एक पंडी जी थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि वे भगवान के साक्षात दर्शन किया करते थे।
एक बार मांगते खाते पंडी जी का डेरा किसी गांव में हुआ। गांव के जमींदार बहुत सम्पन्न थे और अब भगवदभजन में अपना मन लगाना चाहते थे, तो गांव के सिवान पर डेरा डाले पंडी जी के पास पहुंचे और बोले…
“हमको भी भक्ति करनी है। लोग कहते हैं कि आप भगवान को साक्षात देखते हैं तो हमको भी देखना है।”
पंडी जी कथा वाचन करते रहते, जमींदार साब के प्रश्न को अनसुना करते हुए। कई दिन बीत गए। डेरा उठाने का समय हो चला था, बहता पानी रमता जोगी। जमींदार साब फिर से पहुंच गए कि भगवान देखना है।
पंडी जी ने एक क्षण सोचा विचारा और जमींदार साब को लेकर बगल में बह रही नदी की ओर बढ़ गए। कमर भर पानी में पहुंच कर पंडी जी ने कहा, “डुबकी मारिए, और जब तक सांस हो, पानी में ही डूबे रहिए।”
जमींदार साब ने अपने भरसक प्रयास किया लेकिन सांस की वायु खतम हो जाने के बाद पानी में से खड़े होने लगे।
यह देखते ही पंडी जी ने लपक कर जमींदार साब की गुद्दी (गरदन का पीछे वाला भाग) दबोची, और चांप दिया पानी में फिर से।
जमींदार साब लगे छटपटाने। जब सांस ही नहीं रह गई थी तो कोई भी छटपटाता। एक दम जब जान जाने की आकुलता उत्पन्न हो गई तो पंडी जी ने छोड़ दिया।
बाहर आने पर जब सांस व्यवस्थित हुई तब पंडी जी ने पूछा, “अभी किस चीज की इच्छा हो रही थी आपको?”
“सांस लेने की।”
“ऐसे समय तुम्हें घर बंगला गाड़ी कोई सांस के बदले में दे रहा हो तो?”
“पगला गए हैं का पंडी जी? उस समय सांस के अलावा कोई और क्या चाहेगा?”
तब पंडी जी ने गम्भीर स्वर में कहा, “जब ऐसी ही आकुलता हमें केवल भगवान के लिए होगी तो भगवान स्वयं भागे चले आयेंगे। वे आपकी धीमी से धीमी पुकार भी सुन लेंगे, जैसे गजराज की पुकार पर उसको ग्राह से बचाने नंगे पैर ही श्रीकृष्ण भाग चले थे।”