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पति का महत्व

एक युवती बगीचे में बहुत गुस्से में बैठी थी, पास ही एक बुजुर्ग बैठे थे।

उन्होंने उस परेशान युवती से पूछा क्या हुआ बेटी?
क्यों इतना परेशान हो?

युवती ने गुस्से में अपने पति की गलतियों के बारे में बताया।

बुजुर्ग ने मंद मंद मुस्कुराते हुए युवती से पूछा : बेटी क्या तुम बता सकती हो कि तुम्हारे घर का नौकर कौन है?

युवती ने हैरानी से पूछा, क्या मतलब?

बुजुर्ग ने कहा : तुम्हारे घर की सारी जरूरतों का ध्यान रखकर पूरा कौन करता है?

युवती : मेरे पति।

बुजुर्ग ने पूछा : तुम्हारे खाने पीने की,पहनने ओढ़ने की जरूरतों को कौन पूरा करता है?

युवती : मेरे पति।
बुजुर्ग : तुम्हे और बच्चों की किसी बात की कमी ना हो और तुम सबका भविष्य सुरक्षित रहे इसके लिए हमेशा चिंतित कौन रहता हैं?

युवती : मेरे पति।

बुजुर्ग ने फिर पूछा : सुबह से शाम तक कुछ रुपयों के लिए बाहर वालो की और अपने अधिकारियों की खरी खोटी हमेशा कौन सुनता है?

युवती : मेरे पति।
बुजुर्ग : परेशानी और गम में कौन साथ देता है?

युवती : मेरे पति।

बुजुर्ग : तुम लोगों के अच्छे जीवन और रहन सहन के लिए दूरदराज जाकर, सगे संबंधियों को….. यहां तक अपने मां बाप को भी छोड़कर घर से दूर नौकरी करने को कौन तैयार होता है?

युवती : मेरे पति।
बुजुर्ग : घर के गैस, बिजली पानी, मकान, मरम्मत एवं रखरखाव, सुख सुविधाओं, दवाईयों, किराना, मनोरंजन, बैंक, बीमा, अस्पताल, स्कूल, कॉलेज, पास पड़ोस, ऑफिस और ऐसी ही ना जाने कितनी सारी जिम्मेदारियों को एक साथ लेकर कौन चलता है?

युवती : मेरे पति।

बुजुर्ग : बीमारी में तुम्हारा ध्यान और सेवा कौन करता है?

युवती : मेरे पति।

बुजुर्ग बोले : एक बात और बताओ कि तुम्हारे पति इतना काम और सबका ध्यान रखते है, क्या कभी उसने तुमसे इस बात के पैसे लिए?

युवती : कभी नहीं।
इस बात पर बुजुर्ग बोले कि…पति की एक कमी तुम्हे नजर आ गई मगर उसकी इतनी सारी खूबियां तुम्हे कभी नजर नहीं आई?

आखिर पत्नी के लिए पति क्यों जरूरी है?

मानो या ना मानो जब तुम दुखी हो तो वो तुम्हे कभी अकेला नहीं छोड़ेगा।

वो अपने दुख अपने ही मन में रखता है, लेकिन तुम्हे नहीं बताता ताकि तुम दुखी ना हो। हर वक़्त हर दिन…तुम्हे कुछ अच्छी बाते सिखाने की कोशिश करता रहता है ताकि वो कुछ समय शांति के साथ घर पर वायतित कर सके और दिन भर की परेशानियों को भुला सके।

हर छोटी छोटी बात पर तुमसे झगड़ा तो कर सकता है, तुम्हे दो बाते बोल भी देगा, परन्तु किसी और को तुम्हारे लिए कभी कुछ नहीं बोलने देगा।

एक बात जान लो, पति ही हमेशा काम आयेगा, बाहर वाले सिर्फ सलाह दे सकते है या तुम्हारी शिकायते सुनकर सिर्फ बाते बनाएंगे।

पति ईश्वर का दिया एक विशेष उपहार है । इसलिए उसकी उपयोगिता जानो और उसकी देखभाल करो एवं उसे सम्मान दो।एक अच्छी हमसफ़र बनकर जीवन के पथ पर पग पग पर उसका साथ दो।

*ये शायद हर रिश्ते में सही है। हम सौ खूबियां नजर अंदाज करके कुछ गलतिया पकड़ कर बैठ जाते हैं, और इसी से रिश्ते दरकने लगते हैं। हो सके तो खूबियां देखने की कोशिश कीजिए, शायद वो गलतियों पर भारी पड़ें *🙏

कशी गुप्ता

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नंदा नाई

एक नाई जिसका नाम नंदा था। वह एक कृष्ण भक्त था। सुबह उठकर कृष्ण की सेवा करता। उन्हें भोग लगाता। कीर्तन करता। फिर अपने काम पर निकलता था। सबसे पहले राजा की हजामत करता था क्योंकि राजा को दरबार जाना होता था।

राजा की हजामत के बाद नंदा नगर के लिए निकलता था। जहाँ उसे जीवन यापन के लिए अन्य साधन मिल जाते।

एक दिन कृष्ण सेवा के बाद कीर्तन करते करते नंदा कृष्ण के ध्यान में खो गया।

पत्नी ने देर होते देख और राजा के क्रोध की बात सोचकर नंदा को झंझोरते हुए कहा। “अजी सुनते हो” – राजा के दरबार में जाने का समय हो गया है। राजा की हजामत करनी है अन्यथा राजा क्रोधित हो जायेंगे।

नंदा ने जल्दी जल्दी अपना सामान समेटा और महल की ओर दौड़ा। जब वह महल पहुंचा तो वहां से राजा दरबार के लिए निकल रहे थे। राजा ने नंदा को देखकर कहा अभी-अभी तो हजामत कर गये थे, क्या तुम्हे कोई परेशानी है, या किसी चीज आवश्यकता है? नंदा ने कहा जी नहीं, मुझे लगा मैं शायद कुछ भूल गया हूँ। लेकिन अंदर ही अंदर उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।

शाम को नंदा फिर राजा के दरबार में अपनी उत्कंठा शांत करने के उद्देश्य से पहुंचा। पर राजा की बात सुन कर चौंक गया।

राजा ने कहा-“अरे नंदा आज तुम दो बार हजामत बनाओगे क्या?”

सुबह जो तुमने हजामत बनाई और सेवा की उससे मैं अभी तक आनंदित हूँ। आज तक इतना आनंद नहीं मिला।

ये सुन कर नंदा नाई रो पड़ा और रोते हुए बोला – ” हे राजन आप बहुत भाग्यवान हैं। मैं जिसकी भक्ति में दिन रात लगा रहता हूँ। मेरे उस प्यारे ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए पर अपने भक्त की लाज बचाने के लिए स्वयं आपकी हजामत बना के चले गए. मैं तो अभी आ रहा हूँ। सुबह से प्रभु के ध्यान में था। जब ध्यान टुटा तो आपके डर वश् अब आया हूँ।

और ये सोच कर शर्मिंदा हूँ कि भगवान ने मुझे बचाने के लिए खुद नाई का रूप धार लिया।

यह सुनकर पूरा दरबार भक्तिमय हो उठा और भक्त के आगे नतमस्तक हो गया और कह उठा भक्तवत्सल भगवान की जय।

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माता और हम

एक छोटा बच्चा माँ की उंगुली पकड़कर मेले में जा रहा था | एक जगह रंग-बिरंगी मिठाई देखकर बच्चे ने उसकी तरफ उंगुली उठायी पर माँ उसे लेकर आगे बढ़ गयी | बच्चा पलट- पलट कर घिसटता हुआ मिठाई की तरफ देखता रहा | ऐसे ही बच्चे ने गुब्बारे को देखकर माँ को लेने को कहा माँ ने मना कर दिया और माँ जल्दी-जल्दी आगे चलने लगी पर बच्चा धीमे-धीमे लिथड़ता हुआ बार-बार पीछे देखता हुआ माँ के साथ चल रहा था |

मेले में एक जगह बंदर का खेल दिखा रहा था | अबकी बच्चा माँ से हाथ छुड़ाकर खेल देखने को भाग गया | जब खेल खत्म हुआ तब उसे माँ की याद आयी लेकिन उसे माँ दूर-दूर तक न दिखी तो वो रोने लगा | एक दयालु आदमी ने आकर उसे गोद में उठा लिया और चुप कराने की कोशिश करने लगा | उसने बच्चे को गुब्बारे देने का प्रयास किया बच्चे ने मुँह घुमा लिया | आदमी ने मिठाई देनी चाही पर बच्चे ने नही ली वो रोता ही जा रहा था | उसे अब सिर्फ माँ चाहिये थी,मेले की किसी भी चीज में उसकी ऱुचि नही रह गयी |

इसी तरह हम लोग भी परमात्मा से विमुख होकर संसार रूपी मेले में मगन हो जाते है और अंत समय जब बुढ़ापा आता है या मेले को उपभोग करने की शक्ति और योग्यता नहीं रह जाती तब उसकी याद आती है | जब मेले के साथी साथ छोड़ने लगते है तब उस परम मित्र का ख्याल आता है लेकिन तब तक शरीर में उसे प्राप्त करने की शक्ति नहीं रह जाती,बहुत देर हो जाती है |

इसलिये देर न करो,चल पड़ो उससे मिलने के लिये ,पता नहीं कब इस जीवन की शाम हो जाये ,इससे पहले माता के धाम की खबर मिल जाये |

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कौन थे भगवान परशुराम

प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चारत् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वआसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपनी पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्तिे से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे – रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वामनस और परशुराम।

परशुराम को उन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त “शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र” भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-“ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।” वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।

परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस मे कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पीछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया। और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।

यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।

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ईश्वर बहुत दयालु है

एक राजा का एक विशाल फलों का बगीचा था. उसमें तरह-तरह के फल होते थे और उस बगीचा की सारी देखरेख एक किसान अपने परिवार के साथ करता था. वह किसान हर दिन बगीचे के ताज़े फल लेकर राजा के राजमहल में जाता था.

एक दिन किसान ने पेड़ों पे देखा नारियल अमरुद, अनार, और अंगूर पक कर तैयार हो रहे हैं, किसान सोचने लगा आज कौन सा फल महाराज को अर्पित करूँ, फिर उसे लगा अँगूर करने चाहिये क्योंकि वो तैयार हैं इसलिये उसने अंगूरों की टोकरी भर ली और राजा को देने चल पड़ा! किसान राजमहल में पहुचा, राजा किसी दूसरे ख्याल में खोया हुआ था और नाराज भी लग रहा था किसान ने रोज की तरह मीठे रसीले अंगूरों की टोकरी राजा के सामने रख दी और थोड़े दूर बेठ गया, अब राजा उसी खयालों-खयालों में टोकरी में से अंगूर उठाता एक खाता और एक खींच कर किसान के माथे पे निशाना साधकर फेंक देता।

राजा का अंगूर जब भी किसान के माथे या शरीर पर लगता था. किसान कहता था, ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’ राजा फिर और जोर से अंगूर फेकता था किसान फिर वही कहता था ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’

थोड़ी देर बाद राजा को एहसास हुआ की वो क्या कर रहा है और प्रत्युत्तर क्या आ रहा है वो सम्भल कर बैठा , उसने किसान से कहा, मै तुझे बार-बार अंगूर मार रहा हूँ , और ये अंगूर तुंम्हे लग भी रहे हैं, फिर भी तुम यह बार-बार क्यों कह रहे हो की ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’

किसान ने नम्रता से बोला, महाराज, बागान में आज नारियल, अनार और अमरुद भी तैयार थे पर मुझे भान हुआ क्यों न आज आपके लिये अंगूर् ले चलूं लाने को मैं अमरुद और अनार भी ला सकता था पर मैं अंगूर लाया। यदि अंगूर की जगह नारियल, अनार या बड़े बड़े अमरुद रखे होते तो आज मेरा हाल क्या होता ? इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि

‘ईश्वर बड़ा दयालु है’!!

इसी प्रकार ईश्वर भी हमारी कई मुसीबतों को बहुत हल्का कर के हमें उबार लेता है पर ये तो हम ही नाशुक्रे हैं जो शुक्रिया न करते हुए उसे ही गुनहगार ठहरा देते हैं, मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ , मेरा क्या कसूर, आज जो भी फसल हम काट रहे हैं ये दरअसल हमारी ही बोई हुई है, बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होये।। और बबूल से अगर आम न मिला तो गुनहगार भी हम नहीं हैं , इसका भी दोष हम किसी और पर मढेंगे ,, कोई और न मिला तो ईश्वर तो है ही ।

आज हमारे पास जो कुछ भी है अगर वास्तविकता के धरातल पर खड़े होकर देखेंगे तो वास्तव में हम इसके लायक भी नही हैं पर उसके बावजूद मेरे ईश्वर ने मुझे जरूरत से ज़्यादा दिया है और बजाय उसका शुक्रिया करने के हम उसे हमेशा दोष ही देते रहते हैं। पर वो तो हमारा पिता है हमारी माता है किसी भी बात का कभी बुरा नहीं मानता और अपनी नेमतें हम पर बरसाता रहता है। अगर एक बार उसकी बख्शीशों की तरफ देखेंगे तो सारी उम्र के भी शुक्राने कम पड़ेंगे.

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एक राजा ने यह ऐलान करवा दिया कि कल सुबह जब मेरे महल का मुख्य दरवाज़ा खोला जायेगा तब जिस शख़्स ने भी महल में जिस चीज़ को हाथ लगा दिया वह चीज़ उसकी हो जाएगी।

इस ऐलान को सुनकर सब लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं तो सबसे क़ीमती चीज़ को हाथ लगाऊंगा।

कुछ लोग कहने लगे मैं तो सोने को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग चांदी को तो कुछ लोग कीमती जेवरात को, कुछ लोग घोड़ों को तो कुछ लोग हाथी को, कुछ लोग दुधारू गाय को हाथ लगाने की बात कर रहे थे।

जब सुबह महल का मुख्य दरवाजा खुला और सब लोग अपनी अपनी मनपसंद चीज़ों के लिये दौड़ने लगे। सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद चीज़ों को हाथ लगा दूँ ताकि वह चीज़ हमेशा के लिए मेरी हो जाए।

राजा अपनी जगह पर बैठा सबको देख रहा था और अपने आस-पास हो रही भाग दौड़ को देखकर मुस्कुरा रहा था।

उसी समय उस भीड़ में से एक छोटी बच्ची राजा की तरफ बढ़ने लगी और धीरे-धीरे चलते हुए राजा के पास पहुँच कर उसने राजा को छू लिया।

राजा को हाथ लगाते ही राजा उसका हो गया और राजा की हर चीज भी उसकी हो गयी।

जिस तरह राजा ने उन लोगों को मौका दिया और उन लोगों ने गलतियां की।

ठीक इसी तरह सारी दुनिया का मालिक भी हम सबको हर रोज़ मौक़ा देता है, लेकिन अफ़सोस हम लोग भी हर रोज़ गलतियां करते है।

हम मालिक को पाने की बजाए मालिक की बनाई हुई दुनियां की चीजों की कामना करते है। लेकिन कभी भी हम लोग इस बात पर गौर नहीं करते कि क्यों न दुनिया के बनाने वाले मालिक को पा लिया जाए। अगर मालिक हमारा हो गया तो उसकी बनाई हुई हर चीज भी हमारी हो जाएगी ।

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संतों की एक सभा चल रही थी। किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संत जन जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें।

संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था. उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे।

वह सोचने लगा- अहा ! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है !

एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा. ऐसी किस्मत किसी किसी की ही होती है।

घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा था। किसी काम का नहीं था. कभी नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है।

फिर एक दिन एक कुम्हार आया. उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और गधे पर लादकर अपने घर ले गया। वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा. फिर पानी डालकर गूंथा. चाकपर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा. फिर थापी मार-मारकर बराबर किया। बात यहीं नहीं रूकी. उसके बाद आंवे के आग में झोंक दिया जलने को।

इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेज दिया. वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं ?

ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये ! मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था।

रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो. मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है ! भगवान ने कृपा करने की भी योजना बनाई है यह बात थोड़े ही मालूम पड़ती थी !

किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया. तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी भगवान् की कृपा थी।

उसका वह गूंथना भी भगवान् की कृपा थी। आग में जलाना भी भगवान् की कृपा थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भगवान् की कृपा ही थी। अब मालूम पड़ा कि सब भगवान् की कृपा ही कृपा थी !

परिस्थितियां हमें तोड़ देती हैं. विचलित कर देती हैं- इतनी विचलित की भगवान के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं क्यों हम सबमें शक्ति नहीं होती ईश्वर की लीला समझने की, भविष्य में क्या होने वाला है उसे देखने की।

इसी नादानी में हम ईश्वर द्वारा कृपा करने से पूर्व की जा रही तैयारी को समझ नहीं पाते. बस कोसना शुरू कर देते हैं कि सारे पूजा-पाठ, सारे जतन कर रहे हैं फिर भी ईश्वर हैं कि प्रसन्न होने और अपनी कृपा बरसाने का नाम ही नहीं ले रहे।

पर हृदय से और शांत मन से सोचने का प्रयास कीजिए, क्या सचमुच ऐसा है या फिर हम ईश्वर के विधान को समझ ही नहीं पा रहे ?

आप अपनी गाड़ी किसी ऐसे व्यक्ति को चलाने को नहीं देते जिसे अच्छे से ड्राइविंग न आती हो तो फिर ईश्वर अपनी कृपा उस व्यक्ति को कैसे सौंप सकते हैं जो अभी मन से पूरा पक्का न हुआ हो। कोई साधारण प्रसाद थोड़े ही है ये, मन से संतत्व का भाव लाना होगा।

ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा की घड़ी में भी हम सत्य और न्याय के पथ से विचलित नहीं होते तो ईश्वर की अनुकंपा होती जरूर है।

कुछ पूर्वजन्मों के कर्मों से भी तय होता है कि ईश्वर की कृपादृष्टि में समय कितना लगना है. घड़े की तरह परीक्षा की अवधि में जो सत्यपथ पर टिका रहता है वह अपना जीवन सफल कर लेता है।। ॐ।।

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तांबे का सिक्का

एक राजा का जन्मदिन था। सुबह जब वह घूमने निकला, तो उसने तय किया कि वह रास्ते मे मिलने वाले पहले व्यक्ति को पूरी तरह खुश व संतुष्ट करेगा। उसे एक भिखारी मिला। भिखारी ने राजा से भीख मांगी, तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया।

सिक्का भिखारी के हाथ से छूट कर नाली में जा गिरा। भिखारी नाली में हाथ डाल तांबे का सिक्का ढूंढ़ने लगा। राजा ने उसे बुला कर दूसरा तांबे का सिक्का दिया। भिखारी ने खुश होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढ़ने लगा। राजा को लगा की भिखारी बहुत गरीब है, उसने भिखारी को चांदी का एक सिक्का दिया। भिखारी राजा की जय जयकार करता फिर नाली में सिक्का ढूंढ़ने लगा। राजा ने अब भिखारी को एक सोने का सिक्का दिया।भिखारी खुशी से झूम उठा और वापस भाग कर अपना हाथ नाली की तरफ बढ़ाने लगा। राजा को बहुत खराब लगा। उसे खुद से तय की गयी बात याद आ गयी कि पहले मिलने वाले व्यक्ति को आज खुश एवं संतुष्ट करना है।

उसने भिखारी को बुलाया और कहा कि मैं तुम्हें अपना आधा राज-पाट देता हूं, अब तो खुश व संतुष्ट हो ? भिखारी बोला, मैं खुश और संतुष्ट तभी हो सकूंगा जब नाली में गिरा तांबे का सिक्का मुझे मिल जायेगा।

हमारा हाल भी उस भिखारी जैसा ही है। हमें भगवान ने आध्यात्मिकता रूपी अनमोल खजाना दिया है और हम उसे भूलकर संसार रूपी नाली में तांबे के सिक्के निकालने के लिए जीवन गंवाते जा रहे है।

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मानसी पूजा की रोचक कथा


मानसी पूजा की रोचक कथा”

एक धनवान कंजूस व्यक्ति गुंसाईजी के पास गया। उसने गुंसाईंजी से कहा–महाराज! बालकृष्ण की कोई ऐसी सेवा बतलाइए जिसमें एक पैसे का भी खर्च न हो। गुंसाईंजी ने कहा–तुम अपने इष्टदेव बालकृष्ण की मानसी सेवा करो। इसमें तुम्हें एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ेगा। भगवान को स्नान कराना, वस्त्र पहनाना, माला अर्पण कर भोग लगाना। सेवा मन से ही करनी है, अत: कंजूसी से नहीं; दिल खोलकर पूरे वैभव के साथ करना।

गुंसाईंजी के बताये अनुसार कंजूस व्यक्ति हर रोज सुबह चार बजे उठकर मानसी सेवा करने लगा। इस तरह बारह वर्ष व्यतीत हो गए। अब उसे सेवा में बड़ा आनन्द आने लगा। अब तो सभी वस्तुएं उसे प्रत्यक्ष दिखाई देने लगीं–बालकृष्ण हँसते हुए मुझे देखते हैं। ठाकुरजी प्रत्यक्ष होकर भोग अरोग रहे हैं–ऐसा अनुभव भी उसे होने लगा।

एक बार ठाकुरजी की सेवा करते समय वह मन से ही दूध लेकर आया, गर्म किया और दूध में शक्कर डाली–शक्कर ज्यादा पड़ गई। उस व्यक्ति की कंजूस प्रकृति थी। सेवा में तन्मयता तो हुई पर दूध में शक्कर ज्यादा पड़ गई है–ऐसा सोचकर दूध में पड़ी अधिक शक्कर निकाल लूं, दूसरे दिन काम में आ जायेगी, वह शक्कर निकालने को तत्पर हुआ। वहां न दूध है, न शक्कर, न ही कटोरा। पर मानसी सेवा में तन्मय होने के कारण उसे सब कुछ का आभास हो रहा है। भगवान को भी मजाक करने का मन हुआ। उन्होंने देखा–यह व्यक्ति मानसी सेवा कर रहा है, एक पैसे का भी खर्च नहीं कर रहा है, फिर भी अधिक शक्कर पड़ी है तो उसे निकालने जा रहा है। बालकृष्ण घुटनों के बल चलते हुए आए और उसका हाथ पकड़ लिया–’अरे! शक्कर ज्यादा पड़ गई है तो तुम्हारा क्या जाता है? तूने कहां पैसे खर्च किए हैं जो इतनी माथापच्ची करता है! तुम तो मानसी सेवा कर रहे हो। एक पैसे का भी खर्च नहीं है।’ श्रीकृष्ण का स्पर्श हुआ और उसकी गति ही बदल गई और वह सच्चा वैष्णव बन गया।

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मृत्यु के साथ रिश्ते मिट जाते है..!


मृत्यु के साथ रिश्ते मिट जाते है..!

एक बार देवर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ कहीं जा रहे थे। गर्मियों के दिन थे।

एक प्याऊ से उन्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे।इतने में एक कसाई वहाँ से 25-30 बकरों को लेकर गुजरा।

उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मोठ खाने लपक पड़ा। उस दुकान पर नाम लिखा था – ‘शगालचंद सेठ।’

दुकानदार का बकरे पर ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो-चार घूँसे मार दिये।

बकरा ‘बैंऽऽऽ…. बैंऽऽऽ…’ करने लगा और उसके मुँह में से सारे मोठ गिर पड़े।

फिर कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहाः “जब इस बकरे को तू हलाल करेगा तो इसकी मुंडी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मोठ खा गया है।”

देवर्षि नारद ने जरा-सा ध्यान लगाकर देखा और जोर-से हँस पड़े। तुम्बरू पूछने लगाः “गुरुजी ! आप क्यों हँसे ?

उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप दुःखी हो गये थे, किंतु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े। इसमें क्या रहस्य है ?”

नारद जी ने कहाः “छोड़ो भी…. यह तो सब कर्मों का फल है, छोड़ो।”

“नहीं गुरुजी ! कृपा करके बताइये।”

“इस दुकान पर जो नाम लिखा है ‘शगालचंद सेठ’ – वह शगालचंद सेठ स्वयं यह बकरा होकर आया है।

यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है। सेठ मर कर बकरा हुआ है और इस दुकान से अपना पुराना सम्बन्ध समझकर इस पर मोठ खाने गया।

उसके बेटे ने ही उसको मारकर भगा दिया। मैंने देखा कि 30 बकरों में से कोई दुकान पर नहीं गया फिर यह ही क्यों गया ? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका पुराना सम्बंध था।

जिस बेटे के लिए शगालचंद सेठ ने इतना कमाया था, वही बेटा मोठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और गलती से खा लिये हैं तो मुंडी माँग रहा है पिता की।

इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही हैं कि अपने – अपने कर्मों का फल तो प्रत्येक प्राणी को भोगना ही पड़ता है

और इस जन्म के रिश्ते – नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता।”

जय जय नारायण हरि