Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

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एक शहर में कलेक्टर के घर के सामने एक पटवारी ने घर खरीद लिया । दोनों के दो दो बच्चे थे ।

एक दिन मोहल्ले में आइसक्रीम बेचने वाला आया तो पटवारी के बच्चों ने बोला कि हमें आइसक्रीम खानी है ।’ पटवारी ने झट 20 रूपये दिये और कहा जाओ खा लो।
आइसक्रीम वाला कलेक्टर के घर के सामने पहुंचा तो उसके बच्चों ने भी आइसक्रीम खाने के लिए कहा कलेक्टर बोला बच्चों यह डर्टी होती है अच्छी नहीं है बीमार हो जाओगे । बच्चे बेचारे मन मसोस कर बैठ गए ।

दो दिन बाद रेवड़ी गजक वाला मोहल्ले में आया फिर पटवारी के बच्चों ने गजक खाने की इच्छा जताई तो पटवारी ने झट 20 रूपये दिये और बच्चों ने गजक खा ली ।
अब गजक वाला कलेक्टर के घर के पास पहुंचा तो उसके बच्चों ने भी गजक खाने की जिद करी कलेक्टर ने कहा कि बेटा इस पर डस्ट लगी होती है बीमारी हो जाती है बच्चे फिर मुँह लटका कर बैठ गए ।

कुछ दिन बाद मोहल्ले में मदारी आया जो बंदर नचा रहा था । पटवारी के बच्चों ने कहा हमे बंदर के साथ खेलना है । पटवारी ने मदारी को 50 रूपये दिए और थोड़ी देर बच्चों को बंदर से खेलने को कह दिया । बच्चे खुश ।
अब कलेक्टर के बच्चों ने भी कह कि उन्हें भी बंदर के साथ खेलना है कलेक्टर बोला अरे कैसी गंदी बात है बंदर जानवर है काट लेता है यह कोई खेलने वाली चीज है ? बच्चे बेचारे फिर चुप चाप बैठ गए ।
कुछ दिन बाद कलेक्टर ने अपने बच्चों से पूछा कि वे बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं तो बच्चों ने तपाक से उत्तर दिया।

———- पटवारी ——–
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ll शयन के नियम ll

  1. सूने घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। देवमन्दिर और श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए। (मनुस्मृति)
  2. किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। (विष्णुस्मृति)
  3. विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, ये ज्यादा देर तक सोए हुए हों तो, इन्हें जगा देना चाहिए। (चाणक्यनीति)
  4. स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। (देवीभागवत)
  5. बिल्कुल अंधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए। (पद्मपुराण)
  6. भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। (अत्रिस्मृति)
  7. टूटी खाट पर तथा जूठे मुंह सोना वर्जित है। (महाभारत)
  8. नग्न होकर नहीं सोना चाहिए। (गौतमधर्मसूत्र)
  9. पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या , पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता , उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु तथा दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है। (आचारमय़ूख)
  10. दिन में कभी नही सोना चाहिए। परन्तु ज्येष्ठ मास मे दोपहर के समय एक मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। (जो दिन मे सोता है उसका नसीब फुटा है)
  11. दिन में तथा सुर्योदय एवं सुर्यास्त के समय सोने वाला रोगी और दरिद्र हो जाता है। (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
  12. सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घंटे) के बाद ही शयन करना चाहिए।
  13. बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर हैं।
  14. दक्षिण दिशा में पाँव करके कभी नही सोना चाहिए। यम और दुष्टदेवों का निवास रहता है। कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है स्मृति- भ्रंश, मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।
  15. ह्रदय पर हाथ रखकर, छत के पाट या बीम के नीचें और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।
  16. शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है।
  17. सोते सोते पढना नही चाहिए।
  18. ललाट पर तिलक लगाकर सोना अशुभ है। इसलिये सोते वक्त तिलक हटा दें।
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गरुड़ पुराण


मरने के 47 दिन बाद आत्मा पहुंचती है यमलोक, ये होता है रास्ते में
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मृत्यु एक ऐसा सच है जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता। हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद स्वर्ग-नरक की मान्यता है। पुराणों के अनुसार जो मनुष्य अच्छे कर्म करता है, वह स्वर्ग जाता है,जबकि जो मनुष्य जीवन भर बुरे कामों में लगा रहता है, उसे यमदूत नरक में ले जाते हैं। सबसे पहले जीवात्मा को यमलोक लेजाया जाता है। वहां यमराज उसके पापों के आधार पर उसे सजा देते हैं।

मृत्यु के बाद जीवात्मा यमलोक तक किस प्रकार जाती है, इसका विस्तृत वर्णन गरुड़ पुराण में है। गरुड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य के प्राण निकलते हैं और किस तरह वह पिंडदान प्राप्त कर प्रेत का रूप लेता है।

गरुड़ पुराण के अनुसार जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोल नहीं पाता है। अंत समय में उसमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है। उसकी सभी इंद्रियां नष्ट हो जाती हैं। वह जड़ अवस्था में आ जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुंह से झाग निकलने लगता है और लार टपकने लगती है। पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग से निकलते हैं।

  • मृत्यु के समय दो यमदूत आते हैं। वे बड़े भयानक, क्रोधयुक्त नेत्र वाले तथा पाशदंड धारण किए होते हैं। वे नग्न अवस्था में रहते हैं और दांतों से कट-कट की ध्वनि करते हैं। यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं। उनका मुंह टेढ़ा-मेढ़ा होता है। नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। यमराज के इन दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मलमूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठमात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा हा शब्द करता हुआ निकलता है।
  • यमराज के दूत जीवात्मा के गले में पाश बांधकर यमलोक ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी यमराजके दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाली यातनाओं के बारे में बताते हैं। यमदूतों की ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु यमदूत उस पर बिल्कुल भी दया नहीं करते हैं।
  • इसके बाद वह अंगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और कांपता हुआ, कुत्तों के काटने से दु:खी अपने पापकर्मों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है। वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठताहै। तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। इस प्रकार यमदूत उस पापी को अंधकारमय मार्ग से यमलोक ले जाते हैं।
  • गरुड़ पुराण के अनुसार यमलोक 99 हजार योजन (योजन वैदिक काल की लंबाई मापने की इकाई है। एक योजन बराबर होता है, चार कोस यानी 13-16 कि.मी) दूर है। वहां पापी जीव को दो- तीन मुहूर्त में ले जाते हैं। इसके बाद यमदूत उसे भयानक यातना देते हैं। यह याताना भोगने के बाद यमराज की आज्ञा से यमदूत आकाशमार्ग से पुन: उसे उसके घर छोड़ आते हैं।
  • घर में आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा रखती है, लेकिन यमदूत के पाश से वह मुक्त नहीं हो पातीऔर भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समयमें दान करते हैं, उससे भी प्राणी की तृप्ति नहीं होती, क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से बेचैन होकर वह जीव यमलोक जाता है।
  • जिस पापात्मा के पुत्र आदि पिंडदान नहीं देते हैं तो वे प्रेत रूप हो जाती हैं और लंबे समय तक निर्जन वन में दु:खी होकर घूमती रहती है। काफी समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। गरुड़ पुराण के अनुसार मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंडदान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह को पुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है। दसवें दिनपिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है।
  • गरुड़ पुराण के अनुसार शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है। वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से हृदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पांचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नवें और दसवें दिन से भूख-प्यास उत्पन्न होती है। यह पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेतरूप में ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है।
  • यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुंचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है। उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन दो सौ योजन चलता है। इस प्रकार 47 दिन लगातार चलकर वह यमलोक पहुंचता है। मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर पापी जीव यमराज के घर जाता है।
  • इन सोलह पुरियों के नाम इस प्रकार है – सौम्य, सौरिपुर, नगेंद्रभवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्वापाद, दु:खद, नानाक्रंदपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण,शीतढ्य, बहुभीति। इन सोलह पुरियों को पार करने के बाद यमराजपुरी आती है। पापी प्राणी यमपाश में बंधा मार्ग में हाहाकार करते हुए यमराज पुरी जाता है… ।
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ओली अमित

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श्रीमद्भागवत में वर्णित है,जड़ भरत की कथा !!!!

जड़ भरत की कथा हमें बताती है की हमें किसी के प्रति भी अत्यधिक आसक्त नहीं होना चाहिये चाहे वो स्त्री हो या पुरुष या अन्य कोई..क्योंकि अत्याधिक आसक्ति हमें ना दैनिक कर्म मे ध्यान लगाने देती है और ना ही भगवत ध्यान में…यह आसक्ति ही दुःखों का मूल है।

यह दुनियाभि रिश्ते तो मिथ्या है,इनके कारण अपना कर्तव्य और परलोक खराब ना करें।भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है कि जो आज आपका है,वो कल किसी और का था और कल किसी और का होगा..यही सृष्टि का नियम है।

श्री जड़ भरत जी महाराज के 3 जन्मों का श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णन है। जो इस प्रकार है—

श्री ऋषभ देव जी के 100 पुत्र थे जिनमें सबसे बड़े भरत जी थे। इन्होंने अपने पुत्र भरत को राजगद्दी सोंप दी। इनका विवाह विश्वरूप की कन्या पञ्चजनी से हुआ। इनके 5 पुत्र हुए- सुमति, राष्ट्रभृत, सुदर्शन, आवरण और धूम्रकेतु। पहले भारत को अजनाभवर्ष कहते थे लेकिन राजा भरत के समय से “भारतवर्ष” कहा जाने लगा।

इन्होंने बड़े अच्छे से प्रजा का पालन किया और ये बहुत अच्छे राजा साबित हुए। कई वर्ष बीत जाने पर इन्होंने राज्य अपने पुत्रों में बाँट दिया। और खुद पुलहाश्रम(हरिहरक्षेत्र) में आ गए। यहाँ पर गंडकी नाम की नदी थी उसकी तलहटी में शालिग्राम जी मिलते हैं। वहीँ पर भगवान का ध्यान करते, पूजा पाठ करते और कंद मूल से भगवान की आराधना करते। इस तरह ये भगवान में मन को लगाए रहते।

एक बार भरतजी गण्डकी में स्नान कर रहे थे तो इन्होंने देखा की एक गर्भवती हिरनी पानी पीने के लिए नदी के तट पर आई। अभी वह पानी पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंह की लोक भयंकर दहाड़ सुनायी पड़ी। जैसे ही उसने शेर की दहाड़ सुनी तो वह डर गई और उसने नदी पार करने के लिए छलांग लगा दी। उसी समय उसके गर्भ से मृगशावक बाहर आ गया और नदी में गिर गया। हिरनी ने भी नदी पार की और डर के मरे गुफा में मर गई।

भरत जी ने देखा की हिरनी का बच्चा नदी में बह रहा है। उन्हें बड़ी दया आई और कूदकर उस हिरन के बच्चे को बचा लिया और अपने आश्रम पर ले आये। वे बड़े प्यार से उस हिरनी के बच्चे का पालन करने लगे। वो हिरन भी अब भरत जी को ही अपना सब कुछ समझने लगा। लेकिन भरत जी एक गलती कर गए ।उनका मन भगवान की पूजा से हटकर उस हिरन के बच्चे में आशक्त हो गया। हरिन के बच्चे में आसक्ति बढ़ जाने से बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाश में बँधा रहता था। क्योकि मन एक है या तो आप इसे संसार में लगा लो या भगवान में।

अब वो जो भी भगवान का पूजा पाठ करते तो उस समय उन्हें उस हिरन के बच्चे की याद आ जाती। कहीं उसे कोई कुत्ता, या सियार या भेड़िया खा न जाये। अगर भरत जी को वह दिखाई नही देता तो उनकी दशा ऐसे हो जाती की किसी का सारा धन लूट गया हो। भरत जी को उसके रहने की, खाने की और सोने की चिंता लगी रहती थी।

एक दिन ऐसा आया की भरत जी अपने दैनिक कर्म में लगे हुए थे वहां हिरनों का झुंड आया और वह हिरन का बच्चा उनके साथ चला गया। जब भरत जी को हिरन का बच्चा कहीं भी नही मिला तो उसे निरंतर उस हिरन की याद सताने लगी। काल का प्रभाव हुआ भरत जी की मृत्यु हुई। मृत्यु के समय भरत जी उस हिरन का ही चिंतन कर रहे थे। इस कारण उन्हें अगला जन्म कालिंजर पर्वत पर एक हिरनी के गर्भ से हुआ।

जड़ भरत का दूसरा जन्म ,,,,भरत जी हिरन बन गए लेकिन उन्हें अपने पूर्वजन्म की याद बनी हुई थी क्योकिं वो पूर्वजन्म में इतना भजन कर चुके थे। हिरन बनकर भरत जी सोच रहे थे की ” पिछले जन्म में मैंने कितनी बड़ी भूल कर दी। अपने सब परिवार को छोड़कर मैं भगवान का भजन करने के लिए वन में आया था लेकिन मैं उस हिरन में इतना आशक्त हो गया की मुझे हिरन की योनि प्राप्त हो गई।

एक दिन उन्होंने अपनी माता मृगी को त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालंजर पर्वत से वे फिर शान्त स्वभाव मुनियों के प्रिय उसी शालग्राम तीर्थ में, जो भगवान् का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर चले आये। वहाँ रहकर भी वे काल की ही प्रतीक्षा करने लगे। जैसा रुख सूखा उन्हें मिल जाता था वे खा लेते थे। अन्त में उन्होंने अपने शरीर का आधा भाग गण्डकी के जल में डुबाये रखकर उस मृग शरीर को छोड़ दिया।

जड़ भरत का तीसरा जन्म !!!!!

भरत जी का अगला जन्म आंगिरस गोत्र ब्राह्मण के घर हुआ। ये बड़े ही श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। इन्ही बड़ी स्त्री से इनके 9 पुत्र हुए और छोटी पत्नी से एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। इस जन्म में भी भगवान की कृपा से इन्हें अपने पूर्वजन्म का स्मरण बना हुआ था। इन्हें पिता इन्हें वेद, शास्त्र सिखाते लेकिन ये जान बुझ कर सीखते नही थे। क्योंकि ये जानते थे अगर मैंने ये सब सिख लिए तो मुझे कर्म कांड करने पड़ेंगे और मैं फिर संसार में फंस जाऊंगा। इन्होंने जान बुझ कर एक मन्त्र भी याद नही किया।

कोई कह भी नही सकता था ये की ये वही ज्ञानी भरत है जो सब कुछ छोड़कर भगवान के भजन करने के लिए वन में गए थे। लोग इन्हें मूर्ख समझने लगे। जब लोग इन्हेंपागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर पुकारते तब वे भी उसी के अनुरूप भाषण करने लगते। इन पर सुख दुःख का कोई प्रभाव नही था। गर्मी-सर्दी और वर्षा का भी कोई प्रभाव नही था। कोई इन्हें काम की कहता तो कर देते थे। कोई गाली देता तो सुन लेते थे। वे पृथ्वी पर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीर पर मैल जम गयी थी। लोग कहने लगे थे की ये तो ‘अधम ब्राह्मण’ है। इसी कारण से इन्हें “जड़ भरत” कहा जाने लगा।

पिता की मृत्यु होने के बाद भरत जी अपने भाई और भाभियों के शासन में चले गए। उनके भाइयों ने एक दिन उन्हें खेत की क्यारियाँ ठीक करने में लगा दिया तब वे उस कार्य को भी करने लगे। परन्तु उन्हें इस बात का कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियों की भूमि समतल है या ऊँची-नीची अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावल की कनी, खली, भूसी, घुने हुए उड़द अथवा बरतनों में लगी हुई जले अन्न की खुरचन—जो कुछ भी दे देते, उसी को वे अमृत के समान खा लेते थे।

जड़ भरत और माँ काली!!!!!

एक दिन डाकुओं के सरदार ने पुत्र की कामना से भद्रकाली को मनुष्य की बलि देने का संकल्प किया। उसने जिस पुरुष को पशु बलि देने के लिये मँगाया था, वह किसी तरह से उसके फंदे से निकलकर भाग गया। उसे ढूँढने के लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रात में आधी रात के समय कहीं उसका पता न लगा।

अचानक उनकी दृष्टि इन आंगिरस गोत्रीय ब्राम्हण कुमार(भरत जी) पर पड़ी, जो मृग-वराहादि जीवों से खेतों की रखवाली कर रहे थे । उन्होंने देखा कि हम इन्हें पकड़कर ले चलते हैं इससे हमारे स्वामी का कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर वे उन्हें रस्सियों से बाँधकर चण्डिका के मन्दिर में ले आये।

फिर उन चोरों ने अपनी पद्धति के अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकार के आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदि से विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। और बलिदान की विधि से गान, स्तुति और मृदंग एवं ढोल आदि का महान् शब्द करते उस पुरुष-पशु को भद्रकाली के सामने नीचा सिर कराके बैठा दिया । इसके पश्चात् नर-पशु के रुधिर से देवी को तृप्त करने के लिये देवीमन्त्रों से अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया ।

और जैसे ही भरत जी को मारने लगे तो माँ काली ने सोचा की एक तो ये ब्राह्मण है और दूसरा भगवान का भक्त है। यदि मैं आज इसकी रक्षा नही कर पाई और भगवान ने पूछ लिया की देवी आप मेरी भक्त की रक्षा नही कर पाई तो भगवान को क्या कहूँगी? इसलिए यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी भद्रकाली के शरीर में अति दुःसह ब्रम्हतेज से दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्ति को फोड़कर प्रकट हो गयीं। उन्होंने क्रोध से तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित तलवार से ही उन सारे पापियों के सिर उड़ा दिये और अपने गणों के सहित उनके गले से बहता हुआ गरम-गरम रुधिर रूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वर से गाती और नाचती हुई उन सिरों को ही गेंद बनाकर खेलने लगीं। इस तरह माँ काली ने भरत जी की प्राण रक्षा की।

जड़ भरत और राजा रहूगण की कहानी/कथा

जड़ भरत जी महाराज के तीन जन्मों का वर्णन श्रीमद भागवत पुराण में आया है। भरत जी की माँ काली ने रक्षा की थी। फिर भरत जी महाराज अब यहाँ से भी आगे चल दिए। एक बार सिन्धुसौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर सवार होकर कपिल भगवान के आश्रम पर जा रहा था। मार्ग में उन्हें पालकी उड़ाने वाले एक कहार की कमी महसूस हुई। जब सेवक कहार की खोज करने निकले तो उन्हें यही भरत जी मिल गए। और इन्हें पकड़कर पालकी उठाने में लगा दिया। वे बिना कुछ बोले ही चुपचाप पालकी को उठाकर चलने लगे।

जड़ भरत के तीन जन्म की कथा !!!!!

अब संत की अपनी मस्ती होती है। कभी तो भरत जी महाराज तेज चलते, कभी धीरे चलते। इस प्रकार से राजा की पालकी हिलने डुलने लगी। राजा रहूगण ने पालकी उठाने वालों से कहा—‘अरे कहारों! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो ?’

कहारों ने सोचा अगर हमने ये नही बताया की जो नया पालकी उठाने वाला है उसके कारण सब गड़बड़ हो रही है तो राजा हमे जरूर दंड देगा। उन्होंने राजा से कहा की- ‘महाराज! अभी नया कहार पालकी में लगाया है जो कभी धीरे चलता है और कभी जल्दी। हम लोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’।

राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होने वाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी पुरुषों में आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया जाय तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया।

राजा गुस्से में कहने लगा – “बड़े दुःख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है।’

ऐसा सुनकर भी भरत जी ने राजा का कुछ भी बुरा न माना। और चुपचाप पालकी को लेकर चलते रहे। लेकिन भरत जी महाराज अब भी अपनी मस्ती में चले जा रहे थे। संत जान बताते हैं की चलते चलते रस्ते में एक लंबी चींटियों की लाइन भरत जी को दिखाई दी। कहीं चींटियों पर पैर न पड़ जाये उन्होंने एक छोटी सी छलांग लगाई। और जैसे ही छलांग लगाई तो राजा का सर पालकी से टकराया। और राजा गुस्से से आग बबुला हो गया। राजा कहता है -“तू जीते जी मरे के सामान है। तू सर्वथा प्रमादी है। तुझसे ये पालकी का भार नही उठाया जा रहा है। जैसे यमराज जन-समुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायँगे”। अपने अभिमान के कारण राजा अनाप शनाप बकने लगा।

भरत जी ने सोचा की एक तो ये मुझसे सेवा करवा रहा है और दूसरा गाली भी दे रहा है। तो मैं इसे थोड़ा ज्ञान दे दूं। जड भरत ने कहा—राजन्! तुमने जो कुछ कहा वह एकदम सच है। लेकिन यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलने वाले के लिये है। मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीर के लिये कहा जाता है, आत्म के लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते।

आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक—ये सब शरीर को लगते हैं इसका आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। भूख और प्यास प्राणों को लगती है। शोक और मोह मन में होता है।

तुम राजा हो और मैं प्रजा। प्रजा का काम है वो राजा की आज्ञा का पालन करे लेकिन तुम सदा के लिए राजा नही रहोगे और मैं सदा के लिए प्रजा नही रहूँगा? तुम कह रहे हो की मैं पागल हूँ और मेरा इलाज तुम कर दोगे। मुझे शिक्षा देना ऐसे होगा जैसे कोई किसी वस्तु को पीस दे और तुम आकर उसे दोबारा पीस दो। मैं तो पहले ही पिसा हुआ हूँ तू मुझे क्या पीसेगा?

जब जड भरत यथार्थ तत्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये। फिर राजा ने सोचा ये कोई ज्ञानी पुरुष है और राजा पालकी से उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा।

आप कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई हैं ? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है ? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्वमूर्ति भगवान् कपिलजी ही तो नहीं हैं ?

मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न मैं महादेवजी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से। मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राम्हण कुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ। मेरे द्वारा किसी ब्राह्मण का अपमान न हो जाये। आप कृपा करके बताइये की आप कौन हैं।

मैंने आप जैसे संत-पुरुष का अपमान किया। मैंने आपकी अवज्ञा की। अब आप ऐसी कृपा दृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञा रूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ।

जड़ भरत का राजा रहूगण को ज्ञान देना।

संत भरत कहते हैं की यह मायामय मन संसार चक्र में छलने वाला है। जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही संसार में बंधने का और मोक्ष पद का कारण बताते हैं । विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्ष पद प्राप्त करा देता है।

जिस तरह घी से भीगी हुई बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धुंएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है—उसी प्रकार विषय और कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्व में लीन हो जाता है।

पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार—ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर—ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं । गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मल त्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार—ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है। कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं । ये मन की ग्यारह वृतियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है।

जब तक मनुष्य ज्ञान के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधि रूप मन को संसार-दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है। यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारी उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।

राजा रहूगण ने कहा-“मैं आपको नमस्कार करता हूँ।” जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमान रूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं। आपने कहा की भार नाम की अगर कोई चीज है तो उसका सम्बन्ध केवल देह तक ही सिमित है उसका आत्मा से कोई सम्बन्ध नही है। ये बात मेरी समझ में नही आई है। आपके ऊपर पालकी रखी हुई हुई है तो आपको भार लगेगा , और यदि आपके शरीर को भार का अनुभव होगा तो उसे आत्मा भी अनुभव करती होगी ना?

फिर राजा कहता है की तुमने कहा की सुख दुःख का अनुभव आत्मा नही करती है लेकिन मैंने युद्ध में खुद को थकते हुए देखा है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। एक पात्र(बर्तन) है, बर्तन में पानी है और पानी में चावल है। अगर हम उसे अग्नि पर चढ़ाएंगे तो पहले अग्नि पात्र को गर्म करेगी फिर पानी गर्म होगा और फिर चावल गल जायेगा। क्योकि सभी एक दूसरे के संपर्क में है। आप समझे की इस देह का सम्बन्ध इन्द्रियों से है, इन्द्रियों का सम्बन्ध मन से है, और मन का सम्बन्ध बुद्धि और बुद्धि का सम्बन्ध आत्मा से है। एक दूसरे के संपर्क होने के कारण सुख दुःख का अनुभव आत्मा भी करती होगी ना?

राजा की इस बात को सुनकर संत भरत हँसे और बोले-“राजन! एक ओर तू तत्व को जानना चाहता है और दूसरी ओर इस व्यवहार जगत को सत्य मान बैठा है। जैसे तूने अपनी बात रखी है , इसी तरह से मैं भी अपनी बात रख देता हूँ। तूने कहा की एक बर्तन है, बर्तन में जल है, जल में चावल हैं, और जब हम अग्नि पर उसे चढ़ाते हैं तो पहले अग्नि उस पात्र को गर्म करती है, फिर पानी गर्म होता है और फिर चावल गल जाते हैं। लेकिन अगर उस पात्र में चावल की जगह एक पत्थर का टुकड़ा डाल दें तो क्या वह अग्नि उस पत्थर को जल सकती है? गला सकती है?

राजा ने कहा की-नही जल सकती है और ना ही गला सकती है।

भरत जी बोले इसी प्रकार आत्मा भी निर्लेप है, आत्मा को कोई सुख दुःख का अनुभव नही होता। ना ही इस पर जल का प्रभाव है और ना ही अग्नि का। ना अस्त्र का और ना ही शस्त्र का। इस आत्मा का वस्त्र ये देह है।

इस प्रकार जड़ भरत जी ने बड़ा ही सुंदर ज्ञान राजा रहूगण को दिया है। इसके बाद भरत जी ने भवाटवी का वर्णन किया है जिसका श्रीमद भगवत पुराण में सुंदर वर्णन है। अंत में भरत जी कहते हैं की अपने मन को संसार से हटाकर भगवान के चरणों में लगाओ। ये मन काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ, परिवार और विषयों आदि में फसाये रहता है। अब तुम प्रजा को दण्ड देने का काम छोड़कर समस्त प्राणियों के सुह्रद् हो जाओ और विषयों में अनासक्त होकर भगवत्सेवा से तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञान रूप खड्ग लेकर इस मार्ग को पार कर लो ।

राजा रहूगण ने कहा- : आपके चरणकमलों की रज का सेवन करने से जिनके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावों को भगवान् विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो घड़ी के सत्संग से ही सारा कुतर्क मूलक अज्ञान नष्ट हो गया है । इस तरह से जड़ भरत ने इन्हें ज्ञान दिया । और राजा रहूगण उस ज्ञान को पाकर इस प्रकार तृप्त हो गए जैसे कोई निर्धन धन पाकर तृप्त हो जाता है ।

मानस अमृत

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भक्ति का चमत्कार :———

ऋषि उपमन्यु बड़े प्रेम-व्रती थे| दिन-रात अपने प्रेम के प्रसून शिवजी के चरणों पर चढ़ाया करते थे| न खाने की सुधि, न विश्राम की चिंता| वृक्षों से गिरे हुए फल ही उनका भोजन था, धरती ही उनकी शैया थी और अंबर ही उनके लिए छाया के समान था|

एक बार उपमन्यु परिभ्रमण के लिए निकले| वे घूमते-घूमते समुद्र के तट पर गए| समुद्र में ऊंची-ऊंची लहरें उठ रहीं थीं, भैरव गर्जन हो रहा था| उपमन्यु को वे लहरें प्रकृति के कोमल हाथों के समान लगीं और वह भैरव गर्जन मधुर संगीत के समान लगा| उन्होंने सोचा – ‘यह स्थान बड़ा मनोरम है| बस, यहीं ताप करना चाहिए|’ यह सोचकर उपमन्यु समुद्र के तट पर बालू के कणों के ऊपर आसन बिछाकर बैठ गए और शिव के ध्यान में मग्न हो गए|

कई वर्षों तक उपमन्यु का तप चलता रहा| उनके अखंड तप को देखकर देवराज इंद्र आकुल हो उठे| उन्होंने सोच – ‘कहीं ऐसा न हो कि उपमन्यु अपने तप की शक्ति से स्वर्ग पर अपना अधिकार जमा लें|’ इंद्र के मन में ईर्ष्या जाग उठी| वे उपमन्यु के तप को डिगाने के लिए कुबेर को साथ लेकर चल पड़े| दोनों विचित्र वेष बनाकर समुद्र-तट से कुछ दूरी पर ही थे कि उन्हें दो और मनुष्य दिखाई पड़े, जो उन्हीं के समान वेश धारण किए हुए थे| वे मन ही मन सोचने लगे – ‘ये दोनों कौन हैं और कहां जा रहे हैं?’

तभी देवराज इंद्र के कानों में डमरू की ध्वनि सुनाई पड़ी| उन्होंने डमरू की ध्वनि को सुनकर सोचा – ‘अवश्य यह शिव की माया है| स्वयं शिव ही इन दोनों मनुष्यों के रूप में प्रकट हुए हैं| यह उपमन्यु की दृढ़ता की परीक्षा लेना चाहते हैं| छिपकर देखना चाहिए, यह क्या करते हैं?’

वे दोनों मनुष्य समुद्र तट पर उपमन्यु के निकट उपस्थित हुए| उन्होंने अपना विचित्र वेश बना लिया था| एक के मस्तक पर मोर पंखों का मुकुट था और दूसरे का मुख आधा मनुष्य और आधा सिंह के समान था| मोर-पंखों के मुकुटधारी मनुष्य ने उपमन्यु को अपना परिचय देते हुए कहा – “मैं देवराज इंद्र हूं और मेरे साथ जो हैं, वे कुबेर हैं| मैं आपके तप से प्रसन्न हूं| मैं आपको स्वर्ग का वैभव देने के लिए आया हूं|”

उपमन्यु ने कहा – “देवराज! मुझे शिव के प्रेम को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए| आपने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया, यही बहुत है|”

देवराज इंद्र ने उपमन्यु को डिगाने के उद्देश्य से पुन: कहा – “मुने! मैं देवराज इंद्र कुबेर के साथ आपको कुछ देने के लिए खड़ा हूं| आप राज्य, वैभव, महल-जो चाहें मांग लीजिए| मेरे लिए आपको कुछ भी अदेय नहीं है|”

उपमन्यु कुछ उत्तर दे पाते, उसके पूर्ण ही माया के इंद्र के कुबेर की ओर देखते हुए कहा – “कुबेर! महामुने के लिए इस रेती में स्वर्ण महल बना दीजिए| ऐसा महल जिसकी बराबरी का तीनों लोकों में कोई एनी महल न हो|”

यह कहकर माया के कुबेर ने अपना हाथ ऊपर उठाया| देखते ही देखते समुद्र के तट पर दिव्य स्वर्ण महल बनकर तैयार हो गया| ऐसा महल, जो सभी प्रकार के सुखों और वैभव से परिपूर्ण था| माया के इंद्र ने उपमन्यु की ओर देखते हुए कहा – “महामुने! यह स्वर्ण महल आपके लिए ही है| बालू के कणों से उठकर महल में निवास कीजिए, सभी प्रकार के सुखों का उपभोग कीजिए|”

उपमन्यु ने कहा – “देवराज! मैं आपकी कृपा से कृतज्ञ हूं, पर मुझे शिव जी के प्रेम को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए| मेरे लिए बालू के ये कण ही कोमल शैया के समान हैं| धरती ही मेरा बिस्तर है और आकाश का वितान ही मेरा घर है|”

यह सुनकर माया के इंद्र की भौंहें टेढ़ी हो गईं| उन्होंने क्रोध भरे स्वर में कहा – “महामुने! आप मेरा अपमान कर रहे हैं| मैं स्वर्ग का अधिपति हूं और आपके शिव हैं श्मशानवासी| मेरे पास स्वर्ग का वैभव है, जबकि आपके नंग-धड़ंग शिव के पास कुछ नहीं है| आप मेरे दिए हुए वैभव को स्वीकार करें, नहीं तो मैं वज्र से आपका मस्तक काटकर फेंक दूंगा|”

यह कहकर माया के केंद्र ने हाथ ऊपर उठाया और चमचमाता हुआ वज्र उनके हाथ में आ गया| पर उपमन्यु रंचमात्र भी विचलित और भयभीत नहीं हुए| दृढ़तापूर्वक बोले – “देवराज! मैं सब कुछ सुन सकता हूं, पर अपने आराध्यदेव शिव की निंदा नहीं सुन सकता| आपको अपने वज्र का अभिमान है, तो मुझे भी शिव जी के प्रेम का बल है| मैं अभी प्रेम की शक्ति से आपके वज्र को खंड-खंड किए देता हूं|”

यह कहकर उपमन्यु ने कमंडल का जल हाथ में लिया| वे शिव के ध्यान में डूबकर हाथ का जल वज्र पर फेंकना ही चाहते थे कि शिव जी अपने असली रूप में प्रकट हो गए| उन्होंने कहा – “बस कीजिए महामुने! बस कीजिए| मैं आपके प्रेम पर मुग्ध हूं| आपने अपने प्रेम से मुझे जीत लिया है| अब आप मेरे साथ मेरे गण के रूप में रहें|”

उपमन्यु प्रेम से गद्गद होकर शिव के चरणों में लोट गए| शिव ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगा लिया| देवराज इंद्र और कुबेर जो अभी तक छुपे हुए थे, प्रकट हो गए और सम्मिलित स्वरों में शिव का ‘जयनाद’ करने लगे |

ओली अमित

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गणपति कथा



एक बार गणेश जी एक लड़के का वेष धरकर नगर में घूमने निकले।
उन्होंने अपने साथ में चुटकी भर चावल और चुल्लू भर दूध ले लिया।
नगर में घूमते हुए जो मिलता , उसे खीर बनाने का आग्रह कर रहे थे।
बोलते – ” माई खीर बना दे ” लोग सुनकर हँसते।
बहुत समय तक घुमते रहे , मगर कोई भी खीर बनाने को तैयार नहीं हुआ।
किसी ने ये भी समझाया की इतने से सामान से खीर नहीं बन सकती
पर गणेश जी को तो खीर बनवानी ही थी।
अंत में एक गरीब बूढ़ी अम्मा ने उन्हें कहा
बेटा चल मेरे साथ में तुझे खीर बनाकर खिलाऊंगी।
गणेश जी उसके साथ चले गए।

बूढ़ी अम्मा ने उनसे चावल और दूध लेकर एक बर्तन में उबलने चढ़ा दिए।
दूध में ऐसा उफान आया कि बर्तन छोटा पड़ने लगा।
बूढ़ी अम्मा को बहुत आश्चर्य हुआ कुछ समझ नहीं आ रहा था।
अम्मा ने घर का सबसे बड़ा बर्तन रखा।
वो भी पूरा भर गया। खीर बढ़ती जा रही थी।
उसकी खुशबू भी चारों तरफ फैल रही थी।
खीर की मीठी मीठी खुशबू के कारण
अम्मा की बहु के मुँह में पानी आ गया
उसकी खीर खाने की तीव्र इच्छा होने लगी।
उसने एक कटोरी में खीर निकली और दरवाजे के पीछे बैठ कर बोली –
” ले गणेश तू भी खा , मै भी खाऊं “
और खीर खा ली।

बूढ़ी अम्मा ने बाहर बैठे गणेश जी को आवाज लगाई।
बेटा तेरी खीर तैयार है। आकर खा ले।
गणेशजी बोले अम्मा तेरी बहु ने भोग लगा दिया , मेरा पेट तो भर गया।
खीर तू गांव वालों को खिला दे।

बूढ़ी अम्मा ने गांव वालो को निमंत्रण देने गई। सब हंस रहे थे।
अम्मा के पास तो खुद के खाने के लिए तो कुछ है नहीं ।
पता नहीं , गांव को कैसे खिलाएगी।
पर फिर भी सब आये।

बूढ़ी अम्मा ने सबको पेट भर खीर खिलाई।
ऐसी स्वादिष्ट खीर उन्होंने आज तक नहीं खाई थी।
सभी ने तृप्त होकर खीर खाई लेकिन फिर भी खीर ख़त्म नहीं हुई।
भंडार भरा ही रहा।

हे गणेश जी महाराज , जैसे खीर का भगोना भरा रहा
वैसे ही हमारे घर का भंडार भी सदा भरे रखना।

बोलो गणेश जी महाराज की…… जय !!!
गणेश चतुर्थी की सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं

ओली अमित

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कसे महिलाओं और पुरुषों को अपने जीवन में कैसा व्यवहार करना चाहिए

स्त्री को घर में लक्ष्मी के रूप में जाना जाता है। इसलिए स्त्री को घर में लक्ष्मी की तरह व्यवहार करना चाहिए। प्रातः सूर्योदय से पूर्व जल्दी उठें। नहाने के बाद तुलसी का पानी डालें और पति का अभिवादन करें। यदि आप सुबह अपने पति की नींव रखती हैं, तो आपका दिन निश्चित रूप से बेहतर होगा और इसलिए आपके प्यार में भी वृद्धि होगी। पति का आपके प्रति अधिक सम्मान होगा। अपने घर आने वाले मेहमान को चाय-पानी दें। उन्हें बिना कुछ दिए उन्हें न भेजें। प्राचीनों को मंडली का अभिवादन करना चाहिए। हमेशा खुश रहो। आप कितनी भी पीड़ा में क्यों न हों, आपको केवल अपने पति को ही अपने भगवान को बताना चाहिए, लोगों को मत बताना। पत्नी का पालन करना चाहिए। यानी पति की मनोकामनाएं पूरी होनी चाहिए। घर में पैसे बर्बाद न करें, मितव्ययी जीवन जिएं। हमेशा मुस्कुराता हुआ चेहरा रखें। बोलते समय सोच-समझकर बोलें, बकबक न करें। पति जब घर आए तो उसे घर में वाद-विवाद नहीं बताना चाहिए। व्रत रखना चाहिए लेकिन ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए जिससे अंग खुले रहें। उम्र कोई भी हो, अच्छे आभूषण पहनें। साड़ी पहनें। जब तुम्हारे घर में मांस न हो तो दूसरों से मत पूछो। भीख मांगने की आदत बहुत बुरी है सास और ससुर का सम्मान करें उनका ख्याल रखें। अपने पति के खिलाफ गपशप मत करो, चाहे कुछ भी हो, आपका पति आपको अंत तक देखेगा। भगवान की भक्ति अपने पति के खिलाफ की जानी चाहिए। अगर पति शराबी है और कसम खाता है, तो आपको अपना ख्याल रखना चाहिए। उसे दिखाओ कि स्त्रीत्व क्या है। यानी उसका उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। इतना मीठा इलाज गुलाबी। अपने पति को इतना प्यार दो कि वह इधर-उधर न देखे। पति उसकी मीठी-मीठी बातों और सुंदर रूप से आकर्षित होता है। इसलिए हमेशा साफ-सफाई रखें। संसार में रहते हुए मुझे अहंकार और संशय के बुरे गुणों का त्याग करना चाहिए, काम से ऊबना नहीं, छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा नहीं करना चाहिए। पति को जवाब नहीं देना चाहिए। इसलिए प्यार से अपने पति को अपनी भावनाएं और दर्द बताएं। आपको दूसरे आदमी को भाई के रूप में देखना चाहिए और आपको उसकी बहन को भाई के रूप में देखना चाहिए। मेरा मतलब है, आप हमेशा बेदाग रहेंगे, तो आप असली घर में लक्ष्मी होंगी।
इस संसार में मनुष्य को कैसा व्यवहार करना चाहिए?
पुरुषों को नारायण राम कहा जाता है इसलिए प्रत्येक मनुष्य को राम के समान आचरण करना चाहिए। अपना गुस्सा लगातार अपने परिवार के सदस्यों पर न निकालें। माता-पिता की सेवा करनी चाहिए। अपनी पत्नी से बहुत प्यार करें, माता-पिता के बीच झगड़े में न पड़ें। पक्ष मत लो। दोनों को समान अधिकार और प्यार दिया जाना चाहिए। पत्नी का सम्मान करना चाहिए। उसे अपनी भावनाओं को बताने के लिए अभद्र भाषा की शपथ लेने से बचें। उससे प्यार से लगातार पूछताछ की जानी चाहिए। उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। बीमार मां, पिता और पत्नी हैं तो उन्हें डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए। परदेशी औरत को मत देखो, तुम्हारी बीवी भले ही कुरूप हो, लेकिन वह तुम्हारी प्यारी है। अपनी पत्नी को अपने दर्द के बारे में बताएं। उससे कुछ भी नहीं छिपाना चाहिए। उसका सम्मान किया जाना चाहिए। उसे भी अपना जीवन जीने दो। लेकिन अगर वह बहुत ज्यादा कर रहा है, तो कुछ पुरुषों को ही खाकी दिखानी चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह आपकी पत्नी पर भारी पड़ सकता है। इसलिए जब से उसकी शादी हुई है, उससे बहुत प्यार करो। सोचिए पत्नी शारीरिक सुख के लिए नहीं बल्कि आपके दिल के लिए होती है। अगर वह गलती करती है, तो उसे कहना चाहिए, लेकिन उसे इससे नाराज नहीं होना चाहिए। इसलिए उसे इस बारे में सोचना चाहिए और अपनी गलती को सुधारना चाहिए। संसार में थोड़ा सा समझौता करने से ही संसार सुखी होता है। नशे के बाद शराब का धूम्रपान नहीं करना चाहिए। तो उस पैसे से आप अपने पति-पत्नी के साथ घूमने जा सकती हैं। इससे आपका रिश्ता और मजबूत होगा। अंत में, दुनिया दोनों की है। एक पर बड़बड़ा रहा है और दूसरा चुप है, तो सोने की असली दुनिया होगी।
जय श्रीराम

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मित्रों कल षटतिला एकादशी है,आज हम आपको षटतिला एकादशी की व्रत कथा एवं पूजन के बारे में बतायेंगे!!!!!!!

एक समय दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा कि हे महाराज, पृथ्वी लोक में मनुष्य ब्रह्महत्यादि महान पाप करते हैं, पराए धन की चोरी तथा दूसरे की उन्नति देखकर ईर्ष्या करते हैं। साथ ही अनेक प्रकार के व्यसनों में फँसे रहते हैं, फिर भी उनको नर्क प्राप्त नहीं होता, इसका क्या कारण है?

वे न जाने कौन-सा दान-पुण्य करते हैं जिससे उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। यह सब कृपापूर्वक आप कहिए। पुलस्त्य मुनि कहने लगे कि हे महाभाग! आपने मुझसे अत्यंत गंभीर प्रश्न पूछा है। इससे संसार के जीवों का अत्यंत भला होगा। इस भेद को ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा इंद्र आदि भी नहीं जानते परंतु मैं आपको यह गुप्त तत्व अवश्य बताऊँगा।

उन्होंने कहा कि माघ मास लगते ही मनुष्य को स्नान आदि करके शुद्ध रहना चाहिए। इंद्रियों को वश में कर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या तथा द्वेष आदि का त्याग कर भगवान का स्मरण करना चाहिए। पुष्य नक्षत्र में गोबर, कपास, तिल मिलाकर उनके कंडे बनाना चाहिए। उन कंडों से 108 बार हवन करना चाहिए।

उस दिन मूल नक्षत्र हो और एकादशी तिथि हो तो अच्छे पुण्य देने वाले नियमों को ग्रहण करें। स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर सब देवताओं के देव श्री भगवान का पूजन करें और एकादशी व्रत धारण करें। रात्रि को जागरण करना चाहिए।

उसके दूसरे दिन धूप-दीप, नैवेद्य आदि से भगवान का पूजन करके खिचड़ी का भोग लगाएँ। तत्पश्चात पेठा, नारियल, सीताफल या सुपारी का अर्घ्य देकर स्तुति करनी चाहिए-

हे भगवान! आप दीनों को शरण देने वाले हैं, इस संसार सागर में फँसे हुअओं का उद्धार करने वाले हैं। हे पुंडरीकाक्ष! हे विश्वभावन! हे सुब्रह्मण्य! हे पूर्वज! हे जगत्पते! आप लक्ष्मीजी सहित इस तुच्छ अर्घ्य को ग्रहण करें।

इसके पश्चात जल से भरा कुंभ (घड़ा) ब्राह्मण को दान करें तथा ब्राह्मण को श्यामा गौ और तिल पात्र देना भी उत्तम है। तिल स्नान और भोजन दोनों ही श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार जो मनुष्य जितने तिलों का दान करता है, उतने ही हजार वर्ष स्वर्ग में वास करता है।

  1. तिल स्नान, 2. तिल का उबटन, 3. तिल का हवन, 4. तिल का तर्पण, 5 तिल का भोजन और 6. तिलों का ‍दान- ये तिल के 6 प्रकार हैं । इनके प्रयोग के कारण यह षटतिला एकादशी कहलाती है। इस व्रत के करने से अनेक प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। इतना कहकर पुलस्त्य ऋषि कहने लगे कि अब मैं तुमसे इस एकादशी की कथा कहता हूँ।

एक समय नारदजी ने भगवान श्रीविष्णु से यही प्रश्न किया था और भगवान ने जो षटतिला एकादशी का माहात्म्य नारदजी से कहा- सो मैं तुमसे कहता हूँ। भगवान ने नारदजी से कहा कि हे नारद! मैं तुमसे सत्य घटना कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।

प्राचीनकाल में मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी। वह सदैव व्रत किया करती थी। एक समय वह एक मास तक व्रत करती रही। इससे उसका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया। यद्यपि वह अत्यंत बुद्धिमान थी तथापि उसने कभी देवताअओं या ब्राह्मणों के निमित्त अन्न या धन का दान नहीं किया था। इससे मैंने सोचा कि ब्राह्मणी ने व्रत आदि से अपना शरीर शुद्ध कर लिया है, अब इसे विष्णुलोक तो मिल ही जाएगा परंतु इसने कभी अन्न का दान नहीं किया, इससे इसकी तृप्ति होना कठिन है।

भगवान ने आगे कहा- ऐसा सोचकर मैं भिखारी के वेश में मृत्युलोक में उस ब्राह्मणी के पास गया और उससे भिक्षा माँगी। वह ब्राह्मणी बोली- महाराज किसलिए आए हो? मैंने कहा- मुझे भिक्षा चाहिए। इस पर उसने एक मिट्टी का ढेला मेरे भिक्षापात्र में डाल दिया। मैं उसे लेकर स्वर्ग में लौट आया। कुछ समय बाद ब्राह्मणी भी शरीर त्याग कर स्वर्ग में आ गई। उस ब्राह्मणी को मिट्टी का दान करने से स्वर्ग में सुंदर महल मिला, परंतु उसने अपने घर को अन्नादि सब सामग्रियों से शून्य पाया।

घबराकर वह मेरे पास आई और कहने लगी कि भगवन् मैंने अनेक व्रत आदि से आपकी पूजा की परंतु फिर भी मेरा घर अन्नादि सब वस्तुओं से शून्य है। इसका क्या कारण है? इस पर मैंने कहा- पहले तुम अपने घर जाओ। देवस्त्रियाँ आएँगी तुम्हें देखने के लिए। पहले उनसे षटतिला एकादशी का पुण्य और विधि सुन लो, तब द्वार खोलना। मेरे ऐसे वचन सुनकर वह अपने घर गई। जब देवस्त्रियाँ आईं और द्वार खोलने को कहा तो ब्राह्मणी बोली- आप मुझे देखने आई हैं तो षटतिला एकादशी का माहात्म्य मुझसे कहो।

उनमें से एक देवस्त्री कहने लगी कि मैं कहती हूँ। जब ब्राह्मणी ने षटतिला एकादशी का माहात्म्य सुना तब द्वार खोल दिया। देवांगनाओं ने उसको देखा कि न तो वह गांधर्वी है और न आसुरी है वरन पहले जैसी मानुषी है। उस ब्राह्मणी ने उनके कथनानुसार षटतिला एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से वह सुंदर और रूपवती हो गई तथा उसका घर अन्नादि समस्त सामग्रियों से युक्त हो गया।

अत: मनुष्यों को मूर्खता त्यागकर षटतिला एकादशी का व्रत और लोभ न करके तिलादि का दान करना चाहिए। इससे दुर्भाग्य, दरिद्रता तथा अनेक प्रकार के कष्ट दूर होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है।

पूजा विधि!!!!!!

तिल स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का तर्पण, तिल का भोजन और तिलों का दान- ये तिल के 6 प्रकार हैं। इनके प्रयोग के कारण यह षट्तिला एकादशी कहलाती है। इस व्रत के करने से अनेक प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं।_

षट्तिला एकादशी पर क्या करना ? तिलवा को भोग में धरे या नहीं ? फिर वो प्रसादी हम ले सकते हैं की नहीं ?*

_यह एकादशी पर विशेष करके तिलवा भोग आते हैं इसी लिए यह एकादशी को षट्तिला एकादशी कहते हैं । पूरे साल में षट्तिला एकादशी पर ही तिल भोग में धर सकते हैं । दूसरी कोई भी एकादशी में तिल नहीं ले सकते हैं । दूसरी एकादशी पर तिल का उपयोग करे तो व्रत भंग हो जाता हैं । तिल अन्न में गिना जाता हैं ।

केवल षट्तिला एकादशी को ही तिल का उपयोग होता है ।षट्तिला एकादशी ही एक ऐसी एकादशी है कि श्री ठाकुरजी को तिल की सामग्री तिलवा भोग धर सकते हो । पूरे वर्ष में यह षट्तिला एकादशी में ही हम प्रसादी तिलवा ले सकते हैं । दूसरी कोई भी एकादशी में तिल की सामग्री का उपयोग नही होता है।

मूल रूप से अगर समझा जाये तो एकादशी दिवस है ही हमारे इष्ट देव की प्रसन्नता के लिए।

उनकी प्रसन्नता नियम से एकादशी पालन करने से सहज ही प्राप्त हो जाती है। क्या खाना चाहिए या क्या नहीं, इस पर ध्यान केंद्रीत न होकर इस बात पर होना चाहिए कि हम अधिक से अधिक भक्ति संबंधित कार्य करें। नियम से अधिक स्वाध्याय, ठाकुर सेवा, कथा श्रवण। बढ़िया- कलिकाल में नाम जाप या नाम संकीर्तन अधिक से अधिक हो।

*एकादशीव्रत अवश्य और अवश्य रखना चाहिए!

मानस अमृत

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राजा परीक्षित ने यहां प्रश्न कर दिया- शुकदेवजी से पूछते हैं गुरुदेव! मेरी समझ में नहीं आया, सज्जनों! बहुत बहुत ध्यान से पढ़े, परीक्षित कहते हैं- श्रीकृष्ण ने परायी स्त्रियों के साथ रास किया, परायी स्त्रियों के गले में गलबहियाँ डालकर कृष्ण नाचे, ये कहां का धर्म है? मेरी समझ में नहीं आया?

परीक्षित के समय में कलयुग आ गया था, परीक्षित कहते हैं- कलयुग आगे आ रहा है, शुकदेवजी बोले- अब तो घोर कलियुग आने वाला है और कलयुग के लोगों को तो जरा सी बात चाहिये, फिर देखों, शास्त्रार्थ पर उतर आते हैं- ऐसा क्यों लिखा? ऐसा क्यों किया? मनुस्मृति में लिखा है कि धर्म का तत्व गुफा में छुपा हुआ है, इसलिये बड़े जिस रास्ते से जायें, छोटों को उसी रास्ते से जाना चाहिये।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखराशी।।

हम लोग ईश्वर के अंश हैं, जीव ईश्वर का दश है तो कलयुग के लोगों को लीक प्वाइंट मिल गया, ऐसे ही जो ईश्वर कोटि के पुरूष होते हैं, यदि धर्म के विपरीत भी वो कोई काम करे, उन्हें कोई दोष नहीं लगता, क्योंकि वे ईश्वर है, कर्तु, अकर्तु अन्यथा “कर्तु समर्थ ईश्वरः” ईश्वर वो है जो नहीं करने पर भी सब कुछ करे और करने के बाद भी कुछ नहीं करे।

नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्रानीश्वरः।
विनश्यत्याचरन् मौढयाधथा रूद्रोऽब्धिजं विषम्।।

दूसरी बात- तुमने कहां, जो ईश्वर ने किया वो हम करेंगे, मैं इसका विरोध करता हूँ, शुकदेवजी कहते हैं- जो ईश्वर होता है उनका अनुकरण हमें कभी नहीं करना चाहिये, तुम ये बताओ शंकरजी कौन है? परीक्षित ने कहा शंकरजी ईश्वर है, तुम कहते हो- ईश्वर ने जो किया वो हम करेंगे तो समुद्र में से जितना जहर निकला था, पूरे जहर को शंकरजी पी गये।

शंकरजी ईश्वर है इसलिये दस-बीस हजार टन जहर पी गये, तुम उनके अंश हो तो तुम तौले-दो तौले ही पीकर देखो, शिवजी ने विष पी लिया, उन्हें बुखार भी नहीं आया और हम एक बूंद भी विषपान करेंगे तो डेढ़ मिनट में ही हमारा राम नाम सत् हो जायेगा, जो कार्य ईश्वर ने किया वो हम कैसे कर सकते हैं।

ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत्।।

ईश्वर के वचन को मानो, ईश्वर के वचन सत्य है, देखो सज्जनों! रामजी और कृष्णजी के चरित्र में अन्तर क्या है? जो रामजी ने किया है वो हम कर सकते हैं और कृष्णजी ने जो कहा वो हम कर सकते हैं, रामजी के किये हुए को करो और कृष्णजी के कहे हुए को करो।

कृष्णजी के किये हुए को हम नहीं कर सकते, क्योंकि राम का जो चरित्र है वो विशुद्ध मानव का चरित्र है और कृष्णजी का जो चरित्र है वो विशुद्ध ईश्वरी योगेश्वर का चरित्र है, दोनों ही भगवान् हैं, लेकिन रामजी के चरित्र में मानवता का प्रदर्शन ज्यादा है और कृष्णजी के चरित्र योगेश्वरता का प्रदर्शन है।

प्रातः काल उठ के रघुनाथा।
मात-पिता गुरु नावहिं माथा।।

रघुवर प्रातः उठकर माता-पिता गुरुजनों को प्रणाम करते हैं, ये तो काम हम कर सकते हैं कि नहीं? हम भी कर सकते हैं और सब को करना ही चाहिये, लेकिन सात दिन के कृष्ण ने पूतना को मार दिया, ये तो हम नहीं कर सकते, छः महीना के कृष्ण ने शकटासुर मार दिया, ये तो हम नहीं कर सकते, पूरे ब्रजमंडल में आग लग गयी और ब्रजवासीयों के देखते-देखते कृष्ण ने उस दावाग्नि का पान कर लिया, ये हम कर सकते हैं क्या?

कृष्ण ने लाखों गोपियों के साथ रास किया, उसे हम नहीं कर सकते, शुकदेवजी कहते हैं- यह कोई स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं था, जीव और ईश्वर का मिलन था, यह रासलीला छः महीनों तक चली थी, क्या छः-छः महीनों तक ब्रज गोपियाँ अपने घर से बाहर रह सकती थी, इसी बात से सिद्ध होता है कि यह तो जीव का प्रभु से मिलन था।

हम कहते हैं कि हम ईश्वर के अंश हैं, इस पर भी मैं यह कहना चाहता हूं, हम जानते हैं अंश का अर्थ होता है थोड़ा यानी छोटा जैसे हम लोग गंगाजी में नहाते हैं, गंगा स्नान करते वक्त हमारे मुंह से निकलता है हर-हर गंगे, हर-हर गंगे, यह जानते हुए भी कि भारत के जितने भी महानगर है, उन ज्यादातर महानगरों की सारी गंदगी गंगाजी में ही जाती है।

चाहे वो रूद्रप्रयाग हो या उत्तरकाशी हो, हरिद्वार हो या देवप्रयाग, ऋषिकेश हो या प्रयाग, सारा गंदा पानी गंगाजी में जाता है फिर भी हम गंगा स्नान करते हैं और बोलते हैं हर-हर गंगे•• क्यों? क्योंकि हम जानते हैं, इन सारे नगरों की गंदगी मिलकर भी गंगा को गंदा नहीं कर सकती, गंगा विशाल है, गंगा महान् है।

लेकिन आपने कहा- मोतीभाई गंगा स्नान करने चलिये, हमने गंगा स्नान करते-करते सोचा कि शालिग्रामजी की सेवा के लिए गंगाजल ले चलूं, सो मैंने एक चांदी की कटोरी में अढ़ाई सौ ग्राम गंगाजल भी लिया, स्नान करके लौटे तो धर्मशाला के कमरे का ताला खोलने के लिये मैंने गंगाजल की कटोरी नीचे रख दी, पीछे से गंदे मुँह वाला सूअर उस गंगाजल की कटोरी में मुंह लगाकर आधा गंगाजल तो पी गया।

मैंने देखा तो मन खिन्न हो गया, तो सज्जनों! अब बताओ कि क्या उस बचे हुए गंगाजल से मैं अपने शालिग्रामजी भगवान् को स्नान कराऊँ या नहीं? नहीं कराऊँगा, क्योंकि सूअर का मुंह लग जाने से वो गंगाजल गंदा हो गया, और बहती हुई गंगा में तो पूरा सूअर ही डूब जाये तो कोई असर नहीं होता, इसी कटोरी से मुंह लगाया तो असर क्यों हुआ? क्योंकि बहती हुई गंगा विशाल है और कटोरी का गंगाजल अंश है, तो जो ताकत उस विशाल गंगा में है वो अंश में नहीं रही।

इसलिये ईश्वर जो विशाल है और हम ईश्वर के अंश हैं, अंश होने के नाते जो कार्य ईश्वर करता है वो हम कैसे कर सकते हैं? इसलिये ईश्वर के चरित्र को प्रणाम करो, ईश्वर के चरित्र का वंदन करो, दूसरी बात- कुछ नास्तिक लोगों को ये कामी पुरुष की सी लीला लगती है, नहीं-नहीं कृष्ण ने जो गोपियों के साथ जो रास किया ये काम लीला नहीं- “का विजय प्रख्यापनार्थ सेयं रासलीला” काम को जीतने के लिये प्रभु ने रासलीला की।

कोई कहता है हम हलवा नहीं खाते, अरे, खाओगे कहाँ से तुम्हें मिलता ही नहीं है, नहीं खाना तो वो है जो मिलने पर भी इच्छा नहीं रहे, कहते हो कि हम तो ब्रह्मचारी है, जब शादी किसी ने करवाई नहीं, अपनी बेटी किसी ने दी ही नहीं, सगाई वाला कोई आया ही नहीं तो ब्रह्मचारी तो अपने आप हो गये।

नैष्ठिक ब्रह्मचारी सिवाय कृष्ण के किसी और के चरित्र में नहीं है, कृष्ण ने कामदेव से कहा- कोपीन पहन कर जंगल में समाधि लगाकर तो काम को सभी जीतते है, लेकिन असंख्य सुंदरी नारियों के गले में हाथ डालकर रासविहार करके भी मैं तुम पर विजय प्राप्त करूँगा, ये तो काम को जीतने की है रासलीला, इसलिये तो प्रभु ने काम को उल्टा लटका दिया आकाश में।

गोपियाँ कृष्ण के संग रास कर रही थी, वे तो वेद के मंत्र थे साक्षात्, जीव है गोपी और ईश्वर है स्वयं श्रीकृष्ण, तो जीव और ईश्वर का जो विशुद्ध मिलन है उसी को हम रास कहते हैं, ये काम लीला नहीं, काम को जीतने वाली लीला है, काम के मन में अभिमान था कि मैंने सबको जीत लिया, ब्रह्मा को जीत लिया, वरूण को जीत लिया, कुबेर को जीत लिया, यम को जीत लिया, वो योगेश्वर कृष्ण को जीतना चाहता था।

प्रभु ने असंख्य सुंदरी गोपियों के बीच रहकर भी काम को जीता, मन और इन्द्रियों पर जिसका नियंत्रण है उसे कोई विचलित नहीं कर सकता, इस रास लीला के प्रसंग को सुनने का मतलब क्या है? रास के मंगलमय् प्रसंग को जो व्यक्ति सुनते है, पढ़ते है और पढ़कर और चिन्तन के द्वारा इस काम विजय को जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं उन व्यक्तियों के ह्रदय में भक्ति प्रगट हो जाती है, और अंत में गोविन्द के चरणों में प्रीति हो जाती है, और ह्रदय का सबसे बड़ा रोग जो काम है वो काम हमेशा के लिये निकल जाता है।

बताओं, जिस रासलीला को सुनने से या पढ़ने से मन का काम निकल जाये, वो स्वयं कामलीला कैसे हो सकती है? परीक्षित के मन का संदेह दूर हो गया, गोविन्द ब्रजवासीयों के वश में है, इनका प्रेम इतना अगाध सागर है कि ब्रजवासीयों के प्रेम के सागर में ब्रह्मा भी गोता लगाये तो थाह नहीं पा सकते, विधाता में सामर्थ्य नहीं है थाह पाने की, एक अलौकिक बात- यहाॅ गोविन्द से मिलना भी है, गोविन्द से मिलन की आकांक्षा भी है तो गोविन्द के प्रति आशीर्वाद का भाव भी है।

जय श्री कृष्ण!
जय हो रासबिहारी की!

मानस अमृत

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

लवंगी


प्रेम किया है पण्डित जी, संग कैसे छोड़ दूँगी ?


“पण्डितराज”
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सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था, दूर दक्षिण में गोदावरी तट के एक छोटे राज्य की राज्यसभा में एक विद्वान ब्राह्मण सम्मान पाता था, नाम था जगन्नाथ शास्त्री। साहित्य के प्रकांड विद्वान, दर्शन के अद्भुत ज्ञाता। इस छोटे से राज्य के महाराज चन्द्रदेव के लिए जगन्नाथ शास्त्री सबसे बड़े गर्व थे। कारण यह कि जगन्नाथ शास्त्री कभी किसी से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होते थे। दूर दूर के विद्वान आये और पराजित हो कर जगन्नाथ शास्त्री की विद्वता का ध्वज लिए चले गए।
पण्डित जगन्नाथ शास्त्री की चर्चा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में होने लगी थी। उस समय दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहाँ का शासन था। शाहजहाँ मुगल था, सो भारत की प्रत्येक सुन्दर वस्तु पर अपना अधिकार समझना उसे जन्म से सिखाया गया था। पण्डित जगन्नाथ की चर्चा जब शाहजहाँ के कानों तक पहुँची तो जैसे उसके घमण्ड को चोट लगी। “मुगलों के युग में एक तुच्छ ब्राह्मण अपराजेय हो, यह कैसे सम्भव है?”, शाह ने अपने दरबार के सबसे बड़े मौलवियों को बुलवाया और जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को शास्त्रार्थ में पराजित करने के आदेश के साथ महाराज चन्द्रदेव के राज्य में भेजा। जगन्नाथ को पराजित कर उसकी शिखा काट कर मेरे कदमों में डालो….” शाहजहाँ का यह आदेश उन चालीस मौलवियों के कानों में स्थायी रूप से बस गया था।
सप्ताह भर पश्चात मौलवियों का दल महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में पण्डित जगन्नाथ को शास्त्रार्थ की चुनौती दे रहा था। गोदावरी तट का ब्राह्मण और अरबी मौलवियों के साथ शास्त्रार्थ, पण्डित जगन्नाथ नें मुस्कुरा कर सहमति दे दी। मौलवी दल ने अब अपनी शर्त रखी, “पराजित होने पर शिखा देनी होगी…”। पण्डित की मुस्कराहट और बढ़ गयी, “स्वीकार है, पर अब मेरी भी शर्त है। आप सब पराजित हुए तो मैं आपकी दाढ़ी उतरवा लूंगा।”
मुगल दरबार में “जहाँ पेड़ न खूंट वहाँ रेड़ परधान” की भांति विद्वान कहलाने वाले मौलवी विजय निश्चित समझ रहे थे, सो उन्हें इस शर्त पर कोई आपत्ति नहीं हुई।
शास्त्रार्थ क्या था; खेल था। अरबों के पास इतनी आध्यात्मिक पूँजी कहाँ जो वे भारत के समक्ष खड़े भी हो सकें। पण्डित जगन्नाथ विजयी हुए, मौलवी दल अपनी दाढ़ी दे कर दिल्ली वापस चला गया…
दो माह बाद महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में दिल्ली दरबार का प्रतिनिधिमंडल याचक बन कर खड़ा था, “महाराज से निवेदन है कि हम उनकी राज्य सभा के सबसे अनमोल रत्न पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को दिल्ली की राजसभा में सम्मानित करना चाहते हैं, यदि वे दिल्ली पर यह कृपा करते हैं तो हम सदैव आभारी रहेंगे”।
मुगल सल्तनत ने प्रथम बार किसी से याचना की थी। महाराज चन्द्रदेव अस्वीकार न कर सके। पण्डित जगन्नाथ शास्त्री दिल्ली के हुए, शाहजहाँ नें उन्हें नया नाम दिया “पण्डितराज”।
दिल्ली में शाहजहाँ उनकी अद्भुत काव्यकला का दीवाना था, तो युवराज दारा शिकोह उनके दर्शन ज्ञान का भक्त। दारा शिकोह के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पण्डितराज का ही रहा, और यही कारण था कि मुगल वंश का होने के बाद भी दारा मनुष्य बन गया।
मुगल दरबार में अब पण्डितराज के अलंकृत संस्कृत छंद गूंजने लगे थे। उनकी काव्यशक्ति विरोधियों के मुह से भी वाह-वाह की ध्वनि निकलवा लेती। यूँ ही एक दिन पण्डितराज के एक छंद से प्रभावित हो कर शाहजहाँ ने कहा- अहा! आज तो कुछ मांग ही लीजिये पंडितजी, आज आपको कुछ भी दे सकता हूँ।
पण्डितराज ने आँख उठा कर देखा, दरबार के कोने में एक हाथ माथे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी एक अद्भुत सुंदरी पण्डितराज को एकटक निहार रही थी। अद्भुत सौंदर्य, जैसे कालिदास की समस्त उपमाएं स्त्री रूप में खड़ी हो गयी हों। पण्डितराज ने एक क्षण को उस रूपसी की आँखों मे देखा, मस्तक पर त्रिपुंड लगाए शिव की तरह विशाल काया वाला पण्डितराज उसकी आँख की पुतलियों में झलक रहा था। पण्डित ने मौन के स्वरों से ही पूछा- चलोगी?
लवंगी की पुतलियों ने उत्तर दिया- अविश्वास न करो पण्डित! प्रेम किया है….
पण्डितराज जानते थे यह एक नर्तकी के गर्भ से जन्मी शाहजहाँ की पुत्री ‘लवंगी’ थी। एक क्षण को पण्डित ने कुछ सोचा, फिर ठसक के साथ मुस्कुरा कर कहा-
न याचे गजालिं न वा वाजिराजिं,
न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदाचित्।
इयं सुस्तनी मस्त कन्यस्तकुम्भा,
लवङ्गी कुरङ्गी मदङ्गी करोति ॥
शाहजहाँ मुस्कुरा उठा! कहा- लवंगी तुम्हारी हुई पण्डितराज। यह भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है जब किसी मुगल ने किसी हिन्दू को बेटी दी थी। लवंगी अब पण्डित राज की पत्नी थी।
युग बीत रहा था। पण्डितराज दारा शिकोह के गुरु और परम मित्र के रूप में ख्यात थे। समय की अपनी गति है। शाहजहाँ के पराभव, औरंगजेब के उदय और दारा शिकोह की निर्मम हत्या के पश्चात पण्डितराज के लिए दिल्ली में कोई स्थान नहीं रहा। पण्डित राज दिल्ली से बनारस आ गए, साथ थी उनकी प्रेयसी लवंगी।
*/*
बनारस तो बनारस है, वह अपने ही ताव के साथ जीता है। बनारस किसी को इतनी सहजता से स्वीकार नहीं करता। और यही कारण है कि बनारस आज भी बनारस है, नहीं तो अरब की तलवार जहाँ भी पहुँची वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को खा गई। यूनान, मिश्र, फारस, इन्हें सौ वर्ष भी नहीं लगे समाप्त होने में, बनारस हजार वर्षों तक प्रहार सहने के बाद भी “ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा….” गा रहा है। बनारस ने एक स्वर से पण्डितराज को अस्वीकार कर दिया। कहा- “लवंगी आपके विद्वता को खा चुकी, आप सम्मान के योग्य नहीं।”
तब बनारस के विद्वानों में पण्डित अप्पय दीक्षित और पण्डित भट्टोजि दीक्षित का नाम सबसे प्रमुख था, पण्डितराज का विद्वत समाज से बहिष्कार इन्होंने ही कराया।
पर पण्डितराज भी पण्डितराज थे, और लवंगी उनकी प्रेयसी। जब कोई कवि प्रेम करता है तो कमाल करता है। पण्डितराज ने कहा- लवंगी के साथ रह कर ही बनारस की मेधा को अपनी सामर्थ्य दिखाऊंगा।
पण्डितराज ने अपनी विद्वता दिखाई भी, पंडित भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित काव्य “प्रौढ़ मनोरमा” का खंडन करते हुए उन्होंने “प्रौढ़ मनोरमा कुचमर्दनम” नामक ग्रन्थ लिखा। बनारस में धूम मच गई, पर पण्डितराज को बनारस ने स्वीकार नहीं किया।
पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई, पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित “चित्रमीमांसा” का खंडन करते हुए “चित्रमीमांसाखंडन” नामक ग्रन्थ रच डाला।
बनारस अब भी नहीं पिघला, बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को।
पण्डितराज दुखी थे, बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था।
असाढ़ की सन्ध्या थी। गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा- गोदावरी चलोगी लवंगी? वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।
लवंगी ने कुछ सोच कर कहा- गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं? स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडीजी।
पण्डितराज ने थके स्वर में कहा- “अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया…”
लवंगी मुस्कुरा उठी, “जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं। गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।”
पण्डितराज की आँखें चमक उठीं। उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था- “प्रेम किया है पण्डित! संग कैसे छोड़ दूंगी?”
पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-“आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया, तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा……”
पल भर को हिल गया बनारस, पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था। जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।
अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था।
पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और #गंगालहरी का पाठ प्रारम्भ किया। लवंगी उनके निकट बैठी थी।
गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थीं। पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आतीं। बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी।
गंगालहरी के इक्यावन श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थीं। पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में, अबकी लवंगी बोल पड़ी- “क्यों अविश्वास करते हो पण्डित? प्रेम किया है तुमसे…”
पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा। गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ीं और पण्डितराज-लवंगी को गोद में लिए उतर गईं।
बनारस स्तब्ध खड़ा था, पर गंगा ने पण्डितराज को स्वीकार कर लिया था।
तट पर खड़े पण्डित अप्पय जी दीक्षित ने मुंह में ही बुदबुदा कर कहा- “क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता, पर धर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था। बनारस झुकने लगे तो सनातन नहीं बचेगा।”
युगों बीत गए। बनारस है, सनातन है, गंगा है, तो उसकी लहरों में पण्डितराज भी हैं।
साभार

अरुण सुक्ला