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सबसे अच्छी सजा

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पुराणों में राम के बारे में एक बहुत ही सुंदर कहानी है।

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प्राचीन काल में इस देश के उत्तरी भाग में एक बहुत प्रसिद्ध मठ था जिसे कालिंजर के नाम से जाना जाता था।

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कालिंजर मठ उस समय का एक प्रसिद्ध मठ था। यह रामायण काल से पहले की बात है। रामायण का मतलब है, लगभग 5000 साल पहले। राम के आने से पहले भी कालिंजर मठ का खूब नाम था।

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राम को बहुत न्यायप्रिय और कल्याणकारी राजा माना जाता था। वह हर दिन दरबार में बैठकर लोगों की समस्याएं हल की कोशिश करते थे।

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एक दिन शाम को, जब दिन ढल रहा था, उन्हें दरबार की कार्यवाही समेटनी थी। जब वह सभी लोगों की समस्याएं सुन चुके थे, तो उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण, जो उनके परम भक्त थे, से बाहर जाकर देखने को कहा कि कोई और तो इंतजार नहीं कर रहा।

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लक्ष्मण ने बाहर जाकर चारो ओर देखा और वापस आकर बोले, ‘कोई नहीं है। आज का हमारा काम अब खत्म हो गया है।’ राम बोले, ‘जाकर देखो, कोई हो सकता है।’

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यह थोड़ी अजीब बात थी, लक्ष्मण अभी-अभी बाहर से देख कर आ चुके थे, मगर वह फिर से जाकर देखने के लिए कह रहे हैं। इसलिए लक्ष्मण फिर से गए और चारो ओर देखा, वहां कोई नहीं था।

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वह अंदर आने ही वाले थे, तभी उनकी नजर एक कुत्ते पर पड़ी जो बहुत उदास चेहरा लिए बैठा था और उसके सिर पर एक चोट थी।

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तब उन्होंने कुत्ते को देखा और उससे पूछा, ‘क्या तुम किसी चीज का इंतजार कर रहे हो ?’ कुत्ता बोलने लगा, ‘हां, मैं राम से न्याय चाहता हूं।’ तो लक्ष्मण बोले, ‘तुम अंदर आ जाओ’ और वह उसे दरबार में ले गए।

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कुत्ते ने आकर राम को प्रणाम किया और बोलने लगा। वह बोला, ‘हे राम, मैं न्याय चाहता हूं। मेरे साथ बेवजह हिंसा की गई है।

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मैं चुपचाप बैठा हुआ था, सर्वथासिद्ध नाम का यह व्यक्ति आया और बिना किसी वजह के मेरे सिर पर छड़ी से वार किया। मैं तो बस चुपचाप बैठा हुआ था। मैं न्याय चाहता हूं।’

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राम ने तत्काल सर्वथासिद्ध को बुलवा भेजा जो एक भिखारी था। उसे दरबार में लाया गया। राम ने पूछा, ‘तुम्हारी कहानी क्या है ? यह कुत्ता कहता है कि तुमने बिना वजह उसे मारा।’

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सर्वथासिद्ध बोला, ‘हां, मैं इस कुत्ते का अपराधी हूं। मैं भूख से बौखला रहा था, मैं गुस्से में था, निराश था।

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यह कुत्ता मेरे रास्ते में बैठा हुआ था इसलिए मैंने बेवजह निराशा और गुस्से में इस कुत्ते के सिर पर मार दिया। आप मुझे जो भी सजा देना चाहें, दे सकते हैं।’

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फिर राम ने यह बात अपने मंत्रियों और दरबारियों के सामने रखी और बोले, ‘आप लोग इस भिखारी के लिए क्या सजा चाहते हैं ?’

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उन सब ने इस बारे में सोचकर कहा, ‘एक मिनट रुकिए, यह बहुत ही पेचीदा मामला है। पहले तो इस मामले में एक इंसान और एक कुत्ता शामिल हैं,

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इसलिए हम सामान्य तौर पर जिन कानूनों को जानते हैं, वे इस पर लागू नहीं होंगे। इसलिए राजा होने के नाते यह आपका अधिकार है कि आप फैसला सुनाएं।’

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फिर राम ने कुत्ते से पूछा, ‘तुम क्या कहते हो, क्या तुम्हारे पास कोई सुझाव है ?’ कुत्ता बोला, ‘हां, मेरे पास इस व्यक्ति के लिए एक उपयुक्त सजा है।’

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‘वह क्या, बताओ ?’ तो कुत्ता बोला, ‘इसे कालिंजर मठ का मुख्य महंत बना दीजिए।’

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राम ने कहा, ‘तथास्तु।’ और भिखारी को प्रसिद्ध कालिंजर मठ का मुख्य महंत बना दिया गया। राम ने उसे एक हाथी दिया, भिखारी इस सजा से बहुत प्रसन्न होते हुए हाथी पर चढ़कर खुशी-खुशी मठ चला गया।

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दरबारियों ने कहा, ‘यह कैसा फैसला है ? क्या यह कोई सजा है ? वह आदमी तो बहुत खुश है।’

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फिर राम ने कुत्ते से पूछा, ‘क्यों नहीं तुम ही इसका मतलब बताते ?’

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कुत्ते ने कहा, ‘पूर्वजन्म में मैं कालिंजर मठ का मुख्य महंत था और मैं वहां इसलिए गया था क्योंकि मैं अपने आध्यात्मिक कल्याण और उस मठ के लिए सच्चे दिल से समर्पित था, जिसकी बहुत से दूसरे लोगों के आध्यात्मिक कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका थी।

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मैं वहां खुद के और हर किसी के आध्यात्मिक कल्याण के संकल्प के साथ वहां गया और मैंने इसकी कोशिश भी की। मैंने अपनी पूरी कोशिश की।

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मगर जैसे-जैसे दिन बीते, धीरे-धीरे दूसरे छिटपुट विचारों ने मुझे प्रभावित करना शुरू कर दिया। मुख्य महंत के पद के साथ आने वाले नाम और ख्याति ने कहीं न कहीं मुझ पर असर डालना शुरू कर दिया।

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कई बार मैं नहीं, मेरा अहं काम करता था। कई बार मैं लोगों की सामान्य स्वीकृति का आनंद उठाने लगता था।

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लोगों ने मुझे एक धर्मगुरु की तरह देखना शुरू कर दिया। अपने अंदर मैं जानता था कि मैं धर्मगुरु नहीं हूं मगर मैंने किसी धर्मगुरु की तरह बर्ताव करना शुरू कर दिया और उन सुविधाओं की मांग करना शुरू कर दिया, जो आम तौर किसी धर्मगुरु को मिलनी चाहिए।

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मैंने अपने संपूर्ण रूपांतरण की कोशिश नहीं की मगर उसका दिखावा करना शुरू कर दिया और लोगों ने भी मेरा समर्थन किया।

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ऐसी चीजें होती रहीं और धीरे-धीरे अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए मेरी प्रतिबद्धता घटने लगी और मेरे आस-पास के लोग भी कम होने लगे।

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कई बार मैंने खुद को वापस लाने की कोशिश की मगर अपने आस-पास जबर्दस्त स्वीकृति को देखते हुए मैं कहीं खुद को खो बैठा।

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इस भिखारी सर्वथासिद्ध में गुस्सा है, अहं है, वह कुंठित भी है, इसलिए मैं जानता हूं कि वह भी खुद को वैसा ही दंड देगा, जैसा मैंने दिया था।

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इसलिए यह उसके लिए सबसे अच्छी सजा है, उसे कालिंजर मठ का मुख्य महंत बनने दीजिए।’

जय जय श्री राम

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फूटा घड़ा

बहुत समय पहले की बात है , किसी गाँव में एक किसान रहता था . वह रोज़ भोर में उठकर दूर झरनों से स्वच्छ पानी लेने जाया करता था_.

इस काम के लिए वह अपने साथ दो बड़े घड़े ले जाता था , जिन्हें वो डंडे में बाँध कर अपने कंधे पर दोनों ओर लटका लेता था।

उनमे से एक घड़ा कहीं से फूटा हुआ था ,और दूसरा एक दम सही था . इस वजह से रोज़ घर पहुँचते -पहुचते किसान के पास डेढ़ घड़ा पानी ही बच पाता था .ऐसा दो सालों से चल रहा था_.

सही घड़े को इस बात का घमंड था कि वो पूरा का पूरा पानी घर पहुंचता है और उसके अन्दर कोई कमी नहीं है , वहीँ दूसरी तरफ फूटा घड़ा इस बात से शर्मिंदा रहता था कि वो आधा पानी ही घर तक पंहुचा पाता है और किसान की मेहनत बेकार चली जाती है

फूटा घड़ा ये सब सोच कर बहुत परेशान रहने लगा और एक दिन उससे रहा नहीं गया उसने किसान से कहा ,“ मैं खुद पर शर्मिंदा हूँ और आपसे क्षमा मांगना चाहता हूँ ?”_

“क्यों ? “ किसान ने पूछा , “ तुम किस बात से शर्मिंदा हो ?”__

“शायद आप नहीं जानते पर मैं एक जगह से फूटा हुआ हूँ , और पिछले दो सालों से मुझे जितना पानी घर पहुँचाना चाहिए था बस उसका आधा ही पहुंचा पाया हूँ , मेरे अन्दर ये बहुत बड़ी कमी है , और इस वजह से आपकी मेहनत बर्वाद होती रही है .”, फूटे घड़े ने दुखी होते हुए कहा.

किसान को घड़े की बात सुनकर थोडा दुःख हुआ और वह बोला , “ कोई बात नहीं , मैं चाहता हूँ कि आज लौटते वक़्त तुम रास्ते में पड़ने वाले सुन्दर फूलों को देखो .”_

घड़े ने वैसा ही किया , वह रास्ते भर सुन्दर फूलों को देखता आया , ऐसा करने से उसकी उदासी कुछ दूर हुई पर घर पहुँचते – पहुँचते फिर उसके अन्दर से आधा पानी गिर चुका था, वो मायूस हो गया और किसान से क्षमा मांगने लगा .

किसान बोला ,” शायद तुमने ध्यान नहीं दिया पूरे रास्ते में जितने भी फूल थे वो बस तुम्हारी तरफ ही थे , सही घड़े की तरफ एक भी फूल नहीं था . ऐसा इसलिए क्योंकि मैं हमेशा से तुम्हारे अन्दर की कमी को जानता था , और मैंने उसका लाभ उठाया . मैंने तुम्हारे तरफ वाले रास्ते पर रंग -बिरंगे फूलों के बीज बो दिए थे , तुम रोज़ थोडा-थोडा कर के उन्हें सींचते रहे और पूरे रास्ते को इतना खूबसूरत बना दिया . आज तुम्हारी वजह से ही मैं इन फूलों को भगवान को अर्पित कर पाता हूँ और अपना घर सुन्दर बना पाता हूँ . तुम्ही सोचो अगर तुम जैसे हो वैसे नहीं होते तो भला क्या मैं ये सब कुछ कर पाता ?”_

हम सभी के अन्दर कोई ना कोई कमी होती है , पर यही कमियां हमें अनोखा बनाती हैं . उस किसान की तरह हमें भी हर किसी को वो जैसा है वैसे ही स्वीकारना चाहिए और उसकी अच्छाई की तरफ ध्यान देना चाहिए, और जब हम ऐसा करेंगे तब “फूटा घड़ा” भी “अच्छे घड़े” से मूल्यवान हो जायेगा

अपनी कमजोरी में अपना बल छुपा है

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दौड़

एक दस वर्षीय लड़का रोज अपने पिता के साथ पास की पहाड़ी पर सैर को जाता था।

एक दिन लड़के ने कहा, “पिताजी चलिए आज हम दौड़ लगाते हैं, जो पहले चोटी पे लगी उस झंडी को छू लेगा वो रेस जीत जाएगा!”

पिताजी तैयार हो गए।

दूरी काफी थी, दोनों ने धीरे-धीरे दौड़ना शुरू किया।

कुछ देर दौड़ने के बाद पिताजी अचानक ही रुक गए।

“क्या हुआ पापा, आप अचानक रुक क्यों गए, आपने अभी से हार मान ली क्या?”, लड़का मुस्कुराते हुए बोला।

“नहीं-नहीं, मेरे जूते में कुछ कंकड़ पड़ गए हैं, बस उन्ही को निकालने के लिए रुका हूँ।”, पिताजी बोले।

लड़का बोला, “अरे, कंकड़ तो मेरे भी जूतों में पड़े हैं, पर अगर मैं रुक गया तो रेस हार जाऊँगा…”, और ये कहता हुआ वह तेजी से आगे भागा।

पिताजी भी कंकड़ निकाल कर आगे बढे, लड़का बहुत आगे निकल चुका था, पर अब उसे पाँव में दर्द का एहसास हो रहा था, और उसकी गति भी घटती जा रही थी। धीरे-धीरे पिताजी भी उसके करीब आने लगे थे।

लड़के के पैरों में तकलीफ देख पिताजी पीछे से चिल्लाये,” क्यों नहीं तुम भी अपने कंकड़ निकाल लेते हो?”

“मेरे पास इसके लिए टाइम नहीं है !”, लड़का बोला और दौड़ता रहा।

कुछ ही देर में पिताजी उससे आगे निकल गए।

चुभते कंकडों की वजह से लड़के की तकलीफ बहुत बढ़ चुकी थी और अब उससे चला नहीं जा रहा था, वह रुकते-रुकते चीखा, “पापा, अब मैं और नहीं दौड़ सकता!”

पिताजी जल्दी से दौड़कर वापस आये और अपने बेटे के जूते खोले, देखा तो पाँव से खून निकल रहा था। वे झटपट उसे घर ले गए और मरहम-पट्टी की।

जब दर्द कुछ कम हो गया तो उन्होंने ने समझाया,” बेटे, मैंने आपसे कहा था न कि पहले अपने कंकडों को निकाल लो फिर दौड़ो।”

“मैंने सोचा मैं रुकूंगा तो रेस हार जाऊँगा !”,बेटा बोला।

“ ऐसा नही है बेटा, अगर हमारी लाइफ में कोई प्रॉब्लम आती है तो हमे उसे ये कह कर टालना नहीं चाहिए कि अभी हमारे पास समय नहीं है। दरअसल होता क्या है, जब हम किसी समस्या की अनदेखी करते हैं तो वो धीरे-धीरे और बड़ी होती जाती है और अंततः हमें जितना नुक्सान पहुंचा सकती थी उससे कहीं अधिक नुक्सान पहुंचा देती है। तुम्हे पत्थर निकालने में मुश्किल से 1 मिनट का समय लगता पर अब उस 1 मिनट के बदले तुम्हे 1 हफ्ते तक दर्द सहना होगा। “ पिताजी ने अपनी बात पूरी की।

मित्रों, हमारे जीवन में ऐसे तमाम कंकडों से भवा है, कभी हम अपने कर्ज को लेकर परेशान होते हैं तो कभी हमारे रिश्तों में कडवाहट आ जाती है तो कभी हम साथ करने वाले महाविद्यालयों से समस्या होती है।

शुरू में ये समस्याएं छोटी जान पड़ती है और हम इन पर बात करने या इनका समाधान खोजने से बचते हैं, पर धीरे-धीरे इनका रूप बड़ा हो जाता है… कोई उधार जिसे हम हज़ार रुपये देकर चुका सकते थे उसके लिए अब पाँच हजार रूपये चाहिए होते हैं… रिश्ते की जिस कड़वाहट को हम एक सॉरी से दूर कर सकते थे वो अब टूटने की कगार पर आ जाता है और एक छोटी सी मीटिंग से हम अपने कलीग से जो भ्रम ख़त्म कर सकते थे वो एक राजनितिक द्रोह में बदल जाता है।

समस्याओं को तभी पकडिये जब वो छोटी हैं वर्ना देरी करने पर वे उन कंकडों की तरह आपका भी खून बहा सकती हैं

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भाग्य का बीज पुरुषार्थ

सकडाल पुत्र मिट्टी के बर्तन बनाया और बेचा करता था। नगर के बाहर से वह मिट्टी खोद-खोद कर लाता और उसमें पानी मिला कर रोंध कर खिलौने बनाने के लिए मिट्टी तैयार करता था। उसका यह कार्य काफी अच्छा चलता था।

जमा जमाया व्यवसाय था- इसलिए सकडाल पुत्र यह मानने लगा था कि यह सब भाग्य का खेल है। वह नहीं जानता था कि उसके पूर्वजों को यह व्यवसाय जमाने में कितनी मेहनत करनी पड़ी थी। वह तो यही समझता था कि सब नियतिवश होता है और यह धारणा बनने के कारण वह धीरे-धीरे अकर्मण्य होता गया।

भाग्यवाद के पोषक और महावीर स्वामी के प्रतिद्वन्द्वी गोशालक का भी वह अनुयायी बना और फिर तो एकदम वह आलसी बन गया और जब वह अकर्मण्य होने लगा तो उसका काम भी मन्द चलने लगा। व्यापार में भी घाटा होने लगा। घाटा होते देख कर सकडाल पुत्र घबराया यह मान्यता तो उसकी नस-नस में भर गयी थी कि जो कुछ होता है वह नियतिवश ही होता है- अतः वह एक तरह से परास्त होकर बैठ गया और किंकर्तव्यविमूढ़ रहने लगा।

एक दिन ग्राम में महावीर स्वामी का आगमन हुआ। उसने सोचा क्यों न महावीर के पास जाकर आशीर्वाद प्राप्त किया जाये तथा अपने भाग्य के डूबते हुए सितारे को पुनः उदय होता हुआ देखा जाय लेकिन तभी उसके मन में बैठा दुराग्रह का नाग फुफकार उठा-यह सोच कर कि- ‘‘मैं महावीर का अनुयायी तो हूँ नहीं अतः उनकी कृपा पाने के लिए क्यों उनके आगे हाथ पसारूं।’’

तभी उसने देखा सड़क पर दूर से आता हुआ श्वेत-वस्त्र धारियों का जुलूस। यह जुलूस महावीर और उनके अनुयायियों का ही था। धीरे-धीरे वह जुलूस समीप आता जा रहा था और सकडाल पुत्र असमंजस की स्थिति में तेजोद्दीप्त चेहरे की ओर देखता हुआ अपने मानसिक द्वन्द्व से झूल रहा था। एक मन तो हो रहा था कि महावीर के चरण पकड़ ले और उनसे कृपा की भीख माँगे तथा दूसरा कह रहा था नहीं। ऐसा नहीं करना चाहिए।

क्या करूं, क्या न करूं के द्वन्द्व में नाचते हुए सकडाल पुत्र को आश्चर्य तो तब हुआ जब महावीर उसके घर के समीप रुक गये। महावीर ने न जाने क्या सोच कर पूछा- ‘‘सकडाल पुत्र! ये इतने सुन्दर खिलौने और इतने बढ़िया बर्तन क्या तुम बनाते हो ? कैसे बनाते हो भाई जरा हमें भी तो बताओ।”

सकडाल पुत्र बोला- ‘‘सब संयोग वश होता है महाराज! जब संयोग मिल जाते हैं तब ऐसा हो जाता है।”

महावीर ने फिर पूछा- ‘‘अच्छा, अगर तुम्हारे इन खिलौनों और बर्तनों को कोई फोड़ दे तो ?”

अब की बार वह तमक गया- ‘‘फोड़ेगा कैसे, इससे मेरा नुकसान जो होता है। और फोड़ने वाला मेरा नुकसान करने वाला होता है ?”

“अच्छा ठीक है और अगर कोई अत्याचारी तुम्हारी पत्नी का शील भंग करे तो…..?”

महावीर ने पूछा।

“कौन माई का लाल है जो मेरे रहते मेरी पत्नी की ओर आँख उठा कर भी देखे” -अब की बार सकडाल पुत्र उबल पड़ा।

‘‘पर उसका क्या दोष है ? जो होता है, वह तो सब नियतिवश ही होता है’’

महावीर का इतना कहना था कि सकडाल पुत्र की आँखें फटी की फटी रह गईं। उसे भान हुआ कि वह कैसी गलत मान्यता बनाये हुए था।

तब महावीर ने कहा- *‘‘पुत्र ! भाग्य का बीज पुरुषार्थ है। मैं जानता हूँ कि तुम भाग्य द्वारा छले गये हो पर पुरुषार्थ से पुनः नये भाग्य का सृजन करो।”

और महावीर वहाँ से चल दिये।

(‘अखण्ड ज्योति, सितम्बर-1976 से साभार’)

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जय माँ ललिताम्बा

चार आदमियों ने तय किया कि मौन की साधना करेंगे।

वे चारों गए, एक मंदिर में बैठ गए… चौबीस घंटे मौन से रहेंगे। कोई घड़ी भी नहीं गुजरी थी कि पहला आदमी बोला अरे अरे, पता नहीं मैं ताला लगा आया कि नहीं घर का!

दूसरा मुस्कुराया, उसने कहा कि तुमने मौन खंडित कर दिया नासमझ, मूढ़! तूने बोल कर सब मौन खराब कर दिया!

तीसरा बोला कि खराब तो तुम्हारा भी हो गया है! तुम क्या खाक उसको समझा रहे हो?

चौथा बोला : हे प्रभु! एक हम ही बचे, जिसका मौन अभी तक खराब नहीं हुआ।

बोले बिना रहा नहीं जाता। अगर बिना बोले रह जाओ तो बहुत कुछ हो। अगर मौन रह जाओ तो महान घट सकता है।

शब्द से सत्य के घटने में कोई सहारा नहीं मिलता—शून्य से ही सहारा मिलता है।

अगर ऐसा भाव मन में उठ रहा है मौन रह जाने का, तो रह ही जाओ, इतना भी मत कहो; इतना कहने से भी खराब हो जाएगा।

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धैर्य बेहद कीमती

एक इन्सान ने सोना निकालने के लिए एक पहाड़ खरीदा पर सोना ना मिलने के कारन घाटे से डर कर उसने वो पहाड़ किसी को बेच दिया, किस्मत देखो पहले दिन ही, सिर्फ एक फीट की गहराई पर सोने की खदान शुरू हो गई।

वह आदमी जिसने पहले खरीदी थी पहाड़ी, छाती पीटकर पहले भी रोता रहा और फिर बाद में तो और भी ज्यादा छाती पीटकर रोया क्योंकि पूरे पहाड़ पर सोना ही सोना था। दूसरे आदमी ने कहा, तुमने दांव पूरा न लगाया, तुम पूरा खोदने के पहले ही लौट गए, एक फीट और खोद लेते, हमारी जिंदगी में ऐसा रोज होता है।

न मालूम कितने लोग हैं जो खोजते हैं परमात्मा को लेकिन पूरा नहीं खोजते, अधूरा खोजते हैं, ऊपर ऊपर खोजते हैं और लौटे जाते हैं। कई बार तो इंच भर पहले से लौट जाते हैं, बस इंच भर का फासला रह जाता है और वे वापस लौटने लगते हैं और कई बार तो साफ दिखाई पड़ता है कि यह आदमी वापस लौट चला, यह तो अब करीब पहुंचा था, अभी बात घट जाती, यह तो वापस लौट पड़ा

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केवट का प्रेम


केवट का प्रेम

रामायण में वर्णित एक एक घटना अपने आप में मनुष्यों के लिए मार्गदर्शन देता है | लेकिन कुछ घटनाये ऐसी हैं जिसे हम बार बार पढते हैं फिर भी संतुष्ट नहीं होते| उन्ही घटनाओं में से एक है भगवान राम और केवट का प्रसंग | यह घटना उस समय की है जब भगवान राम अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिए अपनी पत्नी और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास जा रहे थे |

गंगा तट का वह प्रदेश निषादराज के राज्य क्षेत्र में था ! तट पर पहुँचने के बाद निषादराज ने उस घाट के केवट को यह सुचना दी की भगवान राम नदी पार करना चाहते हैं इसलिए वह जल्द उपस्थित हो|

भगवान राम के आगमन की खबर सुनकर केवट की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था | साधारण सा दिखने वाला वह केवट दरअसल भगवान राम का एक बहुत बड़ा भक्त था |वह यह जानता था कि भगवान के चरणों में तीनो लोकों की सत्ता है, और पूर्ण मुक्ति का मार्ग है| वह किसी भांति भगवान के चरणों में समर्पित होना चाहता था |लेकिन वह सीधा सीधा कैसा कहता?

भगवान राम की चरण वंदना के लिए उसने अति अनूठा मार्ग चुना| प्रेम और भक्ति से जुडा यह प्रसंग अपने आप में इतना अनूठा है कि हजारो सालों के बाद भी जब जब रामायण का जिक्र होता है तो केवट का जिक्र जरूर होता है | भगवान राम और केवट के इस प्रसंग को गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस में बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है|

रामचरित मानस में वर्णित वह प्रसंग इस प्रकार है: अयोध्याकांड —

मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥

श्री राम ने केवट से [गंगा पार जाने के लिए] नाव माँगा, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया है। सब लोग कहते हैं कि आपके चरणों में कोई जादू है जो किसी वस्तु को मनुष्य बना देती है॥

छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥

तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥

जिसके छूते ही [अहिल्या की] पत्थर की शिला सुन्दर स्त्री हो गई । (मेरी नाव तो काठ की है) काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री [अहिल्या] की तरह स्त्री हो जाएगी, तब तो मैं लुट जाऊँगा (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)॥

एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥

जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥

मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि आप अवश्य ही पार जाना चाहते हैं तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धोने) की आज्ञा दें॥

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥

बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥

हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप नाव पर सवार करूँगा, अपने चरण पखारने के अलावा मैं कोई और उतराई नहीं चाहता । हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। तुलसीदास कहते हैं,केवट ने कहा, हे नाथ! हे कृपालु! भले ही लक्ष्मण मुझे तीर मार दे, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक मैं पार नहीं उतारूँगा।

सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।

बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥

केवट के प्रेम और भक्ति से युक्त अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हंस पड़े॥

कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥

बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥

कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई ! ठीक है तुम वही करो जिससे तुम्हारी नाव न जाए । जल्दी पानी लाकर पैर धो लो । देर हो रही है, हमे पार उतार दो॥

जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥

यह देखकर गंगाजी सोचने लगीं] एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं (से बिनती कर रहे हैं)॥

पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥

केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥

प्रभु के इन वचनों को सुनकर (श्री राम द्वार केवट से बिनती करता देखकर) गंगाजी की बुद्धि थोड़े समय के लिए मोहित हो गई कि ये साक्षात भगवान होकर भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं,परन्तु श्री राम के चरणों के पदनखों को देखते ही ,उन्हें पहचानकर, देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं। वे समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं,केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया॥

अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥

बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥

तब अति आनंद और भक्ति से पूर्ण केवट भगवान राम के कमल के समान सुंदर चरणों को पखारने लगा।[यह दृश्य देखकर] सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके(केवट के) समान कोई और भाग्यशाली नहीं है जिसने स्वयं भगवान के चरणों को पखारने का अवसर पाया॥

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।

पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥

चरणों को धोकर केवट ने और उसके पुरे परिवार ने उस [पवित्र जल] को पिया ! इस प्रकार उसने अपने सहित पुरे परिवार को मोक्ष का भागी बनाया| उसके बाद वह आनंदपूर्वक प्रभु श्री राम को गंगा के पार ले गया|

उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥

केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥

निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी नाव सेउतरकर दूसरी ओर] गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर श्री राम को दण्डवत प्रणाम किया। उसको दण्डवत करते देखकर प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥

पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥

कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥

पति के हृदय के भाव को जानकर सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जङित अँगूठी उतारकर दी । कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥

नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥

(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया(अर्थात मुझे तो सबकुछ मिला गया)! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी(अनंत काल के परिश्रम का पूर्ण फल मुझे मिल गया है)

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥

फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥

भावार्थ:-हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ और नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिरोधार्य करूँगा॥ (इस प्रकार केवट ने यह आग्रह भी किया कि लौटते समय प्रभु दुबारा उसे सेवा का अवसर दें)

बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।

बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥

प्रभु श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी ने बहुत आग्रह किया, पर केवट ने कुछ नहीं लिया। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥

केवट ने श्री राम से उतराई में कुछ भी नहीं लिया बल्कि उसने यह वरदान माँगा कि वह सदैव भगवान राम का भक्त रहे और उनके चरणों में उसे स्थान प्राप्त हो ! उसके इस निर्मल और निष्काम भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे निर्मल भक्ति का वरदान दिया|

भगवान के अनंत भक्त है लेकिन केवट जैसी निर्मल भक्ति का उदहारण कम ही मिलता है| केवट को अपने जीवन में बस कुछ ही पल मिले और उन पलों का केवट ने पूर्ण उपयोग किया| अपना ही नहीं उसने अपने पूरे परिवार और सभी पूर्वजों का भी उद्धार किया|

केवट की भक्ति हम सब के लिए आज भी एक उदहारण है जो यह साबित करता है कि अगर मनुष्य की भक्ति पवित्र हो तो उसका सम्पूर्ण उद्धार होना निश्चित है| ईश्वर कभी भक्त को निराश नहीं करते !

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नाम की कमाई

एक गांव में एक नौजवान को सत्संग सुनने का बड़ा शौक था परम संत तुलसी साहब का सत्संग..

किसी से पता चला कि गांव के बाहर नदी के उस पार परम संत ने डेरा लगाया हुआ है और आज उनका शाम को 5:00 बजे का सत्संग का प्रोग्राम है..

वह नदी पार करके नौका के द्वारा सत्संग में पहुंच गया! प्रेमी था बड़े प्यार से सत्संग सुना और बड़ा आनंद माना!

जब जाने लगा थोड़ा अंधेरा हो गया।देखा तूफान बहुत ज्यादा था और बारिश के कारण नदी बड़े तूफान पर चल रही थी..

अब जितनी नौका वाले मल्हाह थे,सब डेरे में रुक गए!कोई नौका आने जाने का साधन नहीं है

संत के पास पहुंचा और बोला-महाराज मेरी नई नई शादी हुई है,मेरी पत्नी भी इस गांव में अनजान है, हर इंसान से और घर में मेरे कोई नहीं है

मेरे पास गहना वगैरा बहुत है,नकदी भी है और हमारा गांव है,उसमें चोर लुटेरे भी बहुत हैं,तो किसी भी हालत में मुझे वहां जाना ही पड़ेगा नहीं तो पता नहीं क्या हो जाएगा..??

तुलसी साहब ने एक कागज पर कलम से कुछ लिखा और बिना बताए उस पेपर को फोल्ड किया और उसके हाथ में पकड़ा दिया और कहा,इसको खोलकर मत देखना कि इसमें क्या लिखा है।जब नदी के पास पहुंचो तो नदी को मेरा संदेश देना।

जब नदी के किनारे पहुंचा देखा तूफान बड़े जोरों का है। इसने चिट्ठी नदी की ओर दिखाते हुए कहा यह तुलसी साहब ने तुम्हारे लिए भेजी है।

इतना सुनते ही नदी बीच में से अलग हो गई और ज़मीन दिखने लगी। पैदल चलने के लिए।यह बड़ा हैरान हुआ!

इसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, इसने आंखें मलीं,सोचा कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूं? फिर पैदल नदी पार करने लगा..!!

मन में जिज्ञासा उठी, देखूं तो सही इस चिट्ठी में लिखा कया है ?जब उसने चिट्ठी खोली तो उसमें लिखा था “राम”

बड़ा हैरान हुआ,इतने में नदी वापस भर गई और रास्ता बंद हो गया और यह दौड़कर फिर वापस किनारे पर आ गया..!!

उसी समय तुलसी साहिब के पास पहुंचा और तुलसी साहब को सारी बात कहकर सुनाई, तो तुलसी साहिब ने कहा-भाई मैंने पहले ही कहा था,कि चिट्ठी खोलना नहीं,खैर उसी समय दूसरी चिट्ठी दी और कहा इस चिट्ठी को खोलना नहीं और वैसे ही करना..!!

यह बड़ा हैरान था। तुलसी साहिब से पूछा महाराज चिट्ठी पर तो राम लिखा था,तो इसमें अलग क्या है?

राम तो हर कोई लिखता है,पढ़ता है।तो संत ने फरमाया एक राम वो है,जो लोग पढ़ते हैं,सुनते हैं, लिखते हैं,और यह मेरा अपना राम है..!!

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अंत समय के बोल

एक सज्जन ने तोता पाल रखा था और उस से बहुत स्नेह करते थे, एक दिन एक बिल्ली उस तोते पर झपटी और तोता उठा कर ले गई वो सज्जन रोने लगे तो लोगो ने कहा: प्रभु आप क्यों रोते हो? हम आपको दूसरा तोता ला देते हैं वो सज्जन बोले: मैं तोते के दूर जाने पर नही रो रहा हूं।

पूछा गया: फिर क्यों रो रहे हो?

कहने लगे: दरअसल बात ये है कि मैंने उस तोते को रामायण की चौपाइयां सिखा रखी थी वो सारा दिन चौपाइयां बोलता रहता था आज जब बिल्ली उस पर झपटी तो वो चौपाइयाँ भूल गया और टाएं टाएं करने लगा। अब मुझे ये फिक्र खाए जा रही है कि रामायण तो मैं भी पढ़ता हूँ लेकिन जब यमराज मुझ पर झपटेगा, न मालूम मेरी जिव्हा से रामायण की चौपाइयाँ निकलेंगी या तोते की तरह टाएं-टाएं निकलेगी।

इसीलिए महापुरुष कहते हैं कि विचार-विचार कर तत्त्वज्ञान और रुपध्यान इतना पक्का कर लो कि हर समय, हर जगह भगवान के सिवाय और कुछ दिखाई न दे

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सच्ची ईश्वर पूजा

एक पुजारी थे. ईश्वर की भक्ति में लीन रहते. सबसे मीठा बोलते. सबका खूब सम्मान करते. जो जैसा देता है वैसा उसे मिलता है. लोग भी उन्हें अत्यंत श्रद्धा एवं सम्मान भाव से देखते थे !

पुजारी जी प्रतिदिन सुबह मंदिर आ जाते. दिन भर भजन-पूजन करते. लोगों को विश्वास हो गया था कि यदि हम अपनी समस्या पुजारी जी को बता दें तो वह हमारी बात बिहारी जी तक पहुंचा कर निदान करा देंगे !

एक टमटम वाले ने भी सवारियों से पुजारी जी की भक्ति के बारे में सुन रखा था. उसकी बड़ी इच्छा होती कि वह मंदिर आए लेकिन सुबह से शाम तक काम में लगा रहता क्योंकि उसके पीछे उसका बड़ा परिवार भी था !

उसे इस बात काम हमेशा दुख रहता कि पेट पालने के चक्कर में वह मंदिर नहीं जा पा रहा. वह लगातार ईश्वर से दूर हो रहा है. उसके जैसा पापी शायद ही कोई इस संसार में हो !

यह सब सोचकर उसका मन ग्लानि से भर जाता था. इसी उधेड़बुन में फंसा उसका मन और शरीर इतना सुस्त हो जाता कि कई बार काम भी ठीक से नहीं कर पाता. घोड़ा बिदकने लगता, तांगा डगमगाने लगता और सवारियों की झिड़कियां भी सुननी पड़तीं !

तांगेवाले के मन का बोझ बहुत ज्यादा बढ़ गया, तब वह एक दिन मंदिर गया और पुजारी से अपनी बात कही- मैं सुबह से शाम तक तांगा चलाकर परिवार का पेट पालने में व्यस्त रहता हूं. मुझे मंदिर आने का भी समय नहीं मिलता. पूजा- अनुष्ठान तो बहुत दूर की बात है !

पुजारी ने गाड़ीवान की आंखों में अपराध बोध और ईश्वर के कोप के भय का भाव पढ लिया. पुजारी ने कहा – तो इसमें दुखी होने की क्या बात है ?

तांगेवाला बोला – मुझे डर है कि इस कारण भगवान मुझे नरक की यातना सहने न भेज दें. मैंने कभी विधि-विधान से पूजा-पाठ किया ही नहीं, पता नहीं आगे कर पाउं भी या नहीं. क्या मैं तांगा चलाना छोड़कर रोज मंदिर में पूजा करना शुरू कर दूं ?

पुजारी ने गाड़ीवान से पूछा – तुम गाड़ी में सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव पहुंचाते हो. क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि तुमने किसी बूढ़े, अपाहिज, बच्चों या जिनके पास पास पैसे न हों, उनसे बिना पैसे लिए तांगे में बिठा लिया हो ?

गाड़ीवान बोला – बिल्कुल ! अक्सर ऐसा करता हूं. यदि कोई पैदल चलने में असमर्थ दिखाई पड़ता है तो उसे अपनी गाड़ी में बिठा लेता हूं और पैसे भी नहीं मांगता !

पुजारी यह सुनकर खुश हुए. उन्होंने गाड़ीवान से कहा – तुम अपना काम बिलकुल मत छोड़ो. बूढ़ों, अपाहिजों, रोगियों और बच्चों और परेशान लोगों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है !

जिसके मन में करुणा और सेवा की भावना हो, उनके लिए पूरा संसार मंदिर समान है. मंदिर तो उन्हें आना पड़ता है जो अपने कर्मों से ईश्वर की प्रार्थना नहीं कर पाते !

तुम्हें मंदिर आने की बिलकुल जरूरत नहीं है. परोपकार और दूसरों की सेवा करके मुझसे ज्यादा सच्ची भक्ति तुम कर रहे हो !

ईमानदारी से परिवार के भरण-पोषण के साथ ही दूसरों के प्रति दया रखने वाले लोग प्रभु को सबसे ज्यादा प्रिय हैं. यदि अपना यह काम बंद कर दोगे तो ईश्वर को अच्छा नहीं लगेगा !

पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन ये सब मन को शांति देते हैं. मंदिर में हम स्वयं को ईश्वर के आगे समर्पित कर देते हैं. संसार के जीव ईश्वर की संतान हैं. माता-पिता तब ज्यादा प्रसन्न होते हैं जब कोई उसकी संतान के प्रति अनुराग रखता है !

यदि हम जीवों के प्रति दया और सेवा का भाव रखकर परोपकार पर बढ़ते रहें तो वह किसी भी भजन-कीर्तन से कहीं ज्यादा है !

यदि कोई जरूरतमंद और परेशानहाल आए तो उसके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना उसकी सहायता करना ही ईश्वर की यह भी सच्ची भक्ति है !!