Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक प्रेरक कहानी प्रस्तुत है जो भारत -दर्शन से ली गई है 🙏

संसाधन और ज्ञान
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एक बार एक राजा ने प्रसन्न होकर एक लकड़हारे को एक चंदन का वन (चंदन की लकड़ी का जंगल) उपहार स्वरूप दिया।
लकड़हारा ठहरा साधारण मनुष्य! वह चंदन की महत्ता और मूल्य से अनभिज्ञ था। वह जंगल से चंदन की लकड़ियां लाकर उन्हें जलाकर भोजन बनाने के लिये प्रयोग करने लगा।
राजा को अपने गुप्तचरों से यह बात पता चली तो उसकी समझ में आया कि संसाधन का उपयोग करने हेतु भी बुद्धि व ज्ञान आवश्यक है।
यही कारण है कि लक्ष्मी जी (धन की प्रतीक देवी) और श्री गणेश जी (ज्ञान के प्रतीक देव) की एक साथ पूजा की जाती है ताकि व्यक्ति को धन के साथ-साथ उसे प्रयोग करने का ज्ञान भी प्राप्त हो।

[ भारत-दर्शन संकलन ]

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कर्म और भाग्य


एक बार एक धनी व्यक्ति मंदिर जाता है। पैरों में महँगे और नये जूते होने पर सोचता है कि क्या करूँ? यदि बाहर उतार कर जाता हूँ तो कोई उठा न ले जाये और अंदर पूजा में मन भी नहीं लगेगा, सारा ध्यान जूतों पर ही रहेगा।

उसे मंदिर के बाहर एक भिखारी बैठा दिखाई देता है। वह धनी व्यक्ति भिखारी से कहता है-
“भाई मेरे जूतों का ध्यान रखोगे?
जब तक मैं पूजा करके वापस न आ जाऊँ”,
भिखारी हाँ कर देता है।

अंदर पूजा करते समय धनी व्यक्ति सोचता है कि
“हे प्रभु आपने यह कैसा #असंतुलितसंसार बनाया है? किसी को इतना धन दिया है कि वह पैरों तक में महँगे जूते पहनता है तो किसी को अपना पेट भरने के लिये भीख तक माँगनी पड़ती है”। कितना अच्छा हो कि #सभीएकसमानहो_जायें।

वह धनिक निश्चय करता है कि वह बाहर आकर उस भिखारी को 100 का एक नोट देगा।

बाहर आकर वह धनी व्यक्ति देखता है कि वहाँ न तो वह भिखारी है और न ही उसके जूते।

धनी व्यक्ति ठगा सा रह जाता है। वह कुछ देर भिखारी का इंतजार करता है कि शायद भिखारी किसी काम से कहीं चला गया हो, पर वह नहीं आया। धनी व्यक्ति दुखी मन से नंगे पैर घर के लिये चल देता है।

रास्ते में थोड़ी दूर फुटपाथ पर देखता है कि एक आदमी जूते चप्पल बेच रहा है। धनी व्यक्ति चप्पल खरीदने के उद्देश्य से वहाँ पहुँचता है, पर क्या देखता है कि उसके जूते भी वहाँ बेचने के लिए रखे हैं तो वह अचरज में पड़ जाता है फिर वह उस फुटपाथ वाले पर दबाव डालकर उससे जूतों के बारे में पूछता है तो वह आदमी बताता है कि एक भिखारी उन जूतों को 100 रु. में बेच गया है।

धनी व्यक्ति वहीं खड़े होकर कुछ सोचता है और मुस्कराते हुये नंगे पैर ही घर के लिये चल देता है। उस दिन धनी व्यक्ति को उसके कई सवालों के जवाब मिल गये थे-

  1. “समाज में कभी एकरूपता नहीं आ सकती, क्योंकि हमारे #कर्म कभी भी एक समान नहीं हो सकते और जिस दिन ऐसा हो गया, उस दिन संसार की सारी विषमतायें समाप्त हो जायेंगी।”
  2. ईश्वर ने हर एक मनुष्य के भाग्य में लिख दिया है कि किसको कब और कितना मिलेगा, पर यह नहीं लिखा कि वह कैसे मिलेगा। यह हमारे #कर्म तय करते हैं। जैसे कि भिखारी के लिये उस दिन तय था कि उसे 100 रु. मिलेंगे, पर कैसे मिलेंगे?
    यह उस भिखारी ने अपने #कर्म द्वारा तय किया।
  3. हमारे #कर्म ही हमारा भाग्य,

यश_अपयश,

लाभ_हानि.

जय_पराजय,

दुःख_शोक,

लोक_परलोक तय करते हैं।

हम इसके लिये #ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।

Posted in बॉलीवुड - Bollywood

बॉलीवुड एक्टर नसीरुद्दीन शाह मूल रूप से अफगानिस्तान के हैं, लेकिन उनके पिता और दादा अंग्रेजी हुकुमत के समय भारत में बतौर सरकारी मुलाजिम काम करते थे।

नसीरुद्दीन शाह के पूर्वज ने जंग-ए-आज़ादी को कुचलने में अंग्रेज़ों का साथ दिया था। बदले में अंग्रेजो ने “खुश” होकर उनके दादा को मेरठ की जागीर सौंप दी थी।

नसीरुद्दीन शाह के पिता मोहम्मद शाह ने नायब तहसीलदार से सरकारी नौकरी की शुरुआत की थी। उनके दादा आग़ा सैय्यद मोहम्मद शाह अफ़ग़ानिस्तान से थे और पेशे से फ़ौजी थे।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ों की तरफ़ से उनके दादा लड़े थे और जंग में उनकी क़ाबिलियत से खुश होकर उन्हें मेरठ के करीब एक जागीर दी गई थी। इसे सरधना जागीर कहा जाता था। जागीर के साथ ही आग़ा सैय्यद मोहम्मद शाह को ब्रिटिश सरकार ने ‘नवाब जान फिशानी’ की उपाधि भी दी थी।

पाकिस्तान बनने के बाद, नसीरुद्दीन शाह के बाप-दादा ने भारत में रहने का फैसला किया। नसीरुद्दीन शाह अब एनआरसी का विरोध कर रहे हैं।
शोभना राष्ट्रवादी

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एक बार मैं बैंगलोर अपने दोस्त के साथ होटल में खाने को गया था.

तो, कर्नाटक में वहाँ का ट्रेडिशनल भोजन इडली, डोसा , उत्पम, बिसबेला भात आदि ही होते हैं.

अब हमलोग ठहरे खांटी नार्थ इडियन… जो, पूरी सब्जी, लिट्टी आदि खा कर ऊब चुके होते हैं.

तो, हमलोगों ने होटल में बैठते ही वहाँ का “सेट डोसा” ऑर्डर किया.

चूंकि, वो बड़ा होटल था तो वहीं टेबल पर कांटा-चम्मच आदि रखा हुआ था.

डोसा टेबल पर आते ही मित्र ने बहुत तरीके से दो चम्मच उठाया (जिसमें से एक नार्मल और एक फोर्क (कांटे वाला) चम्मच था.

फिर, मित्र एक चम्मच से डोसा को दबाए और दूसरे से उसे काटे… उसके बाद उसे सांभर और चटनी में बारी बारी से डूबा कर खाये.

जबकि, मैंने डोसा को मोड़ा और हाथ से तोड़कर दे दनादन खा गया..

जितने समय में मेरा खाना खत्म हो गया उतने समय में मित्र कांटे चम्मच से आधा डोसा खाने में ही मशक्कत कर रहा था.

उसके बाद मैंने उस पर झुंझालते हुए कहा कि … अबे, हाथ से खाओ न ढंग से…!
क्या कांटे चम्मच का चूसियापा फैलाये हुए हो ???

मेरी आपत्ति के बाद उसने मुझे कुपित नजर से देखा फिर वो भी हाथ से खा कर खत्म किया.

उसके बाद घर लौटने तक मैं रास्ते भर यही सोचता रहा कि… साला, ये कांटे चम्मच का उपयोग आखिर किसने और कब शुरू किया होगा.

फिर , कड़ी से कड़ी जोड़कर लॉजिक लगाने पर मुझे इसका जबाब समझ आ गया.

दरअसल, खाने में कांटे चम्मच का इसका उपयोग समझने से पहले हमें इसका शुरुआती प्रयोग समझना होगा कि आखिर ये शुरू ही क्यों हुआ ???

इस बात से शायद ही किसी को इनकार होगा कि “कांटे-चम्मच से खाना खाना एक पश्च्यात सभ्यता का अंग है”.

इसीलिए, इस संबंध में कुछ समझने से पहले हमें ये समझना होगा कि आखिर ये “पश्चिमी देशों” में ही क्यों शुरू हुए .

तो, इस बात का एकदम सामान्य सा जबाब है कि “ठंड”.

जी हाँ, ठंड के कारण ही पश्चिमी देशों में लोग दिन भर दिन भर गर्म कपड़ा पहने रहते हैं जिस कारण उन्हें भारतीय स्टाइल के शौचालय जाने में काफी परेशानी होती है क्योंकि, भारतीय स्टाइल के कमोड में लोगों को नीचे बैठना होता है… जो, पैंट शर्ट/जीन्स पैंट पहने लोगों के लिए किसी टास्क से कम नहीं है.

इससे निजात पाने के लिए उन्होंने “वेस्टर्न स्टाइल” का कुर्सी नुमा कमोड प्रयोग में लाना शुरू कर दिया जिसमें कि पैंट या जींस पहने हुए भी लोग आराम से बैठ सकते थे.

लेकिन, उसके बाद भी उन्हें समस्या बनी रही कि शौच के बाद उन्हें धोने में परेशानी होने लगी जिसका एक कारण तो पानी का बेहद ठंड होना था और दूसरा उनका पैंट पहने होना था.

इसका उपाय उन्होंने निकाला कि धोओ ही मत… सिर्फ “कागज से पोछ लो”.

अब कागज से पोछने पर दिक्कत ये हो गई कि फिर उन्हें अपने उन्हीं हाथों से “खाना भी खाना पड़ता था” जिस हाथ से उन्होंने अपना टॉयलेट पोछा था.

इसीलिए, उन्होंने हाइजीन मेंटेन रखने के लिए खाने के लिए हाथ का प्रयोग मिनिमम कर दिया…
और, खाने के लिए चम्मच (कांटे-चम्मच) का प्रयोग करने लगे.

समय बीतता गया और अंग्रेज भारत में शासक के रूप में स्थापित हो गए…!

तो, जो बड़े-बड़े नौकरशाह , पैसे वाले लोग और अंग्रेजों के चाटुकार जो अंग्रेजों के सीधे संपर्क में थे… उन्होंने अंग्रजों को कांटे-चम्मच से खाते देखा….
और, उन्होंने बिना इसकी सच्चाई जाने ही इसे स्टेटस सिंबल मान लिया और खुद भी वैसा ही करने लगे…!

चूंकि, अंग्रेजों का नकल कर कांटे-चम्मच से खाने वाले लोग… तत्कालीन समाज के बड़े और प्रभावशाली लोग थे….
इसीलिए, सामान्य जनता भी खाने के उस स्टाइल को स्टेटस सिंबल मानने लगी और उसका नकल करने लगी.

लेकिन, आज आप निष्पक्ष भाव से सोचें कि हम हिन्दू जो नित्यक्रिया के बाद साबुन से हाथ धोने से लेकर नहाने तक की प्रक्रिया का पालन करते हैं…. उन्हें सच में कांटे चम्मच से खाने की जरूरत है क्या ???

क्या हम बिना-वजह ही किसी से बहुत जल्दी प्रभावित होकर उसकी नकल नहीं करने लगते हैं…???

बात तो ये सब बहुत सामान्य ही है लेकिन, मेरे ख्याल से किसी बात की वैज्ञानिकता और प्रासंगिकता समझे बिना ही आंख बंद कर उसकी नकल करना बेवकूफी की श्रेणी में आता है ना कि आधुनिकता की श्रेणी में…!

जय महाकाल…!!!

नोट : लोगों की जरूरत किस तरह धीरे-धीरे आदत में परिवर्तित हो जाती है इसका सबसे अच्छा उदाहरण मलेच्छ समुदाय है जिनके पूर्वजों ने अरब में पानी की कमी के कारण “टोंटी वाला लोटा” इस्तेमाल में लाया होगा ताकि उससे पानी कम गिरे…!

लेकिन, मूर्ख कटेशर बिना उसकी वैज्ञानिकता और प्रासंगिकता समझे ही आज भी हिंदुस्तान में “उसी टोंटी वाले लोटे” का प्रयोग करते हैं… भले ही वे पानी के बहुतायत से आई बाढ़ के कारण डूब के ही क्यों ना मर जाएँ..!!

कुमार सतीश