स्वामी विवेकानन्द जी की सफलता में खेतड़ी नरेश अजित सिंह जी का था महान योगदान—–
देशी रियासतों के विलीनीकरण से पूर्व राजस्थान के शेखावाटी अंचल में स्थित खेतड़ी एक छोटी किन्तु सुविकसित रियासत थी, जहां के सभी राजा साहित्य एवं कला पारखी व संस्कृति के प्रति आस्थावान थे। वे शिक्षा के विकास व विभिन्न क्षेत्रों को प्रकाशमान करने की दिशा में सदैव सचेष्ट रहते थे। खेतड़ी सदैव से ही महान विभूतियों की कार्यस्थली के रूप में जानी जाती रही है। चारों तरफ फैले खेतड़ी के यश की चर्चा सुनकर ही विदेशी आक्रमणकारी महमूद गजऩवी ने अपने भारत पर किए गए सत्रह आक्रमणों में से एक आक्रमण खेतड़ी पर भी किया था, मगर उसके उपरान्त भी खेतड़ी की शान में कोई कमी नहीं आयी थी।
खेतड़ी नरेश राजा अजीतसिंह एक धार्मिक व आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले शासक थे। राजा अजीतसिंह ने माऊन्ट आबू में एक नया महल खरीदा था जिसे उन्होंने खेतड़ी महल नाम दिया था। गर्मी में राजा उसी महल में ठहरे हुये थे उसी दौरान 4 जून 1891 को उनकी युवा संन्यासी विवेकानन्द से पहली बार मुलाकात हुई। इस मुलाकात से अजीतसिंह उस युवा संन्यासी से इतने प्रभावित हुए कि राजा ने उस युवा संन्यासी को अपना गुरु बना लिया तथा अपने साथ खेतड़ी चलने का आग्रह किया जिसे स्वामीजी ठुकरा नहीं सके। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द 7 अगस्त 1891 को प्रथम बार खेतड़ी आये। खेतड़ी में स्वामीजी 27 अक्टूबर 1891 तक रहे। यह स्वामी विवेकानन्द जी की प्रथम खेतड़ी यात्रा थी तथा किसी एक स्थान पर स्वामीजी का सबसे बड़ा ठहराव था।
खेतड़ी प्रवास के दौरान स्वामीजी नित्यप्रति राजा अजीतसिंह जी से आध्यात्मिकता पर चर्चा करते थे। स्वामीजी ने राजा अजीतसिंह को उदार व विशाल बनने के लिए आधुनिक विज्ञान के महत्व को समझाया। खेतड़ी में ही स्वामी विवेकानन्द ने राजपण्डित नारायणदास शास्त्री के सहयोग से पाणिनी का ‘अष्टाध्यायी’ व पातंजलि का ‘महाभाष्याधायी’ का अध्ययन किया। स्वामीजी ने व्याकरणाचार्य और पाण्डित्य के लिए विख्यात नारायणदास शास्त्री को लिखे पत्रों में उन्हें मेरे गुरु कहकर सम्बोधित किया था।
अमेरिका जाने से पूर्व राजा अजीतसिंह के निमंत्रण पर 21 अप्रैल, 1893 को स्वामीजी दूसरी बार खेतड़ी पहुंचे। स्वामी जी ने इस दौरान 10 मई 1893 तक खेतड़ी में प्रवास किया। यह स्वामी जी की दूसरी खेतड़ी यात्रा थी। इसी दौरान एक दिन नरेश अजीत सिंह व स्वामीजी फतेहविलास महल में बैठे शास्त्र चर्चा कर रहे थे। तभी राज्य की नर्तकियों ने वहां आकर गायन वादन का अनुरोध किया। इस पर संन्यासी होने के नाते स्वामीजी उसमें भाग नहीं लेना चाहते थे, वे उठकर जाने लगे तो नर्तकियों के दल की नायिका मैनाबाई ने स्वामी जी से आग्रह किया कि स्वामीजी आप भी विराजें, मैं यहां भजन सुनाउंगी इस पर स्वामीजी बैठ गये। नर्तकी मैनाबाई ने महाकवि सूरदास रचित प्रसिद्ध भजन
प्रभू मोरे अवगुण चित न धरो ।
समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो ॥
एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो ।
पारस गुण अवगुण नहिं चितवत कंचन करत खरो ॥
सुनाया तो स्वामीजी की आंखों में पश्चाताप मिश्रित आंसुओं की धारा बह निकली और उन्होंने उस पतिता नारी को ‘ज्ञानदायिनी मां’ कहकर सम्बोधित किया तथा कहा कि आपने आज मेरी आंखें खोल दी हैं। इस भजन को सुनकर ही स्वामीजी संन्यासोन्मुखी हुए ओर जीवन पर्यन्त सद्भााव से जुड़े रहने का व्रत धारण किया। 10 मई 1893 को स्वामीजी ने मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में खेतड़ी से अमेरिका जाने को प्रस्थान किया। महाराजा अजीतसिंह के आर्थिक सहयोग से ही स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में शामिल हुए और वेदान्त की पताका फहराकर भारत को विश्व धर्मगुरु का सम्मान दिलाया। अमेरिका जाते वक्त खेतड़ी नरेश राजा अजीतसिंह ने अपने मुंशी जगमोहन लाल व अन्य सहायक कर्मचारियों को बम्बई तक स्वामी जी की यात्रा की तैयारियों व व्यवस्था करने के लिये स्वामी जी के साथ भेजा। स्वामी जी ने जहाज का साधारण दर्जे का टिकट खरीदा था जिसे राजा ने वापस करवाकर उच्च दर्जे का टिकट दिलवाया। अमेरिका में स्वामी जी का धन खो गया। इस बात का पता जब अजीतसिंह जी को लगा तो उन्होंने टेलीग्राफ से वहीं तत्काल 150 डालर भिजवाये।
इस बात का पता बहुत कम लोगों को है कि स्वामीजी का सर्वजन विदित ‘स्वामी विवेकानन्द’ नाम भी राजा अजीतसिंह ने रखा था। इससे पूर्व स्वामीजी का अपना नाम विविदिषानन्द था। शिकागो जाने से पूर्व राजा अजीतसिंह ने स्वामीजी से कहा कि आपका नाम बड़ा कठिन है तथा टीकाकार की सहायता के बिना उसका अर्थ नहीं समझा जा सकता है तथा नाम का उच्चारण भी सही नहीं है। और अब तो विविदिषाकाल यानि जानने की इच्छा भी समाप्त हो चुकी है। उसी दिन राजा अजीतसिंह ने उनके सिर पर साफा बांधा व भगवा चोगा पहना कर नया वेश व नया नाम स्वामी विवेकानन्द प्रदान किया जिसे स्वामीजी ने जीवन पर्यन्त धारण किया। आज भी लोक उन्हें राजा अजीतसिंह द्वारा प्रदत्त स्वामी विवेकानन्द नाम से ही जानते हैं।
शिकागो में हिन्दू धर्म की पताका फहराकर स्वामीजी विश्व भ्रमण करते हुए 1897 में जब भारत लौटे तो 17 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी नरेश ने स्वामीजी के सम्मान में 12 मील दूर जाकर उनका स्वागत किया व भव्य गाजे-बाजे के साथ खेतड़ी लेकर आये। उस वक्त स्वामी जी को सम्मान स्वरूप खेतड़ी दरबार के सभी ओहदेदारों ने दो-दो सिक्के भेंट किये व खेतड़ी नरेश ने तीन हजार सिेक्के भेंट कर दरबार हाल में स्वामी जी का स्वागत किया।
सर्वधर्म सम्मेलन से लौटने के बाद स्वामी विवेकानंद जब खेतड़ी आए तो राजा अजीतसिंह ने उनके स्वागत में चालीस मण (सोलह सौ किलो) देशी घी के दीपक पूरे खेतड़ी शहर में जलवाए थे। इससे भोपालगढ़, फतेहसिंह महल, जयनिवास महल के साथ पूरा शहर जगमगा उठा था। 20 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी के पन्नालाल शाह तालाब पर प्रीतिभोज देकर स्वामी जी का भव्य स्वागत किया। शाही भोज में उस वक्त खेतड़ी ठिकाना के पांच हजार लोगों ने भाग लिया था। उसी समारोह में स्वामी विवेकानन्द जी ने खेतड़ी में सार्वजनिक रूप से भाषण दिया जिसे सुनने हजारों की संख्या में लोग उमड़ पड़े। उस भाषण को सुनने वालों में खेतड़ी नरेश अजीतसिंह के साथ काफी संख्या में विदेशी राजनयिक भी शामिल हुये। 21 दिसम्बर 1897 को स्वामीजी खेतड़ी से प्रस्थान कर गये, यह स्वामीजी का अन्तिम खेतड़ी प्रवास था।
स्वामी विवेकानन्द जी ने एक स्थान पर स्वयं स्वीकार किया था कि यदि खेतड़ी के राजा अजीतसिंह जी से उनकी भेंट नही हुयी होती तो भारत की उन्नति के लिये उनके द्वारा जो थोड़ा बहुत प्रयास किया गया, उसे वे कभी नहीं कर पाते। स्वामी जी राजा अजीतसिंह को समय-समय पर पत्र लिखकर जनहित कार्य जारी रखने की प्रेरण देते रहते थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने जहां राजा अजीतसिंह को खगोल विज्ञान की शिक्षा दी थी वहीं उन्होंने खेतड़ी के संस्कृत विद्यालय में अष्ठाध्यायी ग्रंथों का अध्ययन भी किया था। स्वामी विवेकानन्द जी के कहने पर ही राजा अजीतसिंह ने खेतड़ी में शिक्षा के प्रसार के लिये जयसिंह स्कूल की स्थापना की थी।
कहते हैं कि स्वामीजी के आशीर्वचन से ही राजा अजीतसिंह को पुत्र प्राप्ति हुई थी। राजा अजीतसिंह और स्वामी विवेकानन्द के अटूट सम्बन्धों की अनेक कथाएं आज भी खेतड़ी के लोगों की जुबान पर सहज ही सुनने को मिल जाती हैं। स्वामीजी का मानना था कि यदि राजा अजीतसिंह नहीं मिलते तो उनका शिकागो जाना संभव नहीं होता। स्वामी जी ने माना था कि राजा अजीतसिंह ही उनके जीवन में एकमात्र मित्र थे। स्वामी जी के आग्रह पर राजा अजीतसिंह ने स्वामी की माता भुवनेश्वरी देवी को 1891 से सहयोग के लिये 100 रूपये प्रतिमाह भिजवाना प्रारम्भ करवाया था जो अजीतसिंह जी की मृत्यु तक जारी रहा।
Shekhawat Ajit Singh ji of khetri is known for providing financial support to Vivekananda, and encouraging him to speak at the Parliament of the World’s Religions at Chicago in 1893.
From 1891 Ajit Singh started sending monthly stipend of INR 100 to Vivekanada’s family in Kolkata. On 1 December 1898 Vivekananda wrote a letter to Ajit Singh from Belur in which he requested him to make the donation permanent so that even after Vivekananda’s death his mother (Bhuvaneswari Devi 1841—1911) gets the financial assistance on regular basis. The letter archive of Khetri reveals he had frequent communication with the family members of Vivekananda
स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 में व मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुयी थी। इसी तरह राजा अजीतसिंह जी का जन्म 10 अक्टूबर 1861 में व मृत्यु 18 जनवरी 1901 को हुयी थी। दोनों का निधन 39 वर्ष की उम्र में हो गया था व दोनों के जन्म व मृत्यु के समय में भी ज्यादा अन्तर नहीं था। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता है।
स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन नामक सेवा भावी संगठन की स्थापना की, जिसकी राजस्थान में सर्वप्रथम शाखा खेतड़ी में 1958 को राजा अजीतसिंह के पौत्र बहादुर सरदार सिंह द्वारा खेतड़ी प्रवास के दौरान स्वामी जी के ठहरने के स्थान स्वामी विवेकानन्द स्मृति भवन में प्रारम्भ करवायी गयी। मिशन द्वारा खेतड़ी में गरीब तथा पिछड़े बालक-बालिकाओं के लिए श्री शारदा शिशु विहार नाम से एक बालवाड़ी, सार्वजनिक पुस्तकालय, वाचनालय एवं एक मातृ सदन तथा शिशु कल्याण केन्द्र भी चलाया जा रहा है। खेतड़ी चौराहे पर तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. भैरोंसिंह शेखावत जी ने 1996 में स्वामी विवेकानन्दजी की आदमकद प्रतिमा का अनावरण किया था। जिससे आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा मिलती रहेगी।जय हिन्द।जय राजपुताना।।
लेखक-डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लढोता ,सासनी ,जिला हाथरस ,उत्तरप्रदेश
राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
