लघुकथा
एक तो है
मेरी काॅलोनी में ही एक गृहप्रवेश की पार्टी थी। मैं भी इस काँलोनी में नयी ही आई थी।संकोच हो रहा था कि मैं वहाँ अजनवी सी लगूँगी , लेकिन जाने से ही तो यहाँ के लोगों से परिचय होगा, ये सोचकर चली गयी। अकेली सबसे अलग एक कुर्सी पर बैठी कोल्डड्रिंक पी रही थी। अचानक सीमा पर नजर पड़ी।
“अरे सीमा तुम !”
दस साल बाद सीमा को देखकर मुझे बहुत खुशी हुई।
” क्या सुनील शर्मा तुम्हारे परिचित है?”
ये मेरे दूर के रिश्तेदार हैं। मेरे पति का स्थानांतरण फिर से यहीं हो गया है।
” तुम्हारे बच्चे वगैरह….”
“है न। दो बेटा है वह भी जुडवा।”
“अरे वाह।”
“अभी मिलवाती हूँ”
दस साल पहले सीमा हमारी पड़ोसन थी। तब उसकी नयी-नयी शादी हुई थी। कुछ ही दिनों में उसके पति दूसरे शहर चले गये और मैं सेवा निवृत्त होकर इस नयी काॅलोनी में अपने घर में आ गयी।……
“अरे बेटा! दादी को नमस्ते करो।”
दोनों बच्चे सचमुच एक से थे।
एक ने दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते किया और एक ने शीश झुकाकर।
उसकी कमीज की एक बाँह हवा में झूल रही थी। मैं ने सोचा बच्चा खेल में हाथ पीछे कर लिया होगा और कमीज का बाया हाथ झुल रहा है। अक्सर बच्चे खेल में ऐसा करते हैं।
अब तक पार्टी में थोड़ी भीड़ बढ़ गयी थी। वहीं सीमा को एक अन्य महिला से मुलाकात हुई जो उसकी परिचित थी। वह भी सीमा के बच्चों से पहली बार मिल रही थी। देखते ही बोल पड़ी।
“अरे सीमा, तुम्हारे एक बेटे का हाथ नहीं है? तुमने बताया नहीं कभी? ये कैसे हुआ?”
“जन्म से ही नहीं है।”
” ओह! भगवान भी अजब करते हैं। बेचारा कैसे अपना जीवन यापन करेगा। माँ-बाप को जीवन भर का दुख।”
एक पल के लिए सभी हतप्रभ हो उस महिला को देखने लगे। तभी वह बच्चा बोल पड़ा-
“क्या हुआ आँटी, एक हाथ तो है। मैं सबकुछ कर लूँगा।”
उसकी बाते सुनकर मेरे मुह से अनायास निकल पड़ा।
“शाबाश बेटे! तुम ने ठीक कहा तुम सबकुछ कर सकते हो। इतने स्मार्ट जो हो।
लड़का तो खुश होकर खेलने चला गया और मुझे सीमा की परवरिश पर गर्व महसूस हुआ। उसके आत्मविश्वास को इस उच्चाई तक पहुँचाने में सीमा की ही भूमिका है। मैंने सीमा से कहा।
“सीमा ,तुम्हारी परवरिश पर मुझे गर्व है। तुम एक सर्वगुणसंपन्न माँ हो।”
हँसती हुई सीमा पति की आवाज सुनकर चल पड़ी।
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।