इस बात में कितनी सचाई है यह हम नहीं जानते। शुक्राचार्य को प्राचीन अरब के धर्म और संस्कृति का प्रवर्तक माना जाता है हालांकि इस पर विवाद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि अरब को पहले पाताल लोक की संज्ञा दी गई थी। गुजरात के समुद्र के उस पार पाताल लोक होने की कथा पुराणों में मिलती है।

गुजरात के समुद्री तट पर स्थित बेट द्वारका से 4 मील की दूरी पर मकरध्वज के साथ में हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है। अहिरावण ने भगवान श्रीराम-लक्ष्मण को इसी स्थान पर छिपाकर रखा था। जब हनुमानजी श्रीराम-लक्ष्मण को लेने के लिए आए, तब उनका मकरध्वज के साथ घोर युद्ध हुआ। अंत में हनुमानजी ने उसे परास्त कर उसी की पूंछ से उसे बांध दिया। उनकी स्मृति में यह मूर्ति स्थापित है। मकरध्वज हनुमानजी का पुत्र था।

माना जाता है कि जब राजा बलि को पाताल लोक का राज बना दिया गया था तब शुक्राचार्य भी उनके साथ चले गए थे। दूसरी मान्यता अनुसार दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक वहां रहे।

शुक्राचार्य के पौत्र का नाम और्व/अर्व या हर्ब था, जिसका अपभ्रंश होते होते अरब हो गया। अरब देशों का महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पौत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध के बारे में ‘हिस्ट्री ऑफ पर्शिया’ में उल्लेख मिलता है जिसके लेखक साइक्स हैं।
संजय गुप्ता

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जानिए सप्त ऋषिओं एवं सप्तऋषि तारा मंडल
के बारे में ?
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आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।

वेदों के रचयिता ऋषि : ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव और 7.शौनक।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

  1. वशिष्ठ : राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

2.विश्वामित्र : ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

  1. कण्व : माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
  2. भारद्वाज : वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।

ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम ‘रात्रि’ था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। ‘भारद्वाज-स्मृति’ एवं ‘भारद्वाज-संहिता’ के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने ‘यन्त्र-सर्वस्व’ नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने ‘विमान-शास्त्र’ के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

  1. अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

  1. वामदेव : वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।
  • शौनक : शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।

  • फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

    इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।
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    प्रताप राज

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    ऋषि


    मित्रो प्रस्तुति अति विस्तृत एवम अति रोचक एवम ज्ञानवर्धक है। इसे कॉपी या शेयर करके अपने संकलन में सम्मिलित करें, समय मिलने पर पढें।
    हिन्दू धर्म के उन्तीस ऐसे रहस्य, जो अनसुलझे हैं!!!!!

    हिन्दू धर्म या कहें कि भारतीय संस्कृति में प्रचलित और ग्रंथों में उल्लेखित भारत के 29 ऐसे रहस्य हैं, जो अभी तक अनसुलझे हुए हैं और संभवत: उनमें से कुछ का रहस्य मानव कभी नहीं जान पाएगा।

    प्राचीन सभ्यताओं, धर्म, समाज और संस्कृतियों का महान देश भारत वैसे भी रहस्य और रोमांच के लिए जाना जाता है। एक ओर जहां भारत में दुनिया की प्रथम भाषा संस्कृत का जन्म हुआ तो दूसरी ओर दुनिया का प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद लिखा गया। एक और जहां दुनिया की प्रथम लिपि ब्राह्मी लिपि का जन्म हुआ तो दूसरी ओर दुनिया के प्रथम विश्वविद्यालय नालंदा और तक्षशिला की स्थापना हुई।

    प्राचीन भारत में एक ओर जहां अगस्त्य मुनि ने बिजली का आविष्कार किया था तो हजारों वर्ष पूर्व ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र लिखकर यह बताया था कि किस तरह विमान बनाए जा सकते हैं। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत जहां भास्कराचार्य ने ईजाद किया था तो वहीं कणाद ऋषि को परमाणु सिद्धांत का जनक माना गया है। एक ओर जहां सांप-सीढ़ी का खेल भारत में जन्मा दो दूसरी ओर शतरंज का आविष्कार भी भारत में ही हुआ।

    आचार्य चरक और सुश्रुत को श्रेय जाता है प्लास्टिक सर्जरी चिकित्सा की खोज का। पाणिणी ने दुनिया का पहला व्याकरण लिखा था। ज्यामिति, पाई का मान, रिलेटिविटी का सिद्धांत जैसे कई सिद्धांत और आविष्कार हैं, जो भारत ने गढ़े हैं। लेकिन हम उक्त सबसे हटकर कुछ ऐसे 29 रहस्य बताने वाले हैं, जो अब तक अनसुलझे हैं।

    पहला रहस्य… ऋषि कश्यप और उनकी पत्नियों के पुत्रों का रहस्य!!!!!

    कहते हैं कि धरती के प्रारंभिक काल में धरती एक द्वीप वाली थी, फिर वह दो द्वीप वाली बनी और अंत में सात द्वीपों वाली बन गई। कहते हैं कि प्रारंभिक काल में ब्रह्मा ने समुद्र में और धरती पर तरह-तरह के जीवों की उत्पत्ति की। उत्पत्ति के इस काल में उन्होंने अपने कई मानस पुत्रों को भी जन्म दिया। उन्हीं में से एक थे मरीची। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस पुत्र मरीची के विद्वान पुत्र थे।

    मान्यता के अनुसार इन्हें अनिष्टनेमी के नाम से भी जाना जाता है। इनकी माता ‘कला’ कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थी। यहां रहस्य वाली बात यह कि क्या कोई इंसान सर्प, पक्षी, पशु आदि तरह की जातियों को जन्म दे सकता है? हालांकि जीव विकासवादियों को इस पर शोध करना चाहिए। क्या मनुष्य और पशुओं के संयोग से कोई एक नई प्रजाति को जन्म देना संभव है। भगवान विष्णु सदा एक गरूड़ पर सवार रहते थे। ये गरूड़जी कश्यप की पत्नी विनीता से जन्मे थे।

    यूं तो कश्यप ऋषि की कई पत्नियां थीं लेकिन प्रमुख रूप से 17 का हम उल्लेख करना चाहेंगे- 1. अदिति, 2. दिति, 3. दनु, 4. काष्ठा, 5. अरिष्टा, 6. सुरसा, 7. इला, 8. मुनि, 9. क्रोधवशा, 10. ताम्रा, 11. सुरभि, 12. सुरसा, 13. तिमि, 14. विनीता, 15. कद्रू, 16. पतांगी और 17. यामिनी आदि पत्नियां बनीं।

    1. अदिति से 12 आदित्यों का जन्म हुआ- विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। ये सभी देवता कहलाए और इनका स्थान हिमालय के उत्तर में था।
    2. दिति से कई पुत्रों का जन्म हुआ-कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक 2 पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। ये दैत्य कहलाए और इनका स्थान हिमालय के ‍दक्षिण में था। श्रीमद्भागवत के अनुसार इन 3 संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुन्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र नि:संतान रहे जबकि हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद।

    3. दनु :ऋषि कश्यप को उनकी पत्नी दनु के गर्भ से द्विमुर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरुण, अनुतापन, धूम्रकेश, विरुपाक्ष, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान पुत्रों की प्राप्ति हुई। ये सभी दानव कहलाए।

    4. अन्य पत्नियां :रानी काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। पत्नी अरिष्टा से गंधर्व पैदा हुए। सुरसा नामक रानी से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए। इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ। मुनि के गर्भ से अप्सराएं जन्मीं। कश्यप की क्रोधवशा नामक रानी ने सांप, बिच्छू आदि विषैले जंतु पैदा किए।

    ताम्रा ने बाज,गिद्ध आदि शिकारी पक्षियों को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया। सुरभि ने भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पत्ति की। रानी सरसा ने बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया। तिमि ने जलचर जंतुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया।

    रानी विनीताके गर्भ से गरूड़ (विष्णु का वाहन) और वरुण (सूर्य का सारथि) पैदा हुए। कद्रू की कोख से बहुत से नागों की उत्पत्ति हुई जिनमें प्रमुख 8 नाग थे- अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक।

    रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ। यामिनी के गर्भ से शलभों (पतंगों) का जन्म हुआ। ब्रह्माजी की आज्ञा से प्रजापति कश्यप ने वैश्वानर की 2 पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया। उनसे पौलोम और कालकेय नाम के 60 हजार रणवीर दानवों का जन्म हुआ, जो कि कालांतर में निवात कवच के नाम से विख्यात हुए।

    दूसरा रहस्य… दस फन, उड़ने वाले, मणिधर और इच्छाधारी सांप होते हैं?

    सभी जीव-जंतुओं में गाय के बाद सांप ही एक ऐसा जीव है जिसका हिन्दू धर्म में ऊंचा स्थान है। सांप एक रहस्यमय प्राणी है। देशभर के गांवों में आज भी लोगों के शरीर में नाग देवता की सवारी आती है।

    शिव के प्रमुख गणों में सांप भी है। भारत में नाग जातियों का लंबा इतिहास रहा है। कहते हैं कि कश्यप की क्रोधवशा नामक रानी ने सांप, बिच्छू आदि विषैले जंतु पैदा किए। अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला- उक्त 5 नागों के कुल के लोगों का ही भारत में वर्चस्व था। ये सभी कश्यप वंशी थे, लेकिन इन्हीं से नागवंश चला। शेषनाग को 10 फन वाला माना गया है। भगवान विष्णु उन पर ही लेटे हुए दर्शाए गए हैं।

    नागवंश का संक्षिप्त परिचय…

    उड़ने वाला और इच्छाधारी नाग : माना जाता है कि 100 वर्ष से ज्यादा उम्र होने के बाद सर्प में उड़ने की शक्ति आ जाती है। सर्प कई प्रकार के होते हैं- मणिधारी, इच्‍छाधारी, उड़ने वाले, एकफनी से लेकर दसफनी तक के सांप, जिसे शेषनाग कहते हैं। नीलमणिधारी सांप को सबसे उत्तम माना जाता है। इच्छाधारी नाग के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी इच्छा से मानव, पशु या अन्य किसी भी जीव के समान रूप धारण कर सकता है।

    हालांकि वैज्ञानिक अब अपने शोध के आधार पर कहने लगे हैं कि सांप विश्व का सबसे रहस्यमय प्राणी है और दक्षिण एशिया के वर्षा वनों में उड़ने वाले सांप पाए जाते हैं। उड़ने में सक्षम इन सांपों को क्रोसोपेलिया जाति से संबंधित माना जाता है। वैज्ञानिकों ने 2 और 5 फन वाले सांपों के होने की पुष्‍टि की है लेकिन 10 फन वाले सांप अभी तक नहीं देखे गए हैं।

    तीसरा रहस्य… क्या पारसमणि होती है?

    मणि एक प्रकार का चमकता हुआ पत्थर होता है। मणि को हीरे की श्रेणी में रखा जा सकता है। मणि होती थी यह भी अपने आप में एक रहस्य है। जिसके भी पास मणि होती थी वह कुछ भी कर सकता था। ज्ञात हो कि अश्वत्थामा के पास मणि थी जिसके बल पर वह शक्तिशाली और अमर हो गया था। रावण ने कुबेर से चंद्रकांत नाम की मणि छीन ली थी।

    मान्यता है कि मणियां कई प्रकार की होती थीं। नीलमणि, चंद्रकांत मणि, शेष मणि, कौस्तुभ मणि, पारसमणि, लाल मणि आदि। पारसमणि से लोहे की किसी भी चीज को छुआ देने से वह सोने की बन जाती थी। कहते हैं कि कौवों को इसकी पहचान होती है और यह हिमालय के पास पास ही पाई जाती है।

    मणियों के महत्व के कारण ही तो भारत के एक राज्य का नाम मणिपुर है। शरीर में स्थित 7चक्रों में से एक मणिपुर चक्र भी होता है। मणि से संबंधित कई कहानी और कथाएं समाज में प्रचलित हैं। इसके अलावा पौराणिक ग्रंथों में भी ‍मणि के किस्से भरे पड़े हैं।

    चौथा रहस्य… संजीवनी बूटी का रहस्य अभी भी बरकरार !!!!!!

    शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या याद थी जिसके दम पर वे युद्ध में मारे गए दैत्यों को फिर से जीवित कर देते थे। इस विद्या को सीखने के लिए गुरु बृहस्पति ने अपने एक शिष्य को शुक्राचार्य का शिष्य बनने के लिए भेजा। उसने यह विद्या सीख ली थी लेकिन शुक्राचार्य और उनके दैत्यों को इसका जब पता चला तो उन्होंने उसका वध कर दिया।

    रामायण में उल्लेख मिलता है कि जब राम-रावण युद्ध में मेघनाथ आदि के भयंकर अस्त्र प्रयोग से समूची राम सेना मरणासन्न हो गई थी, तब हनुमानजी ने जामवंत के कहने पर वैद्यराज सुषेण को बुलाया और फिर सुषेण ने कहा कि आप द्रोणगिरि पर्वत पर जाकर 4 वनस्पतियां लाएं : मृत संजीवनी (मरे हुए को जिलाने वाली), विशाल्यकरणी (तीर निकालने वाली), संधानकरणी (त्वचा को स्वस्थ करने वाली) तथा सवर्ण्यकरणी (त्वचा का रंग बहाल करने वाली)। हनुमान बेशुमार वनस्पतियों में से इन्हें पहचान नहीं पाए, तो पूरा पर्वत ही उठा लाए। इस प्रकार लक्ष्मण को मृत्यु के मुख से खींचकर जीवनदान दिया गया।

    इन 4 वनस्पतियों में से मृत संजीवनी (या सिर्फ संजीवनी कहें) सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके बारे में कहा जाता है कि यह व्यक्ति को मृत्युशैया से पुनः स्वस्थ कर सकती है। सवाल यह है कि यह चमत्कारिक पौधा कौन-सा है! इस बारे में कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, बेंगलुरु और वानिकी महाविद्यालय, सिरसी के डॉ. केएन गणेशैया, डॉ. आर. वासुदेव तथा डॉ. आर. उमाशंकर ने बेहद व्यवस्थित ढंग से इस पर शोध कर 2 पौधों को चिह्नित किया है।

    उन्होंने सबसे पहले तो भारतभर में विभिन्न भाषाओं और बोलियों में उपलब्ध रामायण के सारे संस्करणों को देखा कि क्या इन सबमें ऐसे पौधे का जिक्र मिलता है जिसका नाम संजीवनी या इससे मिलता-जुलता हो। उन्होंने भारतीय जैव अनुसंधान डेटाबेस लायब्रेरी में 80 भाषाओं व बोलियों में अधिकांश भारतीय पौधों के बोलचाल के नामों की खोज की। उन्होंने ‘संजीवनी’ या उसके पर्यायवाचियों और मिलते-जुलते शब्दों की खोज की। नतीजा? खोज में 17 प्रजातियों के नाम सामने आए। जब विभिन्न भाषाओं में इन शब्दों के उपयोग की तुलना की गई, तो मात्र 6 प्रजातियां शेष रह गईं।

    इन 6 में से भी 3 प्रजातियां ऐसी थीं, जो ‘संजीवनी’ या उससे मिलते-जुलते शब्द से सर्वाधिक बार और सबसे ज्यादा एकरूपता से मेल खाती थी : क्रेसा क्रेटिका, सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस और डेस्मोट्रायकम फिम्ब्रिएटम। इनके सामान्य नाम क्रमशः रुदन्ती, संजीवनी बूटी और जीवका हैं। इन्हीं में से एक का चुनाव करना था। अगला सवाल यह था कि इनमें से कौन-सी पर्वतीय इलाके में पाई जाती है, जहां हनुमान ने इसे तलाशा होगा। क्रेसा क्रेटिका नहीं हो सकती, क्योंकि यह दखन के पठार या नीची भूमि में पाई जाती है।

    अब शेष बची 2 वनस्पतियां।अब शोधकर्ताओं ने सोचा कि वे कौन-से मापदंड रहे होंगे जिनका उपयोग रामायण काल के चिकित्सक औषधीय तत्व के रूप में करते होंगे। प्राचीन भारतीय पारंपरिक चिकित्सक इस सिद्धांत पर अमल करते थे कि जिस पौधे की बनावट प्रभावित अंग या शरीर के समान हो, वह उससे संबंधित रोग का उपचार कर सकता है।

    सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस कई महीनों तक एकदम सूखी या ‘मृत’ पड़ी रहती है और एक बारिश आते ही ‘पुनर्जीवित’ हो उठती है। डॉ. एनके शाह, डॉ. शर्मिष्ठा बनर्जी और सैयद हुसैन ने इस पर कुछ प्रयोग किए हैं और पाया है कि इसमें कुछ ऐसे अणु पाए जाते हैं, जो ऑक्सीकारक क्षति व पराबैंगनी क्षति से चूहों और कीटों की कोशिकाओं की रक्षा करते हैं तथा उनकी मरम्मत में मदद करते हैं। तो क्या सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस ही रामायण काल की संजीवनी बूटी है?

    सच्चे वैज्ञानिकों की भांति गणेशैया व उनके साथी जल्दबाजी में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहते। उनका कहना है कि दूसरे पौधे डेस्मोट्रायकम फिम्ब्रिएटम का दावा भी कमतर नहीं है। अब इन दो प्रजातियों के बीच फैसला करने के लिए और शोध की जरूरत है। इसके संपन्न होते ही रामायणकालीन संजीवनी बूटी शायद हमारे सामने होगी।

    एक अन्य खोज :भारतीय वैज्ञानिकों ने हिमालय के ऊपरी इलाके में एक अनोखे पौधे की खोज की है। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह पौधा एक ऐसी औषधि के रूप में काम करता है, जो हमारे इम्यून सिस्टम को रेग्युलेट करता है। हमारे शरीर को पर्वतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढलने में मदद करता है और हमें रेडियो एक्टिविटी से भी बचाता है।

    यह खोज सोचने पर मजबूर करती है कि क्या रामायण की कहानी में लक्ष्मण की जान बचाने वाली जिस संजीवनी बूटी का जिक्र किया गया है, वह हमें मिल गई है? रोडिओला नाम की यह बूटी ठंडे और ऊंचे वातावरण में मिलती है। लद्दाख में स्थानीय लोग इसे सोलो के नाम से जानते हैं।

    अब तक रोडिओला के उपयोगों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। स्थानीय लोग इसके पत्तों का उपयोग सब्जी के रूप में करते आए हैं। लेह स्थित डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ हाई एल्टिट्यूड इस पौधे के चिकित्सकीय उपयोगों की खोज कर रहा है। यह सियाचिन जैसी कठिन परिस्थितियों में तैनात सैनिकों के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। (एजेंसियां)

    पांचवां रहस्य… क्या कल्पवृक्ष अभी भी है?

    वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है, क्योंकि इस वृक्ष में अपार सकारात्मक ऊर्जा का भंडार होता है। यह वृक्ष समुद्र मंथन से निकला था। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी।

    एक कल्प की आयु : कल्पवृक्ष का अर्थ होता है, जो एक कल्प तक जीवित रहे। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच ऐसा कोई वृक्ष था या है? यदि था तो आज भी उसे होना चाहिए था, क्योंकि उसे तो एक कल्प तक जीवित रहना है। यदि ऐसा कोई-सा वृक्ष है तो वह कैसा दिखता है? और उसके क्या फायदे हैं? हालांकि कुछ लोग कहते हैं कि अपरिजात के वृक्ष को ही कल्पवृक्ष माना जाता है, लेकिन अधिकतर इससे सहमत नहीं हैं।

    छठा रहस्य…क्या कामधेनु गाय होती थी?

    कामधेनु गाय की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन से हुई थी। यह एक चमत्कारी गाय होती थी जिसके दर्शन मात्र से ही सभी तरह के दु:ख-दर्द दूर हो जाते थे। दैवीय शक्तियों से संपन्न यह गाय जिसके भी पास होती थी उससे चमत्कारिक लाभ मिलता था। इस गाय का दूध अमृत के समान माना जाता था।

    गाय हिन्दु्ओं के लिए सबसे पवित्र पशु है। इस धरती पर पहले गायों की कुछ ही प्रजातियां होती थीं। उससे भी प्रारंभिक काल में एक ही प्रजाति थी। आज से लगभग 9,500 वर्ष पूर्व गुरु वशिष्ठ ने गाय के कुल का विस्तार किया और उन्होंने गाय की नई प्रजातियों को भी बनाया, तब गाय की 8 या 10 नस्लें ही थीं जिनका नाम कामधेनु, कपिला, देवनी, नंदनी, भौमा आदि था। कामधेनु के लिए गुरु वशिष्ठ से विश्वामित्र सहित कई अन्य राजाओं ने कई बार युद्ध किया, लेकिन उन्होंने कामधेनु गाय को किसी को भी नहीं दिया। गाय के इस झगड़े में गुरु वशिष्ठ के 100 पुत्र मारे गए थे।

    33 कोटि देवता : हिन्दू धर्म के अनुसार गाय में 33 कोटि के देवी-देवता निवास करते हैं। कोटि का अर्थ ‘करोड़’ नहीं, ‘प्रकार’ होता है। इसका मतलब गाय में 33 प्रकार के देवता निवास करते हैं। ये देवता हैं- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्‍विन कुमार। ये मिलकर कुल 33 होते हैं।

    गाय की सूर्यकेतु नाड़ी :गाय की पीठ पर रीढ़ की हड्डी में स्थित सूर्यकेतु स्नायु हानिकारक विकिरण को रोककर वातावरण को स्वच्छ बनाते हैं। यह पर्यावरण के लिए लाभदायक है। दूसरी ओर, सूर्यकेतु नाड़ी सूर्य के संपर्क में आने पर यह स्वर्ण का उत्पादन करती है। गाय के शरीर से उत्पन्न यह सोना गाय के दूध, मूत्र व गोबर में मिलता है। यह स्वर्ण दूध या मूत्र पीने से शरीर में जाता है और गोबर के माध्यम से खेतों में। कई रोगियों को स्वर्ण भस्म दिया जाता है।

    पंचगव्य :पंचगव्य कई रोगों में लाभदायक है। पंचगव्य का निर्माण गाय के दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर द्वारा किया जाता है। पंचगव्य द्वारा शरीर की रोग निरोधक क्षमता को बढ़ाकर रोगों को दूर किया जाता है। ऐसा कोई रोग नहीं है जिसका इलाज पंचगव्य से न किया जा सके।

    सातवां रहस्य… कैलाश पर्वत और देव आत्मस्थान !!!!!!

    उत्तराखंड में एक ऐसा रहस्यमय स्थान है जिसे देवस्थान कहते हैं। मुण्डकोपनिषद के अनुसार सूक्ष्म-शरीरधारी आत्माओं का एक संघ है। इनका केंद्र हिमालय की वादियों में उत्तराखंड में स्थित है। इसे देवात्मा हिमालय कहा जाता है। इन दुर्गम क्षेत्रों में स्थूल-शरीरधारी व्यक्ति सामान्यतया नहीं पहुंच पाते हैं।

    अपने श्रेष्ठ कर्मों के अनुसार सूक्ष्म-शरीरधारी आत्माएं यहां प्रवेश कर जाती हैं। जब भी पृथ्वी पर संकट आता है, नेक और श्रेष्ठ व्यक्तियों की सहायता करने के लिए वे पृथ्वी पर भी आती हैं। देवताओं, यक्षों, गंधर्वों, सिद्ध पुरुषों का निवास इसी क्षेत्र में पाया जाता रहा है।

    देवस्थान :प्राचीनकाल में हिमालय में ही देवता रहते थे। यहीं पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव का स्थान था और यहीं पर नंदनकानन वन में इंद्र का राज्य था। इंद्र के राज्य के पास ही गंधर्वों और यक्षों का भी राज्य था। स्वर्ग की स्थिति 2 जगह बताई गई है- पहली हिमालय में और दूसरी कैलाश पर्वत के कई योजन ऊपर। यहीं पर मानसरोवर है और इसी हिमालय में अमरनाथ की गुफाएं हैं।

    अन्य रहस्यमय बातें :हिमालय में ही यति जैसे कई रहस्यमय प्राणी रहते हैं। इसके अलावा यहां चमत्कारिक और दुर्लभ जड़ी-बूटियां भी मिलती हैं। भारत और चीन की सेना ने हिमालय क्षेत्र में ही एलियन और यूएफओ को देखने का दावा किया है। हिमालय में ही एक रूपकुंड झील है। इसके तट पर मानव कंकाल पाए गए हैं। पिछले कई वर्षों से भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों के विभिन्न समूहों ने इस रहस्य को सुलझाने के कई प्रयास किए, पर नाकाम रहे।

    आठवां रहस्य…सोमरस आखिर क्या था?

    सोमरस के बारे में अक्सर पढ़ने और सुनने को मिलता है। आखिर यह सोमरस क्या था? क्या यह शराब जैसा कोई पदार्थ था या कि यह व्यक्ति को युवा बनाए रखने वाला कोई रस था?

    ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया है-
    ।।हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।
    अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।

    हालांकि वेदों में शराब को बुराइयों की जड़ कहा गया है, ऐसे में वे देवताओं को कैसे शराब चढ़ा सकते हैं। सुरापान और सोमरस में फर्क था।

    नौवां रहस्य… अमृत कलश ?????

    समुद्र मंथन के दौरान क्या कोई ऐसा रस निकला था जिसे पीकर देवताओं ने अमरता को प्राप्त कर लिया था? यदि समुद्र से ऐसा कोई रस निकल सकता है तो क्या आज नहीं निकल सकता? जरूरी है कि समुद्र से ही निकले? अमृत कलश के लिए देव और दैत्यों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। सचमुच अमृत का निकलना एक रहस्य ही है। हालांकि वैज्ञानिक ऐसी दवा बनाने में लगे हैं जिसे पीकर व्यक्ति अधिक समय तक जवान बना रह सके।

    अमर होने का रहस्य :अमर कौन नहीं होना चाहता? समुद्र मंथन में अमृत निकला। इसे प्राप्त करने के लिए देवताओं ने दानवों के साथ छल किया। देवता अमर हो गए। मतलब कि क्या समुद्र में ऐसा कुछ है कि उसमें से अमृत निकले? तो आज भी निकल सकता है? अभी अधिकतम 100 साल के जीवन में अनेकानेक रोग, कष्ट, संताप और झंझट हैं तो अमरता प्राप्त करने पर क्या होगा? 100 वर्ष बाद वैराग्य प्राप्त कर व्यक्ति हिमालय चला जाएगा। वहां क्या करेगा? बोर हो जाएगा तो फिर से संसार में आकर रहेगा। बस यही सिलसिला चलता रहेगा।

    महाभारत में 7 चिरंजीवियों का उल्लेख मिलता है। चिरंजीवी का मतलब अमर व्यक्ति। अमर का अर्थ, जो कभी मर नहीं सकते। ये 7 चिरंजीवी हैं- राजा बलि, परशुराम, विभीषण, हनुमानजी, वेदव्यास, अश्वत्थामा और कृपाचार्य। हालांकि कुछ विद्वान मानते हैं कि मार्कंडेय ऋषि भी चिरंजीवी हैं।

    माना जाता है कि ये सातों पिछले कई हजार वर्षों से इस धरती पर रह रहे हैं, लेकिन क्या धरती पर रहकर इतने हजारों वर्ष तक जीवित रहना संभव है? हालांकि कई ऐसे ऋषि-मुनि थे, जो धरती के बाहर जाकर फिर लौट आते थे और इस तरह वे अपनी उम्र फ्रिज कर बढ़ते रहते थे। हालांकि हिमालय में रहने से भी उम्र बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसी कई कथाएं हैं जिसमें लिखा है कि अमरता प्राप्त करने के लिए फलां-फलां दैत्य या साधु ने घोर तप करके शिवजी को प्रसन्न कर लिया। बाद में उसे मारने के लिए भगवान के भी पसीने छूट गए। अमर होने के लिए कई ऐसे मंत्र हैं जिनके जपने से शरीर हमेशा युवा बना रहता है। ‘महामृत्युंजय’ मंत्र के बारे में कहा जाता है कि इसके माध्यम से अमरता पाई जा सकती है।

    वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, पुराण, योग और आयुर्वेद में अमरत्व प्राप्त करने के अनेक साधन बताए गए हैं। आयुर्वेद में कायाकल्प की विधि उसका ही एक हिस्सा है। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि विज्ञान इस दिशा में क्या कर रहा है? विज्ञान भी इस दिशा में काम कर रहा है कि किस तरह व्यक्ति अमर हो जाए अर्थात कभी नहीं मरे।

    सावित्री-सत्यवानकी कथा तो आपने सुनी ही होगी। सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस ले लिए थे। सावित्री और यमराज के बीच लंबा संवाद हुआ। इसके बाद भी यह पता नहीं चलता है कि सावित्री ने ऐसा क्या किया कि सत्यवान फिर से जीवित हो उठा। इस जीवित कर देने या हो जाने की प्रक्रिया के बारे में महाभारत भी मौन है। जरूर सावित्री के पास कोई प्रक्रिया रही होगी। जिस दिन यह प्रक्रिया वैज्ञानिक ढंग से ज्ञात हो जाएगी, हम अमरत्व प्राप्त कर लेंगे।

    आपने अमरबेल का नाम सुना होगा। विज्ञान चाहता है कि मनुष्य भी इसी तरह का बन जाए, कायापलट करता रहा और जिंदा बना रहे। वैज्ञानिकों का एक समूह चरणबद्ध ढंग से इंसान को अमर बनाने में लगा हुआ है। समुद्र में जेलीफिश (टयूल्रीटोप्सिस न्यूट्रीकुला) नामक मछली पाई जाती है। यह तकनीकी दृष्टि से कभी नहीं मरती है। हां, यदि आप इसकी हत्या कर दें या कोई अन्य जीव जेलीफिश का भक्षण कर ले, फिर तो उसे मरना ही है। इस कारण इसे इम्मोर्टल जेलीफिश भी कहा जाता है। जेलीफिश बुढ़ापे से बाल्यकाल की ओर लौटने की क्षमता रखती है। अगर वैज्ञानिक जेलीफिश के अमरता के रहस्य को सुलझा लें, तो मानव अमर हो सकता है।

    क्या कर रहे हैं वैज्ञानिक? :वैज्ञानिक अमरता के रहस्यों से पर्दा हटाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बढ़ती उम्र के प्रभाव को रोकने के लिए कई तरह की दवाइयों और सर्जरी का विकास किया जा रहा है। अब इसमें योग और आयुर्वेद को भी महत्व दिया जाने लगा है। बढ़ती उम्र के प्रभाव को रोकने के बारे में आयोजित एक व्यापक सर्वे में पाया गया कि उम्र बढ़ाने वाली ‘गोली’ को बनाना संभव है। रूस के साइबेरिया के जंगलों में एक औषधि पाई जाती है जिसे जिंगसिंग कहते हैं। चीन के लोग इसका ज्यादा इस्तेमाल करके देर तक युवा बने रहते हैं।

    ‘जर्नल नेचर’ मेंप्रकाशित ‘पजल, प्रॉमिस एंड क्योर ऑफ एजिंग’ नामक रिव्यू में कहा गया है कि आने वाले दशकों में इंसान का जीवनकाल बढ़ा पाना लगभग संभव हो पाएगा। अखबार ‘डेली टेलीग्राफ’ के अनुसार एज रिसर्च पर बक इंस्टीट्यूट, कैलिफॉर्निया के डॉक्टर जूडिथ कैंपिसी ने बताया कि सिंपल ऑर्गनिज्म के बारे में मौजूदा नतीजों से इसमें कोई शक नहीं कि जीवनकाल को बढ़ाया-घटाया जा सकता है। पहले भी कई स्टडीज में पाया जा चुका है कि अगर बढ़ती उम्र के असर को उजागर करने वाले जिनेटिक प्रोसेस को बंद कर दिया जाए, तो इंसान हमेशा जवान बना रह सकता है। जर्नल सेल के जुलाई के अंक में प्रकाशित एक रिसर्च रिपोर्ट में कहा गया कि बढ़ती उम्र का प्रभाव जिनेटिक प्लान का हिस्सा हो सकता है, शारीरिक गतिविधियों का नतीजा नहीं। खोज और रिसर्च जारी है…। (एजेंसियां)

    दसवां रहस्य… महान योद्धा बर्बरीक और घटोत्कच :बर्बरीक महान पांडव भीम के पुत्र घटोत्कच और नागकन्या अहिलवती के पुत्र थे। कहीं-कहीं पर मुर दैत्य की पुत्री ‘कामकंटकटा’ के उदर से भी इनके जन्म होने की बात कही गई है। बर्बरीक और घटोत्कच के बारे में कहा जाता है कि ये दोनों ही विशालकाय मानव थे। घटोत्कच ने कौरवों की सेना में कोहराम मचा दिया था। आखिरकार कर्ण ने उस अस्त्र का उपयोग किया जिसे वह अर्जुन पर चलाना चाहते थे और घटोत्कच मारा गया।

    महाभारत का युद्ध जब तय हो गया तो बर्बरीक ने भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा व्यक्त की और मां को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। बर्बरीक अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर 3 बाण और धनुष के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए।

    बर्बरीक के लिए 3 बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरव और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। यह जानकर भगवान कृष्ण ने ब्राह्मण के वेश में उनके सामने उपस्थित होकर उनसे दान में छलपूर्वक उनका शीश मांग लिया।

    बर्बरीक ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे अंत तक युद्ध देखना चाहते हैं, तब कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन मास की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। भगवान ने उस शीश को अमृत से सींचकर सबसे ऊंची जगह पर रख दिया ताकि वे महाभारत युद्ध देख सकें। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर रख दिया गया, जहां से बर्बरीक संपूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।

    ग्यारहवां रहस्य.. द्वारिका नगर :मथुरा से निकलकर भगवान कृष्ण ने द्वारिका क्षेत्र में ही पहले से स्थापित खंडहर हो चुके नगर क्षेत्र में एक नए नगर की स्थापना की थी। कहना चाहिए कि भगवान कृष्ण ने अपने पूर्वजों की भूमि को फिर से रहने लायक बनाया था। प्राचीन इतिहास की खोज करने वाले इतिहासकारों के अनुसार द्वारिका विश्‍व का सबसे रहस्यमय शहर है। इस शहर पर अभी भी शोध जारी है।

    कृष्ण की द्वारिका को किसने किया था नष्ट?

    कई द्वारों का शहर होने के कारण ‘द्वारिका’ इसका नाम पड़ा। इस शहर के चारों ओर बहुत ही लंबी दीवार थी जिसमें कई द्वार थे। वह दीवार आज भी समुद्र के तल में स्थित है। भारत के सबसे प्राचीन नगरों में से एक है द्वारिका। ये 7 नगर हैं- द्वारिका, मथुरा, काशी, हरिद्वार, अवंतिका, कांची और अयोध्या। द्वारिका को द्वारावती, कुशस्थली, आनर्तक, ओखा-मंडल, गोमती द्वारिका, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, वारिदुर्ग, उदधिमध्य स्थान भी कहा जाता है।

    गुजरात राज्य के पश्चिमी सिरे पर समुद्र के किनारे स्थित 4 धामों में से 1 धाम और 7 पवित्र पुरियों में से एक पुरी है द्वारिका। द्वारिका 2 हैं- गोमती द्वारिका, बेट द्वारिका। गोमती द्वारिका धाम है, बेट द्वारिका पुरी है। बेट द्वारिका के लिए समुद्र मार्ग से जाना पड़ता है।

    एक समय था, जब लोग कहते थे कि द्वारिका नगरी एक काल्‍पनिक नगर है, लेकिन इस कल्‍पना को सच साबित कर दिखाया ऑर्कियोलॉजिस्‍ट प्रो. एसआर राव ने। प्रो. राव ने मैसूर विश्‍वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद बड़ौदा में राज्‍य पुरातत्‍व विभाग ज्‍वॉइन कर लिया था। उसके बाद भारतीय पुरातत्‍व विभाग में काम किया। प्रो. राव और उनकी टीम ने 1979-80 में समुद्र में 560 मीटर लंबी द्वारिका की दीवार की खोज की। साथ में उन्‍हें वहां पर उस समय के बर्तन भी मिले, जो 1528 ईसा पूर्व से 3000 ईसा पूर्व के हैं। इसके अलावा सिन्धु घाटी सभ्‍यता के भी कई अवशेष उन्‍होंने खोजे। उस जगह पर भी उन्‍होंने खुदाई में कई रहस्‍य खोले, जहां पर कुरुक्षेत्र का युद्ध हुआ था।

    बारहवां रहस्य… कैलाश मंदिर :गुफाएं तो भारत में बहुत हैं, लेकिन अजंता-एलोरा की गुफाओं के बारे में वैज्ञानिक कहते हैं कि ये किसी एलियंस के समूह ने बनाई हैं। यहां पर एक विशालकाय कैलाश मंदिर है। आर्कियोलॉजिस्टों के अनुसार इसे कम से कम 4,000 वर्ष पूर्व बनाया गया था। 40 लाख टन की चट्टानों से बनाए गए इस मंदिर को किस तकनीक से बनाया गया होगा? यह आज की आधुनिक इंजीनियरिंग के बस की भी बात नहीं है।

    माना जाता है कि एलोरा की गुफाओं के अंदर नीचे एक सीक्रेट शहर है। आर्कियोलॉजिकल और जियोलॉजिस्ट की रिसर्च से यह पता चला कि ये कोई सामान्य गुफाएं नहीं हैं। इन गुफाओं को कोई आम इंसान या आज की आधुनिक तकनीक नहीं बना सकती। यहां एक ऐसी सुरंग है, जो इसे अंडरग्राउंड शहर में ले जाती है।

    तेरहवां रहस्य… क्या सचमुच ही कर्ण के कवच और कुंड आज भी बनाए जा सकते हैं?

    भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल हैं, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं, वह युद्ध में अजेय रहेगा।

    तब कृष्ण ने देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया और फिर देवराज इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में पहुंच गए कर्ण के द्वार। देवराज भी सभी के साथ लाइन में खड़े हो गए। कर्ण सभी को कुछ न कुछ दान देते जा रहे थे। बाद में जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं? तब देवराज इंद्र ने छल से उनके कवच और कुंडल दान में ले लिए थे।

    चौदहवां रहस्य…कहां से आया सुदर्शन चक्र?

    कहते हैं कि सुदर्शन चक्र एक ऐसा अचूक अस्त्र था कि जिसे छोड़ने के बाद यह लक्ष्य का पीछा करता था और उसका काम तमाम करके वापस छोड़े गए स्थान पर आ जाता था। इस चक्र को विष्णु की तर्जनी अंगुली में घूमते हुए बताया जाता है। सबसे पहले यह चक्र उन्हीं के पास था।

    पुराणों के अनुसार विभिन्न देवताओं के पास अपने-अपने चक्र हुआ करते थे। सभी चक्रों की अलग-अलग क्षमता होती थी और सभी के चक्रों के नाम भी होते थे। महाभारत युद्ध में भगवान कृष्ण के पास सुदर्शन चक्र था। यह सुदर्शन चक्र कहां से आया था और चक्रों का जन्मदाता कौन था? क्या आज भी इस तरह का अस्त्र बनाया जा सकता है? या कि यह एक चमत्कारिक शक्ति से ही संचालित होता था किसी मशीन द्वारा नहीं? ऐसे कई सवाल हैं जिनका रहस्य अभी भी बरकरार है। हालांकि आजकल ऐसी मिसाइलें बनने लगी हैं, जो लक्ष्य को भेदकर आपस लौट आती हैं, लेकिन चक्र जैसा अस्त्र तो सचमुच ही अद्भुत है।

    पंद्रहवां रहस्य… रस्सी का जादू :आज पश्‍चिमी देशों में तरह-तरह की जादू-विद्या लोकप्रिय है और समाज में हर वर्ग के लोग इसका अभ्यास करते हैं। एक समय था, जब भारत में जादूगरों की भरमार थी। इस देश में एक से एक जादूगर, सम्मोहनविद, इंद्रजाल, नट, सपेरे और करतब दिखाने वाले होते थे। बंगाल का काला जादू तो विश्वप्रसिद्ध था।

    यूरोप की कल्पना में भारत सदा से बेहिसाब संपत्ति और अलौकिक घटनाओं का एक अविश्वसनीय देश रहा है, जहां बुद्धिमान, जादूगर, सिद्ध आदि व्यक्तियों की संख्या सामान्य से कुछ अधिक थी। विदेशी भ्रमणकर्ताओं और व्यापारियों ने भारत से कई तरह का जादू सीखा और उसे अपने देश में ले जाकर विकसित किया। बाद में इसी तरह के जादू का इस्तेमाल धर्म प्रचार के लिए किया गया। आजकल भारत जादू के मामले में पिछड़ गया है। एक समय था, जब सोवियत संघ और रोम में जादूगरों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और हजारों जादूगरों का कत्ल कर दिया गया था, लेकिन आजकल अमेरिका और योरप के कई देशों में आज भी जादूगरों की धूम है।

    भारत में सड़क या चौराहे पर जादूगर एक जादू दिखाते थे जिसे रस्सी का जादू या करतब कहा जाता था। बीन या पुंगी की धुन पर वह रस्सी सांप के पिटारे से निकलकर आसमान में चली जाती थी और जादूगर उस हवा में झूलती रस्सी पर चढ़कर आसमान में कहीं गायब हो जाता था।

    अंग्रजों के काल में किसी ने यह जादू दिखाया था, उसके बाद से इस जादू के बारे में सुना ही जाता है। अब इसे दिखाने वाला कोई नहीं है। यही कारण है कि इस जादू को दिखाना अब किसी भी जादूगर के बस की बात नहीं रही। यह विद्या लगभग खो-सी गई है। इसके खो जाने के कारण अब यह संदेह किया जाता है कि कहीं ऐसा जादू दिखाया भी जाता था या नहीं?

    सोलहवां रहस्य… वानर प्रजाति :क्या सचमुच रामायण काल में बताए गए अनुसार जामवंत एक रीछ थे और हनुमानजी एक वानर? हालांकि आज भी यह रहस्य बरकरार है। यदि बजरंग बली वानर नहीं होते तो उनको रामायण और रामचरित मानस में कपि, वानर, शाखामृग, प्लवंगम, लोमश और पुच्छधारी कहकर नहीं पुकारा जाता। लंकादहन का वर्णन भी फिर पूंछ से जुड़ा हुआ नहीं होता।

    हालांकि कहा जाता है कि कपि नामक एक वानर जाति थी। हनुमानजी उसी जाति के ब्राह्मण थे। हनुमान चालीसा की एक पंक्ति है: को नहि जानत है जग में, ‘कपि’ संकटमोचन नाम तिहारो।।

    कुछ लोग कपि को चिंपांजी के रूप में देखते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार ‘कपि प्रजाति’ होमिनोइडेया नामक महापरिवार प्राणी जगत की सदस्य जीव जातियों में से एक थी। जीव विज्ञानी कहते हैं कि होमिनोइडेया नामक महापरिवार के प्राणी जगत की 2 प्रमुख जाति शाखाएं थीं जिसमें से प्रथम को ‘हीन कपि’ कहा जाता था और दूसरी को महाकपि कहा जाता था। हीन कपि अर्थात छोटे कपि और महाकपि अर्थात बड़े आकार के मानवनुमा कपि। महाकपियों की 4 उपशाखाएं हैं- गोरिल्ला, चिंपांजी, मनुष्य तथा ओरंगउटान।

    शोधकर्ताओं के अनुसार भारतवर्ष में आज से 9 से 10 लाख वर्ष पूर्व बंदरों की एक ऐसी विलक्षण जाति में विद्यमान थी, जो आज से लगभग 15 हजार वर्ष पूर्व विलुप्त होने लगी थी और रामायण काल के बाद लगभग विलुप्त ही हो गई। इस वानर जाति का नाम ‘कपि’ था। मानवनुमा यह प्रजाति मुख और पूंछ से बंदर जैसी नजर आती थी। भारत से दुर्भाग्यवश कपि प्रजाति समाप्त हो गई, लेकिन कहा जाता है कि इंडोनेशिया देश के बाली नामक द्वीप में अब भी पुच्छधारी जंगली मनुष्यों का अस्तित्व विद्यमान है।

    भौतिक मानव विज्ञानी सिकर्क ने इस बात की घोषणा की है कि उन्हें पश्चिम टेक्सास के एक कब्रिस्तान में नर वानर प्रजाति के नए जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। उनका कहना है कि ये जीवाश्म 43 मिलियन वर्ष पहले के हो सकते हैं और वर्तमान में इनकी तुलना उत्तरी गोलार्ध में पाए जाने वाले मेस्केलोलीमर से की जा सकती है, लेकिन अब मेस्केलोलीमर एक विलुप्त नर वानर समूह है।

    हालांकि 1973 में एक जीवाश्म प्राप्त हुआ था जिसकी तुलना इससे की जा रही है। इसके साथ ही माना जा रहा है कि इसका संबंध यूरेशियन और अफ्रीकी प्रजातियों से भी हो सकता है। इससे प्रजातियों के अंत के संबंध में मिल सकती है जानकारी।

    टेक्सास विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत सिकर्क का इस संबंध में कहना है कि इन जीवाश्मों का संबंध इयोसिन नर वानर समुदाय से भी हो सकता है। यह प्रजाति समय के साथ-साथ धीरे-धीरे विलुप्त हो गई और सबसे पहले ये उत्तरी अमेरिका में समाप्त हुई।

    यह जानकारी इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि उत्तरी अमेरिका और पूर्वी एशिया के बीच फ्यूनल विनिमय के सबूत भी पाए गए हैं। कर्क ने बताया कि यह जीवाश्म अनुकूलित प्रजातियों के अंत के संबंध में बहुत कुछ जानकारी दे सकते हैं, क्योंकि यह अमेरिका में उस समय कितनी विविधता थी इस बात के जीते- जागते उदाहरण थे।

    सत्रहवां रहस्य… क्या हजारों वर्षों तक जीवित रहा जा सकता है?

    पौराणिक और संस्कृत ग्रंथों के अनुसार भारत में ऐसे कई लोग हैं, जो हजारों वर्षों से ‍जीवित हैं। हिमालय में आज भी ऐसे कई ऋषि और मुनि हैं जिनकी आयु लगभग 600 वर्ष से अधिक बताई जाती है।

    शतायु होना है तो स्मरण करें इन 7 चिरंजीवियों का…

    श्लोक : अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
    कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:।।
    सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
    जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

    अर्थात इन 8 लोगों (अश्वथामा, दैत्यराज बलि, वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि) का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है। अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम- ये सभी चिरंजीवी हैं।

    पुराणों के अनुसार अश्‍वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि के अलावा अन्य कई ऐसे लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे आज भी जीवित हैं। यह संभव है कि कोई व्यक्ति हजारों वर्ष तक जीवित रह सकता है। आयुर्वेदानुसार मनुष्य की आयु लगभग 120 वर्ष बताई गई है लेकिन वह अपने योगबल से लगभग 150 वर्षों से ज्यादा जी सकता है। कहते हैं कि प्राचीन मानव की सामान्य उम्र 300 से 400 वर्ष हुआ करती थी, क्योंकि तब धरती का वातावरण व्यक्ति को उक्त काल तक जिंदा बनाए रखने के लिए था।

    अठारहवां रहस्य… कौरवों का जन्म एक रहस्य !!!!!!

    कौरवों को कौन नहीं जानता? धृतराष्ट्र और गांधारी के 99 पुत्र और 1 पुत्री थीं जिन्हें कौरव कहा जाता था। कुरु वंश के होने के कारण ये कौरव कहलाए। सभी कौरवों में दुर्योधन सबसे बड़ा था। गांधारी जब गर्भवती थी, तब धृतराष्ट्र ने एक दासी के साथ सहवास किया था जिसके चलते युयुत्सु नामक पुत्र का जन्म हुआ। इस तरह कौरव 100 हो गए। युयुत्सु ऐनवक्त पर कौरवों की सेना को छोड़कर पांडवों की सेना में शामिल हो गया था।

    गांधारी ने वेदव्यास से पुत्रवती होने का वरदान प्राप्त कर किया। गर्भधारण कर लेने के पश्चात भी 2 वर्ष व्यतीत हो गए, किंतु गांधारी के कोई भी संतान उत्पन्न नहीं हुई। इस पर क्रोधवश गांधारी ने अपने पेट पर जोर से मुक्के का प्रहार किया जिससे उसका गर्भ गिर गया।

    वेदव्यास ने इस घटना को तत्काल ही जान लिया। वे गांधारी के पास आकर बोले- ‘गांधारी! तूने बहुत गलत किया। मेरा दिया हुआ वर कभी मिथ्या नहीं जाता। अब तुम शीघ्र ही 100 कुंड तैयार करवाओ और उनमें घृत (घी) भरवा दो।’

    वेदव्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांस पिंड पर अभिमंत्रित जल छिड़का जिससे उस पिंड के अंगूठे के पोरुये के बराबर 100 टुकड़े हो गए। वेदव्यास ने उन टुकड़ों को गांधारी के बनवाए हुए 100 कुंडों में रखवा दिया और उन कुंडों को 2 वर्ष पश्चात खोलने का आदेश देकर अपने आश्रम चले गए। 2 वर्ष बाद सबसे पहले कुंड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। फिर उन कुंडों से धृतराष्ट्र के शेष 99 पुत्र एवं दु:शला नामक 1 कन्या का जन्म हुआ।

    अब सवाल उठता है कि क्या ऐसा हुआ था? ऐसा कैसे संभव है? आजकल टेस्ट ट्यूब बेबी के बारे में जरूर सुनते हैं लेकिन 99 पुत्रों का एकसाथ जन्म सचमुच एक रहस्य ही है।

    उन्नीसवां रहस्य… क्या इच्छामृत्यु प्राप्त की जा सकती है?

    भीष्म पितामह के बारे में कहा जाता है कि उनको इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरु हुए। पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में आगे चलकर राजा प्रतीप हुए जिनके दूसरे पुत्र थे शांतनु। शांतनु का बड़ा भाई बचपन में ही शांत हो गया था। शांतनु के गंगा से देवव्रत (भीष्म) हुए। भीष्म ने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी इसलिए यह वंश आगे नहीं चल सका। भीष्म अंतिम कौरव थे।

    बीसवां रहस्य… सिंधु, सरस्वती, गंगा, नर्मदा और ब्रह्मपुत्र ?????

    उक्त 5 नदियों को भारत और विशेषकर हिन्दू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। उक्त पांचों नदियों का जल एक-दूसरे से अलग है लेकिन उनमें से नर्मदा नदी को छोड़कर बाकी नदियां हिमालय के एक ही स्थान से निकलने वाली नदियां हैं। नर्मदा एकमात्र ऐसी नदी है, जो सभी नदियों की अपेक्षा विपरीत दिशा में बहती है और इसे पाताल की नदी कहते हैं।

    सरस्वती नदी का तो अब भूगर्भीय हलचलों के कारण अस्तित्व लुप्त हो गया और सिंधु ने अपना मार्ग बदल दिया। गंगा ने भी इस लंबे दौर में कई उतार-चढ़ाव देखे और ब्रह्मपुत्र ने भी हजारों वर्षों से लाखों लोगों की मुमुक्षा को दूर किया है। मुमुक्षा का अर्थ मोक्ष की कामना।

    सरस्वती :सरस्वती नदी का तो अब भूगर्भीय हलचलों के कारण अस्तित्व लुप्त हो गया लेकिन आज भी वह राजस्थान और हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में अपने होने का अहसास दिलाती है। कहते हैं कि लगभग 18 ईसापूर्व इस नदी का अस्तित्व मिट गया। इस नदी के किनारे बैठकर ही वेद की ऋ‍चाओं का जन्म हुआ और भगवान ब्रह्मा ने अपने कई महत्वपूर्ण यज्ञ संपन्न किए। प्राचीन सभ्यताओं की जननी सरस्वती नदी आज भी एक रहस्य है उन लोगों को लिए, जो जान-बूझकर इसका अस्तित्व नहीं स्वीकारना चाहते हैं।

    शोधानुसार यह सभ्यता लगभग 9,000 ईसा पूर्व अस्तित्व में आई थी और 3,000 ईसापूर्व उसने स्वर्ण युग देखा और लगभग 1800 ईसा पूर्व आते-आते यह लुप्त हो गया। कहा जाता है कि 1,800 ईसा पूर्व के आसपास किसी भयानक प्राकृतिक आपदा के कारण एक और जहां सरस्वती नदी लुप्त हो गई वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के लोगों ने पश्‍चिम की ओर पलायन कर दिया। पुरात्ववेत्ता मेसोपोटामिया (5000-300 ईसापूर्व) को सबसे प्राचीन बताते हैं, लेकिन अभी सरस्वती सभ्यता पर शोध किए जाने की आवश्यकता है।

    गंगा नदी :यह एक रहस्य ही है कि आखिरकार गंगा नदी का पानी क्यों नहीं सड़ता? हालांकि वैज्ञानिक बताते हैं कि इस नदी में 3 तरह के ऐसे बैक्टीरिया पाए जाते हैं, जो अन्य सभी तरह के बैक्टीरियाओं को खा जाते हैं जिसके चलते इसका पानी सड़ता नहीं है। मान्यता अनुसार यह भारत की सबसे पवित्र और रहस्यमय नदी है। इसे राम के वंशज राजा भगीरथ ने स्वर्ग से नीचे उतारा था।

    इक्कीसवां रहस्य… गरूड़ वाहन :गरूड़ का हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। वे पक्षियों के राजा और भगवान विष्णु के वाहन हैं। भगवान गरूड़ को कश्यप ऋषि और विनीता का पुत्र कहा गया है। विनीता दक्ष कन्या थीं। गरूड़ के बड़े भाई का नाम अरुण है, जो भगवान सूर्य के रथ का सारथी है। पक्षीराज गरूड़ को जीव विज्ञान में लेपटोटाइल्स जावानिकस कहते हैं। यह इंटरनेशनल यूनियन कंजरवेशन ऑफ नेचर की रेड लिस्ट यानी विलुप्तप्राय पक्षी की श्रेणी में है। पंचतंत्र में गरूड़ की कई कहानियां हैं।

    प्राचीन मंदिरों के द्वार पर एक ओर गरूड़, तो दूसरी ओर हनुमानजी की मूर्ति आवेष्‍ठित की जाती रही है। घर में रखे मंदिर में गरूड़ घंटी और मंदिर के शिखर पर गरूड़ ध्वज होता है। गरूड़ नाम से एक व्रत भी है। गरूड़ नाम से एक पुराण भी है। भगवान गरूड़ को विनायक, गरुत्मत्, तार्क्ष्य, वैनतेय, नागान्तक, विष्णुरथ, खगेश्वर, सुपर्ण और पन्नगाशन नाम से भी जाना जाता है।

    अब सवाल यह उठता है कि आखिर क्या कभी पक्षी मानव हुआ करते थे? पुराणों में भगवान गरूड़ के पराक्रम के बारे में कई कथाओं का वर्णन मिलता है। उन्होंने देवताओं से युद्ध करके उनसे अमृत कलश छीन लिया था। उन्होंने भगवान राम को नागपाश से मुक्त कराया था। उन्हें उनकी शक्ति पर बड़ा घमंड हो चला था लेकिन हनुमानजी ने उनका घमंड चूर-चूर कर दिया था।

    गरूड़ हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म में भी महत्वपूर्ण पक्षी माना गया है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार गरूड़ को सुपर्ण (अच्छे पंख वाला) कहा गया है। जातक कथाओं में भी गरूड़ के बारे में कई कहानियां हैं। गुप्त काल के शासकों का प्रतीक चिह्न भी गरूड़ ही था। कर्नाटक के होयसल शासकों का भी प्रतीक गरूड़ था। अमेरिका और इंडोनेशिया का राष्ट्रीय प्रतीक गरूड़ है।

    चेन्नई से 60 किलोमीटर दूर एक तीर्थस्थल है जिसे ‘पक्षी तीर्थ’ कहा जाता है। यह तीर्थस्थल वेदगिरि पर्वत के ऊपर है। कई सदियों से दोपहर के वक्त गरूड़ का जोड़ा सुदूर आकाश से उतर आता है और फिर मंदिर के पुजारी द्वारा दिए गए खाद्यान्न को ग्रहण करके आकाश में लौट जाता है।

    सैकड़ों लोग उनका दर्शन करने के लिए वहां पहले से ही उपस्थित रहते हैं। वहां के पुजारी के मुताबिक सतयुग में ब्रह्मा के 8 मानसपुत्र शिव के शाप से गरूड़ बन गए थे। उनमें से 2 सतयुग के अंत में, 2 त्रेता के अंत में, 2 द्वापर के अंत में शाप से मुक्त हो चुके हैं। कहा जाता है कि अब जो 2 बचे हैं, वे कलयुग के अंत में मुक्त होंगे।

    बाईसवां रहस्य… क्या सचमुच कोई स्वर्ण बनाने की विधि है?कहते हैं कि प्राचीन भारत के लोग स्वर्ण बनाने की विधि जानते थे। वे पारद आदि को किसी विशेष मिश्रण में मिलाकर स्वर्ण बना लेते थे, लेकिन क्या यह सच है? यह आज भी एक रहस्य है। कहा तो यह भी जाता है कि हिमालय में पारस नाम का एक सफेद पत्थर पाया जाता है जिसे यदि लोहे से छुआ दो तो वह लोहा स्वर्ण में बदल जाता था। पारे, जड़ी- वनस्पतियों और रसायनों से सोने का निर्माण करने की विधि के बारे में कई ग्रंथों में उल्लेख मिलता है।

    प्राचीन भारत में सोना बनाने की एक रहस्यमयी विद्या थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी कारण बगैर किसी ‘खनन’ के बावजूद भारत के पास अपार मात्रा में सोना था। आखिर यह सोना आया कहां से था? मंदिरों में टनों सोना रखा रहता था। सोने के रथ बनाए जाते थे और प्राचीन राजा-महाराजा स्वर्ण आभूषणों से लदे रहते थे। कहते हैं कि बिहार की सोनगिर गुफा में लाखों टन सोना आज भी रखा हुआ है।

    प्रभुदेवा, व्यलाचार्य, इन्द्रद्युम्न, रत्नघोष, नागार्जुन के बारे में कहा जाता है कि ये पारद से सोना बनाने की विधि जानते थे। कहा जाता है कि नागार्जुन द्वारा लिखित बहुत ही चर्चित ग्रंथ ‘रस रत्नाकर’ में एक जगह पर रोचक वर्णन है जिसमें शालिवाहन और वट यक्षिणी के बीच हुए संवाद से पता चलता है कि उस काल में सोना बनाया जाता था।

    संवाद इस प्रकार है कि शालिवाहन यक्षिणी से कहता है- ‘हे देवी, मैंने ये स्वर्ण और रत्न तुझ पर निछावर किए, अब मुझे आदेश दो।’ शालिवाहन की बात सुनकर यक्षिणी कहती है- ‘मैं तुझसे प्रसन्न हूं। मैं तुझे वे विधियां बताऊंगी जिनको मांडव्य ने सिद्ध किया है। मैं तुम्हें ऐसे-ऐसे योग बताऊंगी जिनसे सिद्ध किए हुए पारे से तांबा और सीसा जैसी धातुएं सोने में बदल जाती हैं।’

    एक किस्से के बारे में भी खूब चर्चा ‍की जाती है कि विक्रमादित्य के राज्य में रहने वाले ‘व्याडि’ नामक एक व्यक्ति ने सोना बनाने की विधा जानने के लिए अपनी सारी जिंदगी बर्बाद कर दी थी। ऐसा ही एक किस्सा तारबीज और हेमबीज का भी है। कहा जाता है कि ये वे पदार्थ हैं जिनसे कीमियागर लोग सामान्य पदार्थों से चांदी और सोने का निर्माण कर लिया करते थे। इस विद्या को ‘हेमवती विद्या’ के नाम से भी जाना जाता है।

    वर्तमान युग में कहा जाता है कि पंजाब के कृष्‍णपालजी शर्मा को पारद से सोना बनाने की विधि याद थी। इसका उल्लेख 6 नवंबर सन् 1983 के ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में मिलता है। पत्रिका के अनुसार सन् 1942 में पंजाब के कृष्णपाल शर्मा ने ऋषिकेश में पारे के द्वारा लगभग 100 तोला सोना बनाकर रख दिया था। कहते हैं कि उस समय वहां पर महात्मा गांधी, उनके सचिव महादेव भाई देसाई और युगल किशोर बिड़ला आदि उपस्थित थे। इस घटना का वर्णन बिड़ला मंदिर में लगे शिलालेख से भी मिलता है। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है, यह हम नहीं जानते। (एजेंसियां)

    तेईसवां रहस्य… क्या ये चमत्कारिक जड़ी-बूटियां होती हैं?

    सिद्धि देने वाली जड़ी-बूटी : गुलतुरा (दिव्यता के लिए), तापसद्रुम (भूतादि ग्रह निवारक), शल (दरिद्रतानाशक), भोजपत्र (ग्रह बाधाएं निवारक), विष्णुकांता (शत्रुनाशक), मंगल्य (तांत्रिक क्रियानाशक), गुल्बास (दिव्यता प्रदानकर्ता), जीवक (ऐश्वर्यदायिनी), गोरोचन (वशीकरण), गुग्गल (चामंडु सिद्धि), अगस्त (पितृदोषनाशक), अपमार्ग (बाजीकरण), आंधीझाड़ा (भस्मक रोग भूख-प्यासनाशक), श्वेत अपराजिता (दरिद्रानाशक), हत्था जोड़ी (वशीकरण), समोवल्ली (मृत्यनाशक), शिलाजीत (नपुंसकतानाशक), अश्‍वगंधा (वीर्यवर्धक) आदि।

    बांदा (चुम्बकीय शक्ति प्रदाता), श्‍वेत और काली गुंजा (भूत पिशाचनाशक), उटकटारी (राजयोग दाता), मयूर शिका (दुष्टात्मानाशक) और काली हल्दी (तांत्रिक प्रयोग हेतु) आदि ऐसी अनेक जड़ी-बूटियां हैं, जो व्यक्ति के सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन को साधने में महत्वपूर्ण मानी गई हैं। हालांकि इसी तरह की अन्य कई हजारों जड़ी-बूटियों का रहस्य बरकरार है।

    चौबीसवां रहस्य… तिब्बत का यमद्वार :प्राचीनकाल में तिब्बत को त्रिविष्टप कहते थे। यह अखंड भारत का ही हिस्सा हुआ करता था। तिब्बत को चीन ने अपने कब्जे में ले रखा है। तिब्बत में दारचेन से 30 मिनट की दूरी पर है यह यम का द्वार।

    यम का द्वार पवित्र कैलाश पर्वत के रास्ते में पड़ता है। इसकी परिक्रमा करने के बाद ही कैलाश यात्रा शुरू होती है। हिन्दू मान्यता के अनुसार इसे मृत्यु के देवता यमराज के घर का प्रवेश द्वार माना जाता है। यह कैलाश पर्वत की परिक्रमा यात्रा के शुरुआती प्वॉइंट पर है। तिब्बती लोग इसे चोरटेन कांग नग्यी के नाम से जानते हैं जिसका मतलब होता है- दो पैर वाले स्तूप।

    ऐसा कहा जाता है कि यहां रात में रुकने वाला जीवित नहीं रह पाता। ऐसी कई घटनाएं हो भी चुकी हैं, लेकिन इसके पीछे के कारणों का खुलासा आज तक नहीं हो पाया है। साथ ही यह मंदिरनुमा द्वार किसने और कब बनाया? इसका कोई प्रमाण नहीं है। ढेरों शोध हुए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल सका।

    कहते हैं कि द्वार के इस ओर संसार है, तो उस पार मोक्षधाम। बौद्ध लामा लोग यहां आकर प्राणांत होने को मोक्ष-प्राप्ति मानते हैं इसलिए बीमार लामा अंतिम इच्छा के रूप में यहां जाते हैं और प्राण त्यागते हैं।

    पच्चीसवां रहस्य… सम्राट अशोक के 9 रहस्यमय रत्न :9 रत्न रखने की परंपरा की शुरुआत सम्राट अशोक और राजा विक्रमादित्य से मानी जाती है। उनके ही अनुसार बाद के राजाओं ने भी इस परंपरा को निभाया। अकबर ने अपने दबार में 9 रत्नों की नियुक्ति की थी। कुछ लोग कहते हैं कि अशोक के साथ ऐसे 9 लोग थे, जो उनको निर्देश देते थे जिनके निर्देश और सहयोग के बल पर ही अशोक ने महान कार्यों को अंजाम दिया। ये 9 लोग कौन थे इसका रहस्य आज भी बरकरार है। क्या वे मनुष्य थे या देवता?

    सम्राट अशोक को ‘देवानांप्रिय’ अशोक मौर्य सम्राट कहा जाता था। देवानांप्रिय का अर्थ देवताओं का प्रिय। ऐसी उपाधि भारत के किसी अन्य सम्राट के नाम के आगे नहीं लगाई गई। अब सवाल यह उठता है कि सम्राट अशोक के साथ वे कौन 9 लोग थे जिनके बारे में कहा जाता है कि उनमें से प्रत्येक के पास अपने-अपने ज्ञान की विशेषता थी अर्थात उनमें से प्रत्येक विशेष ज्ञान से युक्त था और अंत में सम्राट अशोक ने उनके ज्ञान को दुनिया से छुपाकर रखा। वे ही लोग थे जिन्होंने बड़े-बड़े स्तूप बनवाए और जिन्होंने विज्ञान और तकनालॉजी में भी भारत को समृद्ध बनाया। कहा जाता है कि उनके ज्ञान को एक पुस्तक के रूप से संग्रहीत किया गया था। जिस पुस्तक को किसी विशेष व्यक्ति को सुपुर्द किया गया, उसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस पुस्तक या उसके ज्ञान को आगे फैलाया। हालांकि यह रहस्य आज भी बरकरार है।

    छब्बीसवां रहस्य… क्या रावण के दस सिर थे?

    सचमुच यह एक रहस्यमय बात ही है कि किसी के 3, 4 या 10 सिर हों। भगवान दत्तात्रेय के 3, ब्रह्माजी के 4 और रावण के 10 सिर थे। ‘रावण’… दुनिया में इस नाम का दूसरा कोई व्यक्ति नहीं है। राम तो बहुत मिल जाएंगे, लेकिन रावण नहीं। रावण तो सिर्फ रावण है। राजाधिराज लंकाधिपति महाराज रावण को ‘दशानन’ भी कहते हैं। कहते हैं कि रावण लंका का तमिल राजा था।

    जैन शास्त्रों में रावण को प्रति‍-नारायण माना गया है। जैन धर्म के 64 शलाका पुरुषों में रावण की गिनती की जाती है। जैन पुराणों के अनुसार महापंडित रावण आगामी चौबीसी में तीर्थंकर की सूची में भगवान महावीर की तरह 24वें तीर्थंकर के रूप में मान्य होंगे इसीलिए कुछ प्रसिद्ध प्राचीन जैन तीर्थस्थलों पर उनकी मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हैं।

    क्या रावण के 10 सिर थे? : कहते हैं रावण के 10 सिर थे। क्या सचमुच यह सही है? कुछ विद्वान मानते हैं कि रावण के 10 सिर नहीं थे किंतु वह 10 सिर होने का भ्रम पैदा कर देता था इसी कारण लोग उसे दशानन कहते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार रावण 6 दर्शन और चारों वेद का ज्ञाता था इसीलिए उसे दसकंठी भी कहा जाता था। दसकंठी कहे जाने के कारण प्रचलन में उसके 10 सिर मान लिए गए।

    जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि रावण के गले में बड़ी-बड़ी गोलाकार 9 मणियां होती थीं। उक्त 9 मणियों में उसका सिर दिखाई देता था जिसके कारण उसके 10 सिर होने का भ्रम होता था।

    हालांकि ज्यादातर विद्वान और पुराणों के अनुसार तो यही सही है कि रावण एक मायावी व्यक्ति था, जो अपनी माया द्वारा 10 सिर होने का भ्रम पैदा कर सकता था। उसकी मायावी शक्ति और जादू के चर्चे जगप्रसिद्ध थे।

    रावण के 10 सिर होने की चर्चा रामचरित मानस में आती है। वह कृष्ण पक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिए चला था तथा 1-1 दिन क्रमशः 1-1 सिर कटते थे। इस तरह 10वें दिन अर्थात शुक्ल पक्ष की दशमी को रावण का वध हुआ इसीलिए दशमी के दिन रावण दहन किया जाता है।

    रामचरित मानस में वर्णन आता है कि जिस सिर को राम अपने बाण से काट देते थे पुनः उसके स्थान पर दूसरा सिर उभर आता था। विचार करने की बात है कि क्या एक अंग के कट जाने पर वहां पुनः नया अंग उत्पन्न हो सकता है? वस्तुतः रावण के ये सिर कृत्रिम थे- आसुरी माया से बने हुए।

    मारीच का चांदी के बिन्दुओं से युक्त स्वर्ण मृग बन जाना, रावण का सीता के समक्ष राम का कटा हुआ सिर रखना आदि से सिद्ध होता है कि राक्षस मायावी थे। वे अनेक प्रकार के इन्द्रजाल (जादू) जानते थे। तो रावण के 10 सिर और 20 हाथों को भी मायावी या कृत्रिम माना जा सकता है।

    सत्ताईसवां रहस्य… भारत के डॉक्टर 2003 और 2005 में भी प्रहलाद जानी की अच्छी तरह जांच-परख कर चुके हैं, पर अंत में दांतों तले अंगुली दबाने के सिवाय कोई विज्ञानसम्मत व्याख्या नहीं दे पाए। इन जांचों के अगुआ रहे अहमदाबाद के न्यूरोलॉजिस्ट (तंत्रिका रोग विशेषज्ञ) डॉ. सुधीर शाह ने कहा- ‘उनका कोई शारीरिक ट्रांसफॉर्मेशन (कायाकल्प) हुआ है। वे जाने-अनजाने में बाहर से शक्ति प्राप्त करते हैं। उन्हें कैलोरी (यानी भोजन) की जरूरत ही नहीं पड़ती। हमने तो कई दिनों तक उनका अवलोकन किया, एक-एक सेकंड का वीडियो लिया। उन्होंने न तो कुछ खाया, न पिया, न पेशाब किया और न शौचालय गए।’

    आत्मा या प्राण का कहीं और होना :वैसे कहा जाता है कि हमारी आत्मा का वास दोनों भोहों के बीच भृकुटी में रहता है। लेकिन हमने पुराणों और अन्य ग्रंथों में पढ़ा है कि कुछ लोगों, पशुओं या पक्षियों का प्राण या जीव अन्य कहीं होता था, जैसे किसी राक्षस की जान तोते में थी। अब जब तक तोते को नहीं मारो तो राक्षस को मारना असंभव था। उसी तरह रावण की जान नाभि में थी। क्या ऐसा भी संभव हो सकता है?

    ऐसी मान्यता है कि रावण ने अमरत्व प्राप्ति के उद्देश्य से भगवान ब्रह्मा की घोर तपस्या कर वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्मा ने उसके इस वरदान को न मानते हुए कहा कि तुम्हारा जीवन नाभि में स्थित रहेगा। रावण की अजर-अमर रहने की इच्छा रह ही गई। यही कारण था कि जब भगवान राम से रावण का युद्ध चल रहा था तो रावण और उसकी सेना राम पर भारी पड़ने लगे थे। ऐसे में विभीषण ने राम को यह राज बताया कि रावण का जीवन उसकी नाभि में है। नाभि में ही अमृत है। तब राम ने रावण की नाभि में तीर मारा और रावण मारा गया। हालांकि रावण की जान तो नाभि में थी लेकिन हमने पढ़ा है कि कई दैत्यों, दानवों, राक्षसों आदि की जान उनके खुद के शरीर से बाहर कहीं ओर सुरक्षित रखी होती थी। राक्षस की जान तोते में थी। तोते की गर्दन मोड़ो तो राक्षस की गर्दन मुड़ जाती थी।

    अट्ठाईसवां रहस्य… यति :बिगफुट कर रहा है मानव की तबाही का इंतजार, क्योंकि वही है धरती की असली प्राकृतिक प्रजाति। आज का इंसान तो ‘स्टार प्रॉडक्ट’ है जबकि बिगफुट से इंसानों ने धरती को छीन लिया और उन्हें छुपने पर मजबूर कर दिया? आधुनिक जीव वैज्ञानिक तो यही मानते हैं। पूरे विश्व में इन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। तिब्बत और नेपाल में इन्हें ‘येती’ का नाम दिया जाता है तो ऑस्ट्रेलिया में ‘योवी’ के नाम से जाना जाता है। भारत में इसे ‘यति’ कहते हैं।

    यति मानव का वर्णन पुराणों और अन्य भारतीय ग्रंथों में बहुत मिलता है। कहते हैं कि वे हिमालय में कहीं रहते हैं और बहुत कम ही लोगों को दिखाई देते हैं। हालांकि अब तक उनके होने की पुष्टि नहीं हो पाई है, लेकिन कई लोग उनको देखे जाने का दावा करते हैं। भारत के कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल, सिक्किम, अरुणाचल आदि राज्यों के लोग उनको देखे जाने का दावा करते आए हैं। नेपाल और तिब्बत के लोग भी यति मानव के होने में विश्वास करते हैं।

    उन्तीसवां रहस्य,,,,, हवाखोरी का रहस्य क्या है?

    आज भी भारत की धरती पर ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने कई वर्षों से भोजन नहीं किया, लेकिन वे सूर्य योग के बल पर आज भी स्वस्थ और जिंदा हैं। भूख और प्यास से मुक्त सिर्फ सूर्य के प्रकाश के बल पर वे जिंदा हैं।

    प्राचीनकाल में ऐसे कई सूर्य साधक थे, जो सूर्य उपासना के बल पर भूख-प्यास से मुक्त ही नहीं रहते थे बल्कि सूर्य की शक्ति से इतनी ऊर्जा हासिल कर लेते थे कि वे किसी भी प्रकार का चमत्कार कर सकते थे। उनमें से ही एक सुग्रीव के भाई बालि का नाम भी लिया जाता है। बालि में ऐसी शक्ति थी कि वह जिससे भी लड़ता था तो उसकी आधी शक्ति छीन लेता था।

    वर्तमान युग में प्रहलाद जानी इस बाद का पुख्ता उदाहरण है कि बगैर खाए-पीए व्यक्ति जिंदगी गुजार सकता है। गुजरात में मेहसाणा जिले के प्रहलाद जानी एक ऐसा चमत्कार बन गए हैं जिसने विज्ञान को चौतरफा चक्कर में डाल दिया है। वैज्ञानिक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर ऐसा कैसे संभव हो रहा है?

    संजय गुप्ता

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    भारत के 10 आविष्कारक ऋषि | Bharat ke 10 aavishkaarak rishi


    भारत के 10 आविष्कारक ऋषि  | 

    Bharat ke 10 aavishkaarak rishi

    http://dharmik.in/blog/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A5%87-10-%E0%A4%86%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%95-%E0%A4%8B%E0%A4%B7%E0%A4%BF/

    भारत के 10 आविष्कारक ऋषिवेदों में ज्ञान-विज्ञान की बहुत सारी बातें भरी पड़ी हैं। आज का विज्ञान जो खोज रहा है वह पहले ही खोजा जा चुका है। बस फर्क इतना है कि आज का विज्ञान जो खोज रहा है उसे वह अपना आविष्कार बता रहा है और उस पर किसी पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों का लेबल लगा रहा है।

    हालांकि यह इतिहास सिद्ध है कि भारत का विज्ञान और धर्म अरब के रास्ते यूनान पहुंचा और यूनानियों ने इस ज्ञान के दम पर जो आविष्कार किए और सिद्धांत बनाए उससे आधुनिक विज्ञान को मदद मिली। यहां प्रस्तुत है भारत के उन दस महान ऋषियों और उनके आविष्कार के बारे में संक्षिप्त में जानकारी। दसवें ऋषि के बारे में जानकार निश्चित ही आपको आश्चर्य होगा।

    परमाणु सिद्धांत के आविष्कारक : परमाणु बम के बारे में आज सभी जानते हैं। यह कितना खतरनाक है यह भी सभी जानते हैं। आधुनिक काल में इस बम के आविष्कार हैं- जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर। रॉबर्ट के नेतृत्व में 1939 से 1945 कई वैज्ञानिकों ने काम किया और 16 जुलाई 1945 को इसका पहला परीक्षण किया गया।

    हालांकि परमाणु सिद्धांत और अस्त्र के जनक जॉन डाल्टन को माना जाता है, लेकिन उनसे भी 2500 वर्ष पर ऋषि कणाद ने वेदों वे लिखे सूत्रों के आधार पर परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया था।

    भारतीय इतिहास में ऋषि कणाद को परमाणुशास्त्र का जनक माना जाता है। आचार्य कणाद ने बताया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं। कणाद प्रभास तीर्थ में रहते थे।

    विख्यात इतिहासज्ञ टीएन कोलेबु्रक ने लिखा है कि अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ यूरोपीय वैज्ञानिकों की तुलना में विश्वविख्यात थे।

    ऋषि भारद्वाज : राइट बंधुओं से 2500 वर्ष पूर्व वायुयान की खोज भारद्वाज ऋषि ने कर ली थी। हालांकि वायुयान बनाने के सिद्धांत पहले से ही मौजूद थे। पुष्पक विमान का उल्लेख इस बात का प्रमाण हैं लेकिन ऋषि भारद्वाज ने 600 ईसा पूर्व इस पर एक विस्तृत शास्त्र लिखा जिसे विमान शास्त्र के नाम से जाना जाता है।

    प्राचीन उड़न खटोले : हकीकत या कल्पना?

    भारद्वाज के विमानशास्त्र में यात्री विमानों के अलावा, लड़ाकू विमान और स्पेस शटल यान का भी उल्लेख मिलता है। उन्होंने एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर उड़ान भरने वाले विमानों के संबंध में भी लिखा है, साथ ही उन्होंने वायुयान को अदृश्य कर देने की तकनीक का उल्लेख भी किया।

    बौधायन : बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता हैं। पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व ही बौधायन ने ज्यामिति के सूत्र रचे थे लेकिन आज विश्व में यूनानी ज्या‍मितिशास्त्री पाइथागोरस और यूक्लिड के सिद्धांत ही पढ़ाए जाते हैं।

    दरअसल, 2800 वर्ष (800 ईसापूर्व) बौधायन ने रेखागणित, ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज की थी। उस समय भारत में रेखागणित, ज्यामिति या त्रिकोणमिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था।

    शुल्व शास्त्र के आधार पर विविध आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाई जाती थीं। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में परिवर्तन करना, इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्नों को बौधायन ने सुलझाया।

    भास्कराचार्य (जन्म- 1114 ई., मृत्यु- 1179 ई.) : प्राचीन भारत के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रंथों का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रंथों ने अनेक विदेशी विद्वानों को भी शोध का रास्ता दिखाया है। न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण के नियम को जान लिया था और उन्होंने अपने दूसरे ग्रंथ ‘सिद्धांतशिरोमणि’ में इसका उल्लेख भी किया है।

    गुरुत्वाकर्षण के नियम के संबंध में उन्होंने लिखा है, ‘पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्वशक्ति से अपनी ओर खींच लेती है। इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है।’ इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी में गुत्वाकर्षण की शक्ति है।

    भास्कराचार्य द्वारा ग्रंथ ‘लीलावती’ में गणित और खगोल विज्ञान संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। सन् 1163 ई. में उन्होंने ‘करण कुतूहल’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढंक लेता है तो सूर्यग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढंक लेती है तो चन्द्रग्रहण होता है। यह पहला लिखित प्रमाण था जबकि लोगों को गुरुत्वाकर्षण, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण की सटीक जानकारी थी।

    पतंजलि : योगसूत्र के रचनाकार पतंजलि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में चर्चा में थे। पतंजलि के लिखे हुए 3 प्रमुख ग्रंथ मिलते हैं- योगसूत्र, पाणिनी के अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रंथ। पतंजलि को भारत का मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक कहा जाता है। पतंजलि ने योगशास्त्र को पहली दफे व्यवस्था दी और उसे चिकित्सा और मनोविज्ञान से जोड़ा। आज दुनियाभर में योग से लोग लाभ पा रहे हैं।

    पतंजलि एक महान चिकित्सक थे। पतंजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे- अभ्रक, विंदास, धातुयोग और लौहशास्त्र इनकी देन है। पतंजलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग (195-142 ईपू) के शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है।

    अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था (एम्स) ने 5 वर्षों के अपने शोध का निष्कर्ष निकाला कि योगसाधना से कर्करोग से मुक्ति पाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि योगसाधना से कर्करोग प्रतिबंधित होता है।

    आचार्य चरक : अथर्ववेद में आयुर्वेद के कई सूत्र मिल जाएंगे। धन्वंतरि, रचक, च्यवन और सुश्रुत ने विश्व को पेड़-पौधों और वनस्पतियों पर आधारित एक चिकित्साशास्त्र दिया। आयुर्वेद के आचार्य महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है।

    ऋषि चरक ने 300-200 ईसापूर्व आयुर्वेद का महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘चरक संहिता’ लिखा था। उन्हें त्वचा चिकित्सक भी माना जाता है। आचार्य चरक ने शरीरशास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरणशास्त्र, औषधिशास्त्र इत्यादि विषय में गंभीर शोध किया तथा मधुमेह, क्षयरोग, हृदयविकार आदि रोगों के निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञान को बताया।

    चरक एवं सुश्रुत ने अथर्ववेद से ज्ञान प्राप्त करके 3 खंडों में आयुर्वेद पर प्रबंध लिखे। उन्होंने दुनिया के सभी रोगों के निदान का उपाय और उससे बचाव का तरीका बताया, साथ ही उन्होंने अपने ग्रंथ में इस तरह की जीवनशैली का वर्णन किया जिसमें कि कोई रोग और शोक न हो।

    आठवीं शताब्दी में चरक संहिता का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ और यह शास्त्र पश्चिमी देशों तक पहुंचा। चरक के ग्रंथ की ख्याति विश्वव्यापी थी।

    महर्षि सुश्रुत : महर्षि सुश्रुत सर्जरी के आविष्कारक माने जाते हैं। 2600 साल पहले उन्होंने अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए।

    आधुनिक विज्ञान केवल 400 वर्ष पूर्व ही शल्य क्रिया करने लगा है, लेकिन सुश्रुत ने 2600 वर्ष पर यह कार्य करके दिखा दिया था। सुश्रुत के पास अपने बनाए उपकरण थे जिन्हें वे उबालकर प्रयोग करते थे।

    महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखित ‘सुश्रुत संहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ में चाकू, सुइयां, चिमटे इत्यादि सहित 125 से भी अधिक शल्य चिकित्सा हेतु आवश्यक उपकरणों के नाम मिलते हैं और इस ग्रंथ में लगभग 300 प्रकार की सर्जरियों का उल्लेख मिलता है।

     नागार्जुन : नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें ‘रस रत्नाकर’ और ‘रसेन्द्र मंगल’ बहुत प्रसिद्ध हैं।

    रसायनशास्त्री व धातुकर्मी होने के साथ-साथ इन्होंने अपनी चिकित्सकीय ‍सूझ-बूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार कीं। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें ‘कक्षपुटतंत्र’, ‘आरोग्य मंजरी’, ‘योग सार’ और ‘योगाष्टक’ हैं।

    नागार्जुन द्वारा विशेष रूप से सोना धातु एवं पारे पर किए गए उनके प्रयोग और शोध चर्चा में रहे हैं। उन्होंने पारे पर संपूर्ण अध्ययन कर सतत 12 वर्ष तक संशोधन किया। नागार्जुन पारे से सोना बनाने का फॉर्मूला जानते थे। अपनी एक किताब में उन्होंने लिखा है कि पारे के कुल 18 संस्कार होते हैं। पश्चिमी देशों में नागार्जुन के पश्चात जो भी प्रयोग हुए उनका मूलभूत आधार नागार्जुन के सिद्धांत के अनुसार ही रखा गया।

    नागार्जुन की जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। एक मत के अनुसार इनका जन्म 2री शताब्दी में हुआ था तथा अन्य मतानुसार नागार्जुन का जन्म सन् 931 में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था। बौद्धकाल में भी एक नागार्जुन थे।

    पाणिनी : दुनिया का पहला व्याकरण पाणिनी ने लिखा। 500 ईसा पूर्व पाणिनी ने भाषा के शुद्ध प्रयोगों की सीमा का निर्धारण किया। उन्होंने भाषा को सबसे सुव्यवस्थित रूप दिया और संस्कृत भाषा का व्याकरणबद्ध किया। इनके व्याकरण का नाम है अष्टाध्यायी जिसमें 8 अध्याय और लगभग 4 सहस्र सूत्र हैं। व्याकरण के इस महनीय ग्रंथ में पाणिनी ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संग्रहीत किए हैं।

    अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, खान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं।

    इनका जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था, जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के करीब तत्कालीन उत्तर-पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। हालांकि पाणिनी के पूर्व भी विद्वानों ने संस्कृत भाषा को नियमों में बांधने का प्रयास किया लेकिन पाणिनी का शास्त्र सबसे प्रसिद्ध हुआ।

    19वीं सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी फ्रेंज बॉप (14 सितंबर 1791- 23 अक्टूबर 1867) ने पाणिनी के कार्यों पर शोध किया। उन्हें पाणिनी के लिखे हुए ग्रंथों तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के सूत्र मिले। आधुनिक भाषा विज्ञान को पाणिनी के लिखे ग्रंथ से बहुत मदद मिली। दुनिया की सभी भाषाओं के विकास में पाणिनी के ग्रंथ का योगदान है।

    महर्षि अगस्त्य : महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे। निश्चित ही बिजली का आविष्कार थॉमस एडिसन ने किया लेकिन एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली।

    महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की।

    आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विधुत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-

    संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
    ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
    छादयेच्छिखिग्रीवेन
    चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
    दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
    संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
    -अगस्त्य संहिता

    अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगायें, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।

    अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।

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    भामती की अदभुत साधना


    भामती की अदभुत साधना

    https://vishwamitra-spiritualrevolution.blogspot.com/2013/10/blog-post_1833.html?showComment=1486362239049#c3451351424576759134

    वेदान्त दर्शन (ब्रह्मसूत्र) आध्यात्म विद्या का अत्यन्त सरस विषय है पर उतना ही क्लिष्ट भी।पंडित वाचस्पति मिश्र (कैयट) ने उसके भाष्य का संकल्प किया। उन्हीं दिनों उनका विवाहसंस्कार भी हुआ जब उनके मस्तिष्क में इस भाष्य की कल्पना चल रही थी। इधर घर मेंधर्मपत्नी ने प्रवेश किया उधर पंडित जी ने भाष्य प्रारम्भ किया। विषय है ही ऐसा कि उसकीगहरार्इ में जितना डूबों उतनी ही अधिक गहरार्इ दिखार्इ देती चली जाये। पंडित जी को भाष्यपूरा करने में प्राय: 80 वर्ष लगे।

    ग्रन्थ पूरा होते ही उन्हें स्मरण आया-वे विवाह कर धर्मपत्नी को घर लाये थे किन्तु अपनीसाहित्य साधना में वे उन्हें बिल्कुल ही भूल गये। अपराध बोध के कारण बाचस्पति सीधाभामती के पास गये और इतने दिनों तक विस्मृत किए जाने का पश्चाताप करते हुए क्षमायाचना की। पति का स्नेह पाकर भामती भाव-विभोर हो गर्इ। पंडित जी ने पूछा-मैंने इतनेदिनों तक आपका कोर्इ ध्यान नहीं दिया फिर भी दिनचर्या में कोर्इ व्यतिरेक नहीं आया जीवननिर्वाह की सारी व्यवस्था कैसे हुर्इ?

    भामती ने बताया-स्वामी! हम जंगल से मूँज काट लाते थे। उसकी रस्सी बट कर बाजार में बेचआते थे। इससे इतनी आजीविका मिल जाती थी कि हम दोनों का जीवन निर्वाह भलीभाँति होजाता था। इसी तरह हम दोनों के भोजन तेल, लेखन सामग्री आदि की सभी आवश्यकव्यवस्थायें होती चलीं आर्इ। आप इस देश, जाति, धर्म और संस्कृति के लिए ब्रह्मसूत्र के भाष्यजैसा कठिन तप कर रहे थे उसमें मेरा आपकी सहधर्मिणी का भी तो योगदान आवश्यक था?इस अभूतपूर्व कर्त्तव्य परायणता से विभोर वाचस्पति मिश्र ने अपना ग्रन्थ उठाया और उसकेऊपर ‘‘भामती’’ लिखकर गर्न्थ का नामकरण कर दिया। वाचस्पति मिश्र की अपेक्षा अपने नामके कारण ‘‘भामती’’ ब्रह्मसूत्र की आज कहीं अधिक ख्याति है।

     


    वाचस्पति मिश्र (९०० – ९८० ई) भारत के दार्शनिक थे जिन्होने अद्वैत वेदान्त का भामती नामक सम्प्रदाय स्थापित किया। वाचस्पति मिश्र ने नव्य-न्याय दर्शन पर आरम्भिक कार्य भी किया जिसे मिथिला के १३वी शती के गंगेश उपाध्याय ने आगे बढ़ाया।वाचस्पति मिश्र प्रथम मिथिला के ब्राह्मण थे जो भारत और नेपाल सीमा के निकट मधुबनी के पास अन्धराठाढी गाँव के निवासी थे। इन्होने वैशेषिक दर्शन के अतिरिक्त अन्य सभी पाँचो आस्तिक दर्शनों पर टीका लिखी है। उनके जीवन का वृत्तान्त बहुत कुछ नष्ट हो चुका है। उनकी एक कृति का नाम उनकी पत्नी भामती के नाम पर रखा है। वाचस्पति मिश्र प्रथम ने उस समय की हिन्दुओं के लगभग सभी प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदायों की प्रमुख कृतियों पर भाष्य लिखें हैं। इसके अतिरिक्त तत्वबिन्दु नामक एक मूल ग्रन्थ भी लिखा है जो भाष्य नहीं है।

    • 1. तत्त्ववैशारदी – योगभाष्य पर टीका,
    • 2. तत्त्वकौमुदी – सांख्यकारिका पर टीका,
    • 3. न्यायसूची निबन्ध – न्यायसूत्र सम्बन्धी,
    • 4. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका – न्यायवार्तिक पर टीका,
    • 5. न्याय कणिका – मण्डनमिश्र के विधिविवेक ग्रन्थ पर टीका,
    • 6. भामती – ब्रह्मसूत्र पर टीका सर्वाधिक मान्य एवं आदरणीय
    • 7. तत्त्वसमीक्षा – ब्रह्मसिद्धि ग्रन्थ का टीका,
    • 8. ब्रह्मसिद्धि – वेदान्त विषयक ग्रन्थ
    • 9. तत्त्वबिन्दु – शब्दतत्त्व तथा शब्दबोध पर आधारित लघु ग्रन्थ,

    वाचस्पति मिश्र (२)

    दूसरे वाचस्पति मिश्र भी मिथिला के ही मधुबनी थाना के समौल गाँव के निवासी थे। ये पन्द्रहवीं सदी के अंत और सोलहवीं सदी के प्रारम्भ के राजा भैरव सिंह के समकालीन थे जिनका राज्य १५१५ तक था और फिर राजा रामभद्र के समय अंतिम पुस्तक लिखी। जिनकी रचित ४१ पुस्तकें हैं (१० दर्शन पर और ३१ स्मृति पर)

    दर्शन पर

    १. न्याय तत्वलोक

    २. न्याय सुत्रोद्धार

    ३. न्याय रत्नप्रकाश

    ४. प्रत्यक्ष निर्णय

    ५. शब्द निर्णय

    ६. अनुमान निर्णय

    ७. खंडनोद्धार

    ८. गंगेश के तत्वचिंतामणि पर टीका

    ९. अनुमानखंड पर टीका

    १०. न्याय -चिंतामणि प्रकाश शब्द खंडन पर टीका

    स्मृति पर

    १. कृत्य चिंतामणि

    २. शुद्धि चिंतामणि

    ३. तीर्थ चिंतामणि

    ४. आचार चिंतामणि

    ५. आन्हिक चिंतामणि

    ६. द्वैत चिंतामणि

    ७. नीति चिंतामणि (संभवतः नवटोल के लूटन झा के साथ, पर कोई पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं, किन्तु विवाद चिंतामणि में इसका सन्दर्भ दिया गया है)

    ८. विवाद चिंतामणि

    ९. व्यव्हार चिंतामणि

    १०. शूद्राचार चिंतामणि

    ११. श्राद्ध चिंतामणि

    १२. तिथि चिंतामणि

    १३. द्वैत निर्णय

    १४. महादान निर्णय

    १५. विवाद निर्णय

    १६. शुद्धि निर्णय

    १७. कृत्य महार्णव

    १८. गया श्राद्ध पद्धति

    १९. चन्दन धेनु प्रमाण

    २०. दत्तक विधि या दत्तक पुत्रेष्टि यज्ञविधि

    २१ . छत्र योगो धुत दोषंती विधि

    २२. श्राद्ध विधि

    २३. गया पत्तलक

    २४. तीर्थ कल्पलता

    २५. तीर्थलता

    २६ . श्राद्धकल्प

    २७. कृत्य प्रदीप

    २८. सार संग्रह

    २९. पितृभक्ति तरंगिणी

    ३०. व्रत निर्णय का पूर्वार्ध

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    शुक्राचार्य :-


    शुक्राचार्य :-
    असुराचार्य, भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र जो शुक्राचार्य के नाम से अधिक ख्यात हें। इनका जन्म का नाम ‘शुक्र उशनस’ है। पुराणों के अनुसार याह दैत्यों के गुरू तथा पुरोहित थे।

    कहते हैं, भगवान के वामनावतार में तीन पग भूमि प्राप्त करने के समय, यह राजा बलि की झारी के मुख में जाकर बैठ गए और बलि द्वारा दर्भाग्र से झारी साफ करने की क्रिया में इनकी एक आँख फूट गई। इसीलिए यह “एकाक्ष” भी कहे जाते थे। आरंभ में इन्होंने अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वह अपने पुत्र के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते। इन्होंने 1,000 अध्यायोंवाले “बार्हस्पत्य शास्त्र” की रचना की। ‘गो’ और ‘जयंती’ नाम की इनकी दो पत्नियाँ थीं। असुरों के आचार्य होने के कारण ही इन्हें ‘असुराचार्य’ कहते हैं।

    शुक्राचार्य से संबन्धित कुछ विशेष बातें –
    01- शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था।
    02- बृहस्पति के पुत्र कच ने इनसे संजीवनी विद्या सीखी थी ।
    03- दैत्यों के गुरु शुक्र का वर्ण श्वेत है। उनके सिर पर सुन्दर मुकुट तथा गले में माला हैं वे श्वेत कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में क्रमश:- दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती है।
    04- महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी से प्रतिद्वन्द्विता रखने के कारण दैत्यों का आचार्यत्व स्वीकार किया।
    05- शुक्राचार्य दानवों के पुरोहित हैं। ये योग के आचार्य हैं। अपने शिष्य दानवों पर इनकी कृपा सर्वदा बरसती रहती है। इन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके उनसे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी। उसके बल से ये युद्ध में मरे हुए दानवों को ज़िंदा कर देते थे।
    06- आचार्य शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं। दृश्य जगत में उनके लोक शुक्र तारक का भूमि एवं जीवन पर प्रभाव ज्यौतिषशास्त्र में वर्णित है।
    07- आचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र षण्ड और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहाँ नीति शास्त्र का अध्यापन करते थे।
    08- मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य ने असुरों के कल्याण के लिये ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया जैसा आज तक कोई नहीं कर सकां इस व्रत से इन्होंने देवाधिदेव शंकर को प्रसन्न कर लिया। शिव ने इन्हें वरदान दिया कि तुम युद्ध में देवताओं को पराजित कर दोगे और तुम्हें कोई नहीं मार सकेगा। भगवान शिव ने इन्हें धन का भी अध्यक्ष बना दिया। इसी वरदान के आधार पर शुक्राचार्य इस लोक और परलोक की सारी सम्पत्तियों के स्वामी बन गये।
    09- महाभारत के अनुसार सम्पत्ति ही नहीं, शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी स्वामी हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।
    10- ब्रह्मा की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बनकर तीनों लोकों के प्राण का परित्राण करने लगे। कभी वृष्टि, कभी अवृष्टि, कभी भय, कभी अभय उत्पन्न कर ये प्राणियों के योग-क्षेम का कार्य पूरा करते हैं। ये ग्रह के रूप में ब्रह्मा की सभा में भी उपस्थित होते हैं। लोकों के लिये ये अनुकूल ग्रह हैं तथा वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शान्त कर देते हैं। इनके अधिदेवता इन्द्राणी तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्र हैं।
    11- मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। इनका वाहन रथ है, उसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 20 वर्ष की होती है।

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    SAPTHA RISHIS }7{ சப்த ரிஷிக்கள்


    SAPTHA RISHIS }7{ சப்த ரிஷிக்கள்
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    ATRI –^– 1 –^– அத்ரி :
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    Atri……………..δ UMa………………..Megrez…………..அத்ரி

    Atri (Sanskrit: अत्रि) or Attri is a legendary bard and scholar and was one of 9 Prajapatis, and a son of Brahma, said to be ancestor of some Brahmin, Prajapatis, kshatriya and Vaishya communities who adopt Atri as their gotra. Atri is the Saptarishis (Seven Great Sages Rishi) in the seventh, i.e. the present Manvantara.
    His life
    Atri Maharishi is one of the ten sons of Creator Brahma and first of the Saptha Rishis, created by just the will of the Almighty and therefore designated as a Maanasa-putras. There were ten of these. Atri’s wife is Anasuya or Anusiya devi, a daughter of Kardama Prajapati and an embodiment of chastity.

    Atri Gotra originates in the lineage of Brahmarshi Atri and Anasuya Devi (Without-Spite). Anasuya is the daughter of Kardama Prajapati. Brahmarshi Atri is the seer in the fifth Mandala (chapter) of the Rigveda. Atri, also called The Devour-er represents the power of detachment. He is also the Manasa Putra and was born from the mind of Lord Brahma (from his eyes) to assist Lord Brahma in the act of creation. When the sons of Brahma were destroyed by a curse of Shiva, Atri was born again from the flames of a sacrifice performed by Brahma. His wife in both manifestations was Anasuya. She bore him three sons, Datta, Durvasas, and Soma, in his first life, and a son Aryaman (Nobility), and a daughter, Amala (Purity), in the second. Soma, Datta and Durvasa, are the incarnations of the Divine Trinity Brahma, Vishnu, and Rudra (Shiva) respectively. The Trinity channeled their full creative potential through Brahmarshi Atri when they granted boons to his wife Devi Anasuya for helping the Sun to rise in the East every day.
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    Brahmarshi Atri
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    Atri Gotra is from the lineage of Brahmarshi Atri and Anasuya Devi. Brahmarshi Atri is the seer of the fifth mandala (book) of the Rigveda. He had many sons, including Datta, Durvasa who are the incarnations of the Divine Trinity Vishnu, Lord shiva respectively. The trimurti channeled through Brahmarsi Atri when they granted boons to his wife Devi Anusuya for helping the Sun to rise in the east everyday. Soma is called Chandratreya or Chandratre, and Durvasa is Krishnatreya or Krishnatre. Somatreya (Chandra) established the Someshwara Jyotirlinga, used to overcome all kinds of passion. Dattatreya, as the incarnation of Vishnu, has the power to cause any species to continue.

    A Sapta Rishi
    He is among the Sapta Rishi Mandala (seven luminous or eternal sages in the sky) symbolized by the Great Bear (or “Ursa Major” in Latin) and the seven stars around it, named Megrez in Arabic (the root of the tail). The star is also considered as δ (Delta) or the 4th star in the Great Bear constellation. Saptarshi, among several meanings, are described as “The seven solar rays” (Sapta-rishayaha) by the Rishi Yaska. Collectively, they are also called Pitarah, the Fathers. In China, the star Megrez is known as Kwan, and Tien Kuen, or Heavenly Authority.

    Atri, who was born from Brahma’s eyes and the Vishnu-Dharma, is said to rule the other stars of the Great Bear identifying Kratu with the star α Dubhe; Pulaha with β Merak; Pulastya with γ Phecda; Atri with δ Megrez; Angiras ε Alioth; Vasishtha with ζ Mizar; Bhrigu with η Alkaid. According to the Puranic stories, Brahma went into deep meditation for several thousands of years, at the termination of which a drop of water fell from his eyes which took the form of the sage, Atri.

    Prominence of the δ Megrez-Atri is signified by its position in the constellation rather than the magnitude of brightness. In that it can be observed that δ of the Great Bear, or Big Dipper, is the central star having on both sides three stars each. Symbolically, it holds both sides together by providing the point of focus.

    Seer of Rig Veda
    He is the seer of the fifth Mandala (Book 5) of the Rigveda. Atri had many sons and disciples who have also contributed in the compilation of the Rig Veda and other Vedic texts. Mandala 5 comprises 87 hymns, mainly to Agni and Indra, but also to the Visvedevas (“all the gods’), the Maruts, the twin-deity Mitra-Varuna and the Asvins. Two hymns each are dedicated to Ushas (the dawn) and to Savitr. Most hymns in this book are attributed to the Atri clan composers. Philological and linguistic evidence indicate that the Rigveda was composed in the north-western region of the Indian subcontinent, most likely between c. 1500–1200 BCE, though a wider approximation of c. 1700–1100 BCE has also been given.

    Atri Shastra and Agama
    In the Vaishnava tradition, Agamas attributed to sage Atri are found in two main schools Pancharatra and Vaikhanasas.[16] Originally Vikhanasa sage passed on the knowledge Vaikhanasa-kalpa –sutra to nine disciples in the First Manvantara to Atri, Bhrigu, Marichi, Kashyapa, Vasishta, Pulaha, Pulasthya, Krathu and Angiras. Only those of Bhrigu, Marichi, Kashyapa and Atri are extant today. The four rishis are said to have received the esoteric knowledge of Vishnu from the first Vikahansa, i.e., the older Brahma in the Svayambhuva Manvanthara. Thus, those sages Atri, Bhrigu, Marichi, Kashyapa, are considered the propagators of vaikhānasa śāstra.

    Atri is credited with four works spread over 88,000 verses composed in anustuph chhandas: Purvatantra; Atreyatantra; Vishnutantra; and, Uttaratantra. However, in ānanda saṃhitā, written by the sage Marichi, he attributes to Atri: pūrvatantra, viṣṇutantra, uttaratantra and mahātantra. Vatavarana Shastra, attributed to Atri, deals with clouds, their categorization and characteristics, 12 different kinds of rain, 64 types of lightning, 33 types of thunderbolts, etc The Bhrgu, Atri and Marichi Samhitas go into different aspects of architecture of Vaikhanasa Vishnu temples, while other fragments cover Chitra karma or painting of pictures of deities. In Charaka Samhita, Atri occupies an important position as a preceptor in the dissemination of the discipline of Ayurveda.
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    Attri is a clan or Gotra of Maha Rishi Attri :
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    The people of this clan are predominantly Jats and Brahmans Attris live in all parts of India but mainly in Uttar Pradesh, Punjab, Haryana, and Himachal Pradesh and Rajasthan.
    Attri Jats have about 60 villages in Aligarh District of Uttar Pradesh, including Ghanghauli,Malav, KANSERA, Zikarpur, Kheria, Jaidpura, Jattari, Hamidpur, Gharwara, Usrah, Nagar, Syaraul, Khandeha etc.
    Main source of earning is agriculture. Sizable chunk of the Attri Jats also serve in Indian Army, air-force, navy and other paramilitary bodies (BSF, CISF, CRPF etc.).
    Attri Jats are also known as Khaderiya.
    Villages of Attri
    Uttar Pradesh
    Ghanghauli, Kansera, Kurana, Jaidpura, Kheria Khurd, Shyaraul, Zikarpur, Hamidpur,Mour, Jattari, Usrah, Rasulpur, Khandeha, Gharbara In Aligarh District.
    Manchad,Dansoli,Neemka,Kalakhuri & Udaipur in Gautam Budh Nagar District.
    champatpur(chakhendi),rashulabad in fatehpur District.
    Azizpur, Tumoula, Jaab In Mathura District.
    Haryana
    Villages well known as Mohna (Sub-tehsil,Faridabad), Jalhakaa, and Anchera Khurd ( Jind ) are also known as Attri Jat villages.
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    அத்திரி மகரிஷி வரலாறு :
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    ரிக்வேதம் :- 9 -6 – 7; 10 – 143வது ரிக்குகளுக்கும்.
    ஸாமவேதம் :- 1–4, 6–4, 8–7வது சூக்தங்களுக்கும் இவர் கர்த்தா.

    இவரின் பத்தினி அனுசூயை. இவ்வம்மை தட்சப் பிரஜாபதியின் மகள். தன் கடுந்தவ மகிமையால் மந்தாகினி என்னும் புண்ய நதியைச் சிருஷ்டித்தாள்.இந்நதியின் வளப்பத்தால் கடும் பஞ்சகாலத்திலும் உயிரினங்களைக் காப்பாற்றினாள் அனுசூயை.
    தன் மனைவியுடன் ரிக்ஷ பர்வதத்திற்குச் சென்று கடுந்தவம் இயற்றினார். அவர் தவத்திற்குத் திரிமூர்த்திகளும் மகிழ்ந்து தரிசனம் தந்தனர். எம் அம்சம் உள்ள மூன்று பிள்ளைகள் உமக்குப் பிறப்பர் என்று வரம் அருளி மறைந்தனர். பிரம்மனின் அம்சமாக சோமனும், விஷ்ணுவின் அம்சமாகத் தத்தாத்ரேயரும், சிவனின் அம்சமாகத் துருவாசரும் பிறந்தனர்.

    சத்யநேத்ரன், ஹவ்யன், ஆபோமூர்த்தி, சனி, ஸோமன் என்னும் ஐவர் புத்திரர்களும், ச்ருதி என்னும் பெண்ணும் அத்ரிக்குப் பிறந்தனர் என்பது வாயு புராணம்.
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    Pictures :
    1-ATHRI with Anusiya devi & Family
    2-ATHRI_MAHARISHI_BLESSED by Trinity
    3- Athri Tree( அத்ரி மரம்) where penance was done

    Nandakumar Gopalan's photo.
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    गोस्वामी तुलसीदास


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    काशी की विभूतियाँ

    गोस्वामी तुलसीदास

    श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सन् १५६८ में राजापुर में श्रावण शुक्ल ७ को हुआ था। पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था। तुलसी की पूजा के फलस्वरुप उत्पन्न पुत्र का नाम तुलसीदास रखा गया। पत्नी रत्नावली के प्रति अति अनुराग की परिणति वैराग्य में हुई। अयोध्या और काशी में वास करते हुए तुलसीदास ने अनेक ग्रन्थ लिखे। चित्रकूट में हनुमान् जी की कृपा से इन्हे राम जी का दर्शन हुआ। काशी और अयोध्या में (संवत् १६३१) ‘रामचरितमानस’ और ‘विनय पत्रिका’ की रचना की। तुलसी की ‘हनुमान् चालीसा’ का पाठ करोड़ो हिन्दू नित्य करते हैं। तुलसी घाट पर ही निवास करते हुए श्रावण शुक्ल तीज को राम में लीन हो गये।

    गोस्वामी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। उनका जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में एक सरयू पारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका विवाह सं. १५८३ की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को बुद्धिमती (या रत्नावली) से हुआ। वे अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण रुप से आसक्त थे। एक बार जब उनकी पत्नी मैके गयी हुई थी उस समय वे छिप कर उसके पास पहुँचे। पत्नी को अत्यंत संकोच हुआ उसने कहा –

    हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।

    तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।

    तुलसी के जीवन को इस दोहे ने एक नयी दिशी दी। वे उसी क्षण वहाँ से चल दिये और सीधे प्रयाग पहुँचे।

    फिर जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारका तथा बदरीनारायण की पैदल यात्रा की। चौदह वर्ष तक के निरंतर तीर्थाटन करते रहे। इस काल में उनके मन में वैराग्य और तितिक्षा निरंतर बढ़ती चली गयी। इस बीच आपने श्री नरहर्यानन्दजी को गुरु बनाया।

    गोस्वामी जी के संबंध में कई कथाएँ प्रचलित हैं। कहते हैं जब वे प्रात:काल शौच के लिये गंगापार जाते थे तो लोटे में बचा हुआ पानी एक पेड़ेे की जड़ में डाल देते थे। उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था। नित्य पानी मिलने से वह प्रेत संतुष्ट हो गया और गोस्वामी जी सामने प्रकट हो कर उनसे वर माँगने की प्रार्थना करने लगा। गोस्वामी जी ने रामचन्द्र जी के दर्शन की लालसा प्रकट की। प्रेत ने बताया कि अमुक मंदिर में सायंकाल रामायण की कथा होती है, यहाँ हनुमान् जी नित्य ही कोढ़ी के भेष में कथा सुनने आते हैं। वे सब से पहले आते हैं और सब के बाद में जाते हैं। गोस्वामी जी ने वैसा ही किया और हनुमान् जी के चरण पकड़ कर रोने लगे। अन्त में हनुमान् जी ने चित्रकूट जाने की आज्ञा दी।

    आप चित्रकूट के जंगल में विचरण कर रहे थे तभी दो राजकुमार – एक साँवला और एक गौरवर्ण धनुष-बाण हाथ में लिये, घोड़ेे पर सवार एक हिरण के पीछे दौड़ते दिखायी पड़े। हनुमान् जी ने आ कर पूछा, “कुछ देखा? गोस्वामी जी ने जो देखा था, बता दिया। हनुमान् जी ने कहा,’वे ही राम लक्ष्मण थे।’ वि.सं. १६०७ का वह दिन। उस दिन मौनी अमावस्या थी। चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास जी चंदन घिस रहे थे। तभी भगवान् रामचन्द्र जी उनके पास आये और उनसे चन्दन माँगने लगे। गोस्वामी जी ने उन्हें देखा तो देखते ही रह गये। ऐसी रुपराशि तो कभी देखी ही नहीं थी। उनकी टकटकी बंध गयी। उस दिन रामनवमी थी। संवत १६३१ का वह पवित्र दिन। हनुमान् जी की आज्ञा और प्रेरणा से गोस्वामी जी ने रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया और दो वर्ष, सात महीने तथा छब्बीस दिन में उसे पूरा किया। हनुमान् जी पुन: प्रकट हुए, उन्होंने रामचरितमानस सुनी और आशीर्वाद दिया, ‘यह रामचरितमानस तुम्हारी कीर्ति को अमर कर देकी।’

    सच्चरित्र होने के कारण आप के हाथ से कुछ न कुछ चमत्कार हो जाते थे। एक बार उनके आशीर्वाद से एक विधवा का पति जीवित हो उठा। यह खबर बादशाह तक पहुँची। उसने उन्हें बुला भेजा और कहा, ‘कुछ करामात दिखाओ।’ गोस्वामी जी ने कहा कि ‘रामनाम’ के अतिरिक्त मैं कुछ भी करामात नहीं जानता। बादशाह ने उन्हें कैद कर लिया और कहा कि जब तक करामात नहीं दिखाओगे, तब तक छूट नहीं पाओगे। तुलसीदास जी ने हनुमान् जी की स्तुति की। हनुमान् जी ने बंदरों की सेना से कोट को नष्ट करना प्रारम्भ किया। बादशाह इनके चरणों पर गिर पड़े और उनसे क्षमायाचना की।

    तुलसीदास जी के समय में हिंदु समाज में अनेक पंथ बन गये थे। मुसलमानों के निरंतर आतंक के कारण पंथवाद को बल मिला था। उन्होंने रामायम के माध्यम से वर्णाश्रम धर्म, अवतार धर्म, साकार उपासना, मूर्कित्तपूजा, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन तथा तत्कालीन मुस्लिम अत्याचारों और सामाजिक दोषों का तिरस्कार किया।

    वे अच्छी तरह जानते थे कि राजाओं की आपसी फूट और सम्प्रदाय वाद के झगड़ों के कारण भारत में मुसलमान विजयी हो रहे हैं। उन्होंने गुप्त रुप से यही बातें रामचरितमानस के माध्यम से बतलाने का प्रयास किया किंतु राजाश्रय न होने के कारण लोग उनकी बात समझ नहीं पाये और रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सफल नहीं हो पाया। यद्यपि रामचरितमानस को तुलसीदास जी ने राजनीतिक शक्ति का केन्द्र बनाने का प्रयत्न नहीं किया फिर भी आज वह ग्रंथ सभी मत-मतावलम्बियों को पूर्ण रुप से मान्य है। सब को एक सूत्र में बाँधने का जो कार्य शंकराचार्य ने किया था, वही कार्य बाद के युग में गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया। गोस्वामी तुलसीदास ने अधिकांश हिदू भारत को मुसलमान होने से बचाया।

    आप के लिखे बारह ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं –

    दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण, रामाज्ञा, विन पत्रिका, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली। इसके अतिरिक्त रामसतसई, संकट मोचन, हनुमान बाहुक, रामनाम मणि, कोष मञ्जूषा, रामशलाका, हनुमान चालीसा आदि आपके ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं।

    १२६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६८० श्रावण शुक्ल सप्तमी, शनिवार को आपने अस्सी घाट पर अपना शहरी त्याग दिया।

    संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।

    श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।

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    श्री शंकराचार्य


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    काशी की विभूतियाँ

    श्री शंकराचार्य

    अद्वेत दर्शन के महान् आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव ७८० ईस्वी में हुआ। केरल प्रदेश में अलवाई नदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में महान् भक्त शिव गुरु के घर माता विसिष्टा ने वैशाख शुक्ल पंचमी को इन्हें जन्म दिया। शंकर की कृपा से जन्में बालक का नाम शंकर पड़ा। आठवें वर्ष में शंकर ने सन्यास ले लिया। गुरु की खोज में ओंकारेश्वर पहुँचे जहाँ इन्हें गोविन्दाचार्य मिले। तीन वर्ष अध्ययन करके बारह वर्ष की आयु में ये काशी पहुँचे। मणिकर्णिका पर यह बाल-आचार्य वृद्ध शिष्यों को ‘मौन व्याख्यान’ देता था। काशी में गंगा स्नान करके लौटते समय एक चांडाल को मार्ग से हटो कहा तब चांडाल ने इन्हें ‘अद्वेत’ का वास्तविक ज्ञान दिया और काशी में चांडाल रुपधारी शंकर से पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर शंकर ने १४ वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद् पर भाष्य लिखे। सोलह वर्ष की उम्र में वेदव्यास से भेंट हुई।

    प्रयाग में कुमारिल भ से मिले, महिष्मति में मंडन मिश्र से शास्रार्थ किया। इन्होंने केदार धाम में ३२ वर्ष की आयु में शिवसायुज्य प्राप्त किया।

    भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है। उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था। अपनी बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अनेक बृहद् ग्रन्थों की रचना की, पूरा भारत भ्रमण कर अपने विरोधियों को शास्रार्थ में पराजित किया, भारत के चारों कोनों में मठ स्थापित किये तथा डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की। धर्म संस्थापना के उनके इस कार्य को देख कर यह विश्वास दृढ़ हो उठता है कि वे साक्षात् शंकर के अवतार थे –

    “शंकरो शंकर: साक्षात्”।

    उनके ही समय में भारत में वेदान्त दर्शन अद्वेैतवाद का सर्वाधिक प्रचार हुआ, उन्हें अद्वेैतवाद का प्रवर्त्तक माना जात है। ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य मिलते हैं उनमें सबसे प्राचीन शंकर भाष्य ही है। उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है लेकिन अधिकांश लोगों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए और ३२ वर्ष की आयु में तिरोहित हुए। उनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तटवर्ती कलादी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल ५ को हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा था।

    उनके बचपन से ही मालूम होने लगा कि किसी महान् विभूति का अवतार हुआ है। पाँचवे वर्ष में यज्ञोपवीत करा कर इन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेजा गया और सात वर्ष की आयु में ही आप वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर वापस आ गये। वेदाध्ययन के उपरान्त आपने संन्यास ग्रहण करना चाहा किन्तु माता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी।

    एक दिन वे माँ के साथ नदी पर स्नान करने गये, वहाँ मगर ने उन्हें पकड़ लिया। माँ हाहाकार मचाने लगी। शंकर ने माँ से कहा तुम यदि मुझे संन्यास लेने की अनुमति दो तो मगर मुझे छोड़े देगा। माँ ने आज्ञा दे दी। जाते समय माँ से कहते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा। घर से चलकर आप नर्मदा तट पर आये, वहाँ गोविन्द-भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से साधना शुरु कर दी अल्पकाल में ही योग सिद्ध महात्मा हो गये। गुरु की आज्ञा से वे काशी आये। यहाँ उनके अनेक शिष्य बन गये, उनके पहले शिष्य बने सनन्दन जो कालान्तर में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ भी लिखते जाते थे। कहते हैं कि एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रुप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। जब भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। उस सूत्र पर उनका उस ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक शास्रार्थ हुआ।

    बाद में मालूम हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं साक्षात् भगवान् वेद व्यास थे। वहाँ के कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम पहुँचे। उन्होंने अपने सभी ग्रंथ प्राय: काशी या बदरिकाश्रम में लिखे थे, वहाँ से वे प्रयाग गये और कुमारिल भ से भेंट की। कुमारिल भ के कथनानुसार वे माहिष्मति नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्रार्थ के लिए आये। उस शास्रार्थ में मध्यस्थ थीं मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती। इसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई, और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। इस प्रकार भारत-भ्रमण के साथ विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित कर वे बदरिकाश्रम लौट आये वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और तोटकाचार्य को उसका माठीधीश बनाया। अंतत: वे केदार क्षेत्र में आये और वहीं इनका जीवन सूर्य अस्त हो गया।

    उनके लिखे ग्रंथों की संख्या २६२ बतायी जाती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि ये सारे ग्रंथ उन्हीं के लिख हैं। उनके प्रधान ग्रंथ इस प्रकार हैं – ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य, गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तामलक भाष्य आदि।

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    श्री पाणिनी


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    श्री पाणिनी

    पाणिनी मुनि अपने व्याकरण ‘अष्टाध्यायी” अथवा ‘पाणिनीय अष्टक’ के लिये प्रसिद्ध हैं। अब तक प्रकाशित ग्रंथों में सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ पाणिनी का ही है। पाणिनी का काल ३५० ई.पू. माना जाता है किंतु इस संबंध में प्रस्तुत सन्देह रहित नहीं है। संभवत: उनका काल ५०० ई. पूर्व या उसके बाद का था।

    सूत्र साहित्य में पाणिनी कृत – ‘अष्टाधायायी’, ‘श्रौत सूत्र’, ‘गृह्यसूत्र’ तथा धर्मसूत्र का समावेश है। पाणिनीकृता ‘अष्टाध्यायी’ संस्कृत व्याकरण संबंद ग्रंथ है। इसमें श्रौत सूत्रों में पुरोहितों द्वारा सम्पादित किये जाने वाले संस्कारों का विवरण है। ‘धर्मसूत्र’ में परम्परागत नियम तथा विधियाँ दी गयी हैं और गृह्यसूत्रों में जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक की जीवन विष्यक क्रियाओं का उल्लेख है। प्रमुख सूत्रकारों में गौतम, बोधायन-आपस्तम्ब, वशिष्ठ, आश्वलायन तथा कात्यायन आदि कि गणना होती है।

    पाणिनी के नाम से कमनीय पद्य केवल सूक्तियों में ही संग्रहित नहीं है, बल्कि कोश ग्रंथों में तथा अलंकार शास्रीय पुस्तकों में भी उधृत मिलते हैं। पुरातत्व वेत्ताओं में इस बात पर गहरा मतभेद है कि ये कविताएँ, वैय्याकरण पाणिनी की हैं अथवा ‘पाणिनी’ नामधारी किसी अन्य कवि की? डॉक्टर भाण्डारकर, पीचर्सन आदि विद्वान सब कुछ सोचने-विचारने के बाद यही सोचते हैं कि इन श्लोकों का रचियता पाणिनी वैय्याकरण पाणिनी नहीं हो सकता। इस के विपरीत डॉक्टर औफ्रेक्ट तथा डॉक्टर पिशेल की सम्मति है कि पाणिनी को केवल एक खूसट वैय्याकरम मानना बड़ी भारी भूल करना है, वह स्वयं अच्छ कवि थे। संस्कृत साहित्य की परंपरागत प्रसिद्धि पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि पाणिनी ही इन पद्यों के नि:सन्दिग्ध रचयिता है। राजशेखर ने सूक्तिग्रंथों में पाणिनी को व्याकरण तथा ‘जाम्बवती जय’ का रचयिता माना है –

    नम: पाणिनये तस्मै यस्मादाविर भूदिह।

    आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।।

    यह बात महत्वपूर्ण है कि पाणिनी यदा-कदा फुटकर पद्य लिखने वाले कवि नहीं थे, बल्कि संस्कृत साहित्य के सर्वप्रथम महाकाव्य लिखने का श्रेय उन्हीं को जाता है। इस महाकाव्य का नाम कहीं तो ‘पाताल विजय’ तो कहीं ‘जाम्बवती जय’ पाया जाता है। अष्टाध्यायी में पारिभाषिक शब्दों में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनी के बनाये हुए हैं और बहुत से ऐसे हैं जो पहले से ही प्रचलित हैं। पाणिनी ने अपने रचे शब्दों की व्याख्या की है और पहले के अनेक पारिभाषिक शब्दों की भी नयी व्याख्या कर उनके प्रयोग को विकसित किया है।

    महर्षि पाणिनी ने काशी शब्द को गण के आदि में दिखलाया है।

    काश्यादिभ्यष्ठञत्रिठौ-अष्टाध्यायी ४-२-११६

    अष्टाध्यायी में ‘काशीय:’ रुप की सिद्धि भी बतायी गयी है।

    संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता पर अधिक जोर दिया जाता है। वैदिक मन्त्रों में उच्चारण में यदि छोटी सी भी त्रुटि हो जाती है, तो महान् अनर्थ उपस्थित हो जाता है और इस अनर्थ का भाजन स्वयं वृत्तासुर को बनना पड़ा था जिसे यज्ञ में स्वर के अपराध से लेने के देने पड़ गये थे। महर्षि पाणिनी ने व्याघ्री को अपने बच्चे को मुँह में ले जाते देखा था और उसी को उन्होंने वर्णोंच्चारण-विधान में आदर्श माना था। बोलने वाले को चाहिये कि न तो वह वर्णों का काटे, न वर्णों को मुँह से बिखरने दे –

    व्याघ्री यथा हरेत् पुत्रान् दंष्ट्राभ्यां न च पीडयेत्।

    भीता पतन-भेदाभ्यां तद्वद् वर्णान प्रजोजयेत्।।-पाणिनी शिक्षा-श्लोक २४

    उच्चारण की गलतियों का उल्लेख पाणिनी ने अपने सूत्रों में किया है। एक बार अशुद्ध उच्चारण के लिये ‘कारयति’ का प्रयोग होता है। अर्थात बारंबार अशुद्ध उच्चारण करने पर ‘कारयते’ आत्मनेपद् का प्रयोग समुचित माना जाता है। इसके लिये पाणिनी का विधान इस सूत्र में है-

    मिथोपपदात् कृञोडभ्यासे (१/३/७१)