Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

1192 ए डी , तुर्की का सैन्य कमांडर बख्तियार खिलजी गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। सारे हकीम हार गए परंतु बीमारी का पता नहीं चल पाया। खिलजी दिनों दिन कमजोर पड़ता गया और उसने बिस्तर पकड़ लिया।उसे लगा कि अब उसके आखिरी दिन आ गए हैं।
एक दिन उससे मिलने आए एक बुज़ुर्ग ने सलाह दी कि दूर भारत के मगध साम्राज्य में अवस्थित नालंदा महाविद्यालय के एक ज्ञानी राहुल शीलभद्र को एक बार दिखा लें, वे आपको ठीक कर देंगे। खिलजी तैयार नहीं हुआ। उसने कहा कि मैं किसी काफ़िर के हाथ की दवा नहीं ले सकता हूँ चाहे मर क्यों न जाऊं!!
मगर बीबी बच्चों की जिद के आगे झुक गया। राहुल शीलभद्र जी तुर्की आए। खिलजी ने उनसे कहा कि दूर से ही देखो मुझे छूना मत क्योंकि तुम काफिर हो और दवा मैं लूंगा नहीं। राहुल शीलभद्र जी ने उसका चेहरा देखा, शरीर का मुआयना किया, बलगम से भरे बर्तन को देखा, सांसों के उतार चढ़ाव का अध्ययन किया और बाहर चले गए।
फिर लौटे और पूछा कि कुरान पढ़ते हैं?
खिलजी ने कहा दिन रात पढ़ते हैं!
पन्ने कैसे पलटते हैं?
उंगलियों से जीभ को छूकर सफे पलटते हैं!!

शीलभद्र जी ने खिलजी को एक कुरान भेंट किया और कहा कि आज से आप इसे पढ़ें और राहुल शीलभद्र जी वापस भारत लौट आए।

उधर दूसरे दिन से ही खिलजी की तबीयत ठीक होने लगी और एक हफ्ते में वह भला चंगा हो गया। दरअसल राहुल शीलभद्र जी ने कुरान के पन्नों पर दवा लगा दी थी जिसे उंगलियों से जीभ तक पढ़ने के दौरान पहुंचाने का अनोखा तरीका अपनाया गया था।
खिलजी अचंभित था मगर उससे भी ज्यादा ईर्ष्या और जलन से मरा जा रहा था कि आखिर एक काफिर मुस्लिम से ज्यादा काबिल कैसे हो गया?

अगले ही साल 1193 में उसने सेना तैयार की और जा पहुंचा नालंदा महाविद्यालय मगध क्षेत्र। पूरी दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञान और विज्ञान का केंद्र। जहां 10000 छात्र और 1000 शिक्षक एक बड़े परिसर में रहते थे। जहां एक तीन मंजिला इमारत में विशाल लायब्रेरी थी जिसमें एक करोड़ पुस्तकें, पांडुलिपियां एवं ग्रंथ थे।

खिलजी जब वहां पहुंचा तो शिक्षक और छात्र उसके स्वागत में बाहर आए, क्योंकि उन्हें लगा कि वह कृतज्ञता व्यक्त करने आया है।

खिलजी ने उन्हें देखा और मुस्कुराया…..
और तलवार से भिक्षु श्रेष्ठ की गर्दन काट दी। फिर हजारों छात्र और शिक्षक गाजर मूली की तरह काट डाले गए। खिलजी ने फिर ज्ञान विज्ञान के केंद्र पुस्तकालय में आग लगा दी। कहा जाता है कि पूरे तीन महीने तक पुस्तकें जलती रहीं।

खिलजी चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि तुम काफिरों की हिम्मत कैसे हुई इतनी पुस्तकें पांडुलिपियां इकट्ठा करने की? बस एक कुरान रहेगा धरती पर बाकी सब को नष्ट कर दूंगा।

पूरे नालंदा को तहस नहस कर जब वह लौटा तो रास्ते में विक्रम शिला विश्वविद्यालय को भी जलाते हुए लौटा। मगध क्षेत्र के बाहर बंगाल में वह रूक गया और वहां खिलजी साम्राज्य की स्थापना की।

जब वह लद्दाख क्षेत्र होते हुए तिब्बत पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था तभी एक रात उसके एक कमांडर ने उसकी सोए में हत्या कर दी। आज भी बंगाल के पश्चिमी दिनाजपुर में उसकी कब्र है जहां उसे दफनाया गया था।

और सबसे हैरत की बात है कि उसी दुर्दांत हत्यारे के नाम पर बिहार में बख्तियार पुर नामक जगह है जहां रेलवे जंक्शन भी है जहां से नालंदा की ट्रेन जाती है।

यह थी एक भारतीय बौद्ध भिक्षु शीलभद्र की शीलता, जिन्होंने तुर्की तक जाकर तथा दुत्कारे जाने के बावजूद एक शत्रु की प्राण रक्षा अपने चिकित्सकीय ज्ञान व बुद्धि कौशल से की।

बदले में क्या मिला ???
शांतिप्रिय समुदाय की एहसान फरामोशी ! प्राण, समाज व संस्कृति पर घात !!!
एवं आज तक जब भी जहाँ भी जिस जगह भी जिस देश में भी मुस्लिम समुदाय को मौका मिला है उन्होंने सिर्फ विश्वासघात ही किया है और आगे भी करते रहेंगे यहीं इनकी सच्चाई है …इसे हिन्दुओं को भलीभांति समझ लेना चाहिए और अपने इतिहास से सबक लेना चाहिए।

दुर्भाग्यवश तबसे अब तक कुछ नहीं बदला। हम आज भी उस क्रूर विदेशी आक्रांता के नाम पर बसाये गये शहर का नाम तक नहीं बदल सकते। क्योंकि वह सुशासन बाबू की जन्म स्थली है।

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भागवत कथा सात दिन ही क्यों ?..

हम सात दिन की कथा सुनके अपने जीवन के सभी सातो दिनों को पवित्र कर लेते हैं! पाप रहित बनें! राजा परीक्षित को सात दिन का शाप मिला तो तुरंत अपने पुत्र जनमेजय को सौंपकर चलपड़े! पर मन में एक प्रश्न है? जीवन में प्रश्नो का होना बहुत महत्वपूर्ण है, अबोध बालक जो कुछ नहीं जनता वह भी एक दिन में न जाने कितने सारे प्रश्न करता है! फिर हम भी तो परमात्मा के विषय में अबोध हैं, कुछ जानते नहीं, हमारे पण्डित जी ने जो कहा उसी के आधार पर हमारी पूजा बढ़ जाती है!

तो हमें अपनी पूजा नहीं बढा़नी हमें तो श्रद्धा बढा़नी है, जब तक जानकारी नहीं होगी, तब तक श्रद्धा भी नहीं बढे़गी! इसलिए परमात्मा की प्रीति के लिए प्रश्न जरूरी है, परन्तु प्रश्न करने से पहले ध्यान दें की हम प्रश्न किससे कर रहे है! और प्रश्न कहां कर रहे हैं! दूसरी बात हम जिनसे प्रश्न करते हैं! उनके प्रती आदर भाव आवश्यक है! महाभारत में जब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया, तो प्रश्न के पहले अर्जुन ने अपने आपको शिष्य माना! इसलिए आप जब शिष्य भाव से प्रश्न करेंगे, तो आपको प्रश्नों के उत्तर अवश्य मिलेंगे! राजा परीक्षित के जीवन में भी प्रश्न आया, और प्रश्न था की अब तक तो मैं जिया, खूब ऐश्वर्य भी पाया, पर अब मेरी जिन्दगी सिर्फ सात दिन की है, और मुझे मरना भी होगा? पर मैं मरूं कैसे? और मरने बाले को करना क्या चाहिए? अपनी मृत्यु को सुधारने के लिए राजा, राज्य को त्यागकर गंगा नदी के तट पर अनसन में बैठगया! और शुक देव जी ने उसे मरने की विधी बताई!

पहले वर्तमान सुधारो, राजा परीक्षित अपना भूत भूलगया और वर्तमान को सुधारने का प्रयास किया! भविष्य की चिन्ता मत करो यदी वर्तमान अच्छा है, तो भविष्य भी उज्वल होगा, वर्तमान की चिन्ता करते जो बैठा रहता है, वह मूर्ख है! दूसरी बात की ठाकुर जी की बड़ी कृपा है की हम अन्धे नहीं हैं! हमारे पास एक नहीं पूरी दो आंखें हैं हम बहुत भाग्यशाली हैं, परन्तु आंख है पर द्रष्टी नहीं है! आंख तो भगवान ने दी, पर द्रष्टी हमें सत्संग से मिलती है! हम इन सात दिन के सत्संग से दृष्टी प्राप्त करें,
अरे दृष्टी होगी तभी तो दर्शन प्राप्त होगा!

देखने में और दर्शन में अन्तर है! हम देखते हैं जगत को और दर्शन जगदीश का करें, देखने के लिए आंख की आवश्यकता है पर दर्शन के लिए दृष्टी जरूरी है! यदी दृष्टी नहीं तो दर्शन नहीं! तो हम दृष्टी श्रीमद्भागवत कथा से प्राप्त करें!

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके पास आंख तो है पर दृष्टी नहीं! वही इस संसार में भटकते रहते हैं! और कुछ ऐसे भी होते हैं जिनको आंख नहीं पर दृष्टी है, और वो उसी दृष्टी से समूचे संसार का दर्शन करते हैं! देखने और दर्शन करने में बहुत अन्तर है!

सूरदास बाबा जी के पास आंख तो नहीं पर दृष्टी थी, जिससे वे जगत के साथ-साथ जगदीशका भी दर्शन करते थे! एक बार बाबा सूरदास जी को पास के ही गांव से बुलाबा आया, रात्रि का समय था, तो बाबाजी ने एक हाथ में लाठी पकड़ी, दूसरे हाथ में चिमनी लिया और निकल पड़े! कुछ ही दूरी पर एक आंखवाला मिला, बाबा को देखा! बाबा जय श्रीकृष्णा !
बाबा, शब्द पहचानते हुए बोले- जय श्रीकृष्णा!
आंख बाला- बाबा इतनी रात को कहां जा रहे हैं!
बाबा- बस यहीं पास में भजन होना है, वहीं जा रहा हूँ!
आंख बाला- अच्छा-अच्छा! पर बाबा के हाथ में चिमनी देख वह चकित हुआ और बोला-
बाबा बुरा न मानों तो एक बात कहूं?
बाबा- हां हां बोलो क्या बात है?
आंख बाला- बाबा! आपको तो दिन में भी कुछ दीखता नहीं, तो रात में क्या! आपने ये चिमनी क्यों लिया है?
बाबा- मुस्कुराते हुए! हां तू ठीक कहता है, पर जिनको आंख है उनको तो दीखेगा! और वो मुझसे टकराएंगे नहीं! और बात भी सही है, आंख बाले ही यहां वहां भटकते हैं! ऐसा तीखा जबाब दियाबाबा ने की उस आंख बाले की आंख खुल गई! सूरदास जी के पास आंखें नहीं थी, पर दृष्टी थी! बिना आंख बाले के पास यदी जीवन जीने की दृष्टी है तो बस उनको जीवन का सही मार्ग मिल जाता है!
श्रीमद्भागवत कथा क्या है?

श्रीमद्भागवत कोई पुस्तक नहीं, कोई साधारण ग्रंथ नहीं, श्रीमद्भागवत तो भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात वांग्मय स्वरूप है! यहां पर एक परिभाषा देते हुए संत कहते है-

!!भगवता प्रोक्तं इति भागवतं !!
भगवान ने अपने मुख से कहा है जो वह भागवत! भगवान नारायण ही भागवत के प्रथम प्रवक्ता हैं! भगवान नारायण ने सर्वप्रथम भागवत कथा ब्रह्मा जी को सुनाई! जिसे कहते है चतुश्लोकी भागवत! ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद जी को सुनाई, नारदजी ने व्यास जी को सुनाई! व्यासजी ने उसका विस्तार किया, व्यास का एक अर्थ विस्तार भी है! तो व्यासजी ने विस्तार किया, भागवत को बारह (12) स्कन्ध और 335 अध्याय तथा 18000 श्लोकों का विस्तार किया!

फिर व्यासजी ने यह भागवत कथा अपने ही पुत्र शुकदेव जी को सुनाई, और शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को सुनाई, और उसी समय यह कथा सूतजी ने सुनी, तो सूतजी ने शौनकादि सहित 88000 ऋषियों को भागवत कथा सुनाया! इस तरह से यह कथा परंपरागत रूप से आज आप भी इस कथा का रसपान कर रहें हैं! इतनी चर्चा के बाद अब हम कथा की ओर चलते हैं! सबसे पहले हम आपका परिचय भागवतजी से कराते हैं, और भागवतजी की महिमा का श्रवण करते हैं! कथा प्रारंभ करने से पहले हम महात्म की चर्चा करते हैं, क्योंकि जब तक हम किसी की महिमा न सुनें, तब तक बात असर नहीं करती! इसलिए पहले भागवतजी से परिचय हो, भागवतजी अपनी महिमा स्वयं नहीं करते, तो भागवतजी की महिमा गाता कौन है?

भागवतजी का परिचय हमसे पद्मपुराण करा रहे हैं! व्यासजी की यह आज्ञा है, कि वक्ता पहले पद्मपुराण के अन्तर्गत महात्म्य के जो छ: अध्याय का महात्म्य वर्णन है, वह पहले कहें और भागवत जी का परिचय करायें! क्योंकि-

बड़े बड़ाई न करें, बड़े न बोलें बोल !
हीरा मुख से न कहे, लाख हमारा मोल !!
अपने ही मुख कोई अपनी बड़ाई प्रसंशा नहीं करता, बस यही कारण है की दूसरे ग्रंथ भागवत जी की महिमा गाते हैं, हमसे परिचय कराते हैं! तो आईये हम भागवत जी की महिमा का रसपान करें, पद्मपुराण के माध्यम से, आरम्भ में वेदव्यासजी ने मंगलाचरण किया तो हम भी यहां पर मंगलाचरण करें!
कोई शुभ कार्य करने से पहले मंगल कामना की जाती है या मंगल आचरण किया जाता है, यही तो मंगलाचरण है!
सच्चिदाऽनन्दरूपाय

हमारे वेदों ने, शास्त्रों ने, संतो ने दो बात बताई है! एक बात तो यह की परम तत्व का परिचय, और दूसरी बात उसकी प्राप्ती का उपाय! जब परिचय हुआ की यह रसगुल्ला है, तो फिर उसकी प्राप्ती की इच्छा होती है! तो….प्रश्न उठता है, की गुरूदेव हम परमतत्व की प्राप्ती कैसे करें?

तो यहां पर गुरूदेव ने प्राप्ती का साधन बताया! पहले तो परिचय दिया, वो भी एक नहीं पूरे तीन प्रकार से! (१)स्वरूप परिचय (२)कार्य परिचय (३)स्वभाव परिचय! तो पहला स्वरूप परिचय-सच्चिदाऽनन्दरूपाय

यह हुआ स्वरूप परिचय! स्वरूप कैसा है ?…. सत चित और आनन्द स्वरूप! सत शब्द से सास्वता बताई है, अब सत है ठीक है, पर सत के साथ चित याने चेतन्यता, तो चेतन्यता का होना परम आवश्यक है, नहीं तो सत जड़ हो जायेगा! जैसे- माईक है पर बिजली नहीं है! तो?.. माईक जड़ हो गया न! इसलिए सत के साथ चित भी आवश्यक है! अब चलो ठीक है सत है चित भी है, पर आनन्द नहीं है, हां सत और चित के साथ आनन्द का होना अतिआवश्यक है! क्यों?.. क्योंकी माईक है और बिजली भी है पर वक्ता अर्थात बोलने बाला नहीं है, तो ये दोनों व्यर्थ हैं!

इसलिए यदी माईक है तो लाईट का होना आवश्यक है और माईक लाईट दोनों हैं तो वक्ता का होना जरूरी है! अत्: सत है तो चित का होना आवश्यक है और सत चित दोनों हैं तो आनंद की अनुभूति होनी ही है! इसमें संका नहीं, तो परमात्मा कैसा है? सत्य चित्य और आनन्द स्वरूप, यह हुआ स्वरूप परिचय! किसी ने पूछा- गुरुदेव वो करते क्या हैं? तो यहां पर कार्य का परिचय दिया!
विश्वोत्पत्यादि हेतवे
क्या करते हैं?… विश्व की उत्पत्ती करते हैं! आगे आदि शब्द भी जुड़ा है, तो आदि का मतलब…?उत्पत्ती ही नहीं करते और भी कुछ करते हैं, क्या…? उतपत्ती, स्थिती और लय, मतलब जन्म भी देते हैं, पालन, पोषण भी करते हैं, और फिर विनाश भी कर देते हैं!

किसी ने कहा महाराज! उत्पत्ती, स्थिती, और लय तो हम भी करते हैं! अच्छी बात है, पर उसकी उत्पत्ती, स्थिती, लय में और उत्पत्ती, स्थिती, लय में बहुत अंतर है! हमारी उत्पत्ती में मोह है, पालन में अपेक्षा है, और लय में सोक है! कैसे?.. हम उत्पत्ती करते हैं तो संतान से मोह होता है, हम उसका पालन, पोषण करते हैं, पढा़ते- लिखाते हैं, योज्ञ बनाते हैं! फिर हम उससे अपेक्षा रखते हैं, की अब तो हम बूढे़ हो गए हैं, अब पुत्र ही हमारी सेवा करेगा, ये अपेक्षा है! पर हमें मिलता क्या है?.. उपेक्षा! हमारा ही बेटा हमें, अपनाने से मना कर देता है! मोह हुआ, अपेक्षा भी हुई, अब यदी दैव बस किसी दुर्घटना में वह पुत्र मारा गया, तो शोक भी हो गया!

परन्तु परमात्मा को, न तो अपनी उत्पत्ती पर मोह होता है, न ही अपेक्षा और न शोक, क्योंकि जहां मोह है, वहां शोक, और जहां अपेक्षा वहां उपेक्षा का होना अनिवार्य है! भगवान सूर्य नारायण, हमने जब से देखा वे समय से उदय समय से अस्त होते हैं, पूरी पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं! जिस कारण ही हमारा जीवन है, तो क्या उन्होंने आपको कभी विल भेजा! पवन देवता, वरुण देवता ने कभी किराया मांगा, हमारी हवा लेते हो, हमारा पानी पीते हो लो ये विल चुकाओ! ब्रम्ह को अपनी श्रृष्टी में न तो मोह है, और न ही अपेक्षा! उत्पत्ती, स्थिती, और लय यह परमात्मा का कार्य परिचय हुआ! अब इनका स्वभाव कैसा है?..

तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:
तो स्वभाव कैसा है?..

महाराज नमस्कार करने मात्र से मानव के तीनों तापों को मिटा देतें हैं! इतने दयालू स्वभाव के हैं! केवल नमस्कार करने मात्र से सारे दु:ख दूर हो जाते हैं!

आचार्य विमलसेन

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“नपुंसक”

मृत्युशैया पर पड़े पड़े यमराज की प्रतीक्षा करते बृद्ध के मुह से अवचेतन में एक ही पंक्ति बार बार निकल रही थी- मैं नपुंसक नहीं था, मैं नपुंसक नहीं था…
निकट बैठी उसकी पुत्री कभी उसका सर सहलाती, तो कभी उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करती।
उस दस फ़ीट की छोटी सी कोठरी में मृत्यु की शांति उतर आई थी। किसी ने कहा- इनको दो बूंद गंगाजल पिला दो शीला, अब शायद समय हो आया।
शीला पास ही पड़ी अलमारी से चुपचाप गंगाजल की सीसी निकालने लगी।
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प्रातः की बेला थी, श्रीमुख शांडिल्य गोत्रीय ब्राह्मणों की डीह कश्मीर में सूर्य आज भी प्रतिदिन की भांति मुस्कुरा कर उगा था। हिम की कश्मीरी शॉल ओढ़े पहाड़ों पर पड़ती किरणों की पवित्र आभा को देख कर लगता था, जैसे युगों पुराने सूर्य मंदिर को स्वयं सूर्य की किरणें प्रणाम करने उतरी हों। कुल मिला कर प्राचीन स्वर्ग में स्वर्गिक आभा पसरी हुई थी।
अचानक गांव की मस्जिद के अजान वाले भोंपे से चेतावनी के स्वर गूंजे- “सभी हिंदुओं को आगाह किया जाता है कि अपनी सम्पति और महिलाओं को हमें दे कर आज ही कश्मीर छोड़ दें, वरना अपने अंजाम के जिम्मेवार वे खुद होंगे।”
राजेन्द्र कौल की इकलौती बेटी शीला अपनी कोई पुस्तक ढूंढ रही थी कि ये स्वर उसके कानों को जलाते हुए घुसे। वह आश्चर्यचकित हो कर मस्जिद को निहारने लगी। उसके अंदर मस्जिद के प्रति भी उतनी ही श्रद्धा थी जितनी मन्दिर के प्रति थी। मस्जिद से आती ध्वनि सदैव उसे ईश्वर की ध्वनि प्रतीत होती थी। वह समझ नहीं पायी कि एकाएक अल्लाह ऐसी भाषा कैसे बोलने लगा। वह अभी सोच ही रही थी, कि धड़धड़ाते हुए राजेन्द्र कौल घर मे घुसे और पागलों की तरह चीखते हुए बोले- बेटा अपना सामान समेटो, हमें शीघ्र ही यहां से जाना होगा।
शीला ने आश्चर्यचकित हो कर कहा- कहाँ पिताजी?
राजेन्द्र कौल ने हड़बड़ाहट में ही कहा- ईश्वर जाने कहाँ, पर यह स्थान हमें शीघ्र ही छोड़ना होगा।
– किन्तु यह हमारा घर है पिताजी! हम अपना घर छोड़ कर कहाँ जाएंगे?
-ज्यादा प्रश्न मत कर बेटी! हम जीवित रहे तो पुनः अपने घर आ जाएंगे, पर अभी यहां से जाना ही होगा। सारे मुसलमान हमारे दुश्मन बने हुए है, वे कुछ भी कर सकते हैं।
-किन्तु पिताजी, हम आजाद देश मे रहते हैं। हम इतना क्यों डर रहे हैं? यहां कोई व्यक्ति किसी अन्य को अकारण ही कष्ट कैसे दे सकता है?
– यह मस्जिद का ऐलान नहीं सुन रही हो? वे लोकतंत्र के मुह में पेशाब कर रहे हैं। व्यर्थ समय न गँवाओ, अपने सामान समेटो।
– पर पिताजी, हम तो वर्षों से साथ रह रहे हैं। और यह तो धर्मनिरपेक्ष देश है न?
– व्यर्थ बात मत कर बेटा, धर्मनिरपेक्षता इस युग का सबसे फर्जी शब्द है। कश्मीर ने आज इस शब्द की सच्चाई जान ली, शेष भारत भी अगले पचास वर्षों में जान जाएगा।
शीला अब और प्रश्न न कर सकी, क्योंकि राजेन्द्र कौल पागलों की तरह इधर उधर से उठा-पटक कर समान की गठरी बनाने लगे थे।
घण्टे भर में राजेंद्र कौल और उनकी पत्नी ने ले जाने लायक कुछ महंगे सामानों की गठरी बनाई, और शीला का हाथ पकड़ कर जबरदस्ती खींचते हुए बाहर निकले। शीला के पास कोई गठरी नहीं थी। वह समझ ही नहीं पाई कि इतने बड़े घर से वह क्या ले जाये और क्या छोड़े। राजेन्द्र कौल ने द्वार पर खड़ी अपनी खुली कार में गठरी फेंकी, पत्नी और बेटी को लगभग धकियाते हुए बैठाया, और गाड़ी स्टार्ट कर बाहर निकले। गाड़ी घर की चारदीवारी के बाहर निकली तो राजेन्द्र ने देखा, बाहर बीसों मुश्लिम युवक खड़े ठहाके लगा रहे थे। एक ने छेड़ते हुए कहा- कौल साब! जा रहे हैं तो समान ले कर क्यों जा रहे हैं, यह गठरी हमें देते जाइये।
राजेन्द्र कौल सर झुका कर चुपचाप गाड़ी बढ़ाते रहे। बाहर खड़ी भीड़ में कोई ऐसा नहीं था, जिसकी अनेकों बार राजेन्द्र कौल ने सहायता न की हो। अचानक किसी ने शीला का दुपट्टा खींचा, उसने मुड़ कर देखा तो आंखे जैसे फट गयीं। उसने दुप्पटे को खींचते हुए कहा- रहीम भाई आप?
रहीम ने झिड़क कर कहा- अबे चुप! मैं तेरा कैसा भाई? तू हिन्दू मैं मुसलमान।
राजेन्द्र कौल ने तेजी से गाड़ी बढ़ा दी, शीला का दुपट्टा रहीम के हाथ मे ही चला गया। उसने पीछे से ठहाका लगाते हुए कहा- अरे कौल साब! अपनी बेटी को तो हमें दे जाइये, वह आपके किस काम की…
शीला रो पड़ी थी। वह बचपन से ही रहीम को राखी बांधती आयी थी, और आज पल भर में ही रहीम ने… उसने पीछे मुड़ कर देखा, महलों जैसा उसका घर पीछे छूट रहा था।
राजेन्द्र कौल चुपचाप गाड़ी भगाते जम्मू की ओर निकल पड़े।
गांव के बाहर निकलने पर शीला ने कहा- पिताजी! आपको नहीं लगता कि आप नपुंसक हैं?
राजेन्द्र कौल कोई उत्तर नहीं दे सके।
पच्चीस वर्ष बीत गए। महल जैसे घर में रहने वाले राजेन्द्र कौल का जीवन किराए की एक कोठरी में कट गया, पर वे कभी अपने गांव नहीं लौट सके। वे जब भी शीला को देखते तो उन्हें लगता कि शीला की आंखे उनसे पूछ रही हैं- “क्या यही जीवन जीने के लिए भागे थे पिताजी? इससे अच्छा तो लड़ कर मर गए होते।”
इन पच्चीस वर्षों में शीला का ब्याह हुआ और समय के साथ उनकी पत्नी का देहांत भी हो गया, पर राजेन्द्र कौल जलते ही रहे।
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शीला ने पिता के मुह में गंगाजल की दो बूंदे डाली, और दो बूंदे उसकी आँखों से टपक पड़ी। उसने मन ही मन कहा- क्या कहूँ पिताजी, थे तो सब नपुंसक ही।
राजेन्द्र कौल अंतिम बार बुदबुदाए- मैं…. नपुंसक….
पर इससे अधिक न बोल सके। यमराज अपना कार्य कर चुके थे।

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शनिदेव लंगड़े क्यों और उन पर तेल चढ़ाने की परंपरा क्यों?


शनिदेव लंगड़े क्यों और उन पर तेल चढ़ाने की परंपरा क्यों?

शनिदेव दक्ष प्रजापति की पुत्री संज्ञा देवी और सूर्यदेव के पुत्र हैं। यह नवग्रहों में सबसे अधिक भयभीत करने वाला ग्रह है। इसका प्रभाव एक राशि पर ढाई वर्ष और साढ़े साती के रूप में लंबी अवधि तक भोगना पड़ता है। शनिदेव की गति अन्य सभी ग्रहों से मंद होने का कारण इनका लंगड़ाकर चलना है। वे लंगड़ाकर क्यों चलते हैं, इसके संबंध में सूर्यतंत्र में एक कथा है-एक बार सूर्य देव का तेज सहन न कर पाने की वजह से संज्ञा देवी ने अपने शरीर से अपने जैसी ही एक प्रतिमूर्ति तैयार की और उसका नाम स्वर्णा रखा। उसे आज्ञा दी कि तुम मेरी अनुपस्थिति में मेरी सारी संतानों की देखरेख करते हुए सूर्य देव की सेवा करो और पत्नी सुख भोगो। ये आदेश देकर वह अपने पिता के घर चली गई। स्वर्णा ने भी अपने आप को इस तरह ढाला कि सूर्य देव भी यह रहस्य न जान सके। इस बीच सूर्य देव से स्वर्णा को पांच पुत्र और दो पुत्रियां हुई। स्वर्णा अपने बच्चों पर अधिक और संज्ञा की संतानों पर कम ध्यान देने लगी।

एक दिन संज्ञा के पुत्र शनि को तेज भूख लगी, तो उसने स्वर्णा से भोजन मांगा तब स्वर्णा ने कहा कि अभी ठहरो, पहले मैं भगवान् का भोग लगा लूं और तुम्हारे छोटे भाई-बहनों को खिला दूं, फिर तुम्हें भोजन दूंगी। यह सुनकर शनि को क्रोध आ गया और उन्होंने माता को मारने के लिए अपना पैर उठाया, तो स्वर्णा ने शनि को श्राप दिया कि तेरा पांव अभी टूट जाए। माता का श्राप सुनकर शनिदेव डरकर अपने पिता के पास गए और सारा किस्सा कह सुनाया। सूर्यदेव तुरंत समझ गए कि कोई भी माता अपने पुत्र को इस तरह का शाप नहीं दे सकती। इसलिए उनके साथ उनकी पत्नी नहीं, कोई और है। सूर्य देव ने क्रोध में आकर पूछा कि ‘बताओ तुम कौन हो?’ सूर्य का तेज देखकर स्वर्णा घबरा गई और सारी सच्चाई उन्हें बता दी। तब सूर्यदेव ने शनि को समझाया कि स्वर्णा तुम्हारी माता नहीं है, लेकिन मां समान है।

इसलिए उनका दिया शाप व्यर्थ तो नहीं होगा, परंतु यह इतना कठोर नहीं होगा कि टांग पूरी तरह से अलग हो जाए। हां, तुम आजीवन एक पांव से लंगड़ाकर चलते रहोगे।

शनिदेव पर तेल क्यों चढ़ाया जाता है, इस संबंध में आनंद रामायण में एक कथा का उल्लेख मिलता है। जब भगवान् राम की सेना ने सागर सेतु बांध लिया, तब राक्षस इसे हानि न पहुंचा सकें, उसके लिए पवनसुत हनुमान को उसकी देखभाल की पूरी जिम्मेदारी सौंपी गई। जब हनुमान जी शाम के समय अपने इष्टदेव राम के ध्यान में मग्न थे, तभी सूर्य पुत्र शनि ने अपना काला कुरूप चेहरा बनाकर क्रोधपूर्वक कहा-‘हे | वानर ! मैं देवताओं में शक्तिशाली शनि हूं। सुना है, तुम बहुत बलशाली हो। आंखें खोलो और मुझसे युद्ध करो, मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूं।’ इस पर हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा-‘इस समय में अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूँ। आप मेरी पूजा में विघ्न मत डालिए। आप मेरे आदरणीय कृपा करके यहां से चले जाइए।

जब शनि लड़ने पर ही उतर आए, तो हनुमान ने शनि को अपनी पूंछ में लपेटना शुरू कर दिया। फिर उसे कसना प्रारंभ कर दिया। जोर लगाने पर भी शनि उस बंधन से मुक्त न होकर पीड़ा से व्याकुल होने लगे। हनुमान जी ने फिर सेतु की परिक्रमा शुरू कर शनि के घमंड को तोड़ने के लिए पत्थरों पर पूंछ को झटका दे-दे कर पटकना शुरू कर दिया। इससे शनि का शरीर लहूलुहान हो गया, जिससे उनकी पीड़ा बढ़ती गई। तब शनिदेव ने हनुमान जी से प्रार्थना की कि मुझे बंधन मुक्त कर दीजिए मैं अपने अपराध की सजा पा चुका हूं। फिर मुझसे ऐसी गलती नहीं होगी।

इस पर हनुमान जी बोले-मैं तुम्हें तभी छोडूंगा, जब तुम मुझे वचन दोगे कि श्रीराम के भक्त को कभी परेशान नहीं करोगे। यदि तुमने ऐसा किया, तो मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा।’ शनि ने गिड़गिड़ाकर कहा-मैं वचन देता हूं कि कभी भूलकर भी आपके और श्रीराम के भक्त की राशि पर नहीं आऊंगा। आप मुझे छोड़ दें। तब हनुमान ने शनिदेव को छोड़ दिया। फिर हनुमान जी से शनिदेव ने अपने घावों की पीड़ा मिटाने के लिए तेल मांगा। हनुमान् ने जो तेल दिया, उसे घाव पर लगाते ही शनिदेव की पीड़ा मिट गई। उसी दिन से शनिदेव को तेल चढ़ता है, जिससे उनकी पीड़ा शांत हो जाती है और वे प्रसन्न हो जाते हैं।

अनुराग सिंग

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सनातन एवं स्त्री
बालकों में जो स्थान # नचिकेता का है वही स्थान स्त्रियों में # सावित्री का है। आइए अध्ययन करें। अभी कुछ दिन पहले भारत में नारी की दशा पर एक चर्चा हो रही थी मेरे एक प्रखर वामपंथी मित्र जिनकी दो पुस्तक तीन बार रीप्रिंट हो चुकी हैं बोल उठे ! भारतीय समाज ने नारी को बिचारी # सती सावित्री बना दिया है ! इस पर काफ़ी तालियाँ बजी मै तो दर्शक मात्र था, वक्ता नहीं किन्तु चर्चा के बाद प्रश्नोत्तर की व्यवस्था थी तो मैने वक्ता से प्रश्न किया कि क्या आप सती अथवा सावित्री के विषय में जानते हैं ?
वक्ता ने कहा ,”हाँ जानता हूँ “
मैने प्रार्थना की ,”थोड़ा बताइए “
तो उन्होंने सती के बारे तो कुछ नहीं बताया किंतु सावित्री के बारे में बोलने लगे, ” सावित्री को सती दिखाने के लिए व्रत पाठ पूजा गले डाल दी है, मैं पूछता हूँ, पुरुष क्यों नहीं पत्नी के लिए व्रत रखते हैं ? ”
श्रोताओं को आनंद आ रहा था
मैने कहा, ” मान्यवर आप तो अपनी बात कह चुके अब मेरे प्रश्न की बारी है तो मुझे सवाल करने का अवसर दें “
वे बोले पूछिए !
अब मैने कहा ,” सावित्री का विवाह कैसे हुआ था “
उन्होंने बताया कि पिता के कहने पर वे स्वयं अपने लिए उचित वर खोजने गयी थीं ! मैने सभा में उपस्थित महिलाओं से पूछा , ”आप सफल महिलाओं में से किन किन को घर से यह आज़ादी मिली है ?”
अब महिलाओं के सिर नीचे झुक गए ,किसी ने भी इस आज़ादी के मिलने की बात नहीं कही , मैने वक्ता से पूछा ,”कितनी आधुनिक सशक्त महिला राजा की बेटी होने पर भी एक लकड़ी काटने वाले को पति चुन लेंगी, जिसके माता पिता अंधे हैं ?”
सभा में फिर सन्नाटा था ! अब मै प्रश्न पूछने वाला और पूरी सभा उत्तर दायी थी मैने फिर सवाल किया, जब सावित्री ने # सत्यवान से विवाह की बात कही तो देबर्षि नारद ने क्या कहा ?
वक्ता ने उत्तर दिया ,” सत्यवान की आयु मात्र एक वर्ष है ,इससे विवाह नहीं करना चाहिए “
सावित्री ने क्या कहा ? “मैंने जिसे एक बार पति मान लिया तो मान लिया विवाह करूँगी तो उसी से“
“माता पिता और # देवर्षि_नारद की बात को ठुकरा कर अपने मन की बात पूरी करने वाली बिचारी कैसे हैं !”
इस बात पर सभा में सन्नाटा था और महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान ! चर्चा यहीं समाप्त हुई ,कुछ महिलाओं ने आकर धन्यवाद दिया कि उन्होंने कभी ऐसे सोचा ही न था !
अब आप भी सावित्री सत्यवान का संवाद सुने और देखें कमजोर कौन है ! पूरी कथा लम्बी है तो सत्यवान के प्राण हर कर के जाते हुए यम का मार्ग रोकती सावित्री को यम कहते है ,”अब तू लौट जा, सत्यवान का अन्त्येष्टि-संस्कार कर। अब तू पति के ऋण से उऋण हो गयी। पति के पीछे तुझे जहाँ तक आना चाहिये था, तू वहाँ तक आ चुकी।”
सावित्री “जहाँ मेरे पति ले जाये जाते हैं अथवा ये स्वयं जहाँ जा रहे हैं, वहीं मुझे भी जाना चाहिये; यही सनातन धर्म है। तपस्या, गुरुभक्ति, पतिप्रेम, व्रतपालन तथा आपकी कृपा से मेरी गति कहीं भी रुक नहीं सकती।”
कितनी महिलाएँ विपदा में यह सामर्थ्य रखती हैं ? महाभारत वनपर्व के पतिव्रतामाहात्म्य पर्व के अंतर्गत अध्याय 297 में सावित्री और यम के संवाद का वर्णन हुआ है
तब यमराज ने उसे समझाते हुए कहा ,”मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता। तुम और कोई मनचाहा वर मांग लो।”
तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर की आंखे मांग ली।

यमराज ने कहा तथास्तु

फिर उनके पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए।
तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों।
यह वर मिलने के बाद भी सावित्री यम के पीछे आती रही !
यहाँ यह विचार करना ज़रूरी है कि यमराज कोई कृपा नहीं कर रहे हैं वे जिसकी मृत्यु नहीं आती है वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते ,जो स्त्री उनके पीछे आ रही है उसका तप और सिद्धि स्पष्ट दिख रही है तब वे वर देकर अपनी जान छुड़ा रहे हैं क्योंकि यदि आज सत्यवान जीवित हो उठा तो मृत्यु का अजेयता ख़तरे में हैं ,यहाँ सावित्री सर्वशक्तिमान है और सर्वशक्तिमान ‘यम ‘नियमों से बांधे गए एक मजबूर देवता हैं।
अब आगे सावित्री का वाक् कौशल देखें ,और वह भी यम के सामने जो कि सूर्य के पुत्र हैं और नचिकेता को अमरता की दीक्षा दे चुके है
यमराज ने फिर कहा ,”सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर मांग लो।
तब सावित्री ने कहा मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों। “
यमराज ने कहा ,”तथास्तु।”
अब सावित्री पूछती हैं ,”बिना पति पुत्र कैसे “ और लाचार यम सत्यवान के प्राण मुक्त कर जीवन देते हैं !

Posted in हास्यमेव जयते

A language lession:

*અંગ્રેજી V/S શુધ્ધ કાઠિયાવાડી*

અંગ્રેજી : don’t act too smart.!
કાઠિયાવાડી : વાયડીનો થા મા.!!

અંગ્રેજી : He is so Excited.!
કાઠિયાવાડી : આને તો બહુ ભડભડિયો.!!

અંગ્રેજી :He is very intelligent and smart.
કાઠિયાવાડી : એક નંબરનો વાયડો અને દોઢ ડાહ્યો.!!

અંગ્રેજી : His wife is very talented.
કાઠિયાવાડી: પેલાની બૈરી બધાને વેચી ખાય એવી છે..!

અંગ્રેજી : Pardon me, say it again.
કાઠિયાવાડી : હેં..??

અંગ્રેજી :- How can I trust you?
કાઠિયાવાડી:- ખા તારી માના હમ.!

અંગ્રેજી : please take one bite..
કાઠિયાવાડી: લે ખાને ટોપા.!

અંગ્રેજી : Get well soon.
કાઠિયાવાડી :ના રે ના..તું ઇ જ લાગનો સો.

અંગ્રેજી : Terrific.!
કાઠિયાવાડી : સલવાણા…

અંગ્રેજી: mind ur business.
કાઠિયાવાડી : મગજનો આઠડો કર માં….

અંગ્રેજી : Leave me alone.
કાઠિયાવાડી : આધો મરને…

અંગ્રેજી : Please don’t disturb me
કાઠિયાવાડી : પત્તર ખાંડ માં..

અંગ્રેજી :waiter..
કાઠિયાવાડી : એય છોટૂ…

અંગ્રેજી : Prove yourself
કાઠિયાવાડી : ખા તારી માના હમ..!!

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक व्यक्ति गाड़ी से उतरा… और बड़ी तेज़ी से एयरपोर्ट में घुसा, जहाज़ उड़ने के लिए तैयार था, उसे किसी कार्यकर्म मे पहुंचना था जो खास उसी के लिए आयोजित की जा रही था…
वह अपनी सीट पर बैठा और जहाज़ उड़ गया… अभी कुछ दूर ही जहाज़ उड़ा था कि… कैप्टन ने घोषणा की, तूफानी बारिश और बिजली की वजह से जहाज़ का रेडियो सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा… इसलिए हम पास के एयरपोर्ट पर उतरने के लिए विवस हैं.
जहाज़ उतरा वह बाहर निकल कर कैप्टन से शिकायत करने लगा कि… उसका एक-एक मिनट क़ीमती है और होने वाली कार्यकर्म में उसका पहुँचना बहुत ज़रूरी है… पास खड़े दूसरे यात्री ने उसे पहचान लिया… और बोला डॉक्टर पटनायक आप जहां पहुंचना चाहते हैं… टैक्सी द्वारा यहां से केवल तीन घंटे मे पहुंच सकते हैं… उसने धन्यवाद किया और टैक्सी लेकर निकल पड़ा…

लेकिन ये क्या आंधी, तूफान, बिजली, बारिश ने गाड़ी का चलना मुश्किल कर दिया, फिर भी ड्राइवर चलता रहा…
अचानक ड्राइवर को आभास हुआ कि वह रास्ता भटक चुका है…
ना उम्मीदी के उतार चढ़ाव के बीच उसे एक छोटा सा घर दिखा… इस तूफान में वहीं ग़नीमत समझ कर गाड़ी से नीचे उतरा और दरवाज़ा खटखटाया…
आवाज़ आई… जो कोई भी है अंदर आ जाए… दरवाज़ा खुला है…

अंदर एक बुढ़िया आसन बिछाए भगवद् गीता पढ़ रही थी… उसने कहा ! मांजी अगर आज्ञा हो तो आपका फोन का उपयोग कर लूं…

बुढ़िया मुस्कुराई और बोली… बेटा कौन सा फोन?? यहां ना बिजली है ना फोन..
लेकिन तुम बैठो… सामने चरणामृत है, पी लो… थकान दूर हो जायेगी… और खाने के लिए भी कुछ ना कुछ फल मिल जायेगा…खा लो ! ताकि आगे यात्रा के लिए कुछ शक्ति आ जाये…

डाक्टर ने धन्यवाद किया और चरणामृत पीने लगा… बुढ़िया अपने पाठ मे खोई थी कि उसके पास उसकी नज़र पड़ी… एक बच्चा कंबल मे लपेटा पड़ा था जिसे बुढ़िया थोड़ी थोड़ी देर मे हिला देती थी…
बुढ़िया की पूजा हुई तो उसने कहा… मां जी ! आपके स्वभाव और व्यवहार ने मुझ पर जादू कर दिया है… आप मेरे लिए भी प्रार्थना कर दीजिए… यह मौसम साफ हो जाये मुझे उम्मीद है आपकी प्रार्थनायें अवश्य स्वीकार होती होंगी…

बुढ़िया बोली… नही बेटा ऐसी कोई बात नही… तुम मेरे अतिथी हो और अतिथी की सेवा ईश्वर का आदेश है… मैने तुम्हारे लिए भी प्रार्थना की है… परमात्मा की कृपा है… उसने मेरी हर प्रार्थना सुनी है…
बस एक प्रार्थना और मै उससे माँग रही हूँ शायद जब वह चाहेगा उसे भी स्वीकार कर लेगा…

कौन सी प्रार्थना..?? डाक्टर बोला…

बुढ़िया बोली… ये जो 2 साल का बच्चा तुम्हारे सामने अधमरा पड़ा है, मेरा पोता है, ना इसकी मां ज़िंदा है ना ही बाप, इस बुढ़ापे में इसकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है, डाक्टर कहते हैं… इसे कोई खतरनाक रोग है जिसका वो उपचार नहीं कर सकते, कहते हैं की एक ही नामवर डाक्टर है, क्या नाम बताया था उसका !
हां “डॉ पटनायक ” … वह इसका ऑपरेशन कर सकता है, लेकिन मैं बुढ़िया कहां उस डॉ तक पहुंच सकती हूं? लेकर जाऊं भी तो पता नही वह देखने पर राज़ी भी हो या नही ? बस अब बंसीवाले से ये ही माँग रही थी कि वह मेरी मुश्किल आसान कर दे..!!

डाक्टर की आंखों से आंसुओं की धारा बह रहा है….वह भर्राई हुई आवाज़ मे बोला !
माई…आपकी प्रार्थना ने हवाई जहाज़ को नीचे उतार लिया, आसमान पर बिजलियां कौधवा दीं, मुझे रस्ता भुलवा दिया, ताकि मैं यहां तक खींचा चला आऊं, हे भगवान! मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा… कि एक प्रार्थना स्वीकार करके अपने भक्तों के लिए इस तरह भी सहयता कर सकता है…..!!!!

*दोस्तों, वह सर्वशक्तिमान है…. परमात्मा के भक्तो उससे लौ लगाकर तो देखो… जहां जाकर प्राणी असहाय हो जाता है, वहां से उसकी परम कृपा शुरू होती है…।
🚶‍♀️🙏🙏