Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

” बच्चों के दुश्मन ( एक साधु की जुबानी ) “

कल दिल्ली आ रहा था ट्रेन से तो एक माँ-बाप अपने दो साल के बच्चे को डाँट रहे थे बात-बात पर… मैंने कहा कि डाँटो मत भाई… कहने लगे कि माँ-बाप की जिम्मेदारी आप क्या जानो बाबाजी?? बच्चे संभालना कितना कठिन है…

मैं चुप रहा, जबकि चाईल्ड बिहेवियर पर मेरा गहन अध्ययन है। ये उन बापत्व और ममत्व में अंधे गांधारी और धृतराष्ट्र को कैसे बताऊँ…

सुनो भाई एक बात…

बच्चे का 8 साल तक हृदय विकसित होता है… हृदय अर्थात् उसमें भावनाएँप्रेम, करुणा, दया, स्नेह, अपनापन, निर्भयता, साहस, सहअस्तित्व, परिवार के प्रति लगाव, सम्मान, श्रद्धा, आज्ञाकारिता, ये सब भाव 8 साल से पहले हृदय में पनपते और पुष्ट होते हैं,
इसलिए वैदिक युग में 8 साल के पश्चात् ही बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता था।

उससे पहले भी एक बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि बच्चे का अधिकाधिक समय दादा-दादी के पास गुजरे… क्योंकि हो सकता है कि माँ-बाप अभी गृहस्थी में कच्चे हों, हो सकता है बच्चे कैसे पाले जाएँ उन्हें उतना अनुभव न हो, क्योंकि वे तो पहली बार माता-पिता बने हैं… जबकि दादा-दादी अनुभवी हैं… कुछ बातें अनुभव से ही आती हैं…

तो बच्चा दादा के सिर पर चढ़ा रहता, उस पर मूत भी देता, दाढ़ी खींच लेता… दाँत निकलने लगते तब काट भी लेता… कभी-कभी ऐसी शरारत भी कर देता जो असहनीय हो… फिर भी दादा-दादी डाँटते नहीं थे… बस प्रेम करते रहते थे… इससे बच्चे के मासूम हृदय में यह बात बैठ जाती कि परिवार से तात्पर्य हमारी कैसी भी गलती हो उसका उत्तर प्रेम से देने का नाम है… झिड़कना नहीं…

कुत्ता आ जाता तो दादा कहता- ये ले लठ, मार… बच्चा डण्डा लेकर कुत्ते के पीछे दौड़ पड़ता… उस समय यह खेल था… लेकिन आगे चलकर जब हृदय निर्भय हो जाता था तो वही बच्चा शेर से भी ऐसे ही टकरा जाता था बिना किसी भय के जैसे गली के कुत्ते से… जैसा उसने बचपन से सीखा था…

(यहाँ यह याद रखें कि बुजुर्ग कुत्तों के दुश्मन नहीं होते, यदि ऐसा होता तो गाँव-गली में कुत्ते न मिलते… जबकि गाँव-देहात के कुत्ते आज भी पुष्ट और सुरक्षित हैं… बुजुर्ग अपनी थाली से घी की रोटी उन्हें देते हैं, अपनी आँख का देखा कह रहा हूँ… कहने का तात्पर्य यह कि यहाँ क्रूरता नहीं निर्भयता की भावना मात्र सिखाई जा रही है… निर्भय लोग कितने दयालु होते हैं यह मैं समझा न पाऊँगा, बस अनुभव करता हूँ…)

अब बच्चे 2 साल की आयु में प्ले स्कूल में जा रहे हैं… वहाँ अनुभवहीन या कम अनुभवी, छोटी आयु के मास्टर-मास्टरनियों द्वारा बात-बात में डाँटे जाते हैं… धीरे-धीरे बच्चे के हृदय में जो अभी विकास कर ही रहा था… उसके हृदय में बैठ जाता है कि जीवन का अर्थ परिवार से दूरी … क्योंकि आप 2 साल के बालक को स्कूल के नाम पर दूर कर ही रहे हो न… तो बड़ा होकर वह आपको उठाकर कबाड़ घर में फेंक दे तो इसमें आश्चर्य कैसा…?? यही तो उसने सीखा है बचपन में…

छिपकली, कॉकरोच, डॉगी… से डर कर घर में दुबक जाए तो क्या दिक्कत है… बालपन में जब हृदय निर्भयता के लिए तैयार था तब उसमें कुत्ते, कॉकरोच, भूत आदि से डर ही तो बिठाया गया था… उसके हृदय ने जो पहली भाषा सीखी वह परिवार से दूरी की थी… पास रहने की नहीं… पहली बात जो उसके मासूम हृदय को सीखनी चाहिए थी वह निर्भयता थी लेकिन उसने जो बात सीखी वह डर था… तुम्हारी डाँट-फटकार का डर, कुत्ते, बिल्ली, भूत का डर…

तो भाई मेरे… बहन लोगों तुम भी… अपने बच्चों का बचपन नियमों और विद्या के नाम पर समाप्त न करो… आधुनिक विज्ञान तुम्हें बताएगा कि बच्चा जितना सारे जीवन में सीखता है उतना जीवन के पहले तीन साल में सीखता है… उनकी बातों में मत आना… उनके तथ्य निराधार और प्रत्येक दो, दस साल में बदलने वाले होते हैं…

जबकि तुम सनातन के हिस्से हो… जो शाश्वत है… जो था और रहेगा… अपने पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान पर भरोसा करके उनके बताए मार्ग पर पालन-पोषण करो… ताकि वे तुम्हारे साथ वह कर सकें जो तुमने उनके साथ बचपन में किया है… वे तुम्हें वह दे सकें जो तुमने उन्हें बचपन में दिया है…

आजकल माँ-बाप बच्चों को घर के बुजुर्गों से दूर कर देते हैं कई बार अंग्रेजी में पारंगत करने के नाम पर तो कई बार परम्पराओं से दूरी बनाये रखने के लिये और कई बार हाइजीन के नाम पर…

अगर तुमने उन्हें बालपन में डर और दूरी और बात-बात में डाँट दी है तो समय आने पर डर, दूरी और बात-बात में उनसे डाँट खाने के लिए तैयार रहो… भले ही तुम यह बहाना बनाओ कि यह सब हम उनके भले के लिए कर रहे हैं…

वे बहाना नहीं बनाएंगे, वृद्धाश्रम बनाएंगे… और कहेंगे हम यह तुम्हारे भले के लिए कर रहे हैं…

और हाँ, जो उन्होंने कहा– बाबाजी, आप क्या जानो माँ-बाप की जिम्मेदारी… तो बता दूँ कि जिस बच्चे से हम एक बार मिल लेते हैं वह सदा के लिए हमारा हो जाता है… क्योंकि हम उन्हें प्रेम और स्वतंत्रता देते हैं श्रद्धा के साथ… वही हमें उनसे वापस मिलता है… इस साधु की यही तो एकमात्र पूंजी है… प्रेम बिना बंधन केस्वतंत्रता बिना मर्यादाओं की सीमा उलांघेश्रद्धा वो भी बिना शर्तज्ञान अनुभव सेबिना उनकी खोपड़ी में सूचनाओं का बोझ लादे

काश अपने बच्चों को ऐसे पाल सको… उन्हें सूचनाओं की मशीन के स्थान पर हृदयवान मनुष्य बना सको…

🌹🌹ॐ श्री परमात्मने नमः।🌹🌹

(साभार।)

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