तिरूपति बालाजी भगवान की सम्पूर्ण कथा!!!!!!!
एक बार समस्त देवताओं ने मिलकर एक यज्ञ करने का निश्चय किया।यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो गई।तभी वेद ने एक प्रश्न किया तो एक व्यवहारिक समस्या आ खड़ी हुई।
ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ की हविष तो देव गण ग्रहण करते थे लेकिन देवों द्वारा किये गये यज्ञ की पहली आहूति किसकी होगी।यानी सर्वश्रेष्ठ देव का निर्धारण जरूरी था जो फिर अन्य सभी देवों को यज्ञ भाग प्रदान करें।
ब्रह्मा-विष्णु-महेश परमात्मा थे।इनमें से श्रेष्ठ कौन है इसका निर्णय आखिर हो तो कैसे? भृगु ने इसका दायित्व संभाला। वह देवों की परीक्षा लेने चले।ऋषियों से विदा लेकर वह सर्व प्रथम अपने पिता ब्रह्मदेव के पास पहुंचे।
ब्रह्मा जी की परीक्षा लेने के लिए भृगु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया।इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और उन्हें शिष्टता सिखाने का प्रयत्न किया।भृगु को गर्व था कि वह तो परीक्षक हैं, परीक्षा लेने आए हैं।पिता-पुत्र का आज क्या रिश्ता ?
भृगु ने ब्रह्म देव से अशिष्टता कर दी।ब्रह्मा जी का क्रोध बढ़ गया और अपना कमण्डल लेकर पुत्र को मारने भागे।भृगु किसी तरह वहां से जान बचा कर भाग चले आये।इसके बाद वह शिव जी के लोक कैलाश गये।
भृगु ने फिर से धृष्टता की।बिना कोई सूचना का शिष्टाचार दिखाये या शिव गणों से आज्ञा लिये सीधे वहां पहुंच गये ,जहां शिव जी माता पार्वती के साथ विश्राम कर रहे थे।आये तो आये, साथ ही अशिष्टता का आचरण भी किया।
शिव जी शांत रहे पर भृगु न समझे।शिव जी को क्रोध आया तो उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया। भृगु वहां से भागे। अंत में वह भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे।श्री हरि शेष शय्या पर लेटे निद्रा में थे और देवी लक्ष्मी उनके चरण दबा रही थीं।
महर्षि भृगु दो स्थानों से अपमानित करके भगाए गये थे।उनका मन बहुत दुखी था।विष्णु जी को सोता देख उन्हें न जाने क्या हो गया और उन्होंने विष्णु जी को जगाने के लिए उनकी छाती पर एक लात जमा दी।
विष्णु जी जाग उठे और भृगु से बोले,)मेरी छाती वज्र समान कठोर है।आपका शरीर तप के कारण दुर्बल।कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आई।आपने मुझे सावधान करके कृपा की है. आपका चरण चिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा।
भृगु को बड़ा आश्चर्य हुआ।उन्होंने तो भगवान की परीक्षा लेने के लिए यह अपराध किया था परंतु भगवान तो दंड देने के बदले मुस्करा रहे थे।उन्होंने निश्चय किया कि श्री हरि सी विनम्रता किसी में नहीं।वास्तव में विष्णु ही सबसे बड़े देवता हैं।
लौट कर उन्होंने सभी ऋषियों को पूरी घटना सुनाई।सभी ने एक मत से यह निश्चय किया कि भगवान विष्णु को ही यज्ञ का प्रधान देवता समझ कर मुख्य भाग दिया जाएगा।
लक्ष्मी जी ने भृगु को अपने पति की छाती पर लात मारते देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया।परन्तु उन्हें इस बात पर क्षोभ था कि श्री हरि ने उद्दंड को दंड देने के स्थान पर उसके चरण पकड़ लिए और उल्टे क्षमा मांगने लगे।
क्रोध से तमतमाई महा लक्ष्मी को लगा कि वह जिस पति को संसार का सबसे शक्ति शाली समझती हैं वह तो निर्बल हैं।यह धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्मियों एवं दुष्टों का नाश कैसे करते होंगे?
महा लक्ष्मी ग्लानि में भर गई और मन श्री हरि से उचट गया।उन्होंने श्री हरि और बैकुंठ लोक दोनों के त्याग का निश्चय कर लिया। स्त्री का स्वाभिमान उसके स्वामी के साथ बंधा होता है।५
उनके समक्ष कोई स्वामी पर प्रहार कर गया और स्वामी ने प्रतिकार भी न किया, यह बात मन में कौंधती रही।यह स्थान वास के योग्य नहीं, पर त्याग कैसे करें, श्री हरि से ओझल होकर रहना कैसे होगा ! वह उचित समय की प्रतीक्षा करने लगीं।
श्री हरि ने हिरण्याक्ष के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए वराह अवतार लिया और दुष्टों का संहार करने लगे।महा लक्ष्मी के लिए यह समय उचित लगा।उन्होंने बैकुंठ का त्याग कर दिया और पृथ्वी पर एक वन में तपस्या करने लगीं।
श्री हरि और बैकुंठ का त्याग कर महा लक्ष्मी पृथ्वी पर एक वन में तपस्या करने लगीं।तप करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया। विष्णु जी वराह अवतार का अपना कार्य पूर्ण कर बैकुंठ लौटे तो महा लक्ष्मी नहीं मिलीं।वह उन्हें खोजने लगे।
श्री हरि ने उन्हें तीनों लोकों में खोजा किंतु तप करके माता लक्ष्मी ने भ्रमित करने की अनुपम शक्ति प्राप्त कर ली थी।उसी शक्ति से उन्होंने श्री हरि को भ्रमित रखा। आख़िर श्री हरि को पता लग ही गया लेकिन तब तक वह शरीर छोड़ चुकीं थी।
दिव्य दृष्टि से उन्होंने देखा कि लक्ष्मी जी ने चोलराज के घर में जन्म लिया है। श्री हरि ने सोचा कि उनकी पत्नी ने उनका त्याग सामर्थ्यहीन समझने के भ्रम में किया है इसलिए वह उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए अलौकिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे।
महा लक्ष्मी ने मानव रूप धरा है तो अपनी प्रिय पत्नी को प्राप्त करने के लिए वह भी साधारण मानवों के समान व्यवहार करेंगे और महा लक्ष्मी जी का हृदय और विश्वास जीतेंगे।
भगवान ने श्रीनिवास का रूप धरा और पृथ्वी लोक पर चोलनरेश के राज्य में निवास करते हुए महा लक्ष्मी से मिलन के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
राजा आकाशराज निःसंतान थे।उन्होंने शुकदेव जी की आज्ञा से संतान प्राप्ति यज्ञ किया।
यज्ञ के बाद यज्ञशाला में राजा को हल जोतने को कहा गया।राजा ने हल जोता तो हल का फल किसी वस्तु से टकराया।राजा ने उस स्थान को खोदा तो एक पेटी के अंदर सहस्रदल कमल पर एक कन्या विराज रही थी।वह महा लक्ष्मी थीं।
राजा के मन की मुराद पूरी हो गई थी. चूंकि कन्या कमल के फूल में मिली थी इसलिए उसका नाम रखा गया पदमावती।पदमावती नाम के अनुरूप ही रूपवती और गुणवती थी।साक्षात लक्ष्मी का अवतार।पद्मावती विवाह के योग्य हुई।
एक दिन वह बाग में फूल चुन रही थी।उस वन में श्रीनिवास (बालाजी) आखेट के लिए गए थे।उन्होंने देखा कि एक हाथी एक युवती के पीछे पड़ा है और डरा रहा है।राजकुमारी के सेवक भाग खड़े हुए।
श्रीनिवास ने तीर चला कर हाथी को रोका और पदमावती की रक्षा की। रीनिवास और पदमावती ने एक-दूसरे को देखा और रीझ गये दोनों के मन में परस्पर अनुराग पैदा हुआ।लेकिन दोनों बिना कुछ कहे अपने-अपने घर लौट गये।
श्रीनिवास घर तो लौट आये। लेकिन मन पदमावती में ही बस गया। वह पदमावती का पता लगाने के लिए उपाय सोचने लगे।उन्होंने ज्योतिषी का रूप धरा और भविष्य वांचने के बहाने पदमावती को ढूंढने निकले।
धीरे-धीरे ज्योतिषी श्रीनिवास की ख्याति पूरे चोल राज में फैल गई।पदमावती के मन में भी श्रीनिवास के लिए प्रेम हुआ था।वह उनसे मिलने को व्याकुल थी किंतु कोई पता-ठिकाना न होने के कारण उनका मन चिंतित था।
इस चिंता और प्रेम विरह में उन्होंने भोजन-शृंगार आदि का त्याग कर दिया।इसके कारण उसका शरीर कृशकाय होता चला गया।राजा से पुत्री की यह दशा देखी नहीं जा रही थी।वह चिंतित थे।
ज्योतिषी की प्रसिद्धि की सूचना राजा को हुई।
राजा ने ज्योतिषी श्रीनिवास को बुलाया और सारी बात बता कर अपनी कन्या की दशा का कारण बताने को कहा।
श्रीनिवास राजकुमारी का हाल समझने पहुंचे तो पदमावती को देख कर प्रसन्न हो गये।उनका उपक्रम सफल रहा था।
उन्होंने परदमावती का हाथ अपने हाथ में लिया।कुछ देर तक पढने का स्वांग करने के बाद बोले, ‘महाराज, आपकी पुत्री प्रेम के विरह में जल रही है। आप इनका शीघ्र विवाह करे दें तो स्वस्थ हो जाएंगी।
पदमावती ने अब श्रीनिवास की ओर देखा. देखते ही पहचान लिया।उनके मुख पर प्रसन्नता के भाव आए और वह हंसीं।काफी दिनों बाद पुत्री को प्रसन्न देख राजा को लगा कि ज्योतिषी का अनुमान सही है।
राजा ने श्रीनिवास से पूछा,”ज्योतिषी महाराज! यदि आपको यह पता है कि मेरी पुत्री प्रेम के विरह में पीड़ित है तो आपको यह भी सूचना होगी कि मेरी पुत्री को किससे प्रेम है ? उसका विवाह करने को तैयार हूं। आप उसका परिचय दें ?
श्रीनिवास ने कहा,”आपकी पुत्री एक दिन वन में फूल चुनने गई थी।एक हाथी ने उन पर हमला किया तो आपके सैनिक और दासियां भाग खड़ी हुईं. राजकुमारी के प्राण एक धनुर्धर ने बचाये थे।
राजा ने कहा,”हां मेरे सैनिकों ने बताया था कि एक दिन ऐसी घटना हुई थी।एक वीर पुरुष ने उसके प्राण बचाये थे लेकिन मेरी पुत्री के प्रेम से उस घटना का क्या तात्पर्य!
श्रीनिवास ने बताया,”आपकी पुत्री को अपनी जान बचाने वाले उसी युवक से प्रेम हुआ है।राजा के पूछने पर श्रीनिवास ने कहा,”वह कोई साधारण युवक नहीं, बल्कि शंख चक्रधारी स्वयं भगवान विष्णु हैं।”
इस समय बैकुंठ को छोड़कर मानव रूप में श्रीनिवास के नाम से पृथ्वी पर वास कर रहे हैं।आप पुत्री का विवाह उनसे करें।मैं इसकी सारी व्यवस्था करा दूंगा।यह बात सुनकर राजा प्रसन्न हो गये कि स्वयं विष्णु उनके जमाई बनेंगे।
श्रीनिवास और पदमावती का विवाह तय हो गयाकिश्रीनिवास रूप में श्री हरि ने शुकदेव के माध्यम से समस्त देवी-देवताओं को अपने विवाह की सूचना भिजवा दी. शुकदेव की सूचना से सभी देवी-देवता अत्यंत प्रसन्न हुए।
देवी-देवता श्रीनिवास जी से मिलने औऱ बधाई देने पृथ्वी पर पहुंचे। परंतु श्रीनिवास जी को खुशी के बीच एक चिंता भी होने लगी।
देवताओं ने पूछा, भगवन ! संसार की चिंता हरने वाले आप इस उत्सव के मौके पर इतने चिंतातुर क्यों हैं ?
श्रीनिवास जी ने कहा,”चिंता की बात है, धन का अभाव।महा लक्ष्मी ने मुझे त्याग दिया इस कारण धनहीन हो चुका हूं।स्वयं महा लक्ष्मी ने तप से शरीर त्याग मानव रूप लिया है और पिछली स्मृतियों को गुप्त कर लिया है।
इस कारण उन्हें यह सूचना नहीं है कि वह महा लक्ष्मी का स्वरूप है।वह तो स्वयं को राजकुमारी पदमावती ही मानती हैं. मैंने निर्णय किया है कि जब तक उनका प्रेम पुनःप्राप्त नहीं करता अपनी माया का उन्हें आभास नहीं कराऊंगा।
इस कारण मैं एक साधारण मनुष्य का जीवन व्यतीत कर रहा हूं और वह हैं राजकुमारी। राजा की पुत्री से शादी करने और घर बसाने के लिए धन, वैभव और ऐश्वर्य की जरूरत है, वह मैं कहां से लाऊं ?
स्वयं नारायण को धन की कमी सताने लगी।मानव रूप में आए प्रभु को भी विवाह के लिये धन की आवश्यकता हुई।यही तो ईश्वर की लीला है. जिस रूप में रहते हैं उस योनि के जीवों के सभी कष्ट सहते हैं।
श्री हरि विवाह के लिए धन का प्रबंध कैसे हो, इस बात से चिंतित है।
देवताओं ने जब यह सुना तो उन्हें आश्चर्य हुआ।देवताओं ने कहा,’कुबेर आवश्यकता के बराबर धन की व्यवस्था कर देंगे।
देवताओं ने कुबेर का आह्वान किया तो कुबेर प्रकट हुए।
कुबेर ने कहा,’ यह तो मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि आपके लिए कुछ कर सकूं। प्रभु आपके लिए धन का तत्काल प्रबंध करता हूं। कुबेर का कोष आपकी कृपा से ही रक्षित है।
श्री हरि ने कुबेर से कहा,’यक्षराज कुबेर! आपको भगवान भोलेनाथ ने जगत और देवताओं के धन की रक्षा का दायित्व सौंपा है।उसमें से धन मैं अपनी आवश्यकता के हिसाब से लूंगा अवश्य, पर मेरी एक शर्त भी होगी।
श्री हरि कुबेर से धन प्राप्ति की शर्त रख रहे हैं, यह सुनकर सभी देवता आश्चर्य में पड़ गये।श्री हरि ने कहा- ब्रहमा जी और शिव जी साक्षी रहें. कुबेर से धन ऋण के रूप में लूंगा जिसे भविष्य में ब्याज सहित चुकाऊंगा।
श्री हरि की बात से कुबेर समेत सभी देवता विस्मय में एक दूसरे को देखने लगे।कुबेर बोले,”भगवन! मुझसे कोई अपराध हुआ तो उसके लिए क्षमा कर दें. पर ऐसी बात न कहें।आपकी कृपा से विहीन होकर मेरा सारा कोष नष्ट हो जाएगा।
श्री हरि ने कुबेर को निश्चिंत करते हुए कहा,’ आपसे कोई अपराध नहीं हुआ।मैं मानव की कठिनाई का अनुभव करना चाहता हूं।मानव रूप में उन कठिनाइयों का सामना करूंगा, जो मानव को आती हैं।धन की कमी और ऋण का बोझ सबसे बड़ा है।
कुबेर ने कहा,’प्रभु! यदि आप मानव की तरह ऋण पर धन लेने की बात कर रहे हैं तो फिर आपको मानव की तरह यह भी बताना होगा कि ऋण चुकायेंगे कैसे ? मानव को ऋण प्राप्त करने के लिए कई शर्तें झेलनी पड़ती हैं।
श्रीनिवास ने कहा,’कुबेर! यह ऋण मैं नहीं, मेरे भक्त चुकाएंगे लेकिन मैं उनसे भी कोई उपकार नहीं लूंगा।मैं अपनी कृपा से उन्हें धनवान बनाऊंगा।कलियुग में पृथ्वी पर मेरी पूजा धन, ऐश्वर्य और वैभव से परिपूर्ण देवता के रूप में होगी।
मेरे भक्त मुझसे धन, वैभव और ऐश्वर्य की मांग करने आयेंगे। मेरी कृपा से उन्हें यह प्राप्त होगा बदले में भक्तों से मैं दान प्राप्त करूंगा जो चढ़ावे के रूप में होगा। मैं इस तरह आपका ऋण चुकाता रहूंगा।
कुबेर ने कहा,’भगवन ! कलियुग में मानव जाति धन के विषय में बहुत विश्वास के योग्य नहीं रहेगी।उन पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करना क्या उचित होगा ?
श्रीनिवास जी बोले,’ शरीर त्यागने के बाद तिरुपति के तिरुपला पर्वत पर बाला जी के नाम से लोग मेरी पूजा करेंगे।मेरे भक्तों की अटूट श्रद्धा होगी. वह मेरे आशीर्वाद से प्राप्त धन में मेरा हिस्सा रखेंगे।इस रिश्ते में न कोई दाता है और न कोई याचक।
‘हे कुबेर! कलियुग के आखिरी तक भगवान बाला जी धन, ऐश्वर्य और वैभव के देवता बने रहेंगे। मैं अपने भक्तों को धन से परिपूर्ण करूंगा तो मेरे भक्त दान से न केवल मेरे प्रति अपना ऋण उतारेंगे बल्कि मेरा ऋण उतारने में भी मदद करेंगे।
इस तरह कलियुग की समाप्ति के बाद मैं आपका मूलधन लौटा दूंगा।कुबेर ने श्री हरि द्वारा भक्त और भगवान के बीच एक ऐसे रिश्ते की बात सुनकर उन्हें प्रणाम किया और धन का प्रबंध कर दिया।
भगवान श्रीनिवास और कुबेर के बीच हुए समझौते के साक्षी स्वयं ब्रहमा और शिव जी हैं।दोनों वृक्ष रूप में साक्षी बन गये। आज भी पुष्करिणी के किनारे ब्रह्मा और शिव जी बरगद के पेड़ के रूप में साक्षी बनकर खड़े हैं।
ऐसा कहा जाता है कि निर्माण कार्य के लिए स्थान बनाने के लिए इन दोनों पेड़ों को जब काटा जाने लगा तो उनमें से खून की धारा फूट पड़ी।पेड़ काटना बंद करके उसकी देवता की तरह पूजा होने लगी।
श्रीनिवास और पदमावती की शादी पूरे धूमधाम से हुआ जिसमें सभी देवगण पधारे।भक्त मंदिर में दान देकर भगवान पर चढ़ा ऋण उतार रहे हैं जो कलियुग के अंत तक जारी रहेगा।
(बाला जी भगवान की प्रचलित कथा)
मानस अमृत