ओशो प्रवचनो से संकलित हिंदी बोध कथा क्रमांक 646
एक गांव के बाहर एक युवा संन्यासी बहुत दिन तक ठहरा था। युवा सुंदर था। बहुत लोग उसे प्रेम करते और बहुत लोग उसे आदर करते। बहुत उसका सम्मान था और उसके विचार का बहुत प्रभाव था। बड़ी क्रांति की उसकी दृष्टि थी और जीवन में बड़ा बल था। और अचानक एक दिन सब बदल गया। वे ही लोग, जो गांव के उसे आदर करते थे, उन्हीं ने जाकर उसके झोपड़े में आग लगा दी; और वे ही लोग, जो उसके पैर छूते थे, उन्होंने ही जाकर उसके ऊपर चोटें कीं; और जिन्होंने उसे सम्मान दिया था, वे ही उसे अनादर देने को तैयार हो गए।
अक्सर ऐसा होता है। जो सम्मान देते हैं, वे सम्मान देने का बदला किसी भी दिन अपमान करके ले सकते हैं। इसलिए सम्मान करने वाले से बहुत डरना पड़ता है, क्योंकि वे उसका बदला चुकाएंगे किसी दिन। सम्मान देने में उनके अहंकार को चोट लगी है। किसी को सम्मान दिया है; किसी को ऊपर माना है। उनके बहुत गहरे तल पर तो उन्हें बहुत चोट लगी है। इसका बदला वे किसी भी दिन ले सकते हैं। कोई छोटी सी बात; इसका बदला वे ले सकते हैं। इसलिए उस आदमी से बहुत डरना पड़ता है जो सम्मान देता हो, क्योंकि किसी दिन वह पोटेंशियल अपमान करने वाला है। किसी भी दिन वह अपमान कर सकता है। वह किसी भी दिन बदला लेगा इस बात का।
एक व्यक्ति मेरे पास आए और उन्होंने मेरे पैर छुए। मैंने उनसे कहा, पैर मत छुएं, इसमें खतरा है।
वे बोले, क्या बात है?
खतरा केवल इतना है कि किसी दिन इसका बदला ले सकते हैं। आज पैर छुआ है, कोई छोटा सा मौका मिल जाए तो मेरे सिर को तोड़ने के लिए लकड़ी भी उठा सकते हैं।
उस युवा को बहुत सम्मान दिया था गांव के लोगों ने। फिर एक दिन सुबह जाकर उसका अपमान किया। बात यह हो गई, गांव में एक लड़की को बच्चा हो गया और उसने कहा कि वह संन्यासी का बच्चा है। स्वाभाविक था कि वे अपमान करते। स्वाभाविक था कि वे अपमान करते। बिलकुल ही स्वाभाविक था। अब इसमें कौन सी गड़बड़ थी? यह तो वे ठीक ही कर रहे थे गांव के लोग। वे उस बच्चे को ले गए और जाकर उस युवा संन्यासी के ऊपर पटक दिया। उस संन्यासी ने पूछा कि बात क्या है? क्या मामला है?
वे बोले कि मामला हमसे पूछते हो? यह बच्चे के चेहरे को देखो और पहचानो कि मामला क्या है! मामला तुम जानते हो। तुम नहीं जानोगे तो कौन जानेगा? यह बच्चा तुम्हारा है।
उस संन्यासी ने कहा, इज़ इट सो? ऐसी बात है? बच्चा मेरा है?
वह बच्चा रोने लगा तो वह संन्यासी उसको, उस बच्चे को चुप कराने में लग गया। गांव के लोग आए और गए। वे उस बच्चे को वहीं छोड़ गए। अभी सुबह थी। फिर उस बच्चे को लेकर वह गांव में भिक्षा मांगने गया, जैसे रोज गया था। लेकिन आज उसे कौन भिक्षा देता? वे जो सम्मान में करोड़ों दे सकते हैं, अपमान में रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं दे सकते। कौन उसे रोटी देता? जहां वह गया, द्वार बंद कर दिए गए। जिस द्वार पर उसने आवाज दी, वह दरवाजा बंद हो गया और लोगों ने कहा, आगे हो जाओ। और पीछे भीड़ थी।
एक बच्चे को लेकर किसी संन्यासी ने शायद जमीन पर कभी भीख न मांगी होगी। वह बच्चा रोता था और वह भीख मांग रहा था। वह बच्चा रो रहा था और वह संन्यासी हंस रहा था, उन लोगों पर जिनका इतना आदर था और जिनका इतना प्रेम था। वह उस द्वार पर भी गया, जिस घर का वह बच्चा था, जिस घर की बच्ची का वह लड़का था। उसने वहां भी आवाज दी और उसने कहा कि मेरी फिकर छोड़ दें, कसूर भी होगा तो मेरा होगा, इस बच्चे का कौन सा कसूर है? इसे कुछ दूध मिल जाए।
उस लड़की को सहना मुश्किल हो गया जिसका वह बच्चा था। उसने अपने पिता से कहा, मुझे क्षमा करें। मैंने झूठ बोला। उस संन्यासी का तो मुझसे कोई परिचय भी नहीं है। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने ऐसा कह दिया। मैंने सोचा था कि थोड़ा कुछ कहा-सुनी करके आप वापस लौट आएंगे। बात यहां तक पहुंच जाएगी, यह मेरी कल्पना के बाहर था।
घर के लोग घबड़ा गए कि यह क्या हुआ? यह तो बड़ी भूल हो गई। यह तो बड़ा मुश्किल हो गया। वे नीचे भागे आए, वे उसके पैर पर फिर गिर पड़े, उसके पैर पड़ने लगे, बच्चे को उसके हाथ से लेने लगे। उसने कहा, क्या मामला है? बात क्या है?
उन्होंने कहा, यह बच्चा आपका नहीं है।
उसने कहा, इज़ इट सो? ऐसी बात है कि बच्चा मेरा नहीं? आप ही तो सुबह कहते थे कि बच्चा आपका है!
यह आदमी है निर-अहंकार। लोगों ने उससे कहा, तुम कैसे पागल हो? सुबह क्यों नहीं कहा कि बच्चा मेरा नहीं है?
उसने कहा, क्या फर्क पड़ता था? बच्चा जरूर किसी का होगा! मेरा भी हो सकता है! यानी यह बच्चा किसी का तो होगा ही! कोई न कोई इसका बाप होगा ही! अब तुम मुझे तो गाली दे ही चुके, अब एक और आदमी को गाली दोगे। क्या फायदा? मेरा मकान जला ही चुके, अब एक आदमी का और जलाओगे। क्या फायदा है? तो मैंने कहा कि इसमें फर्क भी क्या पड़ता है! और अच्छा ही हुआ।
तुम्हारे सम्मान, तुम्हारी श्रद्धा की भी मुझे गहराई पता चल गई। तुम्हारी बातों का भी मुझे मूल्य पता चल गया। अच्छा ही हुआ। इस बच्चे ने मुझ पर बड़ी कृपा की। मुझे कुछ बातें दिखाई पड़ गईं।
उन्होंने कहा, तुम बिलकुल ही पागल हो! इतना इशारा भर कर देते कि मेरा नहीं है, तो सब मामला बदल जाता।
उसने कहा, क्या फर्क पड़ता था? मेरी इज्जत ही बिगड़ रही थी न! तो क्या मैं इज्जत के लिए साधु हूं? रिसपेक्टबिलिटी के लिए? तुम्हारा आदर मिले इसलिए? तुम्हारे आदर-अनादर का भाव छोड़ा, उसी से तो मैं साधु हूं। तुम्हारे आदर-अनादर को विचार करके मैं कुछ करूं तो फिर मैं कैसा साधु हूं?
असल में भीतर मैं का भाव जिसका विलीन हो जाए, वही साधु है। और मैं का भाव विलीन हो जाना सीधा नहीं होता। कुछ और रास्ते से परोक्ष होता है, इनडायरेक्ट होता है। कैसे इनडायरेक्ट होता है? मैं के भाव को विलीन करने के लिए सबसे पहली साधना का अंग है–हम मैं को खोजें कि वह कहां है?
अमृत की दशा
ओशो
H.B.K. 646 Narrated by Swami Ramesh Bharti
Day: July 29, 2022
माँ का कटोरदान
जब हम छोटे थे तब मम्मी रोटियां एक स्टील के कटोरदान में रखा करती थी.
रोटी रखने से पहले कटोरदान में एक कपड़ा बिछाती वो कपड़ा भी उनकी पुरानी सूती साड़ी से फाड़ा हुआ होता था।वो कपड़ा गर्म रोटियों की भाप से गिरने वाले पानी को सोख लेता था, जैसे मम्मी की साड़ी का पल्लू सोख लेता था हमारे माथे पे आया पसीना कभी धूप में छाँव बन जाता, कभी ठण्ड में कानों को गर्माहट दे जाता।
कभी कपड़ा न होता तो अख़बार भी बिछा लेती थी मम्मी
…..लेकिन कुछ बिछातीं ज़रूर थी.समय बीतता गया और हम बड़े हुए.
एक बार दीपावली पर हम मम्मी के साथ बाजार गए
तो बर्तनो की दूकान पर देखा केसरोल …..चमचमाते लाल रंग, का बाहर से प्लास्टिक और अंदर से स्टील का था. दुकानदार ने कहा ये लेटेस्ट है इसमें रोटियां गर्म रहती है.
हम तो मम्मी के पीछे ही पड़ गए अब तो इसी में रोटियां रक्खी जाएँगी, मम्मी की कहाँ चलती थी हमारी ज़िद के आगे
अब रोटियाँ कैसेरोल में रक्खी जाने लगी.
कटोरदान में अब पापड़ रखने लगी थी मम्मी
अगले महीने, मम्मी की एक सहेली ने ,पापड़ मंगवा के दिए पर, वो तो बहुत बड़े थे, तो कटोरदान में फिट ही नहीं हो पाये इसलिए उन्हें एक दूसरे बड़े डब्बे में रखा गया….
और अब कटोरदान में मम्मी ने परथन (सूखा आटा जिसे लगाकर रोटियाँ बेली जाती है) रख लिया।जैसे जैसे समय बीतता गया कटोरदान की भूमिका भी बदलती गई पर वो मायूस न हुआ जैसा था वैसा ही रहा बस ढलता गया नयी भूमिकाओं में।
कुछ और समय बीता….
मेरी शादी हो गयी और मैं एक नए शहर में आ गयी।मम्मी ने मुझे बहुत सुन्दर कीमती और नयी चीज़ें दी अपनी गृहस्ती को सजाने के लिए…..
पर मुझे हमेशा कुछ कमी लगती
एक बार जब गर्मी की छुटियों में मम्मी से मिलने गई तो मम्मी ने मुझे एक कैसेरोल का सेट दिया.
मैने कहा मुझे ये नहीं वो कटोरदान चाहिए
मम्मी हंस दी बोली …. उसका क्या करेगी? ये ले जा लेटेस्ट है
मैंने कहा हाँ ठीक है पर वो भी ।
मम्मी मुस्कुरा दी और परथन निकालकर कटोरदान धोने लगी , उसे अपनी साड़ी के पल्लू से सुखाया और उसमे पापड़ का एक पैकेट रख कर मेरे बैग में में रख दिए ।
अब खुश मम्मी बोली, ……मैने कहा हाँ
मै उस कटोरदान को बहुत काम में लेती हूं सच कहू तो अकेलापन कुछ कम हुआ
कभी बेसन के लाडू भर के रखती हूं ,कभी मठरी
कभी उसमें ढोकला बनाती हूँ
कभी सूजी का हलवा जमाती हूँ
कभी कभी पापड़ भी रखती हू I नित नयी भूमिका मैं ढल जाता है मम्मी का ये कटोरदान
यहाँ आने बाद मुझे मम्मी की बहुत याद आती थी ,पर मैं कहती नहीं थी के मम्मी को दुःख होगा
कभी कभी सोचती हू क्या इस कटोरदान को भी मम्मी की याद आती होगी
ये भी तो मेरी तरह मम्मी के हाथों के स्पर्श को तरसता होगा आखिर इसने भी तो अपनी लगभग आधी ज़िन्दगी उनके साथ बिताई है ।
बस हम दोनों ऐसे ही अक्सर मम्मी को याद कर लेते हैं
एक दूसरे को ‘ छू ‘ कर मम्मी का प्यार महसूस कर लेते है।
बस ऐसे ही एकदूसरे को सहारा दे देते हैं …..
मैं और मम्मी का कटोरदान।
सच माँ की कमी कोई पूरा नहीं कर सकता इसलिये आज माँ है तो पल भर भी गंवाये बिना उनके साथ जिन्दगी जी लो…..
સોમનાથ
11 મે 1951 ના દિવસે સોમનાથ મહાદેવની પ્રાણપ્રતિષ્ઠા થઇ હતી.
તા.11 મેં 1951, વૈશાખ શુક્લ પાંચમના દિને પ્રથમ રાષ્ટ્રપતિ ડો.રાજેન્દ્રપ્રસાદ દ્વારા ગર્ભગૃહનુ ઉદ્ઘાટન કરવામાં આવ્યું હતું. સમુદ્રમાં શણગારેલી બોટમાં રાખવામાં આવેલી 21 તોપની સલામી સાથે ભક્તોએ જય સોમનાથના નાદ સાથે સોમનાથ મંદિર પર ધ્વજારોહણ કર્યું હતું. આ પ્રસંગે સરદાર સાથે સોમનાથ નિર્માણમાં મહત્વની ભુમીકા અદા કરનાર લોકો તરીકે દિગ્વિજયસિંહ, કાકાસાહેબ ગાડગીલ, મોરારજીભાઇ દેસાઇ, કનૈયાલાલ મુનશી સામેલ હતા.
ચંદ્રએ કરી હતી સોમનાથ મહાદેવની સ્થાપના
શાસ્ત્રોમાં ઉલ્લેખ પ્રમાણે હજારો વર્ષો પહેલા ચંદ્રએ પોતાને મળેલા શ્રાપમાંથી મુક્તિ મેળવવા આ જગ્યાએ મહાદેવની ઉગ્ર તપશ્ચર્યા કરી સોમનાથ મહાદેવને પ્રસન્ન કરી શ્રાપમાંથી આંશિક મુક્તિ મેળવી હતી. ચંદ્રનું બીજું નામ સોમ. અને સોમના નાથ એટલે સોમનાથ. ચંદ્રએ બ્રહ્માજીની હાજરીમાં અહીં મહાદેવની સ્થાપના કરી હતી. ઇતિહાસમાં ઉલ્લેખ છે તે મુજબ આ મંદિર સુવર્ણ અને રત્નોથી જડિત હતું. મલેચ્છ મહંમદ ઘોરી દ્વારા લૂંટનાં ઈરાદાથી વારંવાર આક્રમણ કરી સોમનાથ મંદિરને લૂંટી અને ખંડિત કરવામાં આવ્યું હતું. આઝાદી બાદ સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલએ સોમનાથના નવનિર્માણનો સંકલ્પ કર્યો હતો.
ભારતના પ્રથમ રાષ્ટ્રપતિ ડો. રાજેન્દ્ર પ્રસાદના હસ્તે સોમનાથ મંદિરનો જીર્ણોદ્ધાર _ પ્રાણપ્રતિષ્ઠા
સમગ્ર વિશ્વનાં કરોડો શ્રધ્ધાળુઓની આસ્થાનું કેન્દ્ર એવા સોમનાથ મહાદેવ મંદિરનો આજે 70મો પ્રાણ પ્રતિષ્ઠા દીવસ સોમનાથમાં ઊજવાઇ રહ્યો છે. 1951ના વેશાખસુદ પાંચમના દીવસે ભારતના પ્રથમ રાષ્ટ્રપતી ડો. રાજેન્દ્ર પ્રસાદના વરદ હસ્તે સવારે 9.46 મીનીટે સોમનાથ મંદિરનાં જીર્ણોધ્ધાર બાદ સોમનાથ મહાદેવની પ્રાણપ્રતિષ્ઠા કરવામાં આવી હતી. આજે એજ સમયે સોમનાથ ટ્રસ્ટ સ્થાનીક ભુદેવો સાથે યાત્રીકોએ ભગવાન સોમનાથની મહાપુજા અને આરતી કરી ધ્વજા પુજન ધ્વજા રોહણ કર્યું હતુ. બાદ સોમનાથ મંદીરના સ્વપ્ન દ્રષ્ટા એવા સરદાર પટેલને પણ શ્રધ્ધાસુમન અર્પણ કર્યા હતા.
સોમનાથ મંદિરને આક્રમણખોરોએ અનેક વખત કર્યું ધ્વસ્ત
પ્રાગ ઐતિહાસિક કાળમાં નિર્માણ પામેલું સોમનાથ મંદિર સાત વખત વિદેશી આક્રમણખોરો સામે લડીને ધ્વસ થઈને પુનઃ નિર્માણ બાદ આજે ભારતના ઇતિહાસમાં આજે પણ અજયે અને અડીખમ જોવા મળી રહ્યું છે. ઈસ્વીસન પહેલા સૈકામાં લકુવિસે પ્રથમ મંદિરના નિર્માણમાં બહુમૂલ્ય ભાગ ભજવ્યો હતો. સોમનાથ ખાતે આવેલા છઠ્ઠા મંદિરનું નિર્માણ 13મી સદીમાં થયેલું હોવાનું માનવામાં આવે છે. ત્યાર બાદ 1325 થી 1469ની વચ્ચે જૂનાગઢના રાખેંગારે મંદિરમાં લિંગનીની સ્થપના કરી ત્યાર બાદ 1469 માં અમદાવાદના સુલતાન મહમદ બેગડાએ મંદિર પર ચડાઈ કરીને મંદિરને ધ્વસ્ત કર્યું હતું. ત્યારબાદ 12 નવેમ્બરના 1947ના દિવસે સોમનાથ આવેલા ભારતના લોખંડી પુરૂષ સરદાર પટેલે સોમનાથ મંદિરની જીર્ણ હાલત જોઈને સમુદ્રના જળથી મંદિરના પુનઃનિર્માણની પ્રતિજ્ઞા લીધી હતી. 13 નવેમ્બર 1947ના દિવસે કનૈયાલાલ મુન્સીને મંદિર નિર્માણની જવાબદારી સોંપી હતી. ત્યાર બાદ ગાંધીજી દ્વારા આ મંદિરનું નિર્માણ લોકભાગીદારીથી કરવાનું સુચન આવતા સરદાર પટેલે સોમનાથ ટ્રસ્ટની સ્થાપના કરીને 11મી મે 1951ના દિવસે દેશના પ્રથમ રાષ્ટ્ર પ્રમુખ ડો રાજેન્દ્ર પ્રસાદના હસ્તે શિવલિંગનું સ્થાપન કરવામાં આવ્યું. આ મંદિર મહામેરુ પ્રાસાદ પૂર્ણ સ્વરૂપે બનીને આજે અડીખમ જોવા મળી રહ્યું છે.
હમીરજી ગોહિલ અને વેગડાજી ભીલ સોમનાથને તુટતુ બચાવવાની લડાઈમાં વીરગતિ પામ્યા
સોમનાથની સખાતે નીકળેલા હમીરજી ગોહિલ અને વેગડાજી ભીલની સેનાએ મહમદ બેગડાની સેનાએ સામે લડાઈ લડીને સોમનાથને તુટતુ બચાવવાની લડાઈમાં વીરગતિ પામ્યા ત્યારથી સોમનાથની સાથે હમીરજી ગોહિલ અને વેગડાજી ભીલને પણ યાદ કરવામાં આવે છે. આજે વેગડાજી ભીલની સોમનાથ ખાતે આવેલી ડેરીમાં તેમના વંશજો દ્વારા તેમની વીરગતિને યાદ કરવામાં આવે છે. સોમનાથના ગૌરવપૂર્ણ ઇતિહાસની સાથે હમીરજી ગોહિલ અને વેગડાજી ભીલને આજે પણ યાદ કરવામાં આવે છે. સૌરાષ્ટ્રના આ બે વીર સપૂતોને કારણે સોમનાથ મંદિર આજે આસ્થાનું પ્રતીક બની રહ્યું છે.
🚩🚩જય સોમનાથ જય ભોલેનાથ જય હિન્દ🚩🚩
આહીર ભુપતભાઇ જળું
ध्यान से पढ़िएगा….✍️
एक डॉक्टर बहुत ही अनुभवी औऱ समझदार थे।
उनके बारे में यह कहा जाता कि वह मौत के मुंह में से भी रोगी को वापस ले आते थे।
अक्सर डॉक्टर के पास जो भी मरीज आता वह उससे एक फॉर्म भरवाते थे।
मरीज से यह पूछते कि आप इस फार्म में लिखें कि यदि आप सकुशल बच गए तो किस तरह से बाकी जिंदगी जिएंगे और आपके जीवन में क्या करना शेष रह गया है जो आप करना चाहेंगें ?
सभी मरीज अपने मन की बात लिखते थे….
अगर मैं बच गया तो अपने परिवार के साथ अपना समय बिताऊंगा।
मैं अपने पुत्र और पुत्री की संतानों के साथ जी भर कर खेलूंगा।
किसी ने जी भर कर पर्यटन, घूमने, लिखने-पढ़ने का शौक पूरा करने का लिखा।
किसी ने तो यह भी लिखा की मेरे द्वारा जिंदगी में यदि किसी को ठेस पहुंची है तो मैं उससे माफी मागूँगा।
किसी ने लिखा कि मैं अपनी जिंदगी में हँसी की मात्रा बढ़ा दूंगा।
जिंदगी में किसी से भी शिकायत नहीं करूंगा और ना किसी को शिकायत का मौका दूंगा। किसी का भी मन न दुखे ऐसा काम करूंगा।
बहुत से लोगों ने तरह-तरह की बातें लिखी।
डॉक्टर आपरेशन करने के बाद जब मरीज को छुट्टी देते तब वह लिखा हुआ फार्म उन्हे वापस कर देते थे।
मरीज से कहते की आपने जो फॉर्म में लिखा है वह आप अपनी जिंदगी में कितना पूरा कर पा रहे हैं उस पर निशान लगाते जाएं। वापस आएं और मुझे बताएं कि आपने इसमें से किस तरह की जिंदगी जी है।
डॉक्टर ने कहा कि एक भी व्यक्ति ने ऐसा नहीं लिखा कि अगर मैं बच गया तो मुझे किसी से बदला लेना है।
अपने दुश्मन को खत्म कर दूंगा।
मुझे बहुत धन कमाना है।
अपने आपको बहुत व्यस्त रखना है।
सबसे हंस बोल कर रहना है
प्रत्येक का जीवन जीने का नजरिया अपना-अलग था।
डॉक्टर ने प्रश्न किया की जब आप स्वस्थ थे तब आपने इस तरह का जीवन क्यों नहीं जिया, आपको कौन रोक रहा था। अभी कौन सी देरी हो गई है ??
कुछ क्षण अपने जीवन के बारे में चिंतन मनन करें। हमें अपनी जिंदगी में किस तरह का जीवन जीना शेष रह गया है जो हम जीवन जीना चाहते थे ?
जीवन का आनंद तब ही है कि जब जीवन की यात्रा पूर्ण हो तब कोई कामना नहीं रहे, कोई अफ़सोस ना रहे !!
लालच की खोपड़ी
. “लालच की खोपड़ी”
एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी। किसी फकीर ने सम्राट से भिक्षा मांगी थी। सम्राट ने उससे कहा, “जो भी चाहते हो, मांग लो।
” दिवस के प्रथम याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने का उसका नियम था।
उस फकीर ने अपने छोटे से भिक्षापात्र को आगे बढ़ाया और कहा, “बस इसे स्वर्ण मुद्राओं से भर दो ।”
सम्राट ने सोचा इससे सरल बात और क्या हो सकती है!
लेकिन जब उस भिक्षा पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली गई, तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असंभव था।
“वह तो जादुई था”
जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई, वह उतना ही अधिक खाली होता गया!
सम्राट को दुखी देख वह फकीर बोला,
“न भर सको तो वैसा कह दो ”
मैं खाली पात्र को ही लेकर चला जाऊंगा! ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि लोग कहेंगे कि सम्राट अपना वचन पूरा नहीं कर सके !”
सम्राट ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया, उसके पास जो कुछ भी था, सभी उस पात्र में डाल दिया गया, लेकिन अद्भुत पात्र न भरा, सो न भरा। तब उस सम्राट ने पूछा,”भिक्षु, तुम्हारा पात्र साधारण तो नहीं है।
उसे भरना मेरी सामर्थ्य से बाहर है।
क्या मैं पूछ सकता हूँ कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है?”
वह फकीर हँसने लगा और बोला,
” कोई विशेष रहस्य नहीं ”
यह पात्र मनुष्य की खोपड़ी से बनाया गया है। क्या आपको ज्ञात नहीं है कि मनुष्य के लालच की खोपड़ी को कभी भी भरा नहीं जा सकता?”
धन से, पद से, ज्ञान से- किसी से भी भरो, वह खाली ही रहेगी, क्योंकि इन चीजों से भरने के लिए वह बनी ही नहीं है।
इस सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है, उतना ही दरिद्र होता जाता है। इसकी इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं होती हैं….!
जय जय सियाराम !🚩
हर हर महादेव!🚩
समस्त मित्रों को सुप्रभात🙏प्रणाम
हरुश शर्मा
આપણી દરિયાદિલીને કોઇ ના સમજ્યું…………….
(સત્ય ઘટના)
લગભગ ચાલીસેક વર્ષ પહેલાંની ઘટના. ઇદી અમીનના ત્રાસમાંથી છટકીને માંડ-માંડ વતન ભેગાં થયેલાં કનુભાઇ અને કાંતાબહેન જ્યારે મુંબઇના એરપોર્ટ ઉપર ઊતર્યાં ત્યારે આ દંપતી પાસે સામાનમાં સાત બાળકો સિવાય એક પણ દાગીનો ન હતો. ત્રણ દીકરા અને ચાર દીકરીઓ. પહેરેલાં કપડે નાસી છુટ્યાં હતાં. કાંતાબહેનનો વસવસો છેક કમ્પાલા છોડ્યું તે ઘડીથી ચાલુ જ હતો…
‘અરેરે..! આ મહેલ જેવડો બંગલો, આ ચાર-ચાર ગાડીઓ, આ કપડાં-લત્તા ને સોનાનાં ઘરેણાંથી ઊભરાતાં કબાટો, આ બધું અહીં એમ ને એમ મૂકીને ચાલ્યાં જવાનું..? જિંદગીભરની કમાણી આ કાળિયાઓને સોંપી દેવાની..? અને દેશમાં જઇને કરીશું શું..?’
જવાબમાં કનુભાઇએ દિલાસો દીધો…
‘એમ સાવ ભાંગી પડવાની જરૂર નથી, કાંતા..! જે પાછળ છુટી ગયું છે એનો વિચાર ન કર, જે કંઇ આપણી પાસે બચ્યું છે એ વિશે વિચાર..!’
કનુભાઇની વાત સાચી હતી. દોરી-લોટો લઇને કમ્પાલામાં આવેલા કનુભાઇએ સમય જતાં જવેલરીનો ધંધો જમાવ્યો હતો. સોનાના અને હીરાના દાગીનામાં એ મોખરાનું નામ બની ગયા હતા. અત્યારે ભલે બધું પાછળ છુટી ગયું હોય, પણ આટલાં વર્ષોમાં એમણે મબલખ કમાણી વતનભેગી કરી લીધી હતી.
‘કાંતા, રાજકોટમાં બા-બાપુજી છે. નાનો ભાઇ છે. તને તો ખબર પણ નહીં હોય, દર વરસે હું બા-બાપુજીને યુગાન્ડા ફરવાને બહાને તેડાવતો હતો અને પાછા ફરતી વખતે સોનાના દાગીના અને હીરાનું ઝવેરાત મોકલતો હતો. બધો વહીવટ નાનોભાઇ કરે. આપણી કમાણીમાંથી અત્યારે ચાલીસ ઓરડાની વિશાળ હવેલી રાજકોટમાં ઊભેલી છે. બાપુજીએ ટ્રાવેલ્સનો ધંધો જમાવ્યો છે એ પણ આમ જુઓ તો આપણો જ છે. યુગાન્ડા છોડવું પડ્યું તો છોડવું પડ્યું..! તારે જરાપણ દુ:ખી થવાની જરૂર નથી. આપણી સાતપેઢી ખાય એટલું ધન મેં બાપુજી અને નાનાભાઇને આપી રાખ્યું છે. તારા ચાર દીકરાઓ રાજાના કુંવરોની જેમ ઊછરેલા છે અને એમ જ ઊછરશે.’
કાંતાબહેન આ બધી વાતથી અજાણ હતાં. અત્યારે એમને શાંતિ વળી. છેલ્લાં વીસેક વરસોમાં એ પતિની સાથે ચાર-પાંચ વાર વતનની મુલાકાતે આવી ચૂક્યાં હતાં, પણ ત્યારે એમણે એવું ધાર્યું હતું કે રાજકોટની જાહોજલાલી એમના સસરા અને દિયરની કમાણીનું પરિણામ હશે. છેક આજે સાચી વાતનો ફોડ પડ્યો. મુંબઇથી ટ્રેન પકડીને આખો પરિવાર રાજકોટ આવ્યો. કનુભાઇએ અગાઉથી પત્ર લખીને જાણ કરી દીધી હતી કે ગમે ત્યારે અહીંથી ભાગવું પડે તેમ છે. પણ સાવ ખાલી હાથે આવેલા મોટા દીકરાને જોઇને બાપુજીએ મોં બગાડ્યું. નાનોભાઇ પણ નારાજ હતો. ચોરસ બાંધકામમાં ઊભેલા ચાલીસ ઓરડાઓની વચ્ચે વિશાળ ખુલ્લો ચોક હતો. એટલો વિશાળ કે એમાં દસ બસો પાર્ક કરેલી હતી, તો પણ ક્રિકેટ મેચ રમી શકાય એટલી જગ્યા બચતી હતી. કનુભાઇએ ધીમેકથી પત્નીના કાનમાં કહ્યું…
‘આ બધું આપણું છે, કાંતા..! અને બેંકનાંખાતાઓમાં બીજા સાઠેકલાખ રૂપિયા જમા છે એ તો વળી જુદા જ…’
અવાજ ધીમો હતો પણ નાનો ભાઇ સાંભળી ગયો. એણે ઇશારો કર્યો, એટલે એની પત્નીએ પહેલેથી વિચારી રાખેલી ફટકાબાજી શરૂ કરી દીધી..
‘આમાં તમારું કાંઇ નથી, સમજયા..! આ બધી અમારા પરસેવાની કમાણી છે. આવ્યા છો તો શાંતિથી બે-ચાર દિવસ પડ્યા રહો..! બાકી કાયમના ધામા નાખવાનો વિચાર માંડી વાળજો..!’
કનુભાઇએ પિતાની સામે જોયું..
‘બાપુજી, તમે કેમ ચૂપ છો..?
દર વરસે હું તમારી સાથે લાખોરૂપિયાના હીરા અને સોનાના દાગીના…?’
‘બેટા, મને કંઇ યાદ નથી!!!’
બાપે ખાલીદીકરા તરફથી મોં ફેરવી લીધું અને ભરેલા દીકરાનો હાથ ઝાલી લીધો. વતનમાં આવ્યા પછીના ચોવીસ કલાકમાં જ કનુભાઇ અને એમનો પરિવાર રસ્તા પર આવી ગયો. કોઇક જૂના મિત્રે પોતાના નાનકડા મકાનનો એક રૂમ કાઢી આપ્યો. હવેલીનો માલિક સાંકડી ઓરડીમાં સમેટાઇ ગયો. બે-ચાર શુભચિંતકોએ કોર્ટ-કેસ કરવાની સલાહ આપી, પણ વકીલોએ કહી દીધું..
‘કનુભાઇ, તમારો કેસ નબળો છે, જીતવાનો કોઇ ચાન્સ નથી. સામેવાળા પાસે જે કંઇ ધન છે એ તમે આપેલું છે એનો કોઇ સાક્ષી નથી, પુરાવો નથી, લેખિત કે મૌખિક સાબિતી નથી. ભૂલી જાવ બધું!’
ચોથા દિવસે કનુભાઇને આઘાતના માર્યા હૃદયરોગનો હુમલો થઇ આવ્યો. પંદર દિવસ પથારીમાં કાઢયા પછી એ અનંતની સફરે ઊપડી ગયા. એમના અંતિમ શબ્દો હતા..
‘કાંતા, હું ભગવાન પાસે જઇને એટલું જરૂર પૂછવાનો છું કે મને થયેલા અન્યાય માટે ધા નાખવા જેવી આ જગતમાં શું એક પણ અદાલત નથી..?! આવજે, કાંતા..!! મને ચિંતા એટલી જ છે કે તું આ સાત બાળકોને કેવીરીતે મોટાં કરીશ, ભણાવીશ અને એમને શી રીતે વળાવીશ…!’
બસ, એક ડચકું અને પરપોટો જળમાં સમાઇ ગયો.
સમૃદ્ધિનો દિવસટૂંકો હોય છે, ગરીબીની રાતલાંબી હોય છે. કનુભાઇએ દુનિયા છોડી, ત્યારે એમનો સૌથી નાનો દીકરો દસ વર્ષનો હતો અને સૌથી મોટો વીસ વર્ષનો. બાપની કારજક્રિયા પતાવીને મોટો દીકરો હાર્ડવેરના એક વેપારીની દુકાનમાં નોકરીએ લાગી ગયો. પચાસ રૂપિયાના પગારે..! આ ચપટી જેટલા પગારમાં આઠ જણાં શું ખાતાં હશે ને શું પહેરતાં-ઓઢતાં હશે એ કલ્પનાનો વિષય છે. પણ જમાનો સારો હતો, માણસો સારા હતા અને મરનારની સુવાસ બરકરાર હતી. એટલે વાંધો ન આવ્યો. પાંચેક વર્ષ ટિપાયાં પછી મોટા દીકરાએ એના શેઠને કહ્યું..
‘પ્રભુ..!! મારે ધંધો કરવો છે. મદદ કરો.’
શેઠે સલાહ ન આપી, સહાય આપી. નાની-નાની ઉધારી સાથે થોડો-થોડો માલ આપવા માંડ્યો. મોટો દીકરો બીજા પાંચવર્ષમાં રાજુમાંથી રાજેશ બની ગયો, પછી રાજેશભાઇ અને આજે રાજેશ શેઠ તરીકે હાર્ડવેરના માર્કેટમાં એના નામના સિક્કા પડે છે. ત્રણેય બહેનોને સારા ઘરે પરણાવીને પછી ચારેય ભાઇઓ પરણ્યા. એમનાં પ્રાત:સ્મરણીય કાંતાબા આજે બાણું વરસનાં છે અને વિશાળ કુટુંબની માથે વડલો બનીને પથરાયેલાં છે. આ બધું રાતો-રાત સિદ્ધ નથી થયું, પણ આ ચમત્કારને સાકાર થવામાં ચાલીસ વરસ લાગી ગયાં છે. મારે જે વાત કરવી છે તે આ શૂન્યમાંથી સર્જન થવા વિશેની નથી કરવી, મારે તો પેલા નિસાસા વિશે વાત કરવી છે જે કનુભાઇ મરતી વખતે આ પૃથ્વીની હવામાં મૂકતા ગયા હતા:
‘મને ન્યાય અપાવી શકે તેવી એક પણ અદાલત શું આ જગતમાં નહીં હોય.?’
કનુભાઇની પીઠમાં ખંજર ભોંક્યા પછી નાનોભાઇ બેસુમાર દોલતનો માલિક તો બની ગયો, પણ હરામનો પૈસો એ સાચવી ન શક્યો. દારૂ, જુગાર અને સ્ત્રીઓમાં તમામ ધન ગુમાવી બેઠો. હવેલી વેચાઇ ગઇ. બસો વેચાઇ ગઇ. છોકરાં રઝળી પડ્યાં. એની ખલનાયિકા જેવી બૈરીએ ખાટલો પકડી લીધો. પાંત્રીસમા વરસે પક્ષાઘાતનો ભોગ બનીને એ સ્ત્રી પથારીમાં પડી તે છેક પંચ્યાસીમા વરસે મરીને છુટી. પૂરાં પચાસ વરસ એણે મળ-મૂતરનાં ખાબોચિયાંમાં પસાર કરી નાખ્યાં. મરતી વખતે પતિને કહેતી ગઇ..
‘આ બધું મોટાભાઇ ને કાંતાભાભીને કરેલા અન્યાયનું પરિણામ છે. હું તો મારીસજા ભોગવીને જઇ રહી છું, પણ તમે એમની માફી…’
ભત્રીજા રાજેશભાઇના સુંદર બંગલાના પ્રવેશદ્વાર પાસે જઇને કાકા ઊભા રહ્યા ત્યારે વોચમેને ભિખારી સમજીને તેને મારવા લીધા. એ તો ભલું થાજો કાંતાબાનું કે એમની નજર પડી ગઇ..! દિયરે ચોંધાર આંસુઓથી ભાભીના પગ પખાળ્યા..
‘ભાભી, મને માફ કરો..! કાન પકડું છું, માની ગયો કે ઇશ્વર જેવું કશુંક છે. એની કચેરીમાં દેર પણ નથી અને અંધેર પણ નથી.’
કાંતાબાએ એક વાર આસમાન તરફ નજર ફેંકી લીધી, કોઇની સાથે વાત કરી લીધી. પછી મોટાદીકરા રાજેશને બોલાવ્યો. કહ્યું…
‘બેટા, ગઇ-ગુજરી ભૂલી જા..! આ તારા કાકાને ઘરમાં લે..! અને એમના દીકરાઓને ધંધામાં પલોટવાનું શરૂ કરી દે..!’
દીકરો બોલ્યો…
‘પણ…બા…! આમની ઉપર દયા…?’
‘હા, બેટા..! બાળપણમાં તારા બાપુજી પેલી વાર્તા સંભળાવતાં હતા એ યાદ છે ને..? સાધુ અને વીંછીની વાર્તા..! બસ, તારે સાધુ જેવા સાબિત થવાનું છે, વીંછી જેવા નહીં.
જય પરશુરામ
હર હર મહાદેવ
🙏🙏🙏🙏🙏
पेरियार
पेरियार की कहानी दलित की जुबानी !
लेखक- अरुण लवानिया
चेन्नई की झुग्गी-झोपड़ी में एक दलित परिवार में जन्मे और वहीं पचीस वर्ष बिताने वाले ऐम वेंकटेशन एक आस्थावान हिंदू हैं। उन्होंने चेन्नई के विवेकानन्द महाविद्यालय से दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की है। जब वेंकटेशन ने महाविद्यालय में प्रवेश लिया तो उनके कथनानुसार उन्हें प्रतिदिन पेरियारवादियों के एक ही कथन का लगातार सामना करना पड़ा कि पेरियार एक महान दलित उद्धारक थे। चूंकि उन्हें पेरियार दर्शन का कोई ज्ञान नहीं था, उन्होंने पेरियार से संबंधित समस्त उपलब्ध साहित्य के अध्ययन और शोध करने का संकल्प लिया। इसके लिये उन्होंने पेरियार द्वारा स्थापित, संचालित और संपादित सभी पत्रिकाओं , विदुथालाई, कुडियारासु , द्रविड़नाडु, द्रविड़न, उनके समकालीन सभी नेताओं अन्नादुराई, ऐम पी सिवागन, केएपी विश्वनाथन, जीवानंदम आदि के भाषण और लेख तथा ‘पेरियार सुयामरियादि प्रचारनिलयम’ द्वारा प्रकाशित उनके समस्त साहित्य पर गहन शोध किया। एक आस्थावान हिंदू होने के कारण पेरियार द्वारा हिंदू देवी देवताओं पर लगाये गये बेबुनियाद आरोपों से आहत होकर पेरियार का सत्य सामने लाने के लिये वेंकटेशन ने एक पुस्तक तमिल में लिखी, ‘ई.वी. रामास्वामी नायकरिन मरुपक्कम'(पेरियार का दूसरा चेहरा)।
वेंकटेशन के शब्दों में :
” मैं अपने ईष्ट देवी-देवताओं और हिंदू धर्म पर पेरियार के असभ्य और जंगली विचारों को सहन न कर सका। मुझे जिसने जन्म दिया उस प्रिय और पवित्र मां पर यह हमला था। पेरियार के संपूर्ण साहित्य पर शोध के बाद मुझे तीव्र सांस्कृतिक चोट पहुंची और उनकी हिंदू देवी-देवताओं और मेरे धर्म के प्रति घनघोर घृणा देखकर मैं अत्यधिक दुखी हो गया। पेरियार ने दलितों के लिये कुछ भी नहीं किया बल्कि उन्हें दोयम दर्जे का ही बनाये रखा। अगर पेरियार सौ प्रतिशत ब्राह्मण विरोधी थे तो अस्सी प्रतिशत दलित विरोधी भी थे।”
वेंकटेशन की पुस्तक पेरियार का संपूर्ण शव विच्छेदन करती हुई पेरियार वादियों के गले की हड्डी बन गई है। वेंकटेशन का दावा है कि जो भी सत्य का अन्वेषक है वह इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पेरियार को त्याग देगा।
इस पुस्तक का तमिल से अंग्रेज़ी और हिंदी में अनुवाद आज तक ना हो पाने के कारण पेरियार का असली चेहरा देश के सामने प्रकट नहीं हो पाया है। परिणाम स्वरूप पेरियार को दलित उध्दारक बताने और अंबेडकर के साथ जोड़ने का कुचक्र आज भी जारी है।
इन्हीं वेंकटेशन के नीचे दिये यूट्यूब वीडियो के लिंक में 24 मिनट के संबोधन को इस लेख द्वारा हिंदी में प्रस्तुत किया जा रहा है। वेंकटेशन ने पेरियार दलित, राष्ट्र और धर्म विरोधी एजेंडे का बेरहमी से तथ्यों का संदर्भ देकर जो पोस्टमार्टम किया है वो आंखें खोलने वाला है। वेंकटेशन कहते हैं:
” अंग्रेजों ने हमपर शासन प्रारंभ करने के साथ ही यह समझने लिया था कि शायद वो भारत पर स्थाई रूप से शासन करने में असमर्थ होंगे। क्योंकि उनके विरुद्ध निरंतर विद्रोह होने लगा था और इन घटनाओं को लेकर वो बहुत चिंतित थे। उन्होंने मंथन किया कि यदि उन्हें भारत पर अपना शासन चलाये रखना है तो किसी भी तरह विरोध की आग को बुझाना ही होगा। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने विदेश से अनेक विद्वानों को भारत बुलाया। इन विद्वानों को यह पता लगाना था कि किन-किन उपायों और कार्यवाहियों से वो अनंत काल तक शासन कर सकते हैं।यही बात समझने के लिये सारे आयातित गोरे विद्वान देश के विभिन्न राज्यों में गये। एक ऐसे ही गोरे विद्वान के अनुसार :
“यदि हम भारत पर स्थाई रूप से शासन करना चाहते हैं तो हमें इस देश को विभाजित और तोड़ना पड़ेगा। भारत एक स्वाभिमानी राष्ट्र है और हमें सर्वप्रथम भारतियों के स्वाभिमान को नष्ट करना होगा। इस राष्ट्र की नींव हिंदू आध्यात्मिकता है जिसे सर्वप्रथम जड़ से उखाड़ फेंकना है। यदि हम ऐसा करने में असफल रहे तो हम भारत पर लंबे समय तक शासन नहीं कर पायेंगे। इसी हिंदू संस्कृति को हमें अपमानित, हीन और पूरी तरह ध्वस्त करना होगा। हिंदू देवी-देवताओं को लोगों की निगाहों से गिराना होगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनकी भाषा को नीचा साबित करना होगा। हमें यह भी पक्का करना होगा कि भारतीय हमारी इन बातों पर विश्वास भी करने लगे जायें कि उनकी संस्कृति नीच है। इसमें कुछ भी अच्छा नहीं है। इसप्रकार भारतियों को मानसिक रूप से अपना गुलाम बना लेना ही उनपर शासन करने का एकमात्र उपाय है। उपर्युक्त सारी संस्तुतियां
आयातित गोरे विद्वानों के शोध से निकल कर सामने आयीं और अंग्रेजों ने तत्परता से इसपर कार्य करना प्रारंभ कर दिया।
सर्वप्रथम काल्डवेल ने ‘ए ग्रामर औफ द्रविड़ियन लैंग्वेजेस’ लिखी। साथ ही यह भी लिखा कि सारी भारतीय भाषायें तमिल से ही उपजी हैं और संस्कृत का तमिल से कोई संबंध नहीं है। इसके तुरंत पश्चात् ऐसे ही लेखों कि बाढ़ आने लगी। इसी समय अंग्रेजों ने निर्णय लिया कि भारत को तोड़ने के लिये उन्हें अपने भारतीय समर्थकों के साथ ही उन कतिपय नेताओं की भी आवश्यकता है जो उनकी साजिश को अंजाम दे सकें। इसलिये अंग्रेजों के इशारे पर तत्कालीन मद्रास प्रांत में टी एम नायर, सर पित्ती तेइगरिया आदि ने जस्टिस पार्टी का गठन किया। प्रारंभ में यह गैर राजनीतिक थी परंतु शनै: शनै: राजनीति में शामिल होने लगी। जस्टिस पार्टी ने ही सर्वप्रथम ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण की अवधारणा तमिलनाडु में पैदा की। ऐसी विभाजनकारी अवधारणा तमिलनाडु में इसके पहले अनुपस्थित थी। हमारे अपने ही लोगों के माध्यम से अंग्रेजों ने हमें कदम दर कदम तोड़ना शुरू कर दिया।
1916 में जस्टिस पार्टी की स्थापना हुयी और 1919 में पेरियार राजनीति में आये। इससे पहले इन्हें राजनीति में कोई नहीं जानता था। राजनीति के प्रारंभिक दिनों में वो राष्ट्रभक्त और आध्यात्मिक थे। उन्होंने आर्य और द्रविड़ के विभाजन की अवधारणा को सिरे से नकारा भी। 1919 में एक पत्रिका ‘नेशनलिस्ट’ में लेख लिखकर आर्य-द्रविड़ विभाजन के सिद्धांत सिरे से नकारते हुये पेरियार ने इसे धोखा बताया। यहां तक कि जब उन्होंने अपनी प्रथम पत्रिका निकाली तो ये लिखा कि वो यह कार्य ईश्वर के दिव्य आशीर्वाद से कर रहे हैं। उन्होंने एक हिंदू संत से अपनी पत्रिका के कार्यालय का उद्घाटन भी करवाया। पेरियार ने जस्टिस पार्टी का विरोध सैद्धांतिक रूप से भी किया और अपने कार्यों से भी। पेरियार और थिरू वी के ने एक संगठन बनाकर जस्टिस पार्टी का तमिलनाडु में विरोध भी किया। फिर अचानक पेरियार ने जस्टिस पार्टी से संबंध बनाने शुरू किये जिसके सभी सदस्य अंग्रेजों के पिट्ठू थे। सच्चाई यह थी कि जस्टिस पार्टी बनाने में अंग्रेजों का ही हाथ था। जस्टिस पार्टी के कारण पेरियार की प्रसिद्धि और प्रचार बढ़ने लगा।
पेरियार तमिलनाडु के सर्वाधिक धनी व्यक्ति थे। उन दिनों जितने भी राष्ट्रीय नेता तमिलनाडु आते थे वो पेरियार के व्यक्तिगत् अतिथि हुआ करते थे। उनका रहना, खाना-पीना सब पेरियार के घर पर ही होता था। पेरियार का परिवार इरोड का एक सम्मानित और संपन्न परिवार था। उनकी नेतृत्व क्षमता का आकलन कर अंग्रेजों ने उन्हें जस्टिस पार्टी में शामिल करने की योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया। अंग्रेजों के इशारे पर जस्टिस पार्टी के कर्णधारों ने पेरियार से मिलना जुलना और उनसे संबंध बनाना चालू कर दिया। पेरियार ने भी उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और थोड़े ही समय में दोनों के मध्य नज़दीकी संबंध भी बन गये।
तभी कतिपय आर्थिक अनियमितताओं को लेकर पेरियार और कांग्रेस में गहरी दरार पड़ गयी। अधिकतर लोगों को इस बात की जानकारी आज भी नहीं है। दरअसल आंध्रप्रदेश के संस्थानम ने चेरन मां देवी गुरुकुलम को पांच हजार का दान दिया था। पेरियार पर आरोप था कि उसने कांग्रेस के पैसे का दुरपयोग किया। पेरियार ने अपने बचाव में कहा कि यह पैसा उसकी अनुमति लिये बिना दिया गया। इसी आरोप के साथ पेरियार का कांग्रेस के साथ मतभेद गहराता चला गया और उसने ‘सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट’ की शुरुआत कर दी। इस मूवमेंट के पीछे अंग्रेजों की गहरी साज़िश थी और उनके और जस्टिस पार्टी के अतिरिक्त और किसी ने भी इसका समर्थन तमिलनाडु में नहीं किया। शनै: शनै: पेरियार अंग्रेजों के बौद्धिक प्यादा हो गये। अंग्रेजों के दृष्टिकोण का उन्होंने समर्थन करना शुरु कर दिया।
यदि हम 1927 के पश्चात् पेरियार के दिये हुये भाषणों के देखें तो सब राष्ट्र और हिंदू विरोधी थे। यदि इन भाषणों को गहराई से देखें तो आश्चर्यजनक रूप से ये दलित विरोधी थे। इसका कारण यह है कि गांधी दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिलाने के लिये उस समय सत्याग्रह आंदोलन कर रहे थे। गांधी ने अपील की चूंकि आगम नियमों के मुताबिक शूद्र मंदिर के मंडप तक जा सकते हैं, दलितों को भी मंडप तक जाने का अधिकार है। उनको भी यह अनुमति मिलनी चाहिये पेरियार ने तुरंत इस बात का प्रतिवाद किया कि शूद्र और दलित समान हैं। उस काल में शूद्रों मंडप तक जा सकते थे। पेरियार ने कभी यह नहीं कहा कि मंदिर प्रवेश के लिये सभी वर्णों को समान अधिकार है। वो शूद्रों को चौथा वर्ण मानते थे और दलित को पांचवां जो मंदिर प्रवेश के अधिकारी नहीं है। उन्होंने मरते दम तक यह माना कि शूद्र और दलित अलग-अलग है। इस बात को उन्होंने सार्वजनिक मंचों से कई बार बिना किसी शर्म के कहा भी।
तभी चेतन मां देवी गुरुकुलम में हुयी एक घटना ने पूरे तमिलनाडु को झकझोर दिया। हुआ यह कि वी वी एस अय्यर ने विशेष रूप से पकाये भोजन को गुरुकुल के दो ब्राह्मण विद्यार्थियों को ही दिया। यह घटना तमिलनाडु में बड़ा मुद्दा बन गयी। तुरंत इसका बहाना खड़ा कर सर्वप्रथम पेरियार ने ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण का हौआ राज्य में खड़ा करना शुरू किया। यहीं से उसकी ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण की राजनीति की नींव पड़ी। इस मुद्दे के समाधान और सभी को समान अधिकार देने के लिये एक राष्ट्रवादी कांग्रेसी गावियकंद गणपथि सास्त्रुगल अय्यर सामने आये। उन्होंने कहा कि यद्यपि गुरुकुल में एक भी दलित विद्यार्थी नहीं है फिर भी एक दलित को गुरुकुल का बावर्ची नियुक्त किया जाये। जिसके हाथों से पकाया भोजन सभी विद्यार्थी खायें। यही सामाजिक न्याय का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण होगा। अय्यर संस्कृत के उत्कृष्ट विद्वान भी थे। लेकिन सामाजिक न्याय के योद्धा पेरियार ने कहा कि वो इस सुझाव को कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने प्रश्न खड़े किये कि कैसे दलित का पकाया भोजन शूद्रों खा सकता है। यह उनकी दलित विरोधी मानसिकता थी जिसका पालन उन्होंने आजीवन किया। हास्यास्पद रूप से आज भी पेरियार को दलितों का मसीहा बताकर लोगों को बरगलाया जाता है। यह झूठ का पुलिंदा मात्र है।
अपने दलित विरोधी विचारों के साथ ही उन्हें अब यह लगा कि हिंदुत्व का विनाश कर ही राष्ट्र को तोड़ा जा सकता है। इसके लिये जो रणनीति उसने बनायी उसमें प्रथम था रामायण को गालियां देना। रामायण को नीचा साबित करने के लिये अनेक पुस्तकें लिखी गयीं। महाभारत को भी नहीं बख्शा गया। हम सभी महान संत और कवि कंब से परिचित हैं जिन्होंने कंब रामायण लिखी थी। पेरियार ने एक पुस्तक ‘कंब रस्म’ लिखकर रामायण को बेहद अश्लील तरीके से प्रस्तुत किया। नीचता की पराकाष्ठा कर उसने संत कवि कंब, भगवान राम और देवी सीता को जी भर गालियां दीं।
पेरियार के इस कदम का शैव मतावलंबियों ने तालियां बजाकर स्वागत् और समर्थन किया क्योंकि पेरियार वैष्णव मत वालों पर हमला कर रहा था। शैव मठों के प्रमुख महंतों ने, जिसमे कुंद्राकुडी अडिगल भी सम्मिलित थे, इसी कारण पेरियार का समर्थन किया। यही स्थिति थी उस समय तमिलनाडु में। लेकिन कुछ समय पश्चात् जब पेरियार ने तमिल शैव ‘पेरिया पुराणम्’ पर भी हमला बोला तब शैवों को पेरियार की असल साजिश का एहसास हुआ। फलस्वरूप सभी मतावलंबी एकजुट होकर पेरियार के विरोध में आ गये। एक-एक कर सभी हिंदू ग्रंथ पेरियार के निशाने पर आने लगे। यहां तक कि उसने तिरुक्कुरल को भी हर संभव गालियां देनी प्रारंभ कर दी। पेरियार के शब्दों में तिरुक्कुरल “सोने की थाली में परोसी गयी मानव विष्ठा है।”
प्राचीन तमिल महाकाव्य सिलापथिकरम के रचनाकार इलांगो अडिगल, तोल्कापियर आदि जितने महापुरुष, जिनको तमिल हिंदू हृदय से पूजते थे, उन सभी को पेरियार अपमानित करने लगा। पेरियार की इस साज़िश के पीछे एकमात्र कारण यह था कि इन महापुरुषों और इनके द्वारा रचित सभी ग्रंथों से हिंदू, जिन्हें वो पवित्र मानते हैं, गुमराह होकर इनसे घृणा करने लगें और इनसे विमुख हो जायें। पेरियार का शातिर दिमाग यह जानता था किसी भी व्यक्ति को उसकी संस्कृति से काट कर ही उसे किसी विदेशी संस्कृति को अपनाने के लिये सहजता से तैयार किया जा सकता है। यही उसका एकमात्र ध्येय भी था।
इसके बाद उसने राम के पुतले का दहन किया। विनयागर (गणेश) मूर्ति को सलेम जिले में जनता के मध्य तोड़ा।पेरियार की कहने पर उसके गुंडों ने हर तरह के अत्याचार हिंदू मान्यताओं पर करना शुरू किया। किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। विनयागर मूर्ति तोड़ने के मामले पर सलेम जिले में हिंदुओं की धार्मिक आस्था आहत करने का मुकदमा पेरियार के संगठन द्रविड़ कड़गम पर दर्ज भी हुआ। अदालत में न्यायाधीश की टिप्पणी थी कि यदि मूर्ति तोड़ने से वास्तव में किसी की भावना आहत हुयी है तो कम से कम किसी एक ने तो इसपर मौके पर या बाद में अपनी प्रतिक्रया दी होती। चूंकि किसी ने भी विरोध नहीं किया तो इसका अर्थ है कि किसी को भी इससे कोई परेशानी नहीं थी और सबने इस कार्य को स्वीकार किया।
उस समय सभी मौन थे। पेरियार की सभी हरकतों को हमने अपनी नियति मान ली थी। किसी ने भी विरोध में चूं तक नहीं की। एक ओर हमारा हिंदू धर्म था और दूसरी ओर हमारी भाषा जिसे हम देवी के रूप में पूजते थे। उसने संस्कृत और तमिल को बांट दिया। दलितों के दिमाग में यह बात ठूंस दी कि संस्कृत विदेशी भाषा है और दलितों और संस्कृत का कोई नाता नहीं है। लेकिन भला ऐसा कैसे संभव है ? दलितों और संस्कृत के मध्य सदा से गहरा और निकट का नाता रहा है। वाल्मीकि जी और व्यास ने संस्कृत में लिखा। किसने उन्हें संस्कृत पढ़ाई ? संस्कृत ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी जाता रहा। दलितों की एक उपजाति है वल्लुवर जो आज की तारीख तक हिंदू पंचांग संस्कृत में लिखते हैं। क्या कोई बिना संस्कृत ज्ञान के पंचांग लिख सकता है ? ध्यान देने की बात है कि आज भी वल्लुवरों को कोई ब्राह्मण संस्कृत नहीं पढ़ाता है। डा. अंबेडकर ने कहा था कि यदि कोई भाषा संपूर्ण राष्ट्र की साझा भाषा हो सकती है तो वो केवल संस्कृत ही है। ऐसा उन्होंने संविधान सभा की चर्चा के मध्य संसद में कहा था। सिलापथिकरम कोवलन संस्कृत के विद्वान थे। वो संस्कृत सहजता से बोला भी करते थे। एकबार किसी राहगीर ने उनसे संस्कृत भाषा में लिखा कोई पता पूछा तो उन्होंने संस्कृत पढ़कर उसे उत्तर दिया। कोवलन वनिबा चेट्टियार थे जो एक वैश्य उपजाति है। यह इस बात का प्रमाण है कि संस्कृत आमजन की भाषा भी थी। हर व्यक्ति के हृदय में संस्कृत के लिये भक्तिभाव था। अत: पेरियार के लिये यह आवश्यक था कि अपने कुटिल उद्देश्य की पूर्ति हेतु संस्कृत के प्रति आम जनता के भक्तिभाव को कैसे भी हो तोड़ा और नष्ट किया जाये।
तमिलनाडु में दलित और अन्य जातियां सदा से मिलजुल कर रहा करती थीं। पेरियार इसी आपसी सद्भाव को तोड़कर समाज को दलित और गैर दलित में बांटने की साज़िश रच रहा था। इस साज़िश के तहत उसने योजनाबद्ध तरीके से यह घोषणा की कि समस्त जातिगत् झगड़े ब्राह्मणों के कारण ही हैं। तमिलनाडु के अनेक गांवों में जहां एक भी ब्राह्मण नहीं आबाद था वहां जातिगत् झगड़े और हिंसा हुआ करते थे। पेरियार ने इन सभी के लिये ब्राह्मणों को जिम्मेदार ठहराता था। आज भी तमिलनाडु में ऐसा ही होता है। मुडुकुलथुर दंगे तमिलनाडु की मझोली जातियों के समूह मुक्कलदोर और देवेन्द्र कुला वेल्लार दलितों के बीच ही हुये थे। इस दंगे में दो व्यक्ति मारे गये थे। एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इन दंगों को लेकर कहा :
” तुम जातियों का विनाश चाहते हो या नहीं ! मन बना लो। फांसी की रस्सी के लिये तैयार रहो। सभी युवा खून से हस्ताक्षर कर इस बारे में घोषणा करें कि वो गांधी की मूर्तियों तोड़ेंगे और ब्राह्मणों को मारेंगे।”
जबकि मुडुकुलथुर और ब्राह्मणों के बीच कोई संबंध ही नहीं था। साथ ही पेरियार ने यह भी कहा कि सभी प्रकार की जातिगत् झगड़े ब्राह्मणों के कारण हैं।
पेरियार ने एक हजार से भी अधिक निबंध और लेख लिखे हैं। अस्सी प्रतिशत से अधिक अपने लेखों में उसने सभी स्थानों में सभी प्रकार की समस्याओं का कारण केवल ब्राह्मणों को ही बताया है।
वर्ष 1962 में किलवेनमनि दंगों में नायडू जाति वालों ने 44 दलितों को जिंदा जला कर मार डाला था। इस पूरे क्षेत्र में एक भी ब्राह्मण नहीं रहता था। यहां भी पेरियार ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दंगों के लिये ब्राह्मणों को दोषी मानते हुये मांग की:
” जातियों को तोड़ने के लिये ब्राह्मणों का समूल नाश कर दिया जाये। “
भारत का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। जो भी इस दिव्य राष्ट्र और हिंदुत्व की रक्षा करता है उसे हम उच्च पायदान पर रख कर उसको एक संत के समान पूजते हैं। यदि कोई भगवान वस्त्र धारण करता है तो हम उसका सम्मान करते हैं। हमारे हृदय में ब्राह्मणों के लिये सदा से सम्मान इसलिये रहा है क्योंकि वो भौतिक जीवन का त्याग कर राष्ट्रीय के लिये ही जीते रहे हैं। कुंज वृत्ति ! अर्थात् ब्राह्मणों द्वारा खेतों में गिरे अन्य के दानों को चुनकर उन्हें पकाकर खाना। यही वो ब्राह्मण थे जिनका तमिलनाडु में सभी समुदाय सदा से सम्मान करते थे। ब्राह्मणों की यही प्रतिष्ठा धूमिल और नष्ट करना पेरियार के जीवन का एक बड़ा लक्ष्य था। इसके लिये पेरियार ने समाज की सभी समस्याओं के लिये ब्राह्मणों को दोषी ठहराना प्रारंभ किया। वह और उसके लोग बहुत धूर्तता से इस साज़िश को मूर्तरूप देने लगे। अंततोगत्वा तमिलनाडु के निर्दोष ब्राह्मण पेरियार की कुटिल चाल की भेंट चढ़ ही गये। वह अपनी चाल में सफल हो गया।
तत्पश्चात् पेरियार ने वर्ष 1944 में एक प्रस्ताव पारित किया:
” अंग्रेजों को भारत छोड़कर वापस नहीं जाना चाहिये। लेकिन यदि ऐसा करना ही पड़े तो वो भारत के सभी राज्यों को आजादी दे दें। बस तमिलनाडु ही अंग्रेजों के राज्य के अधीन रहे।”
इस प्रस्ताव के सामने आते ही तमिलनाडु की जनता की आंखें खुलीं और उन्हें एहसास हुआ कि पेरियार और उसके संगठन द्रविड़ कड़गम और जस्टिस पार्टी के समस्त कार्यकलापों के पीछे अंग्रेजी राज का ही हाथ है। ये दोनों संगठन ब्रिटिश राज की ही उपज थे।”
विवेक आर्य
क्या ये मोबलिंचीग नहीं थी…?
जापान में एक कहावत है “भीषण आपदा में सबसे भाग्यशाली वही है जो सबसे पहले मरता है”…….. जो बच जाते हैं नर्क भोग कर मरते है…!
2-3 दिसम्बर 1984 की रात भोपाल शहर के हज़ारों लोग एक ऐसी नींद सो गए जिससे वो कभी नही जागे…. जो जाग भी सके वो अगले 34 साल नर्क भोगने को जागे थे…!
उन्हें जिस मौत ने जकड़ लिया था उसका नाम था #methyl_Isocyanate (MIC) उन दुर्भाग्यशाली लोगों की तो छोड़िए भोपाल के डॉक्टरों ने भी इसका नाम नहीं सुना था जिस यूनियन कार्बाइड नाम की अमेरिकन कंपनी के टैंकों से ये गैस रिसी थी उसके अपने ही देश में उस गैस पर सालों पहले प्रतिबंध लग चुका था…!
हाँ पर अमेरिका रासायनिक हथयारों के अपने जखीरे में इसे जरूर रखता था………कई अन्य अजीबोगरीब इतेफाक (या षणयंत्र) भी इस अमेरिकन कंपनी की कथित दुर्घटना में हुए हैं…!
1. स्थापना के समय इसमें गैस टैंक को ठंडा रखने के लिए समुचित उपकरण लगाए गए थे जिन्ह बिना किसी वजह 1982 में हटा दिया गया…!
2. पाइप लाइन में स्टील के पाइप हटा लोहे के लगाए गए…!
3. पाइप लाइन की सफाई का पूरा सिस्टम कुछ महीनों पहले ही हटा दिया गया था मगर टैंक से जुड़ी पानी की पाइप लाइन छोड़ दी गयी थी…!
4. पानी की लाइन के सारे वाल्व एक साथ खराब हुए….!
5. UC के सभी विदेशी कर्मी दिसंबर से पहले ही भोपाल से निकल लिए थे…!
6. गैस रिसाव की जानकारी मिलने के आठ घंटे बाद सायरन बजाया गया एवं भोपाल पुलिस को सूचना दी गयी…!
क्या इतनी सारी चीज़ें महज़ #लापरवाही_या_इत्तेफ़ाक थे…?
या कुछ और था जो कभी बाहर नहीं आने दिया गया…?
जहां भोपाल में ये अजीबोगरीब इत्तेफ़ाक़ एकत्र थे वहीं अमेरिका में कुछ और पक रहा था……..जो पक रहा था उसके केंद्र में था #आदिल_शहरयार…!
इंदिरा का एक बेहद करीबी था मोहम्मद यूनुस इतना करीबी जितना फ़िरोज़ गांधी भी नहीं था उसका एक बेटा था आदिल शहरयार आदिल और संजय गांधी कभी दिल्ली में शौकिया कार चोर हुआ करते थे जिन्ह उनकी ऊंची हस्ती की वजह से पुलिस कभी हाथ नहीं लगा पायी…!
आगे चलकर आदिल के पाकिस्तान की ISI और तब के कई जेहादी संगठनों से गहरी यारी हो गयी…!
80 के दशक के सुरु में फ्लोरिडा में एक बम धमाका हुआ और वहां की पुलिस ने मुख्य अपराधी के रूप में पहचान की आदिल शहरयार की उसे गिरफ्तार किया गया और अदालत में अपराध सिद्ध होने पर उसे 35 साल की सजा सुनाई गई…!
आदिल को अमेरिकी जेल में सड़ने को छोड़ दिया गया…… #मोहम्मद_यूनुस ने इंदिरा से अपने बेटे के लिए कुछ करने की मिन्नतें की पर काम कुछ बना नहीं…!
अब यहां एक बड़ा अजीब इत्तेफ़ाक़ और था……भोपाल के कई मुस्लिम कांग्रेस लीडर मोहम्मद यूनुस के वफ़ादार थे और उनकी सिफारिश पर बहुत सारे लोगों को यूनियन कार्बाइड में नौकरियां मिलीं थी….. वारेन एंडर्सन भी मोहम्मद यूनुस से काफी करीबी रिस्ते तब से रखता था जब मोहम्मद यूनुस तुर्की और स्पेन में राजदूत था…!
1984 दिसंबर में #भोपाल_नरसंहार अंजाम दिया गया वारेन एंडर्सन को तब का वहां का मुख्यमंत्री खुद दिल्ली छोड़ने आया जहां से मोहम्मद यूनुस ने राजीव पर दबाव बना उसे अमेरिका रवाना करवाया और बदले में हुई जून 1985 में रीगन के आदेश पर आदिल शहरयार की सुरक्षित रिहाई……..अमेरिकन सरकार ने जहां इस सौदे को कई मौकों पर स्वीकार किया राजीव इसे हमेसा नकारता रहा…. मोहम्मद यूनुस ने अपने अंतिम वक़्त में इसे अपने बेटे की गलत संगत में हुए अनर्थ के तौर पर दबे शब्दों में स्वीकारा…!
यहां एक और कमाल का इत्तेफाक था भोपाल कांड के बाद जिस कंपनी को UCC की सफाई और अन्य कार्यवाही देखने का काम दिया गया वो एक चाय पत्ती बनाने उगाने वाली कंपनी थी जिसकी आड़ में सालों अमेरिकी वैज्ञानिक अपने अध्ययन करते रहे…!
क्या वाकई जो भोपाल में हुआ वो एक दुर्घटना थी…. जिसमें ढेरों इत्तेफ़ाक़ थे…?
या ये एक भयावह मोबलिंचीग था जिसने कई राजनीतिक हित साधे…. और अमेरिका ने सबसे ताकतवर रासायनिक हथयार का प्रभाव आंका जैसा हिरोशिमा में परमाणु बम गिराने के बाद आंका गया था….!
जो कि अब सब गहरी कब्र में दफ़्न हो चुका है…!
तो क्या इस घटना को मोबलिंचीग नहीं कहा जा सकता है…?
अरुण शुक्ला
सुबह सुबह जंगल में सैर के लिए एक खरगोश जा रहा था।
उसने देखा कि एक भालू बैठकर शराब पी रहा है।
खरगोश से रहा न गया औऱ उसने भालू से कहा…..चाचा, क्यों ख़ुद भी मर रहे हो औऱ अपने बाल बच्चों को भी मारने पर तुले हो….शराब बहुत बुरी चीज़ है इसे त्याग दो।
भालू उसकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ औऱ रोने लगा।उसने कहा… तू बिलकुल ठीक कह रहा है भतीजे.. आज से शराब बंद।
उसके बाद भालू भी खरगोश के साथ चल पड़ा।
कुछ दूर आगे जाने के बाद दोनों ने देखा कि एक लोमड़ी सिगरेट पी रही है।
उसे देख खरगोश ने कहा…अपना फेफड़ा ख़राब मत करो मौसी….ये सिगरेट बहुत बुरी चीज़ है, अभी से तौबा कर लो नहीं तो जीवन नर्क हो जाएगा तुम्हारा।
लोमड़ी ने खरगोश की बातों को बहुत गंभीरता से लिया औऱ उसने उसी समय सिगरेट छोड़ने का फैसला कर लिया।
अब खरगोश औऱ भालू के साथ लोमड़ी भी चल पई।तीनों कुछ दूर आगे गए ही थे कि एक बाघ ताड़ी पी रहा था।
बाघ को नशा करते देख खरगोश से रहा न गया औऱ उसने अपनी ज़ुबान चलाई….दादा,अगर मरना चाहते हो तो आसान तरीका ढूंढ़ो… नशे की बुरी लत से मरकर क्यों अपने बीबी बच्चों को अनाथ करना चाह रहे हो ??
उसकी बातों को सुनकर बाघ ने भी नशे से तुरंत तौबा कर ली औऱ वो भी उनके साथ हो लिया।
चारो साथ कुछ दूर बढे ही थे कि उन्होंने देखा कि एक जिराफ़ भांग पिस रहा है।उन चारों को देख जिराफ़ बोला… आओ आओ, तुम सब को भांग की शरबत पिलाता हूँ…. इसे पीकर तुमलोग झूमने लगोगे।
खरगोश फिर व्याकुल हो गया औऱ उससे जब रहा न गया तो उसने कहा…ताऊ,तुम्हें अपने शरीर से बैर है क्या??नहीं न ?? फ़िर क्यों भांग की नशा कर रहे हो।नशा करने से आयु कम होती है औऱ आदमी जल्दी टें बोल देता है।
जिराफ़ खरगोश की बातों को सुनकर कुछ पल के लिए खामोश हो गया, उसके बाद बोला…बेटे,उम्र में तू भले ही छोटा है लेकिन बात तो बिलकुल पते की बोल रहा है…चल आज से नशा बंद।
उसके बाद जिराफ़ भी उन सब के साथ हो लिया औऱ सब जंगल में आगे बढ़े।
दूर से ही सबको एक साथ आते जंगल के राजा शेर ने देख लिया।शेर ने उन सब को रोका औऱ दहाड़ मारकर बोला….. ” अबे बेवकूफों, कहाँ जा रहे हो तुमसब इस शैतान खरगोश के पीछे पीछे….साला इसको कोई काम नहीं है… सुबह सुबह ख़ुद गांजा पीकर सबको भाषण देता फिरता है औऱ फ़ालतू में अपने साथ पूरा जंगल घुमाता है…. कई बार तो इसने मुझें भी बेवकूफ बनाया है……
शेर के इतना कहते ही खरगोश भागकर झाड़ियों में छुप गया औऱ सभी एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।
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निष्कर्ष…… ज्ञान सिर्फ़ दूसरों को देने के लिए होता है, उसपर ख़ुद अमल नहीं किया जाता शायद……!!
श्रावनी अमावश्य
श्रावणी_अमावस्या_की_व्रत_कथा
🌹🙏🌹 हर_हर_महादेव 🌹🙏🌹
एक समय की बात है, एक राजा महल में अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक निवास किया करता था। उसका एक पुत्र था, जिसकी शादी हो चुकी थी। राजा की पुत्रवधू ने एक दिन रसोई में मिठाई रखी हुई देखी तो वह सारी मिठाई खा गई। जब उससे पूछा गया कि सारी मिठाई कहां गई तो उसने कहा, सारी मिठाई तो चूहे खा गए।
यह बात चूहों ने सुन ली और वे इस गलत आरोप को सुनकर अत्यंत क्रोधित हुए। इसके बाद उन्होंने राजा की बहू को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। कुछ दिनों के पश्चात् महल में कुछ मेहमान आए, चूहों ने सोचा कि यह अच्छा मौका है, रानी को सबक सिखाने का।
बदला लेने के लिए, चूहों ने रानी की साड़ी चुराई और उसे जाकर अतिथि के कमरे में रख दी। जब सुबह सेवकों और अन्य लोगों ने उस साड़ी को वहां पर देखा, तो लोग रानी के बारे में बात करने लगे। यह बात जंगल में आग की तरह पूरे गाँव में फैल गई। जब यह बात राजा के कानों तक पहुंची तो उसने अपनी पुत्रवधू को महल से निकाल दिया।
रानी महल से निकल एक झोपड़ी में रहने लगी और नियमित रूप से पीपल के एक वृक्ष के नीचे दीपक जलाने लगी। इसके साथ ही वह पूजा करके, गुड़धानी को भोग लगाकर, लोगों में प्रसाद वितरित करने लगी।
इस प्रकार कुछ दिन बीत जाने के बाद, एक दिन राजा उस पीपल के पेड़ के पास से गुज़रे,जहां रानी हमेशा दीपक जलाया करती थी। इस दौरान उनका ध्यान उस पेड़ के आस-पास जगमगाती रोशनी पर गया। राजा इसे देखकर चकित रह गए। महल में वापस आने के बाद उन्होंने अपने सैनिकों से उस रोशनी के रहस्य का पता लगाने के लिए कहा।
सैनिक राजा की बात मानकर उस पेड़ के पास चले गए, वहां पर उन्होंने देखा कि दीपक आपस में बात कर रहे थे। सभी दीपक अपनी-अपनी कहानी बता रहे थे, तभी एक दीपक बोला, मैं राजा के महल से हूँ। महल से निकाले जाने के बाद, राजा की पुत्रवधू रोज़ मेरी पूजा करती है और मुझे प्रज्वलित करती है।
सभी अन्य दीपकों ने उससे पूछा कि रानी को महल से क्यों निकाला गया, तो उसने बताया कि, एक दिन रानी ने मिठाई खाकर चूहों का झूठा का नाम लगा दिया। इस पर चूहे नाराज़ हो गए और रानी से बदला लेने के लिए उसकी साड़ी अतिथि के कमरे में रख आए। यह सब देखकर राजा ने उन्हें महल से निकाल दिया।यह सब सुनकर सैनिक भी हैरान रह गए और महल वापिस आकर उन्होंने राजा को पूरी कहानी सुनाई।
यह सुनकर राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने अपनी पुत्रवधू को महल में वापस बुला लिया। इस प्रकार पीपल के पेड़ की नियमित पूजा करने का फल रानी को मिला और वह अपना जीवन आराम से व्यतीत करने लगी।