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♦️♦️♦️ रात्रि कहांनी ♦️♦️♦️


*🕉️ आज का प्रेरक प्रसंग ⚜️*

👉 *!! सच्ची मित्रता !!* 🏵️
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वह एक छोटी-सी झोपड़ी थी। एक छोटा-सा दिया झोपड़ी के एक कोने में रखा अपने प्रकाश को दूर-दूर तक फैलाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन एक कोने तक ही उसकी रोशनी सीमित होकर रह गयी थी। इस कारण झोपड़ी का अधिकतर भाग अंधकार में डूबा था। फिर भी उसकी यह कोशिश जारी थी, कि वह झोपड़ी को अंधकार रहित कर दे।

झोपड़ी के कोने में टाट पर दो आकृतियां बैठी कुछ फुसफुस कर रही थी। वे दोनों आकृतियां एक पति-पत्नी थे।

पत्नी ने कहा– “स्वामी ! घर का अन्न जल पूर्ण रूप से समाप्त है, केवल यही भुने चने हैं।”

पति का स्वर उभरा– “हे भगवान ! यह कैसी महिमा है तेरी, क्या अच्छाई का यही परिणाम होता है।”

“हूं” पत्नी सोच में पड़ गयी। पति भी सोचनीय अवस्था में पड़ गया।

काफी देर तक दोनों सोचते रहे। अंत में पत्नी ने कहा– “स्वामी ! घर में भी खाने को कुछ नहीं है। निर्धनता ने हमें चारों ओर से घेर लिया है। आपके मित्र कृष्ण अब तो मथुरा के राजा बन गये हैं, आप जाकर उन्हीं से कुछ सहायता मांगो।”

पत्नी की बात सुनकर पति ने पहले तो कुछ संकोच किया। पर फिर पत्नी के बार-बार कहने पर वह द्वारका की ओर रवाना होने पर सहमत हो गया।

सुदामा नामक उस गरीब आदमी के पास धन के नाम पर फूटी कौड़ी भी ना थी, और ना ही पैरों में जूतियां।

मात्र एक धोती थी, जो आधी शरीर पर और आधी गले में लिपटी थी। धूल और कांटो से भरे मार्ग को पार कर सुदामा द्वारका जा पहुंचा।

जब वह कृष्ण के राजभवन के द्वार पर पहुंचा, तो द्वारपाल ने उसे रोक लिया।

सुदामा ने कहा– “मुझे कृष्ण से मिलना है।”

द्वारपाल क्रूद्र होकर बोला– “दुष्ट महाराज कृष्ण कहो।”

सुदामा ने कहा– “कृष्ण ! मेरा मित्र है।”

यह सुनते ही द्वारपाल ने उसे सिर से पांव तक घुरा और अगले ही क्षण वह हंस पड़ा।

“तुम हंस क्यों रहे हो” सुदामा ने कहा।

“जाओ कहीं और जाओ, महाराज ऐसे मित्रों से नहीं मिलते” द्वारपाल ने कहा और उसकी ओर से ध्यान हटा दिया।

किंतु सुदामा अपनी बात पर अड़े रहे।

द्वारपाल परेशान होकर श्री कृष्ण के पास आया और उन्हें आने वाले की व्यथा सुनाने लगा।

सुदामा का नाम सुनकर कृष्ण नंगे पैर ही द्वार की ओर दौड़ पड़े।

द्वार पर बचपन के मित्र को देखते ही वे फूले न समाये। उन्होंने सुदामा को अपनी बाहों में भर लिया और उन्हें दरबार में ले आये।

उन्होंने सुदामा को अपनी राजगद्दी पर बिठाया। उनके पैरों से काटे निकाले पैर धोये।

सुदामा मित्रता का यह रूप प्रथम बार देख रहे थे। खुशी के कारण उनके आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।

और फिर कृष्ण ने उनके कपड़े बदलवाये। इसी बीच उनकी धोती में बंधे भुने चनों की पोटली निकल कर गिर पड़ी। कृष्ण चनो की पोटली खोलकर चने खाने लगे।

द्वारका में सुदामा को बहुत सम्मान मिला, किंतु सुदामा फिर भी आशंकाओं में घिरे रहे। क्योंकि कृष्ण ने एक बार भी उनके आने का कारण नहीं पूछा था। कई दिन तक वे वहा रहे।

और फिर चलते समय भी ना तो सुदामा उन्हें अपनी व्यथा सुना सके और ना ही कृष्ण ने कुछ पूछा।

वह रास्ते भर मित्रता के दिखावे की बात सोचते रहे।

सोचते सोचते हुए वे अपनी नगरी में प्रवेश कर गये। अंत तक भी उनका क्रोध शांत न हुआ।

किंतु उस समय उन्हें हेरानी का तेज झटका लगा। जब उन्हें अपनी झोपड़ी भी अपने स्थान पर न मिली।

झोपड़ी के स्थान पर एक भव्य इमारत बनी हुयी थी। यह देखकर वे परेशान हो उठे। उनकी समझ में नहीं आया, कि यह सब कैसे हो गया। उनकी पत्नी कहां चली गयी।

सोचते-सोचते वे उस इमारत के सामने जा खड़े हुये। द्वारपाल ने उन्हें देखते ही सलाम ठोका और कहा– “आइये मालिक।”

यह सुनते ही सुदामा का दिमाग चकरा गया।

“यह क्या कह रहा है” उन्होंने सोचा।

तभी द्वारपाल पुन: बोला – “क्या सोच रहे हैं, मालिक आइये न।”

“यह मकान किसका है” सुदामा ने अचकचाकर पूछा।

“क्या कह रहे हैं मालिक, आप ही का तो है।”

तभी सुदामा की दृष्टि अनायांस ही ऊपर की ओर उठती चली गयी। ऊपर देखते ही वह और अधिक हैरान हो उठे। ऊपर उनकी पत्नी एक अन्य औरत से बात कर रही थी।

उन्होंने आवाज दी–

अपना नाम सुनते ही ऊपर खड़ी सुदामा की पत्नी ने नीचे देखा और पति को देखते ही वह प्रसन्नचित्त होकर बोली– “आ जाइये, स्वामी! यह आपका ही घर है।”

यह सुनकर सुदामा अंदर प्रवेश कर गये।

पत्नी नीचे उतर आयी तो सुदामा ने पूछा– “यह सब क्या है।”

पत्नी ने कहा– “कृष्ण! कृपा है, स्वामी।”

“क्या” सुदामा के मुंह से निकला। अगले ही पल वे सब समझ गये। फिर मन ही मन मुस्कुराकर बोले– “छलिया कहीं का।”

*शिक्षा:-*
मित्रों! मित्र वही है जो मित्र के काम आये। असली मित्रता वह मित्रता होती है जिसमें बगैर बताये, बिना एहसान जताये, मित्र की सहायता इस रूप में कर दी जाये कि मित्र को भी पता ना चले। जैसा उपकार श्री कृष्ण ने अपने बाल सखा सुदामा के साथ किया।

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कबड्डी

आज सुबह से दादी को कुछ हो गया था। मीनू के शब्दों में जूड़ी चढ़ गई थी। मानस इसे मिर्ची का दौरा कह रहा था। आभाजी ने दोनों को डाँट पिला कर शांत किया था पर दादी को कैसे चुप कराया जाए?

आज मीनू ने क्रिकेट कोचिंग में दाखिले की बात उठाई थी। रवि और आभा ने उसकी क्रिकेट के प्रति रुचि देख कर स्वीकार भी कर लिया था। बस दादी जी तो आपा ही खो बैठी थी,

“इस छोरी का तो दिमाग हमेशा सातवै आसमान पर रहता है पर तुम दोनों को ये क्या हो रहा है…बिना सोचे समझे इसकी हर बात मान लेते हो।”

मानस बीच में टपका था,”अरे दादी, दुनिया चाँद पर पहुँच रही है पर आप वोही दकियानूसी बातें सोचती रहती हो।आजकल तो लड़कियां हर क्षेत्र में कितनी आगे हैं।”
उनका पारा हाई हो गया। चिल्ला कर बोलीं,”तू तो बीच में ना ही बोल। मैं अपने बेटे बहू से बात कर रही हूँ।”

रवि हँस दिए थे। प्यार से बोले,”हाँ बोलो ना अम्माँ! क्या कहना चाह रही हो?”

“देखो बेटा, मीनू को स्टेडियम क्यों भेज रहे हो? वहाँ कबड्डी खेलेगी तो ससुराल जाकर भी इसी तरह कबड्डी ही खेल कर हमारा नाम बदनाम करेगी। उसे पराए घर जाना है। इसे तौरतरीके सिखाओ। घर के काम सिखाओ। आगे वहीं सब काम आता है।”

पास बैठी मीनू चिढ़ कर बोली,”हाँ दादी, तुमने बुआजी को भी तो अच्छी बहू बनने के लिए कितनी ट्रेनिंग दी थी। आज उनका हाल किसी से छिपा नहीं है।”

जैसे मीनू ने उनकी दुखती रग पर ही हाथ रख दिया था। वो तड़प गई और आँसू छलक आए। बुआजी अच्छी बहू बनते बनते घर की परमानेंट नौकरानी ही बन चुकी थीं। फिर भी वो अपना आखिरी तीर छोड़ने से बाज नहीं आईं। कहने लगी,
“चलो ठीक है। पढ़ालिखा तो रहे ही हो। ये कबड्डा कबड्डी और क्रिकेट में पैसे क्यों बरबाद कर रहे हो। उसके विवाह के लिए पैसे जमा करो।”

बड़ी देर से चुप बैठी आभाजी बोल पड़ी,” अम्माजी, समय बदल गया है। हम मीनू को तरसा तरसा कर उसके विवाह के लिए पैसे जोड़ना ही नहीं चाहते। हम उसे विवाह के लिए तैयार करने की जगह उसे उसके सुंदर भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं। “

शायद दादी जी को कुछ समझ में आने लगा था। वो कुछ नरम पड़ने लगी थीं। धीरे से बोलीं,
“पर बिटिया को कुछ तौरतरीके भी तो सिखाने होंगे।”

तभी वो स्वादिष्ट मटर पोहे की प्लेट उनको थमाते हुए बोली,”देखो दादी, मैंने बनाए हैं। खाकर बताओ तो।”

प्लेट से उठती भाँप और सुगंध से वो गदगद हो गई। उसको आशीष देने लगीं..मीनू खुश होकर उनके गले लग गई। तभी मानस चिल्लाया,”दादी, मटर मैंने छीली थी।”

सब हँसने लगे।

नीरजा कृष्णा
पटना

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*🌷कमजोरी को ताकत बनाओ🌷*

“मधुर कहानियां”
*वो बड़े इत्मीनान से गुरु के सामने खड़ा था। गुरु अपनी पारखी नजर से उसका परीक्षण कर रहे थे। नौ दस साल का छोकरा। बच्चा ही समझो। उसे बाया हाथ नहीं था। किसी बैल से लड़ाई में टूट गया था।*

*”तुझे क्या चाहिए मुझसे?” गुरु ने उस बच्चे से पूछा।*

*उस बच्चे ने गला साफ किया। हिम्मत जुटाई और कहा, ” मुझे आप से कुश्ती सीखनी है।*

*एक हाथ नहीं और कुश्ती लड़नी है ? अजीब बात है।*

*” क्यू ?”*

*”स्कूल में बाकी लड़के सताते है मुझे और मेरी बहन को।*

*टुंडा कहते है मुझे। हर किसी की दया की नजर ने मेरा जीना हराम कर दिया है गुरुजी।*

*मुझे अपनी हिम्मत पे जीना है। किसी की दया नहीं चाहिए। मुझे खुद की और मेरे परिवार की रक्षा करनी आनी चाहिए।”*

*”ठीक बात। पर अब मै बूढ़ा हो चुका हूं और किसी को नहीं सिखाता। तुझे किसने भेजा मेरे पास?”*

*”कई शिक्षकों के पास गया मै। कोई भी मुझे सिखाने को तैयार नहीं। एक बड़े शिक्षक ने आपका नाम बताया। तुझे वो ही सीखा सकते है क्यों की उनके पास वक्त ही वक्त है और कोई सीखने वाला भी नहीं है ऐसा बोले वो मुझे।”*

*वो गुरूर से भरा जवाब किसने दिया होगा ये उस्ताद समझ गए।*

*ऐसे अहंकारी लोगो की वजह से ही खल प्रवृत्ति के लोग इस खेल में आ गए ये बात गुरुजी जानते थे।*

*”ठीक है। कल सुबह पौ फटने से पहले अखाड़े में पहुंच जाना। मुझसे सीखना आसान नहीं है ये पहले ही बोल देता हूं। कुश्ती ये एक जानलेवा खेल है। इसका इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए करना।*

*मै जो सिखाऊ उसपर पूरा भरोसा रखना। और इस खेल का नशा चढ़ जाता है आदमी को। तो सिर ठंडा रखना। समझा?”*

*”जी उस्ताद। समझ गया। आपकी हर बात का पालन करूंगा। मुझे आपका चेला बना लीजिए।*

*”मन की इच्छा पूरी हो जाने के आंसू उस बच्चे की आंखो में छलक गए। उसने गुरु के पांव छू कर आशीष लिया।*

*”अपने एक ही चेले को कैसे सिखाना ह उस्ताद ने ये सोचना शुरू किया। मिट्टी रोंदी, मुगदुल से धूल झटकायी और इस एक हाथ के बच्चे को कैसे विद्या देनी है इसका सोचते सोचते उस्ताद की आंख लग गई।*

*एक ही दांव उस्ताद ने उसे सिखाया और रोज़ उसका ही अभ्याश बच्चे से करवाते रहे। छह महीने तक रोज बस एक ही दाव। एक दिन चेले ने उस्ताद के जन्मदिन पर पांव दबाते हुए हौले से बात को छेड़ा।*

*”गुरुजी, छह महीने बीत गए, इस दांव की बारीकियां अच्छे से समझ गया हूं और कुछ नए दांव पेंच भी सिखाइए ना। “*

*गुरुजी वहां से उठ के चल दिए। बच्चा परेशान हो गया कि गुरु जी को उसने नाराज़ कर दिया।*

*फिर गुरुजी की बात पर भरोसा कर के वो सीखते रहा। उसने कभी नहीं पूछा कि और कुछ सीखना है।*

*गांव में कुश्ती की प्रतियोगिता आयोजित की गई। बड़े बड़े इनाम थे उसमे। हरेक अखाड़े के चुने हुए पहलवान प्रतियोगिता में शिरकत करने आए।*

*गुरुजी ने चेले को बुलाया। “कल सुबह बैल जोत के गाड़ी तैयार करना । पास के गांव जाना है। सुबह कुश्ती लड़नी है तुझे।”*

*पहली दो कुश्ती इस बिना हाथ के बच्चे ने यूं जीत ली। जिस घोड़े के आखरी आने की उम्मीद हो और वो रेस जीत जाए तो रंग उतरता है वैसा सारे विरोधी उस्तादों का मुंह उतर गया।*

*देखने वाले अचरज में पड़ गए। बिना हाथ का बच्चा कुश्ती में जीत ही कैसे सकता है? कौन सिखाया इसे?”*

*लोगो के मन मे उसकी कुश्ती देखने की इच्छा प्रबल होने लगी*

*अब तीसरी कुश्ती में सामने वाला खिलाड़ी नौसिखुआ नहीं था। पुराना जांबाज़ था।*

*पर अपने साफ सुथरे हथकंडों से और दांव का सही तोड़ देने से ये कुश्ती भी बच्चा जीत गया।*

*अब इस बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ गया। पूरा मैदान भी अब उसके साथ हो गया था। मै भी जीत सकता हूं ये भावना उसे मजबूत बना रही थी।*

*देखते ही देखते वो अंतिम बाज़ी तक पहुंच गया।*

*जिस अखाड़े वाले ने उस बच्चे को इस बूढ़े उस्ताद के पास भेजा था, उस अहंकारी पहलवान का चेला ही इस बच्चे का आखरी कुश्ती में प्रतिस्पर्धी था।*

*ये पहलवान बड़ी उम्र का होने के साथ साथ शक्ति और अनुभव से इस बच्चे से श्रेष्ठ था।*

*कई मैदान मार लिए थे उसने। इस बच्चे को वो मिनटों में चित कर देगा ये स्पष्ट था। पंचों ने राय मशवरा किया।*

*”ये कुश्ती लेना सही नहीं होगा। कुश्ती बराबरी वालो में होती है। ये कुश्ती मानवता और समानता के अनुसार सही नही ह इसलिए इसे रद्द किया जाता है।*

*इनाम दोनों में बराबरी से बांटा जाएगा।” पंचों ने अपना मंतव्य प्रकट किया।*

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*”मै इस कल के छोकरे से कई गुना ज्यादा अनुभवी हूं और ताकतवर भी। मै ही ये कुश्ती जीतूंगा ये बात सोलह आने सच है। तो इस कुश्ती का विजेता मुझे बनाया जाए।”*

*वह प्रतिस्पर्धी अहंकार में बोला।*

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*”मै नया हूं और बड़े भैया से अनुभव में छोटा भी। मेरे उस्ताद ने मुझे ईमानदारी से खेलना सिखाया है। बिना खेले जीत जाना मेरे उस्ताद की तौहीन है।*

*मुझे खेल कर मेरे हक का जो है वो लेना ह। मुझे ये भीख नहीं चाहिये।” उस बांके जवान की स्वाभिमान भरी बात सुन कर जनता ने तालियों की बौछार कर दी।*

*ऐसी बाते सुनने को तो अच्छी होती ह पर हकीकत में नुकसान देय होती।*

*पंच हतोत्साहित हो गए। कुछ कम ज्यादा हो गया तो? अपना पहले ही एक हाथ खो चुका है और कुछ नुकसान ना हो जाए? मूर्ख कही का!*

*लड़ाई शुरू हुई।*

*और सभी उपस्थित अचंभित रह गए। सफाई से किए हुए वार और मौके की तलाश में बच्चे का फेंका हुआ दांव उस बलाढ्य प्रतिस्पर्धी को झेलते नहीं बना।*

*वो मैदान के बाहर औंधे मुंह गिर पड़ा था। कम से कम परिश्रम में उस नौसिखुए स्पर्धक ने उस पुराने महारथी को धूल चटा दी थी।*

*अखाड़े में पहुंच कर चेले ने अपना मेडल निकाल के उस्ताद के पैरो में रख दिया। अपना सिर गुरु के पैरो में रख कर पैरों की धूल माथे लगा कर मिट्टी से सना लिया।*

*”गुरुजी, एक बात पूछनी थी। “*

*”पूछो।”*

*”मुझे सिर्फ एक ही दांव आता है। फिर भी मै कैसे जीता?”*

*” उस्ताद बोले तू दो दांव सीख चुका था। इस लिए जीत गया।”*

*”कौनसे दो दांव उस्ताद?”*

*पहली बात, तू ये दांव इतनी अच्छी तरह से सीख चुका था के उसमे गलती होने की गुंजाइश ही नहीं थी। तुझे नींद में भी लड़ाता तब भी तू इस दांव में गलती नहीं करता। तुझे ये दांव आता है ये बात तेरा प्रतिद्वंदी जान चुका था,*

*पर तुझे सिर्फ यही दांव आता है ये बात उसे थोड़ी मालूम थी?”*

*”और दूसरी बात क्या थी उस्ताद? “*

*”दूसरी बात ज्यादा महत्व रखती है। हरेक दांव का एक प्रतीदांव होता है! ऐसा कोई दाव नहीं है जिसका तोड़ ना हो। वैसे ही इस दांव का भी एक तोड़ था।”*

*”तो क्या मेरे प्रतिस्पर्धी को वो दांव मालूम नहीं होगा?”*

*” वो उसे मालूम था। पर वो कुछ नहीं कर सका। जानते हो क्यू?…*

*क्यूंकि उस तोड़ में दांव देने वाले का बाया हाथ पकड़ना पड़ता है!”*

*अब आपके समझ में आया होगा कि एक बिना हाथ का साधारण सा लड़का विजेता कैसे बना?*

*जिस बात को हम अपनी कमजोरी समझते है, उसी को जो हमारी शक्ति बना कर जीना सिखाता है, विजयी बनाता है, वो ही सच्चा उस्ताद है।*

*अंदर से हम कहीं ना कहीं कमजोर होते है, दिव्यांग होते है। उस कमजोरी को मात दे कर जीने की कला सिखने वाला ही महान होता ह।*

*मन के हारे हार ह*
*मन के जीते जीत*
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*🙏जय श्री राम ~ जय श्री कृष्णा🙏*
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*प्रेषक :- श्याम सारस्वत*

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1947, नवंबर 3 तारीख। तारीख याद रखिये। भारत को कागजों मे स्वाधीन हुए 3 महीना भी नही हुआ था । वेद-कर्मकांड स्कूल में प्राइज़ गिविंग सेरिमनी चल रहा था। उस समय में गवर्नर थे कैलाशनाथ काट्जू। वे आये थे मुख्य अतिथि बनकर। प्रधान आचार्य पंण्डित राम चन्द्र रथ भी वहाँ उपस्थित थे और सभापतित्व कर रहे थे। भारतीकृष्ण तीर्थजी, जो कि कितने ही विषयों मे फर्स्ट क्लास फर्स्ट थे आप अनुमान भी नही कर सकते। भारतीकृष्ण जी गोवर्धन मठ के मुख्य(शंकराचार्य) थे और उस कार्यक्रम के सभापति थे।
सभापति गवर्नर को इंट्रोड्यूस करते हुए बोले की वेद में ऐसे 16 मंत्र है जिससे कोईभी गणित संबंधी समस्या का समाधान हो सकता है। इसको सुनते ही काटजू उठ खड़े हुए और बोले की वेद की प्रशंसा करना अच्छी बात है। क्यों कि वेद, हिन्दू धर्म का सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है। वेद हमारा मूल है और जगन्नाथजी को भी वेदपुरुष कहा गया है। इसलिए वेद की प्रशस्ति गाने में कोई असुविधा नहीँ है। पर शंकराचार्य के पीठ में बैठे हुए भारतिकृष्ण जी के द्वारा यह कहना की वेद में सारी समस्या का समाधान हो सकता है- अतिश्योक्ति है। इसको सुनकर शंकराचार्य भारतीकृष्ण जी फिर से उठे और बोले “ठीक है। आप मुझे कोई गणित संबंधित प्रश्न दीजिये और मेरे वैदिक समाधान आप देखिये…
देखते देखते प्राइज़ गिविंग सेरिमनी, एक शास्त्रार्थ सभा में बदल गयी। ब्लैकबोर्ड लाया गया। उसके बाद शंकराचार्य भारतिकृष्ण जी काट्जू जी से बोले कृपया आप अपना प्रश्न लिखिये। काटजू गणित में एम.ए. थे। उन्होंने ब्लैकबोर्ड में एक प्रश्न हिंदी में लिखा। इसे देखकर भारतीकृष्ण जी ने उस प्रश्न को अंग्रेजी में लिखने के लिये बोला। काटजू ने तुरंत उस प्रश्न को अंग्रेजी में भाषांतर कर दिया। शंकराचार्य जी ने पूछा की यह ट्रांसलेशन ठीक हुआ है ? उन्होंने बोला “यह ठीक है” । इसका समाधान करना था शंकराचार्य जी को…

पर उन्होंने अपने एक 15 वर्ष के शिष्य को बुलाया। संस्कृत में शिष्य को बोले कि आकर समाधान कर दो। शंकराचार्य जी ने खुद नहीँ किया। वह शिष्य आया, और सीधे उसका उत्तर लिख डाला। जैसे ही उसने लिखा, काटजू ने उसका प्रतिवाद किया “नहीँ, यह सही नही है। आप एक एक स्टेप करके बताइये। यह कोई जादू भी हो सकता है ! आप कोई मंत्र या तंत्र जानते होंगे। इसको सोपानित करिये” । शंकराचार्य जी ने अपने शिष्य को कहा, बेटा, इसको तुम एक एक स्टेप में कराके दिखाओ” ।

शिष्य ने फिर से चॉक पकड़ा और एक एक स्टेप करके वह उत्तर तक पहुंचा। उस समय काटजू का सर झुका हुआ था और आँख से आँसू आ रहे थे। उन्होंने खड़े होकर सबके सामने बोला की मैं निःशर्त क्षमा माँगता हूं। मैं नहीँ जानता था की वेद में ऐसा भी ज्ञान है और आप नहीँ आपके 15 साल के शिष्य ने मेरे प्रश्न का समाधान कर दिया ! इसके बाद काट्जू ने हाथ जोड़ कर पूछा कि वैदिक गणित सीखने के लिये कितने दिन लगेंगे ? शंकराचार्य जी ने कहा की छह महीने तक आप अगर मेरे पास आएंगे तो मैं आपको वैदिक गणित सीखा दूँगा। उसके बाद छह महीेने तक गोवर्धन मठ के सामने गवर्नर की गाड़ी खड़ी होने लगी।
( हिन्दू धर्म की मट्टी पलीद करने वाला मार्कण्डेय काटजू इन्हीं काटजू साहब की औलाद हैं)

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नवधा भक्ति


नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्म निवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

अनिल खिगवान

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पालनहार 🙏

एक समय लक्ष्मी जी विष्णु जी को भोजन करा रही थी ,
विष्णु जी ने पहला ग्रास मुंह में लेने से पहले ही हाथ रोक लिया,
और उठ कर चले गए ।
लौट कर आने पर भोजन करते करते लक्ष्मी जी ने उठकर जाने का कारण पूछा तो ,विष्णु जी बोले मेरे चार भक्त भूखे थे।
उन्हें खिला कर आया हूं ।
लक्ष्मी जी ने परीक्षा लेने के लिए दूसरे दिन एक छोटी सी डिबिया में 5 चीटियों को बंद किया
और विष्णु जी को भोजन परोसा प्रभु ने भोजन किया तो लक्ष्मी जी बोली आज आपके 5 भक्त भूखे हैं और आपने भोजन पा लिया प्रभु ने कहा ऐसा हो ही नहीं सकता तो लक्ष्मी जी ने तुरंत डिबिया खोली और अचरज से हक्की बक्की हो गई। क्योंकि हर चींटी के मुंह में चावल के कण थे ।

लक्ष्मी जी ने पूछा बंद डिबिया में चावल कैसे आए, आपने कब डालें तब प्रभु ने सुंदर जवाब दिया देवी आपने चीटियों को डिब्बी में बंद करते समय जब माथा टेका
तभी आप के तिलक से एक चावल का दाना डिब्बी में गिर गया और चीटियों को भोजन मिल गया।
पालनहार सबका ध्यान रखते हैं आवश्यकता विश्वास की है।

जय श्री हरि❤️🙏

साक्षी भल्ला

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આજે સાવ જુદો વિષય…
આજે બાળકો માટે એક જરા જુદા પ્રકારની બાળવાર્તા…

** ચંદુડિયું શિયાળ અને લટપટિયો વાંદરો **

એક મોટું જંગલ હતું.એમાં અનેક પ્રાણીઓ રહેતાં હતાં.બીજાં અનેક પ્રાણીઓની જેમ ત્યાં કેટલાંક શિયાળ પણ રહેતાં હતાં. શિયાળની આ નાતમાં એક ચંદુડિયું શિયાળ પણ હતું. ચંદુડિયું શિયાળ ભારે ચાલાક હતું. એ સતત કાંઈક ને કાંઈક યુક્તિ શોધી ને પોતાનો દબદબો જાળવી રાખવા હંમેશા પ્રયાસ કરતું હતું.
એક દિવસ ચંદુડિયા શિયાળને પોતાનું અલગ સામ્રાજ્ય સ્થાપવાનો વિચાર આવ્યો.એટલે એણે એક યુક્તિ વિચારી.યુક્તિ મુજબ એણે જેમ તેમ કરીને બે મોટા અરીસા ભેગા કર્યા. પોતાની પીઠ પર ફિટ થઈ શકે એવું સ્ટેન્ડ તૈયાર કરાવ્યું .સ્ટેન્ડની ડાબી-જમણી એમ બંને બાજુ એક એક અરીસો એ રીતે ફીટ કરાવ્યો કે, સામે મળનારને એમાં એનું પ્રતિબિંબ દેેખાય. સામે મળનાર પોતાનું પ્રતિબિંબ બંને અરીસામાં જોઈને શિયાળ ને પૂછે આ કોણ છે? તો શિયાળ એને કહેતું કે,આ તો મારા સુરક્ષા ગાર્ડ છે. શિયાળની વાત સૌ પ્રાણીઓ સાચી માની લેતા .ધીરે ધીરે શિયાળના સુરક્ષાગાર્ડની વાત આખા જંગલમાં ફેલાઈ ગઈ .
એક દિવસ જંગલના રાજા સિંહને આ વાતની ખબર પડી. વાતને સાચી ન માની એ જાતે તપાસ કરવા નીકળ્યા.રસ્તામાં એને ચંદુડિયું મળી ગયું.પણ, આ શું!!!ચંદુડિયાને જોતા જ સિંહના મોતિયા મરી ગયા.બે બે બોડીગાર્ડ અને એય પાછા સિંહ ! ગભરાયેલા સિંહે શિયાળ સાથે દોસ્તી કરી લીધી. શિયાળે પોતાને જંગલનો ચોક્કસ ભાગ આપી દેવા સિંહની પાસે દરખાસ્ત કરી. ગભરાયેલા સિંહે બીકના માર્યા જંગલનો અડધો હિસ્સો શિયાળને સોંપી દીધો. શિયાળની ચાલાકીથી ડરી ગયેલા સિંહને શિયાળે ખંડિયો રાજા બનાવી દીધો.
આમ કરતાં થોડાંક વર્ષ શિયાળનો દબદબો રહ્યો . કોઈની હિંમત જ નહીઁ કે શિયાળ સામે કોઈ ઊં કે ચાં કરી શકે.પોતાની યુક્તિના જોરે શિયાળે તો રાજા બની ને જંગલમાં પોતાની હાક વગાડી દીધેલી.
સત્તાના મદમાં ચંદુડિયું શિયાળ એની મૂળ ઓકાત ભૂલી ગયું. વાઘ અને સિંહ એને સલામ ભરતાં એમાં નાનાં પામર પ્રાણીઓની શી વિસાત!
શિયાળના જોહુકમી શાસનમાં વાનરોને ખૂબ જ ત્રાસ વેઠવો પડતો હતો.વાનરો ચંદુડિયાના ત્રાસથી જંગલ છોડી ને ગામની સીમમાં ,વાડીઓમાં અને ક્યારેક ક્યારેક ગામમાં ભાગીને આશરો લેતા હતા.
એકવખત કેટલાંક વાનરો ભાગીને એક ગામમાં આવી ચડ્યાં. ગામ બાજુ ભાગી ને આવેલા વાનરોમાં એક લટપટિયો વાનર પણ હતો. છોકરાંઓ ખીજવતાં હોવાથી લટપટિયો વાનર ભાગતા ભાગતા ભૂલથી ગામની શાળામાં જઈ ચડ્યો. શાળાના જૂનાં ઓરડામાં ખૂણો શોધીને સંતાવા ગયો.પણ, આ શું!! લટપટિયો વાનર ખૂણામાં બીજા વાનરને જોઈ ગયો. એને અહીં બીજો વાનર જોઈ નવાઈ લાગી.
હકીકતમાં એ બીજો વાનર ન હતો, પણ લટપટિયા વાનરનું પોતાનું જ પ્રતિબિંબ હતું. ખૂણામાં પડેલા અરીસાને કારણે આ પ્રતિબિંબ પડતું હતું.લટપટિયા વાનરે અરીસામાં જોઈ ધુુરકિયું કર્યું એટલે પેલા પ્રતિબિંબે પણ એમ કર્યું.લટપટિયો મુંઝાયો. એણે એનો હાથ ઊંચો કર્યો. અરીસામાં પણ તેમ જ થયું.લટપટિયો વાનર નાનો હતો, પણ બુદ્ધિશાળી હતો.એને બધી જ વાત સમજાય ગઈ. શાળામાં રજા હોવાથી કોઈ હતું નહીં એટલે એ ખંડેર ઓરડામાંથી બહાર આવ્યો.એણે જંગલ બાજુ જવા દોટ મૂકી.
લટપટિયો ઝડપથી ભાગીને જંગલમાં ગયો. વનના રાજા સિંહને એણે અરીસામાં પડેલા પોતાના પ્રતિબિંબની વાત કરી. એણે ચંદુડિયા શિયાળની ચાલાકી વિશે મહારાજાને વિગતે સમજાવ્યું.સિંહ માનવા તૈયાર ન હતો. લટપટિયા વાનરે સિંહને ખૂબ જ સમજાવી હિંમત રાખી ખાતરી કરવા વિનંતિપૂર્વક સલાહ આપી. શિયાળ પાસે જવું હોય તો પોતે પણ સાથે આવશે એવી વાત કહી.
આખરે એકદિવસ સિંહ ચંદુડિયા પાસે જવા તૈયાર થયો.સિંહ અને લટપટિયો શિયાળના રાજદરબારમાં ગયા .શિયાળ સિંહાસન પર બેઠું હતું. સિંહ અને લટપટિયા એ શિયાળ પાસે જઈને શિયાળને પ્રણામ કર્યા. અરીસામાં સિંહ અને વાનરનું પ્રતિબિંબ પડ્યું. આ પ્રતિબિંબે પણ પ્રણામ કર્યાં.લટપટિયે સિંહ સામે જોયું. સિંહને પણ ખાતરી થઈ કે, આ અરીસામાં રહેલો સિંહ પોતાનું પ્રતિબિંબ જ છે. સિંહે ત્રાડ નાખી. અરીસાના પ્રતિબિંબે પણ ત્રાડ નાખી .હવે સિંહને પાકી ખાતરી થઈ ગઈ હતી.
ચંદુડિયું શિયાળ કાંઈ સમજે એ પહેલાં જ સિંહ ત્રાટક્યો. શિયાળ ને એણે ત્યાં ને ત્યાં જ પૂરો કરી નાખ્યો.
સિંહે પોતાનું ગુમાવેલું સામ્રાજ્ય પાછું મેળવ્યું.જંગલમાં ભવ્ય ઉત્સવ ઉજવાયો.લટપટિય વાંદરાનું ભવ્ય સન્માન થયું.રાજાના મુખ્ય સલાહકાર તરીકે એની નિમણૂક થઈ. જંગલમાં સિંહના શાસન નીચે સહુ સુખેથી રહેવાં લાગ્યાં.
– રવજી ગાબાણી

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एक शिक्षक ने क्लास के सभी बच्चों को एक एक खूबसूरत टॉफ़ी दी और फिर कहा…”बच्चो ! आप सब को दस मिनट तक अपनी टॉफ़ी नहीं खानी है और ये कहकर वो क्लास रूम से बाहर चले गए।”

कुछ पल के लिए क्लास में सन्नाटा छाया था, हर बच्चा उसके सामने पड़ी टॉफ़ी को देख रहा था और हर गुज़रते पल के साथ खुद को रोकना मुश्किल हो रहा था।

दस मिनट पूरे हुए और वो शिक्षक क्लास रूम में आ गए। समीक्षा की। पूरे वर्ग में सात बच्चे थे, जिनकी टाफियाँ जस की तस थी,जबकि बाकी के सभी बच्चे टॉफ़ी खाकर उसके रंग और स्वाद पर टिप्पणी कर रहे थे।

शिक्षक ने चुपके से इन सात बच्चों के नाम को अपनी डायरी में दर्ज कर लिए और नोट करने के बाद पढ़ाना शुरू किया।

इस शिक्षक का नाम प्रोफेसर वाल्टर मशाल था।

कुछ वर्षों के बाद प्रोफेसर वाल्टर ने अपनी वही डायरी खोली और सात बच्चों के नाम निकाल कर उनके बारे में खोज बीन शुरू किया।

काफ़ी मेहनत के बाद , उन्हें पता चला कि सातों बच्चों ने अपने जीवन में कई सफलताओं को हासिल किया है और अपनी अपनी फील्ड में सबसे सफल है।

प्रोफेसर वाल्टर ने अपने बाकी वर्ग के छात्रों की भी समीक्षा की और यह पता चला कि उनमें से ज्यादातर एक आम जीवन जी रहे थे, जबकी कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें सख्त आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों का सामना करना पड रहा था।

इस सभी प्रयास और शोध का परिणाम प्रोफेसर वाल्टर ने एक वाक्य में निकाला और वह यह था….”जो आदमी दस मिनट तक धैर्य नहीं रख सकता, वह संभवतः अपने जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकता…. ”

इस शोध को दुनिया भर में शोहरत मिली और इसका नाम “मार्श मेलो थ्योरी” रखा गया था क्योंकि प्रोफेसर वाल्टर ने बच्चों को जो टॉफ़ी दी थी उसका नाम “मार्श मेलो” था। यह फोम की तरह नरम थी।

इस थ्योरी के अनुसार दुनिया के सबसे सफल लोगों में कई गुणों के साथ एक गुण ‘धैर्य’ पाया जाता है, क्योंकि यह ख़ूबी इंसान के बर्दाश्त की ताक़त को बढ़ाती है,जिसकी बदौलत आदमी कठिन परिस्थितियों में निराश नहीं होता और वह एक असाधारण व्यक्तित्व बन जाता है।

अतः धैर्य कठिन परिस्थितियों में व्यक्ति की सहनशीलता की अवस्था है जो उसके व्यवहार को क्रोध या खीझ जैसी नकारात्मक अभिवृत्तियों से बचाती है। दीर्घकालीन समस्याओं से घिरे होने के कारण व्यक्ति जो दबाव या तनाव अनुभव करने लगता है उसको सहन कर सकने की क्षमता भी धैर्य का एक उदाहरण है। वस्तुतः धैर्य नकारात्मकता से पूर्व सहनशीलता का एक स्तर है। यह व्यक्ति की चारित्रिक दृढ़ता का परिचायक भी है।
हमारे मनीषियों ने इसीलिये कहा :

न धैर्येण बिना लक्ष्मी-
र्न शौर्येण बिना जयः।
न ज्ञानेन बिना मोक्षो
न दानेन बिना यशः॥

धैर्य के बिना धन, वीरता के बिना विजय, ज्ञान के बिना मोक्ष और दान के बिना यश प्राप्त नहीं होता है॥

ओशो

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जब एक शख्स लगभग पैंतालीस वर्ष के थे तब उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। लोगों ने दूसरी शादी की सलाह दी परन्तु उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि पुत्र के रूप में पत्नी की दी हुई भेंट मेरे पास हैं, इसी के साथ पूरी जिन्दगी अच्छे से कट जाएगी।

पुत्र जब वयस्क हुआ तो पूरा कारोबार पुत्र के हवाले कर दिया। स्वयं कभी अपने तो कभी दोस्तों के आॅफिस में बैठकर समय व्यतीत करने लगे।

पुत्र की शादी के बाद वह ओर अधिक निश्चित हो गये। पूरा घर बहू को सुपुर्द कर दिया।

पुत्र की शादी के लगभग एक वर्ष बाद दोहपर में खाना खा रहे थे, पुत्र भी लंच करने ऑफिस से आ गया था और हाथ–मुँह धोकर खाना खाने की तैयारी कर रहा था।

उसने सुना कि पिता जी ने बहू से खाने के साथ दही माँगा और बहू ने जवाब दिया कि आज घर में दही उपलब्ध नहीं है। खाना खाकर पिताजी ऑफिस चले गये।

थोडी देर बाद पुत्र अपनी पत्नी के साथ खाना खाने बैठा। खाने में प्याला भरा हुआ दही भी था। पुत्र ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और खाना खाकर स्वयं भी ऑफिस चला गया।

कुछ दिन बाद पुत्र ने अपने पिताजी से कहा- ‘‘पापा आज आपको कोर्ट चलना है, आज आपका विवाह होने जा रहा है।’’

पिता ने आश्चर्य से पुत्र की तरफ देखा और कहा-‘‘बेटा मुझे पत्नी की आवश्यकता नही है और मैं तुझे इतना स्नेह देता हूँ कि शायद तुझे भी माँ की जरूरत नहीं है, फिर दूसरा विवाह क्यों?’’

पुत्र ने कहा ‘‘ पिता जी, न तो मै अपने लिए माँ ला रहा हूँ न आपके लिए पत्नी,
*मैं तो केवल आपके लिये दही का इन्तजाम कर रहा हूँ।*

कल से मै किराए के मकान मे आपकी बहू के साथ रहूँगा तथा आपके ऑफिस मे एक कर्मचारी की तरह वेतन लूँगा ताकि *आपकी बहू को दही की कीमत का पता चले।’’*
*👌Best message👌*

*-माँ-बाप हमारे लिये*
*ATM कार्ड बन सकते है,*

*तो ,हम उनके लिए*
*Aadhar Card तो बन ही सकते है. 💕®💕💕💕

दीपक सिरचूरे

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उर्मिलक्ष्य !

विभीषण के गुप्तचर ने आकर उन्हें एक अत्यंत महत्वपूर्ण सूचना दी थी , गहन विचार विमर्श उसी पर हो रहा था , उन्हें निदान भी मिल गया था ।

राम ने लक्ष्मण को गले से लगा लिया .. इस आलिंगन का गूढार्थ भी सिर्फ़ दोनों भाइयों को ही ज्ञात था ।

प्रभु राम , हनुमान , सुग्रीव और विभीषण के साथ लंबी वार्ता के बाद लक्ष्मण बाहर एक चट्टान पर विचारमग्न आ बैठे !

वो मुस्कुराए और उनकी आँखे आकाश के चंद्रमा की ओर उठ गयीं .. उन्हें दिख रही थी उनकी प्रिया और पत्नी उर्मिला .. अयोध्या में निद्रस्थ !

उर्मिला के बिना अयोध्या छोड़ना लक्ष्मण के लिए आसान कहाँ था ?

लक्ष्मण ने उर्मिला से लिया था एक वचन … बारह वर्षोँ तक आँखों से एक भी अश्रु नहीं बहायेगी !

लक्ष्मण वन जाएं और उर्मिला की आँखों मे अश्रु नही ? ये असंभव था ,वो क़ातर दृष्टि से अपने स्वामी की ओर देखने लगी !

लक्ष्मण अपनी प्रिय पत्नी के मन का द्वंद समझ रहे थे और उनकी आँखें चमक उठी !

उर्मिला को प्रगाढ़ आलिंगन बद्व कर लिया । तभी उर्मिला ने उनसे एक वर मांग लिया और लक्ष्मण ने भी तुरंत दे डाला एक अद्भुत उपहार दान … बारह वर्षों तक स्वयं की निद्रा का !

अब उर्मिला की आँखों मे लक्ष्मण की भी नींद समा गई थी । वो तो जैसे अपने प्राण प्रिय के लिए समाधिस्थ सी ही रहती थीं !

लक्ष्मण को तो अब जाग्रत ही रहना था प्रभु राम और माता सीता की सेवा के लिए !

या ….भविष्य में कुछ और ही छुपा था !?

बारह वर्ष बाद सामने आ खड़ा हुआ था मेघनाद !

अंतिम समर सज्ज उत्पाती राक्षस मेघनाद, उर्मिला निद्रस्थ , लक्ष्मण सदैव जाग्रत ! तीनो की नियति कैसे आपस मे गुत्थम गुत्था हो गयी थी ..! ?

आज लक्ष्मण चंद्र की ओर देख कर मानो पूछ से रहे थे … उर्मिले , क्या तुम्हें पता था मेघनाद के बारे में … चौदह वर्ष पहले अयोध्या में क्या तुम्हें भविष्य दिख रहा था , बोलो उर्मिला बोलो !!

मेघनाद !! जिसे मारना अत्यंत कठिन ! क्योंकि उसके पास था वो ब्रम्हास्त्र जिसके लक्ष्य को भी उतना ही बलशाली , पराक्रमी , अभेद्य होना पड़ता था जैसे … लक्ष्मण .. उर्मिला के लक्ष्मण !

ब्रह्मास्त्रधारियों की मृत्य भी विचित्र परिस्तिथियों में ही होती थी ।

मेघनाद को वरदान मिला था कि उसकी मृत्य तभी सम्भव है जब उसे मारने वाला .. एक साधारण मानव नर हो , जिसने बारह वर्ष तक स्त्री को स्पर्श न किया हो और तीसरा .. जो बारह वर्षों से सोया न हो !

सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ऐसे सिर्फ और सिर्फ़ थे … लक्ष्मण , उर्मिला के लक्ष्मण !

तो क्या उर्मिला को पता था उसके पति को भविष्य में इस ब्रह्मास्त्र धारी राक्षस के अंत के लिए इस दुर्लभ विशेषता की आवश्यकता होगी …..बारह वर्ष की अनिद्रा !?.

उर्मिला अपने लक्ष्मण की अर्धांगिनी ! क्या उर्मिला ने ही बोया था मेघनाद के विनाश का रक्तबीज ! ??

निरंजन धुलेकर ।