Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

Labnon and Berut


ABOUT LABNON & BERUT:
एक जमाने में दुनिया के खूबसूरत और दुनिया की आर्थिक ताकत के रूप में बेरुत शहर मशहूर था।बॉलीवुड के तमाम फिल्मों की शूटिंग के रूप में होती थी जिसमें धर्मेंद्र और माला सिन्हा की आंखें भी शामिल थी …इतना ही नहीं हॉलीवुड का भी पसंदीदा शूटिंग स्थल बेरुत हुआ करता था और दुनिया के कुल सोने के गहनों का 50% कारोबार अकेले बेरुत से होता था और बेरुत को दुनिया की सबसे बड़ी सोने की मंडी कहा जाता था।

लेबनान की आर्थिक ताकत इतनी ज्यादा थी एक जमाने में लेबनान की मुद्रा पाउंड और डॉलर से भी ज्यादा मजबूत हुआ करती थी। लेबनान बेहद खूबसूरत देश हुआ करता था। मेडिटरेनियन सी का बहुत बड़ा किनारा लेबनान के पास है मेडिटरेनियन के समुद्र तट कोरल रीफ से बने हैं इस वजह से साफ-सुथरी सफेद रेती जो कोरल रीफ के इरोजन से बनती है और मेडिटरेनियन का खूबसूरत नीला समुंदर साथ ही साथ ओलिव यानी जैतून के हजारों हेक्टेयर के विशाल फार्म खजूर के फॉर्म लेबनान को बेहद खूबसूरत बनाते थे।

ऐसा देश है जहां का कुछ हिस्सा इतना ठंडा है कि वहां काफी बर्फ गिरती है और middle-east के देशों में यानी अरब देशों में लेबनान एकमात्र ऐसा देश है जहां के काफी बड़े हिस्से में बर्फबारी भी होती है।

1972 तक लेबनान और इसकी राजधानी बेरुत घूमना लोगों का एक सपना हुआ करता था।

1960 तक लेबनान में 30% मुस्लिम आबादी थी जिसमें 15% शिया थे और 15% सुन्नी थे। 1975 तक लेबनान में 54% मुस्लिम हो गए जिसमें 27% शिया और 27% सुन्नी थे।

फिर मुसलमानों ने अपनी चिर परिचित शैली में लेबनान में शरिया कानून लागू करने की मांग कर दी और जगह जगह आगजनी होने लगी और 1975 में लेबनान में छोटा-मोटा गृहयुद्ध ही छिड़ गया।

फिर जब 1978 में ईरान में तख्तापलट हुआ और ईरान को धर्मनिरपेक्ष देश से कट्टर इस्लामिक देश बनाने की घोषणा की गई और कट्टरपंथी मौलाना अयातुल्लाह खोमेनी ने ईरान में शरिया कानून लागू कर दिया तब लेबनान के कट्टरपंथी मौलाना लोगों ने भी लेबनान को धर्मनिरपेक्ष से इस्लामिक देश बनाने की मांग को लेकर मारकाट मचा दिया। फिर संयुक्त राष्ट्र संघ के दखल के बाद लेबनान में डेमोग्राफिक शिफ्टिंग की गई जो विश्व में अपनी तरह का अनूठा शिफ्टिंग था जिस में ईसाइयों को एक अलग इलाके में बसाया गया और मुस्लिमों को एक अलग इलाके में बसाया गया और यह शिफ्टिंग राजधानी बेरुत में भी हुई बेरुत में ईसाइयों का अलग इलाका घोषित कर दिया गया और मुसलमानों का एक अलग इलाका घोषित कर दिया गया। नतीजा यह हुआ अब मुसलमान आपस में ही शिया सुन्नी मारकाट करने लगे और शियाओ ने एक कट्टर आतंकवादी संगठन हिजबुल्ला बनाया और यह हिजबुल्ला शियाओं का सबसे खतरनाक आतंकवादी संगठन है उसके बाद हिजबुल्ला ने लेबनान में सुन्नियों को मारना शुरू किया और बड़ी संख्या में सुन्नियों का कत्लेआम किया गया जिससे बहुत से सुननी सऊदी अरब भाग गए हिजबुल्ला को ईरान और सीरिया का समर्थन प्राप्त है।

अभी जो बेरुत के पोर्ट पर ब्लास्ट हुआ जिससे लगभग 70% बेरूत शहर बर्बाद हो गया यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय को ही काफी बड़ा नुकसान हुआ उस ब्लास्ट के पीछे एक तर्क यह आ रहा है कि हिजबुल्ला ने एक गोदाम में लगभग 40000 टन अमोनियम नाइट्रेट इकट्ठा किया था जिसके द्वारा वह इजरायल पर हमला करना चाहता था लेकिन इसराइल को इसकी भनक लग गई और इजराइल ने उस गोदाम में ब्लास्ट करके 70% बेरूत को ही उड़ा दिया।

बेरुत अब एक खंडहर में तब्दील हो चुका है।

Posted in संस्कृत साहित्य

चक्रवर्ती सम्राट राम बारह कला और श्री कृष्ण जी सोलह कलाओ के थे ज्ञाता ! जानिये कलाओ के रहस्य को !
राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं। सोलह श्रृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा। आखिर ये 16 कलाएं क्या है? उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वरतुल्य होता है।आपने सुना होगाकुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है।
*चन्द्रमा की सोलह कला :अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है।
उक्तरोक्त चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है।
*मनुष्य (मन) की तीन अवस्थाएं :प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। क्या आप इन तीन अवस्थाओं के अलावा कोई चौथी अवस्था जानते हैं? जगत तीन स्तरों वाला है- 1.एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। 2.दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और 3.तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।
तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।
इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं।
*1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित।
*अन्यत्र 1.श्री, 3.भू, 4.कीर्ति, 5.इला, 5.लीला, 7.कांति, 8.विद्या, 9.विमला, 10.उत्कर्शिनी, 11.ज्ञान, 12.क्रिया, 13.योग, 14.प्रहवि, 15.सत्य, 16.इसना और 17.अनुग्रह।
*कहीं पर 1.प्राण, 2.श्रधा, 3.आकाश, 4.वायु, 5.तेज, 6.जल, 7.पृथ्वी, 8.इन्द्रिय, 9.मन, 10.अन्न, 11.वीर्य, 12.तप, 13.मन्त्र, 14.कर्म, 15.लोक और 16.नाम।
16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।
19 अवस्थाएं :भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की 3 प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की 15 कला शुक्ल पक्ष की 01..हैं। इनमें से आत्मा की 16 कलाएं हैं।
आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
अर्थात :जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।- (8-24)
भावार्थ :श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।
विस्तार से…
1.अग्नि:-बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है।
2.ज्योति:-ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होता जाता है।
3.अहः-दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है।
16 कला – 15कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला = 16
1.बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना।
2.अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है।
3.चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है।
4.अहंकार नष्ट हो जाता है।
5.संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है।
6.आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है।
7.वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है।
8.अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है।
9.जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती।
10.पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती।
11.जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने आधीन हो जाती है।
12.समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं।
13.समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है।
14.सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है।
15.कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है।
16.उत्तरायण कला- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण यहां उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है।
सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं। यही दिव्यता है।

अरुण शुक्ला

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वनवास


भगवान श्री राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी माँ सीता ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया।
परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते! माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की.. परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा!! क्या कहूंगा!! यदि बिना बताए जाऊंगा तो रो रोके जान दे देगी और यदि बताया तो साथ जाने की ज़िद्द करने लगेगी और कहेगी कि यदि सीता जी अपने पति के साथ जा सकती हैं तो मैं क्यों नहीं!!

यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं- “आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु की सेवा में वन को जाओ। मैं आपको नहीं रोकुंगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।”

लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था। परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया।

वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है। पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे!

पत्नी का इतना त्याग और प्रेम देखकर लक्ष्मण जी भी रो पड़े। उर्मिला जी ने एक दीपक जलाया और विनती की कि मेरी इस आस को कभी बुझने नहीं देना।

लक्ष्मण जी तो चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला जी ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया।

मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण को शक्ति लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पहाड़ लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में अयोध्या में भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं। तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीता जी को रावण ले गया, लक्ष्मण जी मूर्छित हैं।

यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे।

माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं। अभी शत्रुघ्न है। मैं उसे भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं।

माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?

हनुमान जी पूछते हैं- देवी! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणि उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा।

वे बोलीं- “मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता।

आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं। जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता। यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं। मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं। उन्होंने न सोने का प्रण लिया था। इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं। और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया। वे उठ जायेंगे।

और शक्ति मेरे पति को लगी ही नहीं शक्ति तो राम जी को लगी है। मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में हैं ही सिर्फ राम, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा। इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ। सूर्य उदित नहीं होगा।”

वास्तव में सूर्य में भी इतनी ताकत नहीं थी कि लक्ष्मण जी के जागने से पहले वो उदित हो जाते! एक पतिव्रता तपस्विनी का तप उनके सामने खड़ा था। और मेघनाथ को भी लक्ष्मण जी ने नहीं, अयोध्या में बैठी एक तपस्विनी उर्मिला ने मारा।

राम राज्य की नींव जनक की बेटियां ही थीं… कभी सीता तो कभी उर्मिला। भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समपर्ण, बलिदान से ही आया,,

*।।जय जय श्री राम।।*
*।।हर हर महादेव।।*

श्रावण वर्मा

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#पिता_की_प्रार्थना

एक बार पिता और पुत्र जलमार्ग से यात्रा करते समय रास्ता भटक कर एक टापू पर पहुंच गये। उनकी नौका उन्हें ऐसी जगह ले आई थी जहाँ दो टापू आस-पास थे और फिर वहाँ पहुंच कर उनकी नौका टूट गई।

परिस्थितियों से चिंतित होकर पिता ने पुत्र से कहा- “लगता है, हम दोनों का अंतिम समय निकट आ गया है। यहां तो दूर-दूर तक कोई सहारा नहीं दिख रहा है तो क्यों न हम ईश्वर से प्रार्थना करें।”

उन्होंने दोनों टापू आपस में बाँट लिए। एक पर पिता और एक पर पुत्र और दोनों अलग-अलग टापू पर ईश्वर की प्रार्थना करने लगे।

पुत्र ने ईश्वर से कहा- “हे भगवन! इस टापू पर पेड़-पौधे उग जाए जिसके फल-फूल से हम अपनी भूख मिटा सकें।” ईश्वर ने उसकी प्रार्थना अविलंब सुनी। तत्काल वहां पेड़-पौधे उग गये और उसमें फल-फूल भी आ गये। यह देखकर उसके मुख से बरबस ही निकल गया- “ये तो चमत्कार हो गया।”

अपनी पहली प्रार्थना पूर्ण होते देखकर उसने पुनः प्रार्थना की-” एक सुंदर स्त्री आ जाए जिससे हम यहाँ उसके साथ रहकर अपना परिवार बसाएँ।” तत्काल एक सुंदर स्त्री प्रकट हो गयी। अब उसने सोचा कि मेरी हर प्रार्थना सुनी जा रही है, तो क्यों न मैं ईश्वर से यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता माँगे लूँ ?

उसने ऐसा ही किया और उसने प्रार्थना की-” एक नई नाव आ जाए जिसमें सवार होकर मैं यहाँ से बाहर निकल सकूँ।”

तत्काल वहां नाव प्रकट हुई और पुत्र उसमें सवार होकर बाहर निकलने लगा। तभी एक आकाशवाणी ने उसे चोंका दिया- “बेटा! तुम अकेले जा रहे हो? अपने पिता को साथ नहीं लोगे ?”

आकाशवाणी सुनकर पुत्र ने कहा- “उनको छोड़ो! प्रार्थना तो उन्होंने भी की होगी लेकिन आपने उनकी एक भी नहीं सुनी। शायद उनका मन पवित्र नहीं है, तो उन्हें इसका फल भोगने दो ?’

पूत्र की बात का आशय समझ कर पुनः आकाशवाणी में कहा गया- “क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे पिता ने क्या प्रार्थना की ?क्या तुम यह नहीं जानना चाहोगे कि उनकी कौन सी प्रार्थना स्वीकार हुई और कौन सी अस्वीकार?”

पुत्र बोला-“हां, मैं अवश्य जानना चाहूंगा।”

आकाशवाणी में कहा गया-” तो सुनो!तुम्हारे पिता ने एक ही प्रार्थना की- हे भगवन! मेरा बेटा आपसे जो माँगे, उसे दे देना और इस प्रकार आज तुम्हें जो कुछ तुम्हें मिल रहा है उन्हीं की प्रार्थना का परिणाम है।”

स्वार्थ की राह पर निकल कर हम अपने सगे-संबंधियों और शुभचिंतकों से दूर हो जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि हमें जो भी सुख, प्रसिद्धि, मान, यश, धन, संपत्ति और सुविधाएं मिल रही है उसके पीछे किसी अपने की प्रार्थना और शक्ति जरूर होती है लेकिन हम नादान रहकर अपने अभिमान वश इस सबको अपनी उपलब्धि मानने की भूल करते रहते हैं। और जब ज्ञान होता है तो असलियत का पता लगने पर पछताना पड़ता है।
🏹💢🏹जय श्री राम 🏹💢🏹
🏹💥🏹जय सियाराम 🏹🔥🏹
🏹🌞🏹जय वीर हनुमान 🏹🌞🏹

ड्रमुकेश कुमार सींग

Posted in संस्कृत साहित्य

तीर्थ जा आविषकार


*तीर्थ का आविष्कार*
हम लोग प्रायः तीर्थयात्रा पर जाते हैं,वहाँ नदी मे स्नानदान,उपवास,कल्प करते हैं,मंदिरों मे भगवान का दर्शन करते हैं,भीड़ के धक्के खाते हैं,पूछो तो कहते हैं यही हमारा धर्म है,हमारे पूर्वज ऐसा करते आएं है। पुण्यलाभ होता है। अब डंडा पीटने की बात है तो यह हमारा अधिकार है और हमारे अधिकार की सुरक्षा करके हमारा राजा भी गौरवान्वित होता है। पर किसी ने सोचा कि यह तीर्थ वास्तव मे होता क्या है?
आइए देखते हैं शास्त्रमतः-
शुचौ देशे स्वाध्यायमधीयानो धार्मिकान्विदधदात्मनि सर्वेन्द्रियाणि सम्प्रतिष्ठाप्याहि्ँसन्सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः स खल्वेवं वर्तयन्यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते न स पुनरावर्तते।।
यह छा०उ०/८/१५/१/ के मंत्र का अंश है।
इसमे आचार्यकुल से समावर्तन पश्चात आत्मज्ञ के शेष जीवन के पर्यवसानपर्यन्त्र के कर्तव्य कर्मों का निर्धारण हुआ कि,,शुचौविविक्तेsमेध्यादिरहिते देशे यथावदासीनः,,अपवित्र पदार्थ से रहित स्थान पर विहीत विधिनुसार आसन लगाकर बैठकर स्वाध्याय करना।
तो जंगल मे,एकांत स्थान पर नदी किनारे सन्यासी लोग जाकर स्वाध्याय करने लगे। अपने इन्द्रियों को आत्मवस्थित करने लगे। धीरे-धीरे यहाँ भीड़ इकट्ठा होने लगी तो तात्कालिन शासकों ने यहाँ विश्रामस्थल की व्यवस्था कर दी।अब श्रुति आगे कहती हैः-,,अन्यत्र तीर्थेभ्यः,,,,अहिंसा,,ऐसा स्थान जहाँ स्थावर जंगमसहित किसी प्राणी को पीड़ा न हो इसलिए ऐसी व्यवस्था गुरू अपने शिष्य को देता था। इसी को जैनदर्शन मे तपश्चर्या कहा गया है।लेकिन श्रुति मे,,कर्मातिशेषेण,,शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् पाप-पुण्य जो भी है उसे पूर्ण करने के उपरान्त ऐसे एकांत स्थान पर जाकर भिक्षार्टन द्वारा शेष जीवन बिताना यहाँ तात्पर्यित प्रतीत होता है। इस लाजिक को ध्यान न देकर पुण्य कमाने की अज्ञानतारूपी अभिलाषा लिए ऐसे स्थानों पर भीड़ एकत्र होने लगी। यहाँ मंदिर बनने लगे। बढ़ती जनसंख्या और शास्त्रों के ज्ञान को जाने बिना पाप धोने पहुँचने वालें लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषण करने व्यापारी और मठाधीशों की बाढ़ सी आ गयी। तरह तरह के तीर्थ माहात्म्य लिखे जाने लगे,पण्डों ने महल बनाना शुरू किया और हो गया वर्तमान स्वरूप वाले तीर्थ का आविष्कार। अब जाओ और धक्के खाओ।

*शुभ प्रभात मित्रों*
*ऊँ तत् सत्*

विजय शंकर दुबे

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ખોરડાં ની ખાનદાની




મિત્રો આજે મારે એક વાસ્તવિક પ્રસંગ ની વાત કરવી છે
હું અને મારો પરિવાર બુધવારે માતાજી ના દર્શને જઈ રહ્યા હતા ત્યાં અમે ચોટીલા ચા પીવા અમારી ગાડી ઉભી રાખી હતી
હું ચા પીને પરત મારી ગાડી એ આવ્યો તો ત્યાં એક 8 વર્ષ નો બાળક થેલી માં કેમિકેલ ની બોટલ લઇ ને ઉભો હતો અને મારી સામે નજર કરી ને કીધું કે સાહેબ ગાડી નો કાચ સાફ કરી દઉં ? આજે બોણી નથી થઇ …
મેં એને ના પાડી કે જરૂર નથી …પછી મને એવો વિચાર આવ્યો કે આટલી નાની ઉમર માં આ છોકરો કાંઈક મેહનત કરી ને પૈસા કમાઈ છે બીજા છોકરાઓ ની જેમ ભિખ નથી માંગતો આ વાત નો મને આનંદ થયો એટલે મેં અને તરત જ હા પાડી દીધી કે હા કાચ સાફ કરી દે એટલું કેહતા તો એ રાજી થઇ ગયો .

પછી મને કે સાહેબ કાચ જો બરાબર સાફ ના કરું તો પૈસા ના આપતા બસ ..!!

પછી એને કાચ સાફ કરવાનું ચાલુ કર્યું પણ હું તો એની સામું જ જોઈ રહ્યો હતો કે કેટલી સ્ફૂર્તિ થી એને કામ કરવાનું ચાલુ કર્યું પછી અંતે એને બઉ જ સરસ કાચ સાફ કરી દીધો

પછી મેં એને પૂછ્યું કે હવે કેટલા પૈસા આપું તો મને કે જે આપવું હોય તે આપી દો . મેં એને 20 રૂપિયા આપ્યા તો મને કે તમે 10 રૂપિયા જ આપો..20 રૂપિયા નહિ

20 મિનિટ સુધી રકજક કર્યા પછી એને મેં કીધું કે લઇ લે અને કાંઈક ખાઈ લેજે
તો મને કહે સાહેબ મને તો ભૂખ નથી પણ કોક ભુખ્યુ હોય એને ખવરાવી દેજો

મિત્રો વાત નો પ્રાણ તો હવે આવે છે

મને કહે હું કઈ મારી ભૂખ માટે આ કાચ નથી સાફ કરતો..!!

હું તો કબૂતર ને રોજ દાણા નાખી શકું એટલે આ કામ કરું છું અને હમણાં હું 50 રૂપિયા કમાઈ લઇસ અને પછી 50 રૂપિયા ના દાણા લઇ ને કબૂતર ને નાખી દઈશ ..!!

આ વાત સાંભળી ને હું તો અવાચક જ થઇ ગયો

ધન્ય છે તારી જનેતા ને ….સો સો સલામ તારી ખાનદાની ને દોસ્ત.

ધ્વનિ વ્યાસ