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25 दिसम्बर


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पूस का 13वां दिन…. नवाब वजीर खां ने फिर पूछा….
बोलो इस्लाम कबूल करते हो ?

6 साल के छोटे साहिबजादे फ़तेह सिंह ने नवाब से पूछा….
अगर मुसलमाँ हो गए तो फिर कभी नहीं मरेंगे न ?

वजीर खां अवाक रह गया….उसके मुँह से जवाब न फूटा

तो साहिबजादे ने जवाब दिया कि जब मुसलमाँ हो के भी मरना ही है , तो अपने धर्म में ही अपने धर्म की खातिर क्यों न मरें ?

दोनों साहिबजादों को ज़िंदा दीवार में चिनवाने का आदेश हुआ…🗡

दीवार चिनी जाने लगी ।
जब दीवार 6 वर्षीय फ़तेह सिंह की गर्दन तक आ गयी तो 8 वर्षीय जोरावर सिंह रोने लगा…..
फ़तेह ने पूछा, जोरावर रोता क्यों है ?

जोरावर बोला, रो इसलिए रहा हूँ कि आया मैं पहले था पर कौम के लिए शहीद तू पहले हो रहा है……

उसी रात माता गूजरी ने भी ठन्डे बुर्ज में प्राण त्याग दिए ।

गुरु साहब का पूरा परिवार 6 पूस से 13 पूस… इस एक सप्ताह में कौम के लिए धर्म के लिए राष्ट्र के लिए शहीद हो गया ।

दोनों बड़े साहिबजादों, अजीत सिंह और जुझार सिंह जी का शहीदी दिवस !

और स्पष्ट कर दूँ…-

21 दिसम्बर से 27 दिसम्बर तक इन्हीं 7 दिनों में गुरु गोविंद सिंह जी का पूरा परिवार शहीद हो गया था।

पहले यहाँ पंजाब में इस हफ्ते सब लोग ज़मीन पर सोते थे क्योंकि माता गूजरी ने 25 दिसम्बर की वो रात दोनों छोटे साहिबजादों के साथ नवाब वजीर ख़ाँ की गिरफ्त में सरहिन्द के किले में ठंडी बुर्ज़ में गुजारी थी और 26 दिसम्बर को दोनो बच्चे शहीद हो गये थे । 27 तारीख को माता ने भी अपने प्राण त्याग दिए थे।

यह सप्ताह भारत के इतिहास में ‘शोक सप्ताह’ होता है, शौर्य का सप्ताह होता है ।

लेकिन, अंग्रेजों की देखा-देखी पगलाए हुए हम भारतीयों ने
गुरु गोविंद सिंह जी की कुर्बानियों को सिर्फ 300 साल में भुला दिया ।

ये बड़े शर्म की बात है कि हमने अपने गौरवशाली इतिहास को भुला दिया, और यही मूल कारण है कि हम ग़ुलाम बने।

कितनी जल्दी भुला दिया हमने इस शहादत को?

आइए, उन सभी ज्ञात-अज्ञात महावीर-बलिदानियों को याद करें। 21 दिसंबर से 27 दिसंबर तक हम सभी महान गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज और उनके परिवार के असीम शौर्य और शहादत के प्रति कृतज्ञता दिखाए ।
🙏🙏🙏
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साभार :: मंजीत बग्गा

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बगल वाले से पूंछो


“बगल वाले से पूंछो “-ब्यंग

इस मुहल्ले में रहते हमें पचासों साल हो गये लेकिन अभी भी कोई मिलने आता है तो हमारा घर खोजने में उसे बड़ी दिक्कतें होती है। आज हमारे एक मित्र शर्माजी हमसे मिलने आऐ। मुहल्ला तो सही पकड़े लेकिन जब किसी से हमारे बारे में पूंछते तो वह कहता “बगल वाले से पूंछो “।इस प्रकार पूंछते पूंछते शर्माजी हमारे घर ही पहुंच गये और जब मैं मिला तो एकदम अचंभित हो हंसने लगे। हंसते हुऐ मुलाकात हो तो अच्छा ही है लेकिन शर्माजी की हंसी ऐसी जैसे इस हंसी में आगे डाट डाट…… है। हमने हाल चाल पूंछने की कोशिश की तो हंसते हुऐ मसखरी किऐ कि यार तू है बड़ा मनहूस। तुझे तेरे अगल बगल वाले ही नहीं जानते। जिससे पूंछो कहता है बगल वाले से पूंछो। कुशल ऐ हो गया कि तू ने ऐसा नहीं बोला। यह सुनकर मैं भी हंस दिया। शर्मा जी ने कहा, यार ऐसे ऐसे आदमी पड़े हैं जो अंगूठा छाप होते हुऐ भी “दि डान “और “गार्जियन” जैसे अखबारों के हेड लाइन बने हैं और एक तू है जिसे अगल बगल वाले ही नहीं जानते। कल की खबर जरूर सुना होगा। कानपुर का इत्र और गुटका ब्यापारी के यहां इनकम टैक्स रेड में 177 करोड़ रू दो आलमारियों में खचाखच भरे मिले हैं। उसका नाम पूरी दुनिया जान गयी। पीयूष जैन। दो दिन तक बैंक से नोट गिनने की मशीनें और एसबिआई अफसर लगातार नोट गिनने में लगे रहे। मशीनें गरम हो जाया करती पर नोटों के बंडल खतम ही नहीं हो रहे थे। पूरे 177 करोड़।

हमने शर्माजी से कहा भाई हमारे यहां भी इनकम टैक्स वालों की रेड का बन्दोबस्त करो न। कुछ न सही तो सांध्य समाचार एक पन्ने वाले में तो मेरा नाम आ जाऐगा। उन्होंने कहा यार तेरे पास है ही क्या। सन् 77 की एक संदूकची, एकाध दो सेट पैंट शर्ट, दो चार पुरानी खटिया और कुछ किताबें। इनकम टैक्स वालों को ऐ सब नहीं चाहिऐ। उनको तो नोटों के बंडल, 10 -20 किलो सोना, हीरे, जवाहरात। हमने कहा कि शर्माजी ऐ सब बस्तुऐं तो सभी नेताओं और ब्यापारियों के घरों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। प्लाट, मकान, होटल, कालेज, डिग्री कालेज, बिश्वबिद्यालय, झाड़ फनूस, बैंक लाकरों में जमा धन, टामी, बामी, साढ़ू, नौकर सबके नाम जमीने और मकान आम बात है। इन सभी के यहां रेड पड़नी चाहिऐ न। शर्माजी ने कहा कि कुर्सी पर बैठे लोगों के यहां नहीं बल्कि कुर्सी से पदच्युत हुऐ लोगों के यहां रेड पड़ती है। उसके अलावा कारपोरेट घराने जिनका संबंध बिपक्षी पार्टियों से हो उनके यहां रेड पड़ती है। पता चला है कि पीयूष जैन का मिलना जुलना समाजबादियों के साथ था और ऐ पूरा का पूरा धन आगामी इलेक्शन में शायद काम आता, ऐसे जानकार लोग बोल रहे हैं। आगे कहा कि इसे अपने तक सीमित रखना भाई, ऐसा न हो कि यह भी खबर बन जाऐ। हमने कहा छोड़ यार शर्मा चल चाय पीते हैं। दोनों ने बड़े प्रेम से चाय पिया और जाते हुऐ शर्माजी से कहा कि यार मेरा मुहल्ला और मकान याद रखना कहीं फिर न लोग तुझे गुमराह करते फिरें कि “बगल वाले से पूंछो ‘।जय रामजी की। भवदीय। from the wall of my fb friend Shri Dayashankar Tripathi

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रामायण – मनका 108


इस पाठ की एक माला प्रतिदिन करने से मनोकामना पूर्ण होती है, ऎसा माना गया है.

रामायण मनका 108 हिंदी में आपके सामने प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। प्रभु श्रीराम के चरित्र का श्रवण हर मनोकामना को पूरा करता है। कहते हैं कि राम चरित शत कोटि श्लोकों में गाया गया है। उसका एक-एक अक्षर बड़े-से-बड़े पाप का नाश करने वाला है। रामायण मनका 108 (Ramayan Manka 108) में संपूर्ण रामायण समाहित है। कहते हैं कि इस पाठ की हर एक माला रोज़ाना करने से मन की सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं।

रघुपति राघव राजाराम ।
पतितपावन सीताराम ।।
जय रघुनन्दन जय घनश्याम ।
पतितपावन सीताराम ।।

भीड़ पड़ी जब भक्त पुकारे ।
दूर करो प्रभु दु:ख हमारे ।।
दशरथ के घर जन्मे राम ।
पतितपावन सीताराम ।। 1 ।।

विश्वामित्र मुनीश्वर आये ।
दशरथ भूप से वचन सुनाये ।।
संग में भेजे लक्ष्मण राम ।
पतितपावन सीताराम ।। 2 ।।

वन में जाए ताड़का मारी ।
चरण छुआए अहिल्या तारी ।।
ऋषियों के दु:ख हरते राम ।
पतितपावन सीताराम ।। 3 ।।

जनक पुरी रघुनन्दन आए ।
नगर निवासी दर्शन पाए ।।
सीता के मन भाए राम ।
पतितपावन सीताराम ।। 4।।

रघुनन्दन ने धनुष चढ़ाया ।
सब राजो का मान घटाया ।।
सीता ने वर पाए राम ।
पतितपावन सीताराम ।।5।।

परशुराम क्रोधित हो आये ।
दुष्ट भूप मन में हरषाये ।।
जनक राय ने किया प्रणाम ।
पतितपावन सीताराम ।।6।।

बोले लखन सुनो मुनि ग्यानी ।
संत नहीं होते अभिमानी ।।
मीठी वाणी बोले राम ।
पतितपावन सीताराम ।।7।।

लक्ष्मण वचन ध्यान मत दीजो ।
जो कुछ दण्ड दास को दीजो ।।
धनुष तोडय्या हूँ मै राम ।
पतितपावन सीताराम ।।8।।

लेकर के यह धनुष चढ़ाओ ।
अपनी शक्ति मुझे दिखलाओ ।।
छूवत चाप चढ़ाये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।9।।

हुई उर्मिला लखन की नारी ।
श्रुतिकीर्ति रिपुसूदन प्यारी ।।
हुई माण्डव भरत के बाम ।
पतितपावन सीताराम ।।10।।

अवधपुरी रघुनन्दन आये ।
घर-घर नारी मंगल गाये ।।
बारह वर्ष बिताये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।11।।

गुरु वशिष्ठ से आज्ञा लीनी ।
राज तिलक तैयारी कीनी ।।
कल को होंगे राजा राम ।
पतितपावन सीताराम ।।12।।

कुटिल मंथरा ने बहकाई ।
कैकई ने यह बात सुनाई ।।
दे दो मेरे दो वरदान ।
पतितपावन सीताराम ।।13।।

मेरी विनती तुम सुन लीजो ।
भरत पुत्र को गद्दी दीजो ।।
होत प्रात वन भेजो राम ।
पतितपावन सीताराम ।।14।।

धरनी गिरे भूप ततकाला ।
लागा दिल में सूल विशाला ।।
तब सुमन्त बुलवाये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।15।।

राम पिता को शीश नवाये ।
मुख से वचन कहा नहीं जाये ।।
कैकई वचन सुनयो राम ।
पतितपावन सीताराम ।।16।।

राजा के तुम प्राण प्यारे ।
इनके दु:ख हरोगे सारे ।।
अब तुम वन में जाओ राम ।
पतितपावन सीताराम ।।17।।

वन में चौदह वर्ष बिताओ ।
रघुकुल रीति-नीति अपनाओ ।।
तपसी वेष बनाओ राम ।
पतितपावन सीताराम ।।18।।

सुनत वचन राघव हरषाये ।
माता जी के मंदिर आये ।।
चरण कमल मे किया प्रणाम ।
पतितपावन सीताराम ।।19।।

माता जी मैं तो वन जाऊं ।
चौदह वर्ष बाद फिर आऊं ।।
चरण कमल देखूं सुख धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।20।।

सुनी शूल सम जब यह बानी ।
भू पर गिरी कौशल्या रानी ।।
धीरज बंधा रहे श्रीराम ।
पतितपावन सीताराम ।।21।।

सीताजी जब यह सुन पाई ।
रंग महल से नीचे आई ।।
कौशल्या को किया प्रणाम ।
पतितपावन सीताराम ।।22।।

मेरी चूक क्षमा कर दीजो ।
वन जाने की आज्ञा दीजो ।।
सीता को समझाते राम ।
पतितपावन सीताराम ।।23।।

मेरी सीख सिया सुन लीजो ।
सास ससुर की सेवा कीजो ।।
मुझको भी होगा विश्राम ।
पतितपावन सीताराम ।।24।।

मेरा दोष बता प्रभु दीजो ।
संग मुझे सेवा में लीजो ।।
अर्द्धांगिनी तुम्हारी राम ।
पतितपावन सीताराम ।।25।।

समाचार सुनि लक्ष्मण आये ।
धनुष बाण संग परम सुहाये ।।
बोले संग चलूंगा राम ।
पतितपावन सीताराम ।।26।।

राम लखन मिथिलेश कुमारी ।
वन जाने की करी तैयारी ।।
रथ में बैठ गये सुख धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।27।।

अवधपुरी के सब नर नारी ।
समाचार सुन व्याकुल भारी ।।
मचा अवध में कोहराम ।
पतितपावन सीताराम ।।28।।

श्रृंगवेरपुर रघुवर आये ।
रथ को अवधपुरी लौटाये ।।
गंगा तट पर आये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।29।।

केवट कहे चरण धुलवाओ ।
पीछे नौका में चढ़ जाओ ।।
पत्थर कर दी, नारी राम ।
पतितपावन सीताराम ।।30।।

लाया एक कठौता पानी ।
चरण कमल धोये सुख मानी ।।
नाव चढ़ाये लक्ष्मण राम ।
पतितपावन सीताराम ।।31।।

उतराई में मुदरी दीनी ।
केवट ने यह विनती कीनी ।।
उतराई नहीं लूंगा राम ।
पतितपावन सीताराम ।।32।।

तुम आये, हम घाट उतारे ।
हम आयेंगे घाट तुम्हारे ।।
तब तुम पार लगायो राम ।
पतितपावन सीताराम ।।33।।

भरद्वाज आश्रम पर आये ।
राम लखन ने शीष नवाए ।।
एक रात कीन्हा विश्राम ।
पतितपावन सीताराम ।।34।।

भाई भरत अयोध्या आये ।
कैकई को कटु वचन सुनाये ।।
क्यों तुमने वन भेजे राम ।
पतितपावन सीताराम ।।35।।

चित्रकूट रघुनंदन आये ।
वन को देख सिया सुख पाये ।।
मिले भरत से भाई राम ।
पतितपावन सीताराम ।।36।।

अवधपुरी को चलिए भाई ।
यह सब कैकई की कुटिलाई ।।
तनिक दोष नहीं मेरा राम ।
पतितपावन सीताराम ।।37।।

चरण पादुका तुम ले जाओ ।
पूजा कर दर्शन फल पावो ।।
भरत को कंठ लगाये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।38।।

आगे चले राम रघुराया ।
निशाचरों का वंश मिटाया ।।
ऋषियों के हुए पूरन काम ।
पतितपावन सीताराम ।।39।।

‘अनसूया’ की कुटीया आये ।
दिव्य वस्त्र सिय मां ने पाय ।।
था मुनि अत्री का वह धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।40।।

मुनि-स्थान आए रघुराई ।
शूर्पनखा की नाक कटाई ।।
खरदूषन को मारे राम ।
पतितपावन सीताराम ।।41।।

पंचवटी रघुनंदन आए ।
कनक मृग “मारीच“ संग धाये ।।
लक्ष्मण तुम्हें बुलाते राम ।
पतितपावन सीताराम ।।42।।

रावण साधु वेष में आया ।
भूख ने मुझको बहुत सताया ।।
भिक्षा दो यह धर्म का काम ।
पतितपावन सीताराम ।।43।।

भिक्षा लेकर सीता आई ।
हाथ पकड़ रथ में बैठाई ।।
सूनी कुटिया देखी भाई ।
पतितपावन सीताराम ।।44।।

धरनी गिरे राम रघुराई ।
सीता के बिन व्याकुलताई ।।
हे प्रिय सीते, चीखे राम ।
पतितपावन सीताराम ।।45।।

लक्ष्मण, सीता छोड़ नहीं तुम आते ।
जनक दुलारी नहीं गंवाते ।।
बने बनाये बिगड़े काम ।
पतितपावन सीताराम ।।46 ।।

कोमल बदन सुहासिनि सीते ।
तुम बिन व्यर्थ रहेंगे जीते ।।
लगे चाँदनी-जैसे घाम ।
पतितपावन सीताराम ।।47।।

सुन री मैना, सुन रे तोता ।
मैं भी पंखो वाला होता ।।
वन वन लेता ढूंढ तमाम ।
पतितपावन सीताराम ।।48 ।।

श्यामा हिरनी, तू ही बता दे ।
जनक नन्दनी मुझे मिला दे ।।
तेरे जैसी आँखे श्याम ।
पतितपावन सीताराम ।।49।।

वन वन ढूंढ रहे रघुराई ।
जनक दुलारी कहीं न पाई ।।
गृद्धराज ने किया प्रणाम ।
पतितपावन सीताराम ।।50।।

चख चख कर फल शबरी लाई ।
प्रेम सहित खाये रघुराई ।।
ऎसे मीठे नहीं हैं आम ।
पतितपावन सीताराम ।।51।।

विप्र रुप धरि हनुमत आए ।
चरण कमल में शीश नवाये ।।
कन्धे पर बैठाये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।52।।

सुग्रीव से करी मिताई ।
अपनी सारी कथा सुनाई ।।
बाली पहुंचाया निज धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।53।।

सिंहासन सुग्रीव बिठाया ।
मन में वह अति हर्षाया ।।
वर्षा ऋतु आई हे राम ।
पतितपावन सीताराम ।।54।।

हे भाई लक्ष्मण तुम जाओ ।
वानरपति को यूं समझाओ ।।
सीता बिन व्याकुल हैं राम ।
पतितपावन सीताराम ।।55।।

देश देश वानर भिजवाए ।
सागर के सब तट पर आए ।।
सहते भूख प्यास और घाम ।
पतितपावन सीताराम ।।56।।

सम्पाती ने पता बताया ।
सीता को रावण ले आया ।।
सागर कूद गए हनुमान ।
पतितपावन सीताराम ।।57।।

कोने कोने पता लगाया ।
भगत विभीषण का घर पाया ।।
हनुमान को किया प्रणाम ।
पतितपावन सीताराम ।।58।।

अशोक वाटिका हनुमत आए ।
वृक्ष तले सीता को पाये ।।
आँसू बरसे आठो याम ।
पतितपावन सीताराम ।।59।।

रावण संग निशिचरी लाके ।
सीता को बोला समझा के ।।
मेरी ओर तुम देखो बाम ।
पतितपावन सीताराम ।।60।।

मन्दोदरी बना दूँ दासी ।
सब सेवा में लंका वासी ।।
करो भवन में चलकर विश्राम ।
पतितपावन सीताराम ।।61।।

चाहे मस्तक कटे हमारा ।
मैं नहीं देखूं बदन तुम्हारा ।।
मेरे तन मन धन है राम ।
पतितपावन सीताराम ।।62।।

ऊपर से मुद्रिका गिराई ।
सीता जी ने कंठ लगाई ।।
हनुमान ने किया प्रणाम ।
पतितपावन सीताराम ।।63।।

मुझको भेजा है रघुराया ।
सागर लांघ यहां मैं आया ।।
मैं हूं राम दास हनुमान ।
पतितपावन सीताराम ।।64।।

भूख लगी फल खाना चाहूँ ।
जो माता की आज्ञा पाऊँ ।।
सब के स्वामी हैं श्री राम ।
पतितपावन सीताराम ।।65।।

सावधान हो कर फल खाना ।
रखवालों को भूल ना जाना ।।
निशाचरों का है यह धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।66।।

हनुमान ने वृक्ष उखाड़े ।
देख देख माली ललकारे ।।
मार-मार पहुंचाये धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।67।।

अक्षय कुमार को स्वर्ग पहुंचाया ।
इन्द्रजीत को फांसी ले आया ।।
ब्रह्मफांस से बंधे हनुमान ।
पतितपावन सीताराम ।।68।।

सीता को तुम लौटा दीजो ।
उन से क्षमा याचना कीजो ।।
तीन लोक के स्वामी राम ।
पतितपावन सीताराम ।।69।।

भगत बिभीषण ने समझाया ।
रावण ने उसको धमकाया ।।
सनमुख देख रहे रघुराई ।
पतितपावन सीताराम ।।70।।

रूई, तेल घृत वसन मंगाई ।
पूंछ बांध कर आग लगाई ।।
पूंछ घुमाई है हनुमान ।।
पतितपावन सीताराम ।।71।।

सब लंका में आग लगाई ।
सागर में जा पूंछ बुझाई ।।
ह्रदय कमल में राखे राम ।
पतितपावन सीताराम ।।72।।

सागर कूद लौट कर आये ।
समाचार रघुवर ने पाये ।।
दिव्य भक्ति का दिया इनाम ।
पतितपावन सीताराम ।।73।।

वानर रीछ संग में लाए ।
लक्ष्मण सहित सिंधु तट आए ।।
लगे सुखाने सागर राम ।
पतितपावन सीताराम ।।74।।

सेतू कपि नल नील बनावें ।
राम-राम लिख सिला तिरावें ।।
लंका पहुँचे राजा राम ।
पतितपावन सीताराम ।।75।।

अंगद चल लंका में आया ।
सभा बीच में पांव जमाया ।।
बाली पुत्र महा बलधाम ।
पतितपावन सीताराम ।।76।।

रावण पाँव हटाने आया ।
अंगद ने फिर पांव उठाया ।।
क्षमा करें तुझको श्री राम ।
पतितपावन सीताराम ।।77।।

निशाचरों की सेना आई ।
गरज तरज कर हुई लड़ाई ।।
वानर बोले जय सिया राम ।
पतितपावन सीताराम ।।78।।

इन्द्रजीत ने शक्ति चलाई ।
धरनी गिरे लखन मुरझाई ।।
चिन्ता करके रोये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।79।।

जब मैं अवधपुरी से आया ।
हाय पिता ने प्राण गंवाया ।।
वन में गई चुराई बाम ।
पतितपावन सीताराम ।।80।।

भाई तुमने भी छिटकाया ।
जीवन में कुछ सुख नहीं पाया ।।
सेना में भारी कोहराम ।
पतितपावन सीताराम ।।81।

जो संजीवनी बूटी को लाए ।
तो भाई जीवित हो जाये ।।
बूटी लायेगा हनुमान ।
पतितपावन सीताराम ।।82।।

जब बूटी का पता न पाया ।
पर्वत ही लेकर के आया ।।
काल नेम पहुंचाया धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।83।।

भक्त भरत ने बाण चलाया ।
चोट लगी हनुमत लंगड़ाया ।।
मुख से बोले जय सिया राम ।
पतितपावन सीताराम ।।84।।

बोले भरत बहुत पछताकर ।
पर्वत सहित बाण बैठाकर ।।
तुम्हें मिला दूं राजा राम ।
पतितपावन सीताराम ।।85।।

बूटी लेकर हनुमत आया ।
लखन लाल उठ शीष नवाया ।।
हनुमत कंठ लगाये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।86।।

कुंभकरन उठकर तब आया ।
एक बाण से उसे गिराया ।।
इन्द्रजीत पहुँचाया धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।87।।

दुर्गापूजन रावण कीनो ।
नौ दिन तक आहार न लीनो ।।
आसन बैठ किया है ध्यान ।
पतितपावन सीताराम ।।88।।

रावण का व्रत खंडित कीना ।
परम धाम पहुँचा ही दीना ।।
वानर बोले जय श्री राम ।
पतितपावन सीताराम ।।89।।

सीता ने हरि दर्शन कीना ।
चिन्ता शोक सभी तज दीना ।।
हँस कर बोले राजा राम ।
पतितपावन सीताराम ।।90।।

पहले अग्नि परीक्षा पाओ ।
पीछे निकट हमारे आओ ।।
तुम हो पतिव्रता हे बाम ।
पतितपावन सीताराम ।।91।।

करी परीक्षा कंठ लगाई ।
सब वानर सेना हरषाई ।।
राज्य बिभीषन दीन्हा राम ।
पतितपावन सीताराम ।।92।।

फिर पुष्पक विमान मंगाया ।
सीता सहित बैठे रघुराया ।।
दण्डकवन में उतरे राम ।
पतितपावन सीताराम ।।93।।

ऋषिवर सुन दर्शन को आये ।
स्तुति कर मन में हर्षाये ।।
तब गंगा तट आये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।94।।

नन्दी ग्राम पवनसुत आये ।
भाई भरत को वचन सुनाए ।।
लंका से आए हैं राम ।
पतितपावन सीताराम ।।95।।

कहो विप्र तुम कहां से आए ।
ऎसे मीठे वचन सुनाए ।।
मुझे मिला दो भैया राम ।
पतितपावन सीताराम ।।96।।

अवधपुरी रघुनन्दन आये ।
मंदिर-मंदिर मंगल छाये ।।
माताओं ने किया प्रणाम ।
पतितपावन सीताराम ।।97।।

भाई भरत को गले लगाया ।
सिंहासन बैठे रघुराया ।।
जग ने कहा, “हैं राजा राम” ।
पतितपावन सीताराम ।।98।।

सब भूमि विप्रो को दीनी ।
विप्रों ने वापस दे दीनी ।।
हम तो भजन करेंगे राम ।
पतितपावन सीताराम ।।99।।

धोबी ने धोबन धमकाई ।
रामचन्द्र ने यह सुन पाई ।।
वन में सीता भेजी राम ।
पतितपावन सीताराम ।।100।।

बाल्मीकि आश्रम में आई ।
लव व कुश हुए दो भाई ।।
धीर वीर ज्ञानी बलवान ।
पतितपावन सीताराम ।।101।।

अश्वमेघ यज्ञ किन्हा राम ।
सीता बिन सब सूने काम ।।
लव कुश वहां दीयो पहचान ।
पतितपावन सीताराम ।।102।।

सीता, राम बिना अकुलाई ।
भूमि से यह विनय सुनाई ।।
मुझको अब दीजो विश्राम ।
पतितपावन सीताराम ।।103।।

सीता भूमि में समाई ।
देखकर चिन्ता की रघुराई ।।
बार बार पछताये राम ।
पतितपावन सीताराम ।।104।।

राम राज्य में सब सुख पावें ।
प्रेम मग्न हो हरि गुन गावें ।।
दुख कलेश का रहा न नाम ।
पतितपावन सीताराम ।।105।।

ग्यारह हजार वर्ष परयन्ता ।
राज कीन्ह श्री लक्ष्मी कंता ।।
फिर बैकुण्ठ पधारे धाम ।
पतितपावन सीताराम ।।106।।

अवधपुरी बैकुण्ठ सिधाई ।
नर नारी सबने गति पाई ।।
शरनागत प्रतिपालक राम ।
पतितपावन सीताराम ।।107।।

“श्याम सुंदर” ने लीला गाई ।
मेरी विनय सुनो रघुराई ।।
भूलूँ नहीं तुम्हारा नाम ।
पतितपावन सीताराम ।।108।।

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છત્રપતિ શિવાજી મહારાજ


છત્રપતિ શિવાજી મહારાજ અને એમની હિન્દુભક્તિ ને શત શત વંદન.

છત્રપતિ શિવાજી મહારાજ નો જન્મ સન ૧૬૨૭ ના ફેબ્રુઆરી મહિના ની ૧૯ તારીખ (ફાગણ વદ ને ત્રીજ ના) મહારાષ્ટ્ર ના શિવનેરી ના કિલ્લા માં વંદનીય જીજાબાઇ એ હિંદુ હ્રિદય સમ્રાટ શિવાજી ને જન્મ આપ્યો હતો.

ધન્ય કૂખ જીજાબાઈ ની જ્યાં શિવાજી જનમ્યો હતો,
તલવાર કેરી ધાર પર હિંદુધરમ રાખ્યો હતો,

પડકાર કરતી પુત્ર ને , કે શિવા મરજે સમર મેદાનમાં,
અમ દેશ ની એ આર્ય રમણી અમર છે ઇતિહાસ માં.

🌼 છત્રપતિ શિવાજી : તેના વિશે અભિપ્રાયો

ઇતિહાસમાં શિવાજી વિશે શાળામાં ક્યારેય વધારે શીખવડ્યું ન હતું.

ઘણા લોકો તેના વિશે શું વિચારે છે તેનાથી આશ્ચર્યચકિત થઈ જશો :

“કાબુલથી કંદહાર સુધી મારા તૈમૂર પરિવારે મોગુલ સલ્તનતની રચના કરી. ઇરાક, ઈરાન, તુર્કિસ્તાન અને ઘણા વધુ દેશોમાં મારી સેનાએ વિકરાળ યોદ્ધાઓને પરાજિત કર્યા. પરંતુ ભારતમાં શિવાજીએ અમારા પર રોક લગાવી દીધાં. મેં મારી મહત્તમ શક્તિ શિવાજી પર ખર્ચ કરી પરંતુ હું હરાવી શક્યો નહીં.

યા અલ્લાહ, તમે મને એક બહાદુર,નિર્ભય , ઈમાનવાળો ,સ્ત્રી ઓની ઈજ્જત કરવાવાળો દુશ્મન આપ્યો, કૃપા કરીને તેમના માટે સ્વર્ગના દરવાજા ખુલ્લા રાખો કારણ કે વિશ્વનો શ્રેષ્ઠ અને મોટા દિલનો યોદ્ધા તમારી પાસે આવી રહ્યો છે. “

  • ઓરંગઝેબ

(શિવાજી ના મ્રુત્યુ -3 એપ્રિલ 1680 પર)

“તે દિવસે શિવાજીએ પૂણેમાં મારા મહેલમાં ઘુસી ને ફક્ત મારી આંગળીઓ નહીં કાપી, પણ મારું ગૌરવ કાપી નાખ્યું. મને સપનામાં પણ શિવાજી દેખાય છે.”

  • શાહિસ્તા ખાન. “મારા રાજ્યમાં શિવજીને હરાવી સકે તેવો કોઈ માણસ બાકી નથી ??”
  • હતાશ બેગમ અલી આદિલશાહ. “નેતાજી, તમારા દેશને કોઈ પણ હિટલર ની બ્રિટીશ લોકો ને કાઢી નાખવાની માટે જરૂર નથી.
    તમારે શિવાજીનો ઇતિહાસ બાળપણ થી શીખવવાની જરૂર છે.”
    -એડોલ્ફ હિટલર “જો શિવાજીનો જન્મ ઇંગ્લેંડમાં થયો હોત, તો આપણે ફક્ત પૃથ્વી પર જ નહીં પરંતુ સમગ્ર બ્રહ્માંડ પર શાસન કર્યું હોત.”
    -લોર્ડ માઉન્ટબેટન “જો શિવાજી બીજા દસ વર્ષ જીવ્યા હોત, તો અંગ્રેજોએ ભારતનો ચહેરો જોયો ન હોત.”
  • તત્કાલીન બ્રિટીશ ગવર્નર જો ભારતને સ્વતંત્ર બનાવવાની જરૂર હોય તો એકમાત્ર રસ્તો બહાર આવે છે, ‘ દેશ વાશી શિવાજીની જેમ લડે’. “
  • નેતાજી “શિવાજી એ માત્ર નામ નથી, તે ભારતીય યુવાનો માટે એક ઉર્જા સ્ત્રોત છે, જેનો ઉપયોગ ભારતને મુક્ત બનાવવા માટે કરી શકાય છે.”
  • સ્વામી વિવેકાનંદ. “જો શિવાજીનો જન્મ અમેરિકામાં થયો હોત, તો અમે તેમને એસ.યુ.એન. તરીકે નામ આપતા.”
  • બેરેક ઓબામા ગિનિસ બુક Worldફ વર્લ્ડ રેકોર્ડ્સમાં ઉમ્બરખિંડના પ્રખ્યાત યુદ્ધનો ઉલ્લેખ છે: “ઉઝબેકિસ્તાનની કર્તાલાબ ખાનની 30,000 ના મજબૂત સૈન્યને શિવાજીના માત્ર 1000 માલવા ઓ એ પરાજિત કરી હતી. એક પણ ઉઝબેકી આક્રંતાને ઘરે પરત ફરવા માટે જીવતો બાકી નહોતો.” શિવાજી આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિના રાજા હતા. તેની કારકિર્દીના 30 વર્ષના ગાળામાં તેણે ફક્ત બે જ યુદ્ધ ભારતીય લડવૈયાઓ સાથે લડ્યા. બીજા બધા બહારના હતા. શાહિસ્તા ખાન, જેણે સપનામાં પણ શિવજીનો ડર રાખ્યો હતો તે અબુ તાલિબાન અને તુર્કિસ્તાનનો રાજા હતો. બેહલોલખાન પઠાણ, સિકંદર પઠાણ, ચિદરખાન પઠાણ એ બધા અફઘાનિસ્તાનના યોદ્ધા સરદાર હતા. દિલરખાન પઠાણ મંગોલિયાનો મહાન યોદ્ધા હતો. તે બધાએ શિવાજીની સામે ધૂળ ખાય છે. સિદ્દી જોહર અને સલાબા ખાન ઈરાની લડવૈયા હતા, જે શિવાજીથી પરાજિત થયા. સિદ્દી જૌહરે પછીથી દરિયાઇ હુમલો કરવાની યોજના બનાવી. જેના જવાબમાં શિવાજીએ એક નૌકાદળ ઉભું કર્યું,
    પ્રથમ ભારતીય નૌકાદળ
    પરંતુ કાર્ય સિદ્ધ કરતા પહેલા શિવાજીએ આ દુનિયા છોડી દીધી. (તેમને આપણા જ ગદ્દારોદ્વારા ઝેર આપવામાં આવ્યું હતું.)

સ્રોત ગૂગલ “શિવાજી, મેનેજમેન્ટ ગુરુ.” તે બોસ્ટન યુનિવર્સિટીનો સંપૂર્ણ વિષય છે.
આપણા અભ્યાસ ક્રમ મા ક્યારે આવશે ?

તેમ છતાં, આપણે ભારતીયો તેના વિશે ખૂબ જ ઓછું જાણીએ છીએ ….. કેટલી દુખ ની વાત છે…… ઓછામાં ઓછું. ચાલો આપણે આપણી ભાવિ પેઢીને આ મહાન ભારત અને તેના મહાન યોદ્ધા ઓ વિશે જાણીવિયે..

70 સાલ વિદેશી એજન્ટો હીન્દુસ્થાનમા રાજ કરનારા ઓ એ ક્યાય અભ્યાસ મા કેમ ન લીધુ ? પણ તેણે તો હીન્દુ સંસ્કૃતિને નષ્ટ કરવા પ્રયત્ન કર્યા છે જાગો હીન્દુઓ જાગો .

એક રાષ્ટ્ર ભક્ત તરફથી ભારત માતા કી જય…

🚩🚩🚩

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દોડેક હજાર વર્ષ પહેલાંની વાત છે. એ સમયે રાજદરબારમાં સંસ્કૃત ભાષાની
ભારે પ્રતિષ્ઠ. વિદ્વાનો સંસ્કૃતમાં જ બોલે, સંસ્કૃતમાં જ વાતલાપ, ચર્ચા ને
વાદવિવાદ કરતા. સામાન્ય પ્રજા તો અર્ધમાગધી કે ગળથૂથીમાંથી મળેલી
માતૃભાષા કે બોલીમોનો જ ઉપયોગ કરતી હતી.
રાજદરબાર ભરાયો હતો. સંસ્કૃત ભાષામાં ચર્ચાઓ ચાલતી હતી ત્યાં
એક લઘરવઘર પણ તેસ્વી માણસ દાખલ થયો. બગલમાં હજારેક પાનાંની
દળદાર હસ્તપ્રત હતી. તેણે રાજાને વિનંતી કરી, આપ રજા આપો તો મારી
તિ સંભળાવું.’ રાજાએ પૂછ્યું, “શાની રચના કરી લાવ્યો છો વિદ્વાન?” મારા
દેશવાસીઓનાં સુખદુઃખની વાત છે, મહારાજ!’ પંડિતોનાં નાકનાં ટીચક
ચડ્યાં. પોથી ઉખેળી રહેલા આગંતુકને એકે પૂછ્યું, “કઈ ભાષામાં રચના કરી
છે?” ભોગે ભાવે આગંતુકે કહ્યું, “મને ધાવણ પાનારી મારી માતૃભાષામાં.’
રાજાએ આગંતુકને કહ્યું મહારાજ, પોથી ઉખેળવી રહેવા દો. આ સભામાં
સંસ્કૃત ભાષાના સાહિત્યની જ ચર્ચા થાય છે.’ અતિથિ છોભીલા પડી ગયા. પોથી
ત્વાની તેમણે સ્વસ્થ પગલે વિદાય લીધી.
વાર્તાકર વિદાય થઈ ગયા પછી થોડા સમયમાં રાજાને પોતાનું ભોજન
ફિદું લાગવા માંડ્યું. એમણે રસોઇયા પર ક્રોધ કર્યો. રસોઇયાએ આવીને કહ્યું,
મહારાજ, હું એનો એ જ છું. રાંધવાની પદ્ધતિ એની એ જ છે, પણ આજકાલ
પારધી જે ધાનમાંસ આપે છે તે સાવ નિર્માલ્ય હોય છે.”
રાજાએ પારધીને બોલાવ્યો. પારધીએ જવાબ આપ્યો, “મહારાજ, વનજંગલોમાં રસાળ પશુ-પંખીઓ જ રહ્યાં નથી. ઘરડાં, રસહીન, મરવાં પડેલાં પ્રાણીપંખીઓ જ રહ્યાં છે.’ ‘કેમ એમ?” રાજાએ પૂછ્યું. પારધીએ જવાબ આપ્યો, ‘સૌ
રસવાળા વો ગલ વચ્ચે આવેલાં નદી પાસેના આશ્રમમાં ચાલ્યાં ગયાં છે. ત્યાં
એક અગ્નિકુંડ ધીકી રહ્યો છે. અગ્નિકુંડ સમક્ષ એક માણસ બેઠો છે. એની સામે
લખેલી પોથી પડી છે. પોથીમાંથી અકેક પાનું લઈ એ માણસ મધુર, ગરવા સાદે
વાંચી સંભળાવે છે અને પછી પાનું અગ્નિમાં હોમી દે છે. પાના પર લખેલી વાતો
સાંભળતાં રસિક પશુ-પક્ષીઓ માથું ડોલાવે છે. અહોરાત વાર્તા સાંભળવાં બેસી
રહે છે. આશ્રમને કારણે એ રસાળ પશુ-પંખીઓનો શિકાર કરી શકાતો નથી.’
રાજા આશ્રમે ઊપડ્યા. આશ્ચર્યમાં પડી ગયા. આ તો પેલો રાજદરબારમાં
આવેલો પરદેશી! એની વાતો સાંભળી રાજા પણ ડોલી ઊઠ્યા. એમણે જઈને
પેલા માણસને રોક્યો. ગુણાત્ર થંભી જા! ક્ષમા કર, બાકી રહેલાં પાનાં મને
આપ. માગે તે આપું.”
પરદેશીએ જવાબ આપ્યો, “શી જરૂર છે મહારાજ, આવા અબુધ પણ રસિક
ભાવક મળી જાય એને બીજી શી જરૂર? આ વાર્તાઓ અને કાને રમો. એને
લખેલ શબ્દની જરૂર નથી એ કંઠોપકંઠ સુવરો.’
લોકસાહિત્યની મહત્તા સમજાવવા ક્વેરચંદ મેઘાણીએ આ વાત કહેલી.

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(આના અસલી લેખક કોણ છે તે કોઈને ખબર હોય તો કેજો.ઘણીવાર રંગના ડબલાં એ વાતે ખૂબ ખખડે છે.)

કડવું સત્ય

  • તાજેતરમાં નિવૃત્ત થયેલા એક IAS અધિકારી વિજય નગરમાં રહેવા આવ્યા, જે “ઇન્દોર” શહેર માં સ્થાયી થયા. આ મોટા નિવૃત્ત IAS અધિકારી પાર્ક મા ફરતાં લોકો ને તિરસ્કાર થી જોતાં, પણ તે કોઈની સાથે વાત કરતા ન હતા.

એક દિવસ, તેઓ સાંજે એક વૃદ્ધ વ્યક્તિ સાથે ગપસપ કરવા બેઠાં અને પછી સતત તેમની બાજુ માં બેસવા લાગ્યા, પરંતુ તેમની વાતચીતનો વિષય એક જ હતો – કે હું ભોપાલમાં એટલો મોટો IAS ઓફિસર હતો કે, પૂછશો જ નહીં, અહીં તો હું મજબૂરી થી આવ્યો છું. મારે તો દિલ્હીમાં સ્થાયી થવું જોઈતું હતું

અને તે વડીલ દરરોજ શાંતિથી તેમની વાત સાંભળતા હતા. પણ એક દિવસ પરેશાન થઈ ગયેલા વૃદ્ધે તેને સમજાવ્યું – શું તમે ક્યારેય ફ્યુઝ બલ્બ જોયો છે?
બલ્બ ફ્યુઝ થયા પછી, શું કોઈ જોવે છે કે બલ્બ કઈ કંપનીનો બનેલો હતો અથવા કેટલા વોટનો હતો અથવા તેમાં કેટલો પ્રકાશ કે ઝગમગાટ હતો? બલ્બ ના ફ્યુઝ થયા પછી ઊપર ની કોઈ વિગત નુ જરાય મહત્વ નથી, લોકો આવા બલ્બને કચરા ટોપલી માં નાંખે છે કે નહીં!
પેલા નિવૃત્ત IAS અધિકારીએ સંમતિમાં માથું ધુણાવ્યું, ત્યારે વડીલે વધુમાં કહ્યું – નિવૃત્તિ પછી આપણા બધાની હાલત પણ ફ્યુઝ થયેલા બલ્બ જેવી થઈ જાય છે. આપણે ક્યાં કામ કરતા હતા, કેટલા મોટા/નાના હોદ્દા પર હતા, આપણી સ્થિતિ/વટ શું હતો? આ બધાથી કોઈ ફરક પડતો નથી.
હું ઘણા વર્ષોથી આ સોસાયટીમાં રહું છું અને આજ સુધી મેં કોઈને કહ્યું નથી કે, હું બે વખત સંસદ સભ્ય બનેલો છું. શર્માજીની સામે જે બેઠેલા છે તે રેલ્વે મા જનરલ મેનેજર હતા. સામેથી આવતા જોશી સાહેબ લશ્કરમાં બ્રિગેડિયર હતા. પેલા પાઠકજી…. ઈસરોના ચીફ હતા. તેમણે આ વાત કોઈને કહી નથી, મને પણ નહીં, પણ હું જાણું છું કે બધા ફ્યુઝ બલ્બ લગભગ એકસરખા જ હોય ​​છે, પછી ભલે તે ઝીરો વોટના હોય કે 50 કે 100 વોટના. પ્રકાશ નહી, તો ઉપયોગિતા પણ નહી. દરેક વ્યક્તિ ઉગતા સૂર્યને જળ અર્પણ કરીને પૂજા કરે છે. પરંતુ અસ્ત થતા સૂર્યને કોઈ પૂજતું નથી. કેટલાક લોકો પોતાના પદને લઈને એટલા બધા વહેમ માં હોય છે કે, નિવૃત્ત થયા પછી પણ તેઓ તેમના સારા દિવસો ભૂલતા નથી. અને તેઓ તેમના ઘરે પ્લેટો લગાવે છે – નિવૃત્ત IAS / નિવૃત્ત IPS / નિવૃત્ત PCS / નિવૃત્ત ન્યાયાધીશ વગેરે – વગેરે…..
હવે આ નિવૃત્ત IAS/IPS/PCS/તહેસીલદાર/પટવારી/બાબુ/પ્રોફેસર/પ્રિન્સિપાલ/શિક્ષક.. એવી વલી કયાં… કઈ પોસ્ટ છે? ભાઈ. માન્યુ કે તમે ખૂબ મોટા ઓફિસર હતા, હોશિયાર પણ હતા. ઓફીસ મા તમારો જ વટ હતો. પણ તેનુ હવે શું?
વાસ્તવમાં આનાથી કોઈ ફરક નથી પડતો, પણ મહત્વનું એ છે કે તમે જયારે ઓફિસમાં પદ ઊપર હતા, ત્યારે કેવા માણસ હતા…?
તમે જીવનને કેટલું
સ્પર્શ્યું/જીવ્યા …
તમે સામાન્ય લોકો પર કેટલું ધ્યાન આપ્યું… તમારા મિત્રો ના કેટલા કામમાં આવ્યા.
લોકો ને કેટલા મદદરૂપ થયા.
અથવા તો માત્ર

અભિમાનમાં જ રહયા?

ઓફિસમાં રહીને જો તમે અહંકાર જ કરતા હોય તો યાદ રાખજો…
કે એક દિવસ દરેકને ફ્યુઝ થવાનું જ છે.

આ પોસ્ટ એવા લોકો માટે અરીસો છે કે, જેઓ પદ અને સત્તા ધરાવતા હોય પણ પોતાની કલમથી ક્યારેય સમાજનું હિત કરી શકયા નથી.

અને

નિવૃત્તિ પછી સમાજ માટે મોટી ચિંતા કરવા લાગે છે.

હજી પણ સમય છે, ચિંતન કરો, અને સમાજ ના હિત મા જે કઈ થઈ શકે તે કરીએ… અને પોતાના પદ રુપી બલ્બ થી સમાજ ને રોશન કરીએ…🙏

સંકલિત

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જીવનનો આનંદ


જીવનનો આનંદ
ત્રણ શિકારીઓ હતા. ત્રણે જુદી જુદી દિશામાં શિકારે નીકળ્યા. ધનુષ-બાણ
સાથે આખો દિવસ જંગલમાં રખડ્યા.
પહેલો શિકારી ઘણી બધી જગાએ ફર્યો. ઝાડીમાં પ્રાણીઓ શોધ્યાં. ઝાડ
પર સંતાઈ દૂર દૂર સુધી નજર દોડાવી. નદી અને સરોવરોએ ગયો. કોઈ પ્રાણી
પાણી પીવા આવ્યું હોય તો તેનો શિકાર થઈ શકે. ત્યાં પણ કોઈ શિકાર ન
મળ્યો. વનમાં પ્રાણીઓ જોયાં, પણ હાથ ન આવ્યાં. નિશાન લઈ તીર છોડ્યાં,
પણ તીર નિશાન પર ન વાગ્યાં.
આખા દિવસનો થાક્યો-પાક્યો, ધંધવાતો-ધંધવાતો, નસીબને ગાળો દેતો,
ઈશ્વરની નિંદા કરતો એ રાતે ઘેર પહોંચ્યો. પાળેલું કૂતરું વહાલ કરવા ઝાંપે આવ્યું.
તેને એક લાત લગાવી દીધી. છોકરાંઓને ઢીવ્યાં. ધણિયાણી પર ધખ્યો. ખાધાપીધા વગર ગુસ્સામાં ને ગુસ્સામાં સૂઈ ગયો.
બીજો શિકારી પણ સઘળે સ્થળે ર્યો. પ્રાણીઓ જોવા મળ્યાં, પણ નિશાનમાં
આવ્યાં નહીં. શોક કર્યા વગર તે આગળ વધ્યો. જળ-સ્થળ બધે પ્રયત્નો કર્યા;
નિષ્ફળ નીવડ્યો. “ચાલો, જેવી હરિની ઇચ્છા’ મનોમન એમ કહી એ ઘરે ગયો.
કોઈની સાથે કશું બોલ્યો નહીં. ફક્ત એટલું કહ્યું, ‘
શિકારમાં આજે કંઈ મળ્યું
નથી. ઘરમાં જે કંઈ પડ્યું હોય તેનાથી ચલાવી લો.’ આમ કહી તેણે લંબાવ્યું.
રોજની જેમ મનોમન હરિ-૨ટણ કરવા લાગ્યો.
ત્રીજો શિકારી હસતો-રમતો નીકળી પડ્યો હતો. જંગલમાં પાંદડાંઓ
વચ્ચેથી આવતા પ્રકાશનાં કિરણોની સંતાકૂકડી એ માણી રહ્યો. શીતળ હવાનો
આહૂલાદ લૂંટતો રહ્યો. કોઈ પ્રાણી ચબરાકીથી છટકી જતું તો એ હો.હો..હો’
કરી હસી પડતો. તેણે ફૂલો જોયાં, લીલાં ખેતર જોયાં, ખળખળ વહેતી નદીઓ
જોઈ. આ બધું નિહાળ્યું ને માણ્યું, પણ એનું નસીબ પણ પહેલા બે શિકારી જેવું
જ નીકળ્યું. આજે કોઈ શિકાર હાથ લાગ્યો નહીં માળે આજે ખરું થયું! પણ
ઘેર બૈરી-છોકરાં માટે ખાવાનું તો લઈ જવું પડશે ને?” તેણે ક્યાંકક્યાંકથી કાચાંપાકાં કેળાં તોડ્યાં. દૂધીના વેલાઓ પરથી દૂધીનાં તુંબડાં તોડ્યાં. ઘેર બધાંએ
સાથે બેસી ફળ-શાકભાજી ખાધાં. “આજે ફળાહાર.’ શિકારીએ ઓડકાર ખાધો!
આપણે મોટા ભાગના લોકો પહેલા શિકારી જેવા છીએ. મળે તો રાજા –
ઈશ્વર સારો, બધું સારું. ન મળે તો બધાં ખોટાં – ઈશ્વર, નસીબ, પાલતુ પ્રાણી,
ધણિયાણી ને છોકરાં. બધાંને ખાવા માટે ગુસ્સો આપીએ છીએ. બીજો શિકારી
નિર્લેપ રહેવાને ગુણ ગણે છે, પણ તે નરી નિષ્કિયતા છે. ત્રીજો શિકારી જીવન
અને જીવનના આનંદનો માણસ છે.
વિશ્વની ચેતના સાથે ભળી જઈએ તો જીવનનો વિશ્વાનંદ મળે. ભૂખ, ખોરાક
એ બધી જીવનની વાસ્તવિકતાઓ છે, પણ જીવન-આનંદ સામે એ સાવ
મામૂલી છે.

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येसु


यही कोई 6-7 साल पहले की बात है…!

जाड़े का ही मौसम था….

और… मेरे ताऊ जो कि गाँव में रहते हैं… अपनी ड्योढ़ी पर धूप सेंकते हुए … बैठ के हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे.

उतने में ही कुछ लोग मिशनरीज से गले के लम्बे धागे में क्रॉस-उरोस लटका कर आए और ताऊ से बात करने लगे.

ताऊ ने भी उन सबों को प्रेम से बिठाया और उनसे आने का प्रयोजन पूछा…!

पहले तो उन्होंने हाल समाचार पूछा और इधर-उधर की बातें की…. मुद्दे की बात पर आए.

चूँकि, मेरे ताऊ की कट्टरता पूरे इलाके में विख्यात थी इसीलिए उन्होंने हिन्दू सनातन धर्म की बुराई नहीं की…..
बल्कि, अपनी योजनानुसार उन्होंने यीशु की प्रशंसा शुरू की.

और…. बताना शुरू किया कि…. यीशु साक्षात ईश्वर के पुत्र हैं .. और, इनकी शरण में आने से आपका मोक्ष पक्का है… वगैरह.. वगैरह.

ताऊ जी…. हुक्का गुड़गुड़ाते हुए पूरे धैर्य से उनकी सब बातें सुनी.

जब उन मिशनरीज वालों का सारा बोला हो गया तो… उन्होंने ताऊ से पूछा कि…
फिर ताऊ , क्या बोलते हो आप ???

ये सुनकर ताऊ ने कहा…. मैं तुमलोगों की सब बात समझ गया… लेकिन, मुझे एक बात पूछनी है.

ताऊ जी की ऐसी पोजेटिव बातें सुनकर मिशनरी वालों की बाछें खिल गई…
और, उन्होंने पूरे उत्साह से बोला कि…. पूछें ताऊ .

ताऊ ने पूछा कि…. तुम सब ने जो इतना कुछ कहा … वो, तुम सबने मेरे बेटे को क्यों नहीं कहा ???

इस पर मिशनरीज वालों ने कहा कि…. ये कैसी बात करते हैं ताऊ ??

आपके रहते … आपके बेटे को हम भला आपके बेटे को कुछ कैसे बोल सकते हैं ???
मालिक तो आप ही हुए… जब तक आप हैं.

इस पर ताऊ बोले…. तुमने बिल्कुल सही कहा.
हमारे यहाँ बाप के रहते… बेटे को ज्यादा भाव नहीं दिया जाता है.

और… तुमने बताया ही तुम्हारे यीशु ईश्वर के बेटे हैं.

तो, जब हमारे पास यीशु के बाप अर्थात साक्षात ईश्वर ही हैं तो… हम उनके बेटे को क्यों भाव दें ???

इसीलिए… मेरी मानो तो तुम लोग भी बेटे को छोड़कर…. उनके बाप प्रभु भोलेनाथ की आराधना शुरू कर दो.

ये सुनकर ही उन मिशनरी वालों का मुँह लटक गया…
और, वे ताऊ जी प्रणाम करके चलते बने..!!

जय महाकाल…!!!

नव नंदन प्रसाद

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निशानी


🌿🌿🌿🌿🌿🌿–निशानी–🌿🌿🌿🌿🌿🌿

दीवाली की सफाई हो रही थी। एक पुराने ट्रंक से कुछ चीजें बाहर निकली। उन चीज़ों में एक पुरानी HMT की चाभी वाली कलाई घड़ी थी। मैं बड़े अनुराग से उस घड़ी को इस तरह कपड़े से पोछने लगा जैसे उसे पोछ नहीं – सहला रहा होऊ।

इतवार का दिन था। दुकान की साप्ताहिक छुट्टी थी और बेटी भी चूँकि घर में ही थी इसलियें कुछ खुद के इरादे से कुछ पत्नी के दिशानिर्देशों के अंतर्गत मैं और बेटी सफाई के नाम पर कबाड़ समझें जाने वाली चीजें टटोल रहें थे।

दीवाली में अभी समय था। त्योहार करीब हो तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन भी दुकान खोलना पड़ता है। फिर तो दुकान पर पत्नी की भी सहायता लेनी पड़ती है।

ससुराल से खबर आयी थी कि ससुरजी की तबियत खराब चल रही है। वे अपने सभी बच्चों से मिलना चाहतें है अतः पत्नी पुत्र के साथ मायके गयी हुई थी।

पत्नी बेशक मायके में थी पर सुबह-सुबह बेटी को हुक्म दे दी थी कि अगर पापा दुकान पर नहीं जाते है तो मोटा- मोटी घर की सफाई चालू कर दो। ज़्यो-ज़्यो दीवाली करीब आती जायेगी सबकी मशरूफियत बढ़ती जायेगी।

हाई कमान का आदेश !
हुक्मउदूली की हिम्मत किसमें थी ?
अतः पिता-पुत्री काम से लगे हुए थे। इसी क्रम में हम पुराना ट्रंक खोल बैठे थे।

मेरी बेटी जो कॉलेज की छात्रा थी और जो उस समय सफाई में मेरी मदद कर रही थी – घड़ी के प्रति मेरे लगाव को देख रही थी बोल पड़ी – ” पापा, इस घड़ी के साथ बहुत अटेचमेंट है आपका – है न ?”
” तुम्हारें दादा जी ने मुझें तब गिफ्ट दिया था जब मैं पहली बार कॉलेज जा रहा था। ” – मैं पुरानी स्मृतियों में खोता हुआ बोला।
बेटी ने धीरे से मेरे हाथ से घड़ी ले ली। उत्सुकतावश घड़ी में चाभी भरी –जब वर्षो से रखी हुई घड़ी चल पड़ी तब हर्ष मिश्रित स्वर में बोली– ” अरे ये तो चलने भी लगी –पापा जब ये आपको इतनी पसन्द है तो इसे पहनते क्यों नहीं ?–खामखाह ट्रंक में छोड़ रखें है।”
” चुपचाप वापस रख दे –पापा की निशानी है – गुम-गुमा गयी तो बहुत दुख होगा मुझें।”–मैंने एक मीठी सी झिड़की दी।

पिताजी को गुज़रे कई साल हो चूके है – पिताजी से सम्बंधित हर चीज़ को धरोहर समझता हूँ मैं – ये बात मेरी बिटिया रानी जानती है। वह मेरे मनोभाव को समझ रही थी अतः चुपचाप घड़ी वापस ट्रंक में रख दी और एक पुराना एलबम उठा कर उसके पन्ने पलटने लगी।

बेटी के साथ-साथ मैं भी उन तस्वीरों का अवलोकन करने लगा।
दरअसल ये एलबम भी पिताजी का ही था। जिसे मैं पिताजी की मृत्यु के बाद अपने पास रख लिया था। चूँकि एलबम पिताजी का था इसलिये इसमें ज्यादातर तस्वीरें मेरी माँ पिताजी छोटे भाई खुद मेरी और मेरी छोटी बहन की थी।
पिताजी की युवावस्था की एक तस्वीर – जिसमें मैं और उम्र में मुझसे दो साल छोटा भाई था पिताजी ने दोनों भाइयों को एक साथ गोद मे उठा रखा था –चित्रित थे– बेटी देर तक उस तस्वीर को देखती रही फिर बोली – ” पापा बचपन में बहुत कयुट लगते थे आप दोनों भाई।”
” और अब !” – मैं हँसा।
” अब भी पर बचपन की बात ही और होती है।” – बेटी पन्ने पलटती हुई बोली –” ये तस्वीर देखों आप –इसमें आप चाचा और बुआ तीनों कैरम खेल रहे हो।”

मैं बचपन की उस तस्वीर में खो गया। कितना निर्दोष होता है बचपन – न द्वेष न ईर्ष्या न लालच। बचपन में साथ पले-बढ़े बच्चें जब बड़े हो जाते है तब जेहन रोशन हो जाता है। ज्ञान मिल जाता है। तेरा-मेरा का भाव उत्पन्न हो जाता है। स्वार्थ प्रबल हो जाता है।

” पापा, एक बात कहूँ !”
” क्या?”
” बचपन में आप चाचा और बुआ कितना हिल-मिल कर रहते थे –बाद में ऐसा क्या हो गया कि चाचा और बुआ दोनों से हमारा कोई रिश्ता न रहा ?”
” बाद में तेरे चाचा और बुआ का नेचर बदल गया। दादाजी की मृत्यु के बाद प्रोपर्टी के लिये विवाद हुआ जिसमें उनका असली चेहरा सामने आया।”
” गलती दोनों तरफ से हुई थी। कुछ बातें आप चाचा को समझा नहीं पाये कुछ बातें चाचा समझना ही नहीं चाहतें थे। पर आप भी तो बड़ा भाई होने का फर्ज अदा न कर सकें।”
खुद के प्रति बेटी का जजमेंट सुन कर मैं अपना आपा खो बैठा।
वर्षो से छुपा मन का आक्रोश ज़ैसे बाहर निकला हो –छोटे भाई पर तो हाथ उठा न सका था –दबी हुई इच्छा ज़ैसे प्रकट हुई हो –अनजाने में क्रोधवश बड़ी हो चुकी बेटी पर हाथ उठ गया।

चटाक।
विधुत गति से मेरा हाथ उठा था और बेटी के कोमल गाल पर उँगलियों की छाप छोड़ गया।
हम दोनों ही अवाक रह गये।
मैं बेबशी से मेरे हाथ को देख रहा था।
बेटी की आँखें डबडबाई हुई थी और ओठ व्यंग से मुस्कुराहट में फैले फिर वह अपने कमरे की ओर दौड़ पड़ी।
कई लम्हों तक मैं किंगकर्तव्य विमूढ़ सा वहीं खड़ा रहा फिर अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट गया।
मेरा ज़ेहन अतीत की यादों में डूब गया।

मेरे पिता एक छोटी सी परचून की दुकान के मालिक थे।
दुकान छोटी सी ज़रूर थी पर जरूरत की हर चीज़ उपलब्ध थी इसलिये ग्राहकों की कमी नहीं थी।
मजे से परिवार का गुजारा चल जाता था। मैं घर का बड़ा लड़का था इसलियें बचपन से ही पिता को दुकानदारी में सहायता करने लगा।
कई बार तो मैं स्कूल से मिला होमवर्क भी दुकान पर बैठ कर करता था। यही कारण था कि बहुत कम उम्र से ही मुझें दुकानदारी समझ में आने लगी थी।
मेरे पिता के तीन संतान हुए। मैं , मुझसे छोटा भाई और सबसे छोटी एक बहन।
छोटा भाई पढ़ाई- लिखायी में ज़हीन था।
घर दुकान से चिंता मुक्त। सिर्फ खेलकूद और पढ़ाई पर ध्यान –परिणाम भी अच्छा निकला –पहले इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई की तदोपरांत एक मल्टीनेशनल कंपनी में उच्च पद पर आसीन हो गया।
छोटी बहन की शादी में हमनें खूब खर्च किया था। खूब दान-दहेज़ देकर एक सरकारी अधिकारी से उसका विवाह किया था।

युवा होते ही मैंने दुकान की पूरी जिम्मेवारी सम्भाल ली थी। पिता दुकान पर बैठते ज़रूर थे पर काम काज मैं ही देखता था। एक तरह से पिता रिटायर हो चूके थे।भाई-बहन को पढ़ाने-लिखाने एवम विवाह में भी मैंने ही जिम्मेदारी निभायी थी।
पिता सिर्फ आदेश देते थे। उन आदेशों की अनुपालना के लिये सारा प्रयास मेरा होता था।

पिता के जीवन काल में ही छोटा भाई और बहन सेटल हो गये थे। तरक्की मैंने भी की थी। पिता की छोटी सी दुकान को विस्तार दिया था। पिता के जीवनकाल में ही मैंने बगलवाली दुकान और एक गोदाम खरीद ली थी।
यही गोदाम और बगलवाली दुकान झगड़े का कारण बना।
भाई को लगता था कि उसने जो भी कमाया बनाया बचाया सब उसका था।
पर मैंने जो भी जोड़ा बनाया वह सिर्फ दुकान की आमदनी थी।
जबकि ऐसा नहीं था।
पिता की दुकान से मैंने दुकानदारी ज़रूर सीखी थी पर विस्तार के लिये मैंने दोस्तों से बैंक से कर्ज़ भी खूब लिया था। दिन रात मेहनत की। कई बार रिस्क लिया। सरकारी अमले से हफ्तावसूली गैंग से बिगड़ेल ग्राहकों से मैं अकेला ही निपटता रहा।
पिता की मृत्यु के बाद भाई और बहन जो कि दूसरे शहरों में रहते थे। फ़ौरन जमीन-जायदाद घर-दुकान सबका हिसाब-किताब लेखा-जोखा की जानकारी और बंटवारा चाहतें थे।
तब पिता की मृत्यु से दुखी– मैं ये दूसरा सदमा झेल न सका। क्रोध में बहन से कह दिया कि तुम्हारी शादी में जो भरपूर दहेज दिया नगद रुपये दिये शादी में जो दूसरे खर्चे किये वो सब क्या था !
भाई से कहा कि तुम्हारी पढ़ाई के खर्चे कोचिंग की फीस बाद में इंजीनियरिंग कॉलेज की फीस और होस्टल का खर्चा वो सब क्या था ? जब तक नोकरी नहीं मिली तक तक बड़े शहर में रहने खाने का खर्चा कौन देता था ?
क्रोध में कुछ मैंने कहा तो उन दोनों ने भी कहा।
बाद में मामा और दूसरे रिश्तेदारों ने बीच-बचाव किया। एक निश्चित समय के अंदर एक निश्चित पर मोटी रकम मैंने कर्ज़ लेकर भाई-बहन को चुकाई। कुछ पुश्तेनी सम्पत्ति का बंटवारा किया गया। सब कुछ बट गया फिर दिलों में गहरी खाई खुद गयी। अब तो हाल ये है कि नाते-रिश्तेदारों के घर शादी या दुःख में हम भाई बहन में मुलाकात भी होती है तो महज औपचारिकतावश राम- राम दुआ-सलाम फिर वो अलग-थलग बैठते है मैं अलग- थलग।

दरवाजे पर आहट-सी हुई।
मैंने दरवाजे की दिशा में देखा।
बेटी चाय की ट्रे लेकर अंदर आ रही थी।
तुरन्त मेरी नज़र वाल क्लॉक पर पड़ी। शाम के पांच बज रहें थे।
हे भगवान !
कितना समय हो गया।
दोपहर एक बजे वो वाकया हुआ था। कुल चार घँटे गुज़र गये थे। दोपहर में तो लंच भी नहीं लिया था और अब चाय का वक़्त हो गया।
बेटी ने सिर पर दुपट्टा ले रखा था।उसकी आँखें सूजी हुई थी। दुपट्टा भी ज़रूर उसने गाल पर छपे उंगलियों के निशान को छुपाने के लिये ओढ़ा था।
वह छोटे-छोटे कदमों से मेरे पास आयी। चाय की ट्रे मेरे बेड के पास साइड टेबल पर रखी फिर मेरे पैताने पलंग पर बैठ गयी। उसने मेरे दोनों पैरों को जकड़ कर पकड़ लिया फिर फफक पड़ी।
” स–स–सॉरी पापा।”– उसके ओठों से कातर स्वर निकला।
मेरे ह्रदय से ज़ैसे चीत्कार सी निकली हो। मैं तड़प उठा।
ताकत लगा कर बेटी के हाथों से अपने पॉव छुड़ाया। उसके सिर को अपने सीने से लगा कर मैं भी फफक पड़ा।
जाने कितना ही वक़्त हम उसी दशा में रहें। फिर जब आंसुओ का जोर कम हुआ तो मैं उसका चेहरा उठा कर देखा। उसके आँसू पोछे।
” पापा सॉरी ।” –वह बुदबुदाई।
” पगली – गलती मैंने की और सॉरी तुम बोल रही हो।”–मैं आहत स्वर में बोला।
” गलती किसी की भी हो पर गलतफहमी किसी को नहीं होना चाहियें। खून के रिश्तों में चाहें कोई भी झुकें जीत दोनों की होती है। माहौल खराब होता है तो दोनों की हार होती है। मैं आप से जीत कर भी हार जाऊँगी और अपनी हार मान कर भी जीत जाऊँगी।”
वह क्या कह रही थी वह मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था पर मेरा मन फिर अतीत में डूबने-उतराने लगा – कितना प्यारा होता है बचपन –पिता के जीवन काल में सब कुछ सामूहिक था। पिता के जाते ही तेरा-मेरा होने लगा।
ठीक है भाई-बहन ने जल्दबाजी मचाई– उसका कारण भी था–दोनों दूर रहते थे। बार-बार उनका आना सम्भव नहीं था। इसलियें उन्होंने गैर-मुनासिब मोके पर वो बात कही। पर ओवर रियेक्ट तो मैंने भी किया था। बरगद के एक ही दरख़्त से कई शाखाएं निकलती है पर बाद में उन सबों का अपना-अपना अस्तित्व हो जाता है। बंटवारा तो होना ही था बस तल्खी से हुआ।
एक बार भाई-बहन से प्रति सकारात्मक भाव से सोचने लगा तो मन में बचपन की उन स्मृतियों का तांता लग गया जब हम साथ थे एक दूसरे के मददगार थे।
एक दूसरे को पिता के क्रोध से बचाने के लिये छुपा लेते थे। झूठ बोल लिया करतें थे।
” पापा ये चाय तो ठंढी हो गयी मैं दूसरी चाय बना कर लेती हूँ।” बेटी ट्रे उठाती हुई बोली।
बेटी के बोलने से मेरी तन्द्रा टूटी।
” क्या ?”
” मैं दूसरी चाय बना कर लाती हूँ।”
” चाय रहने दो–खाना ही खायेंगे –मगर पहले एक बात बताओ।”
क्या?
” मुझें क्या करना चाहियें।”
” किस सिलसिले में ?”
” बुआ और चाचा से सम्बन्ध ठीक करने के लिये।”
” गलती किसी की भी हो आप आगे बढ़ कर सॉरी बोलिये –भाई से जीत कर भी क्या जीतेंगे और हार कर भी क्या हारेंगे? समझिये कि दादा जी ने जायदाद के नाम पर कुछ भी नहीं छोड़ा था और दादाजी की निशानी के नाम पर आपके पास कोई घड़ी या भौतिक वस्तु नहीं है सबसे बड़ी निशानी तो सगे भाई-बहन है।” वह पल भर के लिये रुकी फिर बोली– ” आपके भी दो बच्चें है कल को आपके सामने या आपके बाद हम भाईं-बहन भी इसी तरह लड़े तो आपकों कैसा लगेगा ?”
” ठीक है मेरी माँ “– मैं अनुरागपूर्ण स्वर में बोला –” तू जैसा चाहती है वैसा ही होगा–मेरा फोन दे और खाना गर्म कर।”
मैंने मोबाईल से भाई का नम्बर सर्च कर रिंग किया।
फोन किसी दूसरे आदमी ने उठाया। ज़रूर भाई ने ये नम्बर बंद कर दिया होगा तो कंपनी ने किसी और को अलॉट कर दिया होगा।
भाई के एक दोस्त से भाई का नम्बर लेकर भाई को फोन किया।
” अब क्या हो गया ?”– मेरी आवाज पहचान कर भाई के मुँह से चिढ़ा हुआ स्वर निकला।
” भाई सॉरी।” –मैं आर्त्तनाद कर उठा।
कुछ देर तक उधर से कोई आवाज न आयी फिर भाई के सिसकने की आवाज़ आयी जिसकी तीव्रता उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली गयी।
दस मिनटों तक हममें से किसी ने कुछ न कहा सिर्फ रोने सिसकने की आवाज़ आती रही फिर भाई बोला –भईया सॉरी तो मुझें बोलनी चाहिये—- अरूण कुमार अविनाश

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અંધકારનો પ્રદેશ


અંધકારનો પ્રદેશ
સર્બિયાના અઢારમી સદીના લેખક બુક સ્ટેફાનોવિક કારાડઝીકે આલેખેલી.
એક ગૂઢ રમ્ય-અગમ્ય કથા (myth) છે. કથામાં એક સમ્રાટ છે. સમ્રાટ મહાન
યોદ્ધો છે. તેણે વિશ્વનાં ઘણાં રાજ્યો જીતી લીધાં છે. ખાસ કશું જીતવાનું
બાકી રહ્યું નથી. ત્યારે સમ્રાટને એક વિચાર આવે છે: પોતાના સૈન્ય સાથે
અંધકારના પ્રદેશમાં જવું.
‘અંધકારના પ્રદેશમાં ગયા પછી પાછા શી રીતે આવવું?” આ માટે સમ્રાટ
એક યુક્તિ કરે છે. અંધકારના પ્રદેશના પ્રવેશદ્વાર પાસે એ સૈનિકોની ઘોડીઓના
‘વછેરા બાંધી રાખે છે. અંધકારના પ્રદેશમાં ગયા પછી પાછા ફરતી વખતે ઘોડીઓ
તેમના વછેરાઓની ગંધ અને વાત્સલ્યને કારણે પ્રવેશદ્વારની દિશામાં જ જાય
અને તેથી બહાર નીકળી શકાય.
અંધકારના પ્રદેશમાં સમ્રાટ અને સૈન્ય આગળ ને આગળ જાય છે.
કશું હાથ લાગતું નથી. સૈન્ય પાછું ફરે છે. જતાં અને આવતાં અંધકારને
કારણે કશું દેખાતું નથી. જોકે જતાં અને પાછા વળતાં સૈનિકોને પ્રતીતિ થાય
છે કે ઘોડા ચાલતા હતા તે જમીન પર કાંકરા હતા, કારણ કે ઘોડા ચાલતા
હતા ત્યારે ઘોડાઓના પગ સહેજ ખેંચી જતા હતા અને કિચડૂક કિચડૂક
અવાજ આવતો હતો.
સૈનિકો પ્રવેશદ્વાર પર પાછા વળી રહ્યા હતા ત્યારે અંધકારના પ્રદેશમાં
સૈનિકોને એક ગેબી અવાજ સંભળાયો: ‘તમારા ઘોડાઓના પગ નીચે કાંકરા
છે તેમાંથી થોડાક કાંકરા જે લેશે તે પસ્તાશે અને અફ્સોસ કરશે. જે કોઈ
એક પણ કાંકરો નહીં લે તે પણ પસ્તાશે ને અફસોસ કરશે.” સૈનિકો વિચારમાં
પડ્યા, “શું કરવું?” કેટલાકે વિચાર્યું, આપણે કાંકરા નથી લેવા. શા માટે નાહક
પસ્તાવું?” કેટલાકે વિચાર્યું, ‘ન લઈએ તો પણ પસ્તાવાનું છે તો ચાલોને એકાદ
કાંકરો લઈ જ લઈએ.’
પ્રકાશમાં આવીને જોયું તો કાંકરા ખરેખર હીરા જેવા બહુમૂલ્યવાન પથ્થરો
-હતા. જેમણે નહોતા લીધા એ પસ્તાયા: ‘ન લીધા એ ભૂલ કરી.” જેમણે એકાદ
પથ્થર લીધો હતો તે પસ્તાયા: ‘વધારે ન લીધા એ ભૂલ કરી!’ મિથ એટલે ગૂઢ,
રમ્ય અને અગમ્ય કથા. એ કથામાં અનેક સંકેતો હોય છે. બધું જીત્યા પછી
અંધકાર છે. વાત્સલ્યભરેલો પ્રેમ સાચો રસ્તો દેખાડે છે. નિયતિ અગમ્ય છે. જીવન
મર્કટને મળેલા મૂલ્યવાન પથ્થર જેવું છે. જીવો તોય પસ્તાવ, ન જીવો તોય પસ્તાવ.
આવા ઘણા અર્થો આ મિથમાંથી કાઢી શકાય.