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एक छोटी सी लघुकथा

एक राज्य में एक युवराज रहता था उसके पुर्वजों का राज्य में शासन चलता था एक समय राजा भ्रमण करने गये थे तो विद्रोहियों के हमले में मारे गए उसके बाद राज्य पर उन्हीं के मंत्रियों ने शासन व्यवस्था संभाल ली और रानी अपरोक्ष रूप से शासन पर नियंत्रण करने लगी ।
समय बदला तो राज्य की बागडोर जनता के प्रतिनिधि ने संभाल ली और राज्य को उन्नति की ओर ले जाने लगा
अब रानी और युवराज की मनमानी नहीं चलती तो वह और उनके गुलाम बहुत व्यथित रहने लगे
युवराज शरीर से तो परिपक्व हो गया था पर मानसिक रूप से नहीं ।
देखते देखते दस साल होने को आए पर युवराज को राज्य की बागडोर संभालने के लिए नहीं मिली वह जनता द्वारा चुने गए प्रधान पर अर्नगल आरोप लगाने लगा और अपशब्दों का प्रयोग करता रहा ।
पर प्रधान अपने कार्यों से जनता के बीच और लोकप्रिय हो गया
तब युवराज ने अपने गुरु जी को अपना हाथ दिखाया और अपना भविष्य जानने की इच्छा जताई ।
गुरु जी ने हाथ देखकर कहा
तुम्हारे संतान प्राप्ति के बाद ही तुम्हारे प्रधान बनने के योग प्रबल हो सकते हैं ।
इस लिए तुम्हें मंदिरों में जाकर दर्शन करने होंगे और ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करना होगा ।
ये सुनकर युवराज बहुत खुश हुआ और मंदिरों के दर्शन करने लगा ।
समय बीतता गया पर कुछ लाभ नहीं हुआ तब युवराज अपने गुरु जी के पास फिर पहुंचा और
गुरु जी पर नाराज़ हो कर उल्टा सीधा कहने लगा, तुम भी धूर्त हो धोखे बाज हो
तुम्हारे कहने पर मंदिरों में भटका पर कोई फायदा नहीं हुआ ।
गुरु जी ने कहा शांत युवराज शांत पूरी बात बताओं
युवराज बोला समय बीतता जा रहा है और मुझे संतान प्राप्ति नहीं हुई फिर मैं प्रधान कैसे बनूंगा ?
गुरु जी ने कहा अपनी पत्नी को भी साथ लेकर आना उसके भाग्य रेखा भी देखूंगा
युवराज बोला मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है तो पत्नी कहा से लाऊ ?
गुरु जी ने अपना सर पीट लिया और बोले तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता तुम इस जन्म में तो क्या सात जन्मों तक प्रधान नहीं बन सकते ।।

मौलिक रचना
संतोष कुमार
लखनऊ
22,12,2021

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प्राथना


❤🙏 “प्रार्थना”🙏❤

एक सूफी फकीर रोज संध्या परमात्मा को धन्यवाद देता था कि हे प्रभु! तेरी कृपा का कोई पारावार नहीं, तेरी अनुकंपा अपार है! मेरी जो भी जरूरत होती है तू सदा पूरी कर देता है। उसके शिष्यों को यह बात जंचती नहीं थी क्योंकि कई बार जरूरतें दिन-भर पूरी नहीं होती थीं, और फिर भी धन्यवाद वह यही देता था। मगर एक बार तो बात बहुत बढ़ गयी, शिष्यों से रहा न गया। वे हज-यात्रा को गए थे गुरु के साथ। तीन दिन तक रास्तों में ऐसे गांव मिले जिन्होंने न तो उन्हें भीतर घुसने दिया, न ठहरने दिया।

सूफी फकीरों को कोई बर्दाश्त नहीं करता, असल में सच्चे फकीर कहीं भी बर्दाश्त नहीं किए जाते। क्योंकि सच्चे फकीरों की सच्चाई लोगों को काटती है। उनकी सच्चाई से लोगों के झूठ नंगे हो जाते हैं। उनकी सच्चाई से लोगों के मुखौटे गिर जाते हैं। तो तीन गांव, तीन दिन तक रास्ते में पड़े, उन्होंने ठहरने नहीं दिया, रात रुकने नहीं दिया। भोजन-पानी तो दूर गांव के भीतर प्रवेश भी नहीं दिया। और रेगिस्तान की यात्रा, तीन दिन न भोजन मिला, न पानी, हालत बड़ी खराब। और रोज संध्या वह धन्यवाद जारी रहा।

तीसरे दिन शिष्यों ने कहा कि अब बहुत हो गया। जैसे ही फकीर ने कहा : “हे प्रभु! तेरी कृपा अपार है, तेरी अनुकंपा महान है; तू मेरी जरूरतें हमेशा पूरी कर देता है।” तो शिष्यों ने कहा : “अब ज़रा जरूरत से ज्यादा बात हो गई। हम दो दिन से बर्दाश्त कर रहे हैं लेकिन अब हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। न पानी, न रोटी, न सोने की जगह क्या खाक धन्यवाद दे रहे हो! कौन-सी जरूरत पूरी की? हमने तो नहीं देखी, कोई जरूरत पूरी हुई हो।”

उस फकीर ने आंखें खोलीं, उसकी आंखों से आनंद अश्रु बह रहे हैं, वह हंसने लगा। उसने कहा : तुम समझे नहीं। तीन दिन हमारी यही जरूरत थी कि न हमको भोजन मिले, न पानी मिले, न ठहरने का स्थान मिले। क्योंकि वह जो करता है, वह निश्चित ही हमारी जरूरत होगी, कसौटी ले रहा है, परीक्षा ले रहा है। धन्यवाद में कमी नहीं पड़ सकती। उस फकीर ने कहा : वह धन्यवाद क्या? जिस दिन रोटी मिली उस दिन धन्यवाद दिया और जिस दिन नहीं मिली रोटी उस दिन धन्यवाद न दिया वह धन्यवाद क्या? जिसके हाथों से हमने प्यारे फल खाए, उसके हाथों से कड़वे फल भी स्वीकार होने चाहिए। अगर कड़वे फल दे रहा है तो जरूर कुछ इरादा होगा।

जो व्यक्ति परमात्मा पर सारे फल छोड़ देता है उसके जीवन में चिंता नहीं हो सकती। यह सूफी फकीर कभी पागल नहीं हो सकता। असंभव, इसे कैसे पागल करोगे? यह चिंतित नहीं हो सकता, इसे कैसे चिंतित करोगे? इसके भीतर सदा ही गहन शांति बनी रहेगी, अखंड ज्योति जलती रहेगी। लेकिन उपक्रम जारी है। दूसरे दिन सुबह फिर दूसरे द्वार पर गांव के दस्तक दी….उपक्रम जारी है: फिर शरण मांगी जाएगी, फिर भोजन मांगा जाएगा, फिर पानी मांगा जाएगा। उपक्रम जारी है। क्रम जारी रहे, श्रम जारी रहे और फलाकांक्षा परमात्मा के हाथ में हो; तो तुम्हारे जीवन में अद्भुत समन्वय पैदा हो जाता है।

गुरु प्रताप साध की संगती
ओशो
❤❤🙏❤❤
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भोजन


🙏एक होटल से हर रोज़ एक व्यक्ति खाना खाकर बिना पैसे दिये चला जाता था. होटल पर ग्राहकों की भीड़ भी इतनी ज़्यादा होती थी कि एक आदमी का बिना पैसे दिये चले जाना कोई मुश्किल भी नहीं था. जो लोग रोज़ वहाँ खाना खाने आते थे उस व्यक्ति को देख आपस में ज़िक्र करते कि यहाँ ग्राहकों की भीड़ इतनी होती है कि यह रोज बिना पैसे दिये मुफ़्त में खाना खाकर चला जाता है एक दिन किसी ने होटल के मालिक से इस बात की चर्चा की. एक आदमी है जो हर रोज़ आपके होटल से खाना खाकर बिना पैसे दिये चला जाता है आप क्यों नहीं इस तरफ़ ध्यान देते. जो जवाब होटल के मालिक ने दिया शायद उस पर हर कोई विश्वास ना कर पाये :- उसने कहा कि मैं यह सब देख रहा हूँ और जानता भी हूँ कि यह बिना बिल चुकाये खाना खाकर चला जाता है. आप जो इस होटल में ग्राहकों की भीड़ देख रहे हो यह केवल इस व्यक्ति के कारण ही है. क्योंकि यह सुबह से ही यहाँ आकर खड़ा हो जाता है और इन्तज़ार करता है ग्राहकों की उस भीड़ का जिसमें से यह आसानी से खाना खाकर बिना पैसे दिये चला जाये. मेरा यह मानना है कि यह ज़रूर प्रभु से प्रार्थना करता होगा कि ग्राहकों की भीड़ इकट्ठा हो और यह चुपचाप खाना खाकर चला जाये. इसकी इस प्रार्थना की वजह से ही मेरा होटल ग्राहकों से भरा रहता है. मैं कैसे इससे कहूँ कि तुम मुफ़्त में खाना खाकर चले जाते हो..ii
*यह एक बहुत ही गहरी सोच व सीख हो सकती है उस समाज के लिये जो सोचते हैं कि मेरी मेहनत से ही मैं पैसा कमा रहा हूँ जबकि असलियत यह होती है कि कहीं ना कहीं इसमें किसी ना किसी का योगदान प्रार्थना व आशीर्वाद ज़रूर होता है✍🙏

शैलेश नंदवानी

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फ़क़ीर


एक फकीर हुआ गुरजिएफ। एक गांव से निकलता था। कुछ लोगों ने उसे गालियां दीं, अपमान भरे शब्द कहे, अभद्र बातें कहीं। उसने उनकी सारी बातें सुनीं और उनसे कहा कि ‘मैं कल आकर उत्तर दूंगा!’ वे लोग बहुत हैरान हुए, क्योंकि कोई गालियों का उत्तर कल नहीं देता। अगर मैं तुम्हें गाली दूर तो तुम अभी कुछ करोगे। अगर तुम्हारा कोई अपमान करे तो तुम उसी वक्त कुछ करोगे। ऐसा तो कोई भी नहीं कहेगा शांति से कि हम कल आयेंगे और उत्तर देंगे!

गुरजिएफ ने कहा, ‘मैं कल आऊंगा और उत्तर दूंगा। ‘ उन लोगों ने कहा, ‘यह तो बड़ी अजीब बात है! हमने कभी सुनी भी नहीं आज तक। कुछ तो करो, हमने इतना अपमान किया!’ उसने कहा, ‘पहले मैं सोचूं जाकर कि तुमने जो अपमान किया है, कहीं वह ठीक ही तो नहीं है। हो सकता है, तुमने जो बुराइयां मुझमें बतायीं, वे मुझमें हों। और अगर वे मुझमें हैं, तब मैं कल तुम्हें धन्यवाद दूंगा, क्योंकि तुमने अच्छा मेरे ऊपर उपकार किया, मेरे ऊपर कृपा की। और अगर वे मुझमें नहीं हैं, तो मैं निवेदन कर जाऊंगा कि तुम और सोचना; वे बुराइयां मैंने अपने में नहीं पायीं। झगड़े का इसमें कोई कारण नहीं है। ठीक स्थिति में मैं तुम्हें कि तुमने की जो काम मुझे खुद करना चाहिए, वह तुमने कर दिया तो तुम मेरे धन्यवाद दे दूंगा मुझ पर कृपा।। मित्र हो। और दूसरी स्थिति में मैं कह जाऊंगा कि यह मैंने खोजा, मेरे भीतर वे बुराइयां नहीं दिखीं जो तुमने बतायीं, तो तुम और विचार करना। इसमें कोई झगड़े का कारण नहीं है। ‘

वह दूसरे दिन आया और उसने कहा कि ‘तुमने जो बातें कहीं, वे मेरे भीतर हैं। इसलिए मैं धन्यवाद देता हूं। और भी तुम्हें कोई बुराई मुझमें दिखायी पड़े। तो संकोच मत करना, मुझे रोकना और बता देना। ‘

ऐसा व्यक्ति होना चाहिए। ऐसा हमारा चिंतन होना चाहिए। ऐसी हमारी दृष्टि होनी चाहिए। और ऐसा आदमी बहुत दिन तक बुराइयों में नहीं रह सकता, उसका जीवन तो बदल जायेगा। और इतनी सरलता होनी चाहिए। तो ऐसा सरल मनुष्य परमात्मा से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकता। इतनी सरलता चाहिए, इतनी खुमिलिटी होनी चाहिए, इतनी विनम्रता होनी चाहिए मन की, इतना मुक्त मन होना चाहिए कि हम अपनी बुराइयां देख सकें, अपने ठीक—ठीक व्यक्तित्व को देख सकें और झूठे व्यक्तित्व से बचने का साहस कर सकें। नहीं तो सारे लोग करीब—करीब अभिनेता हो जाते हैं। जो उनके भीतर नहीं होता, उसको ओढ़ते हैं। जो नहीं होता है, उसको दिखलाते हैं। और तब यह चित्त जटिल और कठिन होता चला जाता है।

छोटी उम्र से अगर यह बोध तुम्हारे मन में आ जाये कि मुझे अपने भीतर कम से कम अपनी सच्चाई को जानने की सतत चेष्टा में संलग्न रहना चाहिए। जो भी मेरे भीतर है, उसे देखने का मुझमें साहस होना चाहिए। उसे ढाको न, उसे ओढ़ो न, उसे छिपाओ न।

किससे छिपायेंगे हम? दूसरों से छिपा लेंगे, लेकिन खुद से कैसे छिपायेंगे? और जिस बात को हम छिपाते चले जायेंगे, वह जिंदा रहेगी; वह मिटेगी नहीं। उसे उघाड़े और देखें और पहचानें। और जब उसकी पीड़ा अनुभव होगी, तो उसके बदलाहट का विचार, उसको परिवर्तन करने का खयाल, उसे स्वस्थ करने की वृति भी पैदा होगी। और सबसे बड़ी बात है, इस सारी प्रक्रिया में चित्त सरल होता चला जाता है। इस सारी प्रक्रिया में चित्त में एक तरह की अदभुत शांति और सरलता आने लगती है। क्योंकि कुछ छिपाने को नहीं होता है, तो आदमी जटिल नहीं होता है।

और जो व्यक्ति इतना सजग हो कि उसे अहंकार का भाव न पैदा हो कि मैं कुछ हूं खास, उसे ऐसा दिखायी पड़ने लगे—जैसे घास—पात हैं, जैसे वृक्ष हैं, पशु हैं, पक्षी हैं, जैसे और सारी दुनिया है—वैसा मैं हूं। इस सारे विराट जीवन का मैं एक छोटा—सा टुकड़ा, एक अत्यंत छोटा—सा अणु! मेरा होना कोई मूल्य नहीं रखता। मेरे होने का कोई बहुत अर्थ नहीं है। मैं बिलकुल ना—कुछ हूं।

अगर यह खयाल निरंतर बैठता चला जाये, तो एक दिन तुम पाओगे कि तुम्हारा मन दर्पण की भांति निर्दोष हो गया। एक दिन तुम पाओगे कि तुम्हारे हृदय में एक ऐसी शांति आयी है, जो अपूर्व है। एक दिन तुम पाओगे, ऐसा सन्नाटा आया है, जो तुमने कभी नहीं जाना था। एक ऐसा अज्ञात आनंद तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जायेगा, जिसकी तुम्हें अभी कोई भी खबर नहीं है। और उस दिन तुम्हारे जीवन में नये अंकुरण होंगे, तुम्हारा जीवन धीरे—धीरे परमात्मा के जीवन में विकसित होने लगेगा।
ओशो

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मां का घर


माँ का घर
आज भी अनिता को वो दिन याद है ।जब पापा की ह्रदय गति रुकने से अचानक मृत्यु हो गयी थी।उसके बाद तो घर का माहौल ही बदल गया था। बिज़नेस पर बड़े भाई और घर पर भाभी का एक छत्र राज्य शुरू हो गया था।
माँ का तो जैसे किसी ने राजपाठ ही छीन लिया था। कहाँ तो घर के हर छोटे से छोटे और बड़े से बड़े फैसले माँ की मर्जी से ही लिए जाते और अब ये हालात थे कि
पूछना तो क्या कुछ बताना भी जरूरी नही समझा जाता था।
फिर वो दिन भी आ गया जब दोनो भाईयों ने सारी प्रॉपर्टी का बंटवारा करने का फैसला ले लिया।
अनिता का मन आज बहुत ही बेचैन था। कितनी देर हो गयी थी उसको मंदिर में हाथ जोड़ कर भगवान के आगे दुआ मांगते।
शायद भगवान को बार बार यही कह रही थी कि हे प्रभु अगर बेटों के घर मे माँ के लिए जगह नही बची है तो तेरे घर मे तो जगह की कमी नही न। तुम माँ को अपने घर मे ही जगह देदो।उसको अपनी शरण मे ले लो।
अनिता की आंखों से आंसू बह रहे थे और दिमाग में उथल पुथल मची थी।बंटवारे के बाद दोनो भाईयों के अपने अपने घर बन गए थे। उसदिन जब वो माँ को मिलने बड़े भाई के घर गयी थी तो माँ ने बोला,”ये तो तेरे बड़े भाई का घर है न और दूसरा छोटे भाई का। फिर तेरी माँ का घर कौन सा है।सुन कर अनिता के कलेजे में हूक सी उठी थी। कहने को तो उसने माँ का दिल रखने को कह दिया था ,”मम्मी तो क्या हुआ,तुम्हारे तो दोनो ही घर हैं ना।ये तो दुनिया की रीत है जितने बेटे उतने घर।तेरा तो जहां मन करे वहीं रहना अब ठाठ से।
लेकिन इंसान जब सच्चाई से अवगत होता है तो पता चलता है कि सच कितना कड़वा होता है।और दो बेड़ियों में पैर रखने वाला तो हमेशां ही डूबता है।बेटों की बड़ी बड़ी कोठियां तो बन गयी लेकिन उसमे माँ के लिए एक भी अलग कमरा नही बना जहां वो सकून से रह सके।
माँ जिस बेटे के घर भी जाती उसको एक मेहमान समझा जाता कि चलो कुछ दिन रहेंगी फिर तो दूसरे घर ही जाएंगी। माँ को फुटबॉल की तरह कभी इधर तो कभी उधर धकेल दिया जाता।
अनिता का मन तो करता कि वो माँ को अपने साथ रखे लेकिन वो भी ससुराल में रह कर अपनी मजबूरियों से बंधी थी। अब उसको समझ आ रहा था कि ये वृद्धआश्रम क्यों बने हैं।
अनिता को अचानक से लगा कि उसका फोन बज रहा है।भगवान के आगे हाथ जोड़ कर अनिता उठी ये सोचते हुए कि इतनी सुबह किसका फोन होगा।
देखा तो बड़े भाई का फोन था।उसने उठाया तो भाई ने एक ही वाक्य कहा,”माँ चली गयी।
माँ रात को सोई तो सुबह उठी ही नही।
अनिता फोन रख कर रोते रोते फिर से मंदिर में आकर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी।वो जड़ ही हो गयी थी और हैरान थी इस बात से कि आज भगवान ने उसकी प्रार्थना इतनी जल्दी कैसे स्वीकार कर ली थी।
स्वलिखित एवम मौलिक
रीटा मक्कड़

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समय बहुत बलवान


समय बहुत बलवान


व्हाट्सएप से साभार

एक बार अमेरिका में कैलीफोर्निया की सड़कों के किनारे पेशाब करते हुए देख एक बुजुर्ग आदमी को पुलिसवाले पकड़ कर उनके घर लाए और उन्हें उनकी पत्नी के हवाले करते हुए निर्देश दिया कि वो उस शक़्स का बेहतरीन ढंग से ख़याल रखें औऱ उन्हें घर से बाहर न निकलने दें ।

दरअसल वो बुजुर्ग बिना बताए कहीं भी औऱ किसी भी वक़्त घर से बाहर निकल जाते थे और ख़ुद को भी नहीं पहचान पाते थे! बुजुर्ग की पत्नी ने पुलिस वालों को शुक्रिया कहा और अपने पति को प्यार से संभालते हुए कमरे के भीतर ले गईं।

पत्नी उन्हें बार बार समझाती रहीं कि तुम्हें अपना ख्याल रखना चाहिए। ऐसे बिना बताए बाहर नहीं निकल जाना चाहिए। तुम अब बुजुर्ग हो गए हो, साथ ही तुम्हें अपने गौरवशाली इतिहास को याद करने की भी कोशिश करनी चाहिए। तुम्हें ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए जिससे शर्मिंदगी महसूस हो! जिस बुजुर्ग को पुलिस बीच सड़क से पकड़ कर उन्हें उनके घर ले गई थी, वो किसी ज़माने में अमेरिका के जाने-माने फिल्मी हस्ती थे। लोग उनकी एक झलक पाने के लिए तरसते थे। उनकी लोकप्रियता का आलम ये था कि उसी के दम पर वो राजनीति में पहुंचे और दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बनकर उभरे तथा एकदिन वो अमेरिका के राष्ट्रपति बने। नाम था रोनाल्ड रीगन।

1980 में रीगन अमेरिका के राष्ट्रपति बने और पूरे आठ साल दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति रहे। राष्ट्रपति रहते हुए उन पर गोली भी चली। कई दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद जब वो दोबारा व्हाइट हाऊस पहुंचे तो उनकी लोकप्रियता दुगुनी हो चुकी थी। रीगन अपने समय में अमेरिका के सबसे लोकप्रिय नामों में से एक थे। राष्ट्रपति पद से हटने के बाद जब वो अपनी निज़ी नागरिकता में लौटे तो कुछ दिनों तक सब ठीक रहा। पर कुछ दिनों बाद उन्हें अल्जाइमर की शिकायत हुई और धीरे-धीरे वो अपनी याददाश्त खो बैठे। शरीर था। यादें नहीं थीं। वो भूल गए कि एक समय था जब लोग उनकी एक झलक को तरसते थे। वो भूल गए कि उनकी सुरक्षा दुनिया की सबसे बड़ी चिंता थी। रिटायरमेंट के बाद वो सब भूल गए। पर अमेरिका की घटना थी तो बात सबके सामने आ गई कि कभी दुनिया पर राज करने वाला ये शख्स जब यादों से निकल गया तो वो नहीं रहा, जो था। मतलब उसका जीवन होते हुए भी खत्म हो गया था।

ताकतवर से ताकतवर चीज़ की भी एक एक्सपायरी डेट होती है । इसलिए जीवन में कभी किसी चीज़ का अहंकार हो जाए तो श्मशान का एक चक्कर जरुर लगा आना चाहिए , वहाँ एक से बढ़कर एक बेहतरीन शख्सियत राख बने पड़े हैं ।

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मां


मां जी !.आपके बेटे ने मनीआर्डर भेजा है डाकिया बाबू ने एक बुढ़िया माँ जी को देखते अपनी साईकिल रोक दी।

अपने आंखों पर चढ़े चश्मे को उतार आंचल से साफ कर वापस पहनती माँ जी की बूढ़ी आंखों में अचानक एक चमक सी आ गई..

बेटा!.पहले जरा बात करवा दो बूढ़ी माँ ने उम्मीद भरी निगाहों से उसकी ओर देखा लेकिन उसने माँ जी को टालना चाहा..

माँ जी ! इतना टाइम नहीं रहता है मेरे पास कि हर बार आपके बेटे से आपकी बात करवा सकूं… डाकिए ने बुढ़िया को अपनी जल्दबाजी बताना चाहा लेकिन बुढ़िया उससे चिरौरी करने लगी:- बेटा,बस थोड़ी देर की ही तो बात है।

माँ जी आप मुझसे हर बार बात करवाने की जिद ना किया करो!यह कहते हुए वह डाकिया रुपए माँ जी के हाथ में रखने से पहले अपने मोबाइल पर कोई नंबर डायल करने लगा..

लो माँ जी !.बात कर लो लेकिन ज्यादा बात मत करना,पैसे कटते हैं।

उसने अपना मोबाइल बुढ़िया के हाथ में थमा दिया उसके हाथ से मोबाइल ले फोन पर बेटे से हाल-चाल लेती वृद्ध महिला मिनट भर बात कर ही संतुष्ट हो गई। उनके झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान छा गई…

पूरे हजार रुपए हैं, माँ जी ! यह कहते हुए उस डाकिया ने सौ सौ के दस नोट बुढ़िया की ओर बढ़ा दिए रुपए हाथ में ले गिनती करती अम्मा ने उसे ठहरने का इशारा किया:-

अब क्या हुआ माँ जी …?

यह सौ रुपए रख लो बेटा!

क्यों माँ जी ? उसे आश्चर्य हुआ हर महीने रुपए पहुंचाने के साथ-साथ तुम मेरे बेटे से मेरी बात भी करवा देते हो,कुछ तो खर्चा होता होगा ना!

अरे नहीं माँ जी !.रहने दीजिए

वह लाख मना करता रहा लेकिन बुढ़िया ने जबरदस्ती उसकी मुट्ठी में सौ रुपए थमा दिए और वह वहां से वापस जाने को मुड़ गया…..

अपने घर में अकेली रहने वाली वृद्ध महिला भी उसे ढेरों आशीर्वाद देती अपनी देहरी के भीतर चली गई….

डाकिया अभी कुछ कदम ही वहां से आगे बढ़ा था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा..

उसने पीछे मुड़कर देखा तो उस कस्बे में उसके जान पहचान का एक चेहरा सामने खड़ा था।

मोबाइल फोन की दुकान चलाने वाले रामप्रवेश को सामने पाकर वह हैरान हुआ..भाई साहब आप यहां कैसे ?आप तो अभी अपनी दुकान पर होते हैं ना..

मैं यहां किसी से मिलने आया था!.लेकिन मुझे आपसे कुछ पूछना है..रामप्रवेश की निगाहें उस डाकिए के चेहरे पर टिक गई..

जी पूछिए भाई साहब!

भाई!.आप हर महीने ऐसा क्यों करते हैं…?

मैंने क्या किया है भाई साहब…?रामप्रवेश के सवालिया निगाहों का सामना करता वह डाकिया तनिक घबरा गया

हर महीने आप इस बूढ़ी माँ को अपनी जेब से रुपए भी देते हैं और मुझे फोन पर इनसे इनका बेटा बन कर बात करने के लिए भी रुपए देते हैं!.ऐसा क्यों ?

रामप्रवेश का सवाल सुनकर डाकिया थोड़ी देर के लिए सकपका गया! मानो अचानक उसका कोई बहुत बड़ा झूठ पकड़ा गया हो लेकिन अगले ही पल उसने सफाई दी:- मैं रुपए इन्हें नहीं! बल्कि अपनी माँ को देता हूं ।

मैं समझा नहीं….उस डाकिया की बात सुनकर रामप्रवेश हैरान हुआ ।

लेकिन डाकिया ने आगे बताया:- इनका बेटा कहीं बाहर कमाने गया था और हर महीने अपनी माँ के लिए हजार रुपए का मनी ऑर्डर भेजता था लेकिन एक दिन मनी ऑर्डर की जगह इनके बेटे के एक दोस्त की चिट्ठी इन माँ जी के नाम आई थी ,

उस डाकिए की बात सुनते रामप्रवेश को जिज्ञासा हुई…..कैसे चिट्ठी…. ? क्या लिखा था उस चिट्ठी में ?

संक्रमण की वजह से उनके बेटे की जान चली गई! अब वह नहीं रहा।

” फिर क्या हुआ,भाई ? रामप्रवेश की जिज्ञासा दुगनी हो गई लेकिन डाकिए ने अपनी बात पूरी की..हर महीने चंद रुपयों का इंतजार और बेटे की कुशलता की उम्मीद करने वाली इस बुढ़िया को यह बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई!.मैं हर महीने अपनी तरफ से इनका मनीआर्डर ले आता हूंं….

लेकिन यह तो आपकी माँ जी नहीं है ना… ?

मैं भी हर महीने हजार रुपए भेजता था अपनी सगी माँ को!. लेकिन अब मेरी माँ भी कहां रही…यह कहते हुए उस डाकिया की आंखें भर आई…

हर महीने उससे रुपए ले मां से उनका बेटा बनकर बात करने वाला रामप्रवेश उस डाकिया का एक अजनबी मां के प्रति आत्मिक स्नेह देख नि:शब्द रह गया।

रवि कांत

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एक कंपनी में एक मालिक अपने 300 आदमियों के कर्मचारियों से एक हजार इकट्ठा करता था और 5 लाख जमा करता था और उसमें से 5 लाख जोड़ता था और उससे 7 लाख की लॉटरी निकालता था।

इसमें जिसका नाम सामने आता है उसे इनाम के तौर पर 5 लाख मिलते हैं। उस कंपनी में जो महिला मोटाई का काम करती थी उसे पैसों की जरूरत होती थी, उसके बेटे को ऑपरेशन करना पड़ता था। लाटरी जुए का खेल था। अगर उसने यह महसूस नहीं किया तो जाहिर तौर पर उसे हजारों का नुकसान होगा, फिर भी उसने हजारों रुपये का जोखिम उठाया।

वह भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि लॉटरी ही उसे लगे। मैनेजर को उस पर दया आ रही थी। वह यह भी चाहता था कि पुरस्कार उसे दिया जाए। उसने एक चाल चली और अपने नाम की पर्ची पर पीता का नाम लिखकर पर्ची के डिब्बे में डाल दिया और प्रार्थना की कि उसे इनाम मिले।

ऐसे में इस बात की संभावना कम थी कि 300 लोगों में एक नाम गंवाकर उन्हें पुरस्कार मिलेगा। फिर भी उनकी धार्मिक भावनाओं ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। सारी पर्ची जमा करने के बाद लॉटरी ड्रा का समय आ गया है।

बॉस ने एक पर्ची निकाली। नौकरानी और मैनेजर दोनों की धड़कन बढ़ गई। बेसब्री से इंतजार है कि किसका नाम सामने आएगा। एक पल में, बास ने विजेता की घोषणा की और जानता था कि एक चमत्कार हुआ है। वह नाम कामकाजी महिला का था। उसकी आंखों में खुशी के आंसू छलक पड़े। मैनेजर की भी आंखें नम हो गईं। बॉस ने इनामी राशि का कवर नौकरानी को दे दिया। उसने आँखों में आँसू भरकर कहा कि अब मेरे बेटे को कोई डर नहीं है, | मेरे बेटे का ऑपरेशन करा सकता है। सच में | बहुत भाग्यशाली हूँ। मुझ पर ईश्वर की असीम कृपा है।

मैनेजर अमास्ता लॉटरी बॉक्स के बगल में गया और कुछ उर्वरक के लिए, एक और पर्ची देखकर उसकी आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं। दूसरी पर्ची में भी नौकरानी का ही नाम था। तीसरी पर्ची देखकर वे दंग रह गए। तीसरे में उनका भी यही नाम था। फिर उन्होंने एक-एक कर सारी पर्चियाँ देखीं, जिनमें सबका नाम लिखा हुआ था।

उनका सीना गर्व से फूल गया। ऑफिस के तमाम कर्मचारियों ने खामोश रहकर उनकी मदद की. वे लोग हाथ में नगदी देकर लॉटरी निकाले बिना उसकी मदद कर सकते थे, लेकिन उन्होंने उसकी इस तरह मदद नहीं की कि उसे वह पैसा मिले जिसके वह हकदार था।

आइए हमेशा याद रखें …

हम जब भी किसी की मदद करते हैं तो वो खुद को असहाय महसूस नहीं करते और उनका सम्मान बढ़ता है,

इस तरह से मदद करेंगे कि इसे सही मायने में मदद माना जाएगा।

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सर्वगुण संपन्न


(सर्वगुण संपन्न )❤️❤️🤦🤦🤦

कितनी बार कहा है ज्यादा मत बोला कर।ऐसे दांत निकालने का क्या मतलब है? ससुराल जाएगी तो बस हम सबकी नाक कटवा कर ही मानेगी ये लड़की।ये प्रवचन थे हमारी माता जी के हमारे लिए। हां हां ठीक है। नहीं ‌हंसते तुम कहो तो चौबीस घंटे रोते रहें।

ऐ लड़की! हम तो चुप रहते हैं। ससुराल में जब वो लोग ये ढंग देखेंगे तो….. तो क्या? ज्यादा न बोलो चावल बीन रही हो उसे बीनो। तब तक ‌दादी ने भी बहती गंगा में स्नान कर लिया। बहू ये लक्षण कहां से आए इस लड़की में हमारा बेटा तो गाय है। जरुर तुम्हारे गुण आ गये हैं इसके अंदर। मां ने गुस्से से हमें घूरा तो हम उठ कर चल दिए। दोनों सास‌ बहू ‌प्रंचड प्रकोप से निहार रही थी। रिश्ता आया था हमारे लिए। हमें बताया कि लड़का बहुत स्मार्ट है। सुशील है। ऊपर से सरकारी नौकरी है। घर बार बहुत अच्छा है जमीन जायदाद वाले लोग हैं…पर मां हम तो कतई सुशील नहीं हैं। तुमने उन्हें हमारे बारे में बताया? क्या? वही जो तुम कहती रहती हो। बदतमीज, बेवकूफ,गज भर लंबी जुबान और भी जिन गुणों से नवाजा हुआ है तुमने। हां वो सब बता दें। तब तो हो गया रिश्ता तुम्हारा। यहीं पड़ी पड़ी बूढ़ी हो जाओगी। वैसे जाने किस बेचारे के नसीब फूटे होंगे।जो तुम्हें ले जायेगा। शाम को देखने आ रहें हैं। अच्छे से तैयार होना।जो कुछ पूछें गर्दन हिला कर जवाब देना। जितनी जरूरत हो सिर्फ उतना ही बोलना बस। आ गये शाम को। पिता जी काफी कुछ नाश्ता, मिठाई लाए। सब‌ कुछ सजा दिया गया नाश्ता भी और हमें भी।अब हम सुंदर तो थे ही। मां और दादी ने इतनी तारीफ कर दी सोलह कलाओं में निपुण। हमें आश्चर्य हुआ कि ये दोनों कितनी झूठी हैं। हमारे अंदर कितने गुण हैं। हैं🤔🤔 हम तो सर्वगुण सम्पन्न हैं। हमें आज ही पता चला। दोनों सास बहू कितनी बुरी हैं😎😎। फिर हमें लड़के के आगे बिठा दिया। उसने हम से सवाल जवाब किए हमने भी नीचे सिर झुका कर हां ना में जवाब दिए। हमारी दशा बिल्कुल उस बैल जैसी हो गई थी जो हांकने पर मुंडी हिला कर हां ना करता है। लड़के ने हमें कहा आपकी इच्छा क्या‌ है?ऐसे पूछा जैसे आखिरी इच्छा हो? बोलना तो चाह रहे थे कि हमें बोलने दिया जाय।पर चुप‌ रहे। उनके जाने के बाद मां ने बोलीं तुमने ज्यादा तो नहीं बोला। ज्यादा पटर पटर करने से बात बिगड़ सकती है। अरे मां! सच्ची हमने कुछ नहीं बोला।पर कहीं ये हमें ऐसे ही गूंगा तो नहीं बना देंगे। हम ऐसे नहीं रह सकते। पर लड़के वालों ने हां कर दी। कभी कभी मति मारी जाती है। फिर हमारा रिश्ता हुआ और शादी भी। और शादी के बाद हम बोलते रहते हैं । और पतिदेव सुनते रहते हैं। और सुनिए मजे की बात हमारी सासू मां ने भी हमें कुछ तमगों से सम्मानित किया है वो हम यहां नहीं बताना नहीं चाहते।

वैसे एक पते की बात है।कोई हमारे अंदर कितनी भी कमी ढूंढे।पर हमें अपने आप को सर्वगुण संपन्न समझना चाहिए।लोग तो किसी के बारे में अच्छा बोलने से रहे। इसलिए अपने बारे में अच्छा अच्छा सोचिए।अपनी पर्सनल प्रशंशा करते रहना बहुत जरूरी है।हम तो बहुत मितभाषी और मृदुभाषी हैं। फिर भी हमने कभी घमंड नहीं किया।

© रचना कंडवाल

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जन्मदिन


. जन्मदिन,,,,,

आज बन्दर और बन्दरिया के विवाह की वर्षगांठ थी। बन्दरिया बड़ी खुश थी। एक नज़र उसने अपने परिवार पर डाली। तीन प्यारे – प्यारे बच्चे , नाज उठाने वाला साथी , हर सुख-दु:ख में साथ देने वाली बन्दरों की टोली। पर फिर भी मन उदास है।

सोचने लगी – “काश ! मैं भी मनुष्य होती तो कितना
अच्छा होता ! आज केक काटकर सालगिरह मनाते , दोस्तों के साथ पार्टी करते। हाय ! सच में कितना मजा आता !

बन्दर ने अपनी बन्दरिया को देखकर तुरन्त भांप लिया कि इसके दिमाग में जरुर कोई ख्याली पुलाव पक रहा है।

उसने तुरन्त टोका – “अजी , सुनती हो ! ये दिन में सपने देखना बन्द करो। जरा अपने बच्चों को भी देख लो , जाने कहाँ भटक रहे हैं.?

मैं जा रहा हूँ बस्ती में कुछ खाने का सामान लेकर आऊँगा तेरे लिए। आज तुम्हें कुछ अच्छा खिलाने का मन कर रहा है मेरा।

बन्दरिया बुरा सा मुँह बनाकर चल दी अपने बच्चों के पीछे जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था , उसका पारा भी चढ़ रहा था अच्छे पकवान के विषय में सोचती तो मुँह में पानी आ जाता।

पता नहीं मेरा बन्दर आज मुझे क्या खिलाने वाला है ?
अभी तक नहीं आया। जैसे ही उसे अपना बन्दर आता दिखा झट से पहुँच गई उसके पास।

बोली – क्या लाए हो जी ! मेरे लिए। दो ना , मुझे बड़ी भूख लगी है। ये क्या तुम तो खाली हाथ आ गये।

बन्दर ने कहा :– हाँ , कुछ नहीं मिला।
यहीं जंगल से कुछ लाता हूँ।

बन्दरिया नाराज होकर बोली :– नहीं चाहिए मुझे कुछ भी सुबह तो मजनू बन रहे थे , अब साधु क्यों बन गए..??

बन्दर :– अरी भाग्यवान ! जरा चुप भी रह लिया कर।
पूरे दिन किच-किच करती रहती हो।

बन्दरिया :– हाँ – हाँ ! क्यों नहीं , मैं ही ज्यादा बोलती हूँ।
पूरा दिन तुम्हारे परिवार की देखरेख करती हूँ , तुम्हारे बच्चों के आगे-पीछे दौड़ती रहती हूँ। इसने उसकी टांग खींची , उसने इसकी कान खींची , सारा दिन झगड़े सुलझाती रहती हूँ।

बन्दर :– अब बस भी कर , मुँह बन्द करेगी तभी तो मैं कुछ बोलूँगा। गया था मैं तेरे लिए पकवान लाने शर्मा जी की छत पर। रसोई की खिड़की से एक आलू का परांठा झटक भी लिया था मैंने पर तभी शर्मा जी की बड़ी बहू की आवाज़ सुनाई पड़ी . .

अरी अम्मा जी ! अब क्या बताऊँ , ये और बच्चे नाश्ता कर चुके हैं। मैंने भी खा लिया है और आपके लिए भी एक परांठा रखा था मैंने पर खिड़की से बन्दर उठा ले गया। अब क्या करुँ , फिर से चुल्हा चौंका तो नहीं कर सकती मैं। आप देवरानी जी के वहाँ जाकर खा लें।

अम्मा ने रुँधाए से स्वर में कहा :- – पर मुझे दवा खानी है , बेटा.!

बहू ने तुरन्त पलटकर कहा :– तो मैं क्या करुँ.? अम्मा जी ! वैसे भी आप शायद भूल गयीं हैं आज से आपको वहीं खाना है। एक महीना पूरा हो गया है आपको मेरे यहाँ खाते हुए।

देवरानी जी तो शुरु से ही चालाक है वो नहीं आयेंगी
आपको बुलाने। पर तय तो यही हुआ था कि एक महीना आप यहाँ खायेंगी और एक महीना वहाँ।

अम्मा जी की आँखों में आँसू थे , वे बोल नहीं पा रहीं थीं।

बड़ी बहू फिर बोली :– ठीक है , अभी नहीं जाना चाहती तो रुक जाईये। मैं दो घण्टे बाद दोपहर का भोजन बनाऊँगी तब खा लीजिएगा।

बन्दर ने बन्दरिया से कहा :– भाग्यवान ! मुझसे यह सब देखा नहीं गया और मैंने परांठा वहीं अम्मा जी के सामने गिरा दिया।

बन्दरिया की आँखों से आँसू बहने लगे। उसे अपने बन्दर पर बड़ा गर्व हो रहा था और बोली :– ऐसे घर का अन्न हम नहीं खायेंगे जहाँ माँ को बोझ समझते हैं। अच्छा हुआ जो हम इन्सान नहीं हुए। हम जानवर ही ठीक हैं।।
जय महादेव
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वीरभद्र आर्य