का
था।
जीवन की जागीर
तर्कशास्त्र के
विद्वान पंडित
रामनाथ ने
नवदीप के पास
एक निर्जन वन
में विद्यालय
बनाया। उस
समय कृष्ण नगर
में महाराजा.
शिवचंद्र
शासन
महाराज नीति कुशल होने के
साथ विद्या अनुरागी भी थे। उन्होंने पंडित रामनाथ कीम
चर्चा सुनी। उन्हें यह जानकर दुख हुआ कि ऐसा महान विद्वान गरीबी में दिन काट
रहा है। महाराज वहां गये तो रामनाथजी ने उनका स्वागत किया। राजा ने उनसे पूछा,
‘पंडितजी, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?’ पंडितजी ने कहा, ‘राजन, ईश्वर
की कृपा ने मेरे सारे अभाव मिटा दिए हैं। अब मैं पूर्ण हूं।’ राजा कहने लगे, ‘मैं खर्च
के बारे में आपसे पूछ रहा हूं।’
पंडितजी बोले, ‘इस बारे में गृह स्वामिनी मुझसे अधिक जानती हैं। आप उनसे पूछ
लें।’ राजा पंडितजी के घर में गए और साध्वी गृहणी से पूछा, ‘माताजी, घर खर्च के
लिए कोई कमी तो नहीं है?’ साध्वी बोलीं, ‘महाराज, भला सर्वसमर्थ परमेश्वर के
रहते उनके भक्तों को क्या कमी रह सकती है?’ राजा बोले, ‘फिर भी कुछ जरूरत
हो, तो बताएं।’ साध्वी बोलीं, ‘महाराज, पहनने को कपड़े हैं, सोने के लिए बिछौना
है, पानी के लिए मिट्टी का घड़ा है, खाने के लिए विद्यार्थी भिक्षा ले आते हैं। इससे
अधिक की जरूरत भी क्या है?’
राजा ने आग्रह किया, ‘देवी, हम चाहते हैं कि आप को कुछ गांव की जागीर दें।
इससे होने वाली आय से गुरुकुल भी ठीक से चलेगा और आपके जीवन में भी कोई
अभाव नहीं रहेगा।’ उत्तर में वह वृद्धा ब्राह्मणी मुस्कुराई और बोली, ‘प्रत्येक मनुष्य
को परमात्मा ने जीवन रूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवन की इस जागीर
को संभालना सीख जाता है, उसे फिर किसी चीज का अभाव नहीं रह सकता।’ राजा
निरुत्तर हो गए, और वे साध्वी को श्रद्धापूर्वक नमन करके वापस चले आए।