एक बच्चा दोपहर में नंगे पैर फूल बेच रहा था। लोग मोलभाव कर रहे थे। एक सज्जन ने उसके पैर देखे; बहुत दुःख हुआ। वह भागकर गया, पास ही की एक दुकान से बूट लेकर के से आया और कहा-बेटा! बूट पहन ले। लड़के ने फटाफट बूट पहने, बड़ा खुश हुआ आदमी का हाथ पकड़ के कहने लगा-आप भगवान हो। वह आदमी घबराकर बोलानहीं…नहीं…बेटा ! मैं भगवान नहीं। फिर लड़का बोला-जरूर आप भगवान के दोस्त होंगे, क्योंकि मैंने कल रात ही भगवान को अरदास की थी कि भगवानजी, मेरे पैर बहुत जलते हैं। मुझे बूट लेकर के दो। वह आदमी आंखों में पानी लिये मुस्कराता हुआ चला गया, पर वो जान गया था कि भगवान का दोस्त बनना ज्यादा मुश्किल नहीं है। कुदरत ने दो रास्ते बनाए हैं.देकर जाओ या छोड़कर जाओ
अपेक्षा से भरा हुआ चित्त निश्चित ही दुखी होगा। मैंने सुना है कि एक आदमी बहुत उदास और दुखी बैठा है। उसकी एक बड़ी होटल है। बहुत चलती हुई होटल है। और एक मित्र उससे पूछता है कि तुम इतने दुखी और उदास क्यों दिखाई पड़ते हो कुछ दिनों से? कुछ धंधे में कठिनाई, अड़चन है? उसने कहा, बहुत अड़चन है। बहुत घाटे में धंधा चल रहा है। मित्र ने कहा, समझ में नहीं आता, क्योंकि इतने मेहमान आते-जाते दिखाई पड़ते हैं! और रोज शाम को जब मैं निकलता हूं तो तुम्हारे दरवाजे पर होटल के तख्ती लगी रहती है नो वेकेंसी को, कि अब और जगह नहीं है, तो धंधा तो बहुत जोर से चल रहा है! उस आदमी ने कहा, तुम्हें कुछ पता नहीं। आज से पंद्रह दिन पहले जब सांझ को हम नो वेकेंसी की तख्ती लटकाते थे, तो उसके बाद कम से कम पचास आदमी और द्वार खटखटाते थे। अब सिर्फ दस पंद्रह ही आते हैं। पचास आदमी लौटते थे पंद्रह दिन पहले; जगह नहीं मिलती थी। अब सिर्फ दस पंद्रह ही लौटते हैं। धंधा बड़ा घाटे में चल रहा है। मैं एक घर में मेहमान था। गृहिणी ने मुझे कहा कि आप मेरे पति को समझाइए कि इनको हो क्या गया है। बस, निरंतर एक ही चिंता में लगे रहते हैं कि पांच लाख का नुकसान हो गया। पत्नी ने मुझे कहा कि मेरी समझ में नहीं आता कि नुकसान हुआ कैसे! नुकसान नहीं हुआ है। मैंने पति को पूछा। उन्होंने कहा, हुआ है नुकसान, दस लाख का लाभ होने की आशा थी, पांच का ही लाभ हुआ है। नुकसान निश्चित हुआ है। पांच लाख बिलकुल हाथ से गए। अपेक्षा से भरा हुआ चित्त, लाभ हो तो भी हानि अनुभव करता है। साक्षीभाव से भरा हुआ चित्त, हानि हो तो भी लाभ अनुभव करता है। क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं किया, और जितना भी मिल गया, वह भी परमकृपा है, वह भी अस्तित्व का अनुदान है। कठोपनिषद ओशो
सनकादि ऋषियों के शाप के कारण भगवान विष्णु के पार्षद जय एवं विजय को दैत्ययोनि में जन्म लेना पड़ा था।
महर्षि कश्यप की पत्नी दक्षपुत्री दिति के गर्भ से दो महान पराक्रमी बालकों का जन्म हुआ। इनमें से बड़े का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे का नाम हिरण्याक्ष था।
दोनों भाइयों में बड़ी प्रीति थी। दोनों ही महाबलशाली, अमित पराक्रमी और आत्मबल संपन्न थे। दोनों भाइयों ने युद्ध में देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया।
एक समय जब हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को रसातल में ले जाकर छिपा दिया तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी की रक्षा के लिए हिरण्याक्ष का वध किया।
अपने प्रिय भाई हिरण्याक्ष के वध से दुखी होकर हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को प्रजा पर अत्याचार करने की आज्ञा देकर स्वयं महेन्द्राचल पर्वत पर चला गया।
वह भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करने लगा।
इधर दैत्यों के राज्य को राजाविहीन देखकर देवताओं ने उनपर आक्रमण कर दिया। दैत्यगण इस युद्ध में पराजित हुए और पाताललोक को भाग गए।
देवराज इन्द्र ने हिरण्यकशिपु के महल में प्रवेश करके उसकी पत्नी कयाधु को बंदी बना लिया। उस समय कयाधु गर्भवती थी, इसलिए इन्द्र उसे साथ लेकर अमरावती की ओर जाने लगे।
रास्ते में उनकी देवर्षि नारद से भेंट हो गयी। नारद जी ने पुछा – ” देवराज ! इसे कहाँ ले जा रहे हो ? “
इन्द्र ने कहा – ” देवर्षे ! इसके गर्भ में हिरण्यकशिपु का अंश है, उसे मार कर इसे छोड़ दूंगा। “
यह सुनकर नारदजी ने कहा – ” देवराज ! इसके गर्भ में बहुत बड़ा भगवद्भक्त है, जिसे मारना तुम्हारी शक्ति के बाहर है, अतः इसे छोड़ दो। “
नारदजी के कथन का मान रखते हुए इन्द्र ने कयाधु को छोड़ दिया और अमरावती चले गए।
नारदजी कयाधु को अपने आश्रम पर ले आये और उससे बोले – ” बेटी ! तुम यहाँ आराम से रहो जब तक तुम्हारा पति अपनी तपस्या पूरी करके नहीं लौटता। “
कयाधु उस पवित्र आश्रम में नारदजी के सुन्दर प्रवचनों का लाभ लेती हुई सुखपूर्वक रहने लगी जिसका गर्भ में पल रहे शिशु पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।
समय होने पर कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया।
इधर हिरण्यकशिपु की तपस्या पूरी हुई और वह ब्रह्माजी से मनचाहा वरदान लेकर वापस अपनी राजधानी चला आया।
कुछ समय के बाद कयाधु भी प्रह्लाद को लेकर नारदजी के आश्रम से राजमहल में आ गयी।
भक्त प्रह्लाद की लीला:- जब प्रह्लाद कुछ बड़े हुए तब हिरण्यकशिपु ने उनके शिक्षा की व्यवस्था की। प्रह्लाद गुरु के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण करने लगे।
एक दिन हिरण्यकशिपु अपने मंत्रियों के साथ सभा में बैठा हुआ था। उसी समय प्रह्लाद अपने गुरु के साथ वहाँ गए।
प्रह्लाद को प्रणाम करते देखकर हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी गोद में बिठाकर दुलार किया और कहा –
” वत्स ! तुमने अब तक अध्ययन में निरंतर तत्पर रहकर जो कुछ सीखा है, उसमें से कुछ अच्छी बात सुनाओ। “
तब प्रह्लाद बोले – ” पिताजी ! मैंने अब तक जो कुछ सीखा है उसका सारांश आपको सुनाता हूँ। जो आदि, मध्य और अंत से रहित, अजन्मा, वृद्धि-क्षय से शुन्य और अच्युत हैं, समस्त कारणों के कारण तथा जगत के स्थिति और अन्तकर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ। “
यह सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे, उसने कांपते हुए होठों से प्रह्लाद के गुरु से कहा –
” अरे दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा करके इस बालक को मेरे परम शत्रु की स्तुति से युक्त शिक्षा कैसे दी ? “
गुरूजी ने कहा – ” दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत नहीं होना चाहिए। आपका पुत्र मेरी सिखाई हुई बात नहीं कह रहा है। “
हिरण्यकशिपु बोला – ” बेटा प्रह्लाद ! बताओ तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरूजी कहते हैं कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया ही नहीं है। “
प्रह्लाद बोले – ” पिताजी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक हैं। उनको छोड़कर और कौन किसी को कुछ सीखा सकता है। “
हिरण्यकशिपु बोला – ” अरे मूर्ख ! जिस विष्णु का तू निश्शंक होकर स्तुति कर रहा है, वह मेरे सामने कौन है ? मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौत के मुख में जाने की इच्छा से बार-बार ऐसा बक रहा है। “
ऐसा कहकर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को अनेकों प्रकार से समझाया पर प्रह्लाद के मन से श्रीहरि के प्रति भक्ति और श्रद्धाभाव को कम नहीं कर पाया। तब अत्यंत क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपने सेवकों से कहा –
” अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है। इसको मार डालो। अब इसके जीने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि यह शत्रुप्रेमी तो अपने कुल का ही नाश करने वाला हो गया है। “
हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर उसके सैनिकों ने प्रह्लाद को अनेकों प्रकार से मारने की चेष्टा की पर उनके सभी प्रयास श्रीहरि की कृपा से असफल हो जाते थे।
उन सैनिकों ने प्रह्लाद पर अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से आघात किये पर प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। उन्होंने प्रह्लाद के हाथ-पैर बाँधकर समुद्र में डाल दिया पर प्रह्लाद फिर भी बच गए।
उन सबने प्रह्लाद को अनेकों विषैले साँपों से डसवाया और पर्वत शिखर से गिराया पर भगवद्कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ।
रसोइयों के द्वारा विष मिला हुआ भोजन देने पर प्रह्लाद उसे भी पचा गए।
होलिका दहन जब प्रह्लाद को मारने के सब प्रकार के प्रयास विफल हो गए तब हिरण्यकशिपु के पुरोहितों ने अग्निशिखा के समान प्रज्ज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्न कर दी।
उस अति भयंकरी कृत्या ने अपने पैरों से पृथ्वी को कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोध से प्रह्लाद जी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया। पर उस बालक के छाती में लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर नीचे गिर पड़ा।
उन पापी पुरोहितों ने उस निष्पाप बालक पर कृत्या का प्रयोग किया था। इसलिए कृत्या ने तुरंत ही उन पुरोहितों पर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गई।
अन्य प्रचलित कथाओं के अनुसार कृत्या के स्थान पर होलिका का नाम आता है जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था।
होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गयी पर ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ और होलिका जल कर भस्म हो गई।
भगवान का नृसिंह अवतार:- हिरण्यकशिपु के दूतों ने उसे जब यह समाचार सुनाया तो वह अत्यंत क्षुब्ध हुआ और उसने प्रह्लाद को अपनी सभा में बुलवाया।
हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से कहा – ” रे दुष्ट ! जिसके बल पर तू ऐसी बहकी बहकी बातें करता है, तेरा वह ईश्वर कहाँ है ? वह यदि सर्वत्र है तो मुझे इस खम्बे में क्यों नहीं दिखाई देता ? “
तब प्रह्लाद ने कहा – ” मुझे तो वे प्रभु खम्बे में भी दिखाई दे रहे हैं। “
यह सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध के मारे स्वयं को संभाल नहीं सका और हाथ में तलवार लेकर सिंघासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खम्बे में एक घूँसा मारा।
उसी समय उस खम्बे से बड़ा भयंकर शब्द हुआ और उस खम्बे को तोड़कर एक विचित्र प्राणी बाहर निकलने लगा जिसका आधा शरीर सिंह का और आधा शरीर मनुष्य का था।
यह भगवान श्रीहरि का नृसिंह अवतार था। उनका रूप बड़ा भयंकर था।
उनकी तपाये हुए सोने के समान पीली पीली आँखें थीं, उनकी दाढ़ें बड़ी विकराल थीं और वे भयंकर शब्दों से गर्जन कर रहे थे। उनके निकट जाने का साहस किसी में नहीं हो रहा था।
यह देखकर हिरण्यकशिपु सिंघनाद करता हुआ हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा।
तब भगवान भी हिरण्यकशिपु के साथ कुछ देर तक युद्ध लीला करते रहे और अंत में उसे झपटकर दबोच लिया और उसे सभा के दरवाजे पर ले जाकर अपनी जांघों पर गिरा लिया और खेल ही खेल में अपनी नखों से उसके कलेजे को फाड़कर उसे पृथ्वी पर पटक दिया।
फिर वहाँ उपस्थित अन्य असुरों और दैत्यों को खदेड़ खदेड़ कर मार डाला। उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की ऊँची सिंघासन पर विराजमान हो गए।
उनकी क्रोधपूर्ण मुखाकृति को देखकर किसी को भी उनके निकट जाकर उनको प्रसन्न करने का साहस नहीं हो रहा था।
हिरण्यकशिपु की मृत्यु का समाचार सुनकर उस सभा में ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर, सभी देवगण, ऋषि-मुनि, सिद्ध, नाग, गन्धर्व आदि पहुँचे और थोड़ी दूरी पर स्थित होकर सभी ने अंजलि बाँध कर भगवान की अलग-अलग से स्तुति की पर भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ।
तब देवताओं ने माता लक्ष्मी को उनके निकट भेजा पर भगवान के उग्र रूप को देखकर वे भी भयभीत हो गयीं।
तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा – ” बेटा ! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान क्रुद्ध हुए थे, अब तुम्ही जाकर उनको शांत करो। “
तब प्रह्लाद भगवान के समीप जाकर हाथ जोड़कर साष्टांग भूमि पर लोट गए और उनकी स्तुति करने लगे।
बालक प्रह्लाद को अपने चरणों में पड़ा देखकर भगवान दयार्द्र हो गए और उसे उठाकर गोद में बिठा लिया और प्रेमपूर्वक बोले –
” वत्स प्रह्लाद ! तुम्हारे जैसे एकांतप्रेमी भक्त को यद्यपि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती पर फिर भी तुम केवल एक मन्वन्तर तक मेरी प्रसन्नता के लिए इस लोक में दैत्याधिपति के समस्त भोग स्वीकार कर लो।
भोग के द्वारा पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे। “
यह कहकर भगवान नृसिंह वहीँ अंतर्ध्यान हो गए।
विष्णु पुराण में पराशर जी कहते हैं – ” भक्त प्रह्लाद की कहानी को जो मनुष्य सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी और द्वादशी को इसे पढ़ने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है।
जिस प्रकार भगवान ने प्रह्लाद जी की सभी आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता है। “
एक शिक्षक ने क्लास के सभी बच्चों को एक एक खूबसूरत टॉफ़ी दी और फिर कहा…”बच्चो ! आप सब को दस मिनट तक अपनी टॉफ़ी नहीं खानी है और ये कहकर वो क्लास रूम से बाहर चले गए।”
कुछ पल के लिए क्लास में सन्नाटा छाया रहा, हर बच्चा उसके सामने पड़ी टॉफ़ी को देख रहा था और हर गुज़रते पल के साथ उन्हें खुद को रोकना मुश्किल हो रहा था।
दस मिनट पूरे हुए और वो शिक्षक क्लास रूम में आ गए। समीक्षा की। पूरे वर्ग में सात बच्चे थे, जिनकी टाफियाँ जस की तस थी,जबकि बाकी के सभी बच्चे टॉफ़ी खाकर उसके रंग और स्वाद पर टिप्पणी कर रहे थे।
शिक्षक ने चुपके से इन सात बच्चों के नाम को अपनी डायरी में दर्ज कर लिए और नोट करने के बाद पढ़ाना शुरू किया।
इस शिक्षक का नाम प्रोफेसर वाल्टर मशाल था।
कुछ वर्षों के बाद प्रोफेसर वाल्टर ने अपनी वही डायरी खोली और सात बच्चों के नाम निकाल कर उनके बारे में खोज बीन शुरू किया।
काफ़ी मेहनत के बाद , उन्हें पता चला कि सातों बच्चों ने अपने जीवन में कई सफलताओं को हासिल किया है और अपने अपने क्षेत्र में सबसे सफल साबित हुए है।
प्रोफेसर वाल्टर ने अपने बाकी वर्ग के छात्रों की भी समीक्षा की और उन्हें यह पता चला कि उनमें से ज्यादातर एक आम जीवन जी रहे थे, जबकी कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें सख्त आर्थिक और सामाजिक मुश्किलों का सामना करना पड रहा था।
इस सभी प्रयास और शोध का परिणाम प्रोफेसर वाल्टर ने एक वाक्य में निकाला और वह यह था….” जो आदमी दस मिनट तक धैर्य नहीं रख सकता, वह संभवतः अपने जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकता…. ”!!
इस शोध को दुनिया भर में शोहरत मिली और इसका नाम “मार्श मेलो थ्योरी” रखा गया था क्योंकि प्रोफेसर वाल्टर ने बच्चों को जो टॉफ़ी दी थी उसका नाम “मार्श मेलो” था। यह फोम की तरह नरम थी।
इस थ्योरी के अनुसार दुनिया के सबसे सफल लोगों में कई गुणों के साथ एक गुण ‘धैर्य’ पाया जाता है, क्योंकि यह ख़ूबी इंसान के बर्दाश्त की ताक़त को बढ़ाती है,जिसकी बदौलत आदमी कठिन परिस्थितियों में निराश नहीं होता और वह एक असाधारण व्यक्तित्व बन जाता है।
अतः धैर्य कठिन परिस्थितियों में व्यक्ति की सहनशीलता की अवस्था है जो उसके व्यवहार को क्रोध या खीझ जैसी नकारात्मक अभिवृत्तियों से बचाती है। दीर्घकालीन समस्याओं से घिरे होने के कारण व्यक्ति जो दबाव या तनाव अनुभव करने लगता है , उसको सहन कर सकने की क्षमता भी धैर्य का एक उदाहरण है। वस्तुतः धैर्य नकारात्मकता से पूर्व सहनशीलता का एक स्तर है। यह व्यक्ति की चारित्रिक दृढ़ता का परिचायक भी है। हमारे मनीषियों ने भी इसीलिये कहा :
न धैर्येण बिना लक्ष्मी- र्न शौर्येण बिना जयः। न ज्ञानेन बिना मोक्षो न दानेन बिना यशः॥
धैर्य के बिना धन, वीरता के बिना विजय, ज्ञान के बिना मोक्ष और दान के बिना यश प्राप्त नहीं होता है॥
खचाखच भरी बस में कंडक्टर को एक गिरा हुआ बटुआ मिला जिसमे एक पांच सौ का नोट और भगवान् कृष्ण की एक फोटो थी. वह जोर से चिल्लाया , ” अरे भाई! किसी का बटुआ गिरा है क्या?”
अपनी जेबें टटोलने के बाद सीनियर सिटीजन सीट पर बैठा एक आदमी बोला, “हाँ, बेटा शायद वो मेरा बटुआ होगा… जरा दिखाना तो.”
“दिखा दूंगा- दिखा दूंगा, लेकिन चाचाजी पहले ये तो बताओ कि इसके अन्दर क्या-क्या है?”
“कुछ नहीं इसके अन्दर थोड़े पैसे हैं और मेरे कृष्णा की एक फोटो है.”, चाचाजी ने जवाब दिया.
“पर कृष्णा की फोटो तो किसी के भी बटुए में हो सकती है, मैं कैसे मान लूँ कि ये आपका है.”, कंडक्टर ने सवाल किया.
अब चाचाजी उसके बगल में बैठ गए और बोले, “बेटा ये बटुआ तब का है जब मैं हाई स्कूल में था. जब मेरे बाबूजी ने मुझे इसे दिया था तब मेरे कृष्णा की फोटो इसमें थी.
लेकिन मुझे लगा कि मेरे माँ-बाप ही मेरे लिए सबकुछ हैं इसलिए मैंने कृष्णा की फोटो के ऊपर उनकी फोटो लगा दी…
जब युवा हुआ तो लगा मैं कितना हैंडसम हूँ और मैंने माँ-बाप के फोटो के ऊपर अपनी फोटो लगा ली…
फिर मुझे एक लड़की से प्यार हो गया, लगा वही मेरी दुनिया है, वही मेरे लिए सबकुछ है और मैंने अपनी फोटो के साथ-साथ उसकी फोटो लगा ली… सौभाग्य से हमारी शादी भी हो गयी.
कुछ दिनों बाद मेरे बेटे का जन्म हुआ, इतना खुश मैं पहले कभी नहीं हुआ था…सुबह-शाम, दिन-रात मुझे बस अपने बेटे का ही ख़याल रहता था…
अब इस बटुए में मैंने सबसे ऊपर अपने बेटे की फोटो लगा ली…
पर अब जगह कम पड़ रही थी, सो मैंने कृष्णा और अपने माँ-बाप की फोटो निकाल कर बक्से में रख दी…
और विधि का विधान देखो, फोटो निकालने के दो-चार साल बाद माता-पिता का देहांत हो गया… और दुर्भाग्यवश उनके बाद मेरी पत्नी भी एक लम्बी बीमारी के बाद मुझे छोड़ कर चली गयी.
इधर बेटा बड़ा हो गया था, उसकी नौकरी लग गयी, शादी हो गयी…बहु-बेटे को अब ये घर छोटा लगने लगा, उन्होंने अपार्टमेंट में एक फ्लैट ले लिया और वहां चले गए.
अब मैं अपने उस घर में बिलकुल अकेला था जहाँ मैंने तमाम रिश्तों को जीते-मरते देखा था…
पता है, जिस दिन मेरा बेटा मुझे छोड़ कर गया, उस दिन मैं बहुत रोया… इतना दुःख मुझे पहले कभी नहीं हुआ था…कुछ नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या करूँ और तब मेरी नज़र उस बक्से पर पड़ी जिसमे सालों पहले मैंने कृष्णा की फोटी अपने बटुए से निकाल कर रख दी थी…
मैंने फ़ौरन वो फोटो निकाली और उसे अपने सीने से चिपका ली…अजीब सी शांति महसूस हुई…लगा मेरे जीवन में तमाम रिश्ते जुड़े और टूटे… लेकिन इन सबके बीच में मेरे भगवान् से मेरा रिश्ता अटूट रहा… मेरा कृष्णा कभी मुझसे रूठा नहीं…
और तब से इस बटुए में सिर्फ मेरे कृष्णा की फोटो है और किसी की भी नहीं… और मुझे इस बटुए और उसमे पड़े पांच सौ के नोट से कोई मतलब नहीं है, मेरा स्टॉप आने वाला है…तुम बस बटुए की फोटो मुझे दे दो…मेरा कृष्णा मुझे दे दो…
कंडक्टर ने फौरन बटुआ चाचाजी के हाथ में रखा और उन्हें एकटक देखता रह गया.
घटना उन दिनोंकी है जब भारतपर चंद्रगुप्त मौर्यका शासन था और आचार्य चाणक्य यहांके महामन्त्री थे और चन्द्रगुप्तके गुरु भी थे । उन्हींके मार्गदर्शनमें चंद्रगुप्तने भारतकी सत्ता प्राप्त की थी ।
चाणक्य अपनी योग्यता और कर्तव्यपालनके लिए देश विदेशमें प्रसिद्ध थे । उन दिनों एक चीनी यात्री भारत आया । यहां भ्रमण करते हुए जब वह पाटलिपुत्र पहुंचा तो उसकी इच्छा चाणक्यसे मिलनेकी हुई । उनसे मिले बिना उसे अपनी भारतयात्रा अपूर्ण प्रतीत हुई । पाटलिपुत्र उन दिनों मौर्य वंशकी राजधानी थी ।
वहीं चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य भी रहते थे; परन्तु उनके रहनेका पता उस यात्रीको नहीं था; अतएव पाटलिपुत्रमें प्रातःकाल भ्रमण करते वह गंगा किनारे पहुंचा ।
यहां उसने एक वृद्धको देखा जो स्नान करके अब अपनी धोती धो रहा था । वह सांवले रंगका साधारण व्यक्ति लग रहा था; परन्तु उसके मुखपर गम्भीरता थी । उसके लौटनेकी प्रतीक्षामें यात्री एक ओर खडा हो गया । वृद्धने धोती धोकर अपने घडेमें पानी भरा और वहांसे चल दिया । जैसे ही वह यात्रीके निकट पहुंचा, यात्रीने आगे बढकर भारतीय शैलीमें हाथ जोडकर प्रणाम किया और बोला, “महोदय मैं चीनका निवासी हूं, भारतमें बहुत घूमा हूं, यहांके महामन्त्री आचार्य चाणक्यके दर्शन करना चाहता हूं । क्या आप मुझे उनसे मिलनेका पता बता पाएंगे ?” वृद्धने यात्रीका प्रणाम स्वीकार किया और आशीर्वाद दिया । तत्पश्चात उसपर एक दृष्टि डालते हुए बोला, “अतिथिकी सहायता करके मुझे प्रसन्नता होगी, आप कृपया मेरे साथ चलें !”
तत्पश्चात आगे-आगे वह वृद्ध और पीछे-पीछे वह यात्री चल दिए । वह मार्ग नगरकी ओर न जाकर वनकी ओर जा रहा था । यात्रीको आशंका हुई कि वह वृद्ध उसे किसी सन्दिग्ध स्थानपर तो नहीं ले जा रहा है ? तत्पश्चात भी उस वृद्धकी रुष्टताके भयसे वह कुछ कह नहीं पाया । वृद्धके मुखपर गम्भीरता और तेज इतना था कि चीनी यात्री उसके सम्मुख स्वयंकी हीनताका आभास कर रहा था । उसे इस बातकी भली भांति जानकारी थी कि भारतमें अतिथियोंके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है और सम्पूर्ण भारतमें चाणक्य और सम्राट चंद्रगुप्तका इतना प्रभाव था कि कोई अपराध करनेका साहस नहीं कर सकता था; इसलिए वह अपनी सुरक्षाके प्रति निश्चिन्त था । वह यही सोच रहा था कि चाणक्यके निवास स्थानमें पहुंचनेके लिए ये छोटा मार्ग होगा !
वृद्ध लम्बे-लम्बे डग भरते हुए तीव्रतासे चल रहा था । चीनी यात्रीको उसके साथ चलनेमें असुविधा हो रही थी; अतः वह पिछडने लगा । वृद्धको उस यात्रीकी व्यथाका भान हो गया; अतः वह धीरे-धीरे चलने लगा । अब चीनी यात्री सुविधासे उसके साथ चलने लगा । सम्पूर्ण मार्गमें वे प्रायः मौन ही आगे बढते रहे । कुछ देर पश्चात वृद्ध एक आश्रमके निकट पहुंचा जहां चारों ओर शान्ति थी, विभिन्न प्रकारके फूल पत्तियोंसे आश्रम आच्छादित था । वृद्ध वहां पहुंचकर रुका और यात्रीको वहीं किंचित समय प्रतीक्षा करनेके लिए कहकर आश्रममें चला गया । यात्री सोचने लगा कि वह वृद्ध सम्भवतः इसी आश्रममें रहता होगा और अब पानीका घडा और भीगे वस्त्र रखकर कहीं आगे चलेगा ।
कुछ क्षण उपरान्त यात्रीने सुना, “महामन्त्री चाणक्य अपने अतिथिका स्वागत करते हैं, पधारिए महोदय !” यात्रीने दृष्टि उठाई और देखता रह गया ! वही वृद्ध आश्रमके द्वारपर खडा उसका स्वागत कर रहा था । उसके मुंहसे आश्चर्यसे निकल पडा “आप ?”
“हां महोदय”, वृद्ध बोला “मैं ही महामन्त्री चाणक्य हूं और यही मेरा निवास स्थान है । आप निश्चिन्त होकर आश्रममें पधारें !”
यात्रीने आश्रममें प्रवेश किया; परन्तु उसके मनमें यह आशंका बनी रही कि कहीं उसे मूर्ख तो नहीं बनाया जा रहा है ! वह इस बातपर विश्वास ही नहीं कर पा रहा था कि एक महामन्त्री इतनी सरलताका जीवन व्यतीत करता है । नदीपर एकाकी (अकेले) ही पैदल स्नानके लिए जाना । वहांसे स्वयं ही अपने वस्त्र धोना, घडा भरकर लाना और राजधानीसे दूर आश्रममें रहना, यह सब चाणक्य जैसे विश्वप्रसिद्ध व्यक्तिकी ही दिनचर्या है ! उसने आश्रममें इधर-उधर देखा । साधारण सा कक्ष एवं सामग्री थी । एक कोनेमें उपलोंका ढेर लगा हुआ था । वस्त्र सुखानेके लिए बांस टंगा हुआ था । दूसरी ओर मसाला पीसनेके लिए सील बट्टा रखा हुआ था । कहीं कोई राजसी ठाट-बाट नहीं था । चाणक्यने यात्रीको अपनी कुटियामें ले जाकर आदर सहित आसनपर बैठाया और उसके सामने दूसरे आसनपर बैठ गए ।
यात्रीके मुखपर बिखरे हुए भाव समझते हुए चाणक्य बोले, “महोदय, सम्भवतः आप विश्वास नहीं कर पा रहे हैं कि इस विशाल राज्यका महामन्त्री मैं ही हूं तथा यह आश्रम ही महामन्त्रीका मूल निवास स्थान है । विश्वास कीजिए ये दोनों ही बातें सत्य हैं ।”
“कदाचित आप भूल रहे हैं कि आप भारतमें है, जहां कर्तव्यपालनको महत्त्व दिया जा रहा है, बाह्य आडम्बरको नहीं । यदि आपको राजसी भव्यता देखना है तो आप सम्राटके निवास स्थानपर पधारें, राज्यका स्वामी और उसका प्रतीक सम्राट होता है, महामन्त्री नहीं ।”
चाणक्यकी बातें सुनकर चीनी यात्रीको स्वयंपर लज्जा आई कि उसने व्यर्थ ही चाणक्य और उनके निवास स्थानके बारेमें शंका की ।
संयोगसे उसी समय वहां सम्राट चंद्रगुप्त अपने कुछ कर्मचारियोंके साथ आ गए । उन्होंने अपने गुरुके चरण स्पर्श किए और कहा, “गुरुदेव राजकार्यके सम्बन्धमें आपसे कुछ मार्गदर्शन लेना था; इसलिए उपस्थित हुआ हूं ।”
इसपर चाणक्यने आशीर्वाद देते हुए कहा, “उस सम्बन्धमें हम किसी और समय बात कर लेंगे, अभी तो तुम हमारे अतिथिसे मिलो, यह चीनी यात्री हैं । इन्हें तुम अपने राजभवन ले जाओ । इनका भली-भांति स्वागत करो और तत्पश्चात सन्ध्याको भोजनके उपरान्त इन्हें मेरे पास ले आना, तब इनसे बातें करेंगे ।” सम्राट चंद्रगुप्त आचार्यको प्रणाम करके यात्रीको अपने साथ लेकर लौट गए । सन्ध्याको चाणक्य किसी राजकीय विषयपर चिन्तन करते हुए कुछ लिखनेमें व्यस्त थे । सामने ही दीपक जल रहा था । चीनी यात्रीने चाणक्यको प्रणाम किया और एक ओर बिछे आसनपर बैठ गया । चाणक्यने अपनी लेखन सामग्री एक ओर रख दी और दीपक बुझाकर दूसरा दीपक जला दिया । इसके उपरान्त चीनी यात्रीको सम्बोधित करते हुए बोले, “महोदय, हमारे देशमें आप पर्याप्त भ्रमण कर चुके हैं । कैसा लगा आपको यह देश ?” चीनी यात्री नम्रतासे बोला, “आचार्य, मैं इस देशके वातावरण और निवासियोंसे अत्यन्त प्रभावित हुआ हूं; परन्तु यहांपर मैंने ऐसी अनेक विचित्रताएं भी देखीं हैं जो मेरी समझसे परे हैं ।”
“कौनसी विचित्रताएं, मित्र ?” चाणक्यने स्नेहसे पूछा ।
“उदाहरणके लिए सरलताकी (सादगी) ही बात की जा सकती है । इतने बडे राज्यके महामन्त्रीका जीवन इतनी सरलता भरा होगा, इसकी तो कल्पना भी हम विदेशी नहीं कर सकते,” ऐसा कहकर चीनी यात्रीने अपनी बात आगे बढाई, “अभी-अभी एक और विचित्रता मैंने देखी है आचार्य, आज्ञा हो तो कहूं ?” “अवश्य कहो मित्र, आपका संकेत कौनसी विचित्रताकी ओर है ?”
“अभी-अभी मैं जब आया तो आप एक दीपकके प्रकाशमें कार्य कर रहे थे । मेरे आनेके उपरान्त उस दीपकको बुझाकर दूसरा दीपक जला दिया । मुझे तो दोनों दीपक एक समान लग रहे हैं । तत्पश्चात एकको बुझाकर दूसरेको जलानेका रहस्य मुझे समझ नहीं आया ?”
आचार्य चाणक्य मन्द-मन्द मुस्कुराकर बोले, “इसमें न तो कोई रहस्य है और न कोई विचित्रता ।”
“इन दोनों दीपकोमेंसे एकमें राजकोषका तेल है और दूसरेमें मेरे अपने परिश्रमसे अर्जित धनसे क्रय किया गया तेल । जब आप यहां आए थे तो मैं राजकीय कार्य कर रहा था; इसलिए उस समय राजकोषके तेलवाला दीपक जला रहा था । इस समय मैं आपसे व्यक्तिगत बातें कर रहा हूं; इसलिए राजकोषके तेलवाला दीपक जलाना उचित और न्यायसंगत नहीं है; अतः मैंने वह दीपक बुझाकर अपनी आयवाला दीपक जला दिया ।”
चाणक्यकी बात सुनकर यात्री विस्मित रह गया और बोला, “धन्य हो आचार्य, भारतकी प्रगति और उसके विश्वगुरु बननेका रहस्य अब मुझे समझमें आ गया है । जबतक यहांके लोगोका चरित्र इतना ही उन्नत और महान बना रहेगा, उस देशकी प्रगतिको संसारकी कोई भी शक्ति नहीं रोक सकेगी । इस देशकी यात्रा करके और आप जैसे महात्मासे मिलकर मैं स्वयंके गौरवशाली होनेका अनुभव कर रहा हूं ।”
નિયતિ, અકસ્માત, ચમત્કાર, વિજ્ઞાન ચિતોડના રાજા કરણસિંહ અને પાટણના રાજવી ભીમદેવ પાક્કા મિત્રો હતા. એકબીજાના સુખે સુખી અને દુઃખે દુઃખી. ખેપિયા મારફત કાગળ મોકલી. એકબીજાને ખુશખબર આપતા રહે, સુખદુઃખની વાતો કરતા રહે. અવારનવાર મળે ને મજા કરે. એક વાર ચિતોડના રાજા કરણસિંહને મહારોગ થયો. ખાવાનું કશું ભાવે નહીં, રાતે ઊંઘ આવે નહીં. જુદા જુદા પ્રકારની પીડાથી રાજા પીડાય. રાજવૈદ્યોએ ઘણી મહેનત કરી પણ રોગ પકડાતો નહોતો, નિદાન થતું નહોતું. ઉપાય જડતો નહોતો. ભૂવા, કોઠાસૂઝવાળા, ડોસીવૈદાવાળા સૌને એક પછી એક બોલાવ્યા, પણ કોઈ કારી ફાવી નહીં. રાજા પ્રજાપ્રેમી હતા. પ્રજાને પણ તેમના પ્રત્યે પ્રેમ અને આદર. પ્રજા દુ:ખી દુ:ખી હતી, પણ શું થાય? પાટણના રાજાને ખબર પડી. એમણે રાજવૈદ્ય સહિત રાજ્યના તમામ ઉત્તમ વૈદ્યોને બોલાવ્યા. સૌને ચાનક ચડાવી, ‘જોધપુરના કરણસિંહને સાજા કરો તો. તમે સાચા અને તમારું શાસ્ત્ર સાચું. નહીં તો બધું ધૂળ બરાબર.’ પાટણના વૈદોએ પણ ખૂબ પ્રયત્ન કર્યો, પણ કોઈ રોગ પારખી શક્યું નહીં, ઉપાય બતાવી શક્યું નહીં. રાજવૈદે તેમના બધાં થોથાં ઉથલાવી જોયાં. અંતે રોગ કયો છે તેનું તે નિદાન કરી શક્યા. એ રોગનું કારણ શું છે એ પણ ઘણા અભ્યાસથી જાણી શક્યા. પરંતુ તે ઉપચાર કરણસિંહ માટે સૂચવી શકાય એવો નહોતો, એટલે ન કહ્યો. વૈદો પાટણ પાછા આવ્યા. રાજવૈદે પાટણનરેશને કહ્યું કે રોગ તો પરખાયો છે. તેમણે ચરકસંહિતામાંથી રોગનાં લક્ષણો બતાવ્યાં. પરંતુ ઉપચાર જડતો નથી એમ જણાવી રાજવૈદે વાત થળી નાખી. બીજી બાજુ કરણસિંહે મૃત્યુ માટે તૈયારી કરી. પવિત્ર સરસ્વતી નદીકિનારે જઈ દેહ ગાળી નાખવો એમ નક્કી કર્યું. સરસ્વતી નદી તરફ રાજાનો રસાલો જવા માંડ્યો. રાજા પાલખીમાં હતા. ત્યાં એમણે આગળ જતું એક ગાડું જોયું. એ ગાડામાં શેરડીના સાંઠા હતા. રાજાને શેરડી ખાવાનું મન થયું. તરત ગાડામાંથી ઉપરનો શેરડીનો સાંઠો લાવી, છાલ ઉતારી રાજાને શેરડીના કટકા ખવડાવ્યા. રાજાને કોઠે હાશ થઈ. કેટલાય દિવસો પછી ઘસઘસાટ ઊંધ્યા. ઊડ્યા ત્યારે સારું થઈ ગયું હતું. રોગ નાબૂદ. જાણે ચમત્કાર થયો. જોધપુર અને પાટણમાં આનંદ વ્યાપી રહ્યો. પાટણના વૈદે રોગનું નામ ભીમદેવને જણાવ્યું હતું. હવે કહ્યું કે સાપણની પ્રસૂતિ વખતે જે ચીકણું પ્રવાહી વહે તે રોગનો ઉપાય હતો. કરણસિંહને ખરાબ લાગે એટલે મેં ઉપાય કહ્યો નહોતો. તપાસ કરતાં ખબર પડી કે શેરડીના મૂળમાં સાપણ વિયાણી હતી. અહીં કોણે કામ કર્યું? રાજાની નિયતિએ, શેરડી ખાવાના અકસ્માતે, ચમત્કારે, કે વૈદકના વિજ્ઞાને?! વાસ્તવમાં નિયતિ, અકસ્માત, ચમત્કાર અને વિજ્ઞાન સાથે મળીને કામ કરતાં હોય છે.
क्या आप बता सकते हैं कि काशी विश्वनाथ परिसर के नवनिर्माण के पूरे प्रक्रम के दौरान सबसे मुख्य और सबसे प्रभावी बात क्या रही है, जिसका प्रभाव इतना व्यापक है कि आने वाले वर्ष बतायेंगे !
तो लगभग सभी ने एकदम सही कहा, VIP गेट नम्बर 4
वाराणसी में हमारी ड्यूटी विश्वनाथ जी के कॉरिडोर निर्माण के प्रारम्भ के समय से ही देव दीपावली जैसे अवसरों पर घाटों पर दीप जलवाने व घाटों को सजाने और उसकी व्यवस्था को देखने में लगती रही है। जिसमें राजघाट से असि घाट तक को कई सेक्टरों में बाँट देते हैं। उसीमें से एक सेक्टर का दायित्व मेरा रहा है। लाभ का क्या कहें, बाबा के चरणों में शीश नवाने का निर्बाध अवसर मिलता है पूरे कार्यक्रम के तीन से चार दिनों में। पुण्य जागृत हुए हैं सम्भवतया!
तो जो मैंने देखा और अनुभव किया वह बताता हूँ!
मेरे ननिहाल पक्ष के कुछ भाई दिल्ली में रहते हैं! दिल्ली! शायद कुछ तो कमी है उस धरा में, या यह कमी ला दी गयी है। वहाँ पला बढ़ा हर शख्श सेकुलरिस्म की भेंट चढ़ ही जाता है।
तो काशी विश्वनाथ के बायें ओर स्थित कलंक से सम्बंधित जब बातें होती, उसकी तस्वीरें दिखती तो वो भाई उसे फोटोशॉप कहते। क्यों?
क्योंकि रोमिला की रसूललीला और इरफान के वल्लाह हबीबी कथानक पढ़ पढ़के जो पास हुए हैं वर्तमान में 24-25 वर्ष के वो युवा जिन्होंने उस मस्जिद की दीवार देखी ही नहीं थी कभी! तो औरंगजेब आलमगीर सहिष्णुता की मूर्ति दिखता था इन युवाओं को, और उसके नरसंहार के किस्से एक गल्प!
हम लोगों ने अपने बालपन में ये दीवारें अवश्य देखी थी परन्तु जो दीवाल दिखती थी, उससे कुछ खास स्पष्ट नहीं होता था! क्योंकि जिस दीवार पर हिन्दू मूर्तियों का अंकन अब भी स्पष्ट है, वह दीवार नहीं दिखती थी। शेष पत्थर की दीवार पर प्लास्टर है। इतना समझ आता था! जो चीजों को स्पष्ट नहीं करता था। बादमें जाली और चहारदीवारी खड़ी कर देने से वह भी गेट नम्बर चार से जाने पर दिखना बन्द हो गया!
परन्तु जब कॉरिडोर का निर्माण प्रारम्भ हुआ तो मस्जिद की पिछली दीवार से लगी बाउंडरी तोड़ी गयी और मशीनों के कम्पन्न ने वर्षों पुराने जर्जर प्लास्टर को गिरा दिया! और उसके 4 फ़ीट दूर से ही एक नया मार्ग बना शम्भू दर्शन को जाने के लिए, तो प्रत्यक्ष दिखीं वो अत्याचारों की मूक गवाह, दीवारों पर अंकित हिन्दू पूज्य मूर्तियाँ, कलाकृतियाँ! और आश्चर्य हो गया!
मेरा वह भाई, जब मेरे देवदीपावली के ड्यूटी के समय मिलने आया तो मन्दिर में घुसते समय उन दीवारों को देखते हुए उसके चेहरे के पल-पल बदलते भावों ने बहुत कुछ कह दिया! एक खिलंदड़ सा चेहरा, जो गले में पूजा का एक धागा तक ना पहनता था! उसका चेहरा प्रतिपल, प्रतिपग के संग एक विचित्र सी गम्भीरता से भर उठा!
वापस लौटते हुए उसने मुझसे कह रुद्राक्ष की माला ली, शिवलिङ्ग का स्पर्श करा धारण किया! और इस तरह उस दीवाल ने, उसपर अङ्कित मूर्तियों ने एक और साम्प्रदायिक को जन्म दिया! हमारी संख्या में वृद्धि कर दी!
और यह प्रक्रम दो वर्षों में अनेकों के संग देखा मैंने, विशेषकर जो युवा इस समय 20-25 की आयु से गुजर रहे, उनके संग! गेट से अपनी गर्लफ्रैंड के संग पिकनिक के भाव से अंदर घुसते कुलडूड, दर्शन करके गम्भीर भाव लेके निकलते और बार बार मुड़कर उन्हीं दीवालों को देखते युवा!
लगा जैसे कारसेवक तैयार हो रहे हों!
जो अधिक वय के हो चुके, उनमें से बहुधा रक्त के उफान को खो चुके हैं! ये कम आयु के युवा शिराओं में उबलता रक्त ले अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाण देख रहे। मुँह से कहानी सुनने, सोशल मीडिया पर पढ़ने, चित्र देखने से कहीं ज्यादा प्रभाव प्रत्यक्ष प्रमाण ने डाला है! हम सभी जानते हैं कि शब्द भूल जाते हैं, परन्तु दृश्य स्मरण रहते हैं। और इस निर्माणकार्य की पूरी प्रक्रिया ने युवाओं में हिंदुत्व की स्थाई भावना को जगाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं ।
इन मूर्तियों ने रंगीली रोमिला, शर्महीन शर्मा और वल्लाह हबीबी इरफान के सारे गल्प को ध्वस्त कर दिया! और ये समझिए कि ये प्रभावित युवा बस दिशा दिखाये जाने की प्रतीक्षा में हैं!
अब वजीर की इसमें क्या बात है?
तो जनाब! वह नेहरू के कीड़े से ग्रस्त होते तो, पुराने जाने के मार्ग को ही निर्मित करते, नया मार्ग लेने को, भूमि अधिग्रहण की समस्याओं, अधिक व्यय को दिखा कभी उस दीवार के पास से निर्माण कार्य ना कराते! और यदि कराते भी तो अत्याचार की गवाह उन मूर्तियों से पटी पड़ी दीवार के आगे चहारदीवारी गिरने पर तिरपाल से पर्दा करवा देते, यह तर्क देकर कि हिन्दू मुस्लिम समरसता बनी रही, जो कि सदैव से एक छलावा है!
पर नहीं! जब जब आप उस कुएं और नंदी की प्रतिमा को शीश नवाएँ तो वो दीवाल स्पष्ट दिखें, इस तरह निर्माण कार्य किया गया! और इस दर्शन ने उन युवाओं को तैयार किया, उग्र बनाया है, जिन्हें समाज लंठ कहता है, परन्तु यही लड़ेंगे अवसर पड़ने पर!
सभी पर प्रभाव चिरस्थायी नहीं होगा, यह समझा जा सकता है, परन्तु जो कुछ भी सज्ज हों वो पीढ़ियों को तैयार करेंगे!
और ये सब कार्य जो एक दृष्टि को ध्यान में रखकर हुआ, वो बिना इस वजीर के सह के हो ही नहीं सकता था!
और कल के औरंगजेब और शिवाजी के वक्तव्य ने उसमें उत्प्रेरक का कार्य किया है! ये कहे शब्द कल भूल जाएंगे, परन्तु एक दूरदृष्टि के तहत जो मस्जिद के पीछे का रास्ता बनाया गया, वह दीवाल दो साल तक प्रत्यक्ष दिखाई गयी हर आने जाने वाले को, उसने एक चिरस्थायी और दूरगामी परिणाम स्थापित किया है!
शेष आप सभी प्रबुद्ध हैं। सबने यही देखा है, मैंने वह कहा जो अनुभव किया वहाँ रहकर, आ जाकर!
शेष विश्वनाथ ही सब चीज के कर्ताधर्ता हैं। किसी मनुष्य में सामर्थ्य कहाँ!
काफिरिस्तान का नाम सुने हैं? पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर एक छोटा सा इलाका है यह। बड़ा ही महत्वपूर्ण क्षेत्र! जानते हैं क्यों? क्योंकि आज से सवा सौ वर्ष पूर्व तक वहाँ विश्व की सबसे प्राचीन परंपरा को मानने वाले लोग बसते थे। रुकिए! हिन्दू ही थे वे, पर हमसे थोड़े अलग थे। विशुद्ध वैदिक परम्पराओं को मानने वाले हिन्दू… सूर्य, इंद्र, वरुण आदि प्राकृतिक शक्तियों को पूजने वाले वैदिक हिन्दू… वैदिक काल से अबतक हमारी परम्पराओं में असँख्य परिवर्तन हुए हैं। हमने समय के अनुसार असँख्य बार स्वयं में परिवर्तन किया है, पर काफिरिस्तान के लोगों ने नहीं किया था। बड़े शक्तिशाली लोग थे काफिरिस्तान के! इतने शक्तिशाली कि मोहम्मद बिन कासिम से लेकर अहमद शाह अब्दाली तक हजार वर्षों में हुए असँख्य अरबी आक्रमणों के बाद भी वे नहीं बदले। वर्तमान अफगानिस्तान के अधिकांश लोग अशोक और कनिष्क के काल में हिन्दू से बौद्ध हो गए थे। आठवीं सदी में जब वहाँ अरबी आक्रमण शुरू हुआ तो ये बौद्ध स्वयं को पच्चीस वर्षों तक भी नहीं बचा पाए। वे तो गए ही, साथ ही शेष हिन्दू भी पतित हो गए। पर यदि कोई नहीं बदला, तो वे चंद सूर्यपूजक सनातनी लोग नहीं बदले। युग बदल गया, पर वे नहीं बदले। तलवारों के भय से धर्म बदलने वाले हिन्दू और बौद्ध धीरे-धीरे इन प्राचीन लोगों को काफिर, और इनके क्षेत्र को काफिरिस्तान कहने लगे। वैदिक सनातनियों का यह क्षेत्र बहुत ऊँचा पहाड़ी क्षेत्र है। ऊँचे ऊँचे पर्वतों और उनपर उगे घने जंगलों में बसी सभ्यता इतनी मजबूत थी कि वे पचास से अधिक आक्रमणों के बाद भी कभी पराजित नहीं हुए। न टूटे न बदले… काफिरिस्तान के लोग जितने शक्तिशाली थे, उतने ही सुन्दर भी थे। वहाँ की लड़कियाँ दुनिया की सबसे सुन्दर लड़कियां लगती हैं। माथे पर मोर पंख सजा कर फूल की तरह खिली हुई लड़कियां, जैसे लड़कियाँ नहीं परियाँ हों… वहाँ के चौड़ी छाती और लंबे शरीर वाले पुरुष, देवदूत की तरह लगते थे। दूध की तरह गोरा रङ्ग, बड़ी-बड़ी नीली आँखें… जैसे स्वर्ग का कोई निर्वासित देवता हो। अरबी तलवार जब आठ सौ वर्षों में भी उन्हें नहीं बदल पायी, तो उन्होंने हमले का तरीका बदल दिया। अफगानी लोग उनसे मिल-जुल कर रहने लगे। दोनों लोगों में मेल जोल हो गया। फिर! सन अठारह सौ छानबे… अफगानिस्तान के तात्कालिक शासक अब्दीर रहमान खान ने काफिरिस्तान पर आखिरी आक्रमण किया। इस बार प्रतिरोध उतना मजबूत नहीं था। काफिरों में असँख्य थे जिन्हें लगता था कि हमें प्रेम से रहना चाहिए, युद्ध नहीं करना चाहिए। फल यह हुआ कि हजार वर्षों तक अपराजेय रहने वाले काफिरिस्तान के सनातनी एक झटके में समाप्त हो गए। पूर्णतः समाप्त हो गए… पराजित हुए। फिर हमेशा की तरह हत्या और बलात्कार का ताण्डव शुरू हुआ। आधे लोग मार डाले गए, जो बचे उनका धर्म बदल दिया गया। कोई नहीं बचा! कोई भी नहीं… काफिरिस्तान का नाम बदल कर नूरिस्तान कर दिया गया। आज काफिरिस्तान का नाम लेने वाला कोई नहीं। पर रुकिए! मुझे आज पता चला कि काफिरिस्तान के वैदिक हिन्दुओं की ही एक शाखा पाकिस्तान के कलाशा में आज भी जीवित है। वे आज भी वैदिक रीतियों का पालन करते हैं। लगभग छह हजार की सँख्या है उनकी… लेकिन कब तक? यह मुझे नहीं पता…