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जसा बोओगे वैसा काटोगे


जसा बोओगे वैसा काटोगे💐💐

एक गांव में तीन चोर रहते थे। एक रात उन्होंने एक धनी आदमी के यहां चोरी की। उन्होंने सारा धन एक थैले में भरा और उसे लेकर जंगल की ओर भाग निकले। जंगल में पहुंचने पर उन्हें जोर की भूख लगी। वहां खाने को तो कुछ था नहीं, इसलिए उनमें से एक चोर पास के एक गांव से खाना लेने गया। बाकी के दोनों चोर जंगल में चोरी के माल की रखवाली कर रहे थे।

जो चोर खाना लेने गया था, उसकी नीयत खराब थी। पहले उसने होटल में खुद भोजन किया। फिर उसने अपने साथियों के लिए खाना खरीद कर उसमें तेज जहर मिला दिया। उसने सोचा कि जहरीला खाना खाकर उसके दोनों साथी मर जाएंगे तो सारा धन उसका हो जाएगा।

जंगल में दोनों चोरों ने खाना लेने गए अपने साथी चोर की हत्या करने की योजना बना ली थी। वे उसे अपने रास्ते से हटाकर सारा धन आपस में बांट लेना चाहते थे।

तीनों चोरों ने अपनी-अपनी योजनाओं के अनुसार कार्य किया। पहला चोर जैसे ही जहरीला भोजन लेकर जंगल में पहुंचा। उसके दोनों साथी उस पर टूट पड़े। उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया फिर वे निश्चिंत होकर भोजन करने बैठ गए। मगर जहरीला भोजन खाते ही वे दोनों भी तड़प-तड़प कर मर गए। इस प्रकार तीनों का अंत भी बुरा ही हुआ।

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अदृश्य आशीष


💐💐अदृश्य आशीष💐💐


जल्दी -जल्दी घर के सारे काम निपटा, बेटे को स्कूल छोड़ते हुए ऑफिस जाने का सोच, घर से निकल ही रही थी कि…
फिर पिताजी की आवाज़ आ गई,
“बहू, ज़रा मेरा चश्मा तो साफ़ कर दो ।”
और बहू झल्लाती हुई….
सॉल्वेंट ला, चश्मा साफ करने लगी। इसी चक्कर में बेटा स्कूल में और खुद आज फिर ऑफिस देर से पहुंची।
गाहे बगाहे पिताजी की यूँ,
घर से निकलते हुए, पीछे से आवाज देने की आदत, बहु को अच्छी नही लगती थी।
पर जानती थी कि पलँग से न उठ पाने की बावजूद पिताजी पूरे दिन में उसे यही एक दो काम ही तो कहते थे। काम छोटा सा था पर आफिस जाने की भी तो जल्दी होती थी सुबह सुबह।
एक दिन पति से चर्चा की।
पति की सलाह पर अब वो सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ़ करके रख देती, लेकिन फिर भी घर से निकलते समय पिताजी का बहू को बुलाना बन्द नही हुआ।
दिन बीते एक समय वो आया कि समय से खींचातानी के चलते अब बहू ने पिताजी की पुकार को अनसुना करना शुरू कर दिया ।

एक दिन ऑफिस की छुट्टी थी तो बहू ने सोचा, क्यों न घर की साफ- सफाई कर लूँ
अचानक,
पलँग से नीचे गिरी पिताजी की डायरी हाथ लग गई। उसे पलँग पर उठाकर रखते हुए, उत्सुकता हुई, कि देखूं तो, पिताजी सारा दिन क्या लिखते रहते है। यही सोचकर यूँही खोल दिया एक पन्ना,उस पन्ने पर लिखा था-
दिनांक 23/2/15

मेरी प्यारी बहु,
आज की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, घर से निकलते समय, बच्चे अक्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं। बस इसीलिए, जब तुम चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती तो मैं मन ही मन, अपना हाथ तुम्हारे सर पर रख देता । वैसे मेरा आशीष सदा तुम्हारे साथ है बेटा।

आंखे नम हो गयी। बस अगले दिन से ही बहु-ससुर का रिश्ता मानो पिता-पुत्री में बदल गया।
अब पांच मिनट पहले तैयार होकर,बेटे को स्कूल छोड़ने के लिए, पिताजी की आवाज से पहले ही बहु चश्मे को साफ कर देती,पीने के पानी के जग उनके पलंग के सिरहाने रखती। जाते समय,लाड प्यार से दो चार वाक्यो में सारे दिन की हिदायते देती। कल उनके फल या दवाई न खाने का उलाहना और अंत मे “अच्छा बाबूजी आफिस को देरी ही रही है,चलो बेटा बाबूजी को bye बोलो” कहकर घर से निकलती।
बूढ़ी हड्डियों में न जाने कैसे ताकत सी आने लगी। दवाई वही थी पर सेहत में सुधार दस गुना होने लगा था। पिताजी स्वस्थ होने लगे थे परन्तु अचानक एक दिन हृदय गति रुक जाने से स्वर्ग सिधार गए। उनके अंत समय मे,उनके मृत देह के चेहरे पर संतुष्टि के भाव की भी पूरे परिवार में खूब चर्चा हुई थी।

आज पिताजी को गुजरे ठीक 2 साल बीत चुके हैं। आज भी बहु रोज घर से बाहर निकलते समय पिताजी का चश्मा साफ़ कर, उनके टेबल पर रख दिया करती हूँ। उनके अनदेखे हाथ से मिले आशीष की लालसा में। आज भी सुबह घर से निकलते हुए, न जाने क्यों ऐसा लगता है कि अभी आवाज आएगी-
बहु, जरा मेरा चश्मा तो साफ कर दे “
माता पिता का अदृश्य आशीष ही ईश्वर की कृपादृष्टि है। जीवित मातापिता की सेवा, मरणोपरांत किये गए पितृकर्म से कहीं अधिक उत्तम है। जीवन में हम बहुत कुछ महसूस नहीं कर पाते और जब तक महसूस करते हैं,तब तक वे हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं ……आइये इन बूढ़े वृक्षो को जलरूपी स्नेह तथा सेवारूपी खाद से संजोकर फिर से युवा,स्वस्थ तथा हराभरा करने का प्रयास करें

🚩🚩जय श्री राम🚩🚩


💐💐संकलनकर्ता-गुरु लाइब्रेरी 💐💐

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मेरी बहू मेरा अभिमान


💐💐मेरी बहू मेरा अभिमान 💐💐

शादी के लिऐ देखने गई मां ने समधन से कहा, सुयश मेरा एकलौता बेटा है, जैसा नाम वैसा गुण । जब जब मैं दूसरा बच्चा न होने के लिए उदास होती तो विशाल कहते, ईश्वर ने दस बेटों के गुण दिए है हमारे सुयश में । लेकिन मेरा मन एक बेटी की चाहत में हमेशा कलपता रहा । सोचती थी बहू को ही बेटी का प्यार दूँगी। अपनी बहू की जो छवि मैंने सोची थी स्निग्धा उसकी बिल्कुल विपरीत थी। उसकी माँ ने ही हँसते हुए कहा, अपने नाम के विपरीत है स्निग्धा ! लड़कों की तरह वेश भूषा, हँसना, बोलना,अक्खड़पना भरा हुआ था उसमें, जाने सुयश को क्या दिखा इसमें ।
जीन्स और टी शर्ट में आकर उसने हैलो आंटी कहा। मैंने भी प्रत्युत्तर में हैलो ही कहा। तभी उसकी माँ बोली, आंटी के पैर छुओ बेटा। उसको असहज देख कर मैंने कह दिया, रहने दो बेटा, उसकी कोई जरूरत नहीं है। बातों से एकदम बिंदास, खिलखिलाकर हँसने वाली, अपनी माँ से हर बात पर तर्क वितर्क करती “स्निग्धा” मेरे बेटे “सुयश” की पसंद ही नहीं प्यार भी थी ।
शादी की रस्मों के बाद स्निग्धा हमारे घर आ गयी, और सुयश स्निग्धा अपना हनीमून मना कर वापस भी आ गए ।
अगले दिन से दोनों को आफिस जाना था। सुबह की नींद मुझे बहुत प्यारी थी, सोचती थी बहू आ जायेगी तो उसके हाथों की चाय पीकर अपने सुबह की शुरुआत करूँगी। लेकिन स्निग्धा को देख कर मैंने अपना ये सपना भुला दिया और सुबह 6 बजे का अलार्म लगा कर सो गई ।
पूजा की घंटियाँ सुन मेरी नींद खुली, अभी छः भी नहीं बजे थे। बाहर निकल कर देखा, स्निग्धा आरती की थाल लिए, पूरे घर में घूम रही थी। मुझे लगा मैं सपना देख रही हूँ, तब तक वो पास आकर बोली मम्मा प्रसाद लीजिये ।
फ्रेश होकर बाथरूम से निकली तो मैडम चाय के दो कप लिए हाजिर थीं। चाय पीने के बाद बोली मम्मा मुझे नाश्ते में बस सैंडविच और चीला बनाना ही आता है। आप लोग नाश्ते में क्या खाते हैं? पीछे से सुयश आकर बोला, जो भी तुम बनाओ हम वही खायेंगे।
सुयश ने मेरा हैरान चेहरा देख कर पूछा,” क्या हुआ माँ, चाय पसन्द नहीं आयी !
नहीं रे इतनी अच्छी चाय तो खुद मैंने ही नहीं बनाई कभी !”
फिर मैंने स्निग्धा से कहा,”तुम्हें ऑफिस जाना है बेटा, तैयार हो जाओ। अभी मेड आ रही होगी मैं उसके साथ मिलकर नाश्ता बना लूँगी।”
अरे नहीं मम्मा नाश्ता तो मैं ही बनाऊँगी, फिर तो मैं पूरा दिन आफिस में रहूँगी तो घर पर सब आपको ही देखना पड़ेगा।
स्निग्धा कभी कोई मौका नहीं देती थी कमी निकालने का, साडी बहुत कम पहनती है, वो हर रोज हमारे पैर भी नहीं छूती, उसकी आवाज भी धीमी नहीं है, उसे घर के काम भी नहीं आते, रोटी तो भारत के नक्शे जैसी बनाती है,और जब गुस्साती है तो….उफ्फ पूछिये ही मत ! वो एक आदर्श बहू की छवि से बिल्कुल जुदा है लेकिन ये कमी दुर हो सकती है।
खुशियों को भी कभी-कभी नजर लग जाती है ! सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था कि विशाल को हार्ट अटैक आ गया, मैं उन्हें आई सी यू के बाहर से देख घंटों रोती रहती, उस समय मेरी स्निग्धा ने मुझे सास से बेटी बना दिया। मुझे अपनी बाहों में भरकर चुप कराती, जबरदस्ती अपने हाथों से खाना खिलाती। हर वक़्त यही कहती पापा बिल्कुल ठीक हो जायेंगे। हॉस्पिटल के बिल, दवाइयों का खर्चा इस तरह से देती जैसे उसके अपने पापा का इलाज हो रहा हो ।
सुयश और मेरे सामने मजबूत चट्टान बनी मेरी स्निग्धा वास्तव में बहुत कोमल थी। घर आने के बाद भी विशाल का ख्याल हम दोनों से ज्यादा रखती । अपनी नई नवेली शादी के बावजूद देर रात तक हमारे साथ बैठी रहती ।
मासूम गुड़िया सी बहू का सपना देखने वाली सास को एक मजबूत बेटी मिल गयी थी। जिसका चोला पाश्चात्य था पर दिल एकदम देशी था ।
आज मेरे जन्मदिन पर सुयश ने कहा,”माँ, तैयार हो जाइए,आपकी पसन्द की साड़ी खरीदने चलते हैं। “मुझे कुछ नहीं चाहिए सुयश ! तूने स्निग्धा के रूप में मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा दे दिया ! मेरी भीगी आँखे पोछ कर सुयश ने पूछा, वैसे है कहाँ आपकी दबंग बहू? जिसने अपनी दबंगई से आपका भी दिल जीत लिया ! तब तक स्निग्धा ने मेरे गले में अपनी बाहें डाल कर कहा, हैप्पी बर्थडे मम्मा और एक पैकेट पकड़ाते हुए कहा, ये दुनिया की बेस्ट मम्मा के लिए, पैकेट खोल कर देखा, तो उसमें कांजीवरम साड़ी थी, बिल्कुल वैसी ही जैसी मैं हमेशा से लेना चाहती थी ! मेरे आश्चर्य चकित चेहरे को देखकर बोली, वो जब आप रेखा की तस्वीर गूगल पर सर्च करके घंटों देखती थीं तभी मुझे समझ आ गया कि आप उनकी तस्वीरों में देखती क्या हैं ! अपनी जोरदार हँसी के साथ उसने फिर से मुझे गले लगा लिया। खुशी में बहते आँसुओं को पोछकर उसने कहा, “एक माँ के दिल की बात एक बेटी तो समझ ही जाती है ना मम्मा”! हाँ मेरी स्निग्धा बेटी
विशाल जी भी बोले आदर्शों नियमों पर पड़ गयी भारी, सबसे प्यारी बहू हमारी !!


💐💐संकलनकर्ता-गुरु लाइब्रेरी 💐💐

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वास्तविकता




एक बूढ़ी माता मंदिर के सामने भीख माँगती थी। एक संत ने पूछा – आपका बेटा लायक है, फिर यहाँ क्यों ??

बूढ़ी माता बोली – बाबा, मेरे पति का देहांत हो गया है। मेरा पुत्र परदेस नौकरी के लिए चला गया। जाते समय मेरे खर्चे के लिए कुछ रुपए देकर गया था, वे खर्च हो गये इसीलिए भीख माँग रही हूँ।

संत ने पूछा – क्या तेरा बेटा तुझे कुछ नहीं भेजता ??

बूढ़ी माता बोली – मेरा बेटा हर महीने एक रंग-बिरंगा कागज भेजता है जिसे मैं दीवार पर चिपका देती हूँ।

संत ने उसके घर जाकर देखा कि दीवार पर 60 बैंक ड्राफ्ट चिपकाकर रखे थे। प्रत्येक ड्राफ्ट ₹50,000 राशि का था। पढ़ी-लिखी न होने के कारण वह नहीं जानती थी कि उसके पास कितनी संपति है। संत ने उसे ड्राफ्ट का मूल्य समझाया।

हमारी स्थिति भी उस बूढ़ी माता की भाँति ही है।

हमारे पास धर्मग्रंथ तो हैं पर माथे से लगाकर अपने घर में सुसज्जित कर के रखते हैं।
जबकि हम उनका वास्तविक लाभ तभी उठा पाएगें जब हम
उनका अध्ययन,
चिंतन,
मनन करके
उन्हें अपने जीवन में उतारेगें।

हम हमारे धर्मग्रंथों की वैज्ञानिकता को समझे, हमारे त्यौहारो की वैज्ञानिकता को समझे और अनुसरण करे !!!!



🚩🚩जय श्री राम🚩🚩


💐💐संकलनकर्ता-गुरु लाइब्रेरी 💐💐

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अखबार वाला


अखबार वाला💐💐

एक अखबार वाला प्रात:काल लगभग 5 बजे जिस समय अख़बार देने आता था, उस समय रमेश बाबू उसको अपने मकान की गैलरी में टहलते हुए मिल जाते थे ।

प्रतिदिन वह रमेश बाबू के आवास के मुख्य द्वार के सामने चलती साइकिल से निकलते हुए अख़बार फेंकता और उनको ‘नमस्ते बाबू जी’ बोलकर अभिवादन करता हुआ फर्राटे से आगे बढ़ जाता था।

क्रमश: समय बीतने के साथ रमेश बाबू के सोकर उठने का समय बदलकर प्रात: 7:00 बजे हो गया।

जब कई दिनों तक रमेश बाबू उस अखबार वाले को प्रात: टहलते नहीं दिखे तो एक रविवार को प्रात: लगभग 9:00 बजे वह उनका कुशल-क्षेम लेने उनके आवास पर आ गया।

तब उसे ज्ञात हुआ कि घर में सब कुशल- मंगल है, रमेश बाबू बस यूँ ही देर से उठने लगे थे ।

वह बड़े सविनय भाव से हाथ जोड़ कर बोला, “बाबू जी! एक बात कहूँ?”

रमेश बाबू ने कहा… “बोलो”

वह बोला… “आप सुबह तड़के सोकर जगने की अपनी इतनी अच्छी आदत को क्यों बदल रहे हैं? आपके लिए ही मैं सुबह तड़के विधानसभा मार्ग से अख़बार उठा कर और फिर बहुत तेज़ी से साइकिल चलाकर आप तक अपना पहला अख़बार देने आता हूँ…सोचता हूँ कि आप प्रतीक्षा कर रहे होंगे।”

रमेश बाबू ने विस्मय से पूछा…अरे तुम ! विधान सभा मार्ग से अखबार लेकर आते हो….इतनी दूर से ?”

“हाँ ! सबसे पहला वितरण वहीं से प्रारम्भ होता है ,” उसने उत्तर दिया।

“तो फिर तुम जगते कितने बजे हो?” रमेश बाबू ने पूछा ।

“ढाई बजे…. फिर साढ़े तीन तक वहाँ पहुँच जाता हूँ।”

“फिर ?” रमेश बाबू ने जानना चाहा ।

“फिर लगभग सात बजे अख़बार बाँटकर घर वापस आकर सो जाता हूँ….. फिर दस बजे कार्यालय…… अब बच्चों को बड़ा करने के लिए ये सब तो करना ही होता है।”

रमेश बाबू कुछ पलों तक उसकी ओर देखते रह गए और फिर बोले, “ठीक! तुम्हारे बहुमूल्य सुझाव को अवश्य ध्यान में रखूँगा।”

घटना को लगभग पन्द्रह वर्ष बीत गये।

एक दिन प्रात: नौ बजे के लगभग वह अखबार वाला रमेश बाबू के आवास पर आकर एक निमंत्रण-पत्र देते हुए बोला, “बाबू जी! बिटिया का विवाह है….. आप को सपरिवार आना है।“

निमंत्रण-पत्र के आवरण में अभिलेखित सामग्री को रमेश बाबू ने सरसरी निगाह से जो पढ़ा तो संकेत मिला कि किसी डाक्टर लड़की का किसी डाक्टर लड़के से परिणय का निमंत्रण था। तो जाने कैसे उनके मुँह से निकल गया, “तुम्हारी लड़की ?”

उसने भी जाने उनके इस प्रश्न का क्या अर्थ निकाल लिया कि विस्मय के साथ बोला, “कैसी बात कर रहे हैं, बाबू जी! मेरी ही बेटी।”

रमेश बाबू अपने को सम्भालते हुए और कुछ अपनी झेंप को मिटाते हुए बोले , “नहीं! मेरा तात्पर्य कि अपनी लड़की को तुम डाक्टर बना सके, इसी प्रसन्नता में वैसा कहा।“

“हाँ बाबू जी! मेरी लड़की ने एमबीबीएस किया है और उसका होने वाला पति भी एमडी है ……. और बाबू जी! मेरा लड़का इंजीनियरिंग के अन्तिम वर्ष का छात्र है।”

रमेश बाबू किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े सोच रहे थे कि उससे अन्दर आकर बैठने को कहूँ कि न कहूँ कि वह स्वयम् बोला, “अच्छा बाबू जी! अब चलता हूँ….. अभी और कई कार्ड बाँटने हैं…… आप लोग आइयेगा अवश्य।”

रमेश बाबू ने भी फिर सोचा… आज अचानक अन्दर बैठने को कहने का आग्रह मात्र एक छलावा ही होगा। अत: औपचारिक नमस्ते कहकर उन्होंने उसे विदाई दे दी।

उस घटना के दो वर्षों के बाद जब वह पुनः रमेश बाबू के आवास पर आया तो ज्ञात हुआ कि उसका बेटा जर्मनी के किसी नामी कंपनी में कहीं कार्यरत था।

उत्सुक्तावश रमेश बाबू ने उससे प्रश्न कर ही डाला कि आखिर उसने अपनी सीमित आय में रहकर अपने बच्चों को वैसी उच्च शिक्षा कैसे दे डाली?

उसने कहना शुरू किया….“बाबू जी! इसकी बड़ी लम्बी कथा है , फिर भी कुछ आपको बताए देता हूँ। अख़बार, नौकरी के अतिरिक्त भी मैं ख़ाली समय में कुछ न कुछ कमा लेता था । साथ ही अपने दैनिक व्यय पर इतना कड़ा अंकुश कि भोजन में सब्जी के नाम पर रात में बाज़ार में बची खुची कद्दू, लौकी, बैंगन जैसी मौसमी सस्ती-मद्दी सब्जी को ही खरीदकर घर पर लाकर बनायी जाती थी। एक दिन मेरा लड़का परोसी गयी थाली की सामग्री देखकर रोने लगा और अपनी माँ से बोला, ‘ये क्या रोज़ बस वही कद्दू, बैंगन, लौकी, तरोई जैसी नीरस सब्ज़ी… रूख़ा-सूख़ा ख़ाना…… ऊब गया हूँ इसे खाते-खाते। अपने मित्रों के घर जाता हूँ तो वहाँ मटर-पनीर, कोफ़्ते, दम आलू आदि….। और यहाँ कि बस क्या कहूँ!!'”

मैं सब सुन रहा था तो रहा न गया और मैं बड़े उदास मन से उसके पास जाकर बड़े प्यार से उसकी ओर देखा और फिर बोला, “पहले आँसू पोंछ फिर मैं आगे कुछ कहूँ।”

मेरे ऐसा कहने पर उसने अपने आँसू स्वयम् पोछ लिये। फिर मैं बोला, *”बेटा! सिर्फ़ अपनी थाली देख। दूसरे की देखेगा तो तेरी अपनी थाली भी चली जायेगी…… और सिर्फ़ अपनी ही थाली देखेगा तो क्या पता कि तेरी थाली किस स्तर तक अच्छी होती चली जाये। इस रूख़ी-सूख़ी थाली में मैं तेरा भविष्य देख रहा हूँ। इसका अनादर मत कर। इसमें जो कुछ भी परोसा गया है उसे मुस्करा कर खा ले ….।”

उसने फिर मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा और जो कुछ भी परोसा गया था खा लिया। उसके बाद से मेरे किसी बच्चे ने मुझसे किसी भी प्रकार की कोई भी माँग नहीं रखी । बाबू जी! आज का दिन मेरे बच्चों के उसी त्याग औऱ तपस्या का परिणाम है।

उसकी बातों को रमेश बाबू बड़ी तन्मयता के साथ लगातार चुपचाप सुनते रहे औऱ बस यही सोचते रहे कि आज के बच्चों की कैसी मानसिकता है कि वे अपने अभिभावकों की हैसियत पर दृष्टि डाले बिना उन पर लगातार अपनी ऊटपटाँग माँगों का दबाव डालते रहते हैं….।

💐💐शिक्षा💐💐

बच्चों, अपने माता पिता के साथ हमेशा अछ्या व्यवहार करके ही आप अपने जीवन के लक्ष्यों को हासिल कर सकते है।उनसे ऐसी किसी प्रकार की मांग ना करें जो वो पूरी नही कर सकते,साथ ही माता पिता की भी जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों पर ध्यान देवे की उनकी संगति कैसी है।

💐💐 प्रेषक अभिजीत चौधरी 💐💐

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आस्था का चमत्कार


आस्था का चमत्कार💐💐

मासूम गुड़िया बिस्तर से उठी और अपना गुल्लक ढूँढने लगी।

अपनी तोतली आवाज़ में उसने माँ से पूछा, “माँ, मेला गुल्लक कहाँ गया?”

माँ ने आलमारी से गुल्लक उतार कर दे दिया और अपने काम में व्यस्त हो गयी.

मौका देखकर गुड़िया चुपके से बाहर निकली और पड़ोस के मंदिर जा पहुंची.

सुबह-सुबह मंदिर में भीड़ अधिक थी…. हाथ में गुल्लक थामे वह किसी तरह से बाल-गोपाल के सामने पहुंची और पंडित जी से कहा, “बाबा, जला कान्हा को बाहल बुलाना!”

“अरे बेटा कान्हा अभी सो रहे हैं… बाद में आना..”,पंडित जी ने मजाक में कहा.

“कान्हा उठो.. जल्दी कलो … बाहल आओ…”, गुड़िया चिल्ला कर बोली.

हर कोई गुड़िया को देखने लगा.

“पंडित जी, प्लीज… प्लीज कान्हा को उठा दीजिये…”

“क्या चाहिए तुमको कान्हा से?”

“मुझे चमत्काल चाहिए… और इसके बदले में मैं कान्हा को अपना ये गुल्लक भी दूँगी… इसमें 100 लूपये हैं …कान्हा इससे अपने लिए माखन खरीद सकता है. प्लीज उठाइए न उसे…इतने देल तक कोई छोता है क्या???”

“ चमत्कार!, किसने कहा कि कान्हा तुम्हे चमत्कार दे सकता है?”

“मम्मा-पापा बात कल लहे थे कि भैया के ऑपरेछन के लिए 10 लाख लूपये चाहिए… पल हम पहले ही अपना गहना… जमीन सब बेच चुके हैं…और नाते-रिश्तेदारों ने भी फ़ोन उठाना छोड़ दिया है…अब कान्हा का कोई चमत्काल ही भैया को बचा सकता है…”

पास ही खड़ा एक व्यक्ति गुड़िया की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था, उसने पूछा, “बेटा क्या हुआ है तुम्हारे भैया को?”

“ भैया को ब्लेन ट्यूमल है…”

“ब्रेन ट्यूमर???”

“जी अंकल, बहुत खतल्नाक बिमाली होती है…”

व्यक्ति मुस्कुराते हुए बाल-गोपाल की मूर्ती निहारने लगा…उसकी आँखों में श्रद्धा के आंसूं बह निकले…रुंधे गले से वह बोला, “अच्छा-अच्छा तो तुम वही लड़की हो… कान्हा ने बताया था कि तुम आज सुबह यहाँ मिलोगी… मेरा नाम ही चम्त्कार है… लाओ ये गुल्लक मुझे दे दो और मुझे अपने घर ले चलो…”

वह व्यक्ति लन्दन का एक प्रसिद्द न्यूरो सर्जन था और अपने माँ-बाप से मिलने भारत आया हुआ था. उसने गुल्लक में पड़े मात्र सौ रुपयों में ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन कर दिया और गुड़िया के भैया को ठीक कर दिया।
सचमुच, अगर आपमें अटूट श्रद्धा हो और आप कोई नेक काम करना चाहते हैं तो कृष्णा किसी न किसी रूप में आपकी मदद ज़रूर करते हैं!
यही है आस्था का चमत्कार!

💐💐प्रेषक अभिजीत चौधरी💐💐

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शांति


शांति💐💐


एक राजा था जिसे पेटिंग्स से बहुत प्यार था. एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी उसे एक ऐसी पेंटिंग बना कर देगा जो शांति को दर्शाती हो तो वह उसे मुंह माँगा इनाम देगा।

फैसले के दिन एक से बढ़ कर एक चित्रकार इनाम जीतने की लालच में अपनी-अपनी पेंटिंग्स लेकर राजा के महल पहुंचे।

राजा ने एक-एक करके सभी पेंटिंग्स देखीं और उनमे से दो को अलग रखवा दिया।

अब इन्ही दोनों में से एक को इनाम के लिए चुना जाना था।

पहली पेंटिंग एक अति सुन्दर शांत झील की थी. उस झील का पानी इतना साफ़ था कि उसके अन्दर की सतह तक नज़र आ रही थी. और उसके आस-पास मौजूद हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो. ऊपर की और नीला आसमान था जिसमे रुई के गोलों के सामान सफ़ेद बादल तैर रहे थे।

जो कोई भी इस पेटिंग को देखता उसको यही लगता कि शांति को दर्शाने के लिए इससे अच्छी पेंटिंग हो ही नहीं सकती

दूसरी पेंटिंग में भी पहाड़ थे, पर वे बिलकुल रूखे, बेजान , वीरान थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे जिनमे बिजलियाँ चमक रही थीं…घनघोर वर्षा होने से नदी उफान पर थी… तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे… और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने रौद्र रूप धारण कर रखा था।

जो कोई भी इस पेटिंग को देखता यही सोचता कि भला इसका “शांति” से क्या लेना देना… इसमें तो बस अशांति ही अशांति है।

सभी आश्वस्त थे कि पहली पेंटिंग बनाने वाले चित्रकार को ही इनाम मिलेगा।तभी राजा अपने सिंघासन से उठे और ऐलान किया कि दूसरी पेंटिंग बनाने वाले चित्रकार को वह मुंह माँगा इनाम देंगे।
हर कोई आश्चर्य में था!

पहले चित्रकार से रहा नहीं गया, वह बोला, “लेकिन महाराज उस पेटिंग में ऐसा क्या है जो आपने उसे इनाम देने का फैसला लिया… जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरी पेंटिंग ही शांति को दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?”

“आओ मेरे साथ!”, राजा ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा।

दूसरी पेंटिंग के समक्ष पहुँच कर राजा बोले, “झरने के बायीं ओर हवा से एक तरह झुके इस वृक्ष को देखो…देखो इसकी डाली पर बने इस घोसले को देखो… देखो कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से, इतने शांत भाव व प्रेम से पूर्ण होकर अपने बच्चों को भोजन करा रही है…।”

फिर राजा ने वहां उपस्थित सभी लोगों को समझाया-

“ शांत होने का मतलब ये नही है कि आप ऐसे स्थिति में हों जहाँ कोई शोर नहीं हो…कोई समस्या नहीं हो… जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो… जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो… शांत होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति, अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शांत रहें, अपने काम पर केन्द्रित रहें… अपने लक्ष्य की और अग्रसित रहें।

अब सभी समझ चुके थे कि दूसरी पेंटिंग को राजा ने क्यों चुना है।

💐💐प्रेषक अभिजीत चौधरी💐💐

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એક ભાઇ પોતાની સાથે બે-ત્રણ નાના બાળકોને લઇને ટ્રેનમાં ચડ્યા. એક ડબ્બામાં થોડી જગ્યા જોઇ એટલે સામાન ઉપર રાખીને બારી પાસે કંઇક વિચારતા વિચારતા એ ભાઇ બેસી ગયા. ટ્રેઇન ચાલુ થઇ અને સાથે સાથે પેલા બાળકોના તોફાન પણ ચાલું થયા જેમ જેમ સમય પસાર થતો ગયો તેમ તેમ તોફાન વધતા ગયા.

પેલા ભાઇ તોફાન કરી રહેલા બાળકોને કંઇ જ કહેતા નહોતા આથી બાળકો વધુ ધમાચકડી મચાવતા હતા. થોડીવાર પછી તો એ બીજા મુસાફરોના સામનમાં હાથ નાખીને ફંફોસવા મંડ્યા અને આખો ડબો માથે લીધો. ડબાના અન્ય મુસાફરોથી હવે સહન કરવું મુશ્કેલ હતું એટલે બધાએ બેલા શૂન્ય મનસ્ક થઇને બેઠેલા ભાઇને ઢંઢોળીને કહ્યુ કે ભાઇ આ તમારા બાળકો કેવા તોફાન કરે છે તમે એને અટકાવતા કેમ નથી ?

બાળકો સહેજ દુર ગયા એટલે પેલા ભાઇએ મુસાફરોને ધીમેથી કહ્યુ કે એ બાળકોના તોફાન બદલ હું આપની માફી માંગું છુ અને હું એમને એટલા માટે નથી અટકાવતો કારણ કે આ તોફાન અને સુખ એના જીવનમાં બહું ટુંકા ગાળાનું છે આ બાળકોની “માં” મૃત્યું પામી છે અને હું એમને સાથે લઇને ડેડબોડી લેવા જાઉં છું હવે તમે જ કહો આ બાળકોને હું કેવી રીતે ચુપ કરાવું ?

તમામ મુસાફરોની આંખ ભીની થઇ ગઇ. જે બાળકોને એ નફરત કરતા હતા એ જ બાળકોને બીજી જ ક્ષણે વ્હાલ કરતા થઇ ગયા. કોઇએ ચોકલેટ આપી,કોઇએ બિસ્કીટ આપ્યા તો વળી કોઇએ બહારથી આઇસ્ક્રિમ પણ લઇ આપ્યો. કોઇએ બાળકોને પોતાના ખોળામાં બેસાડ્યા , કોઇએ માથા પર હાથ ફેરવ્યો તો કોઇ એ કપાળમાં ચુમી આપી. સત્યતા જાણ્યા પછી તમામ મુસાફરોનો ગુસ્સો ન જાણે ક્યા જતો રહ્યો !!!!!!

મિત્રો , જીંદગી માત્ર એ નથી જે આપણે જોઇએ છીએ એ પણ છે જે જોઇ શકવા માટે આપણે સક્ષમ નથી. અને જ્યારે કોઇની મદદ કે માર્ગદર્શનથી નથી જોઇ શકતા એ સમજતા થઇશું ત્યારે આપણી નફરત પ્રેમમાં પલટાલા બીલકુલ વાર નહી લાગે

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ચશ્મા સાફ કરતાં એ વૃદ્ધે પત્નીને કહ્યું….. આપણા સમયે મૉબાઇલ ન હતા…!!

હા પણ બરાબર પાંચ ને પંચાવને હું દરવાજે પાણીનો ગ્લાસ ભરીને આવું ને તમે આવતા……

હા મેં ત્રીસ વરસ નોકરી કરી પણ એ નથી સમજી શક્યો કે હું આવતો એટલે તું પાણી લઈને આવતી કે તું પાણી લઈને આવતી એટલે હું આવતો…..

હા યાદ છે, તમે રિટાયર થયા તે પહેલાં ડાયાબીટીસ ન હતો ત્યારે, હું જ્યારે તમને ભાવતી ખીર બનાવતી ત્યારે તમે કહેતા કે આજે બપોરે જ ઑફીસમાં વીચાર આવેલો કે આજે ખીર ખાવી છૅ……

હા ખરેખર મને ઑફીસથી આવતાં જે વીચાર આવતો એ ઘરે આવીને જોઉ તો અમલમાં જ હોય…..

અને યાદ છે તમને હું પ્રથમ પ્રસુતીએ મારા પિયર હતી, અને દુખાવો ઉપડ્યો, મને થયું તમે અત્યારે હોત તો કેટલું સારું…. અને કલાકમાં તો હું સ્વપ્ન જૉતી હોઉં એમ તમે આવી ગયા….

હા એ દિવસે મને એમ જ થયું લાવ જસ્ટ આંટો મારી આવું….

ખ્યાલ છે તમે મારી આંખોમાં જોઇ કવીતાની બે લીટી બોલતા….

હા અને તું શરમાઇને આંખો ઢાળી દેતી, એને હું કવીતાની લાઇક સમજતો…

અને હા હું બપોરે ચા બનાવતાં સહેજ દાઝેલી, તમે સાંજે આવ્યા અને ખીસ્સામાંથી બર્નૉલ ટ્યુબ કાઢીને મને કહેલું કે લે આને કબાટમાં મુક……

હા આગલા દીવસેજ ફસ્ટઍડ ના બૉક્સમાં ખાલી થયૅલી ટ્યુબ જોઇ એટલે ક્યારેક કામ લાગે એમ વિચારીને લાવેલો….

તમે કહો કે આજે છુટવાના સમયે ઑફીસ આવજે આપણે મુવી જોઇ બહાર જમીને આવીશું પાછા…..

હા અને તું આવતી ત્યારે બપોરે ઑફીસની રીસૅસમાં આંખો બંધ કરી મેં વિચાર્યું હોય એજ સાડી પહેરીને તું આવતી…

( પાસે જઈ હાથ પકડીને) હા .. આપણાં સમયમાં મૉબાઇલ ન હતા, સાચી વાત છે…

પણ આપણે બે હતા…

હા અનુ આજે દીકરો અને એની વહુ એક મેકની જોડે હોય છે… પણ ….

એમને …..

વાત નહી વૉટ્સૅપ થાય છૅ,

એમને હુંફ નહી ટૅગ થાય છૅ,

સંવાદ નહી કૉમૅન્ટ થાય છૅ,

લવ નહી લાઇક થાય છૅ,

મીઠો કજીયો નહી અનફ્રૅન્ડ થાય છૅ,

એમને બાળકો નહી પણ કૅન્ડીક્રશ સાગા, ટૅમ્પલ રન અને સબવૅ થાય છૅ….

…….. છોડ બધી માથાકુટ.

હવે આપણે વાઇબ્રંન્ટ મોડ પર છીએ અને આપણી બેટરી પણ એક કાપો રહી છૅ…….

ક્યાં ચાલી….?

ચા બનાવવા…..

અરે હું તને કહેવા જ જતો હતો કે ચા બનાવ..

હા અનુ… હજું હું કવરૅજમાં જ છું, અને મેસૅજ પણ આવે છે…….

( બન્ને હસી ને…)….. હા પણ આપણાં સમયમાં મૉબાઇલ નહોતા.

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એક માણસ જંગલમાંથી પસાર થતો હતો. એને ચાર સ્ત્રી મળી.
એણે પહેલીને પૂછ્યું, ‘તારું નામ શું છે?’
એણે કહ્યું ‘બુદ્ધિ’.
‘તું ક્યાં રહે છે?’
‘માનવીના મગજમાં.’
.
બીજી સ્ત્રીને પૂછ્યું, ‘તારું નામ શું છે?’
‘લજ્જા.’
‘તું ક્યાં રહે છે?’
‘આંખમાં’.
.
ત્રીજીને પૂછ્યું, ‘તારું નામ શું છે?’
‘હિંમત’.
‘ક્યાં રહે છે?’
‘દિલમાં.’
.
ચોથીને પૂછ્યું, ‘તારું નામ શું છે?’
‘તંદુરસ્તી.’
‘ક્યાં રહે છે?’
‘પેટમાં.’

એ માણસ હવે થોડો આગળ વધ્યો તો એને ચાર પુરુષ મળ્યા.
એણે પહેલા પુરુષને પૂછ્યું, ‘તારું નામ શું છે?’
‘ક્રોધ.’
‘ક્યાં રહે છે?’
‘માનવીના મગજમાં.’
‘મગજમાં તો બુદ્ધિ રહે છે, તું કેવી રીતે રહી શકે?’
‘જો હું ત્યાં રહું તો બુદ્ધિ ત્યાંથી વિદાય લઈ લે છે.’
.
બીજા પુરુષને પૂછ્યું, ‘તારું નામ શું છે?’
એણે કહ્યું, ‘લોભ.’
‘ક્યાં રહે છે?’
‘આંખમાં.’
‘આંખમાં તો લજ્જા રહે છે, તું કેવી રીતે રહી શકે?’
‘જ્યારે હું આવું છું ત્યારે લજ્જા ત્યાંથી રવાના થઈ જાય છે.’
.
ત્રીજાને પૂછ્યું, ‘તારું નામ શું છે?’
જવાબ મળ્યો ‘ભય.’
‘ક્યાં રહે છે?’
‘દિલમાં.’
‘દિલમાં તો હિંમત રહે છે. તું કેવી રીતે રહી શકે?’
‘જેવો હું આવું છું કે હિંમત ત્યાંથી ભાગી જાય છે.’
.
ચોથાને પૂછ્યું, ‘તારું નામ શું છે?’
એણે કહ્યું, ‘રોગ.’
‘ક્યાં રહે છે?’
‘પેટમાં.’
‘પેટમાં તો તંદુરસ્તી રહે છે.’
‘જ્યારે હું આવું છું ત્યારે તંદુરસ્તી ત્યાંથી જતી રહે છે.’