रामायण : समु्द्र देवता पर चलाए जाने वाला ब्रह्मास्त्र बाण भगवान राम ने कहा छोड़ा ? रामायण में एक प्रसंग आता है जब भगवान राम लंका जाने के लिए समुद्र देवता से रास्ता मांगते हैं और उन्हें रास्ता नहीं मिलता. उस समय श्री राम क्रोधित हो जाते हैं. क्रोध में आकर वह अपना धनुष उठाते हैं और समुद्र को सुखाने के लिए ब्रह्मास्त्र चलाने का मन बना लेते हैं. तभी समुद्र देवता प्रकट होकर उन्हें अपनी गलती के लिए क्षमा मांगते हैं और श्री राम को बताते हैं कि वह वानरो की सहायता से समुद्र में पुल बनाकर लंका जा सकते हैं. भगवान राम समुद्र देवता की बात सुनकर उन्हें क्षमा कर देते हैं. लेकिन क्रोध में निकाले गए ब्रह्मास्त्र को वापस नहीं रख सकते थे. तब उन्होंने समुद्र देवता से पूछा कि अब तो य बाण कहीं न कहीं छोड़ना ही पड़ेगा. इस पर समुद्र देवता उन्हें द्रुमकुल्य नाम के देश में बाण छोड़ने का सुझाव देते हैं. समुद्र देवता का कहना था कि द्रुमकुल्य पर भयंकर दस्तु (डाकू) रहते हैं जो उनके जल को भी दूषित करते रहे हैं. इस पर राम ने ब्रह्मास्त्र चाल दिया.वाल्मीकि रामायण मे दिए गए वर्णन के अनुसार ब्रह्मास्त्र की गर्मी से दुमकुल्य के डाकू मारे गए. लेकिन इसकी गर्मी इतनी ज्यादा थी कि सारे पेड़-पौधे सूख गए और धरती जल गई. इसके कारण पूरी जगह रेगिस्तान में बदल गई और वहां के पास मौजूद सागर भी सूख गया. यह वर्णन बेहद आश्चर्यजनक है और जिस तरह से लंका तक बनाए गए रामसेतु को भगवान राम की एतिहासिकता के सबूत के तौर पर माना जाता है उसी तरह इस घटना को भी सही माना जाता है.माना जाता है कि यह जगह आज का कजाकिस्तान है. कजाकिस्तान में ऐसी ढेरों विचित्रताएं हैं जो इशारा करती है. कि उसका संबंध रामायण काल से हो सकता है. वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम ने उत्तर दिशा में द्रुमकुल्य के लिए बाण चलाया था. वो जानते थे कि इसके असर से वहां डाकू तो मर जाएंगे लेकिन निद्रोष जीवजंतु भी मारे जाएंगे और पूरी धरती रेगिस्तान बन जाएगी. इसलिए उन्होंने यह आशीर्वाद भी दिया कि कुथ दिन बाद वहां सुगंधित औषधियां उगेंगी, वह जगह पशुओं के लिए उत्तम, फल मूल मधु से भरी होगी. कजाकिस्तान में जिस जगह पर राम का बाण गिरा वो जगह किजिलकुम मरुभूमि के नाम से जानी जाती है. यह दुनिया का 15वां सबसे बड़ा रेगिस्तान है. स्थानीय भाषा में किजिलकुम का मतलब लाल रेत होता है. माना जाता है कि कि ब्रह्मास्त्र की ऊर्जा के असर से यहां की रेत लाल हो गई. किजिलकुम में कई दुर्लभ पेड़-पैधे पाए जाते हैं. पास में अराल सागर है. जो दुनिया का इकलौता समुद्र है जो समय के साथ-साथ सूख रहा है. आज यह अपने मूल आकार का मात्र 10 फीसदी बचा है. किजिलकुम का कुछ हिस्सा तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान में भी है. रामेश्वरम तट से इस जगह की दूरी करीब साढ़े चार हजार किलोमीटर है.वासुदेव कृष्ण
Day: July 19, 2021
” बच्चों के दुश्मन ( एक साधु की जुबानी ) “
कल दिल्ली आ रहा था ट्रेन से तो एक माँ-बाप अपने दो साल के बच्चे को डाँट रहे थे बात-बात पर… मैंने कहा कि डाँटो मत भाई… कहने लगे कि माँ-बाप की जिम्मेदारी आप क्या जानो बाबाजी?? बच्चे संभालना कितना कठिन है…
मैं चुप रहा, जबकि चाईल्ड बिहेवियर पर मेरा गहन अध्ययन है। ये उन बापत्व और ममत्व में अंधे गांधारी और धृतराष्ट्र को कैसे बताऊँ…
सुनो भाई एक बात…
बच्चे का 8 साल तक हृदय विकसित होता है… हृदय अर्थात् उसमें भावनाएँ … प्रेम, करुणा, दया, स्नेह, अपनापन, निर्भयता, साहस, सहअस्तित्व, परिवार के प्रति लगाव, सम्मान, श्रद्धा, आज्ञाकारिता, ये सब भाव 8 साल से पहले हृदय में पनपते और पुष्ट होते हैं,
इसलिए वैदिक युग में 8 साल के पश्चात् ही बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता था।
उससे पहले भी एक बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि बच्चे का अधिकाधिक समय दादा-दादी के पास गुजरे… क्योंकि हो सकता है कि माँ-बाप अभी गृहस्थी में कच्चे हों, हो सकता है बच्चे कैसे पाले जाएँ उन्हें उतना अनुभव न हो, क्योंकि वे तो पहली बार माता-पिता बने हैं… जबकि दादा-दादी अनुभवी हैं… कुछ बातें अनुभव से ही आती हैं…
तो बच्चा दादा के सिर पर चढ़ा रहता, उस पर मूत भी देता, दाढ़ी खींच लेता… दाँत निकलने लगते तब काट भी लेता… कभी-कभी ऐसी शरारत भी कर देता जो असहनीय हो… फिर भी दादा-दादी डाँटते नहीं थे… बस प्रेम करते रहते थे… इससे बच्चे के मासूम हृदय में यह बात बैठ जाती कि परिवार से तात्पर्य हमारी कैसी भी गलती हो उसका उत्तर प्रेम से देने का नाम है… झिड़कना नहीं…
कुत्ता आ जाता तो दादा कहता- ये ले लठ, मार… बच्चा डण्डा लेकर कुत्ते के पीछे दौड़ पड़ता… उस समय यह खेल था… लेकिन आगे चलकर जब हृदय निर्भय हो जाता था तो वही बच्चा शेर से भी ऐसे ही टकरा जाता था बिना किसी भय के जैसे गली के कुत्ते से… जैसा उसने बचपन से सीखा था…
(यहाँ यह याद रखें कि बुजुर्ग कुत्तों के दुश्मन नहीं होते, यदि ऐसा होता तो गाँव-गली में कुत्ते न मिलते… जबकि गाँव-देहात के कुत्ते आज भी पुष्ट और सुरक्षित हैं… बुजुर्ग अपनी थाली से घी की रोटी उन्हें देते हैं, अपनी आँख का देखा कह रहा हूँ… कहने का तात्पर्य यह कि यहाँ क्रूरता नहीं निर्भयता की भावना मात्र सिखाई जा रही है… निर्भय लोग कितने दयालु होते हैं यह मैं समझा न पाऊँगा, बस अनुभव करता हूँ…)
अब बच्चे 2 साल की आयु में प्ले स्कूल में जा रहे हैं… वहाँ अनुभवहीन या कम अनुभवी, छोटी आयु के मास्टर-मास्टरनियों द्वारा बात-बात में डाँटे जाते हैं… धीरे-धीरे बच्चे के हृदय में जो अभी विकास कर ही रहा था… उसके हृदय में बैठ जाता है कि जीवन का अर्थ परिवार से दूरी … क्योंकि आप 2 साल के बालक को स्कूल के नाम पर दूर कर ही रहे हो न… तो बड़ा होकर वह आपको उठाकर कबाड़ घर में फेंक दे तो इसमें आश्चर्य कैसा…?? यही तो उसने सीखा है बचपन में…
छिपकली, कॉकरोच, डॉगी… से डर कर घर में दुबक जाए तो क्या दिक्कत है… बालपन में जब हृदय निर्भयता के लिए तैयार था तब उसमें कुत्ते, कॉकरोच, भूत आदि से डर ही तो बिठाया गया था… उसके हृदय ने जो पहली भाषा सीखी वह परिवार से दूरी की थी… पास रहने की नहीं… पहली बात जो उसके मासूम हृदय को सीखनी चाहिए थी वह निर्भयता थी लेकिन उसने जो बात सीखी वह डर था… तुम्हारी डाँट-फटकार का डर, कुत्ते, बिल्ली, भूत का डर…
तो भाई मेरे… बहन लोगों तुम भी… अपने बच्चों का बचपन नियमों और विद्या के नाम पर समाप्त न करो… आधुनिक विज्ञान तुम्हें बताएगा कि बच्चा जितना सारे जीवन में सीखता है उतना जीवन के पहले तीन साल में सीखता है… उनकी बातों में मत आना… उनके तथ्य निराधार और प्रत्येक दो, दस साल में बदलने वाले होते हैं…
जबकि तुम सनातन के हिस्से हो… जो शाश्वत है… जो था और रहेगा… अपने पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान पर भरोसा करके उनके बताए मार्ग पर पालन-पोषण करो… ताकि वे तुम्हारे साथ वह कर सकें जो तुमने उनके साथ बचपन में किया है… वे तुम्हें वह दे सकें जो तुमने उन्हें बचपन में दिया है…
आजकल माँ-बाप बच्चों को घर के बुजुर्गों से दूर कर देते हैं कई बार अंग्रेजी में पारंगत करने के नाम पर तो कई बार परम्पराओं से दूरी बनाये रखने के लिये और कई बार हाइजीन के नाम पर…
अगर तुमने उन्हें बालपन में डर और दूरी और बात-बात में डाँट दी है तो समय आने पर डर, दूरी और बात-बात में उनसे डाँट खाने के लिए तैयार रहो… भले ही तुम यह बहाना बनाओ कि यह सब हम उनके भले के लिए कर रहे हैं…
वे बहाना नहीं बनाएंगे, वृद्धाश्रम बनाएंगे… और कहेंगे हम यह तुम्हारे भले के लिए कर रहे हैं…
और हाँ, जो उन्होंने कहा– बाबाजी, आप क्या जानो माँ-बाप की जिम्मेदारी… तो बता दूँ कि जिस बच्चे से हम एक बार मिल लेते हैं वह सदा के लिए हमारा हो जाता है… क्योंकि हम उन्हें प्रेम और स्वतंत्रता देते हैं श्रद्धा के साथ… वही हमें उनसे वापस मिलता है… इस साधु की यही तो एकमात्र पूंजी है… प्रेम बिना बंधन के … स्वतंत्रता बिना मर्यादाओं की सीमा उलांघे … श्रद्धा वो भी बिना शर्त … ज्ञान अनुभव से — बिना उनकी खोपड़ी में सूचनाओं का बोझ लादे …
काश अपने बच्चों को ऐसे पाल सको… उन्हें सूचनाओं की मशीन के स्थान पर हृदयवान मनुष्य बना सको…
🌹🌹ॐ श्री परमात्मने नमः।🌹🌹
(साभार।)
गुरुदेव भले हीं आपके भाग्य में कुछ नहीं लिखा हो
पर अगर “गुरु की कृपा” आप पर हो जाए तो आप वो भी पा सकते है जो आपके भाग्य में नही हैं।
काशी नगर के एक धनी सेठ थे, जिनके कोई संतान नही थी। बड़े-बड़े विद्वान् ज्योतिषो से सलाह-मशवरा करने के बाद भी उन्हें कोई लाभ नही मिला। सभी उपायों से निराश होने के बाद सेठजी को किसी ने सलाह दी की आप गोस्वामी जी के पास जाइये वे रोज़ रामायण पढ़ते है तब भगवान “राम” स्वयं कथा सुनने आते हैं। इसलिये उनसे कहना कि भगवान् से पूछे की आपके संतान कब होगी।
सेठजी गोस्वामी जी के पास जाते है और अपनी समस्या के बारे में भगवान् से बात करने को कहते हैं। कथा समाप्त होने के बाद गोस्वामी जी भगवान से पूछते है, की प्रभु वो सेठजी आये थे, जो अपनी संतान के बारे में पूछ रहे थे। तब भगवान् ने कहा कि गोवास्वामी जी उन्होंने पिछले जन्मों में अपनी संतान को बहुत दुःख दिए हैं इस कारण उनके तो सात जन्मो तक संतान नही लिखी हुई हैं।
दूसरे दिन गोस्वामी जी, सेठ जी को सारी बात बता देते हैं। सेठ जी मायूस होकर ईश्वर की मर्जी मानकर चले जाते है।
थोड़े दिनों बाद सेठजी के घर एक संत आते है। और वो भिक्षा मांगते हुए कहते है की भिक्षा दो फिर जो मांगोगे वो मिलेगा। तब सेठजी की पत्नी संत से बोलती हैं कि गुरूजी मेरे संतान नही हैं। तो संत बोले तू एक रोटी देगी तो तेरे एक संतान जरुर होगी। व्यापारी की पत्नी उसे दो रोटी दे देती है। उससे प्रसन्न होकर संत ये कहकर चला जाता है कि जाओ तुम्हारे दो संतान होगी।
एक वर्ष बाद सेठजी के दो जुड़वाँ संताने हो जाती है। कुछ समय बाद गोस्वामी जी का उधर से निकलना होता हैं। व्यापारी के दोनों बच्चे घर के बाहर खेल रहे होते है। उन्हें देखकर वे व्यापारी से पूछते है की ये बच्चे किसके है। व्यापारी बोलता है गोस्वामी जी ये बच्चे मेरे ही है। आपने तो झूठ बोल दिया की भगवान् ने कहा की मेरे संतान नही होगी, पर ये देखो गोस्वामी जी मेरे दो जुड़वा संताने हुई हैं। गोस्वामी जी ये सुन कर आश्चर्यचकित हो जाते है। फिर व्यापारी उन्हें उस संत के वचन के बारे में बताता हैं। उसकी बात सुनकर गोस्वामी जी चले जाते है।
शाम को गोस्वामीजी कुछ चितिंत मुद्रा में रामायण पढते हैं, तो भगवान् उनसे पूछते है कि गोस्वामी जी आज क्या बात है? चिन्तित मुद्रा में क्यों हो? तो गोस्वामी जी कहते है की प्रभु आपने मुझे उस व्यापारी के सामने झूठा पटक दिया। आपने तो कहा ना की व्यापारी के सात जन्म तक कोई संतान नही लिखी है फिर उसके दो संताने कैसे हो गई।
तब भगवान् बोले कि उसके पूर्व जन्म के बुरे कर्मो के कारण में उसे सात जन्म तक संतान नही दे सकता क्योकि में नियमो की मर्यादा में बंधा हूँ। पर अगर.. मेरे किसी भक्त ने उन्हें कह दिया की तुम्हारे संतान होगी, तो उस समय में भी कुछ नही कर सकता गोस्वामी जी। क्योकि में भी मेरे भक्तों की मर्यादा से बंधा हूँ। मै मेरे भक्तो के वचनों को काट नही सकता मुझे मेरे भक्तों की बात रखनी पड़ती हैं। इसलिए गोस्वामी जी अगर आप भी उसे कह देते की जा तेरे संतान हो जायेगी तो मुझे आप जैसे भक्तों के वचनों की रक्षा के लिए भी अपनी मर्यादा को तोड़ कर वो सब कुछ देना पड़ता हैं जो उसके नही लिखा हैं।
मित्रों कहानी से तात्पर्य यही हैं कि भले हीं विधाता ने आपके भाग्य में कुछ ना लिखा हो, पर अगर किसी गुरु की आप पर कृपा हो जाये तो आपको वो भी मिल सकता है जो आपके किस्मत में नही।
भाग लिखी मिटे नही, लिखे विधाता लेख
मिल जावे गुरु मेहर तो, लगे लेख पे मेख ।।
भाग्य में लिखा विधाता का लेख मिट नही सकता। पर किसी पर गुरु की मेहरबानी हो जाए तो विधाता का लेख भी दिवार की मेख पर लटका रह जाता हैं। गुरू की बात कभी राज़ नहीं होती,
वक्त के पहिए में आवाज़ नहीं होती।
जाने किस पल क्या “”बख्श दे गुरू””,
क्योंकि उनकी मर्जी किसी की मोहताज नहीं होती।।
गिरधारी अग्रवाल
वास्तु में 7 घोड़ों के महत्व
वास्तु शास्त्र के अनुसार अगर आप अपने घर या दफ्तर में दौड़ते हुए घोड़े की तस्वीर लगाते हैं, तो यह आपके कार्य में गति प्रदान करता है. दौड़ते हुए घोड़े सफलता, प्रगति और ताकत के प्रतीक होते हैं. खासकर 7 दौड़ते हुए घोड़े व्यवसाय की प्रगति का सूचक माने गए हैं, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार 7 अंक सार्वभौमिक है, प्राकृतिक है.
व्यापार में प्रगति के लिए अपने ऑफिस की केबिन में 7 दौड़ते हुए घोड़ों की तस्वीर लगाएं.
इन तस्वीरों को लगाते हुए इस बात का ध्यान रखें कि घोड़ों का मुंह ऑफिस के अंदर की ओर आते हुए होना चाहिए और दक्षिण दीवार पर तस्वीर लगानी चाहिए.
दोस्तों दौड़ते हुए घोड़े प्रगति के प्रतीक होते हैं.
ये कार्य में गति प्रदान करते हैं और जो व्यक्ति बार – बार इन घोड़ों को देखता है, इसका सीधा असर व्यक्ति की कार्यप्रणाली पर पड़ता है. अतः ये घोड़े आपके कार्य में गति प्रदान कर सफलता दिलाने में मददगार साबित होंगे.
7 घोड़ों की तस्वीर घर में लगाने से जीवन में धन संबंधी ज्यादा उतार-चढ़ाव देखने को नहीं मिलते. स्थाई रूप से घर में लक्ष्मी का निवास होता है. इसके लिए घर के मुख्य हॉल के दक्षिणी दीवार पर, घर के अंदर आते हुए मुख वाले घोड़े की तस्वीर लगाना चाहिए.
घोड़े की तस्वीर खरीदते समय इस बात का ध्यान जरूर रखें कि घोड़े का चेहरा प्रसन्नचित मुद्रा में हो, ना कि आक्रोशित हो.
दोस्तों ध्यान रखें की घोड़े शक्ति और ऊर्जा का प्रतीक हैं और खासकर सफेद घोड़े सकारात्मक ऊर्जा के प्रतीक होते हैं. इसलिए घर और ऑफिस की नकारात्मक ऊर्जा को दूर कर सकारात्मक ऊर्जा को लाने के लिए सफेद 7 घोड़े की तस्वीर लगानी चाहिए.
अगर आप कर्ज से परेशान हैं तो घर या दफ्तर के उत्तर – पश्चिमी दिशा में आर्टिफिशियल घोड़े का जोड़ा रखें. यह आपको किसी भी गिफ्ट शॉप पर आसानी से मिल जाएंगे. या नहीं तो ऑनलाइन आर्डर कर भी मंगा सकते हैं.
विशेष ध्यान रखने वाली बात यह है कि कभी भी टूटी फूटी तस्वीर घर में ना रखें. या धुंधली तस्वीर भी ना रखें.
जिस तस्वीर में अलग-अलग दिशा में घोड़े दौड़ते नजर आए वह तस्वीर ना लगाए
इससे घर में सुख – समृद्धि और लक्ष्मी का वास होता है
गिरधारी अग्रवाल
उपदेश का सही मर्म
★ गुड़-गुड़ कहने से मुंह मीठा नहीं होता।
• सच ही है उपदेश का मर्म वही समझता है जो उसे धारण करना जानता हैं वाणी के साथ आचरण का अंग बन जाने वाला ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है और इसे धारण करने वाला ही सच्चा ज्ञानी है। लेकिन आज के समय में तो सिर्फ पढ़ा जाता हैं अमल नहीं किया जाता।
• यह उस समय की बात है जब कौरव और पांडव गुरु द्रोणाचार्य जी के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। एक दिन गुरु द्रोण ने अपने सभी शिष्यों को एक सबक दिया- ‘सत्यम वद‘ मतलब सत्य बोलो। उन्होंने सभी शिष्यों से कहा की इस पाठ को भली भांति याद कर लें, क्योंकि उनसे यह पाठ कल पूछा जाएगा। अध्यापन काल समाप्त होने के बाद सभी शिष्य अपने-अपने कक्षों में जाकर पाठ याद करने लगे।
• अगले दिन पून: जब सभी शिष्य एकत्रित हुए तो गुरु द्रोण ने सबको बारी-बारी से खड़ा कर पाठ सुनाने के लिए कहा। सभी ने गुरु द्रोण के सामने एक दिन पहले दिया गया शब्द दोहरा दिया, लेकिन युधिष्ठर चुप रहे। गुरु के पूछने पर उन्होंने कहा की वे इस पाठ को याद नहीं कर पाये हैं।
• इस प्रकार १५ दिन बीत गए, लेकिन युधिष्ठर को पाठ याद नहीं हुआ। १६ वें दिन उन्होंने गुरु द्रोण से कहा की उन्हें पाठ याद हो गया हैं और वे उसे सुनाना चाहते हैं। द्रोण की आज्ञा पाकर उन्होंने ‘सत्यम वद‘ बोलकर सुना दिया। गुरु ने कहा-युधिष्ठर, पाठ तो केवल दो शब्दों का था। इसे याद करने में तुम्हें इतने दिन क्यों लगें?
• युधिष्ठर बोले- गुरुदेव, इस पाठ के दो शब्दों को याद करके सुना देना कठिन नहीं था, लेकिन जब तक में स्वयं आचरण में इसे धारण नहीं करता, तब तक कैसे कहता की मुझे पाठ याद हो गया है।
• मित्रों इसी तरह कितने सारे लोग है, लगभग सभी ने भगवद गीता- पढ़ी होगी, लेकिन युधिष्ठिर की तरह नहीं केवल ऊपर से पढ़ी होगी, शब्द-शब्द पढ़े होंगे।
• जरा सोचिये अगर आज के लोगों ने सच में गीता-को पढ़ा होता तो आज जो हमारे मानव समाज की स्थिति हैं क्या ऐसी होती। सभी धर्म में यही हो रहा हैं, सभी लोगों ने धर्म को ऊपर-ऊपर पढ़ा हैं, लेकिन उसे जाना नहीं। और जब तक आप किसी चीज़ को जान नहीं लेते तब तक आपका उसे पढ़ना व्यर्थ हैं।
• आप ही सोचिये गीता- इन सब में लिखा हुआ होता हैं की इनको पढ़ने पर मोक्ष प्राप्त होता हैं। लेकिन लग भग सभी लोग गीता- पढ़ते हैं फिर उन्हें मोक्ष क्यों नहीं होता, सीधी सी बात हैं क्यूंकि वो सिर्फ पढ़ते हैं, अमल नहीं करते उन बातों पर, अपने जीवन में नहीं ढालते उन बातों को जो की गीता- में बताई जाती।
• तो मित्रों हमारा निवेदन हैं की आप जो भी पढ़ें, उसे सिर्फ पढ़ने तक ही सिमित न रहने दें उसे अपने जीवन में उतारें, उसे अमल करें।
गिरधारी अग्रवाल
चार सवाल
एक बार एक राजा ने अपने मंत्री से कहा, ‘मुझे इन चार प्रश्नों के जवाब दो। जो यहां हो वहां नहीं, दूसरा- वहां हो यहां नहीं, तीसरा- जो यहां भी नहीं हो और वहां भी न हो, चौथा- जो यहां भी हो और वहां भी।’
मंत्री ने उत्तर देने के लिए दो दिन का समय मांगा। दो दिनों के बाद वह चार व्यक्तियों को लेकर राज दरबार में हाजिर हुआ और बोला, ‘राजन! हमारे धर्मग्रंथों में अच्छे-बुरे कर्मों और उनके फलों के अनुसार स्वर्ग और नरक की अवधारणा प्रस्तुत की गई है। यह पहला व्यक्ति भ्रष्टाचारी है, यह गलत कार्य करके यद्यपि यहां तो सुखी और संपन्न दिखाई देता है, पर इसकी जगह वहां यानी स्वर्ग में नहीं होगी। दूसरा व्यक्ति सद्गृहस्थ है। यह यहां ईमानदारी से रहते हुए कष्ट जरूर भोग रहा है, पर इसकी जगह वहां जरूर होगी। तीसरा व्यक्ति भिखारी है, यह पराश्रित है। यह न तो यहां सुखी है और न वहां सुखी रहेगा। यह चौथा व्यक्ति एक दानवीर सेठ है, जो अपने धन का सदुपयोग करते हुए दूसरों की भलाई भी कर रहा है और सुखी संपन्न है। अपने उदार व्यवहार के कारण यह यहां भी सुखी है और अच्छे कर्म करन से इसका स्थान वहां भी सुरक्षित है।’
गिरधारी अग्रवाल

लोहार्गल – यहां पानी में गल गए थे पांडवों के अस्त्र-शस्त्र, मिली थी परिजनों की हत्या के पाप से मुक्त!!!!!!!
राजस्थान के शेखावटी इलाके के झुंझुनूं जिले से 70 कि. मी. दूर अरावली पर्वत की घाटी में बसे उदयपुरवाटी कस्बे से करीब दस कि.मी. की दूरी पर स्थित है लोहार्गल। जिसका अर्थ होता है जहां लोहा गल जाए। यह राजस्थान का पुष्कर के बाद दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ है। इस तीर्थ का सम्बन्ध पांडवो, भगवन परशुराम, भगवान सूर्य और भगवान विष्णु से है।
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, लेकिन जीत के बाद भी पांडव अपने परिजनों की हत्या के पाप से चिंतित थे। लाखों लोगों के पाप का दर्द देख श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि जिस तीर्थ स्थल के तालाब में तुम्हारे हथियार पानी में गल जायेंगे वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।
घूमते-घूमते पाण्डव लोहार्गल आ पहुँचे तथा जैसे ही उन्होंने यहाँ के सूर्यकुण्ड में स्नान किया, उनके सारे हथियार गल गये। इसके बाद शिव जी की आराधना कर मोक्ष की प्राप्ति की। उन्होंने इस स्थान की महिमा को समझ इसे तीर्थ राज की उपाधि से विभूषित किया।
यहां प्राचीन काल से निर्मित सूर्य मंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इसके पीछे भी एक अनोखी कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में काशी में सूर्यभान नामक राजा हुए थे, जिन्हें वृद्धावस्था में अपंग लड़की के रूप में एक संतान हुई।
राजा ने भूत-भविष्य के ज्ञाताओं को बुलाकर उसके पिछले जन्म के बारे में पूछा। तब विद्वानों ने बताया कि पूर्व के जन्म में वह लड़की मर्कटी अर्थात बंदरिया थी, जो शिकारी के हाथों मारी गई थी। शिकारी उस मृत बंदरिया को एक बरगद के पेड़ पर लटका कर चला गया, क्योंकि बंदरिया का मांस अभक्ष्य होता है।
हवा और धूप के कारण वह सूख कर लोहार्गल धाम के जलकुंड में गिर गई किंतु उसका एक हाथ पेड़ पर रह गया। बाकी शरीर पवित्र जल में गिरने से वह कन्या के रूप में आपके यहाँ उत्पन्न हुई है। विद्वानों ने राजा से कहा, आप वहां पर जाकर उस हाथ को भी पवित्र जल में डाल दें तो इस बच्ची का अंपगत्व समाप्त हो जाएगा।
राजा तुरंत लोहार्गल आए तथा उस बरगद की शाखा से बंदरिया के हाथ को जलकुंड में डाल दिया। जिससे उनकी पुत्री का हाथ स्वतः ही ठीक हो गया। राजा इस चमत्कार से अति प्रसन्न हुए। विद्वानों ने राजा को बताया कि यह क्षेत्र भगवान सूर्यदेव का स्थान है। उनकी सलाह पर ही राजा ने हजारों वर्ष पूर्व यहां पर सूर्य मंदिर व सूर्यकुंड का निर्माण करवा कर इस तीर्थ को भव्य रूप दिया।
यहां भगवान विष्णु ने लिया था मतस्य अवतार –यह क्षेत्र पहले ब्रह्मक्षेत्र था। माना जाता है कि यह वह स्थान है जहां भगवान विष्णु ने शंखासूर नामक दैत्य का संहार करने के लिए मत्स्य अवतार लिया था। शंखासूर का वध कर विष्णु ने वेदों को उसके चंगुल से छुड़ाया था। इसके बाद इस जगह का नाम ब्रह्मक्षेत्र रखा।
परशुराम जी ने भी किया था यहां प्रायश्चित –विष्णु के छठें अंशअवतार भगवान परशुराम ने क्रोध में क्षत्रियों का संहार कर दिया था, लेकिन शान्त होने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। तब उन्होंने यहां आकर पश्चाताप के लिए यज्ञ किया तथा पाप मुक्ति पाई थी।
मालकेतु बाबा की चौबीस कोसी परिक्रमा – यहाँ एक विशाल बावड़ी भी है जिसका निर्माण महात्मा चेतनदास जी ने करवाया था। यह राजस्थान की बड़ी बावड़ियों में से एक है। पहाड़ी पर सूर्य मंदिर के साथ ही वनखण्डी जी का मन्दिर है। कुण्ड के पास ही प्राचीन शिव मन्दिर, हनुमान मन्दिर तथा पाण्डव गुफा स्थित है।
इनके अलावा चार सौ सीढ़ियाँ चढने पर मालकेतु जी के दर्शन किए जा सकते हैं। श्रावण मास में भक्तजन यहाँ के सूर्यकुंड से जल से भर कर कांवड़ उठाते हैं। यहां प्रति वर्ष माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है।
भाद्रपद मास में श्रीकृषण जन्माष्टमी से अमावस्या तक प्रत्येक वर्ष लोहार्गल के पहाडो में हज़ारों लाखों नर-नारी 24 कोस की पैदल परिक्रमा करते हैं जो मालकेतु बाबा की चौबीस कोसी परिक्रमा के नाम से प्रसिद्ध है। पुराणों में परिक्रमा का महात्म्य अनंत फलदायी बताया है। अब यह परिक्रमा और ज्यादा प्रासंगिक है।
हरा-भरा वातावरण। औषधि गुणों से लबरेज पेड़-पौधों से आती शुद्ध-ताजा हवा और ट्रैकिंग का आनंद यहां है। और फिर खुशहाली की कामना से अनुष्ठान तो है ही। अमावस्या के दिन सूर्यकुण्ड में पवित्र स्नान के साथ यह परिक्रमा विधिवत संपन्न होती है।
एक सूफी फकीर को हमेशा कि आदत थी की अकेला भोजन नहीं करता था , हर किसी को निमंत्रण दे देता था, या बुला लाता था.
मगर एक दिन ऐसा हुआ बहुत खोजा लेकिन कोई मिला ही नहीं या तों लोग भोजन कर चुके थे या फिर भोजन करने जा रहे थे या कुछ कहीं निमंत्रित थे.
कोई राजी ही नहीं हुआ आने को और अकेले वह भोजन नहीं करता, किसी के साथ में भोजन करता बांट कर हि भोजन करता. unconditional love of god,
उसने सोचा आज भुखा ही रहना पड़ेगा तभी द्वार पर एक बूढे आदमी ने दस्तक दी और उसने कहा –मैं बहुत भुखा हूं ….!
क्या कुछ खाने को मिल सकता है. ..?
उसने कहा — मेरे धन्य भाग्य…!
आओं मैं प्रतिक्षा ही कर रहा था, जरुर तुम्हैं परमात्मा ने ही भेजा होगा उसकी करुणा अपरंपार है उसने मेहमान को बिठाया और थाली लगाई भोजन परोसा और मेहमान भोजन शुरु करने ही जा रहे थे कि उसने देखा कि इसने तो अल्लाह का नाम ही नहीं लिया .
भोजन के पहले अल्लाह का नाम तो लेना चाहिए प्रार्थना तो करनी चाहिये.
उसने उसका हाथ पकड़ लिया इससे पहले की कौर मूहँ में जाये उसने कहा- रुको,
आल्लाह का नाम नहीं लिया,
उस आदमी ने कहा –मैं अल्लाह आदि में भरोसा नहीं करता, कोई ईश्वर नहीं है तो मैं क्यों नाम लूं.
सुफी फकीर ने कहा –फिर भोजन न कर सकोगे और तभी अचानक अल्लाह की आवाज सुनाई पडी ‘ अरे पागल मैं इस आदमी को सत्त्तर साल से भोजन दे रहा हूं और इसने एक भी बार मेरा नाम नहीं लिया और तुने इसका बढ़ा हुआ हाथ पकड लिया
ये भुखा बूढा भोजन, और भोजन में भी शर्त बंदी. भोजन में भी तुने शर्त लगा दी
प्रेम में कोई शर्त नहीं होती है. तुझे अनुग्रहीत होना चाहिए कि इसने तेरा निमंत्रण स्वीकार किया अनुग्रह तो दूर रहा तु तो इस पर शर्त थोपने लगा तुझसे तो यह बुढ़ा बेहतर है ये भुखा रहने को राजी है लेकिन अपने उसूल के खिलाफ जाने को राजी नहीं है और जिसको मैं सत्त्तर साल से भोजन करा रहा हूं तु उसे एक दिन भोजन नहीं करा सका.
फकीर उस बुढ़े के चरणों मे गिर पडा — कहा आप भोजन करें मुझसे भुल हुई थी
धर्म के नाम पर शर्त नहीं लगाई जा सकती
परमात्मा बेशर्त हैं . उसकी कृपा और करुणा तुम्हारी किसी योग्यता के कारण नहीं होती उसकी करुणा उसका स्वभाव है तुम्हारा सवाल नहीं है.
गुलाब का फूल गुलाब की खूशबू देगा
जूही का फूल जूही की खूशबू देगा वह यह फिकर नहीं करता की पास से जो निकल रहा है वो इसके पात्र है या नहीं,
सुरज निकलेगा तो रोशनी होगी आस्तिक के लिए भी और नास्तिक के लिए भी, साधु के लिए भी असाधु के लिए भी, यह सुरज का लक्षण है
वो कुछ शर्त नहीं करता की नास्तिक के लिए अंधेरा रहेगा और आस्तिक के लिए दिन हो जाएगा.
परमात्मा का प्रेम बेशर्त होता है💕
गिरधारी अग्रवाल
आध्यात्मिक शिक्षाप्रद कथाएँ
भगवद्गान में विघ्न न डालें
प्राचीन काल में भुवनेश नाम का एक धार्मिक राजा हुआ था| उसने हजार अश्वमेघ और दस सहस्त्र वाजपेय यज्ञ किये थे तथा लाखों गायों का दान किया था|
उसके सोने के दान की भी कोई सीमा न थी| इस तरह राजा के धर्मकार्य महान् थे, किन्तु मोहवश राजा से एक बहुत बड़ा अधर्म हो गया| उसने नियम बना दिया था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य केवल वेदों से ही ईश्वर जी आराधना करें|
ये तीनों संगीत से ईश्वर की आराधना कभी न करें| यदि इनमें से कोई गान के द्वारा भगवान् की अर्चना करता हुआ पाया जायगा तो वह दण्डनीय होगा| संगीत से भगवान् की सेवा का अधिकार केवल शुद्र और महिलाओं को है|
संगीत की महिमा न जानने के कारण ही राजा के द्वारा ऐसे नियम बनाये गये थे| इस अज्ञान से राजा के किये-कराये यागादि सब-के-सब व्यर्थ हो गये| उसी के राज्य में हरिमित्र नामक एक ब्राह्मण रहते थे|वे भगवान् के प्रेमी भक्त थे| प्रेम में छके रहने के कारण उनके कण्ठ से कोई-न-कोई गीत निकलता रहता था| नदी के तटपर भगवान् की एक सुन्दर प्रतिमा थी| हरिमित्र उस प्रतिमा को देखकर बावले हो जाते और गा-गाकर उस मूर्ति की षोडशोपचार पूजा करते थे| उनके प्रेमसिक्त गीत से वहाँ का कण-कण आन्दोलित होता रहता था|
यह दृश्य राजा के कर्मचारियों ने देखा| उन्होंने राजा को यह समाचार सुनाया| अपने नियम का उल्लंघन होते देखकर राजा क्रोध से जल उठा| उसने उनकी पूजा को तहस-नहस करवा दिया और उनका सारा धन अपहृत कर लिया| साथ ही उन्हें देश से निष्कासित भी कर दिया|
मरने के बाद राजा ऊपर के लोकों में पहुँचा, तब उसे सम्मान तो मिला, किंतु भूख से उसकी अँतड़ी जलने लगी| उसे कुछ अच्छा नहीं लगता था| उसने यमराज से पूछा-‘महाराज! स्वर्ग में भी मुझे भूख-प्यास क्यों सता रही है, मैंने तो कोई पाप नहीं किया है, पुण्य-ही-पुण्य किये है?’ यमराज ने कहा-‘मोहवश तुम से एक बहुत बड़ा पाप हो गया है| तुमने एक भगवत्प्रेमी संत का तिरस्कार किया था| उसकी संगीत-साधना को भ्रष्ट किया था था, इससे तुम्हारे किये दान-यज्ञादि सब नष्ट हो गये| अब तुम्हारे सभी लोक भी नष्ट हो गये हैं| अब तो तुम्हें उल्लू बनकर पर्वत की कन्दरा में जाना होगा| वहाँ अपने मरे हुए शरीर को नोच-नोचकर खाना पड़ेगा| मन्वन्तरपर्यन्त तुम्हें घोर नरक में भी रहना पड़ेगा| उसके बाद तुम्हारा कुत्ते की योनि में जन्म होगा|’ ऐसा कहकर यमराज अन्तर्हित हो गये|
यमराज के अन्तर्धान होने के बाद राजा उल्लू बनकर पर्वत की कन्दरा में जा गिरा| वह भूख से अंधा हो रहा था| उसी अवसर पर उसका मृतक शरीर उसके पास उपस्थित हो गया| ज्यों ही वह उसे खाने के लिये आगे बढ़ा, त्यों ही संयोग से हरिमित्र का चमकता हुआ विमान उधर से निकला| अप्सराएँ उनकी स्तुति कर रहीं थीं और विष्णु के दूत सम्मान के साथ उन्हें उस विमान से वैकुण्ठ ले जा रहे थे| सन्त हरिमित्र की दृष्टि राजा भुवनेश के शव पर पड़ी| पास में ही वह उल्लू भी दीख पड़ा| संत सबपर दया करते हैं| अपने मारनेवाले पर भी वे दया ही करते हैं| राजा के उस शरीर को बुरी दशा में देखकर उन्हें दया आयी| उन्होंने उल्लू से पूछा-‘पक्षी! यह राजा भुवनेश का शरीर है, इसे तू कैसे खा रहा है?’
उल्लू ने रो-रोकर अपनी सारी घटना सुना दी| उपसंहार में उसने कहा कि ‘मैंने तुम्हारी और संगीत की जो दुर्गति की है, उसी के फलस्वरूप मैं उल्लू बना हूँ और भूख से पीड़ित होकर अपना ही शरीर खाने के लिये विवश हूँ| मेरे सारे धर्म के कार्य नष्ट हो गये हैं|
दयालु सन्त ने कहा-‘राजन! मैंने तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर दिये| अब तुम्हें कुत्ते आदि की योनियाँ नहीं मिलेंगी| यह मुर्दा भी अब तुम्हें नहीं खाना पड़ेगा, प्रत्युत योग्य भोजन मिलेगा| मेरे प्रसाद से तुम्हें गानयोग की प्राप्ति होगी| उससे विष्णु की स्तुति कर तुम कृतार्थ होगे| अन्तः में तुम गाना के आचार्य भी होगे|’
संत हरिमित्र का कथन समाप्त होते ही सब नारकीय कष्ट लुप्त हो गये| उल्लू गानबन्धु बनकर ब्रम्हास्वाद में रत होकर रसविशेष को उल्लसित करने लगा|

🌞सूर्य और सात घोड़े…..🌞
🌞 अद्भुत है सूर्य रथ के सात घोड़ों से जुड़ा विज्ञान !!
🌞 रोचक तथ्य
हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं तथा उनसे जुड़ी कहानियों का इतिहास काफी बड़ा है या यूं कहें कि कभी ना खत्म होने वाला यह इतिहास आज विश्व में अपनी एक अलग ही पहचान बनाए हुए है। विभिन्न देवी-देवताओं का चित्रण, उनकी वेश-भूषा और यहां तक कि वे किस सवारी पर सवार होते थे यह तथ्य भी काफी रोचक हैं।
🌞 सूर्य रथ
हिन्दू धर्म में विघ्नहर्ता गणेश जी की सवारी काफी प्यारी मानी जाती है। गणेश जी एक मूषक यानि कि चूहे पर सवार होते हैं जिसे देख हर कोई अचंभित होता है कि कैसे महज एक चूहा उनका वजन संभालता है। गणेश जी के बाद यदि किसी देवी या देवता की सवारी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है तो वे हैं सूर्य भगवान।
🌞 क्यों जुते हैं सात घोड़े
सूर्य भगवान सात घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार होते हैं। सूर्य भगवान जिन्हें आदित्य, भानु और रवि भी कहा जाता है, वे सात विशाल एवं मजबूत घोड़ों पर सवार होते हैं। इन घोड़ों की लगाम अरुण देव के हाथ होती है और स्वयं सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं।
🌞 सात की खास संख्या
लेकिन सूर्य देव द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती है? क्या इस सात संख्या का कोई अहम कारण है? या फिर यह ब्रह्मांड, मनुष्य या सृष्टि से जुड़ी कोई खास बात बताती है। इस प्रश्न का उत्तर पौराणिक तथ्यों के साथ कुछ वैज्ञानिक पहलू से भी बंधा हुआ है।
🌞 कश्यप और अदिति की संतानें
सूर्य भगवान से जुड़ी एक और खास बात यह है कि उनके ११ भाई हैं, जिन्हें एकत्रित रूप में आदित्य भी कहा जाता है। यही कारण है कि सूर्य देव को आदित्य के नाम से भी जाना जाता है। सूर्य भगवान के अलावा ११ भाई ( अंश, आर्यमान, भाग, दक्ष, धात्री, मित्र, पुशण, सवित्र, सूर्या, वरुण, वमन, ) सभी कश्यप तथा अदिति की संतान हैं।
🌞 वर्ष के १२ माह के समान
पौराणिक इतिहास के अनुसार कश्यप तथा अदिति की ८ या ९ संतानें बताई जाती हैं लेकिन बाद में यह संख्या १२ बताई गई। इन १२ संतानों की एक बात खास है और वो यह कि सूर्य देव तथा उनके भाई मिलकर वर्ष के १२ माह के समान हैं। यानी कि यह सभी भाई वर्ष के १२ महीनों को दर्शाते हैं।
🌞 सूर्यदेव की दो पत्नियां
सूर्य देव की दो पत्नियां – संज्ञा एवं छाया हैं जिनसे उन्हें संतान प्राप्त हुई थी। इन संतानों में भगवान शनि और यमराज को मनुष्य जाति का न्यायाधिकारी माना जाता है। जहां मानव जीवन का सुख तथा दुख भगवान शनि पर निर्भर करता है वहीं दूसरी ओर शनि के छोटे भाई यमराज द्वारा आत्मा की मुक्ति की जाती है। इसके अलावा यमुना, तप्ति, अश्विनी तथा वैवस्वत मनु भी भगवान सूर्य की संतानें हैं। आगे चलकर मनु ही मानव जाति का पहला पूर्वज बने।
🌞 सूर्य भगवान का रथ
सूर्य भगवान सात घोड़ों वाले रथ पर सवार होते हैं। इन सात घोड़ों के संदर्भ में पुराणों तथा वास्तव में कई कहानियां प्रचलित हैं। उनसे प्रेरित होकर सूर्य मंदिरों में सूर्य देव की विभिन्न मूर्तियां भी विराजमान हैं लेकिन यह सभी उनके रथ के साथ ही बनाई जाती हैं।
🌞 कोणार्क मंदिर
विशाल रथ और साथ में उसे चलाने वाले सात घोड़े तथा सारथी अरुण देव, यह किसी भी सूर्य मंदिर में विराजमान सूर्य देव की मूर्ति का वर्णन है। भारत में प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर भगवान सूर्य तथा उनके रथ को काफी अच्छे से दर्शाता है।
🌞 सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं
लेकिन इस सब से हटकर एक सवाल काफी अहम है कि आखिरकार सूर्य भगवान द्वारा सात ही घोड़ों की सवारी क्यों की जाती हैं। यह संख्या सात से कम या ज्यादा क्यों नहीं है। यदि हम अन्य देवों की सवारी देखें तो श्री कृष्ण द्वारा चालए गए अर्जुन के रथ के भी चार ही घोड़े थे, फिर सूर्य भगवान के सात घोड़े क्यों? क्या है इन सात घोड़ों का इतिहास और ऐसा क्या है इस सात संख्या में खास जो सूर्य देव द्वारा इसका ही चुनाव किया गया।
🌞 सात घोड़े और सप्ताह के सात दिन
सूर्य भगवान के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम हैं – गायत्री, भ्राति, उस्निक, जगति, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति। कहा जाता है कि यह सात घोड़े एक सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं। यह तो महज एक मान्यता है जो वर्षों से सूर्य देव के सात घोड़ों के संदर्भ में प्रचलित है लेकिन क्या इसके अलावा भी कोई कारण है जो सूर्य देव के इन सात घोड़ों की तस्वीर और भी साफ करता है।
🌞 सात घोड़े रोशनी को भी दर्शाते हैं
पौराणिक दिशा से विपरीत जाकर यदि साधारण तौर पर देखा जाए तो यह सात घोड़े एक रोशनी को भी दर्शाते हैं। एक ऐसी रोशनी जो स्वयं सूर्य देवता यानी कि सूरज से ही उत्पन्न होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य के प्रकाश में सात विभिन्न रंग की रोशनी पाई जाती है जो इंद्रधनुष का निर्माण करती है।
🌞 बनता है इंद्रधनुष
यह रोशनी एक धुर से निकलकर फैलती हुई पूरे आकाश में सात रंगों का भव्य इंद्रधनुष बनाती है जिसे देखने का आनंद दुनिया में सबसे बड़ा है।
🌞 प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न
सूर्य भगवान के सात घोड़ों को भी इंद्रधनुष के इन्हीं सात रंगों से जोड़ा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हम इन घोड़ों को ध्यान से देखें तो प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है तथा वह एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है। केवल यही कारण नहीं बल्कि एक और कारण है जो यह बताता है कि सूर्य भगवान के रथ को चलाने वाले सात घोड़े स्वयं सूरज की रोशनी का ही प्रतीक हैं।
🌞 पौराणिक गाथा से इतर
यदि आप किसी मंदिर या पौराणिक गाथा को दर्शाती किसी तस्वीर को देखेंगे तो आपको एक अंतर दिखाई देगा। कई बार सूर्य भगवान के रथ के साथ बनाई गई तस्वीर या मूर्ति में सात अलग-अलग घोड़े बनाए जाते हैं, ठीक वैसा ही जैसा पौराणिक कहानियों में बताया जाता है लेकिन कई बार मूर्तियां इससे थोड़ी अलग भी बनाई जाती हैं।
🌞 अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति
कई बार सूर्य भगवान की मूर्ति में रथ के साथ केवल एक घोड़े पर सात सिर बनाकर मूर्ति बनाई जाती है। इसका मतलब है कि केवल एक शरीर से ही सात अलग-अलग घोड़ों की उत्पत्ति होती है। ठीक उसी प्रकार से जैसे सूरज की रोशनी से सात अलग रंगों की रोशनी निकलती है। इन दो कारणों से हम सूर्य भगवान के रथ पर सात ही घोड़े होने का कारण स्पष्ट कर सकते हैं।
🌞 सारथी अरुण
पौराणिक तथ्यों के अनुसार सूर्य भगवान जिस रथ पर सवार हैं उसे अरुण देव द्वारा चलाया जाता है। एक ओर अरुण देव द्वारा रथ की कमान तो संभाली ही जाती है लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख कर के ही बैठते है !
🌞 केवल एक ही पहिया
रथ के नीचे केवल एक ही पहिया लगा है जिसमें १२ तिल्लियां लगी हुई हैं। यह काफी आश्चर्यजनक है कि एक बड़े रथ को चलाने के लिए केवल एक ही पहिया मौजूद है, लेकिन इसे हम भगवान सूर्य का चमत्कार ही कह सकते हैं। कहा जाता है कि रथ में केवल एक ही पहिया होने का भी एक कारण है।
🌞 पहिया एक वर्ष को दर्शाता है !
यह अकेला पहिया एक वर्ष को दर्शाता है और उसकी १२ तिल्लियां एक वर्ष के १२ महीनों का वर्णन करती हैं। एक पौराणिक उल्लेख के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के समस्त ६० हजार वल्खिल्या जाति के लोग जिनका आकार केवल मनुष्य के हाथ के अंगूठे जितना ही है, वे सूर्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा करते हैं। इसके साथ ही गांधर्व और पान्नग उनके सामने गाते हैं औरअप्सराएं उन्हें खुश करने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती हैं।
🌞 ऋतुओं का विभाजन
कहा जाता है कि इन्हीं प्रतिक्रियाओं पर संसार में ऋतुओं का विभाजन किया जाता है। इस प्रकार से केवल पौराणिक रूप से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों से भी जुड़ा है भगवान सूर्य का यह विशाल रथ। 🌻 ।। जय श्री कृष्ण ।। 🌻