Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

मैंने सुना है, एक हाथी एक पुल पर से गुजरता था। हाथी का वजन—पुल कांपने लगा! एक मक्खी उसकी सूंड़ पर बैठी थी। जब दोनों उस पार हो गये, तो मक्खी ने कहा, ‘बेटा! हमने पुल को बिलकुल हिला दिया। ‘हाथी ने कहा, ‘देवी! मुझे तेरा पता ही न था, जब तक तू बोली न थी कि तू भी है। ‘

यह तुम जो सोच रहे हो तुमने पुल को हिला दिया, यह तुम नहीं हो—यह जीवन—ऊर्जा है। तुम तो मक्खी की तरह हो, जो जीवन—ऊर्जा पर बैठे कहते हो, ‘बेटा, देखो कैसा हिला दिया!’

यह अहंकार तो सिर्फ तुम्हारे ऊपर बैठा है। तुम्हारी जो अनंत ऊर्जा है, उससे सब कुछ हो रहा है। वह परमात्मा की ऊर्जा है, उसमें तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं है। वही तुममें श्वास लेता, वही तुममें जागता, वही तुममें सोता, तुम बीच में ही अकड़ ले लेते हो। इतना जरूर है कि तुम जब अकड़ लेते हो तो वह बाधा नही डालता।

हाथी ने तो कम—से—कम बाधा डाली। हाथी ने कहा कि देवी, मुझे पता ही न था कि तू भी मेरे ऊपर बैठी है। इतना तो कम—से—कम हाथी ने कहा, परमात्मा इतना भी नहीं कहता। परमात्मा परम मौन है। तुम अकड़ते हो तो अकड़ लेने देता है। तुम उसके कृत्य पर अपना दावा करते हो तो कर लेने देता है। जो तुमने किया ही नहीं है, उसको भी तुम कहते हो मैं कर रहा हूं तो भी वह बीच में आ कर नहीं कहता कि नहीं, तुम नहीं, मैं कर रहा हूं! क्योंकि उसके पास तो कोई ‘मैं’ है नहीं, तो कैसे तुमसे कहे कि मैं कर रहा हूं? इसलिए तुम्हारी भ्रांति चलती जाती है।

लेकिन गौर से देखो, थोड़ा आंख खोल कर देखो : तुम्हारे किये थोड़े ही कुछ हो रहा है; सब अपने से हो रहा है!

यही नियति का अपूर्व सिद्धात है, भाग्य का अपूर्व सिद्धात है कि सब अपने से हो रहा है। गलत लोगों ने उसके गलत अर्थ ले लिये, गलत लोगों की भूल। अन्यथा भाग्य का इतना ही अर्थ है कि भाग्य के सिद्धात को अगर तुम ठीक से समझ लो, तो तुम साक्षी रह जाओगे, और कुछ करने को नहीं है फिर। लेकिन भाग्य से लोग साक्षी तो न बने, अकर्मण्य बन गये; अकर्ता तो न बने, अकर्मण्य बन गये।

अकर्ता और अकर्मण्य में भेद है। अकर्मण्य तो काहिल है, सुस्त है, मुर्दा है। अकर्ता ऊर्जा से भरा है—सिर्फ इतना नहीं कहता कि मैं कर रहा हूं। परमात्मा कर रहा है! मैं तो सिर्फ देख रहा हूं। यह लीला हो रही है, मैं देख रहा हूं।

आदमी बहुत बेईमान है, सुंदरतम सत्यों का भी बड़ा कुरूपतम उपयोग करता है। भाग्य बड़ा सुंदर सत्य है। उसका केवल इतना ही अर्थ है कि सब हो रहा है; तुम्हारे किये कुछ नहीं हो रहा है। सब नियत है। जो होना है, होगा। जो होना है, होता है। जो हुआ है, होना था। तुम किनारे बैठ कर शांति से देख सकते हो लीला, कोई तुम्हें बीच में उछल—कूद करने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे आगे—पीछे दौड़ने से कुछ भी फर्क नहीं पड़ रहा है; जो होना है, वही हो रहा है। जो होना है, वही होगा। फिर तुम साक्षी हो जाते हो।

साक्षी की तरफ ले जाने के लिए भाग्य का ढांचा खोजा गया था। लोग साक्षी की तरफ तो नहीं गये; लोग अकर्मण्य हो कर बैठ गये। उन्होंने कहा, जब जो होना है, होना है, तो फिर ठीक; फिर हम करें ही क्यों? अभी भी धारणा यही रही कि हमारे करने का कोई बल है, हम करें ही क्यों? पहले कहते थे, हम करके दिखायेंगे; अब कहते हैं, करने में सार क्या! मगर कर्ता का भाव न गया; वह अपनी जगह खड़ा हुआ है।

अष्टावक्र को अगर तुम समझो, तो कोई विधि नहीं है, कोई अनुष्ठान नहीं है। अष्टावक्र कहते हैं : अनुष्ठान ही बंधन है; विधि ही बंधन है; करना ही बंधन है।
ओशो

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