पोपट काका सरकारी ऑफिस से रिटायर हो चुके थे। रिटायर हो कर भी अच्छे खासे दो साल हो गए थे। पोपटकाका को न फ़िल्म-टीवी देखने में रुचि न अखबार-किताबे पढ़ने में इंटरेस्ट। इसलिए रिटायरमेंट के बाद पोपटलाल टाइम पास कैसे करता है, ये एक बड़ा पेचीदा सवाल उनके दोस्त के सामने खडा हुआ पड़ा था।
“अबे पोपट, तुझे न कोई शौक, न पढ़ने की आदत न फ़िल्म टीवी में रुचि, ना ही ध्यान अध्यात्म में इंटरेस्ट। रिटायरमेंट के बाद आखिर टाइम पास करता कैसे है रे तू?”
पोपटलाल को अपने दोस्त के चीठेपन और खोदखोद कर गहराई में जाकर बेमतलब पूछताछ करने की आदत अच्छे से पता थी। इसके दिमाग का कीड़ा, शंका का समाधान होने तक शांत नही होगा और तब तक ये अपने को चैन से जीने नहीं देगा, यह भी उनको पता था।
“बताता हूँ… कल की ही बात है,” पोपटलाल ने शंका निवारण करना आरंभ किया, “मैं और श्रीमतीजी गए थे बाजार में, अशरफीलाल ज्वेलर्स के शोरूम पर। अंदर जा कर केवल पांच ही मिनट में बाहर आ गए। बाहर आकर देखते हैं तो क्या? दुकान के सामने पार्क की हुई कार के पास ट्रैफिक पुलिस का सिपाही खड़ा हुआ था, हाथ में चालान बनाने के लिए रसीद बुक लिए।
हम दोनों थोड़ा घबरा गए, उसके पास जाकर विनती करने लगे-“भैया, मुश्किल से पांच मिनट के लिए ही शोरूम में गए थे, छोड़ दो ना भाई इस बार!”
तो वह कहने लगा, “सभी लोग हर बार ऐसा ही बोलते हैं। खुद की गलती मानता ही नहीं कोई। एक बार हजार रुपये की रसीद कटेगी, तब ही अगली बार गलती नहीं होगी।”
“ऐसा नहीं है, हम मानते हैं हमसे गलती हुई है। आगे से ऐसा नहीं होगा, और हजार रुपये भी बहुत ज्यादा होते हैं। हम तो रिटायर्ड कर्मचारी हैं, हमारे सफेद बालों की ओर तो देख लो।”
“लाखों की गाड़ी चला रहे हो, बड़े-बड़े शोरूम पर खरीददारी कर रहे हो, कानून तोड़ते हो, फिर भी हजार रुपये आपको ज्यादा लग रहे हैं? चलिए, बुजुर्ग होने के नाते इस बार सिर्फ दो सौ रुपये लेकर छोड़ देता हूँ !”
” ‘उन दो सौ रुपयों की रसीद मिलेगी?’ मैंने मासूमियत से पूछ लिया!” – पोपटकाका बता रहे थे। तभी हवलदार मेरे ऊपर भिनक गया।
“ओ काका जी, रसीद चाहिए तो हजार की ही बनेगी, दो सौ की कोई रसीद-वसीद नहीं मिलेगी।”
“ऐसे कैसे? पैसे देने पर रसीद नहीं दोगे क्या? नियम कायदे से होना चाहिए के नहीं सब कुछ? सीधे-सीधे बोलो ना कि तुमको रिश्वत चाहिए।”
मेरे यह बोलते ही वो और भड़क गया और मेरी बात पकड़ कर ही बैठ गया।
“अच्छा? ये बात है? नियम-कायदे से चाहते हो सब कुछ? फिर तो हो जाये। मैं सोच रहा था, बुजुर्ग लोग हैं, थोड़ा सबूरी से काम लेते हैं, तो आप उल्टे मुझे ही कायदे और अकल सिखाने चल पड़े हो। चलिए, अब तो सारे नियम कायदे बताता हूँ।” हवलदार ने अब रौद्ररूप धारण कर लिया।
अब वह हाथ धोकर गाड़ी के पीछे पड़ गया। एक मिरर टूटा हुआ है, पीछे वाली नम्बर प्लेट सही नहीं है, puc अपडेट नहीं है… करते-करते मामला तीन चार हजार तक पहुंच गया।
ये तो काफी बढ़ता ही जा रहा था, यह देख कर मैंने पत्नी से कहा- “जरा तुम बोल कर देखो, शायद तुम्हारी बात मान जाए।”
वह हवलदार से कहने लगी, “बेटा, ऐसे गुस्सा मत हो। इनकी बात का बुरा मत मानो। छोड़ भी दो। इनकी ओर तुम ध्यान मत दो, ये लो दो सौ रुपये पकड़ो।”
लेकिन वह हवलदार कुछ भी सुनने को राजी नहीं था।
“मुझे नहीं चाहिए आपके दो सौ रुपये। अब तो रसीद ही कटेगी।”
अगले आठ-दस मिनट यही सब चलता रहा। वह उसे समझाने की कोशिश करती रही और वो दिलजला सिपाही रसीद फाड़े बिना मानने को तैयार नहीं था।” पोपट काका बताते जा रहे थे।
“अरे बाप रे! दो सौ रुपये बचाने के चक्कर में इतनी बात बढ़ गई? फिर क्या किया आप लोगो ने?- दोस्त ने सवाल किया।
“कुछ नहीं! तभी हमारी बस आ गई, उसमें सवार हो कर घर लौट आए।”
“ऐं? फिर गाड़ी? वो चालान और रसीद का क्या हुआ? और वो हवलदार?” दोस्त को कुछ समझ नहीं आ रहा था।
“वो गाड़ी वाला जाने और हवलदार जाने, हमें क्या? गाड़ी हमारी थी ही नहीं, हम तो बस से गए थे…
..तुम अभी पूछ रहे थे ना ? टाइमपास कैसे करते हो, वही बता रहा था…
…हम बस में चढ़े तब उस हवलदार का चेहरा देखने लायक था, जैसे इस समय तुम्हारा चेहरा देखने लायक हो गया है, बिल्कुल वैसा ही।”
पोपट काका निर्विकार रूप से बोले और टाइमपास के लिए नया कस्टमर खोजने निकल पड़े
Like this:
Like Loading...