महाकवि भवभूति :: एको रसः करुण एव ::लोकाराधन
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भवभूति चिन्तक- कवि तो थे ही |,
भवभूति ही थे , जिन्होंने एक मौलिक बात कही थी कि >>
एको रसः करुण एव निमित्तभेदाद्भिन्न: पृथक पृथगिव श्रयते विवर्तान् ।
आवर्त बुदबुदतरंगमयान्विकारान्नंभो यथा सलिलमेव हि तत्समग्रम् ।।
रस कितने हैं और प्रधान रस कौन सा है ,इसे लेकर अनेक आचार्यों ने अनेक बातें कहीं किन्तु महाकवि भवभूति ने बडे स्पष्ट शब्दों में कहा कि जिस प्रकार आवर्त- भंवर, बुदबुद्, तरंग आदि में परिवर्तित जल, एक जल ही तो है ,उसी प्रकार रस तो केवल एक ही है और वह है >करुण , प्रकारान्तर से वह करुण ही भिन्न-भिन्न रूपों मे प्रकट होता है या यों कहें कि चित्त द्रवीभूत होता है और वह निमित्त भेद से भिन्न-भिन्न मनोविकारों में परिवर्तित हो जाता है ।
लोकाराधन
महाकवि भवभूति ने लोकाराधन को इतना महत्व दिया कि उत्तररामचरित मेँ राम से कहलाया कि लोकाराधन में यदि मेरा व्यक्तिगत स्नेह ,मित्रता या दया या स्वयं सीता भी बाधा बनती है तो सीता को भी त्यागने में मुझे संकोच नहीं होगा >>>
स्नेहं दयां च सख्यं च यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकानां मुंचतो नास्ति मेँ व्यथा।
कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी
किन्तु भवभूति ने तिरस्कार भी बहुत सहा था ,जब उनकी अवज्ञा की गयी थी
तब उन्होंने कहा कि >>>
ये नाम केचिदिह न: प्रथयन्त्यवज्ञां , जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्न :।
उत्पत्स्यते मम तु कोपि समानधर्मा कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ।
~ [मालतीमाधव १-६]
वे तिरस्कार करने वाले कितना जानते हैं ?
किमपि !
ठीक है , मेरा लेखन उनके लिये नहीं है !
यह धरती बहुत बडी है , काल भी असीम है , कभी तो कोई मेरा समानधर्मा उत्पन्न होगा ,जो संवेदना से मेरी बात समझ सकेगा , जो मेरे विचार को आत्मसात कर सकेगा !