संत कबीर जी कहते हैं कि घर में जो परिजन मर जाता है, उसे तो लोग तुरन्त श्मशान ले जाकर फूँक आते हैं।
फिर घर वापिस आकर खूब अच्छी तरह से मल-मल कर नहाते हैं। पवित्र हो जाते हैं।
मगर विडम्बना तो देखो, बाहर से (किसे मरे जानवर का ) मुर्दा उठाकर घर में ले आते हैं।
खूब नमक,मसाला,मिर्च और तेल डालकर उसे पकाते हैं।
तड़का लगाते हैं और फिर उसका मजे से भोजन करते हैं।
बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती,आस-पड़ोस में, रिश्तेदार या मित्रों के बीच उस मुर्दे के स्वाद का गा – गाकर बखान भी करते हैं। कितना स्वादिष्ट था मांस। अछे से पक गया था। बहुत बढिय़ा लगा।
मगर ये नहीं जानते ,जाने – अनजाने में ये अपने पेट को ही श्मशान बना बैठे हैं।
अक्सर कुछ लोगों का ये विचार है कि सोमवार, मंगलवार,गुरुवार और शनिवार को तो मैं भी नहीं खाता।
पर क्या यही दो,चार दिन धार्मिक बातें माननी चाहिए ? क्या बाकी दिन ईश्वर के नहीं है ?
जब पता है कि चीज गलत है, अपवित्र है, भगवान को कदापि पसंद नहीं है, तो फिर उसे किसी भी दिन क्यों खाया जाए ?
वैसे भी, क्या हम मंदिर में कभी मांस वगैरह लेकर जाते हैं ?
नहीं ना…
फिर क्या यह शरीर परमात्मा का जीता-जागता मंदिर नहीं है ?
हमारे अंदर भी तो वही शक्ति है, जिसे हम बाहर पूजते हैं, फिर इस जीवंत मंदिर में मांस,मदिरा क्यों ?
कबीर जी ने सही कहा- हमने तो इस मंदिर रुपी शरीर को कब्र बना दिया है। स्वयं विश्व के पंचम मुल जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने ये कहा है की- मांसाहार भोजन नरक का साक्षात द्वार है। ये बात श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है। सभी संतो ने मांसाहार भोजन को नरक जाने की सिधा रास्ता कहा है। क्या हम जिनको अपना मानते हैं उनको नरक भेजने की तैयारीयां करते हैं ? यदि हां…तो हम उनके अपने कैसे हुये ?
जर्ज बर्नार्ड शा ने भी यही कहा – ‘हम मांस खाने वाले वो चलती फिरती कब्रें हैं, जिनमें मारे गए पशुओं की लाशें दफ़न की गई हैं।’
यदि हम लोग किसी जीव की हत्या करके, उसे धर्म कहते हों, तो फिर अधर्म किसे कहोगे ? ये ऐसे कुकर्म करके तुम स्वयं को सज्जन समझते हो, तो यह बताओ कि फिर कसाई किसे कहोगे ?
जैसे हर जीव की एक विशेष खुराक है।
अपना एक स्वाभाविक भोजन है और वह उसी का भक्षण करता है, उसी पर कायम रहता है।
शेर भूखा होने पर भी कभी शाक- पत्तियां नहीं खाएगा। वो उसका भोजन नहीं है।
गाय चाहे कितनी भी क्षुधाग्रस्त क्यों न हो, पर अपना स्वाभाविक आहार नहीं बदलेगी।
बस एक मनुष्य ही है, जो अपने स्वाभाविक आहार से हटकर कुछ भी भक्ष्य – अभक्ष्य खा लेता है। फिर भी खुद को सभ्य मानता है। बुध्दिमान सोचता है।
पशुओं की तुलना में आज मनुष्य कौन से स्तर पर खड़ा है..