लघु कथा
शीर्षक : मुंह बोला भाई
पिछले साल रक्षा बंधन के दिन घटी घटना जब भी सुरेखा को याद आ जाती है तो वह सिहर उठती उसकी आंखों में आंसू छलक आते।
काश! मेरी चीख – पुकार सुनकर मुंह बोला भाई, मौके पर न आते तो मैं अपने पड़ोसी दो दोस्तों की गंदी हरकत का शिकार बनकर जीते जी मर जाती।
बस उसी दिन सुरेखा ने अपनी ओढनी से कच्चा धागा निकाला और मुंह बोले भाई की कलाई पर बांध दिया था।
आज रक्षा बंधन हैं और सुरेखा मुंह बोले भाई के घर जा राखी बांधने में असमंजस की स्थिति में खोई हुई है। कारण दो दिन पहले उनकी बस्ती व मुंह बोले भाई की बस्ती के बीच जबरदस्त पत्थर बाजी की ज्वाला धधक गयी थी। अब एक दूसरे के साथ उठना बैठना, बात करना बंध हो गया है और शासन प्रशासन की ओर से कठोर कार्रवाईयां चल रही हैं।
तभी सुरेखा के फोन की बैल घनघना जाती है।
“बहन सुरक्षा कवच का धागा बांधना भूल गए हैं क्या? अगर आपको यहां आने में कोई कठिनाई है तो मैं ही आपके घर आ जाता हूँ।”
भाई का संदेश पाकर सुरेखा चहक उठीं और दोनों बस्तियों के माहोल को दरकिनार करते हुए बोलीं – नहीं भैया, मैं ही आपके पास आती हूं। “
सुरेखा ने देखा, पापाजी टीवी पर चिपके हुए हैं और मम्मी रसोई में खाना बनाने में व्यस्त है। चुपचाप सुरेखा ने राखी की थाली सजाई और मुंह बोले भाई के घर जा इस रिश्ते को ओर मजबूत कर, सुखी जीवन जीने की दुआओं को लेकर लौट आई। सुरेखा की बस्ती के लोगों को उसका यह व्यवहार खला नहीं। दुर्भाव नजरिए से घूर रहे थे क्योंकि उसका मुंह बोला भाई सुलेमान था।
स्वरचित
नेपाल सिंह चौहान