पति–पत्नी का व्यवहार कैसा हो ?
किसी भी परिवार को सुखी रहने के लिए पति-पत्नी का सम्बन्ध सबसे महत्वपूर्ण है। यदि इनका सम्बन्ध प्रेम से भरा हो, खुशियों से भरा हो, तो पूरा परिवार सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। पति-पत्नी किसी भी गृहस्थी की धुरी होते हैं। इनकी सफल गृहस्थी ही सुखी परिवार का आधार होती है। अगर पति-पत्नी के रिश्ते में थोड़ा भी दुराव या अलगाव है तो फिर परिवार कभी खुश नहीं रह सकता। परिवार का सुख, गृहस्थी की सफलता पर निर्भर करता है।
पति-पत्नी का जीवन उस साइकिल के पहियों कि तरह है, जो एक दुसरे कि बिना अधूरे हैं। पति-पत्नी का संबंध तभी सार्थक है जबकि उनके बीच का प्रेम सदा तरोताजा बना रहे। तभी तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण कहा जाता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनदपूर्ण हो जाता है। मात्र पत्नी से ही सारी अपेक्षाएं करना और पति को सारी मर्यादाओं और नियम-कायदों से छूट दे देना बिल्कुल भी निष्पक्ष और न्यायसंगत नहीं है। स्त्री में ऐसे कई श्रेष्ठ गुण होते हैं जो पुरुष को अपना लेना चाहिए। प्रेम, सेवा, उदारता, समर्पण और क्षमा की भावना स्त्रियों में ऐसे गुण हैं, जो उन्हें श्रेष्ठ और गौरव प्रदान करते हैं।
जो नियम और कायदे-कानून पत्नी पर लागू होते हैं वही पति पर भी लागू होते हैं। ईमानदारी और निष्पक्ष होकर यदि सोचें तो यही साबित होता है कि स्त्री पुरुष की बजाय अधिक महम्वपूर्ण और सम्मान की हकदार है।
भारतीय परिवार में अक्सर विवाह या तो नासमझी में किया जाता है या फिर आवेश में। आवेश सिर्फ क्रोध का नहीं होता, भावनाओं का होता है। फिर चाहे प्रेम की भावना में बहकर किया गया हो, लेकिन अक्सर लोग अपनी गृहस्थी की शुरुआत ऐसे ही करते हैं।
विवाह एक दिव्य परंपरा है, गृहस्थी एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लेकिन हम इसे सिर्फ एक रस्म के तौर पर देखते हैं। गृहस्थी बसाने के लिए सबसे पहले भावनात्मक और मानसिक स्तर पर पुख्ता होना होता है। हम अपने आप को परख लें। घर के जो बुजुर्गवार रिश्तों के फैसले तय करते हैं वे अपने बच्चों की स्थिति को समझें। क्या बच्चे मानसिक और भावनात्मक स्तर पर इतने सशक्त हैं कि वे गृहस्थी जैसी जिम्मेदारी को निभा लेंगे।
जीवन में उत्तरदायित्व कई शक्लों में आता है। सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है शादी करके घर बसाना। गृहस्थ जीवन को कभी भी आवेश या अज्ञान में स्वीकार न करें, वरना इसकी मधुरता समाप्त हो जाएगी। आवेश में आकर गृहस्थी में प्रवेश करेंगे तो ऊर्जा के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाएगी। हो सकता है रिश्तों में क्रोध अधिक बहे, प्रेम कम। यदि अज्ञान में आकर घर बसाएंगे, तब हमारे निर्णय परिपक्व व प्रेमपूर्ण नहीं रहेंगे। विवाह भी चिंतन-मनन करके ही करें। विद्वान् पुरुष और विद्वान् स्त्री होगें, तभी गृहस्थ जीवन सुखपूर्वक चल सकता है। दोनों के समान अधिकार होगें, तभी प्रेम रहेगा, खुश रहेगें।
वेदो मे नारी को यज्ञीय बताया है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय है। स्त्रियों को सदा विजयिनी के रूप में प्रतिपादित किया गया हैं। और उनको हर काम मे सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है । वैदिक काल में नारी के द्वारा अध्ययन अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती हुई बताइ गई है। जैसे कैकेयी महाराज दशरथ के साथ युद्धमें गई थी। कन्या को अपना पति स्वयं चुनने को भी अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते है।
हमारे वैदिक काल में तो अनेको ऋषिकाए वेद मन्त्रो की द्रष्टा है। अपाला – घोषा – सरस्वति – सर्पराज्ञी – सूर्या – सावित्री – अदिति – दाक्षायणि – लोपामुद्रा – विश्ववारा – आत्रेयी आदि ऋषिकाए वेदो के मन्त्रो की इष्टा बताइ गई है।
वेदो में नारी का गौरवमय स्थान इससे भी ज्ञात होता हे कि नारी को ही “घर” कहा गया है।
जायेदस्तं मधवन्त्सेदु योनिस्तदित्वा युक्ता हरयो वहन्तु। ऋग्वेद ३- ५३ -४
अर्थात– घर घर नहीं हैं अपितु गृहिणी ही गृह है। गृहिणी के द्वारा ही गृह का अस्तित्त्व है। यही भाव एक संस्कृत सुभाषित में प्रतिपादित किया गया है।
हमारे धर्म शास्त्रकारो में मनु महाराज ने “मनुस्मृति” में एक श्लोक में कहा है –
यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फला: क्रिया: ॥ मनु. ३-५६
अर्थात– जहाँ नारीयों का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ इसका सम्मान नही होता, वहाँ प्रगति, उन्नति की सारी क्रियाए निष्फल हो जाती हैं।
एक अन्य स्थान में भी कहा गया है की यदि तुम चाहते हो की तुम्हारे कुल की उन्नति हों। यदि तुम्हे ललित कलाओं में रूचि हैं। यदि तुम अपना और अपने सन्तान का कल्याण चाहते हो तो अपनि कन्या को विद्या, धर्म और शील से युक्त करो।
अन्त में तो यही कहना सार्थक होगा की –
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति तु यत्रता वर्धते तर्द्धि सर्वदा ॥
जिस कुल में स्त्रिया दु:खी रहती हैं वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है। जहाँ वे दु:खी नहीं रहतीं उस कुल की वृद्धि होती है। स्त्री पुरुष के विवाह का मतलब वे एक दुसरे के हो चुके हैं, अब वे एक दुसरे के लिए सोचते हैं, कार्य करते और जीवन व्यतीत करते हैं, यही वैवाहिक जीवन का सुख का सार है।
लेखक – आचार्य अनूपदेव