मुल्ला नसरुद्दीन बैठा था एक स्टेशन पर। ट्रेन लेट थी। जैसा कि नियम
है। दो-चार बार उठ कर भी गया, स्टेशन मास्टर को पूछा भी, मगर जब
जाए तभी और लेट होती जाए। आखिर उसने कहा कि मामला क्या
है,क्या ट्रेन पीछे की तरफ सरक रही है? लेट होना भी समझ में आता
है,मगर और-और लेट होता जाना….क्या ट्रेन उस तरफ जा रही है? फिर
आएगी कैसे? और जब हर गाड़ी को लेट ही होना है तो टाइम-टेबल
किसलिए छापते हो?
उस स्टेशन मास्टर ने कहा, टाइम-टेबल नहीं छापेंगे तो पता कैसे चलेगा
कि कौन सी गाड़ी कितने लेट है?
नसरुद्दीन ने कहा, यह बात जंचती है। यह बात पते की कही!
फिर उसने कहा, अब कोई फिक्र नहीं। अब मैं बैठ कर राह देखता हूं।
बैठ कर वह राह देखने लगा। बीच-बीच में हंसे। कभी-कभी ऐसा झिड़क
दे कोई चीज हाथ से। कभी-कभी कहे-छिः छिः! वह स्टेशन-मास्टर
थोड़ी देर देखता रहा कि यह कर क्या रहा है! बार-बार आता था, वही
अच्छा था पूछने, अब यह और उत्सुकता जगा रहा है। किसी चीज को
हाथ से सरकाता है, किसी चीज को छिः छिः कहता है, कभी कुछ। और
फिर बीच-बीच में हंसता है, ऐसा खिलखिला कर हंसता है! आखिर वह
आया, उसने कहा कि भाईजान, बड़े मियां! आप मुझे काम ही नहीं करने
दे रहे हैं। मेरा दिल यहीं लगा है। इसमें कुछ गड़बड़ हो जाए, ट्रेन पटरी से
उतर जाए कि दूसरी पटरी पर चढ़ जाए, कि दो ट्रेनें टकरा जाएं, जब तक
मैं आपसे पूछ न लूं, मुझे चैन नहीं है। या तो आप जरा दूर जाकर बैठो।
आप कर क्या रहे हो? आप हंसते क्यों हो बीच-बीच में? कुछ भी तो नहीं
हो रहा है यहां। गाड़ी लेट है। सब सन्नाटा छाया हुआ है। रात आधी हो
गई है। सब यात्री बैठे-बैठे सो गए हैं। कुली-कबाड़ी भी विश्राम कर रहे
हैं। तुम हंसते किसलिए हो बीच-बीच में?
उसने कहा कि अब मैं बैठे-बैठे क्या करूं? अपने को कुछ चुटकुले सुना
रहा हूं।
उसने कहा कि अब मैं बैठे-बैठे क्या करूं? अपने को कुछ चुटकुले सुना
रहा हूं।
उसने कहा, चलो, यह भी समझ में आ गया कि चुटकुले। ये बीच-बीच में
छिः छिः और यह हाथ से हटाना, यह क्या करते हो?
तो उसने कहा कि जो चुटकुले मैं पहले सुन चुका हूं, उन्हें कहता हूं…अरे
हटो, रास्ते पर लगो! उनको ऐसा हटा देता हूं। बीच-बीच में घुस आते हैं।
हंसो-बहाने मिलें तो ठीक, न बहाने मिलें तो कुछ खोजो! मगर जिंदगी
तुम्हारी एक हंसी का सिलसिला हो। हंसी तुम्हारी सहज अभिव्यक्ति बन
जानी चाहिए।
प्रीतम छवि नैन बसी
ओशो